शीना–टीना स्कूल जा चुकी थींI दो कप चाय बनाकर तसल्ली से चाय पीना और चाय के साथ अखबार पढ़ना एक दिनचर्या थी सौमिक और हम बाहर आकर लॉन में बैठ गए थेI सौमिक पहले अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हैं, हम हिन्दी का ,फिर दूसरे कप के साथ हम अंग्रेजी का अख़बार पढ़ते हैं सौमिक हिन्दी काI अखबार पढ़ रहे थे लेकिन ध्यान बार–बार टूट रहा था, आँखें अखबार में थी, कान पीछे क्वार्टर की तरफ ही थेI क्वार्टर से सोनू की आवाजें हमारी इस दिनचर्या की आदत बन गयी थीI वो आवाजें घड़ी की सुई से अनजान थींI दिन और रात के अंतर से भी अनजान थींI सही और गलत के अंतर से भी वाकिफ नहीं थींI जानती थीं तो बस एक बात, जो चाहिए–वो चाहिएI उसकी जिद के हल्ले में वीरवती की आवाज शर्तिया शामिल होतीI वो हल्ला करे तो वीरवती शान्त कब तक बैठ सकती थी, परेशान होकर पिटाई करने वाली वही वीरवती रात-बिरात कभी भी चूल्हे पर बैठी दिखाई देती, सोनू के लिए पराठा बनाती, बैठकर उसे खिलातीI ममता की ये कौन सी ख्व्हाइश थी, जिसे वो पूरा कर रही थीI .
आज वीरवती के घर में इतनी शान्ति है, एकदम सन्नाटा हैI सब शान्त हैI वहाँ से कोई भी आवाज नही आ रही हैI कान्ता–कौशल भी नहीं दिख रहे हैI क्या सब अब तक सो रहे हैं? आज कोई उन्हें जगा नहीं रहा हैI वीरवती भी आज इतना लम्बा सो रही है? हमने तो उसे शायद ही कभी सोते देखाI [बड़ा शकून सा मिल रहा था की आज दिल भर के सब सो रहे हैंI कोई नहीं जगा रहा है–कोई नहीं उठा रहा है] शायद ये सब मेरा निराधार भय था, वीरवती को ऐसा कुछ नही लग रहा होगा कितना रोती रहती थी की ‘ मैं इसकी हर जरूरत–हर ख्वाहिश पूरी करती हूँ लेकिन मेरी बूढी हड्डियां अब सोनू का बोझ नहीं संभाल सकती हैं ‘ मैं सोचा करती थी कितना धैर्य है वीरवती मेंI अभी तो जैसा है चल रहा है, सोनू जब बड़ा होगा तो इसे कौन संभालेगा? कांता–कौशल क्या अपंग भाई को संभालने के लिए बैठे रहेंगे, आखिर कौशल को नौकरी के लिए बाहर जाना ही होगा, कांता भी शादी होकर अपने घर जायेगीI वीरवती की हिम्मत कब तक साथ देगीI गरीब की विकलांगता तो और भी बड़ी सजा हैI जहाँ अपने स्वस्थ बच्चों का पेट भरना ही चुनौती हो, वहाँ माँ की ममता भी अपंग बच्चे को पालने में बेबस हो जाती हैI
तीनों बच्चे बड़े हो रहे थेI उसे समझ नहीं आता था की वह काम पर कैसे आये ? काम न करे तो घर कैसे चलाये? घर बैठ कर सोनू को संभाले तो क्या १२ वर्ष के कौशल को काम पर लगा दे ? ये कैसी मजबूरी है!
सौमिक तो इस सबसे बेखबर आफिस के लिये तैयार होने चले गए, लेकिन मैं उठ नहीं पा रही थी, ध्यान वहाँ से हटा नहीं पा रही थीI सोच रही थी संबंधों की जड़ें कितनी गहरी होती हैं सोनू चला गया हैI जिस बच्चे की उपस्थिति अस्तित्व हीन थी उसकी अनुपस्थिति आज इतना विचलित क्यों कर रही है?
जिन्दगी कैसे–कैसे मोड़ पर आकर लाकर खड़े कर देती हैI नौ माह जिस बच्चे को अपने गर्भ में पाला, पहली संतान के लिये कैसे–कैसे सपने पाले होंगे, कितना उत्साह था, उन्नीस वर्षों से दिन–रात उसके लिए खटती रही, आज उसके चले जाने से सब इतने शान्त हो सकते हैं? आज बेफिक्र हैं,या एक दूसरे से मुँह चुरा रहे हैं ! मैं इतना खालीपन महसूस कर रही हूँ तो वीरवती–कान्ता–कौशल भी क्या ऐसा ही महसूस कर रहे होंगे ?
अपने से भय सा लग रहा था, ‘ मैंने जो किया, क्या सही किया है ? अभी वीरवती आकर खड़ी हो जाए, रोने–बिलखने लगे कि मुझे अपना सोनू चाहिए, मुझे मेरा सोनू ला दो, बहू जी ! मैं सोनू के बिना नहीं रह पाऊँगी तो क्या मैं सोनू को ला सकती हूँ ? अपने से प्रश्न कर रही थी, क्या जबाब दूँगी? परेशान माँ कुछ भी कह रही थी, तो क्या मैं ऐसा कर सकती थी?स्वयं ही उत्तर दे रही थी, उसी के कहने पर तो मैंने सब प्रबंध किया, लेकिन क्या उसकी ममता ये सब स्वीकार कर पायेगी !
जैसे–जैसे सोनू बड़ा हो रहा था, वीरवती की बेबसी बढ़ती जा रही थीI ममता पर लाचारी जैसे हावी होने लगी थीI जब आती, वीरवती रोने लग जाती थी, आप बाहर इतना काम करती हो, इतने लोगों को जानती हो, आप इसे कहीं छुडवा दो, किसी अनाथालय में भिजवा दो, बस मेरी आँखों से ओझल कर दो, अब न इसका कष्ट देखा जाता है न अपना कष्ट सहा जाता है, मेरे वश में होता तो जहर ही दे देती !
कहीं भी छोड़ने का क्या अर्थ है ? क्या वीरवती इसे लावारिस कुत्ते की तरह सड़क पर छोडने के लिए भी तैयार है? मैं काँप जाती थी कि कही इसकी बेबसी इससे कुछ ऐसा –वैसा न करा दे, कहीं इसे सलाखों के पीछे न पहुंचा देI
जब मैं शादी होकर इस घर में आई थीI अम्माजी का वीरवती के साथ बहुत लगाव तो था ही, भरोसा उससे भी ज्यादा थाI सोनू छह वर्ष का रहा होगा, उससे छोटा कौशल कोई चारेक वर्ष का और कान्ता दो वर्ष की थीI वीरवती को घर के एक सदस्य की तरह ही देखाI अम्माजी कसौटी थीं जिन्हें खरे–खोटे की पहचान थी ,और उनके लिए वीरवती वो हीरा थी जिसे सहेज कर रखना है, ये बात वे हमें बराबर समझाती रहती थींI नेकनीयती और ईमानदारी की कोई कीमत नहीं होतीI वेतन के साथ उसके पूरे परिवार का लालन–पालन अम्माजी अपनी जिम्मेवारी मानती थींI शीना और टीना को वीरवती जैसे संभालती थी, मुझे अम्माजी की बात याद आती, अनुभवी वीरवती के हाथों शीना–टीना कब बड़ी हो गईं पता ही नहीं चलाI अम्माजी अमेरिका चली गईं थी, ननद सौम्या पढने के लिए जो अमेरिका गई तो लौटी ही नहींI शादी भी नहीं कर रही थी, अम्माजी के लिए उसको अकेले छोड़ना संभव नहीं थाI उन्हें हमारी तरफ से बेफिक्री थीI कहती थीं, वीरवती यहाँ सब संभाल सकती है, बस तुम वीरवती को संभाले रहना, जितनी आश्वस्त वो हमारे लिए थीं उतना बड़ा आश्वासन वो हमसे वीरवती के लिए चाहती थींI
वीरवती की बात ने मुझे बहुत संकेत दे दिए थे, बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया थाI सामाजिक सेवा में जो काम करना आसान लगता है, निजी जीवन में कितना मुश्किल हो जाता हैI गरीब के घर में तो मानसिक हो या शारीरिक, विकलांगता बस ‘एक सजा अभिशाप ‘ ही माना जाता हैI कितने आश्रम–कितने होम, स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेघर–विशेष कहे जाने वाले अपाहिज–विकलांग लोगों के लिए काम कर रहे हैंI
हमने मदर टेरेसा होम में जाकर सारे विवरण इकट्ठे कियेI मैंने ईश्वर से क्षमा मांगी की मैं आज जो करने जा रही हूँ, दो लोगों को कष्ट से मुक्त करने के लिए कर रही हूँI सब कुछ ठीक हो जाए तो सोनू को आने वाली जिन्दगी के लिए एक घर मिल जाएगा, सिस्टर का सेवा भाव जाना पूछा था, माँ झुंझला जाती है, लेकिन इन जगह ट्रेनिंग में कौन सा समर्पण सिखाया जाता है, कि इनके चेहरे पर न किसी के लिए नफरत है, न किसी काम से घृणा है, शारीरिक और मानसिक तौर से विशेष उन लोगों को जिन्हें अपनी जिन्दगी के होने का भी एहसास नहीं है ,उनकी जिन्दगी से भी ये उतना ही प्यार करती हैंI उनके पास कम से कम भर पेट खाना मिलेगा, इतना भरोसा तो था की वो सुरक्षित है, जैसा भी था अपना बच्चा था, हर दिन–हर पल अपनी आँखों के सामने बड़े होते देखा थाI बेचारे सोनू का दोष भी क्या था? क्या ये उसके हाथ में था की वह वैसा न करे, लेकिन वो उम्र के साथ उपद्रवी भी होता जा रहा था, कभी बीच रात बत्ती का स्विच ऑन कर देता तो कभी हीटर का, कभी ट्रांजिस्टर का स्विच पूरे वोल्यूम पर करके ऑन कर देताI शायद अपने अकेलेपन से लड़ने का ये उसका तरीका था कि सब जगे रहेंI
कितनी बड़ी झूठी कहानी मैंने रची थीI इस बच्चे के पिता नहीं हैI मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपंग बेटे का पेट पाल रही थी, माँ की अभी मृत्यु हो गई हैI अनाथ अपंग बच्चा है, अपनी दो बेटियों के साथ मेरे लिए इसे पालना बहुत मुश्किल हैI सारी औपचारिकताएँ, जैसा वो लोग कह रहीं थीं मैं करती जा रही थीI प्रमाण के तौर पर उसके अनाथ होने का एफिडेविड भी दियाI एफिडेविड पर हस्ताक्षर करने में मेरे हाथ काँप रहे थेI वीरवती अपनी ममता का गला घोंट रही थी, और मैं एक माँ का गला घोंट रही थीI कार में बिठाते हुए कान्ता–कौशल कैसे बार बार सोनू को ठीक कर रहे थे, उसकी शर्ट की बटन लगा रहे थे, कभी चप्पल को पैर में फंसा रहे थे, जैसे बारम्बार अपने मन को आश्वस्त कर रहे थे कि सोनू जिस सुदूर अनजानी जगह जा रहा है, वहाँ सुखी अवश्य रहे, वीरवती जैसे बारम्बार अपनी मजबूरियों के लिए भगवान से माफ़ी माँग रही थी, उसकी आत्मा ही जानती थी कि उसे ऐसा क्यों करना पड़ा, उसके पास यही आखिरी विकल्प थाI
उस दिन भगवान हमने प्रत्यक्ष देखा था, हमारी ह्रदय की सच्चाई शायद उन्हें विश्वसनीय लग रही थी, उन्हे एफिडेविड से शायद कुछ फर्क भी नही पड़ रहा था, कितना समर्पण का भाव था यहाँI वे न करने के बहाने नही, मदद करने के उपाय पर काम कर रहीं थींI
मुझे हैरानी हो रही थी कि सेवा कितना समर्पण चाहती हैI जिस बच्चे को माँ स्वयं सम्भालने में समर्थ नहीं है, उस बच्चे को कितने प्यार से स्वीकार लेती हैंI अपना होस–हवास खोये ,केंचुए की तरह रेंगते–रगड़ते, चीखते–चिल्लाते, लार बहाते, जीने के मकसद से बेखबर बच्चों की सेवा करने में कैसी संतुष्टि होती है समझ पाना बहुत मुश्किल थाI एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कितना अलग हो जाता हैI एक व्यक्ति वह है जो अपने सिवाय किसी दूसरे से प्यार ही नहीं कर पाता, एक व्यक्ति ये भी हैं जो किसी से घृणा ही नहीं कर पातI
सोनू को सुरक्षित पहुँचाने से बड़ा सच कोई नहीं था और उसके लिए बोले गए सब झूठ, माँ की ममता से वीरवती के किये सारे समझौते उसकी विवशता थी,आज ममता हार गई थीI अहं श्री कृष्णाय समर्पयामि .’
“आत्मा साक्षी विभु: पूर्ण एको मुक्त्श्चिद्क्रिय:
असंगो नि:स्पृह शान्तो भ्रमात्संसार वानिव “
अपने को तलाशती जिन्दगी