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आभार

14 अक्टूबर 2022

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आभार स्वभाव की बहुत प्राकृतिक एवम व्याव्हारिक प्रतिक्रिया हैI शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक, भौतिक छोटी–बड़ी जरूरतों के लिए आँख खुलने से लेकर बंद होने तक, जीवन की पहली साँस लेने से लेकर अन्तिम साँस तक हम पराश्रित हैं, कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्षI व्याव्हारिक इसलिए कि, ’आभार’ घुट्टी की तरह व्यवहार मे पिलाया गया हैI एक तहजीब है, थैंक यू, शुक्रिया, धन्यवाद कहकर अपने को बड़ा हल्का महसूस करते हैंI
मात्र ‘शब्दों‘ में बोले गए आभार को छोड़ दें, अन्यथा आभार विशुद्ध आध्यात्मिक क्रिया हैI जिन्दगी में जिससे जो मिला है, कहीं न कहीं वापस देते जाएँ, आभार व्यक्त करते जाएँ अपना कुछ बचेगा ही नहीं, यही भाव हमारे संस्कारों का परिमार्जन करता हैI
अपनों पर अपना हक़ समझते हैं इसलिए आभार बड़ा औपचारिक लगता हैI उनके प्रति आभार व्यक्त करने में सर्वाधिक कृपणता करते हैंI
आभार है जननी–जनक माता–पिता का, ये जीवन उनका अंश है जिसे जीने का हक़ उन्होंने दिया, कलम हाथ में न दी होती तो क्या ये आज लिख पातीI आभार भाई बहिनों का, मित्रो, परिवार–परिवेश का, जो जीवन के हर मोड़ पर किसी न किसी रूप में साथ हैं, जिनसे जीवन में कुछ करने का उत्साह मिला I
आभार उन गुरुओं का जो अपनी सामर्थ्य भर ज्ञान से हमारी अंजुली को भरते रहेI किसी एक का नाम लेकर दूसरे की उपेक्षा का पाप नहीं कर सकतेI
आभार, जीवन के सहयात्री ले०कर्नल गोपाल चतुर्वेदी [अवकाश प्राप्त] का, जिन्होंने जिम्मेवारी के हर मोर्चे को सम्भालने में यथा संभव बराबर की साझेदारी न निभाई होती, तो कोई भी मुकाम हासिल करना मुश्किल होताI सैनिक अधिकारी की पत्नी होने के कारण भौगोलिक अस्थिरता तो बनी रही, फौजी भी बंजारे ही होते हैं ,उनके साथ रोज बदलते शहर, जहाँ जैसी जमीं मिली, शब्द अपने लिए भी जगह आप बनाते रहेI लेखन यात्रा अनवरत जारी रहीI पारिवारिक जीवन के सामंजस्य में लेखन और अध्यापन के बीच सुर-ताल कभी बिगड़े नहींI
आभार, पांडुलिपि को पढने, उसमे महत्वपूर्ण एवं ईमानदारी से सुझाव एवं संशोधन देने के लिए हमारी संवेदनशील मित्र कलाकार कल्पना नौटियाल, सक्रिय, ऊर्जावान, सदैव सहयोगी दोनों बेटियाँ एका-इशिता एवं उनके सहयात्री बेटे सिद्धार्थ एवं राघव का, जिन्होंने हमारे अन्दर के सच को ‘हम जैसे हैं वैसे हैं ‘ बड़ी सच्चाई एवं ईमानदारी से सम्मान दियाI हमारे लिए उससे महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं हैI लिखने के लिए ये सच्चाई और ईमानदारी बहुत जरूरी होती है, ऐसा हमारा मानना हैI
दौहित्री ओइशी–तविषी एवं दौहित्र कैरव-कीवा ने जीवन को सम्पूर्णता दीI ओइशी के उत्साह, और तविषी ने कवर डिजाइन में और कैरव-कीवा ने नानी के बाल संकलन से हिन्दी की कविताएँ याद करके, आंतरिक तृप्ति दी हैI
ये पुस्तक समर्पित है हमारी उन तीनों स्व० बुजुर्ग माताओं को, जो परिवार के रूप में हमें विवाह के साथ मिला था, ‘जिनका जीवन स्वयं ही काव्य रहा’ जिनके साथ अपने संबंधों को सदैव रिश्ते के सीमित दायरे से ऊपर रखाI जीवन और रिश्ते दोनो आसान हो गयेI उन रिश्तों के निर्वहन में हमने बहुत कुछ सीखा, इसलिए रिश्तों को कोई नाम देना अर्थहीन हो जाता हैI वे एक इकाई थीं, किसी को रिश्ते विशेष से बुलाने में दूसरे की अनायास उपेक्षा हो जाती थी, ये पीड़ा हमने उनकी आँखों में देखी या दिल से महसूस की, वे सिर्फ माताएँ थींI जिनके होने से दोनों बेटियों को चार पीढ़ी के संयुक्त परिवार में परवरिश मिली, संस्कार मिलेI वो आज उनके अपने जीवन में उन चुनौतियो का सामना करते समय बहुत काम आएँगे, ऐसा हमारा विश्वास हैI हर कहानी का जन्म हमारे इसी परिवेश से ही होता हैI
आभार लखनऊ की साहित्यिक तासीर को, जिसने हर दिन कभी पाठक तो कभी श्रोता–कभी दर्शक तो कभी आयोजक, पत्रकार-कवि–लेखक के रूप में मेधा को रगड्ने का खूब मौका दियाI साहित्य के अनेक स्वादो को तृप्ति दी, साथ में ‘और पाने’ की भूख दी, जिसके बिना कोई लेखन सम्भव नहीI
आभार कादम्बिनी क्लब परिवार के प्रति, जिस मंच से हम सबने अपनी सृजन क्षमता को परिपक्वता दीI
आभार अपनी स्वयम सेवी संस्था “ईवा“ का जहाँ सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर संवेदनशील सदस्यो की टीम के साथ आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओ एवम बच्चो को शिक्षा, संस्कार देने के साथ, रोजगार देने के छोटे–छोटे प्रयासो में हमे जिंद्गी को बहुत नज़दीक से देखने का मौका मिलाI सामाजिक सरोकार ने जमीनी सच से हर पल रूबरू करायाI
कहानी भाव के धरातल पर ही जन्म लेती हैI
दो तिहाई जिंदगी जी चुके हैं, चौथे आश्रम में हैंI शेष बोनस की जिन्दगी से, उन सामाजिक सरोकारों को जो मेरे जीवन के बहुत नजदीक रहे, अवचेतन मन के भीतर छुपे वे मन्तव्य, हमारी बात, आपकी बात बन कर, सबकी बात बन सकेI तो समझेंगे की लेखनी सार्थक रहीI
हमने जीवन को समग्रता में जिया है, अकेले हम कुछ नहीं हैंI व्याकरणिक दृष्टि से ‘मैं’ स्वयं के लिए लिखना चाहिए, लेकिन देशी संस्कृति है शायद, ‘मैं’ अहम् ‘अहंकार‘ के नजदीक लगता है, इसलिए ‘अ‘ उपसर्ग को हटाकर अपने को ‘हम‘ के अधिक नजदीक पाया हैI व्याकरण की गलती करने से जिन्दगी सही होती है तो घाटे का सौदा नहीं हैIहमारी बात, आपकी बात बन कर, सबकी बात बन सकेI तो समझेंगे की लेखनी सार्थक रहीI
अब तो आस–पास जितना कुछ जिस तरह बहुत कुछ घट रहा, उसे कागज पर उतारने में दुनिया भर की लेखनी कम पड़ जायेंगी, ईश्वर न करे, वो दिन कभी आये की लोग कहें “ लद गए वो दिन, जब कहा जाता था, जो काम तलवार नहीं कर सकती, वो कलम कर सकती हैI अब तो लेखनी सिर्फ वो लिखेगी, जो तलवार करेगी. “ ये मेरे मन का भय हैI भय निर्मूल हो! ऐसा मेरी कामना है, प्रार्थना!
अंत में अपने पाठकों को यह संग्रह समर्पित करते हैंI
“ वे पाठक, जिन्हें सदैव अपना माना है
मन के भावों को जिनके लिए
कलम में उतारा है
लिखा कितना भी
बस जिसे पाठक ने पढ़ा
उसी को साहित्य माना है
कलम के तरकश से निकले बाण
यदि ह्रदय को बींध सकें
चीर कर दिल के भीतर तक समा जाएँ
दिल से निकल कर जुबान की भाषा बन जाएँ
तो ये यात्रा पूरी होगी
वरना कलम अधूरी होगीI
मधु चतुर्वेदी
प्राक्कथन
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रचनाएँ
सास का बेटा
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कहानी संग्रह सास का बेटा, 15 कहानियों का संग्रह है। जीवन की आपाधापी, तो कुछ जीवन के कडुवे सच की कहानियाँ हैं। कहीं हौसले की उड़ान तो कहीं रोजी-रोटी के लिए महानगरों में बसी आबादी की घर वापसी की आस, खोये हुए गुफ्रान की घर की तलाश, रिश्तों के मनोविज्ञान, कोरोना की मार, पैर से ज्यादा पहला जूता पहनने की ख़ुशी, अनब्याहे वैधव्य की लम्बी यात्रा, तो विवाह के नाम पर वेश्यावृत्ति में फँसी एक बेटी की कहानी है, बिना माँ बाप की बच्ची के लालची काका, मां से अधिक प्यार देने वाली रानी साहिबा, संस्कार के नाम पर मृत देह का अपमान, देहदान की रोचक कहानी मनोरंजन के साथ अपनी संवेदनाओं से ये कहानियाँ अपनी सहज-भाषा में न केवल पढने की भूख को संतुष्ट करती हैं, बल्कि बाहर के सच से बहुत कुछ रूबरू करातीं हैं, हर कहानी के किरदार, अपने से लगते हैं, कहानी तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन अन्दर बहुत कुछ मथ के जाती है।
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आभार

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आभार स्वभाव की बहुत प्राकृतिक एवम व्याव्हारिक प्रतिक्रिया हैI शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक, भौतिक छोटी–बड़ी जरूरतों के लिए आँख खुलने से लेकर बंद होने तक, जीवन की पहली साँस लेने से लेकर अन्तिम साँ

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प्राक्कथन

14 अक्टूबर 2022
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कहानी कहते ही नानी याद आ जाती हैं, लेकिन कहानी तो दादी भी सुनाती हैं! ‘नानी’ शायद तुकबंदी के कारण चलती रहीI ये तो कोई तुक नहीं है, तुक हो या बेतुक, कुछ न कुछ बात तो कह कर जाती है, कुछ भी कहती है तो ब

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सास का बेटा

14 अक्टूबर 2022
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आज का दिन भी निकल गया ..कल तो शायद अजीत की चिठ्ठी आनी चाहिए ,चिट्ठी आये भी कैसे ? दस दिन से तो पोस्टल विभाग की हड़ताल चल रही है, डाकखाने में तो चिट्ठियों के अम्बार लगे होंगे, किसे समय हैं जो उन्हें निप

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ट्रेन फिर मिलेगी

14 अक्टूबर 2022
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जुहू बीच [समुद्र का रेतीला तट ] भोर की रश्मि ,तेजी से तट की ओर आती हुई समुद्र की लहरों का उफान। कितने उत्साह से न जाने कितने सपने संजोये अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ती सी नजर आती हैं, तट से मिलने की एक आस।

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घर वापसी

14 अक्टूबर 2022
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विक्रम लालजी उपाध्याय की जय हो ! ‘ धरती का लाल! ऊँचा है भाल! हमारा अपना विक्रम लाल! ‘ ‘जीत उसी की होती है, पीछे जिसके जनता होती है ‘ ‘ जिसकी झोली खाली है, वोट उसी में भारी है ’ ‘साबित कर दिखलाया है,

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समिधा–समाधि

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अभी बस फ्लाईट लैंड ही कर रही थी. जहाज के फैले पंख सिमट रहे थे ,पहिये जमीन पर उतर रहे थे ,घडघडाते हुए ,जमीन को छूते हुए अपने पैरों को जमीन पर जमाया ,और मोबाइल खनखनाने लगे . बेसब्री स्वभावगत है .चाहे दो

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देहदान

14 अक्टूबर 2022
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“ तुम मुझे बता तो दो, की चाह्ते क्या हो ? अरे! इस गरीब को यहाँ क्यों लाये हो?हमें क्या समझकर लाये हो? क्या मेरा अपहरण किया है? मेरा अपहरण कोई क्यों करेगा?” “चुप कर औरत! तेरी बकवास सुनने के लिए यहाँ

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पगार की बेटी

14 अक्टूबर 2022
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ललिता हमें बंगलौर में मिली थी। डायमंड डिस्ट्रिक्ट सोसायटी में बेटी रचना के पास गई थी। मेट्रो सिटी की ये सोसायटी अपने आप में एक पूरा शहर होती हैं। दो हजार फ्लैट, आठ ब्लॉक, २५ से ३० मंजिलें, हर मंजिल

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पहला जूता

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बाटा की दूकान में अन्दर घुसते ही, हैरानी में सात साल के सुल्लू की गोल–गोल आँखें और गोल हो रहीं थी, ” इतने सारे जूते! चप्पल ही चप्पल! बाप रे बाप! मैडम ! कितने जूते-चप्पल हैं इस दूकान में, हमने तो अपनी

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अनब्याहा वैधव्य

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जमीन पर बिछी सफ़ेद चादर पर शान्त, निर्जीव सोया बुआ का शरीर हिम शिला सा लग रहा था मानों गंगा की प्रस्तर मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित कर रखी थीI चारो ओर अगरबत्तियाँ जल रहीं थींI. सन से सफेद बाल, सफ़ेद मर्

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रिश्तों के गणित

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‘ मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो मुझे विवेक के साथ जाने दो ! सुमेध ! तुम्हारा तो विवेक ने कुछ नहीं बिगाड़ा था, तुम तो हम लोगों को इतना प्यार करते हो? तुम क्यों विवेक के पास जाने से रोक रहे हो? मुझे---------

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अधूरे पूरे नाम

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कभी–कभी सर्दी के मौसम में मनचाही धूप भी कितनी बोझिल हो जाती है! कैसा विरोधाभास है, चाहय वस्तु ग्राह्य नही हो पातीI बोझ भरे नौकरी के दायित्व के लिए कितनी बार ऐसे हॉलि डे ब्रेक को चाहा था, लेकिन आज जब

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अभिशप्त नंबर तेरह

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आज उसका वार्ड बदला जा रहा थाI स्ट्रेचर पे लेट हुए रोगी की विवशता भी कितनी असाध्य होती हैI जिसकी जिन्दगी पिछले पाँच माह से एक पलंग के आसपास सीमित हैI उसे क्या फर्क पड़ता है कि वो किस वार्ड में शिफ्ट

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इस ब्याही से कुँआरी भली थी

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दीदी शादी के बाद पहली बार घर आ गई थीI औरों का नहीं मालूम, मैं सबसे ज्यादा खुश थीIदीदी के गले में बाँह डालकर लटक गई “ आप अब कितने दिन बाद जाओगी?” दीदी ने कुछ जबाब नहीं दिया, मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल

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छूटे हुए छोर

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मीनल सड़क के इस पार कार में अकेली बैठी है और उस पार शवदाह गृह में मयंक और मयूरी हमेशा के लिए राख हो जाएंगे I कैसा विचित्र–अद्दभुत संयोग है मयूरी–मयंक आज उस कहावत [विज्ञापन की यू.एस.पी. ] को ‘जीवन के सा

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विवशता न समझे ममता

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शीना–टीना स्कूल जा चुकी थींI दो कप चाय बनाकर तसल्ली से चाय पीना और चाय के साथ अखबार पढ़ना एक दिनचर्या थी सौमिक और हम बाहर आकर लॉन में बैठ गए थेI सौमिक पहले अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हैं, हम हिन्दी का ,

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अपने को तलाशती जिन्दगी

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ट्रेन की रफ्तार धीमी होनी शुरू होते ही अन्दर यात्रियों की हलचल तेज होने लगी थीI एक अजब सी धक्का मुक्की होती ही हैI सभी को उतरना है, ट्रेन में कितनी भी देर बैठ लें, लेकिन स्टेशन आने पर धैर्य से उतरने

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