कभी–कभी सर्दी के मौसम में मनचाही धूप भी कितनी बोझिल हो जाती है! कैसा विरोधाभास है, चाहय वस्तु ग्राह्य नही हो पातीI बोझ भरे नौकरी के दायित्व के लिए कितनी बार ऐसे हॉलि डे ब्रेक को चाहा था, लेकिन आज जब मिला है तो वो इसे पूरी तरह रिलैक्स होने की बजाय ये ऊन का गोला लेकर क्यों बैठी हैI
विप्लवा लॉन में आराम कुर्सी पर बैठी थी हाथ में माँ के बुने हुए पुराने स्वेटर के पल्ले को उधेड़–उधेड़ कर गोला बनाती जा रही थीI वो पल्ला उधेड़ रही है या जानबूझ कर यादों के आलोडन–विलोडन में अपने को उलझा रही हैI उधेड़ते–उधेड़ते कहाँ पहुँच गई है, पल्ला उधड कर गोला बन गया था, क्या वो यादों को समेंट कर उसका का गोला फिर बना पायेगीI उसके पास तो बीती जिन्दगी की उन यादों का कोई सूत्र भी हाथ में नहीं हैI
अब उसे अपने आप पर क्रोध आ रहा था कि अनावश्यक वह घर में बैठ गई हैI कालोनी का सन्नाटा उसके लिए अपरिचित था, वो घर बैठी कब है, सभी बच्चे स्कूल और कामकाजी अपने काम पर जा चुके थे, सहकर्मी अधिकारियों की पत्नियों के साथ मित्रता बढाने में न उसकी कभी रूचि रही न समयI
उसे विशाख कपूर पर गुस्सा आ रहा था की हर वक्त साथ काम करते, बराबर का कैरियर होने के बाबजूद ये महिला सहकर्मी से सामान्य क्यों नहीं रह पाते, क्यों सरकार को महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून बनाने पड़ते हैं? आज उपसचिव के ओहदे पर कितने मातहत हैं कितने वरिष्ठ हैं, लेकिन क्या उसे कभी किसी से फर्क पड़ा है, सबके साथ मिलती है, उठती –बैठती है, क्या कभी किसी को असहज होने दिया है? कानून को संभालने वाली मैं अपनी सुरक्षा के लिए कानून का सहारा लूँगी?
विशाख कपूर जैसे लिजलिजे इंसान क्यों होते हैं हैं? “ मिस विप्लवा !....बैठिये, आप काम को इतना सीरीयसली क्यों लेती हैं .........हो जाएगा ....अरे इन फाइलों से ऊपर भी तो आँख उठाइए ...इतनी ज्यादती अपनी खूबसूरती के साथ मत कीजिए ......” बूढ़े–खूसट !मेमने की तरह घिघियाएंगे !” फिर उसे विशाख कपूर पर हँसी भी आ रही थी, तरस भी आ रहा था की खुदा ने भी तो उनके साथ कम नाइंसाफी नही की है, आई.ए.एस. होकर अपने पूरे ग्लैमर में थे, उनके साथ रहे लोग बताते हैं काफी रंगीन मिजाज थे, गंभीर हार्ट अटैक पड़ा, और डाक्टर की सलाह थी, आपके लिए रिस्क है, शादी न करने की उनकी चेतावनी मान कर आज तक पछता रहे हैंI क्या करते, शायद उसी एतिहात से खुदा ने उम्र तो दे दी, पर जिन्दगी का रोमांस छीन लियाI कुशवाहा तो बता रहे थे की मेरठ में तो बेचारे का मजाक बन गया थाI हम उस कालोनी में नए–नए पहुंचे थे, मीनाक्षी एक दिन बोली, बुरा लगता है देख कर, कपूर सा० का बेटा सारे दिन आउट हाउस के बच्चों के साथ नल पर खेलता रहता है, मैंने तो माँ को कभी देखा भी नहीं, मै तो हँसते –हँसते लोटपोट हो गयाI माँ के साथ ही तो रहता हैI उनकी मेड सर्वेंट का ही बेटा तो है, “ क्या........? हूबहू, कपूर सा० की शक्ल ? उसका मुंह खुला का खुला रह गयाI अरे कुंवारे हैं छड़े हैं, उन्हें कोई फरक नहीं पड़ताI
विप्लवा सोच रही थी फर्क तो उसे भी नही पड़ता, क्यों खामख्वाह वो गुस्से में घर बैठ गई? क्या वो सामान्य है? या अपने को अन्दर झाँकने का साहस नहीं है! उसके ऊपर कौन सा अहम् हावी है! या अपने ऊपर ओढा हुआ मुखौटा नहीं है! क्या वो अकेली नहीं है ! क्या प्रशंशा भरी आँखे उसे कभी नहीं गुदगुदाती!
माँ ने उसका नाम विप्लवा रखा थाI पापू साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति थे, माँ से बहस भी करते, आखिर नाम की गुणवत्ता तो देखो ! अरे लेखक अपनी काल्पनिक सृजन को भी सार्थक नाम देते हैं, कृति के ध्येय को लक्षित करती है ,अरे ये तो हमारी–तुम्हारी जीती –जागती प्रेम की श्रृष्टि है, उसका नाम रखने में इतनी निरर्थकता क्यों बरत रही हो ?
माँ भी अपने मिजाज की थींI तर्क उन्होंने कभी किया नहीं और दूसरे के तर्क से कभी सहमत नहीं हुईं, जो सोच लिया बस वही होगाI पता नहीं वो हमारे अन्दर कोई विप्लव देख रहीं थीं या विप्लव की आकांक्षा रखे हुए थींI वो सोचती,ऐसे तो वो कोई सामाजिक, सांस्कृतिक विप्लव नहीं कर सकी, हाँ !मानसिक विप्लव जरूर उसके मन को टिकने नहीं देता हैI कभी लगता, मै अनजाने ही सही ,उनके दिए नाम को सार्थकता देती रहती हूँI
अपने नाम का अर्थ खोजते–खोजते, वो अपने से दूर जरूर होती जा रही है .मेरी शैतानियों से परेशान माँ बड़बड़ातीं, अरे यहाँ एक नहीं संभाली जाती, हमारी माँ के इस जैसे तेरह होते तो दोनों एक ही टिकटी पे स्वर्ग सिधार जाते I पापू हँसकर कहते, संभालो अपने विप्लव को, जो नाम दिया है “
घर में कोई आया नहीं की हमारे नाम का रोना शुरू हो जाता “आज मैंने इसे चिमटे से मारा,......कुछ भी कर लो ...लेकिन कोई असर नहीं होता है इस पर “
ठाकरे अंकल तो घर में घुसते ही माँ को बहुत छेड़ते, भाभीजी ! आज विपु ने आपके कौन से बर्तन से अपना शरीर सहलावाया है ? और माँ फिर शुरू हो जाती और पापू ने उसे कभी विप्लवा बुलाया ही नहींI उनकी आँखों में वो भय दिखाई देता था की बार–बार इस शब्द को दोहराने से शायद वे विप्लव को आमंत्रित ही कर रहे हैंI
माँ मुझे कभी भी व्यवहार में सामान्य नहीं मिलीI अभी मेरी इंटर मीडीएट की परीक्षा होती और माँ घर मुझ पे छोड़ कर लड़के ढूँढने चली जातींI जब मैं खाना बना रही होती, पापू मदद के लिए आ जाते, बड़बड़ाते, मैरिट लिस्ट में आने वाली बेटी की चाहे डिवीजन बेशक चली जाए, लेकिन लड़का जरूर मिल जाएगाI उनका दुर्भाग्य या मेरा सौभाग्य, लड़का उन्हें मिला नहींI मुझे लगता है वो मेरे तरीके के लिए तैयार नहीं थीं और मै उनकेI मेरे हर रिजल्ट की मैरिट से उनकी निराशा हताशा में बदलती जा रही थीI और आई.ए.एस. के बाद तो बस उम्मीद के कफन में आखिरी कील लग गईI कभी कभी में सोचती हूँ तो मुझे उन पर तरस आता था ,अगर उनका हमारे ऊपर कोई वश नहीं था तो उनका अपने ऊपर भी तो कोई वश नहीं था, अपने आप में वो नितांत अकेली ही तो थीं, हमसे जुड़े हर मुद्दे पर पापू का तो बस एक ही जबाब होता, विप्लवा नाम तुमने दिया है,संभालोI
मुझे जिन्दगी की आकांक्षाओं का अंतिम छोर पकड़ता नजर आ रहा थाI पद-ओहदे की इज्जत और शान में अभाव जैसी कोई चीज दिखती कहाँ थीI माँ किसी चमत्कार के लिए प्रार्थना अवश्य करती थीं की कोई इसकी जिन्दगी में ऐसा अवश्य आ जाए इस तूफ़ान का हाथ थाम लेI रूपाभ उसकी जिन्दगी में कितनी आकस्मिक घटना की तरह आया थाI वह उन दिनों गवर्नर स्टाफ में उनकी उपसचिव थीI गवर्नर हाउस में पंदह अगस्त का फंक्शन थाI उसने लाल बार्डर के साथ सफेद खादी सिल्क की साडी पहनी थी, कोई मेहमान तो थे नहीं स्टाफ होने के नाते, व्यवस्था की मेजबानी से जुड़े ही थेI जैसे ही मैं पहुंची ,पूरी सेरेमोनियल यूनिफार्म में महामहिम के ए.डी.सी. मेजर रूपाभ सामने टकरा गएI ओ ! ओ ! लुकिंग ब्यूटीफुल! मेरा फेवरिट कलर पहने हैं, मै अचकचा गई, पीछे शायद किसी और के मुखातिब हों, पीछे मुड कर देखा कोई था ही नहीं, “लेकिन मै तो कलर पहने ही नहीं हूँ, सफ़ेद साड़ी है “मोहतरमा! सफ़ेद रंग नही होता तो रंग के डब्बे में बारह रंगों में सफ़ेद क्यों होता? चाँदनी सफ़ेद क्यों होती ? समुद्र के फेन का रंग सफेद क्यों होता? हिमालय की बर्फ़ सफ़ेद क्यों होती? सूर्य की किरणें जब उस बर्फ पर पडतीं हैं तो सातों रंग उसमें एकसार हो जाते हैं, ” “ अरे... अरे... एक साँस में! ....... थोड़ी साँस तो ले लीजिये ” लेकिन सच ये था की साँस मेरी रुक गई थी, मैंने उसे कभी ऐसे देखा ही नहीं थाI युनिफोर्म में गठा उसका शरीर मेरे जहन में पहली बार रोमांच उत्पन्न कर रहा थाI लेकिन वो शायद कुछ निश्चय करके आया था, आई एम रूपाभ, हिम्मत जुटाने में मुझे आठ माह लग गए, आज न बोला तो फिर आठ माह लग जायेंगेI मैं आपसे शादी करना चाहता हूँ! मैं सकते में थी, मेरी तो उससे कभी काम के अलावा बात भी नहीं हुई? वह आज इतना दुस्साहसी क्यों था! अपना व्यक्तित्व पहली बार मुझे इतना कमजोर लग रहा था, मैं चुप क्यों हो गयी? क्या ये मेरी मूक सहमति नहीं है? शाम पूरी निकल गई, बस किसी तरह पार्टी खत्म होने का इंतज़ार करती रही, लग रहा था, कहीं गिर ही न जाऊँI बस घर पहुँच जाऊंI रात भारी हो रही थीI घर पहुँच के मुश्किल से कपड़े बदलेI शुकर है सुबह हुई, तड़के नंबर डायल किया....रूपाभ ! उधर से आवाज आई “यस “, रविवार को तुम्हारे निवास पर शादी होगी ...इतना कह कर फोन डिस्कनैकट करके चोंगा अलग रख दियाI इस बीच,बहुत थोड़े शब्दों में, बस उतनी ही बात हुई, जितनी उस आयोजन के लिए आवश्यक थीI मालूम नहीं किस मैगनेट आकर्षण ने हमें जोड़ दिया थाI
विश्वास ही नहीं होता था, क्या यही मेरी तलाश थी ? ‘मौन प्रेम और संरक्षण’ लेकिन फिर क्या हुआ, कुछ ध्यान नहीं, कब हम अलग हो गए ! रूपाभ की फील्ड पोस्टिंग आईI पत्र आते–जाते रहे, कभी फोन भी आये ....फिर धीरे–धीरे सब तार टूटते गए ...समय गुजरता गया मेरा अहम् फिर से जुड़ता गया ..मैंने चुप्पी तोड़ने का प्रयास ही नहीं किया ....न शादी के पहले कोई प्यार हुआ था न शादी के बाद कोई झगडा हुआ ...शादी कैसे चलती ....जीवन में सामान्य तो कुछ भी था ही नहीं ,मेरे अन्दर तो एक विप्लवा थीI
ओह .....स्वेटर का पूरा पल्ला उधड कर उसके हाथ में गोले के रूप में सिमट कर आ गया था, लेकिन जिन्दगी को उधेड़ते-उधेड़ते वो विप्लवा कहाँ पहुँच गई थीI वो कितना थक गई है, कितनी लम्बी जीवन यात्रा से वह आ रही है, आँखे बोझिल होकर खुद ही बंद हो गयींI अर्ध होशी में उसे लगा, कोई बहुत नजदीक खडा है, वो साँस की धड़कन भी महसूस करने लगी, एक आकृति भी जहन में उभरने लगी ......और आकृति उभरते ही वह हडबड़ा उठी, ये क्या भ्रम है ....और सामने रूपाभ खड़ा था, वैसा ही, उतना ही शान्त–ठहरा हुआ, तुम...... .......? हाँ मैं ------उसने कुछ भी बोलने नहीं दिया, मैं कुछ पूछूँ, उससे पहले उसने उँगली मेरे होठों पर रख दीI मैं कहीं नहीं गया थाI हर पल साथ था, बस तुम्हारे अन्दर की भीतरी तह तक जड़ जमाये उस विप्लव की काली साया से तुम्हें मुक्त करने के लिए कुछ वक्त लिया था, विपु ! मैं तुमसे दूर कही नहीं गया था मैं जड़ हुई उसे निष्पलक देख रही थीI उसकी माँ ने उसका नाम रूपाभ ऐसे ही नहीं रखा थाI उसके रूप की आभा ने विप्लवा के अन्दर के सारे विप्लव को थाम लिया थाI जब एक माँ ने विप्लव को जन्म दिया था तो उसे थामने के लिए दूसरी माँ ने रूपाभ को भी जन्म दिया थाI माँ ने यह नाम इसीलिए दिया था की कितने भी बड़े विप्लव हों ,उसकी रूप की आभा में ठहर जाएँ I ” विपु सब ठीक होगा “ मुझे लगा यह कहने में पापा के साथ आज माँ भी खड़ी थी I
अभिशप्त नंबर तेरह