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अनब्याहा वैधव्य

14 अक्टूबर 2022

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जमीन पर बिछी सफ़ेद चादर पर शान्त, निर्जीव सोया बुआ का शरीर हिम शिला सा लग रहा था मानों गंगा की प्रस्तर मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित कर रखी थीI चारो ओर अगरबत्तियाँ जल रहीं थींI.
सन से सफेद बाल, सफ़ेद मर्दानी पतली लाईन की धोती, बस यही बुआ की पहचान थीI
मोहल्ले की औरतें बदल–बदल कर बुआ के सिरहाने बैठे गीता पाठ कर रहीं थींI बुआ ने भी तो अपने वैधव्य के पिचहत्तर साल इस गीता–रामायण के सहारे ही निकाले हैंI
कोई बुआ के पास से हटने को तैयार नहीं हैI बुआ के बिना किसी ने जीना सीखा ही नहींI किसी के घर आज चूल्हा जलने का सवाल ही नहींI बुआ गाँव के हर परिवार के घर की वह बुजुर्ग थीं, जो हर सुख–दुःख में परछाई की तरह उनके साथ रहती थींI किसी के घर कोई काम हो, मोहल्ले वालों का धर्म है की, उसकी पहली सूचना बुआ के पास जानी चाहिएI हर पूजा से पहले जैसे गणेश वन्दना का विधान हैI
बुआ की एक–एक बात सबको याद आ रही थी, “ बुआ! अरे आज राम विलास की छोरी जानकी की लगुन लिखी जा रही है, अपनी पूजा जरा जल्दी निबटा के आ जानाI तुम्हारी दुल्हन इंतज़ार कर रही है, सामान कैसे, क्या लगाना है; पहले से बता देनाI ” अरे दाढ़ी जार ! [ प्यार की गाली ] चुप कर ! बस सुन लिया पहुँच जाउंगीI इनके किसी के घर में तो किसी से पत्ता भी नहीं हिलाया जाता बुआ के बिनाI” ऐसा कुछ नहीं था, सब जानते थे, बुआ का ये प्यार है की वो हक़ से चाहती बस यही थी, की किसी के घर में पत्ता भी हिले तो उन्हें पता होना चाहिएI हरकू दद्दा याद कर रहे थे, क्या करना है बुआ चाहे पहले नहीं बतायेंगी, पर बाद में अवश्य चिल्लाएंगी “ अरे दुल्हन ! इतना भी सहूर नहीं है, अरे लगुन लिखवाने से पहले लड़के के घरवालों के नाम तो मंगवा लेतीं, अब लगुन वहाँ पहुंचेगी तो चार पंचों के सामने थुक्का फजीहत होगी, की इत्ती बूढ़ी बुआ बैठीं हैं और उन्हें ये भी नहीं मालूम, कैलाश चाची याद कर रहीं थी “ चौक पर लड़की बैठी है, पीली चिठ्ठी लिखी जा रही है, चिठ्ठी लिख कर जब लिफाफा बंद हो जाएगा, बुआ पूछेंगी, बहू ! माधवी का सर धुला दिया था की नहीं ! “ बुआ सबसे पहला काम तुम्हें सबसे बाद में याद आता है, अब लिख गई पीली चिठ्ठी” ‘ बस चलो सब ठीक है ‘ इतना कहकर बुआ बस अपने होने का अहसास सबको जरूर करा देतीं और अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो जातींI अन्नो चाची याद कर रहीं थीं, इस सबके पीछे उनका सबके लिए प्रेम था, दखलंदाजी या दबाब नहीं Iसबको बुआ ऎसी ही अच्छी लगती थींI
बुआ के किस्सों का वहाँ बैठी बहुओं के पास कोई अंत नहीं थाI सब बुआ की इसी उपस्थिति का सम्मान करते थेI किसी के यहाँ अचार भी पड़ेगा तो मसाला बुआ आकर मिलायेंगीI किसी की घाट रंगनी है, तैयारी कोई करे, आकर रंगेंगी बुआ हीI
बुआ को उठाने की तयारी पूरी हो चुकी थी छक्कन भैय्या बड़े शान्त भाव से अर्थी को तैयार करने के निर्देश दे रहे थेI अर्थी भी तो किसी और की नहींइ,सारे गाँव की बुआ की थीI
बाहर की तयारी पूरी करके, अन्दर कमरे की तरफ मुह करके, छक्कन भैय्या बोले ,अरे बहुरानियो ! बुआ को तैयार करो, बुआ को चन्दन के लेप से पूरा ढक देना, समय हो रहा हैI हरिद्वार में लोग प्रतीक्षा कर रहे होंगेI बुआ का अंतिम श्रृंगार हो रहा थाI बुआ को सफ़ेद मर्दानी धोती के अलावा किसी ने कभी कुछ पहने देखा ही नहीं और माथे पर चन्दन का टीका, यही उनके छोटे से कद की और लम्बे वैधव्य की कहानी थीI जवान बहुएँ तो छोडो, मोहल्ले की बड़ी–बुजुर्गों ने भी बुआ को, गाँव में बेटे की शादी का खोरिया [नाच –गाना ]हो या बेटी की लगुन-शादी, सफेद धोती और माथे पर चन्दन के सिवा कुछ लगाए कभी देखा ही नहींI
बुआ मास्टर रामनाथ जी के तीन बच्चों में सबसे छोटी संतान थीं उनके नाम के आगे बुआ कब, कैसे जुड़ गया याद नहीं, लेकिन हाँ ! वो अपना नाम राधा कब का भूल चुकी थींI माँ का देहान्त बचपन में ही हो गया था, लेकिन पिता अपने बच्चो को सीने से चिपटाए रहेI सुबह तडके उठ कर रामनाथ गंगा नहा कर वापस आते तो बाहर से ही आवाज लगाते “ राधा ! मोहन ! कृष्ण मुरारी ! जाग उठो ,अब रैण बिसारी “ तीनों बच्चे जब तक उठ कर आते, राम सिंह नाश्ते की तैयारी में जुट जाते आटा बनाते ,चूल्हा जलाते तीनों बच्चे दौड़ कर चूल्हे के आगे आकर बैठ जातेI अल्हड हाथों से बने नमक अजवायन पड़े पराठों का स्वाद अपना ही होताI अकेले पिता के साथ, राधा उम्र से पहले ही समझदार हो गई I घरों के संस्कार ही थे की छोटी उम्र पर भी उसे लगता रसोई तो औरतों का काम होता है, बहिन से बेफिक दोनों भाई, रामनाथ के साथ ही बस्ता उठा कर स्कूल चले जातेI राधा पिता की छोड़ी हुई रसोई को समेटने का प्रयास करतीI धीरे–धीरे पिता की देखा देखी वह दोपहर की रोटी बनाना सीख गईI कभी रामनाथ को देर लगती तो बड़े सयानों की तरह राधा दोनों भाइयों को आवाज लगाती, जल्दी हाथ–पाँव धोकर् खाने बैठो, रोटी ठंडी हो जायेगीI छोटे–छोटे हाथों से कोशिश करती, कभी रोटी आगे किये कोयले की आँच में डालने पर लकड़ी बुझ जाती ,तो फुकनी से चूल्हा फूंक कर रोटी फुलाने की कोशिश करती तो तवे की रोटी जल जाती ,तवे की रोटी संभालती तो कोयले पर पड़ी रोटी जल जातीI मोहन–मुरारी चिल्लाते, रोटियाँ जला क्यों रही हो ?हमें नहीं खानी ये जली रोटीI राधा अकड़ जाती ‘जलने दो–तुमसे मतलब, जली हुई हम खा लेंगे और यह कह कर जली हुई रोटियाँ एक तरफ रखती जाती, अगली रोटी फिर जल जाती, फिर भाई चिल्लाते और वो फिर उठा कर किनारे रख देतीI मोहन–कृष्ण मुरारी भूख के मारे बेसब्र हो जाते, ‘ अरे सारी रोटियाँ खुद ही खा लेगी, बाबू और हम लोग क्या खायेंगे? पूरा आटा ख़त्म कर दियाI ‘ भूख क्या न कराती, बाबू अगर होते तो समझाते, बेटा! उसकी उम्र क्या रोटी बनाने की है, अरे कोशिश तो करती है, सबसे छोटी है, तुम लोगों ने बड़े होकर भी क्या कभी हाथ बँटाया है? कई बार रामनाथ के चले जाने के बाद पड़ोस की चाची–ताई लोग मदद करने आ भी जातींI माँ के अभाव में, सयानी हो रही राधा को दुनियादारी कौन समझाएगाI कभी धीरे से चाची कहतीं तुम पिता से नयी माँ लाने की क्यों नही कहती? इतनी बड़ी गिरहस्ती माँ के बिना कैसे संभालेगी! दो चार साल में तेरा भी ब्याह हो जाएगा, फिर घर कौन संभालेगा, सब अपने–अपने घर चले जाओगे तो बाबू को कौन संभालेगाI राधा चुप हो जाती, पिता से वो ऎसी बात कैसे कर सकती हैI इन लोगों को लगता है बस शादी कर दो तो सबकी समस्या सुलझ जाएगी ,बाप–बेटी दोनों की समस्या सिर्फ शादी से सुलझ जायेगीI
राधा सो रही थीI सभी नींद में बेखबर थेI अचानक राधा की नींद खुली, सर पर धूप चढ़ आयी थी, अचकचा कर उसने आँखें मली, इतनी देर हो गयी आज बापू ने गंगा से आकर जगाया भी नहीं पैर जमीन पर उतारकर खाट से उठने लगी तो बगल में देखा, बाबू तो सो रहे हैंI उसने सोचा आज माँ की अमावस है इसी से बाबू जमुना नही गए होंगे, घर में पंडित जी भी आयेंगे, पूजा भी करनी होगीI
वह उठ कर रसोई शुरू करने की सोच रही थी, खटर–पटर से मोहन और कृष्णमुरारी की नींद भी खुल गई थीI रामनाथ कुछ कह नहीं रहे थे तो मोहन और श्याम मुरारी के लिए स्कूल से छुट्टी हो गयी थीI वो वहीं बिस्तर पर बैठे खेल रहे थेI
तभी पीछे से कुण्डी बजी तो राधा रसोई के बाहर दरवाजा खोलने निकलीI दरवाजा खोला तो बाल मुकुंद चाचा खड़े थेI ” राम सिंह लौट आये?” बालमुकुन्द ने पूछा “नहीं ! बाबू तो आज गंगा गए ही नहीं, अभी तक सो रहे हें” ”सो रहे हें ? अरे ऐसे कैसे इतनी देर तक सो रहे हें?जगाया क्यों नहीं ? बाल मुकुंद जैसे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थेI
अरे चाचा! कैसे जगाती! आज पहली बार तो बापू को इतनी देर तक सोते देखा, हमने सोचा, हो सकता है, देर रात तक पढ़ते रहे होंI अमावस है, शायद स्कूल न जाना हो, अब आप ही जगा लोI पंडित जी भी आयेंगेI हमें तो श्राद्ध का खाना भी बनाना नहीं आताI
बाल मुकुंद चाचा ने वहीं से आवाज लगाई ,रामनाथ ! तैयार नहीं हुए हमसे कह रहे थे साग सब्जी के लिए जल्दी जाना है .बाल मुकुंद की आवाज के साथ ,पास बैठे मोहन –कृष्ण मुरारी भी बाबू को आवाज लगाने लगे “ चाचा बाबू जग नही रहे हें ,बहुत गहरी नींद सो रहे हें .
‘अरे ऐसे कितने गहरे सो सकते हें, ‘ कहते हुए बाल मुकुंद रामनाथ की चारपाई तक पहुँच गएI रामनाथ बायीं करवट लिए एक हाथ सीधे रखे तथा एक हाथ सीने पर रखे सो रहे थेI बाल मुकुंद ने रामनाथ को हिला कर आवाज दी, बाल मुकुंद के काटो तो खून नहीं, रामनाथ का शरीर एकदम ठंडा पड़ा था, हिलाने से हाथ और सर दायीं ओर लुढ़क गएI बाल मुकुंद की एकाएक चीख निकल गई तीनों बच्चे घबराकर बाल मुकुंद से चिपट कर रोने लगेI चाचा! बाबू उठते क्यों नहीं! बस फिर तो घर लोगों से भर गया था, राधा को तो उन्होंने किसी ने भी कुछ न देखने दिया न समझनेI घर में गरुड़ पुराण का पाठ बैठ गयाI मोहल्ले के लोगों ने पूरी जिम्मेवारी उठा लीI नाश्ता–खाना सब बच्चों के लिए घरो से आताI कोई न कोई चाची आकर नियम से दोपहर में खाना बनाकर रामनाथ की थाली निकालतींI शुद्धि–तेरहवीं हो गयी,
बाबू की शादी तो गाँव की चाची ताई नहीं करा पाई, लेकिन जैसे बस सब समस्या राधा की थी, और उसके हटने से सुलझ जायेगी, कृष्णमुरारी और मोहन को कौन देखेगा, किसी को चिंता नहीं थी, लेकिन बिटिया की जिम्मेवारी से मुक्त होना है बसI बारह साल की राधा को सब मोहल्ले वालों ने शादी करके विदा कर दियाI
बुआ के वैधव्य की लम्बी कहानी थीI बुआ कहती थी, कोई गीता पर हाथ रख कर कसम खिला ले जो हमने उनकी शकल भी देखी हो, कुछ भी याद हो, हम तो शादी होकर गाँव में आये समझ क्या थीI बच्चों को खेलता देखते, तो दौड़ कर घर से भाग जातेI खूब कबड्डी खेलते, किसी ने हमें कभी रोका भी नहींI जब सब कुछ ख़त्म हो गया, हमें तो ये भी समझ नहीं आया कि हुआ क्या है, बताते हें, गाँव में हैजा फैला थाI हम तो खेल रहे थे, हवेली से रोने की आवाज आ रही थी, किसी न किसी घर से रोज ही आती थी, किसी न किसी घर में कोई न कोई मौत हैजे से हो ही रही थीI तभी बड़ी बिटिया [हमारी ननद] आईं और खीच कर अन्दर ले गयींI हमें वहीं जमीन पर बिठा दियाI हवेली लोगों से भर गई थीI सारी औरतें हमें पकड़–पकड़ कर रो रहीं थींI अरे कैसे कटेगी इतनी बड़ी पहाड़ सी जिन्दगी! अरे कैसे झेलेगी इतना बड़ा दुःख! मुझे न सुख छिनता नजर आ रहा था ,न दुख आता दिख रहा थाI जिन्दगी के लिए दो वक्त की रोटी से अधिक सुख मैंने समझा ही क्या थाI हवेली में जिन्दगी वैसी ही थीI हैजे के प्रकोप से हवेली क्या पूरा गाँव ही जैसे सांय-सांय बोलता थाI
कृष्ण मुरारी भाई सा० आये थे, ससुर से बोले, आपकी इजाजत हो तो मैं राधा को अपने साथ ले जाना चाहता हूँI मेरी बड़ी लाडली है, जब तक समझ आती ,तब तक ये आपकी बहू बन चुकी थी, इसे कभी प्यार भी नही दे पाया, में भी अकेला हूँI मोहन अपने परिवार में सुखी हैI हम दोनों भाई–बहिन एक–दूसरे के सहारे अपना जीवन काट लेंगे और वहाँ आकर बुआ सबकी बुआ बन गईI
कफ़न लपेटते हुए गजेन्द्र फफक उठेI बुआ को कफ़न क्या बाँधना है, उसने नब्बे वर्ष की जिन्दगी में सिर्फ कफ़न ही तो पहना–ओड़ा हैI अरे बुआ को तो कफ़न उस दिना पहना दिया गया था, जब उसे शादी की गुलाबी घाट पहनने की भी समझ नही थीI पन्द्रह वर्ष की आयु में वैधव्य की सफ़ेद धोती का जो कफ़न एक बार बुआ ने पहना था, वही उनका श्रृंगार बन गया थाI
बुआ को तैयार करके बहुओं–बेटियों ने दरवाजा खोल दिया थाI तिवारी और छक्कन भैय्या बुआ की अर्थी बाँधने में लग गएI ऊपर राम-नाम का पीताम्बरी उनके शरीर पर उड़ा दिया थाI ‘ राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्त है ‘ के साथ बुआ की अर्थी उठ गई मुक्त तो अनब्याही विधवा बुआ जनम से थींI राम के नाम का सत्य उनसे ज्यादा कौन जानता था, इसी राम के नाम पर, उन्होंने अपने वैधव्य का पूरा दुःख लोगों के बीच बाँट कर हँसी खुशी काट लिया
रिश्तों के गणित
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रचनाएँ
सास का बेटा
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कहानी संग्रह सास का बेटा, 15 कहानियों का संग्रह है। जीवन की आपाधापी, तो कुछ जीवन के कडुवे सच की कहानियाँ हैं। कहीं हौसले की उड़ान तो कहीं रोजी-रोटी के लिए महानगरों में बसी आबादी की घर वापसी की आस, खोये हुए गुफ्रान की घर की तलाश, रिश्तों के मनोविज्ञान, कोरोना की मार, पैर से ज्यादा पहला जूता पहनने की ख़ुशी, अनब्याहे वैधव्य की लम्बी यात्रा, तो विवाह के नाम पर वेश्यावृत्ति में फँसी एक बेटी की कहानी है, बिना माँ बाप की बच्ची के लालची काका, मां से अधिक प्यार देने वाली रानी साहिबा, संस्कार के नाम पर मृत देह का अपमान, देहदान की रोचक कहानी मनोरंजन के साथ अपनी संवेदनाओं से ये कहानियाँ अपनी सहज-भाषा में न केवल पढने की भूख को संतुष्ट करती हैं, बल्कि बाहर के सच से बहुत कुछ रूबरू करातीं हैं, हर कहानी के किरदार, अपने से लगते हैं, कहानी तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन अन्दर बहुत कुछ मथ के जाती है।
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आभार

14 अक्टूबर 2022
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आभार स्वभाव की बहुत प्राकृतिक एवम व्याव्हारिक प्रतिक्रिया हैI शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक, भौतिक छोटी–बड़ी जरूरतों के लिए आँख खुलने से लेकर बंद होने तक, जीवन की पहली साँस लेने से लेकर अन्तिम साँ

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प्राक्कथन

14 अक्टूबर 2022
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कहानी कहते ही नानी याद आ जाती हैं, लेकिन कहानी तो दादी भी सुनाती हैं! ‘नानी’ शायद तुकबंदी के कारण चलती रहीI ये तो कोई तुक नहीं है, तुक हो या बेतुक, कुछ न कुछ बात तो कह कर जाती है, कुछ भी कहती है तो ब

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सास का बेटा

14 अक्टूबर 2022
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आज का दिन भी निकल गया ..कल तो शायद अजीत की चिठ्ठी आनी चाहिए ,चिट्ठी आये भी कैसे ? दस दिन से तो पोस्टल विभाग की हड़ताल चल रही है, डाकखाने में तो चिट्ठियों के अम्बार लगे होंगे, किसे समय हैं जो उन्हें निप

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ट्रेन फिर मिलेगी

14 अक्टूबर 2022
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जुहू बीच [समुद्र का रेतीला तट ] भोर की रश्मि ,तेजी से तट की ओर आती हुई समुद्र की लहरों का उफान। कितने उत्साह से न जाने कितने सपने संजोये अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ती सी नजर आती हैं, तट से मिलने की एक आस।

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घर वापसी

14 अक्टूबर 2022
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विक्रम लालजी उपाध्याय की जय हो ! ‘ धरती का लाल! ऊँचा है भाल! हमारा अपना विक्रम लाल! ‘ ‘जीत उसी की होती है, पीछे जिसके जनता होती है ‘ ‘ जिसकी झोली खाली है, वोट उसी में भारी है ’ ‘साबित कर दिखलाया है,

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समिधा–समाधि

14 अक्टूबर 2022
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अभी बस फ्लाईट लैंड ही कर रही थी. जहाज के फैले पंख सिमट रहे थे ,पहिये जमीन पर उतर रहे थे ,घडघडाते हुए ,जमीन को छूते हुए अपने पैरों को जमीन पर जमाया ,और मोबाइल खनखनाने लगे . बेसब्री स्वभावगत है .चाहे दो

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देहदान

14 अक्टूबर 2022
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“ तुम मुझे बता तो दो, की चाह्ते क्या हो ? अरे! इस गरीब को यहाँ क्यों लाये हो?हमें क्या समझकर लाये हो? क्या मेरा अपहरण किया है? मेरा अपहरण कोई क्यों करेगा?” “चुप कर औरत! तेरी बकवास सुनने के लिए यहाँ

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पगार की बेटी

14 अक्टूबर 2022
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ललिता हमें बंगलौर में मिली थी। डायमंड डिस्ट्रिक्ट सोसायटी में बेटी रचना के पास गई थी। मेट्रो सिटी की ये सोसायटी अपने आप में एक पूरा शहर होती हैं। दो हजार फ्लैट, आठ ब्लॉक, २५ से ३० मंजिलें, हर मंजिल

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पहला जूता

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बाटा की दूकान में अन्दर घुसते ही, हैरानी में सात साल के सुल्लू की गोल–गोल आँखें और गोल हो रहीं थी, ” इतने सारे जूते! चप्पल ही चप्पल! बाप रे बाप! मैडम ! कितने जूते-चप्पल हैं इस दूकान में, हमने तो अपनी

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अनब्याहा वैधव्य

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रिश्तों के गणित

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‘ मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो मुझे विवेक के साथ जाने दो ! सुमेध ! तुम्हारा तो विवेक ने कुछ नहीं बिगाड़ा था, तुम तो हम लोगों को इतना प्यार करते हो? तुम क्यों विवेक के पास जाने से रोक रहे हो? मुझे---------

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अधूरे पूरे नाम

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कभी–कभी सर्दी के मौसम में मनचाही धूप भी कितनी बोझिल हो जाती है! कैसा विरोधाभास है, चाहय वस्तु ग्राह्य नही हो पातीI बोझ भरे नौकरी के दायित्व के लिए कितनी बार ऐसे हॉलि डे ब्रेक को चाहा था, लेकिन आज जब

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अभिशप्त नंबर तेरह

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आज उसका वार्ड बदला जा रहा थाI स्ट्रेचर पे लेट हुए रोगी की विवशता भी कितनी असाध्य होती हैI जिसकी जिन्दगी पिछले पाँच माह से एक पलंग के आसपास सीमित हैI उसे क्या फर्क पड़ता है कि वो किस वार्ड में शिफ्ट

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इस ब्याही से कुँआरी भली थी

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दीदी शादी के बाद पहली बार घर आ गई थीI औरों का नहीं मालूम, मैं सबसे ज्यादा खुश थीIदीदी के गले में बाँह डालकर लटक गई “ आप अब कितने दिन बाद जाओगी?” दीदी ने कुछ जबाब नहीं दिया, मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल

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छूटे हुए छोर

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मीनल सड़क के इस पार कार में अकेली बैठी है और उस पार शवदाह गृह में मयंक और मयूरी हमेशा के लिए राख हो जाएंगे I कैसा विचित्र–अद्दभुत संयोग है मयूरी–मयंक आज उस कहावत [विज्ञापन की यू.एस.पी. ] को ‘जीवन के सा

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विवशता न समझे ममता

14 अक्टूबर 2022
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शीना–टीना स्कूल जा चुकी थींI दो कप चाय बनाकर तसल्ली से चाय पीना और चाय के साथ अखबार पढ़ना एक दिनचर्या थी सौमिक और हम बाहर आकर लॉन में बैठ गए थेI सौमिक पहले अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हैं, हम हिन्दी का ,

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अपने को तलाशती जिन्दगी

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ट्रेन की रफ्तार धीमी होनी शुरू होते ही अन्दर यात्रियों की हलचल तेज होने लगी थीI एक अजब सी धक्का मुक्की होती ही हैI सभी को उतरना है, ट्रेन में कितनी भी देर बैठ लें, लेकिन स्टेशन आने पर धैर्य से उतरने

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