आज का दिन भी निकल गया ..कल तो शायद अजीत की चिठ्ठी आनी चाहिए ,चिट्ठी आये भी कैसे ? दस दिन से तो पोस्टल विभाग की हड़ताल चल रही है, डाकखाने में तो चिट्ठियों के अम्बार लगे होंगे, किसे समय हैं जो उन्हें निपटाकर लोगों तक पहुंचा सके और समय हो भी तो जरूरत किसे है? उनका तो बेटा विदेश में बैठा नहीं है जो उन्हें माँ का दर्द समझ आये “ कुंती बुआ बड़बड़ा रहीं थींI श्यामल फूफाजी उनका बड़बड़ाना सुने जा रहे थेI कोई आज नई बात नहीं है I .जानते थे की गुजरे पंद्रह वर्षों में मुश्किल से ही शायद अजीत के पत्र कभी–कभार आते हैं I
इतने वर्ष हो गए, पड़ोस में रहते हुएI .वर्षों से कुंती बुआ और श्यामल फूफाजी को देख रही हूँ ,अच्छी तरह याद है, अजीत को जब विदेश की फैलोशिप मिली थी, तब भी बुआ ने कितना फ़ैल मचाया था बुआ अजीत पर बरस रहीं थीं “ नहीं जाने दूंगी तुझे सात समुन्दर पार, आखिर अपने देश में क्या पढ़ाई और नौकरियों की कमी है, जो समुन्दर पार कोसों दूर जाना चाहता है? अरे बूढ़े–बुढ़िया की लाश पड़ी रहेगी, उन्हें कंधा भी पड़ोसियों का ही मिलेगा, तू तो मुखाग्नि देने भी नही पहुँच पायेगा, .बीमारी-हारी की तो उम्मीद ही छोड़ दोI” बोलते–बोलते बुआ की आवाज हिचकियों में दब कर रह गई थीI फूफा बुआ को समझा रहे थे “ देखो ! बच्चे का भविष्य जिसमें अच्छा है, उसी में खुश रहोI क्या अपने स्वार्थ के लिए बच्चे का भाविष्य बिगाड़ दोगी, .समझदारी से काम लोI बच्चे को हिम्मत दो, बच्चे की ताकत बनो, कमजोरी नहीं I ये मत समझो की अजीत के लिए ये निर्णय ले पाना आसान है, अनजानी जगह का भय तो सभी को होता हैI उसे अपनी भावुकता से और कमजोर मत बनाओI जिस बच्चे को उसकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए अपनी खुद जिन्दगी को सीड़ी बनाया, आज जब वो मंजिल के करीब है, उसकी टांग खीच कर नीचे गिराने की गलती माँ की भावुकता नहीं कर सकतीI” कुंती बुआ के कान इन तर्कों को समझने के लिए बहरे हो चुके थे I
कुंती बुआ ने गुस्से में अजीत का सूटकेस-बैग सब सड़क पर फेंक दिये थेI “ अब शक्ल मत दिखाना, अपने दोस्तों के घर में ही रहना, वहीं से चले जाना, अरे इसी दिन के लिए पाल–पोस कर बड़ा किया था, कि ये निर्मोही छोड़कर चला जाएगाI अरे कोई लूला–अपाहिज ही होता तो कम से कम देहरी पर बैठा तो रहता, अरे इतना तो पुरखे छोड़ ही गए हैं कि सारी जिन्दगी रोटी खिला देतेI वहाँ जाकर क्या मोती-मूंगे खाने लगेगा I
बुआ का प्रलाप अपनी जगह था, अजीत चला गयाI बुआ–फूफाजी अपने जीवन में अभ्यस्त हो गए थेI अजीत ने कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद वहीं नौकरी कर ली थीI अजीत हर दूसरे साल आता रहाI जब आता तो घर में रौनक हो जाती, घर के कई काम भी निपटा जाता, फिर उसने वहीं शादी कर लीI पत्नी को लेकर माँ–बाप से मिलाने भी लाया थाI चार वर्ष बाद दुबारा भी आया था....फिर सारे सम्बन्ध कभी बैंक में मनीट्रांसफर और माह में एकाध बार आने वाले पत्रों तक सीमित रह गए थेI पत्र भी घटते–घटते साल में एकाध चिट्ठी तक सिमट कर रह गए थेI निराशा-हताशा अपनी जगह लेकिन बुआ का चिट्ठियों के लिए इंतज़ार ज्यों का त्यों बरकरार रहाI मातृत्व पर तो बुआ का एकछत्र अधिकार था,फूफाजी उस घेरे से बाहर थे, बकौल बुआ,ये कैसे समझेंगे माँ की ममता,अगर समझे होते तो क्या जाने देतेI पितृत्व की शिकायत की तो कोई अदालत वहाँ थी ही नहींI
सुबह जब तक पोस्टमैन दूर से हाथ हिलाकर चिट्ठी न होने का इशारा नहीं कर देता, कुंती बुआ अन्दर नहीं जातीं......हम कहते भी कि बुआ हम यहीं लैपटौप पर बरामदे में काम कर रहे हैं, आयेगी चिट्ठी तो आकर दे देंगे,पोस्टमैन चिठ्ठी वापस लेकर थोड़ी चला जाएगा,पोस्टमैन क्या अपनी मिठाई छोड़ देगाI अजीत के नाम की मिठाई तो खिलाओगी न ! फिर धीरे –धीरे कुछ भी कहना छोड़ दिया, बुरा भी लगता की क्या समझाएँ बुआ को I समझती तो हैं पर स्वीकारना नहीं चाहती Iठीक है, ये आशा ही शायद उनकी संजीविनी है I
आज बुआ के ड्राइंग रूम की तरफ सन्नाटा थाI बुआ बाहर नजर नहीं आईंI एक बार भी गेट की तरफ झाँकती भी नजर नहीं आयींI एकाएक घबरा भी गए, झाँक कर देखा, सब ठीक तो है ,बुआ की तबियत तो ठीक है, लेकिन बुआ रसोईघर में अपने काम में मगन थीं I सोचा चलो ठीक है, इतना ध्यान बंटा हुआ है की उन्हें समय की भी सुध-बुध नहीं रहीI काम समेटते –समेटते ग्यारह बज गए थे, रसोई से खुशबुएँ तो आ रहीं थीं लेकिन बुआ अभी रसोई से बाहर नहीं आईं थीं, माजरा कुछ समझ नहीं आ रहा था, जाकर ही देखें, आती खुशबु और बने खाने के डोंगे बता रहे थे कि बुआ ने आज बैठने का नाम ही नहीं लिया होगाI
पिछले इन पंद्रह वर्षों में शायद ही बुआ को कभी रुचकर रसोई पकाते देखा थाI एकाएक तो डर भी गए, कहीं बुआ के दिमाग पर बेटे का विछोह का सदमा बैठ तो नहीं गया, किसी प्रलाप में बस वे इतने व्यंजन बनाती जा रहीं हैं I अनजान बने, शायद हमारे बहाने तब तक रसोई से आती खुश्बू को सूंघते हुए फूफाजी ही रसोई में पहुंचकर बुआ को छेड़ रहे थे “ भई ! क्या बात है ! कुछ तो जरूर है ,जो हमसे छुपा रही हो ! अरे भई ! हमें भी पता तो चले, क्या बात है? ,कोई फोन या कहीं से कोई शुभ समाचार आया है? रसोई में इतनी उलझी हुई हो कि सुबह से तुमने एक बार भी पोस्टमैन के लिए नही झांका?” आज तो हम तो बार-बार आके झाँक जा रहे थे कि माजरा क्या है, पूछकर बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का खतरा कौन मोल ले, देखो बिंदा भी पड़ोस से काम छोड़कर देखने आ गईI आज तो ये ऐसे चहकती फिर रही हैं कि अजीत की चिट्ठी नहीं, अजीत खुद आ गया हो I”
फूफाजी की इस चुहल पर एक बार को तो बुआ अन्दर तक सूख गईं ,...फूफाजी भी घबरा से गए लेकिन लगा की आज उन्हें फूफाजी की ये चुहल भी अच्छी लगा रही थीI आज बुआ की आँखों में मानो फूफाजी के लिए दुनिया–जहान का प्यार उमड़ आया थाI अपनी सारी पीड़ा को जैसे झाड़ती हुई उसी चहक से बोली, ” अरे अपने बेटे के लिए नहीं, सास के बेटे के लिए उसके पसंद के पकवान बना रही हूँ I कितने साल गुजर गए, पसंद का खाना ही नहीं बनायाI त्यौहार कब आते–कब चले जाते, पता ही नहीं लगता, हम तो आपस में हँसना ही भूल गएI अपने बेटे के मोह में बस अंधी ही रहीI उसकी ममता में उसके बाप को भी उसका दुश्मन समझती थीI बस सारी उम्र इसी यतन में लगी रही कि, बेटे को खरोंच भी न आ जाएI अपनी खुद की इच्छाएँ क्या होती हैं, कभी जाना ही नहींI पिता के कठोर अनुशासन से भी बचाने में ही लगी रहती, बेशक बेटे का ही नुकसान हो जाएI आज उस बेटे के पास माँ को याद करने के लिए चन्द मिनट भी नहीं हैं I अरे अपने बेटे से तो सास का बेटा अच्छा हैI सास के बेटे को रिश्ते का दर्द तो है, अरे बुढापे में भी मुँह देखते रहते हो I खांसी भी आ जाए तो उठ कर बैठ जाते हो I खून के रिश्तों पर खून बहा देते हैं, लेकिन रिश्ते तो प्यार से बनते हैं, ये आज समझ आया है I अपने बेटे से अच्छा तो सास का बेटा है जिसने कभी किसी बात का बुरा नहीं माना, यहाँ तक की अपनी पीड़ा तक को मुझसे छिपाकर रखा ....क्या में समझती नहीं हूँ की मेरे घावों पर मरहम लगाते–लगाते, अपने उन घावों को तुमने भुला ही दिया जो अन्दर ही अन्दर रिस रहे हैं I कितने सालों से एक मुखौटा लगाए घूम रहे हो I एक आँसू जो कभी बाहर आने दियाI अपने बेटे के प्यार में अंधी मैं तो सास के उस बेटे को प्यार देने में भी कंजूस ही रही, मानों प्यार पर बस पूरा हक़ अजीत का समझती रही I लोग कहते हैं, बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है, मेरी तो लाठी मेरी सास का बेटा ही बना, अपना बेटा नहींI “
बुआ बोले जा रहीं थीं, फूफाजी उनके पीछे खड़े धीरे–धीरे मुस्करा रहे थेI दुनिया जहान का प्यार जताती कुंती बुआ के लिए वे खुश थेI वो खुश इसलिए भी थे कि देर ही सही आज उनकी कुन्ती का मोह भंग हो गया और वे चाह रहे थे की उसके अन्दर की सारी भड़ांस निकल जाए, वो अपनी जिन्दगी सुकून से निकाल सकेI जिस सच को उन्होंने बहुत पहले स्वीकार कर लिया था ,कुन्ती उसे नकार रही थीI कुन्ती निश्छल शान्त थी Iफूफाजी ने कुंती को हिलाया, अबतो सब्र नहीं है इन्तजार का ,बिंदा को क्या खुशबुएँ ही सुंघाती रहोगी की खाना भी खिलाओगीI बुआ खिलखिला उठीं थी, बुआ को खिलखिलाता देखकर इतने वर्षों से रुके हुए फूफाजी के आँसू कपोल तक आ गए थे, जिन्हें फूफाजी ने छुपाया नहींI
ट्रेन फिर मिलेगी