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ट्रेन फिर मिलेगी

14 अक्टूबर 2022

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जुहू बीच [समुद्र का रेतीला तट ] भोर की रश्मि ,तेजी से तट की ओर आती हुई समुद्र की लहरों का उफान। कितने उत्साह से न जाने कितने सपने संजोये अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ती सी नजर आती हैं, तट से मिलने की एक आस। लहर आती है, तट से टकराती है, कई बार तो तट को तोड़ते हुए रेत को नहलाकर  तट पर खड़े अजनबी मित्रों के पैर धोते हुए उनके आनंद में शामिल हो जाती है, वे ताली बजाकर उन लहरों से लिपट जाना चाहते हैं। रेत में पैरों के ऊपर अपना घर बनाने में व्यस्त बच्चों का घर तोड़ती हुई लहर उन्हें समूचा ही भिगोकर ,वहीँ अपना दम तोड़ देती है।बच्चे खिलखिला कर रेत के घर  को भूल कर लहरों के साथ खेलने लगते हैं। न लहर से शिकायत न रेत के घर का मोह। न लहरों का कोई वजूद है न रेत के घर का, इतना तो यहाँ आने वाले बच्चे भी समझते हैं, यदि कुछ है तो उस क्षण भंगुर लहर और रेत के खेल से मिलने वाला आनन्द। 
एक लहर के टूटने से दूसरी लहर का हौसला नहीं टूटता। एक लहर मिटती  नहीं की दूसरी उसी तेजी से आ जाती है। कभी सोचते हैं लहर तो अनश्वर है, कभी नष्ट नहीं होती, पानी बनकर फिर  समुद्र में मिलती है, फिर लहर बनकर वापस आती  है। 
समुद्र के किनारे बसे  शहर मुंबई की इस रौनक  में ही मुंबई की आत्मा है।  कितनी सुबह कितनी शामें इस तट  पर बितायीं हैं। सब अपना - अपना आसमान तलाशने यहाँ आते हैं। 
लहर और बालू के अलावा अगर कोई और खिंचाव, जो हमें सुबह बिस्तर पर ठहरने नहीं देता है, हमें हर दिन उठाता वहाँ उस समुद्र तट का हमारा दोस्त देव। देव के साथ समय बिताना शायद हमारी आदत बन गयी थी। देव अपना  पूरा समय वहाँ अपनी बॉडी बिल्डिंग में बिताता  थाI पुष्ट कंधे, मजबूत-सख्त बाँहें ,सिक्स ऍप्स एक एक मसल पकड़  में आ जाए। कलाई से कन्धों तक फैशनेबेल  गुदे हुए टैटू, बड़ी अदा और डिजायन से कटे हुए बाल, और एक गर्वोन्नत माथा ,मुस्कान बिखेरते होंठ, एकदम मजबूत कद-काठी, शरीर का कद तो नहीं मालूम क्यों कि उसे कभी खड़े हुए नहीं देखा, खड़ा कैसे होता, उसके तो पैर  थे ही नहीं  ,लेकिन उसके सपनों का कद बहुत बड़ा थाजो एक मशहूर नर्तक बनने के सपने लेकर मुंबई आया था। घंटों  का अभ्यास, पैरों की तरह थिरकते हाथ, हाथों से नृत्य की मुद्राएँ, मुद्राएँ दिखाते-दिखाते हाथों के बल खड़ा हो जाना उलटना-पलटना, हाथों पर झूल जाना, कितनी सहजता से सब करता, जो पैरों का काम भी हाथों से लेने का मास्टर था। 
हम साथ घंटे बिताते, कभी नाश्ता साथ करते तो कभी ताजे जूस पीते, कभी नारियल डाब तो कभी बन -मक्खन। फरमाइश पर घर से पराठे लेकर भी कभी जाते उस दिन बहुत हँसी आ गई, एक उम्र दराज़ महिला आईं, लोग आते ही रहते हैं वहाँ, अपने मोबाइल से देव के साथ सैल्फी लेने के लिए जूझ रहीं थी। देव ने तत्परता से उनके हाथ से मोबाइल लिया, फ़टाफ़ट कई फोटो खींची, एक जोरदार मुस्कान फेंकी, और मोबाइल उन्हें थमा दिया। वो तो हतप्रभ थीं, कि कितनी फुर्ती और परिपक्वता है हर काम में। देव मेरे लिए खाली पृष्ठ थे  जिसे हम अपनी कलम में उतारना चाहते थे, देव कैनवास था जिसमें उसे अपनी तूलिका से रंगना चाहते थे, देव प्रकृति की उन  नियामतों से भरा था, जिन्हे हम अपने कैमरे में कैद करना चाहते थे। 
ये कहानी शुरू कहीं और से होती है। मुंबई से इतनी दूर जहाँ से  दो पैर वालों को  भी चलकर पहुँचने के लिए हिम्मत चाहिए। मुंबई से एक दूसरे कोने पर बिहार प्रांत के बेगूसराय  में देव अपनो कहानी शुरू करता है। मध्यम आय वर्ग की हर माँ की तरह उसकी माँ के सपने भी मध्यम ही थे। जी-जान एक करके बस एक ही कोशिश कि बेटा पढ़ -लिख कर नौकरी पा ले, अपना घर बसा ले पर घर से दूर न जाए। पिता  की मृत्यु के बाद सारी आशाएँ बस यहीं तक सीमित थीं, देव हँसकर बताता  हैI
मेरे दोस्त मुझे जानते थे कि  मेरे सपने कुछ और हैं। स्कूल में उस दिन मित्र ने कहा, पटना में मुंबई की कोई टीम आ रही है नृत्य -संगीत टैलेण्ट को खोजने ,तू निकल जा यहाँ खाली-पीली अपने नाच दिखाकर हम लोगों को पकाता हैI हम लोगों को तो ये भी समझ नहीं आता की तू क्या दिखाता हैI अरे कम से कम तुझे अपनी औकात तो पता चल जाएगी। अगर कुछ हुनर है तो मौक़ा है, नहीं तो जरा ढर्रे पर आकर पढ़ाई कर-सीधी सादी  नौकरी ढूँढ। 
मैं बेगूसराय स्टेशन पर खड़ा था। जिसने बिहार को देखा है, या अखबारों में पढ़ा है तो समझ सकते हैं वहाँ रेल यात्रा और अंतिम यात्रा के बीच बहुत थोड़ा फासला होता हैI रेल में आरक्षण अमीरों के सपने हैं। अनारक्षित रेल के डब्बे में घुस पाना पूरी युद्ध नीति। जितने लोग डब्बे के अंदर होते हैं उतने डब्बे के ऊपर और उसके दुगुने प्लेटफार्म पर, जिनकी कोशिश ट्रेन छटने तक नहीं छूटती। मेरी हिम्मत उस दिन लगभग छूट ही गयी थी, ट्रेन के अंदर तो क्या ट्रेन के दरवाजे तक पहुंचना नामुमकिन नजर आ रहा था। तभी मैंने  देखा धोती-कुर्ता पहने एक पण्डितजी को अपने हाथ में उठाये उनके जजमान खिड़की से उन्हें अंदर ठेल  रहे थे। आधा धड़ अंदर और आधा धड़ बाहर, ’ और लगा दे हस्सा, अगर शेर का बच्चा ’ और शेर का बच्चा अंदर था, जजमान ने राहत की साँस ली की चलो पण्डितजी सकुशल अपने घर पहुँचेंगे। हमारी हिम्मत भी बढ़ी, भईया ! थोड़ा सा धक्का हमको भी लगा दो तो आज हमें हमारी मंजिल मिल जाएगी। अब तक जजमान को भी हिम्मत आगयी थी, उसी खिड़की से हम आधे अंदर तो पहुँच ही गए थे,ले किन वहाँ तो पैर रखने की भी जगह नहीं, बाहर से जैसे ही धक्के ने हमें अंदर पहुंचाया, मैं तो लोगों के हाथों में था और वैसे ही लेटे हुए मेरे पैरों को उन्होंने, दूसरी खिड़की की ओर मोड़ा  और जैसे भीतर आया था वैसे ही बाहर धकेल दिया। मैं चिल्ला  रहा था मुझे जरूरी पहुँचना है, लेकिन जब खड़े होने की जगह न हो तो कान भी बहरे हो जाते हैं। हवा में शरीर और ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ने लगी, जब तक  मैं प्लेटफार्म पर खड़ा हो पाता, उससे पहले  फिसल कर पटरी पर जा गिरा। बस उसके बाद की कहानी तो तब पता चली, जब अस्पताल में होश आया। 
होश आने पर मैंने पाया की मैं एकदम स्वस्थ था। कोई चोट नहीं थी, कोई पीड़ा नहीं थी। मुझे सबसे अधिक हैरानी अपने सामने खड़े उन पंडितजी के जजमान को देख कर हुई। अरे आप यहाँ ! आपको कैसे पता चला। जजमान हमारा हाथ पकड़कर पास ही सिरहाने बैठ गए। “मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ ,मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाउँगा। मुझे समझ नहीं आया, की आप ऐसा क्यों कह  रहे हैं, आपने तो हमारी मदद की थी, खिड़की से भीतर पहुँचाया, अब वहाँ जगह ही नहीं थी तो वो यात्री बेचारों के पास हमें वापस प्लेटफार्म पर उतारने के चारा क्या था। मेरा पैर फिसला तो उसमें आप क्या कर सकते थे। जान है तो जहान है, फिर मिलेगी ट्रेन..
माँ कहती है, “ जो दाता  ने लिख दिया छठी रात के अंत,
न राई घटे ,न तिल बढे, हुहिहै वही निशंक “ 
आप मुझ अजनबी के लिए यहाँ रुके हुए हैं, मैं कैसे आपका धन्यवाद करूँ। माँ को तो पता भी नहीं है की मैं स्कूल से स्टेशन आ गया थाI कोई नहीं अब समय पर घर पहुँच जाऊँगा, माँ की इच्छा ही नहीं रही होगी ! आपका एहसान कैसे चुकाऊँगा।  
जजमान एकदम चुप थे, फिर हाथ दबाकर बोले, बेटे ये वो पहला दिन नहीं है ,आज उस दुर्घटना का चौथा दिन है, तुम्हारा न नाम था न पता, इसलिए  माँ  को कोई खबर नहीं कर पाए। बस ये समझो, थोड़ी सी कीमत लेकर भगवान् ने तुम्हें दूसरी जिन्दगी दी है। उस दिन जब तुम चलती ट्रेन से पटरी पर फिसले, हम सबकी जान ही निकल गई थी। प्लेटफार्म पर खडी सारी भीड़ बदहवास किनारे पर खडी थी, की बस ट्रेन गुजरे तो तुम्हें निकालें, ट्रेन तो जैसे उस दिन ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं भगवान् से बस मना रहा था की, तुम्हे सकुशल बचा ले, जैसे ही ट्रेन गुजरी, सब तुम्हे बचाने दौड़ पड़े। पटरी पर काफी खून था, तुम जीवित थे, शरीर से सबको तुम ठीक दिखे, सबने भगवान का शुकर मनाया। तुम्हे हाथों में उठाया, रेलवे से ऐम्बुलेंस को खबर दे दी थी, लेकिन सब हतप्रभ थे, ये तो आधा शरीर है, टांगें तो हैं ही नहीं, लोग पीछे दौड़े, की कटी टांगें ही उठा लें ,आपरेशन से शायद डाक्टर ठीक कर दें, लेकिन वे बुरी तरह से कुचली जा चुकी थीं। ऐम्बुलेंस से तुरंत रेलवे अस्पताल लाया गया। आज तुम सकुशल अपने होश में हो। जजमान की बात सुनाने के बाद मैंने शरीर को टटोलना शुरू किया, एक अजीब सा भय था इस सच को कैसे स्वीकारूँगा। जजमान ने हाथ छोड़ दिया था दोनों हाथ शरीर पर फिसल रहे थे, सीने से कमर तक। कमर के नीचे, बस इसके बाद शरीर ख़त्म, इतना छोटा हो गया मेरा शरीर। घबराकर हाथों को पीछे खींच लिया। जजमान ने बताया की आपरेशन तो उसी दिन कर दिया था, लेकिन इंजैक्शन देकर लगातार सुलाए रख रहे थे, जिससे तुम मानसिक तौर से थोड़े मजबूत हो जाओ। 
इतनी भयावह सच्चाई मेरे सामने थी लेकिन न मेरी चीख निकली, न आँख से आँसु। मैंने क्या खो दिया था वो बात अब बेमानी थी। अब तो बस हकीकत ये थी की जो बचा है, उससे जिन्दगी कैसे शुरू करना है। भगवान ने कैसा बनिया न्याय किया है, जो लिया है उसके लिए कोस भी नहीं पा रहा हूँ, आखिर उसने पटरी से मौत को उठाकर,जिंदगी में भी तो बदला है। 
 बस अब आप सबका आशीर्वाद होगा तो मेरी वो अधूरी यात्रा मुंबई पहुँच कर ही पूरी होगी। हाँ ! आप जिन पंडितजी को पहुंचाने आये थे, वो तो सकुशल पहुँच गये ?जजमान हंसने लगे,बेटा ! वो भी बिलकुल वैसे ही दूसरी खिड़की से घुमाकर प्लेटफार्म पर गिरा दिए गए। बस शुकर  करो की ट्रेन खड़ी हुई थी, हमने पूछा ,आप उतर क्यों आये? बोले, ’ भईया, मो तो डब्बे की धत्ती [धरती ]तक न छू पायो, उनन सबन ने मोय हाथ में ज्यों को त्यों डब्बे में घुमायकर प्लेटफार्म पर उतार दियो। 
जजमान हमें हमारे घर तक छोड़ने आये। माँ इतनी स्तब्ध थी कि ,इस दुर्घटना में बस बेटे को जीवित वापस अपने पास देखने से बड़ा कोई सपना अब उसके सामने  नहीं था। कोई डाँट-नाराजी नहीं थी। 
ट्रेन फिर मिली। माँ ने कुछ भी नहीं कहा। वो मानने लगीं थी की इस दूसरी जिंदगी पर उनका कोई हक़ नहीं है। जिसने वहाँ से बचाया है, तो आगे भी बचाएगा। हमारे अंदर कुछ भी खोने का भय अब ख़त्म हो चुका था। उसके बाद के सफर के तो आप सहयात्री हैं I
 
आज समुद्र तट पर भोर सबेरे कुछ अलग भीड़ थी  शूटिंग चल रही थी। डान्स  इण्डिया डान्स एपीसोड की टीम देव के डांस और बॉडी बिल्डिंग के करतब कैमरे में कैद कर रहे थे, रोज  आने वाली सुबह की भीड़ भी आज अपना टहलना छोड़कर मन्त्र मुग्ध देब के करतबों से विमोहित थे। 
अपनी यात्रा के सम्बन्ध में बताते हुए, देव के चेहरे पर एक गर्व था, उसने बोलना शुरू किया डान्स में महारथ हासिल करना मेरा सपना था, और मैं अकेला फिर घर से निकल कर मुंबई पहुँच गया। इसी रेत पर मैंने सपने बुनना शुरू कर दिया। कहते हैं न ‘करत -करत अभ्यास के जड़मति  होत सुजान ‘हमने अपने हाथों को अपने पैर  बना लिया। डांस किसी से नही सीखा, ’चल अकेला-चल अकेला, चल अकेला’ गाता  हूँ और आज जो हूँ आपके सामने हूँ। 
अपनी यात्रा के सम्बन्ध में बताते हुए, देव के चेहरे पर एक गर्व था, उसने बोलना शुरू किया, ‘  ये मुंबई माया नगरी है इसमें बड़े-बड़े सपने दफ़न भी हो जाते हैं। लेकिन मुझे लोगों से बहुत प्यार और सहयोग मिला। बहुत बार लोगों ने मुझे समझाया तुम एक नौकरी के साथ भी ये सपने पूरे कर सकते हो।  मैं अपनी पढ़ाई भी कर रहा हूँ, कंप्यूटर भी सीख रहा हूँ, लेकिन उतना ही जो मुझे मेरे डांस में मदद करे।  
एक बहुत रहस्य की बात आज आपको बताऊँ  जब मेरे दोनों पैर  ठीक भी थे तो मैंने किसी को बताया नहीं, लेकिन अपने मन में तय कर लिया था कि मैं सिर्फ डांस ही करना चाहता था, मैं ये जानता था कि पढ़ाई कर लूँगा तो नौकरी के विकल्प हर बार हौसले को तोड़ेंगे, विकलांग कोटे में सरकारी नौकरी के लुभावने आरामदेह विकल्प हमें कहीं और पटक देंगे। मुझे अगर अपने सपने पूरे करने हैं तो ये डांस ही मेरी दुनिया है। मैं किसी भी क्षेत्र में ऎसी कोई योग्यता नहीं हासिल करना चाहता, जो मुझे मेरे सपने से दूर कर दे। मुझे डांस के सिवाय कुछ न आना ही मेरे पंख हैं, जो हर मुश्किल में मुझे उड़ान भरने के हौसले देंगे। आप सबका आशीर्वाद चाहिए कि  मेरा ये हौसला कभी न टूटे, मुझे सरकारी बैसाखी नहीं ,आपकी तालियाँ चाहिए। मैं अकेला नही, मेरे जैसे देश के हर भाई की जो अपने सपने रखता है मैं हिम्मत बन सकूँI इस समुद्र के तट ने मुझ बेसहारा को आश्रय दिया बस एक दिन इस लायक बन सकूँ कि  अपनी माँ को यहां मुंबई लाकर अपने साथ रख सकूँ। एक ट्रेन छूटती  है तो दूसरी ट्रेन मिलती ही है, भरोसा रखिये। 
           
                                  
घर वापसी
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रचनाएँ
सास का बेटा
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कहानी संग्रह सास का बेटा, 15 कहानियों का संग्रह है। जीवन की आपाधापी, तो कुछ जीवन के कडुवे सच की कहानियाँ हैं। कहीं हौसले की उड़ान तो कहीं रोजी-रोटी के लिए महानगरों में बसी आबादी की घर वापसी की आस, खोये हुए गुफ्रान की घर की तलाश, रिश्तों के मनोविज्ञान, कोरोना की मार, पैर से ज्यादा पहला जूता पहनने की ख़ुशी, अनब्याहे वैधव्य की लम्बी यात्रा, तो विवाह के नाम पर वेश्यावृत्ति में फँसी एक बेटी की कहानी है, बिना माँ बाप की बच्ची के लालची काका, मां से अधिक प्यार देने वाली रानी साहिबा, संस्कार के नाम पर मृत देह का अपमान, देहदान की रोचक कहानी मनोरंजन के साथ अपनी संवेदनाओं से ये कहानियाँ अपनी सहज-भाषा में न केवल पढने की भूख को संतुष्ट करती हैं, बल्कि बाहर के सच से बहुत कुछ रूबरू करातीं हैं, हर कहानी के किरदार, अपने से लगते हैं, कहानी तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन अन्दर बहुत कुछ मथ के जाती है।
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आभार

14 अक्टूबर 2022
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आभार स्वभाव की बहुत प्राकृतिक एवम व्याव्हारिक प्रतिक्रिया हैI शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक, भौतिक छोटी–बड़ी जरूरतों के लिए आँख खुलने से लेकर बंद होने तक, जीवन की पहली साँस लेने से लेकर अन्तिम साँ

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प्राक्कथन

14 अक्टूबर 2022
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कहानी कहते ही नानी याद आ जाती हैं, लेकिन कहानी तो दादी भी सुनाती हैं! ‘नानी’ शायद तुकबंदी के कारण चलती रहीI ये तो कोई तुक नहीं है, तुक हो या बेतुक, कुछ न कुछ बात तो कह कर जाती है, कुछ भी कहती है तो ब

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सास का बेटा

14 अक्टूबर 2022
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आज का दिन भी निकल गया ..कल तो शायद अजीत की चिठ्ठी आनी चाहिए ,चिट्ठी आये भी कैसे ? दस दिन से तो पोस्टल विभाग की हड़ताल चल रही है, डाकखाने में तो चिट्ठियों के अम्बार लगे होंगे, किसे समय हैं जो उन्हें निप

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ट्रेन फिर मिलेगी

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14 अक्टूबर 2022
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विक्रम लालजी उपाध्याय की जय हो ! ‘ धरती का लाल! ऊँचा है भाल! हमारा अपना विक्रम लाल! ‘ ‘जीत उसी की होती है, पीछे जिसके जनता होती है ‘ ‘ जिसकी झोली खाली है, वोट उसी में भारी है ’ ‘साबित कर दिखलाया है,

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समिधा–समाधि

14 अक्टूबर 2022
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अभी बस फ्लाईट लैंड ही कर रही थी. जहाज के फैले पंख सिमट रहे थे ,पहिये जमीन पर उतर रहे थे ,घडघडाते हुए ,जमीन को छूते हुए अपने पैरों को जमीन पर जमाया ,और मोबाइल खनखनाने लगे . बेसब्री स्वभावगत है .चाहे दो

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देहदान

14 अक्टूबर 2022
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“ तुम मुझे बता तो दो, की चाह्ते क्या हो ? अरे! इस गरीब को यहाँ क्यों लाये हो?हमें क्या समझकर लाये हो? क्या मेरा अपहरण किया है? मेरा अपहरण कोई क्यों करेगा?” “चुप कर औरत! तेरी बकवास सुनने के लिए यहाँ

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पगार की बेटी

14 अक्टूबर 2022
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ललिता हमें बंगलौर में मिली थी। डायमंड डिस्ट्रिक्ट सोसायटी में बेटी रचना के पास गई थी। मेट्रो सिटी की ये सोसायटी अपने आप में एक पूरा शहर होती हैं। दो हजार फ्लैट, आठ ब्लॉक, २५ से ३० मंजिलें, हर मंजिल

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पहला जूता

14 अक्टूबर 2022
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बाटा की दूकान में अन्दर घुसते ही, हैरानी में सात साल के सुल्लू की गोल–गोल आँखें और गोल हो रहीं थी, ” इतने सारे जूते! चप्पल ही चप्पल! बाप रे बाप! मैडम ! कितने जूते-चप्पल हैं इस दूकान में, हमने तो अपनी

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अनब्याहा वैधव्य

14 अक्टूबर 2022
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जमीन पर बिछी सफ़ेद चादर पर शान्त, निर्जीव सोया बुआ का शरीर हिम शिला सा लग रहा था मानों गंगा की प्रस्तर मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित कर रखी थीI चारो ओर अगरबत्तियाँ जल रहीं थींI. सन से सफेद बाल, सफ़ेद मर्

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रिश्तों के गणित

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‘ मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो मुझे विवेक के साथ जाने दो ! सुमेध ! तुम्हारा तो विवेक ने कुछ नहीं बिगाड़ा था, तुम तो हम लोगों को इतना प्यार करते हो? तुम क्यों विवेक के पास जाने से रोक रहे हो? मुझे---------

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अधूरे पूरे नाम

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कभी–कभी सर्दी के मौसम में मनचाही धूप भी कितनी बोझिल हो जाती है! कैसा विरोधाभास है, चाहय वस्तु ग्राह्य नही हो पातीI बोझ भरे नौकरी के दायित्व के लिए कितनी बार ऐसे हॉलि डे ब्रेक को चाहा था, लेकिन आज जब

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अभिशप्त नंबर तेरह

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आज उसका वार्ड बदला जा रहा थाI स्ट्रेचर पे लेट हुए रोगी की विवशता भी कितनी असाध्य होती हैI जिसकी जिन्दगी पिछले पाँच माह से एक पलंग के आसपास सीमित हैI उसे क्या फर्क पड़ता है कि वो किस वार्ड में शिफ्ट

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इस ब्याही से कुँआरी भली थी

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दीदी शादी के बाद पहली बार घर आ गई थीI औरों का नहीं मालूम, मैं सबसे ज्यादा खुश थीIदीदी के गले में बाँह डालकर लटक गई “ आप अब कितने दिन बाद जाओगी?” दीदी ने कुछ जबाब नहीं दिया, मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल

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छूटे हुए छोर

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मीनल सड़क के इस पार कार में अकेली बैठी है और उस पार शवदाह गृह में मयंक और मयूरी हमेशा के लिए राख हो जाएंगे I कैसा विचित्र–अद्दभुत संयोग है मयूरी–मयंक आज उस कहावत [विज्ञापन की यू.एस.पी. ] को ‘जीवन के सा

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विवशता न समझे ममता

14 अक्टूबर 2022
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शीना–टीना स्कूल जा चुकी थींI दो कप चाय बनाकर तसल्ली से चाय पीना और चाय के साथ अखबार पढ़ना एक दिनचर्या थी सौमिक और हम बाहर आकर लॉन में बैठ गए थेI सौमिक पहले अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हैं, हम हिन्दी का ,

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अपने को तलाशती जिन्दगी

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ट्रेन की रफ्तार धीमी होनी शुरू होते ही अन्दर यात्रियों की हलचल तेज होने लगी थीI एक अजब सी धक्का मुक्की होती ही हैI सभी को उतरना है, ट्रेन में कितनी भी देर बैठ लें, लेकिन स्टेशन आने पर धैर्य से उतरने

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