वक्त अपनी रफ्तार से गुजर रहा था। मुझे यहाँ आए ढेड़ साल से ऊपर हो गया था। अब मैं अखबार इंटरनेट छोड़ कर अपने आसपास ढूँढने लगा था। कहना गलत ना होगा अगर मैं कहूँ कि मेरी हालत जवान लड़की के बाप जैसी हो रही थी। क्षमा चाहता हूँ वैसे संयुक्त परिवार में रहने के कारण मुझे इस दबाव का कोई अनुभव नहीं हैं। मैं बस आभा को खुश देखना चाहता था उसे उसके हिस्से की खुशियाँ देना चाहता था। आप पूछ सकते हैं कि मैंने उनसे शादी क्यों नहीं की ?यह मैं भी समझता था और आप भी समझ सकते हो कि वह मेरी दोस्ती में ज्यादा खुश ज्यादा महफूज थी। उनको वह खुशियाँ वह आदरमान मुझसे शादी करके नहीं मिल सकता था।
वैसे संयुक्त परिवार से मुझे मेरे सबसे बड़े ताऊ जी के बेटे याद आ गये। उनकी शादी भी अभी तक नहीं हुई हैं शायद उन्होंने की नहीं। क्यों . . ? क्या पता . . . वैसे माँ से एक बार पूछा था मैंने तो माँ ने बताया था जिस लड़की के साथ शादी होने जा रही थी, उसकी शादी से दो दिन पहले साँप के काटने से मृत्यु हो गयी। तब साँप के काटने पर शव की क्रिया नहीं करते थे, उसे नदी में प्रवाहित कर देते थे। इस विश्वास के साथ कि नदी में प्रवाहित करने से साँप का जहर उतर जाता है। भैया भी इसी विश्वास के चलते कि जिसके नाम की हल्दी लगी है उसका साल भर इंतजार करना तो बनता हैं।
उनके इस विश्वास को लोगों के अंधविश्वास ने यह कहकर हवा दी कि वैसी ही लड़की तीन चार गाँव आगे देखने में मिली है। यह जानते हुए भी कि जाने वाले लौट कर नहीं आते हैं, भैया और उस लड़की के परिवार वालों ने भी नदी के किनारे किनारे बहुत दूर तक लोगों के कहने के कारण लड़की की खोज की । पढ़े-लिखे भैया भी इन लोगों के कारण किस अंधविश्वास में फंस गए ? मैं कभी समझ नहीं पाया। पर अब लगता है शायद यह उनका पहला कच्ची उम्र का प्यार था। जिसने उनको शादी के बंधन में बंधने ही नहीं दिया। यह सब सोच विचार कर कि अबकी बार जब मैं गाँव जाऊँगा तो जाकर भैया से शादी की बात चलाऊँगा । मैं यह भी विचार कर रहा था कि मुझे पहले भैया से पूछना चाहिए या आभा से ? कि वह यहाँ अपनी परवरिश के माहौल से इतनी दूर वहाँ जाना पसंद करेंगी ? यह सब बाद की बात है मुझे लगता है मुझे पहले भैया से बात करनी चाहिए।
उस दिन आफिस से आने के बाद मैंने उनको नहीं देखा, होगा कहीं गयी होगीं। दूसरे दिन भी नहीं दिखी तो फोन ट्राई किया फोन भी स्वीच ऑफ । लगभग एक हफ्ते बाद उनका दरवाजा खुला दिखा। मैं अन्दर गया आवाज लगायी आभा. . . । वहाँ दो तीन लोग थे । उनके चेहरे पर पता नहीं मेरे लिये या स्थायी अप्रसन्नता के भाव थे। वह नहीं दिखी तो मैं उन लोगों को सॉरी बोलकर चला आया। दो दिन बाद उनका फोन आया तब उन्होंने बताया कि उनको आफिस में अटैक जैसा आया था। आफिस वालों ने उनके ससुराल वालों को सूचना दी। यहाँ प्राथमिक चिकित्सा के बाद ससुराल वाले अच्छे उपचार के लिए उन्हें बड़े शहर के अस्पताल में ले गये साथ में उनके मायके वालों को भी फोन कर दिया।
मैनें बोला, "यह तो अच्छा किया । सही समय पर आपको सही चिकित्सा मिल गयी"।
वह पता नहीं अपने आप से या मुझसे बोली, "नहीं मेरे घरवालों को कितनी परेशानी उठानी पड़ी। यहाँ रहती तो रहने की परेशानी नहीं होती। वहाँ मेरे भाई बहन को होटल लेकर रहना पड़ा। अस्पताल का बिल भी बहुत आया"।
मैंने पूछा तो क्या बिल मायके वालों काे भरना पड़ा ?
वह बोली, "नहीं उन लोगों के पास इतने पैसे कहाँ । अस्पताल और होटल दोनों का बिल तो मैंने ही भरा"।
मैं फिर सोच रहा था कि क्या जरूरत थी सबको आकर रुकने की । वह एक एक कर बारी बारी से अस्पताल में भी रुक सकते थे। क्या आभा की जान की कोई कीमत नहीं हैं उसके मायके वालों के लिए। मेरे हिसाब से तो ससुराल वालों ने बड़े शहर ले जाकर अच्छा किया।
खैर आभा बोल रहीं थी, कि मेरे घरवालों को तुम्हारा आना पंसद नहीं आया। उनके जाने के बाद मैं फोन करुँगी। अभी वह लोग घूमने गये हैं तो मैं तुम्हें फोन कर पायी।
मैने कहाँ ठीक है पर कुछ भी जरूरत लगे तो फोन करना।
कुछ दिनों बाद आभा का फोन आया सब लोग गये। आज रात का खाना साथ ही खाते हैं।
मैंने कहा, "ठीक हैं पर तुम मत बनाना । मैं देखता हूँ"। अब तक मैं थोड़ा खाना बनाना सीख गया था। आभा की पसंद की भाजी थोड़ी कम तेल मसाले वाली, बाकी टिफीन तो लगा ही था तो दो लोगों का खाना मंगा लिया था, लेकर मैं उनके घर पहुँच गया। उनको देखकर पूछा, "और तबीयत कैसी हैं अभी दवाईयाँ बराबर ले रहीं हो ना, आफिस से थोड़ी छुट्टी ले लो । ठीक से आराम करो । अब से तलाभुना बाजार का खाना बन्द"।
वह मुझे देखते हुए बोली, "कौन हैं तू ? मेरा तेरा तो कोई नाता भी नहीं है। तू कितना ख्याल रखता है मेरा। मेरे भाई बहन तो जितने दिन थे बस बाहर से मंगा कर ही खाते थे कि कौन बनाए। मैं अपने लिए खिचड़ी डाल लेती थी"।
मैंने कहा, "चलो जाने दो उनकी बातें । चलो आज आराम से खाना खाओ। कुछ और चाहिए हो तो मैं बना देता हूँ।
खाना खाने के बाद सब सामान समेटकर (हाँ जब भी मैं वहाँ खाना खाता था उनके साथ उनका काम भी समेट देता था। मुझे मालुम था वह अकेली है और कोई कामवाली भी नहीं लगा रखी हैं। और अभी तो खैर बीमार भी थी) मैं निकलने ही वाला था कि वह बोली थोड़ी देर बैठो ना । फिर वह अंदर से जाकर एक खूब बड़ी सी पोटली ले आई । मुझे लगा पुरानी तस्वीरें होंगी । उन्होंने पोटली खोली तो अंदर बहुत सारे गहने थे । उसमें से एक बड़ा सा हार उठाकर मेरे हाथ में पकड़ाती हुई बोली, "यह सारे गहने मुझे मेरी शादी में ससुराल की तरफ से मिले थे। यह ले ले जब तेरी शादी होगी तो मेरी तरफ से तेरी पत्नी को पहना देना" ।
मैं पहले तो थोड़ा आश्चर्यचकित हो गया फिर मुस्कराते हुए बोला, "आज अचानक से मेरी पत्नी की याद कैसे आ गई ? मैंने हार उनके हाथों में वापस पकड़ते हुए बोला, "जब मेरी पत्नी आएगी तब तुम उसे अपने हाथों से पहना देना"।
वह बोली, "तू बोल रहा था ना कि तू चला जाएगा" ।
मैंने कहा, "तो क्या हुआ तुम मेरी शादी में आना। नहीं तो शादी हो जाएगी तब मैं पत्नी को लेकर आऊँगा ना अपनी गर्लफ्रेंड से मिलवाने के लिए"। वह हंसते हंसते रो रही थी यह रोते रोते हँस रही थी, समझ में नहीं आ रहा था । '
इतने सारे गहने देखकर मेरा तो दिल धक-धक कर रहा था। मैंने गहनों की पोटली वापस बाँधकर उनके हाथों में देते हुए कहा, "इसे घर में क्यों रखा है ? बैंक में रख दो । घर में रखना बहुत जोखिम का है। वह बोली, "सोच रही हूँ कि सारे गहने ससुराल वालों को वापस कर दूँ"।
मैंने माहौल थोड़ा हल्का करते हुए कहा, "क्यों जब शादी करोगी तब क्या गहने नहीं पहनोगी? तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी दूसरी ससुराल वाले भी इतने ही अमीर होंगे"।
वह हंसते हुए बोली, "तू मेरी शादी करवा कर ही मानेगा लगता है । फिर बोली तुझे मालूम है मैंने यह दोनों फ्लैट भाई और बहन के नाम पर कर दिए हैं ।
मैंने कहा, "अच्छा किया यह तो बहुत खुशी की बात है । अब तो मुझे तुम्हारे लिए कोई अच्छे घर वाला लड़का ढूंढना ही पड़ेगा नहीं तो तुम रहोगी कहाँ" ?
वह गुस्से में बोली, "मरने के बाद उनके नाम पर होंगे, अभी तो मेरे नाम पर ही है । तुझे मालूम भी है वह क्या कह रहे थे ? कि तू घर पर आता जाता है कहीं किसी दिन गलती से बहला-फुसलाकर यह दोनों फ्लैट अपने नाम पर करवा लेगा"।
सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया पर उस बेचारी से क्या कहता, ठीक है जिसकी जैसी सोच । फिर मुझे लगा कि आज के ज़माने में एक अनजान के लिए घरवालों की सोच सहीं भी हैं। किसी के माथे पर थोड़ी ना लिखा है कि वह कैसा है।
मैंने कहा, "वैसे वो लोग गलत नहीं हैं। ज़माना खराब है और वो तुम्हारा भला चाहते हैं। अब देखों ना कैसे अपने सारे गहने तुम एक अनजान के सामने खोलकर रख दी। और देखों तुम गहने मुझे देने को तैयार भी हो" ।
वह बोलीं, "नहीं डरती हूँ कि कहीं कल को गहने भी किसी ने माँगे तो ? अभी उन लोगों को नहीं मालुम है कि गहनें मेरे पास है । तुझे मालुम है वो जब भी आते हैं सिर्फ अपनी परेशानियों की बातें करते हैं, रोना रोते हैं। फिर कभी बच्चों की फीस कभी माँ की बीमारी के नाम पर पैसे मांगते रहते हैं। मुझे देना खराब नहीं लगता पर उनका वह कहना तुम क्या करोगी ? कहीं अंदर तक चुभ जाता है। मेरी सारी मंहगी मंहगी साडियाँ उठा ले गये कि तुम इतने चटक रंगों की भारी साडियाँ क्या करोगीं ? क्यों क्या मेरा मन नहीं करता। और अब तो सभी पहनते हैं । अब तो समाज भी विधवा के पहनने ओढ़ने पर कोई सवाल नहीं करता तो फिर उन लोगों को क्या परेशानी हैं ?
तुझे लेकर भी ना जाने कैसी कैसी बाते बोल रहें थे। खुद तो परिवार के साथ खुश हैं जब कुछ चाहिए होता हैं तब आभा याद आती हैं। चार पल मैं हँसी खुशी जी लेती हूँ तुम्हारे साथ तो क्या गलत करती हूँ। इसमें क्या परिवार की नाक कट गयी ? नाक ही कटवानी होती तो क्या अब तक इंतजार करते बैठी होती I बोल रहें थे कि तुम को मेरे ससुराल वालों ने भेजा है कि जिससे होटल पर उनका कब्जा हो जायें।
मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न पड़ चुका था लोग क्या क्या सोच लेते हैं ।
पर वह धाराप्रवाह बोलती जा रहीं थी इतने गुस्से इतने आवेश में मैंने उन्हें पहली बार देखा था। वर्षों से लगी हुई वेदना की गाँठे खुल रही थी । वह बोली , "वह लोग तो मेरे ससुराल वालों को भी कितना सुनाकर आए कि क्या जरूरत थी जरा सी बात में बड़े अस्पताल में ले जाने की। कितना भी कर लो होटल तो तुम्हें आभा के नाम करना ही पड़ेगा नहीं तो कोर्ट में देख लेंगे। इतने सालों से चुपचाप सुनने वाले मेरे ससुराल वालों ने भी बोल दिया कि हम तो मानवता के नाते कि समाज हमें गलत ना कहें कर देते थे अब कुछ हुआ तो हम झाँकने भी नहीं आयेंगे। अब कोर्ट में ही मिल लेना।
पहली बार मैंने उनके चेहरे को अपने दोनों हाथ में पकड़ कर बोला, "तुम मुझे बहुत असुरक्षित लगती हो अपनों के बीच में। मुझे जल्द से जल्द तुम्हारे लिए कोई ढूंढना पड़ेगा जो तुम्हारे फ्लैट और गहनों की नहीं तुम्हारी चिंता करेगा।
क्रमश:
मौलिक एंव स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️