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पगार की बेटी

14 अक्टूबर 2022

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ललिता हमें बंगलौर में मिली थी। डायमंड डिस्ट्रिक्ट सोसायटी में बेटी रचना के पास गई थी। मेट्रो सिटी की ये सोसायटी अपने आप में एक पूरा शहर होती हैं। दो हजार फ्लैट, आठ ब्लॉक, २५ से ३० मंजिलें, हर मंजिल पर चार फ़्लैट, हर दो ब्लॉक के बीच बच्चों का पार्क, घूमने के लिए वॉकिंग ट्रैक, अपना क्लब हाउस, अपना जिम, स्वीमिंग पूल, टेनिस,स्क्वाश, बैडमिण्टन, मंदिर, बच्चों के लिए नर्सरी स्कूल, जरूरत भर का शॉपिंग काम्प्लेक्स, सब कुछ वहाँ था जिसकी जरूरत थी ,और इतनी बड़ी सोसायटी की पाँच सितारा सुरक्षा को संभालने के लिए शायद दो सौ से अधिक सुरक्षा गार्ड होंगे। पूरी छावनी थी। हर डियूटी बदलने पर गार्ड परेड पर ही तीस-चालीस गार्ड दीखते थेI गेट पर एक भी गाड़ी बिना ऐंट्री के नहीं जा सकती थी। रिसेप्शन लॉबी में फिर एन्ट्री ,जहाँ जाना है, वो फोन से पहले पूछेंगे, तब लिफ्ट में जाने देंगे। चाहे कोरियर हो, आर्डर हो ,मिलने वाला हो, सबके लिए एक ही नियम। वहाँ पर रोज काम पर आने वाली सभी के पास पंजीकरण कार्ड थे। चैबीस घंटे काम करने वाली आया भी अगर गेट के बाहर जाएगी तो गेट से इण्टरकॉम पर मालिक से जांच करेंगे, अगर कोई सामान लेकर जा रहीं हैं तो उसके पास स्लिप में उसका ब्यौरा, हस्ताक्षर के साथ होंगे। इण्टर कॉम आठ ब्लॉक के रिसेप्शन लॉबी हर ब्लॉक में चार लिफ्ट, लिफ्ट में चौबीस घंटे गार्ड हर पार्क में सुरक्षा गार्ड, हर पार्किंग बेसमेंट में सुरक्षा गार्डI इसीलिए हमने कहा, ’अपने आप में पूरा शहर ‘
लेखकीय जिज्ञासा प्रबल होती है, हमें बात करने में ऎसी कोई हिचक नहीं थी, बात करते हैं या नहीं, लेकिन रोज घूमने–टहलने के लिए आने वाले चेहरे अपराचितों के बीच भी परिचित हो जाते हैं, फिर भी हम सजग थे, वो हमसे भी ज्यादा सजग थी, हमने शब्दों को बहुत नाप–तौल कर पूछा, ” आप यहाँ किस फ़्लैट में हैं ? क्या करती हैं ?” ललिता शिष्ट थी, विनम्रता से बोल रही थी, लेकिन एक अलग तरह का दर्प था “ जी मैडम में ऍफ़ ब्लॉक में रहती हूँ, मेरा नाम ललिता है, मुझे पता नहीं मैं क्या करती हूँ, नौकर मैं हूँ नहीं, मालिक हो नहीं सकती, इसके बीच आप कुछ भी समझ लो, कहकर वह जोर से हँस पड़ीं। एकाएक तो मै हकबका गयी, उसके लाजबाज जबाब पर तो मैं उसके साथ बैंच पर बैठ ही गई। ये कहानी इतने पर ख़त्म नहीं हो सकती। इस शान्त प्रवाह के नीचे कई उफान हैं। जिसमें दर्प के साथ कोई दर्द भी हैI
‘ आप इतनी अच्छी बात कैसे कर सकती हैं। मुरीद हो गई आपकी इस बात पर। एक वाक्य में आपने उन महानुभाव का पूरा खाका खीच कर सामने रख दिया, किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इससे अच्छा और सम्पूर्ण वाक्य कोई और हो ही नहीं सकता। ” मैंने कहा, लेकिन फिर भी यदि कुछ ऐसा है, जिसे आप हमारे साथ साझा करना चाहें तो बेझिझक कर सकती हैं ,आप हम पर विश्वास कर सकती हैं.”
“ नहीं ऎसी कोई बात नहीं है, मेरे पास कोई कहानी नहीं है। मैं शायद दुनिया की पहली और अकेली लड़की हूँगी, जिसे अपने काम की जगह पर इतना प्यार-सम्मान और अधिकार मिला है। मैं जो पगार पाती हूँ, उसके लिए मेरे पास कोई काम विशेष नहीं है। मेरे पास कोई कमी नहीं हैं, मेरा कोई खर्चा नहीं होता, सारे खर्चे मेरी दीदी उठाती हैं। मुझे तो अब पगार की जरूरत भी नहीं रहती। वो बैंक में ऐसे ही जमा होती रहती है, कहने को मेरे पास वो सब है,शायद जिसे हम सुख कहतेI
मेरी कमाई से बना घर है, मैं तीन -तीन बेटों की माँ हूँ, सुजान-समर-शेर बहादुर। तीनों के अपने -अपने परिवार हैं, पति भी कहीं अपनी जिन्दगी गुजार रहा है लेकिन दिल से पूछो तो मेरे पास अपना ऐसा कोई नहीं है, जिन्हें मै अपना कह सकूँ, जो मुझे अपना कहते हों, जो मुझे कभी अपने पास बुलाए, जो कभी एक बार तो कहे, ” तुमने बहुत काम कर लिया, तुमने हम सबकी जिंदगी संवारने में अपनी जिंदगी लगा दी, अब तुम अपने बच्चों का सुख तो उठाओ, मेरा एक ही तो दुःख है की मुझे सब कुछ मिला लेकिन कभी अपना घर क्यों नहीं मिला। मेरे बच्चे मुझे प्यार क्यों नहीं करते। आखिर मेरा जो कुछ भी है, उसको लेने वाला कोई और तो नहीं है, मैं जानती हूँ, आज मुझे कुछ हो जाए, तो ये सब जानते हुए भी दीदी मेरा सब कुछ उठाकर उनके नाम ट्रांसफर कर देंगी, वो हैं ही ऎसी ही, हमारी एक पाई भी हाथ नहीं लगाएंगी। बस अब और क्या बताऊँ अपनी राम कहानी, “ हमने कंधे पर हाथ रखा, मै कुछ भी कुरेदना नहीं चाह रही थीं ,लेकिन कह देने से शायद आपका मन हल्का हो जाएI
ललिता अपने आप धीरे–धीरे खुल रही थी, मैं दार्जिलिंग की रहने वाली हूँ, वहाँ पति विक्रम अपना ढाबा चलाते थे। सब कुछ ठीक-ठीक चल रहा था। धीरे-धीरे काम कम होता गया। जहाँ भी नौकरी करता टिकता नहीं था, खर्च चलना मुश्किल होता गया। बच्चे छोटे थेI
मेरी परवरिश दीदी की मम्मी के घर में हुई है, मैंने अपने माँ-बाप नहीं देखे, मम्मी ने मुझे अपनी बेटी की तरह पाला, पढ़ाया-लिखाया, शादी भी उन्हीं ने करवायीI १९ वर्ष की उम्र पूरी होने पर उन्होंने विक्रम से मेरी शादी तय कर दी। विक्रम दार्जिंलिंग का रहने वाला था। गोरखा था ,तो देखने में भी सुन्दर था, आचरण में भी अनुशासित था। वहीं ऑफिस में नौकरी थी, दीदी की मम्मी ने समझाया, कम से कम तुम्हें इज्जत से तो रखेगा। बाकी मदद के लिए तो वो हैं ही। उनकी निगरानी में भी रहेगीI उनको तसल्ली थी कि ललिता अब बालिग़ थी, उसके लिए कोई भी निर्णय लेने के लिए उन्हें किसी से डरना नहीं पडेगा। किसी से पूछना नहीं पडेगा, किसी की जबाबदेही नहीं है, हमारा कोई और था ही नहींI शादी हो गई। शादी करके विक्रम हमको लेकर अपने घर गया। घर वालों से हमें मिलाया। मै खुश लौटी थी, कम से कम एक घर –परिवार तो है जिसे मै अपना कह सकती हूँI उसके घर वाले खुश थे की ललिता के बहाने उनके बेटे का भविष्य सुरक्षित रहेगा। शादी में ही दीदी की मम्मी ने काफी कुछ दिया था, सब विक्रम ने अपने घर वालों को बताया था।
एक साल सब ठीक चलता रहाI दार्जिलिंग से एक दिन फोन आया की उसके पिता चल बसे हैं, हम लोग तुरंत दार्जिलिंग के लिए रवाना हो गए। सब क्रिया कर्म करके लौट आयेI थोड़े दिन बाद विक्रम ने दीदी की मम्मी को बताया कि वो अब दार्जिलिंग वापस जाना चाहेगा। माँ चाहती है, मैं वहाँ आ जाऊँ, पिता छोटा सा ढाबा चला रहे थे, मैं भी वहाँ आकर अपना ढाबा सम्भालूँ ,आपकी दया से थोड़ा पैसा भी है, काम बड़ा कर सकता हूँ।
मम्मी जी को समझ आगया था की अब आगे की जिन्दगी ललिता की विक्रम के साथ है और वो खुद उसे संभालेगा।
विक्रम काम वैसे कर नही पा रहा था, जैसा करना चाहिए, पता नही ढाबा चलाने की समझ नहीं थी, या उतनी मेहनत नहीं की थी, जब हालात यहाँ बिगड़ने लगे, मम्मी जी हमारी खोज–खबर बराबर लेती रहती थीं पैसे की तंगी देखते हुए, दीदी की मम्मी ने सुझाया, तुम दीदी के साथ चले जाओ, दीदी के पति विदेश सेवा में थे ।मुझे समझ नहीं आया, अपने बच्चे –घर छोड़कर मै कहाँ चली जाऊं, उन्होंने समझाया पति-पत्नी एक रथ के दो पहिये हैं, एक ही रथ की सवारी हैं , वो कमजोर पड़े तो तुम लगाम सम्भालो, तुम वहाँ रहकर कमाओ, इतने दिन तुमने बच्चों को सम्भाला है, अब विक्रम बच्चों को संभाल लेगा। वो तो हमेशा बड़ा ही सोचती थीं और हमसे भी यही चाहती थीं कि मैं भी बड़ा ही सोचूँ, आत्म निर्भर बनूँ। हालात से लड़ना सीखूँ
विक्रम उनका सम्मान तो वैसे ही बहुत करता था, इस मसले पर उसको भी कोई दिक्कत नहीं हुई। हम दीदी के साथ चले गए, एक देश से दूसरे देश उन लोगों के साथ घूमते रहे, नौकरी करने का एक सुख तो था ही। एक-एक पैसा मैं घर भेजती रही, बस एक ही सपना था की बच्चों को माँ-बाप दोनों को प्यार मिले। बच्चे माँ के अंदर एक पिता और पिता के अंदर एक माँ देखें। साल में एक बार घर जाती थी। लेकिन जैसा सोचा था, वैसा कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा था .विक्रम शराब का लती होता गया। सब पैसा उड़ने लगा, बच्चे भी वैसे नहीं पढ़े-बढे, जैसा मैं चाहती थी, खुद तो शराब पीकर बहकता रहता, बच्चों को मेरे ही खिलाफ भड़काने लगा, ‘ तेरी माँ तुम लोगों को मेरे ऊपर छोड़कर विदेश में मौज कर रही है। ‘ झूठ बोलता उनसे, ‘ मेरे पास पैसा नहीं है, अपना कमाओ-खाओ। मैं कोशिश बहुत करती, लेकिन बच्चे कभी भी नहीं समझ पाए, की माँ के लिए अपने बच्चे छोड़कर जाना कितना मुश्किल है, उनको तकलीफ़ से निकालने के लिए ही बाहर नौकरी पर गयी। जब माँ उनके साथ नहीं है तो ये समझदारी सिर्फ पिता ही दे सकता था, लेकिन बच्चों में इतनी समझदारी वो क्यों देता, उसे तो अपने ऐब छिपाने थे बस। बच्चों ने माँ को समझा ही नहीं, समझा तो बस इतना कि वो उन्हें छोड़कर गयी थी, उसे बच्चों की फ़िक्र ही कहाँ थी। खैर छोडिये, वो सब बहुत पीछे छूट गया है, अब तो सबके अपने घर-परिवार हैं। विक्रम को तो मैंने जिंदगी से निकाल ही दिया।
भाग्य की ही विडम्बना है, बचपन में माँ -बाप का साया नहीं मिला, जवानी में पति का सहारा नहीं मिला, बुढापे में भी बच्चों का प्यार नहीं मिला। बच्चों का सुख क्या होता है जाना ही नहीं, जिन्हें हम अपना कहते हैं, वो कभी भी मेरे पास नहीं थे लेकिन दीदी इतना प्यार करती हैं ,परिवार के सदस्य की तरह रखा। जैसी बड़े दिल की, उनकी माँ थीं, वैसी ही दीदी हैं। आपको हैरानी वाली बात बताऊँ, मुझे भी शादी के समय ही मम्मी जी ने बताया, जिस ललिता को वे बेटी की तरह पाल रही थीं, उसको पालने के लिए,उसको, उसी के काका से बचाने के लिए वे हमारे काका को हर माह पगार देती थीं, काका यही समझता था की मैं वहां नौकरी कर रही हूँ।
उन्होंने बताया, “अभी तक हम तुम्हें तुम्हारे काका से बचा रहे थे। अब तुम बालिग़ हो ,विवाहिता हो, अब वो तुम्हारा कोई नुक़सान नहीं कर सकते। अब मुझे उनका कोई भय नहीं हैI अब वो तुम्हारी पगार भी नहीं ले पाएंगे।” कितनी बड़े दिल की थीं वो, इतना सब कुछ मेरे लिए करती रहीं, लेकिन इससे अधिक कुछ नहीं कहाI .
उसकी बात पूरी होते-होते, ज़हन में अतीत के सारे पन्ने जैसे किताब की तरह खुलने लगे, “ ललिता तुम रानी साहिबा की बात तो नहीं कर रही हो? उनकी बेटी शोभिता की बात कर रही हो ? वो बस हैरानी से मेरी और देख रही थीI
कैसा संयोग है की जब तुम्हारी कहानी उनके घर में शुरू हुई थी, हम वहाँ थे। एक परीक्षा की तैयारी हमें करनी थी और हम उनके पास रहे थे। कभी नहीं सोचा था की तुम यहाँ ऐसे मिल जाओगी। काका की जो कहानी मुझे मालूम है तुम्हारी बातों से लगता है शायद तुम्हे भी नहीं मालूम होगीI तुमने काका का नाम लिया है, जिन्दगी के इस मोड़ पर उस काका की कहानी मै तुम्हें बताऊंगी जरूर, उनकी करतूतें मैं भूल कैसे सकती हूँ !.
, याद है मुझे वो दिन, हम अपनी पढ़ाई कर रहे थेI रानी साहिबा पूजा से उठी ही थीं की फोन घनघना उठा। उधर से एक गंवई आवाज इतनी तेज आ रही थी की दूर बैठे हम तक उसे सुन पाए “ हल्लो ! रानी साहिबा जी, पॉय लागूं ! मैं बिन्दा का काका हूँ , बुरी खबर है, बिन्दा न रही, पति तो पहले ही चल बसा था, आठ वर्ष की बेटी ललिता अनाथ हो गईI “ फोन कट चुका थाI
बिन्दा नहीं रही क्या मतलब, बिन्दा की शादी हो गई थी, कब? किससे हुई थी शादी? किसने की होगी शादी? बिन्दा आखिरी बार घर तब गई थी, जब उसकी माँ बीमार थी। वो जो एक बार घर गई वापस ही नहीं आईI
आज उस एक फोन के जबाब में सैकड़ों अनुत्तरित प्रश्न रानी साहिबा को मथ रहे थेI कैसे संभव है कि, उसने शादी की खबर भी नहीं दी। अगर वो खुश होती तो वो जरूर उन्हें बुलाती। उसकी बेटी भी हो गई और नहीं बताया, बिन्दा ऎसी थी ही नहीं, इस खबर से स्तब्ध रानी साहिबा उस समय कुछ भी पूछ नही पाईं, लेकिन बिन्दा की उस अनदेखी बेटी ललिता के लिए एक अजीब सा ममत्व उनके भीतर उमड़ रहा था, तुम समझ रही हो ! उन्हें बार-बार पछतावा हो रहा था की उसके काका से कोई फोन नंबर तो ले लेते, अब कोई जरिया नहीं है की उससे बात करें। काका ने तो सूचना देकर अपना कर्तव्य निभा दिया था। उन्हें तो ये भी समझ नहीं आया की जिन काका ने न बिन्दा की माँ के मरने की खबर दी, न बिन्दा की शादी की, न बिन्दा की बेटी होने की, अब उन्हें सूचना देने का एहसास ही क्यों हुआ, वो अब क्यों फोन करेंगे। बिन्दा की बेटी का भी कहीं ऐसे ही ब्याह कर देंगेI वो बार-बार ईश्वर से प्रार्थना कर रहीं थीं, ’हे ईश्वर ! मैं बिन्दा को नहीं बचा पाई, उसकी बेटी को बचाने का एक मौका उसको दे दो। तुम्हारे लिए जो तड़प मैंने उनमें देखी, मै हैरान हो जाती थीI
ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली और हफ्ते बाद काका का फोन आ गया, रानी साहिबा कोई समय गंवाना नहीं चाहती थीं, जैसे सब कुछ तय कर बैठी थीं की बस एक बार काका का फोन आ जाए, बिन्दा से जुड़े सारे प्रश्न उसकी चिता की अग्नि में रख हो चुके थेI ” हाँ काका ! बोलो ! ललिता कैसी है? आप मेरी एक बात सुन लो, वो ललिता को मेरे पास छोड़ दो। मैं उसकी पूरी जिम्मेवारी संभाल लूँगी। उसे अपनी बेटी शोभिता की तरह स्कूल भेजूँगी, वो यहीं पढेगी, आप पर उसका कोई बोझा नहीं होगा।” रानी साहिबा एक साँस में सब कुछ बोल गईं, वे ये मौका गंवाना नहीं चाहती थीं। वहाँ से काका ने न बीच में कोई बात काटी, न कुछ कहा। रानी साहिबा की बात पूरी होने पर काका बोले, रानी साहिबा ! मैंने इसी बाबत आपको फोन किया था ,की ललिता को हम आपके पास भेज देंगे, आप उसे अपने यहाँ नौकरी पर रख लो, माँ की तरह वह आपकी खूब सेवा करेगी, लेकिन आप उसे पढ़ाओगी नही, पगार पर रखोगी। “ रानी साहिबा स्तब्ध थीं, आठ साल की लड़की को काम पर लगा लें ! किस काम पर लगा लें ! लेकिन काका के लहजे से वो इतना तो समझ गईं थीं की उनकी ज़रा सी हिचक ललिता को किसी और घर में नौकर के रूप में पहुँचा देगी, बिन्दा से जुड़े उनके सारे प्रश्नों के उत्तर उन्हें मिल गए की बिन्दा के साथ क्या हुआ होगा, उनहोंने कहा,हाँ ! हाँ ! बिल्कुल ठीक है,ललिता को यहाँ पहुँचा दो और ललिता उनके पास आ गयी। रानी साहिबा खुश थीं कि वे बिन्दा की बेटी को वो प्यार दे सकेंगी, जो एक माँ दे सकती है। रानी साहिबा को हैरानी थी कि ललिता अभी तक स्कूल गई ही नहीं है, उन्हें समझ आया की अब तक कभी स्कूल नहीं गई, गाँव की लड़की के लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ पाना मुश्किल होगा। उन्होंने सरस्वती मन्दिर में उसका दाखिला करा दिया। वे वहाँ के ट्रस्ट की कमिटी में थीं स्कूल अपने अनुशासन और देश भक्ति से भरपूर शिक्षा के लिए जाना जाता था। इसे वहाँ के संस्कार और उनकी निगरानी मिलेगी तो ,उसे स्वावलम्बी और स्वाभिमानी इंसान बनाएगी।
कई बार लोग रानी साहिबा को समझाते, ऐसे तुच्छ और स्वार्थी काका को पगार देकर आप क्यों गलत काम के लिए प्रोत्साहन दे रही हो। आपके पास आपके बच्चे की तरह, बेटी की तरह ये पढ़ रही है, देना ही है तो पैसा उसी बेटी के नाम करा दो, कम से कम भविष्य में उसके काम तो आयेगा, रानी साहिबा के मन में भी कई बार ऐसे ख्याल आते, लेकिन भरोसेमंद मुनीमजी ,जिन्होंने बिन्दा को उनके साथ देखा था, उनकी दलील ने बहुत व्यावहारिक ज्ञान दिया “ रानी साहिबा ! आप कितना भी प्यार दे दो, ये आपकी बेटी नहीं है, वो काका के परिवार की बेटी है, उसके माँ-बाप हैं नहीं, काका पैसे का लालची है, उसके लिए ये दुधारू गाय है, आप ललिता को कैसे भी रखो, मारो-पीटो,उसे फर्क नहीं पड़ना, उसको पगार मिलती रहेगी, वो कुछ नहीं बोलेगा लेकिन उसकी पगार बंद होगी, तो वो ललिता को लेने आ जाएगा और आप कानूनन उसे अपने पास नहीं रख पाओगी। कानून अपने आप में बहुत टेढ़े होते हैं, वे संवेदनाएँ नहीं देखते, आप पगार बंद करोगी तो वो किसी भी हद तक जा सकता है, वो पुलिस में रिपोर्ट भी लिखा सकता है। उसे सलाह देने वालों के लिए आप सोने की मुर्गी हो, वो अपहरण की रिपोर्ट लिखा सकते हैं ,गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा सकते हैं और काका कहीं ऐसा कुछ कर बैठा तो आप पर अपहृत करने का मुकदमा चल सकता है, वो कानूनन बेटी आपसे ले जाएगा, सच जानते हुए भी, कानून आपकी कोई मदद नहीं कर पायेगा और वो फिर उसी नर्क में पहुँच जाएगी। रानी साहिबा को पूरा मसला एकदम चित्र बनकर आँखों के सामने आगया था और वो ऐसा कोई भी गलत -सही काम नहीं करेंगी, जिसमें ललिता को खो देने का भय हो।
काका हर महीने मुनीम जी के पास पगार लेने आते , ‘” ललिता बिटिया ठीक है ! कुशल मंगल है ! चलो रानी साहिबा की छाँह में अनाथ बच्ची पल जायेगी !” ,पूछते जरूर, लेकिन उत्तर कभी नहीं लेते, सिर्फ पगार लेते और चले जाते। रानी साहिबा ने मिलना भी बंद कर दिया था ।
ऎसी सुन्दर व्यवस्था थी, वो ऎसी कोई बात नहीं करते, जिससे बनी हुई व्यवस्था बिगड़ जाए,वो अपनी पगार सुरक्षित रखना चाहते थे और रानी साहिबा ललिता की सुरक्षा को लेकर कई बार असुरक्षित हो जातीं, की कही कोई बात बिगड़ न जाए। दोनों का एक दूसरे के लिए ये आपसी समझौता-सम्मान काफी था । मुझे विशवास नहीं हो रहा तुम वही ललिता हो!
मेरा आना–जाना रानी साहिबा के पास कभी–कभार बना रहाI तुम्हें याद है बहुत कोशिशों के बाद भी तुम्हारा पढ़ाई में मन नहीं लगा। रानी साहिबा को दुःख भी होता की इसके अन्दर बिन्दा वाली बात क्यों नहीं है, उसके अंदर कुछ बनने की तलब क्यों नहीं है। पिता बहुत ही कमजोर रहा होगा, जो इतनी अच्छी परवरिश और पढ़ाई के बाद भी ललिता कुछ करने को तैयार नहीं दिखती, झुंझलाकर कहतीं, इसे विरासत में बिंदा के नहीं, पिता के ही जीन्स मिले हैं। कुछ भी हो ललिता के वर्तमान ही नहीं, वो उसके भविष्य को भी सुरक्षित करना चाहती थीं। जैसे ही तुम बालिग़ हुईं और उन्हें लगा, इसकी सही जगह शादी कर दें, कम से कम उसका अपना घर परिवार होगा, इधर-उधर कहीं किसी से शादी कर बैठी तो फिर जिंदगी नर्क बन जाएगी ।
तुम्हारी शादी हो गयी, उन्होंने काका को कानों कान खबर नहीं होने दीI नियमवत माह पूरा होने पर काका आये तो मुनीमजी ने उन्हें पगार के साथ ऊपर से भरपूर दक्षिणा देकर उन्हें बताया, कि ये आपकी आखिरी पगार है, ललिता शादी करके अपने घर चली गई है, आपने उसकी कमाई बहुत खा ली, अब उसे अपने घर में सुखी रहने का आशीर्वाद दें।
एक पल को तो काका को काटो तो खून नहीं, अचानक वे कैसे बेरोजगार हो गए। वे कुछ जोड़ -तोड़ दिमाग में करते रहे और उन्हें इतना तो समझ आ गया की, अब कहानी ख़त्म है, शायद उनके अंदर इतना नैतिक साहस भी नहीं था कि पूछ सकें की आपने शादी की और हमें बुलाया क्यों नहीं, या शायद उन्हें ये अंदाज़ा ही नहीं था की जिस बेटी की पगार वे वर्षों से खा रहे थे ,रानी साहिबा ने उसे काम पर रखा ही नहीं, वे बिन्दा की बेटी को पालने का हक़ रखने की पगार काका को दे रहीं थीं। अब वो बालिग़ हैI वो अपनी मर्जी से किसी से भी शादी कर सकती हैI
ललिता एकदम स्तब्ध, हैरान सी मुझे सुन रही थी, उसकी जुबान में जैसे ताला लग गया था I तालू सूख रहा था, ऊँची–ऊंची साँस लेकर मुझे देखती रही, फिर एकाएक फफक उठी, मै तो उन्हें बस मम्मी मानती थी, लेकिन वो तो भगवान् थीं काका की क्या कहूँ, उसकी तो मुझे शक्ल भी याद नहीं हैI मेरा दुर्भाग्य ही तो है, जिन्होंने मुझे अपनी बेटी की तरह पाला, मैं आज भी उनसे बेटी होने की पगार ले रही हूँ । अपने को उनकी बेटी भी शान से कह सकती हूँ, लेकिन ये भी तो सच है की, मैं पगार की बेटी हूँ। उनहोंने जो एक बार जिम्मेवारी ली, पूरी जिंदगी निभाया और उसकी पगार भी मुझे देती रहीं। मुझे मालूम है, दीदी के पास काम हो या न हो, हर महीने पगार मेरे खाते में पहुंचती है।
ललिता की आँखों में एक अपनापन था, हमने कहा, तुम तो मेरी अपनी ही निकलीI अब मिलते रहेंगेI शोभिता से भी मिलूंगीI पगार की बेटी की वो बात ज़हन में घूम रही थी ‘की मालिक हो नहीं सकती, नौकर हूँ नहीं, उसके बीच कुछ भी समझ लो। रिश्तों की इससे सुन्दर व्याख्या और क्या हो सकती है।
पहला जूता
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रचनाएँ
सास का बेटा
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कहानी संग्रह सास का बेटा, 15 कहानियों का संग्रह है। जीवन की आपाधापी, तो कुछ जीवन के कडुवे सच की कहानियाँ हैं। कहीं हौसले की उड़ान तो कहीं रोजी-रोटी के लिए महानगरों में बसी आबादी की घर वापसी की आस, खोये हुए गुफ्रान की घर की तलाश, रिश्तों के मनोविज्ञान, कोरोना की मार, पैर से ज्यादा पहला जूता पहनने की ख़ुशी, अनब्याहे वैधव्य की लम्बी यात्रा, तो विवाह के नाम पर वेश्यावृत्ति में फँसी एक बेटी की कहानी है, बिना माँ बाप की बच्ची के लालची काका, मां से अधिक प्यार देने वाली रानी साहिबा, संस्कार के नाम पर मृत देह का अपमान, देहदान की रोचक कहानी मनोरंजन के साथ अपनी संवेदनाओं से ये कहानियाँ अपनी सहज-भाषा में न केवल पढने की भूख को संतुष्ट करती हैं, बल्कि बाहर के सच से बहुत कुछ रूबरू करातीं हैं, हर कहानी के किरदार, अपने से लगते हैं, कहानी तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन अन्दर बहुत कुछ मथ के जाती है।
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आभार

14 अक्टूबर 2022
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आभार स्वभाव की बहुत प्राकृतिक एवम व्याव्हारिक प्रतिक्रिया हैI शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक, भौतिक छोटी–बड़ी जरूरतों के लिए आँख खुलने से लेकर बंद होने तक, जीवन की पहली साँस लेने से लेकर अन्तिम साँ

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प्राक्कथन

14 अक्टूबर 2022
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कहानी कहते ही नानी याद आ जाती हैं, लेकिन कहानी तो दादी भी सुनाती हैं! ‘नानी’ शायद तुकबंदी के कारण चलती रहीI ये तो कोई तुक नहीं है, तुक हो या बेतुक, कुछ न कुछ बात तो कह कर जाती है, कुछ भी कहती है तो ब

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सास का बेटा

14 अक्टूबर 2022
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आज का दिन भी निकल गया ..कल तो शायद अजीत की चिठ्ठी आनी चाहिए ,चिट्ठी आये भी कैसे ? दस दिन से तो पोस्टल विभाग की हड़ताल चल रही है, डाकखाने में तो चिट्ठियों के अम्बार लगे होंगे, किसे समय हैं जो उन्हें निप

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ट्रेन फिर मिलेगी

14 अक्टूबर 2022
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जुहू बीच [समुद्र का रेतीला तट ] भोर की रश्मि ,तेजी से तट की ओर आती हुई समुद्र की लहरों का उफान। कितने उत्साह से न जाने कितने सपने संजोये अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ती सी नजर आती हैं, तट से मिलने की एक आस।

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घर वापसी

14 अक्टूबर 2022
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विक्रम लालजी उपाध्याय की जय हो ! ‘ धरती का लाल! ऊँचा है भाल! हमारा अपना विक्रम लाल! ‘ ‘जीत उसी की होती है, पीछे जिसके जनता होती है ‘ ‘ जिसकी झोली खाली है, वोट उसी में भारी है ’ ‘साबित कर दिखलाया है,

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समिधा–समाधि

14 अक्टूबर 2022
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अभी बस फ्लाईट लैंड ही कर रही थी. जहाज के फैले पंख सिमट रहे थे ,पहिये जमीन पर उतर रहे थे ,घडघडाते हुए ,जमीन को छूते हुए अपने पैरों को जमीन पर जमाया ,और मोबाइल खनखनाने लगे . बेसब्री स्वभावगत है .चाहे दो

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देहदान

14 अक्टूबर 2022
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“ तुम मुझे बता तो दो, की चाह्ते क्या हो ? अरे! इस गरीब को यहाँ क्यों लाये हो?हमें क्या समझकर लाये हो? क्या मेरा अपहरण किया है? मेरा अपहरण कोई क्यों करेगा?” “चुप कर औरत! तेरी बकवास सुनने के लिए यहाँ

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पगार की बेटी

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ललिता हमें बंगलौर में मिली थी। डायमंड डिस्ट्रिक्ट सोसायटी में बेटी रचना के पास गई थी। मेट्रो सिटी की ये सोसायटी अपने आप में एक पूरा शहर होती हैं। दो हजार फ्लैट, आठ ब्लॉक, २५ से ३० मंजिलें, हर मंजिल

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पहला जूता

14 अक्टूबर 2022
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बाटा की दूकान में अन्दर घुसते ही, हैरानी में सात साल के सुल्लू की गोल–गोल आँखें और गोल हो रहीं थी, ” इतने सारे जूते! चप्पल ही चप्पल! बाप रे बाप! मैडम ! कितने जूते-चप्पल हैं इस दूकान में, हमने तो अपनी

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अनब्याहा वैधव्य

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जमीन पर बिछी सफ़ेद चादर पर शान्त, निर्जीव सोया बुआ का शरीर हिम शिला सा लग रहा था मानों गंगा की प्रस्तर मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित कर रखी थीI चारो ओर अगरबत्तियाँ जल रहीं थींI. सन से सफेद बाल, सफ़ेद मर्

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रिश्तों के गणित

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‘ मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो मुझे विवेक के साथ जाने दो ! सुमेध ! तुम्हारा तो विवेक ने कुछ नहीं बिगाड़ा था, तुम तो हम लोगों को इतना प्यार करते हो? तुम क्यों विवेक के पास जाने से रोक रहे हो? मुझे---------

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अधूरे पूरे नाम

14 अक्टूबर 2022
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कभी–कभी सर्दी के मौसम में मनचाही धूप भी कितनी बोझिल हो जाती है! कैसा विरोधाभास है, चाहय वस्तु ग्राह्य नही हो पातीI बोझ भरे नौकरी के दायित्व के लिए कितनी बार ऐसे हॉलि डे ब्रेक को चाहा था, लेकिन आज जब

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अभिशप्त नंबर तेरह

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आज उसका वार्ड बदला जा रहा थाI स्ट्रेचर पे लेट हुए रोगी की विवशता भी कितनी असाध्य होती हैI जिसकी जिन्दगी पिछले पाँच माह से एक पलंग के आसपास सीमित हैI उसे क्या फर्क पड़ता है कि वो किस वार्ड में शिफ्ट

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इस ब्याही से कुँआरी भली थी

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दीदी शादी के बाद पहली बार घर आ गई थीI औरों का नहीं मालूम, मैं सबसे ज्यादा खुश थीIदीदी के गले में बाँह डालकर लटक गई “ आप अब कितने दिन बाद जाओगी?” दीदी ने कुछ जबाब नहीं दिया, मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल

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छूटे हुए छोर

14 अक्टूबर 2022
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मीनल सड़क के इस पार कार में अकेली बैठी है और उस पार शवदाह गृह में मयंक और मयूरी हमेशा के लिए राख हो जाएंगे I कैसा विचित्र–अद्दभुत संयोग है मयूरी–मयंक आज उस कहावत [विज्ञापन की यू.एस.पी. ] को ‘जीवन के सा

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विवशता न समझे ममता

14 अक्टूबर 2022
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शीना–टीना स्कूल जा चुकी थींI दो कप चाय बनाकर तसल्ली से चाय पीना और चाय के साथ अखबार पढ़ना एक दिनचर्या थी सौमिक और हम बाहर आकर लॉन में बैठ गए थेI सौमिक पहले अंग्रेजी का अखबार पढ़ते हैं, हम हिन्दी का ,

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अपने को तलाशती जिन्दगी

14 अक्टूबर 2022
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ट्रेन की रफ्तार धीमी होनी शुरू होते ही अन्दर यात्रियों की हलचल तेज होने लगी थीI एक अजब सी धक्का मुक्की होती ही हैI सभी को उतरना है, ट्रेन में कितनी भी देर बैठ लें, लेकिन स्टेशन आने पर धैर्य से उतरने

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