आभार स्वभाव की बहुत प्राकृतिक एवम व्याव्हारिक प्रतिक्रिया हैI शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक, भौतिक छोटी–बड़ी जरूरतों के लिए आँख खुलने से लेकर बंद होने तक, जीवन की पहली साँस लेने से लेकर अन्तिम साँस तक हम पराश्रित हैं, कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्षI व्याव्हारिक इसलिए कि, ’आभार’ घुट्टी की तरह व्यवहार मे पिलाया गया हैI एक तहजीब है, थैंक यू, शुक्रिया, धन्यवाद कहकर अपने को बड़ा हल्का महसूस करते हैंI
मात्र ‘शब्दों‘ में बोले गए आभार को छोड़ दें, अन्यथा आभार विशुद्ध आध्यात्मिक क्रिया हैI जिन्दगी में जिससे जो मिला है, कहीं न कहीं वापस देते जाएँ, आभार व्यक्त करते जाएँ अपना कुछ बचेगा ही नहीं, यही भाव हमारे संस्कारों का परिमार्जन करता हैI
अपनों पर अपना हक़ समझते हैं इसलिए आभार बड़ा औपचारिक लगता हैI उनके प्रति आभार व्यक्त करने में सर्वाधिक कृपणता करते हैंI
आभार है जननी–जनक माता–पिता का, ये जीवन उनका अंश है जिसे जीने का हक़ उन्होंने दिया, कलम हाथ में न दी होती तो क्या ये आज लिख पातीI आभार भाई बहिनों का, मित्रो, परिवार–परिवेश का, जो जीवन के हर मोड़ पर किसी न किसी रूप में साथ हैं, जिनसे जीवन में कुछ करने का उत्साह मिला I
आभार उन गुरुओं का जो अपनी सामर्थ्य भर ज्ञान से हमारी अंजुली को भरते रहेI किसी एक का नाम लेकर दूसरे की उपेक्षा का पाप नहीं कर सकतेI
आभार, जीवन के सहयात्री ले०कर्नल गोपाल चतुर्वेदी [अवकाश प्राप्त] का, जिन्होंने जिम्मेवारी के हर मोर्चे को सम्भालने में यथा संभव बराबर की साझेदारी न निभाई होती, तो कोई भी मुकाम हासिल करना मुश्किल होताI सैनिक अधिकारी की पत्नी होने के कारण भौगोलिक अस्थिरता तो बनी रही, फौजी भी बंजारे ही होते हैं ,उनके साथ रोज बदलते शहर, जहाँ जैसी जमीं मिली, शब्द अपने लिए भी जगह आप बनाते रहेI लेखन यात्रा अनवरत जारी रहीI पारिवारिक जीवन के सामंजस्य में लेखन और अध्यापन के बीच सुर-ताल कभी बिगड़े नहींI
आभार, पांडुलिपि को पढने, उसमे महत्वपूर्ण एवं ईमानदारी से सुझाव एवं संशोधन देने के लिए हमारी संवेदनशील मित्र कलाकार कल्पना नौटियाल, सक्रिय, ऊर्जावान, सदैव सहयोगी दोनों बेटियाँ एका-इशिता एवं उनके सहयात्री बेटे सिद्धार्थ एवं राघव का, जिन्होंने हमारे अन्दर के सच को ‘हम जैसे हैं वैसे हैं ‘ बड़ी सच्चाई एवं ईमानदारी से सम्मान दियाI हमारे लिए उससे महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं हैI लिखने के लिए ये सच्चाई और ईमानदारी बहुत जरूरी होती है, ऐसा हमारा मानना हैI
दौहित्री ओइशी–तविषी एवं दौहित्र कैरव-कीवा ने जीवन को सम्पूर्णता दीI ओइशी के उत्साह, और तविषी ने कवर डिजाइन में और कैरव-कीवा ने नानी के बाल संकलन से हिन्दी की कविताएँ याद करके, आंतरिक तृप्ति दी हैI
ये पुस्तक समर्पित है हमारी उन तीनों स्व० बुजुर्ग माताओं को, जो परिवार के रूप में हमें विवाह के साथ मिला था, ‘जिनका जीवन स्वयं ही काव्य रहा’ जिनके साथ अपने संबंधों को सदैव रिश्ते के सीमित दायरे से ऊपर रखाI जीवन और रिश्ते दोनो आसान हो गयेI उन रिश्तों के निर्वहन में हमने बहुत कुछ सीखा, इसलिए रिश्तों को कोई नाम देना अर्थहीन हो जाता हैI वे एक इकाई थीं, किसी को रिश्ते विशेष से बुलाने में दूसरे की अनायास उपेक्षा हो जाती थी, ये पीड़ा हमने उनकी आँखों में देखी या दिल से महसूस की, वे सिर्फ माताएँ थींI जिनके होने से दोनों बेटियों को चार पीढ़ी के संयुक्त परिवार में परवरिश मिली, संस्कार मिलेI वो आज उनके अपने जीवन में उन चुनौतियो का सामना करते समय बहुत काम आएँगे, ऐसा हमारा विश्वास हैI हर कहानी का जन्म हमारे इसी परिवेश से ही होता हैI
आभार लखनऊ की साहित्यिक तासीर को, जिसने हर दिन कभी पाठक तो कभी श्रोता–कभी दर्शक तो कभी आयोजक, पत्रकार-कवि–लेखक के रूप में मेधा को रगड्ने का खूब मौका दियाI साहित्य के अनेक स्वादो को तृप्ति दी, साथ में ‘और पाने’ की भूख दी, जिसके बिना कोई लेखन सम्भव नहीI
आभार कादम्बिनी क्लब परिवार के प्रति, जिस मंच से हम सबने अपनी सृजन क्षमता को परिपक्वता दीI
आभार अपनी स्वयम सेवी संस्था “ईवा“ का जहाँ सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर संवेदनशील सदस्यो की टीम के साथ आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओ एवम बच्चो को शिक्षा, संस्कार देने के साथ, रोजगार देने के छोटे–छोटे प्रयासो में हमे जिंद्गी को बहुत नज़दीक से देखने का मौका मिलाI सामाजिक सरोकार ने जमीनी सच से हर पल रूबरू करायाI
कहानी भाव के धरातल पर ही जन्म लेती हैI
दो तिहाई जिंदगी जी चुके हैं, चौथे आश्रम में हैंI शेष बोनस की जिन्दगी से, उन सामाजिक सरोकारों को जो मेरे जीवन के बहुत नजदीक रहे, अवचेतन मन के भीतर छुपे वे मन्तव्य, हमारी बात, आपकी बात बन कर, सबकी बात बन सकेI तो समझेंगे की लेखनी सार्थक रहीI
हमने जीवन को समग्रता में जिया है, अकेले हम कुछ नहीं हैंI व्याकरणिक दृष्टि से ‘मैं’ स्वयं के लिए लिखना चाहिए, लेकिन देशी संस्कृति है शायद, ‘मैं’ अहम् ‘अहंकार‘ के नजदीक लगता है, इसलिए ‘अ‘ उपसर्ग को हटाकर अपने को ‘हम‘ के अधिक नजदीक पाया हैI व्याकरण की गलती करने से जिन्दगी सही होती है तो घाटे का सौदा नहीं हैI
हमारी बात, आपकी बात बन कर, सबकी बात बन सकेI तो समझेंगे की लेखनी सार्थक रहीI
अब तो आस–पास जितना कुछ जिस तरह बहुत कुछ घट रहा, उसे कागज पर उतारने में दुनिया भर की लेखनी कम पड़ जायेंगी, ईश्वर न करे, वो दिन कभी आये की लोग कहें “ लद गए वो दिन, जब कहा जाता था, जो काम तलवार नहीं कर सकती, वो कलम कर सकती हैI अब तो लेखनी सिर्फ वो लिखेगी, जो तलवार करेगी. “ ये मेरे मन का भय हैI भय निर्मूल हो! ऐसा मेरी कामना है, प्रार्थना!
अंत में अपने पाठकों को यह संग्रह समर्पित करते हैंI
“ वे पाठक, जिन्हें सदैव अपना माना है
मन के भावों को जिनके लिए
कलम में उतारा है
लिखा कितना भी
बस जिसे पाठक ने पढ़ा
उसी को साहित्य माना है
कलम के तरकश से निकले बाण
यदि ह्रदय को बींध सकें
चीर कर दिल के भीतर तक समा जाएँ
दिल से निकल कर जुबान की भाषा बन जाएँ
तो ये यात्रा पूरी होगी
वरना कलम अधूरी होगीI
मधु चतुर्वेदी
प्राक्कथन