दीदी शादी के बाद पहली बार घर आ गई थीI औरों का नहीं मालूम, मैं सबसे ज्यादा खुश थीI
दीदी के गले में बाँह डालकर लटक गई “ आप अब कितने दिन बाद जाओगी?” दीदी ने कुछ जबाब नहीं दिया, मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल दिया है, नहीं दीदी मेरा मतलब ये नहीं है, आप जल्दी तो वापस नहीं जाओगी दीदी ! मुझे आपकी बहुत याद आती है ...दीदी शायद मुझे सुन ही नही रहीं थीं, लेकिन मुझे शून्य भाव से देखे जा रहीं थीं, आँखों में वही प्यार था, मेरे लिए इतना काफी था कि दीदी मुझसे नाराज नहीं हैंI
ताईजी माँ से पूछ रहीं थीं कि बिटिया ने कुछ तो बताया होगा? “उसे कुरेदने की कोशिश नहीं की, वो मुँह सिले बैठी है, उसके उस पोस्टकार्ड पर रजत उसे लेकर आ तो गया था, आने के बाद से एक शब्द वो नहीं बोली है, पता नहीं,कौन सा आघात है कि वह बिलकुल पगला सी जाती है, बस अब उसे पूछ कर और तकलीफ नहीं दे सकतीI ” ताई के लिए इतना पर्याप्त नहीं था, “अरे ! उसकी ससुराल वालों से भी कुछ नहीं पूछा-बताया, अरे रजत गया तो, उसने तो घर वालों से बात की होगी ,उन्होंने क्या ऐसे ही आने दिया? “ जो थोड़ा बहुत समझ सकती हूँ, वो रजत की ही बातों से अंदाज़ लगाया, लेकिन उसने भी कह दिया माँ आप न दीदी से कोई बात करोगी, न उनकी सहमति के बिना उनकी ससुराल वालों से, दीदी को खुद अपने सदमे से बाहर आने दो, उन्हें समय दो, वही बताएगीI ” ताई न रजत से न माँ की बातों से आश्वस्त थीI ताई के लिए बस हम ही उनके बच्चे थे, और अपने बच्चों के बारे में इतने अधूरे जबाब, उनके लिए और अधिक प्रश्न खड़े कर रहे थेI
माँ और ताईजी बहनें थीं, ताऊ जी को हमने देखा तो नहीं, लेकिन इतना जानती थी की वो पापा के बड़े भाई थे, जिनकी बहुत कम उम्र में मृत्यु हो गयी थी हमें हैरानी होती थी, जिन ताउजी को हमने देखा भी नही है, ताई जी के पास भी उनकी कोई विशेष यादें नहीं हैं, हम उनको ताईजी तो कहते हैं लेकिन एक जीवित रिश्ते से हम उन्हें मौसी क्यों नहीं कहते, शायद इसका भी कारण रहा होगा, ताऊ जी को जीवित रखने के लिए ही उन्हें ताईजी अधिक सम्मानजनक और अधिकार पूर्ण लगता होगा, ताई में अपने घर में रहने का अधिकार भाव था तो मौसी में एक परायापन या दया भाव और जब से मैंने होश संभाला था बस इतना समझा था की हमारी ताईजी और माँ एक दूसरे की परछाई थीं ..उठने के बाद मैंने हर सुबह बस यही देखा था की, दोनों पूजाघर में होतीं, दोनों के अपने–अपने ठाकुरजी की चौकी थीI भगवान नहाते जाते, नहाते रहते, जब तक उनके किस्से ख़त्म नहीं हो जातेI मन्त्र-जाप चलता रहता और बातें न कभी रुकती, न जुबान कभी थकतीI
न जाने क्यों ...दीदी को लेकर फिर मैंने उनकी जुबान पर कभी कुछ नही सुना I दीदी के साथ क्या हुआ मालूम नहीं, किसी को कुछ पूछते नहीं देखा सुना,दीदी फिर से अपनी नौकरी पर स्कूल जाने लगी थीं और काफी व्यस्त रहती थींI
लेकिन दीदी वैसी नहीं रह गई थीI मेरा मन करता की दीदी से खूब बातें करें, खूब प्रश्न करें, लेकिन उनकी खामोशी फिर मुझे ही खामोश कर देतीI दीदी मुझे बहुत प्यार करती, लेकिन मेरा मन करता की मैं उनकी दोस्त बनूँ, उनकी परछाँयी बन कर रहूँ बारह साल छोटी हूँ तो क्या हुआ, एक उम्र के बाद तो माँ–बेटी भी दोस्त बन जाती हैंI
रोज की तरह मैं स्कूल समाप्त होने पर में दीदी का इंतज़ार कर रही थी कि शिवराम चपरासी भैया आये, बोले बिटिया, दीदी तो दस बजे ही मीटिंग के लिए चली गयीं थीं आपको ऑटो से घर चली जाने के लिए बोल गयीं थीं, ऐसा अक्सर हो जाता था, कोई ख़ास बात नहीं थी, हम गेट के बाहर आ ही रहे थे, हमारी कुछेक अध्यापिका खडीं थीं, किसी से बात कर रहीं थी, सामान्य हँस–बोलकर बात हो रही थी, एक ऑटो सामने ही खडा था, मैं ऑटो के लिए बढ़ गयी, ऑटो वाला बोला, नही दीदी ! मैं सवारी लेकर आया हूँ, उन्हीं के साथ हूँ, वो आ ही रहे हैं , मैंने पीछे मुड़कर देखा, सवारी इसी ओर आ रही थी, ओह ! ये तो वही सवारी है ,जो अभी अन्दर अध्यापिकाओं से बात कर रही थी, होंगे कोई अभिवावक या किसी के मित्र ... तभी गौर से चेहरा देखा, ये तो जीजाजी हैं ? यहाँ? क्यों? कैसे ? हम हकबका गए थे, वो तब तक हम तक पहुँच गए थे, इनसे छिप जाऊँ या झिंझोड़ दूँ, सामना करूँ? सारे अनुत्तरित प्रश्नों के जबाब आज ले लूँ ? क्या दीदी मुझे इसकी इजाजत देगी? ‘ नही ‘ वो कुछ बोलते या पहचानते, इससे पहले मैंने दूसरे आते ऑटो रोका, ऑटो में बैठ गयी थी लेकिन मेरी साँस अभी तक फूली हुई थी ,बहुत सारे प्रश्न उमड़–घुमड़ रहे थे, क्या दीदी कालेज में उनसे मिली थी? या वो घर आये होंगे? क्या दीदी इसीलिए कॉलेज में नही है? क्या वो दीदी को लेने आये होंगे? क्या दीदी जायेगी? ऑटो वाले को पैसे दिए, बहुत सारी संभावनाओं और आशंकाओं के साथ अन्दर पहुँची, सब अपने–अपने काम में यथावत, दीदी हाथ में चाय का प्याला लिए बाहर आई, ऑटो की आवाज उनहोंने सुन ली थी, “ शिवराम ने तुम्हे बता दिया था? मैं भी अभी ही आ रही हूँ “ यानी यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जैसा में सोच रही थी, फिर वो स्कूल क्यों आये थे ....अब तो हैरान होने की बारी मेरी थी, दीदी मेरे हाव भाव पर हैरान थी और मैं उनके, क्या हुआ है? सब ठीक तो है छुटकी? दीदी .......मैं उनसे लिपट गयी, दीदी जीजाजी को मैंने स्कूल में देखा ...वो आपसे मिले नहीं ...?
क्या ????? दीदी चीख उठीं ...’ नही ...नही... वो तुम्हारे पास क्यों पहुँचा? मैं तुझे उसकी परछाईं से भी नही मिलने दूँगी ....मैं उसकी जान ले लूँगी...’ वो निढाल होकर गिर गयीं थी, माँ–ताई आवाज सुनकर दौड़ कर आ गयीं थी, क्या हुआ है? कौन आया है? पानी के छींटे उनके चेहरे पर डाले, पानी पिलाया, ‘ दीदी दीदी, उठो..उठो ...मैं रो रही थी, देखो मुझे कुछ नहीं हुआ है, मैं ठीक हूँ ‘
दीदी फफक उठी थी, बार–बार मुझे लिपटा कर अपनी बाहों में कस रही थी, वो तुझे हाथ भी नही लगा पायेगा, वो इंसान नहीं हैवान है ...माँ ताई जो अब तक स्तब्ध खडी थीं, आकर दीदी को लिपटा लिया.....बेटा अब तो बता दे, राक्षस ने क्या किया है तेरे साथ, यदि कुछ किउया है तो वो जिन्दा क्यों है ?
माँ ! तेरी विभा की शादी नहीं हुई है, वो बिना मोल के बिक गयी है, जिस शान –शौकत, हवेली के ठाट और हीरे–जवाहरातों से लदी जिन जिठानियो को देख कर तुम मेरे भाग्य की बलैय्याँ ले रही थीं कि तुम्हारी बेटी भी ऐसे ही राज करेगी, वो हवेली नही है,कोठा है, हर रात वो रानियाँ बिक रहीं हैं, वहाँ कोई पति–पत्नी नही है ,पति अपनी पत्नियों के दलाल हैं, माँ! मैं एकदिन के लिए भी उस पति की पत्नी नहीं बन पायी जिसे आपने हमें सौंपा था और एक दिन की भी बहु नही बन पायी ...जो मुझे गा बजा के लेकर गए थेI
माँ–ताई के चेहरे सदमे से सफ़ेद हो गए थे, वे जड़ हो गयीं थी की दीदी कह क्या रही है, लेकिन दीदी का धैर्य और चुप्पी की ठहरी हुई नदी आज सारे किनारे तोड़ कर बह निकली थी, दीदी फफक-फफक कर रो रही थी .....रजत कालेज से आगया था पापा भी कचहरी से आ चुके थेI घर में घुसते–घुसते जो सुना था, ठगे से खड़े थेI
सबसे बेखबर दीदी बोले जा रही थी, यहाँ से मैं, उस दरिन्दे के साथ शादी होकर गयी थी, दिन पूरा निकल गया था, कोई रिश्तेदार–मेहमान था नही, सिर्फ अपना परिवार था, रस्में–आयोजन चलते रहे और सभी थके थे, तो अपने–अपने कमरे में आराम कर रहे थेI सभी जिठानियाँ देखभाल कर रहीं थीं, जब मैं कमरे में पहुँची थी, सुदेश कमरे में थे, बैठे रहे, बहुत सारी बातें करते रहे, फिर कोई फोन आया ,कुछ बात करते रहे, फोन काट दिया, हमारी और मुखातिब होकर बोले, अरे विभा ! कुछ बहुत जरूरी काम आ गया है, लेकिन मेरे मित्र को आना है, प्लीज! तुम उसकी देखभाल कर लेना...सॉरी”, बाक़ी घर में सब नौकर चाकर हैं,जानते हैं, काम संभालते हैं, मुझे एकदम अटपटा लगा क्या बात कर रहे हो, मैं घर में एकदम नयी हूँ, अभी तो घर वालों को ही बमुश्किल पहचानती हूँ, किसी अपरिचित को अपने कमरे में? घर भी पूरा नही देखा है, घर में इतने सारे लोग हैं, मम्मी–पापा हैं ,बाकी के भाई देखेंगे, बाहर ड्राइंग रूम में, कैसी बात आप कर रहे हो? आपके दोस्त बैड रूम में क्यों आयेंगे? अब सुदेश थोड़े आज्ञात्मक हो रहे थे, हम सब भाई एक साथ रहते हैं, लेकिन सबकी अपनी अपनी जिन्दगी है, सबके अपने–अपने गेस्ट होते हैं, मैं कुछ कहती, वो जा चुके थे, स्तब्ध मैं! कैसे भी इस तरह की शुरुआत के लिए तैयार नहीं थी, मैं दरवाजे तक आयी बाहर झाँका, क्या मम्मी–पापा के कमरे तक जाऊँ, कोई दिख ही जाए तो मदद हो जाए, दिन भर शादी के आयोजनों से भरी हवेली में एकदम सन्नाटा था, सब कमरे बंद थे, बाहर कोई नही था, किसी के कमरे भी नही पता, कहाँ जाऊँ, वापस कमरे के लिए मुड़ी थी कि वो मित्र दरवाजे पर खड़े थे, मैं हकबका गयी, माँशा अल्लाह! सुदेश क्या कोहिनूर पाया है! मेरे लिए ये बेअदबी नाबर्दाश्ते काबिल थी, ‘ मोहतरमा ! मैं अन्दर आ सकता हूँ? अपने पर काबू करते हुए मैंने कहा, जी! मैं माफी चाहती हूँ, सुदेश को अचानक काम से जाना पड़ गया है, सभी लोग शादी से थके हुए हैं, और अपने –अपने कमरों में सोने जा चुके हैं, आप फिर आ जाइयेगा और मेरा ये कहना था की वो दुष्ट मुझे लगभग हाथ से धक्का सा देते हुए बिस्तर तक आगया, ‘मोहतरमा यहाँ मैं आपके पास आया हूँ, सुदेश के लिए नही ‘ क्या बदतमीजी है, आप शालीनता की सीमा लाँघ रहे हैं, आप होश में नहीं हैं, आपके मुँह से शराब की बदबू आ रही है, आप निकलिए हमारे कमरे से, नहीं तो मैं शोर मचा दूँगी, वो अब तक धृष्ट हो चुका था, कोई शोर नही सुनेगा, सब अपने–अपने कमरे में बंद हैं, पूरी कीमत देकर आये हैं, अब कुछ भी सुनना बाकी नहीं था, मैं धक्का देकर, अपने को छुडाते हुए बदहवास बाहर भागी, किसी का कमरा मुझे नही मालूम, हर दरवाजे के पास पहुँची, तो कोई भी सोया हुआ नही था हँसी ठहाके की आवाज आ रही थी, मैंने खटखटाया, लेकिन कोई बाहर नही आया, मैं भागकर अपने कमरे में आयी, वो दुष्ट जा चुका था, मैंने कमरा बंद कर लिया, एक–एक साँस अपनी सुनती रही, अपनी साँसों से भी डर लग रहा थाI काश उस दिन मैं अपनी साँस रोक पाती, मेरी आँखें रो–रो कर सूज चुकी थीं, कई बार दरवाजे पर खटखटाया गया, लेकिन मेरे अन्दर न दरवाजा खोलने की ताकत थी न इच्छा, लेकिन उस रात से भी भयावह वो सुबह थी, रात में तो एक दरिन्दे से सामना हुआ, दिन में तो हर शख्श वहाँ दरिंदा था, मैं हैरान रह गयी की मेरे रात के हादसे पर सब चुप थे, आँखें मुझे मेरे बर्ताव के लिए घूर रहीं थीं, उनमें चेतावनी भी थी और सहयोग भी, मैं रो रही थी, पति कहे जाने वाले उस दरिन्दे की तरफ मैंने मुँह उठाकर भी नही देखाI मुझे अकेला पाकर, एक–एक करके सब जिठानी आयीं, लेकिन सभी की भाषा एक ही थी की, जैसा है ऐसे ही चलेगा, हम सबने इसे स्वीकारा है, स्वीकारने के अतिरिक्त किसी विकल्प के बारे में मत सोचो ..... घर वापस जाने की सोचना भी मत, मायके में जाकर क्या कर लोगी, उन्हें भी मुसीबत में डालोगी, उसके बाद हर रात हाथा-पाई, जोर-जबरदस्ती, ये तो निश्चय मैंने कर ही लिया था की मर जाऊँगी, लेकिन किसी को हाथ नहीं लगाने दूँगी ...बस पता नहीं कैसे एक नौकरानी को तरस आ गया और वो समझ गई थी की ये मर जायेगी या मार डाली जायेगी, यहाँ से निकला तो कोई नहीं है, समझाती रही, फिर एक दिन अपनी जान जोखिम में डालकर, वो पत्र उसने हमसे लिखवा कर आपको पोस्ट कर दियाI
माँ–पापा,ताई सब, रजत पर चिल्ला पड़े, तूने ये बात आते ही क्यों नहीं बतायी, इतने दिन से वो अकेले अन्दर ही अन्दर मर रही है, सालों को हथकड़ियां लगवाता ,अपराध उनहोंने किया है, सजा यातना ये क्यों भुगतेगी, रजत खुद हैरान था ,बोला, मैं दीदी के घर तक पहुँचा ही कहाँ था, जब मैं रिक्शे से दीदी के घर की तरफ जा रहा था, दीदी मुझे सड़क पर मिली थी, बदहवास, हमारा हाथ घसीटते हुए स्टेशन वापस ले आयी, बस यहाँ से निकल चलो, एक पल भी स्टेशन पर नही रुकने दिया, मैंने कहा, मुझे बात तो करने दो आखिर बात क्या है, इन्होंने कुछ नही सुना, बोलीं, हम दोनों को मार डालेंगे, वो कोठी नहीं कोठा है और माँ–बाप तक इसमें शामिल हैं,वे लडकियां ब्याह कर नहीं लाते, लडकियां बिना पैसे के खरीद कर लाते हैंI कौन सी ट्रेन है, कहाँ जा रही है, कुछ भी नही पूछने दिया, जो भी ट्रेन चलने वाली थी, उसी में बैठ गयी, हम क्या पूछ सकते थे, इन हालात में ,कई स्टेशन निकल जाने के बाद जब दीदी का डर कुछ कम हो गया, हम दोनों ट्रेन से उतरे, मैंने दीदी को चाय लाकर पिलाई, दोनों ने एक एक समोसा खाया ,तब यहाँ की ट्रेन पकड़ी, दीदी ने कहा था मैं किसी को कुछ नही बताऊँगाI
पापा विभा से लिपट कर रो रहे थेI ‘ तुझे अपने बाप पर इतना भी भरोसा नहीं था, अकेले इतना कुछ झेलती रही, मेरी बिटिया बिकाऊ नहीं है, एक–एक को नंगा करूँगा, सारी जिन्दगी जेल में काटेंगेI ‘ पापा आज वो स्कूल नहीं पहुँचता, छुटकी को उसने देखा न होता तो मैंने तो इस सच को अपने अन्दर दफन कर लिया था, पापा छुटकी को बचा लो, वो लोग नहीं छोड़ेंगे, पापा ने थपथपाया, तुम दोनों आज अपने बाप की बाहों में हो, कोई इस दुर्ग को नहीं भेद सकता, दोनों सुरक्षित हो .....जितना रोना था रो ली हो तुम, अब एक आँसू भी नहींI जितने आँसू तूने बहाए हैं उतने आँसू उस घर का एक–एक सदस्य बहायेगाI ताई रो रहीं थीं, इस ब्याही से तो कुँवारी भली थीI
छूटे हुए छोर