‘ मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो मुझे विवेक के साथ जाने दो ! सुमेध ! तुम्हारा तो विवेक ने कुछ नहीं बिगाड़ा था, तुम तो हम लोगों को इतना प्यार करते हो? तुम क्यों विवेक के पास जाने से रोक रहे हो? मुझे---------विवे- - - -क - - - मुझे जा- - - -ने दो विवे- - - - क मुझे – ‘ - - -कहते-कहते सुनयना सुमेध की बांहों से सरकती हुई निढाल होकर फर्श पर गिर पड़ीI सुमेध ने आहिस्ता से संभालकर सुनयना को वहीँ जमीन पर लिटा दियाI
सुनयना पर इंजेक्शन का प्रभाव शुरू हो गया था और उत्तेजित सुनयना धीरे–धीरे निढाल होकर शान्त हो गई थी I
स्तब्ध सी ख़ामोशी व्याप्त थी सूरज ढलने को आ रहा थाI विवेक के घर की ओर सेना की जीपों को जाते देख, अजीब सी आशंका से घर में भीड़ बढती जा रही थी जिसको जैसी खबर मिल रही थी लोग, घर को उमड़ रहे थे I
अभी तो विवेक अपनी कैजुअल लीव काटकर वापस गया थाI सीमा पर तनाव और मुठभेड़, आतंकी हमले तो फौजियों की आदत बन गए थे ,कभी ऐसी कोई बात भी नहीं की थी, हैरान सब लोग कुछ–कुछ बातें कर रहे थे I
सभी स्तब्ध थे ऐसी अनहोनी क्योंकर घट गई,सुमेध बता रहा था ‘ जाने से पहले अभी मंगलवार को इस समय हम दोनों कॉफ़ी हाउस में बैठे थेI विवेक का फोन आया, गंज आ जाओ, वापस जाने से पहले ज़रा हनुमान जी के दर्शन कर लें, मैंने हंसकर कहा, हनुमान जी का नाम लेगा तो मना थोड़ी करूँगा, दर्शन करके बोला, सही बात तो यह है कि कॉफ़ी हॉउस में बैठने का मन कर रहा था, मंदिर तो बहाना था, फौजी के साथ तो सुपर कमाण्डर हनुमानजी हमेशा ही रहते हैंI काफी देर तक छोटी-छोटी क्षणिकाएँ सुनाता रहा उसके व्यंग्य बड़े पैने होते थे, ‘ मैंने कहा, कवि बनते-बनते तू फौजी कैसे बन गया? ’ हंसकर बोला ‘ दुश्मन का सीना फाड़ने के लिए सीना चाहिए, दोस्तों का दिल जीतने के लिए दिल चाहिए, और दिल की बात तो शायरी-कविता में ही होती है, दोनों साथ लेकर चलता हूँ ‘ ‘ कैसे विश्वास करूँ, इतना दगा करके जा सकता है, ‘कॉफी हाउस में आदतन कश लगाते–लगाते, विवेक इस खाली सिगरेट के डब्बे से खेल रहा थाI मेज पर पड़ी कलम उठाकर डब्बे पर ही कुछ लिखने लगाI क्या लिख रहे हो? मैंने यों ही पूछा,
“मौन वक्तव्य में
मौज-मस्ती विदेशों में
मंत्रणा गुप्त विरोधियों से
मक्कारी फिदरत में
जनता के हाथ
‘ मंदी-मंहगाई-मुसीबत-मजबूरी- मायूसी ‘
ये बातें ‘म’ पंज पियारे
राजनीति के मंत्र धरोहर
जनता के बहलावे हैं!
मौसमी चुनावी नारे हैं ! ‘
ये पंक्तियाँ लिखकर उसने लापरवाही से वहीँ छोड़ दियाI वो तो मैंने उठा लिया, मैं बार-बार भौंचक इसे पढ़े जा रहा हूँI पिछली मंगल की शाम जिसके साथ ठहाकों में गुजारी थी, आज की शाम इतना रुलाएगा किसे पता थाI ऐसा दोस्त मुफ्त में चला गयाI यहाँ भी मजाक से नहीं चूका I
विवेक के शव के साथ आये कैप्टेन विधान ने बस इतना ही बताया की ये हादसा तो शुक्रवार को ही हो गया, लखनऊ से वापस पहुँचकर अपने बंकर से एक्सरसाइज की रेकी के लिए जा रहा था, आगे बढ़ते हुए पता नहीं पीछे कैसे उसने अपने से काफी दूर पर कुछ शत्रु गतिविधि का अंदाज लगाया, उसने उसे चौकन्ना कर दिया, पलट कर जब तक फायर कर पाता, पहले से सेंध लगाए उन आतंकवादियों ने ताबड़तोड़ फायर कर दिएI साथ में चल रही प्लाटून ने कवर देते हुए पलटवार फायरिंग की, फायरिंग उधर से भी भीषण थी, विवेक तक पहुंचना मुश्किल हो रहा था I किसी भी हाल में हम लोग विवेक को दुश्मन के हाथ नहीं पड़ने देना चाह रहे थेI पाकिस्तानी तो अपने घायलों तक को छोड़कर भाग जाते हैं ,लेकिन हम लोगों के लिए, अपने सैनिक हों या अफसर, कितने भी खतरे हों ,उनके मृत शरीर को भी दुश्मनों के हाथ नहीं पड़ने देते I आपको शायद अविश्वसनीय लगे, लेकिन एक-एक कैजुअल्टी को दुश्मनों के हाथों से बचाने के लिए सैनिक अपने प्राण गँवा देते हैंI
सुनयना के निस्तेज चेहरे की पीड़ा असाध्य हो रही थीI अवचेतन मन में आते–जाते उसके भावों को पढ़ा जा सकता था, सोच रही होगी, कैसे पलक झपकते जीवन के अर्थ बदल जाते हैंI ऐसा क्या विचित्र घट गया की सब कुछ अर्थहीन हो गयाI सब कुछ तो जैसे का तैसा है ! ये कैसा भूचाल है, कार-मकान, मकान में सजी हर चीज, कीमती परदे-कीमती कालीन-गलीचे–टी.वी-फ्रिज, सभी तो अपनी जगह हैंI क्या हुआ है विवेक को? वो तो बिलकुल शान्त लेटा हुआ है, कहीं कुछ भी तनाव नहीं है ,चिंता नहीं है, एकदम शान्त ! फिर ! शरीर में से कौन सी चीज चली गई, जिससे सब कुछ चला गया जैसा लग रहा हैI ऐसा लग रहा है कोई अन्दर से कुछ खींचे लिए चला जा रहा हैI
विवेक के दिल-दिमाग-शरीर सब तो उसके थे, सब पर उसका अधिकार था, सबको उसने भोगा थाI दोनों तो एक दिल-एकात्मा थे, ऐसा दावा कितनी बार विवेक ने भी किया था,वो उसे हमसे कैसे छीन सकते हैं ?
घर के नाश्ते-पानी से लेकर सोने-जगने तक के निर्णय के लिए वे एक-दूसरे से जुड़े थे, फिर आज अपने विषय में विवेक इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकता है? विवेक ने कैसे इसे अपना मान लिया? रात के गहन सन्नाटे के कितने निजी पल साथ बांटे हैं, एक दूसरे के लिए हम दोनों कितने पूरे थे, हम एक दूसरे के पूरक थे, एक दशक तक जिसे सच मानकर भोगा था, वो झूठ कैसे हो सकता है? विवेक सब कुछ कर सकता है लेकिन झूठ नहीं बोल सकताI कितना सुन्दर था वह झूठ और कितना वीभत्स है ये सचI ऐसा सच क्यों सामने है, जो झेला ही न जा सकेI क्या वो सब छल या भुलावा था? किसे सत्य मानें? किस पर विश्वास करे? अगर इसी को सत्य मान ले, जो आज इस पल सामने है तो वो सब छलावा था, विवेक छल मात्र था, विवेक छलावा रहाI मैं इतने वर्ष बस छली जाती रहीI
विवेक तो मुझमें समाया है, हमने अपनी सांस में उसकी सांस के स्पंदन महसूस किये हैं ,मेरे प्राण से अपने प्राण निकालकर कैसे जा सकते हैं I उस असहाय वेदना में सुनयना के चेहरे पर एक मुस्कान सी तैर गई ,मानो कह रही हो ,वो तो मेरे पास सुरक्षित है, उन्हें कोई कैसे ले जा सकता है? प्राण तो मेरे निकले हैं, निर्जीव मैं हो रही हूँ, विवेक तो मेरे अन्दर जीवित हैI
‘ विवेक ! कह दो , सब लोग गलत कह रहे हैं ‘ और यह कहते-कहते सुनयना फफक-फफक कर रो उठीI
घर का वातावरण बोझिल होता जा रहा था सूचना पाने के साथ ही रिश्तेदारों का हुजूम अलग-अलग जगहों से पहुँचता जा रहा थाI कोई कार-ऑटो–रिक्शा या सवारी रूकती और सवारी के उतरते ही सबकी रोने की आवाजें तेज हो जातींI ’हाय मैं मर क्यों न गई?बेटे आ जाओ ----------बेटे अब मजाक मत करो -----बेटा ! तू ही तो कहता था,माँ अपना वजन कम करो, जब तू मरेगी तब तो मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँगा, तेरी अर्थी कैसे उठायेंगे? अगर किसी बात पर गुस्सा होती तो कहता, चेहरे पर ज्यादा सिलवटें मत डालो,झुर्रियां पड़ जायेंगीI अरे धोखेबाज! अपनी तो क्या, तूने तो मेरी झुर्रियों को भी देखने का इन्तजार नहीं कियाI मैंने जिन हाथों से खिलाया है, अब उनका कंधा भी ले ले बिटवा खूब मजबूत हैं मेरे कंधे, मैं तुझे लेकर जाऊँगी, खूब हिसाब पूरा करके गया है I ’
गोद में विवेक का सर रखे अधेड़ उम्र के पिता बार-बार विवेक का चेहरा पोंछ रहे थे लेकिन उनके आंसुओं की धारा से विवेक का चेहरा बार-बार गीला हो रहा हैI लोग पिता को उठाने की कोशिश कर रहे थे, इतनी देर से अपने को संभालते पिता बिलख उठे, अब मैंने अपने बेटे को ही जमीन पर ले लिया है तो मैं ऊपर क्योंकर बैठूँ?मेरा विवक जमीन पर सो रहा है मैं पलंग पर कैसे सो सकता हूँ जिन हाथों से उसे खिलाया है ,उन्हीं हाथों से उसे लकड़ी दूँगा ------ ,अरे उसको जलाने के लिए जाने से पहले मेरे हाथ ही जल क्यों नहीं जाते ?
फिर ऑटो रुकते, कार रुकती, सवारियों के उतरने के साथ ही गगनभेदी चीखों से घर भर उठताI लोग फिर फुसफुसाते ----ये विवेक के चाचा हैं, ये सुनयना के माता-पिता हैं, ये सुनयना का भाई है --------सुनयना की बहिन का इन्तजार हो रहा है, उम्मीद है कल तक पहुँच जायेगी, ये विवेक के चाचा की लड़की है, ये विवेक की मौसी हैं, ये विवेक के मामा बैठे हैंI
सुनयना के आंसू तो कब के सूख चुके थे, आंसुओं का सैलाब अब तक नदी बनकर बहुत दूर जा चुका था, वह तो बर्फ से ढकी चट्टान की भांति ठंडी पड़ चुकी थीI सूनी आँखों से वह सबको नि:स्पृह भाव से देख रही थी, सबके रिश्तों को तौल रही थी ये सब विवेक के लिए क्यों रो रहे हैं, विवेक अकेला गया है, वह इतने लोगों का अपराधी कैसे हो सकता है? नेता और आम लोग कह रहे हैं, उन्होंने एक होनहार सैनिक खो दिया है, बटालियन के सी.ओ.कह रहे हैं हमने अपना काबिल अफसर खो दियाI
एक विवेक की जिन्दगी पर कितने लोगों का हक़ है, माँ को लग रहा है ,जैसे उसके प्राण ही हर लिए गए हों, पिता बिलख रहे हैं कि वह अपना था ही नहीं, इतना बड़ा विकराल शून्य है सामने? अब जीने के लिए कौन सा बहाना है .......किस झूठ के सहारे जिये? अरे मृग तृष्णा ही सही, कम से कम जीने का बहाना तो थी .......अब तो वो भी नहीं है I
बुच्ची - - - - ? जो कुछ समझने के लिये इधर-उधर भड़भड़ाई सी घूम रही थी, कुछ भी समझ नहीं पा रही थी उसके अंश से जन्मी बुच्ची तो उसी का प्रतिरूप है, अपने नफा-नुक्सान की समझ जब तक आयेगी शायद वह विवेक की शक्ल भी भूल चुकी होगी, उसके लिए पिता का अर्थ फ्रेम में मढ़ी एक तस्वीर होगीI अचानक लोगों को रोता देखकर रोने लगती है I
रिश्तों के गणित को समझने में असमर्थ सुनयना यही सोच रही थी, सेना का नुकसान बड़ा है, देश का उससे बड़ा है, यही तो सेना के संस्कार हैं, परिवार का नुकसान उससे कम है, फिर विवेक पूरा माँ का कैसे था? पिता उसे अपना सम्पूर्ण कैसे मान रहे थे? मैं ये कैसे समझ रही थी कि विवेक तो सिर्फ मेरा था, पूरा मेरा, मैं उसकी सर्वस्व थी, वो मेरा सर्वस्व था ! सैनिक तो पूरे देश के लिए होता हैI जब देश अपने सैनिक पर गर्व करता है तो सैनिक का परिवार बस उस अहसास पर फक्र करता है,इससे अधिक कुछ नहींI
कैसा अद्धभुत इस प्रेम का का अंक गणित? जो इतनी संख्या में बंटने के बाद भी सबके हिस्से में पूरा-पूरा आ रहा है, रिश्तों के गणित में अंक कितने पूरे हैं, इतने रिश्तों में बाँटने से बँटता नहीं है, घटाने से घटता नहीं है और तो और जुड़ने-जोड़ने से जुड़ता भी नहीं हैI अभी तो यही समझ आ रहा है, वो पूरे का पूरा खाली करके चला तो गया है, लेकिन खालीपन भी नहीं है, बस उस गर्व से भरा है ‘सैनिक की पत्नी तो सिर्फ फक्र कर सकती है,शोक नहीं “रिश्तों के गणित ऐसे ही होता हैं I
अधूरे पूरे नाम