बाटा की दूकान में अन्दर घुसते ही, हैरानी में सात साल के सुल्लू की गोल–गोल आँखें और गोल हो रहीं थी, ” इतने सारे जूते! चप्पल ही चप्पल! बाप रे बाप! मैडम ! कितने जूते-चप्पल हैं इस दूकान में, हमने तो अपनी जिन्दगी में कभी नहीं देखे इतने जूते–चप्पल ! “ बड़ा बोल रहा है, अभी जिन्दगी ही कितनी हुई है, हँसने की कोशिश करते हुए विदिता ने कहा, उसको तो बोल दिया लेकिन अपने आँसू रोक नही पा रही थी, उसने तो पैर ही नहीं देखे तो जूते कैसे देखता!
नयी निकर–शर्ट में, कुर्सी पर बैठा सुल्लू, बस चारों तरफ देख रहा थाI सेल्समैन आकर खड़ा हो गया, ” मैडम ! क्या दिखाऊँ ? मैं खेल वाले जूते खरीदूंगा, पी.टी. सर जैसे जूते, पंद्रह अगस्त को लैफ्ट–राईट-लैफ्ट–राईट करूँगा “ विदिता सुल्लू के साथ बैठ गई और उसके पैर की तरफ इशारा किया .. सेल्समेन ने फिर पूछा, मैडम क्या चाहिये ?” अरे! हम बता तो रहे हैं,फिर मैडम से बार-बार क्यों पूछ रहे हो “,सुल्लू बोल पड़ाI विदिता हँस पड़ी, “ ये तो मैंने सोचा ही नहीं, सुल्लू ने तो अभी तक पैर में कुछ पहना ही नहीं है” मैंने कहा, सब दिखा दीजिये, जूते, चप्पल, सैंडिल वो अटपटे भाव से हमारी तरफ देख रहा था, ‘ऐसे कैसे दिखा दें !’ ‘ अरे! हमारा चेहरा क्या देख रहे हैं ! मुझे क्या पता, ये क्या पहनेगा! इसे क्या अच्छा लगेगा! ये क्या पहन के चल पायेगा! क्या पहन कर दौड़ पायेगा’ सेल्समैन अभी भी हमारा मुँह देख रहा थाI ’ मैडम ! साइज क्या है? सेल्समैन ने पूछा, “अरे तो पहन कर ही पता चलेगा ना, कि इसके पैरो का साइज क्या है, अरे पैर उसे आज मिले हैं, साइज में कैसे बता दूँ !” विदिता की ख़ुशी उत्तेजना में तब्दील हो रही थी, कि सुल्लू जूते–चप्पल पहनकर और बच्चों की तरह दौड़ेगा, आज वो सब खरीदेगा, सब पहनेगा, एक उतारेगा–दूसरा पहनेगा ...मन में बोलती तो गयी, अपनी रुलाई रोक नही पा रही थी, मुँह घुमाया,की आँखें सेल्समैन के साथ मिल गयीं, दोनों ने एक –दूसरे के आँसू पकड़ लिए थे .. उसकी आँखें सुल्लू के पैरों पर टिक गईं थीं, वो उसके पैर के साइज को नहीं टांकों से भरे पैर को देख रहा था I
अब सेल्समैन और उनके बीच कम्पटीशन हो गया था की ट्रायल के लिए सुल्लू ज्यादा पहन सकता है या सेल्समैन ज्यादा पहना सकता है ..दोनों के लिए पहनना –उतारना खेल हो गया थाI सुल्लू एकाएक बोल उठा ,मैडम! खेल के जूते नहीं लेता ,इससे बाप को मारूंगा तो, चोट भी नहीं लगेगी, ये चमड़े वाला ले लेता हूँ ‘ . मै अवाक थी! ये कौन सी भाषा है सुल्लू? कहाँ सीखी ये भाषा? कौन बोलता है ये भाषा?
विदिता के दिमाग में, सुनील की सुनाई कहानी सिनेमा की रील की भांति एकदम पूरी की पूरी सामने आ गयीI सुनील सुल्लू का बड़ा भाई था, दोनों भाई साथ ही बाल गृह आये थे, चार वर्ष उन्हें वहाँ हो गए थेI उस दिन बालगृह की सिस्टर के साथ सुनील अस्पताल भाई को देखने आया थाI सुल्लू अस्पताल के पलंग पर पर लेटा था, आपरेशन हो चुका था, पैर पूरा लोहे की सलाखों में जकड़ा हुआ था बड़ी–बड़ी कीलें आर-पार दिखाई दे रहीं थीं जिन्हें नट –बोल्ट से कसा हुआ था, लग रहा था, मानों पैर न हो कोई टावर बन रहा होI सुनील, सुल्लू को देख कर घबरा गया था, उसके चेहरे के भाव मानों हमसे पूछ रहे थे कि अभी ठीक है या पहले जैसा था, वैसे ही ठीक थाI सुनील क्या, आपरेशन के बाद सुल्लू को देखकर तो हम खुद ही घबरा गए थेI आपरेशन की सफलता की खुशी से ज्यादा, संभावित परिणामों से भयभीत थी उसे इस हालत में देखकर, कहीं मैंने कोई गलत निर्णय तो नही ले लिया है? इतने बड़े आपरेशन को ये बच्चा कैसे झेलेगा, बाल-गृह के बच्चे की देखभाल कोई आसान काम तो नहीं है, जिसमें जबाबदेही के कोई मानदंड नहीं है, कोई भी आरोप लगा सकता है, फिर सोचा, उन सब बातों की तो अनदेखी वो पहले ही कर चुकी हैं, अनदेखी न करती तो क्या आज यहाँ पहुँच पातीI लोगों के हाथ, सिर्फ टांग पीछे खीचने के लिए होते हैं, हौसला देने के लिए नहींI
जब से पहली बार डाक्टर ने जाँच करके बताया की इसका पंजा पूरा हैI जलने में झुलस कर टखने से चिपक गया है और इसके ऊपर पूरी खाल आ गयी हैI प्लास्टिक सर्जरी से पैर को उसकी जगह लाया जा सकता हैI इस संभावना मात्र से ही बस सुल्लू को दोनों पैरों पर खडा देखना विदिता का जुनून हो गया था लोगों से तन–मन–धन सहयोग मिला और प्लास्टिक सर्जरी का ये जोखिम उठाया था सुनील के हाथ अपने हाथ में लिए बैठी थी, मन बहुत उद्विग्न था, सुनील की हथलियाँ अपने हाथ में लिए,उसकी उद्विग्नता कोशान्त करने की कोशिश कर रही थी, आखिर ऐसा क्या हुआ था कि आज सुल्लु इस हालात में लेटा है ? में उन बच्चों के ज़ख्म नहीं कुरेदना चाहती थी ,लेकिन वो ज़ख्म सर्जरी के ज़ख्म से कहीं अधिक गहरे थे उनके भीतर की उग्रता को देख कर, ये अवश्य लगता था की उन्हें उस हादसे से बाहर निकालना आवश्यक थाI उस हादसे को भूलना उनके लिए जरूरी हैI प्यार और भरोसा ही मरहम थी, जो ज़ख्मों को भर सके
सुल्लू को इस हालत में देख कर सुनील के अन्दर का दर्द भी शायद आज बह जाना चाहता था..
प्रतापगढ़ जिले का वह छोटा सा गाँव था कहने के लिए एक घर था, कच्चा ही सही अपना घर था, अपने घर के लिए जो होना चाहिये सब उसमें मौजूद थेI एक माँ थी, कितनी मेहनत करती थी, सुबह उठती थी, मैंने ऐसे ही कह दिया, मैंने उसे सोते हुए देखा ही कब थाI कच्ची झोपड़ी में बिजली–सिजली तो थी नहीं, वो शाम होते–होते, चाहे कुछ हो जाए, हमें और सुल्लू को खाना खिला देती . .दोनों को बिठाती रोटी के साथ कुछ भी होता, एक एक कौर अपने हाथ से खिलाती, मैं शायद सात वर्ष का रहा हूंगा, सुल्लू तीन वर्ष का होगा, खाना खिलाकर दोनों को लेकर बैठ जाती, अँधेरा हो चुका होता, वो लालटेन बंद ही कर देती, अगर तेल ख़त्म हो गया तो रात का काम पूरा कैसे करेगीI
अँधेरे में मुझे गिनती–पहाड़े रटवातीI वर्ण माला सुनती, शब्द बताती, उनके अर्थ बताती, बोलना सिखातीI माँ का चेहरा तो अँधेरे में नहीं दिखाई देता, लेकिन मैं बोलता रहता, वो सुनती रहती, अठारह एक अठारह, अठरह नावैय्या एक सौ बासठ ,.....गांधीजी का जन्म पोरबंदर में हुआ था .....झांसी की रानी किसी से डरती नहीं थी, अंग्रेजों से भी नहीं ,,,मुझे नहीं पता, उसने ये सब कहाँ पढ़ा था, किससे सुना था, लेकिन एक नयी कहानी सुनाती रोज़ थीI कब नींद लग जाती, पता नहीं सुल्लू की आँखें शायद उससे पहले ही बंद हो जाती होंगीI हम सबके सोने के बाद वो काम ख़त्म करती होगी, रात को शायद बाबूजी आते होंगे ...उन्हें खाना भी खिलाती होगी ....जब हम सबेरे उठते तो घर साफ़–सुथरा, लिपा-पुता मिलता, देर रात जगती, या सुबह जल्दी उठती, या सोती ही नहीं थी, मैडम! गरीब के घर में बच्चा बहुत जल्दी बड़ा हो जाता है, सुबह माँ को देख कर, रात की कहानी मुझे बिना बताये समझ आ जाती, मैं पूछता, ‘ बाबूजी ने तुझे रात फिर मारा ? तू अगर हाथ नहीं पकड़ेगी, माँ ! में कहे देता हूँ, तेरी कसम में उसके हाथ काट दूँगा, उसके टुकड़े–टुकड़े करके चील-कौओ को खिला दूँगा ...माँ तू कसम खा कर बता की वो रोज शराब पीकर नहीं आता ....माँ तू मुझे कहीं मजूरी क्यों नहीं दिला देती , इसके साथ क्यों रहती है .......’ और माँ जैसे किसी आशंका से काँप जाती, कभी-कभी मेरे थप्पड़ भी लगा देती ...आवेश में उसकी साँस फूल जाती ....”में तुझे यही सिखा रही हूँ ...बस यही करेगा, अपने बाप की भाषा बोलेगा ....मै तुम दोनों को उसकी छाया से भी बचाती हूँ ...और तू बस उसी की छाया बन जाएगा ....दोनों हथेलियों के बीच मसल कर रख दूँगी ...लेकिन उसको हाथ भी नहीं लगाने दूँगी....निचोड़कर खून सुखा दूँगी .....कतरे–कतरे कर दूँगी, जो कभी उस आदमी के बारे में सोचा भी ....फिर फफक–फफक कर रोने लगती ......भैया को चिपटाकर रोने लगती .....तू कुछ बन जाना ...सुल्लू को अपने साथ ले जाना ..”
मैडम ! ये रोज की जिन्दगी थीI उस रात बहुत कुछ हुआ होगा, चूल्हे की आग इतनी कैसे बढ़ गई मुझे समझ नहीं आ रहा था, सुल्लू भी उसके साथ जल रहा था, वह आदमी जिसे मैं बाबूजी कहता था, माँ के साथ छीना–झपटी कर रहा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था, वो माँ को आग से निकाल रहा था या उसमे झुलसा रहा था ...शायद वो सुल्लू को उससे छीन कर आग से निकाल रहा था, शायद दोनों को ...मैं दौड़ –दौड़ कर आग में लोटे से पानी डाल रहा था, जब तक आग बुझी, माँ उसमें राख हो चुकी थी, माँ के साथ हमारे लिए वो भी मर ही गया था क्योकि उसके बाद उसे कभी नहीं देखाI शायद पुलिस ले गई थी, मुझे न आग में राख हुई माँ दिखाई दे रही थी, ना आग में झुलसे हुए अपने या सुल्लू के घाव, बस एक सपना सच होता दिख रहा था,जो काम माँ ने उसे नहीं करना दिया ,पुलिस करेगी,उसे फाँसी जरूर देगी I
हमे और सुल्लू को किसी ने अस्पताल पहुंचा दिया थाI जले दोनों बहुत थे ,लेकिन ज़िंदा भर रहने के लिए तो ठीक थेI हर दिन इतनी बार मरे थे कि भगवान् को भी हमें मारने में बोरियत ही लगी होगी, कोई रोमांच नहीं थाI अस्पताल से निकले तो किसी ने बालगृह पहुँचा दिया था, यहाँ घर जैसी तो कोई चीज नहीं थी, प्यार करने के लिए कोई माँ नहीं थी लेकिन तसल्ली थी की बाप नहीं थाI कम से कम उसका खौफ नही था, जीने के लिए इतनी खुशी काफी थीI और हाँ खाना भरपूर थाI
घाव भर गए थे पर खाल झुलसी हुई थी, हम भूल गए बताना, हम तो बिलकुल ठीक हो गये थे, सुल्लू भी बिलकुल ठीक हो गया था...आपको याद है न जब आप पहली बार वहां आयीं थीं, सुल्लू पूरा ठीक हो गया था, दोनों पैर के पंजे की जगह एक हड्डी सी थी जिसके सहारे मजे से चल लेता था, चल ही नहीं दौड़ भी लेता थाI
सुनील जब बोल रहा था तो ऐसा लग रहा था की कोई ’ किस्सागोई ‘ वाचक है , शायद सुनाते–सुनाते, सुनील को अपनी जिन्दगी, कहानी की तरह याद हो गयी थीI हादसों ने उन्हें उम्र से कही ज्यादा समझदार बना दिया थाI वाकया अक्षरशः याद थेI
‘मैडम ! सुल्लू पहले की तरह चल तो पायेगा? ‘ ‘चलेगा नहीं दौड़ेगा ‘.....कह कर विदिता ने उसे ही नहीं, अपने को भी आश्वस्त किया था ....आज वह आश्वस्त थी ....I
काउंटर पर आकर जब विदिता ने बिल कराया, पैकेट हाथ में लिया तो उसमें एक जोडी एक्स्ट्रा थी, बड़े प्यार और भावुकता से सेल्समैन बोला, मैडम ये हमारी तरफ से सुल्लू के लिएI दोनों की आँखे एकबार फिर छलछला उठींI लेकिन विदिता को अपने आँसू छिपाने नहीं पड़ेI एकाएक उसे कमलेश्वर की कहानी ‘चप्पल ‘ याद आ गईI उस कहानी से कुछ अलग ‘की सुल्लू पैर पाकर खुश है की चप्पल–जूतेI
अनब्याहा वैधव्य