ट्रेन की रफ्तार धीमी होनी शुरू होते ही अन्दर यात्रियों की हलचल तेज होने लगी थीI एक अजब सी धक्का मुक्की होती ही हैI सभी को उतरना है, ट्रेन में कितनी भी देर बैठ लें, लेकिन स्टेशन आने पर धैर्य से उतरने का धैर्य किसी में नहीं होताi आगे आकर पहले उतरने की बेताबी में सूटकेस खींच-खींच कर दरवाजे के पास लगने शुरू हो गए थेi ’ भाई साहब ! धीरज रखिये सभी को उतरना है, यहाँ घर कोई नहीं बना रहा है ‘ ‘ जगह के लिए क्यों परेशान हो रहे हैं ,जमीन के पट्टे नहीं लिखे जा रहे हैं ‘ ‘ माफ़ कीजिए बहिनजी ! जरा सी जगह देंगी, प्लेटफार्म पर खड़े बेटे को जरा हाथ हिलाकर बता तो दें, ’बहिनजी आपके सूटकेस आगे लगे है, पहले आपके ही उतरेंगे, आप जरा पीछे तो हट जाओ, हम उतार र्देंगे आपका सामान ‘ सब एक दूसरे को ज्ञान दे रहे थे, शायद अपने अन्दर की बेताबी को ही दिलासा दे रहे थेI
द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित डब्बे में बैठी संजना को हलचल के साथ ही समझ आगया था कि उसका गंतव्य आ गया है, लेकिन वो इत्मीनान से बैठी थी, उसने ये तय कर लिया था कि वो सबके उतरने के बाद ही उतरेगीI उसे हँसी आ गई कि मिनट भर में सब उतर जाते हैं लेकिन वो मिनट किसी के पास नहीं होताI ट्रेन प्लेटफार्म के साथ–साथ चल रही थी, कुली डब्बे के साथ दौड़ रहे थे, और डब्बों के भीतर चढ़ने की हड़बड़ी उन्हें भी थीI कुली के साथ दो सिपाही भी डब्बे में चढ़े ,संजना को आकर सैल्यूट किया ,कुली से सामान उतरवाया I अप्रत्याशित, संजना ने तो अपने आने की सूचना किसी को दी भी नहीं थीI मुखबिरी यहाँ भी होती है, उसे हँसी आ गईI
प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी में संजना डाकबंगले के लिए रवाना हो गईI पुलिस अधीक्षक के रूप में संजना के लिए ये पहला जिला थाI रुतबे का गर्व था तो राजनैतिक दबाबों, स्थानीय राजनीतिज्ञों के साए में पलते अपराधियों से निबटने की चुनौती भी थीI
खैर जैसा होता है अधिकारी के पहुँचने से पहले उनकी सोच, कार्यशैली, पसन्द–नापसंद, उनकी वरीयताएँ, महकमे तक ही नहीं आम लोगों तक पहुँच जाती हैंI
संजना तो फिर पूरे पुलिस सेवा के रिकार्ड में अपवाद ही थींI वरीयताक्रम की सूची में टॉपर संजना मिशन चैरिटी में पली–बढ़ी थींI इस तरह की संस्थाओं के लिए उनकी संवेदनशीलता भी लोगों के लिए अपरिचित नहीं थी I
आये दिन उनका शहर की इन संस्थाओं में होने वाले कार्यक्रमों में शिरकत होने लगी I विभिन्न संस्थाओं के लोगों के लिए उनकी मदद सहज उपलब्ध थी, अपनी समस्याओं के समाधान के लिए वे बेधड़क–बेहिचक आते–जाते थेI
और बच्चों–बालिकाओं की संस्था की आड़ नेताओं–पुलिस के साए में में व्याभिचार के अड्डे चलाने वालों के लिए चेतावनी थी की वे गलती से भी उनके मत्थे न चढ़ जाएँ, वो सीधे जेल नहीं भेजेंगी, सड़क पर हथकड़ियाँ डालकर घुमा सकती हैं, जनता के हाथों सुपुर्द कर सकती हैं ,ये बस सन्देश ही काफी था ,उन्हें कुछ करना नहीं पडा I
खोये हुए बच्चों के लिए चल रही संस्था के प्रति उन्हें विशेष स्नेह थाI कहती भी थीं कि इनकी कहानियों में मैं अपने को ढूँढती हूँ, शायद मैं ट्रेन में छूट गईं हों, मुझे भी किसी रिश्तेदार ने ऐसे ही लावारिस छोड़ दिया हो, शायद अपने घर का रास्ता मैं भूल से भटक गईं हूँ, तब से भटक ही तो रही हूँ, मुझे मिशन चैरिटी ने न लिया होता तो में कहाँ होती काश इनको अपने घर या माता–पिता की कोई याद मिल जाएI
जनता–जनार्दन संस्था की समर्पित समाज सेवी दमयन्ती जी ने संजना की मदद से चार बच्चों को उनके माँ–बाप को खोजकर मुम्बई–बेगुसराय-धनबाद-गया शहर पहुँचायाI
संजना और दमयन्ती जी की चारित्रिक पारदर्शिता ने दोनों के बीच एक अजब आत्मीयता का रिश्ता बना दिया थाI संजना को उनके अन्दर अपनी खोई हुई माँ दिखती थी तो अविवाहित दमयन्ती जी को युवा पुलिस अधीक्षक संजना में एक पुत्रीI
रविवार का दिन था, दमयन्ती संजना के निवास पर उनके लॉन में बैठी काफी पी रहीं थींI दमयन्ती जी ने कहा संजना जी ! आपके मैस की किचेन में एक लड़का काम करता हैI एक बार मैं उसे आपसे मिलवाना चाहती हूँ, हांलाकि उम्र में वो बीसेक साल से ऊपर का है, निहायत ही शरीफ और मेहनती है, उसका कोई नहीं है, हमें सड़क पर बस ऐसे ही मिला था, हमने अपने पास ही रखा, काफी काम सिखाया, हमारे आग्रह पर ही पूर्वाधीक्षक ने उसे मैस में काम पर लगा दिया था वो वहीं काम कर रहा हैI लेकिन अबतक अपने घर और घरवालों की तलाश उसकी सूनी आँखों में है I एक ही बात को वर्षों से दोहराते–दोहराते, वो कहानी तो साथ चल रही है, लेकिन उनका कोई किरदार अब उसकी याद में नहीं है I संजना बोलीं, आज ही उसे बुलाइए न, कोशिश तो कर ही सकते हैंI कुछ कहानी तो बताएगा ही, बाकी हम लोग मिलकर पूरी करेंगेI उम्र में बढ़ा है तो बातों की सच्चाई भी जाँचनी ही पड़ेगीI पता नहीं कितना सच है, आधा सच है या पूरा सच है या पूरा झूठ हैI
अपने स्टाफ को भेज कर उसे बुलवाया गयाI सहमा-सकुचा, डरा हुआ था, बंगले में जाने को तैयार ही नहीं था, जब दमयन्ती जी ने आवाज दी ‘सुल्फान ! इधर आओ, तब जैसे-तैसे उसे कुछ हिम्मत आईI
दमयंती जी के साथ उसने संजना के भी पैर छुएI संजना ने कहा सुल्फान ! तुम कहाँ के रहने वाले हो? तुम्हारा घर कहाँ है? तुम घर जाना चाहते हो तो हम मदद करेंगेI इन मैडम से मिलने से पहले तुम कहाँ काम करते थे? किसके पास काम करते थे? अपने बारे में सब सच–सच बोलना, मैडम तुम्हारी मदद करना चाहती हैंI इधर आँखें ऊपर करक, हमारी तरफ देखकर बात करो, सुल्फान बोलो! अपने बारे में बोलो!
सुल्फान रोने लगा, फूट–फूट कर रोने लगाI दमयंती जी थोड़ा विचलित हो गईंI उन्होंने संजना को इतना पुलसिया आवाज में कभी नहीं देखा थाI ‘ यही तो इसकी बेबसी है की इसे कुछ याद नहीं है ‘ संजना ने धीरे से उनका हाथ दबायाI
वो बिलखने लगा, उसको तो बस इतना याद था कि उसने गुस्से में अब्बा को गुम्मा मारा थाI अब्बा घर आये थे उनके हाथ में ठोंगा था, हमने लेने के लिये हाथ बढाया, उन्होंने नजरा के हाथ में दे दिया था और उस पर नजरा हमें चिढाने लगी हमें बहुत गुस्सा आया और हमने गुम्मा उठाकर अब्बा के सर पर मारा, गुम्मा माथे पर लगा और उनके सर से खून बहने लगाI मैं डर कर घर से भाग गया और भागता रहा, मुझे समझ ही नहीं आ रहा था की मैंने गुम्मा मार कैसे दिया और जितना सोचता, डर और बढ़ जाता, कि अब संटी आई, अब बैल्ट आई, और बिना पीछे मुड़े मैं बस भाग रहा था, और थक हारकर जब पीछे देखा तो वहां कोई भी नहीं था ,मुझे पता ही नहीं रहा कि कहाँ से कहाँ पहुँच गया थाI
याद ही नही आता कि अकेला दौड़ता कैसे रहाI न पैर में चप्पल, न एक भी पैसाI भीड–भाड़ में लोगों के चेहरे देखता, शायद कोई मुझे पहचान ले, कोई मुझसे पूछ ले, अरे तुम यहाँ कैसे ?इतना सोचकर ही मैं बिलखने लगता की मुझे मेरे घर पहुँचा दो, मुझे अपने घर जाना हैI लेकिन कोई नहीं मिलाI कभी भूख कभी घर की याद ! भूख तो कभी किसी कूढ़े के ढेर से और कभी किसी की दया से मिट ही जाती लेकिन घर की याद व्याकुल कर देतीI धीरे-धीरे घर ही नहीं घर की याद भी धूमिल पड़ने लगीI सिर्फ मेरे साथ मेरा नाम रह गया थाI
गाँव–मोहल्ला– दोस्त, सबके चेहरे आँखों से हटने लगे पर अब्बा का चेहरा नहीं भूलताI वो कैसे होंगे, पता नहीं कितना खून बहा होगा, पता नहीं उन्होंने अपना गुस्सा किस–किस पर उतारा होगाI उन्होंने क्या अम्मी को मारा होगा? घर की याद पता नहीं कैसे मिटने लगी धीरे–धीरे सब चेहरे आँखों से हटने लगे I अब कुछ भी याद नहीं आता है मैडम I संजना सुल्फान के चेहरे को देखती रहीं , पढती रहीं I
सुल्फान का रोना सिसकियों में बदल गयाI अब वो एकदम शान्त थाI दमयन्तीजी अशान्त थींI सुल्फान के साथ उनकी अतिरिक्त आत्मीयता थीI इतनी नरमदिल संजना सुल्फान के साथ अचानक ऐसा बर्ताव क्यों करने लगींI शायद वो उस पर विशवास नहीं कर पा रही हैंI बोली, बार–बार बोलते–बताते इसे ये कहानी तो याद रह गई है, लेकिन इसे किसी की शक्ल भी याद नहीं रह गई हैI
संजना ने सुल्फान को चाय–नाश्ता कराके के मैस वापस भेज दिया I
बात आई–गई हो गईI दमयन्तीजी ने फिर कुछ पूछा भी नहीं I
संजना लीव पर चली भी गईं थीI मिशन चैरिटी होम आज भी उनका घर थाI संजना ने अपनी माँ समान सिस्टर जयसिन्था मैम से सब हाल पूछेI सबके हालचाल लेती रहीI वो नानी अब कैसी हैं? उनका स्वास्थ्य कैसा है? वो भी बहुत याद आती हैंI कितना प्यार और अपनत्व उन्होंने दिया हैI मैं भी बस वैसी ही बनाना चाहती हूँI सिस्टर जयसिन्था को लग रहा था की इतनी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अन्दर आज भी वही संजना बसी हुई हैI सिस्टर जयसिन्था ने नानी को फोन किया कि आपकी पुलिस अधीक्षक बेटी आपसे मिलने आ रही है, उसे आपके हाथ की कचौड़ी-आलू खाने हैंI
शाम को सिस्टर जयसिन्था के साथ संजना नानी के घर पर थीI दोनों एक -दूसरे को देखकर भाव विह्वल हो उठींI नानी से लिपटकर, उन्हें गोदी में ऊपर उठा दियाI ‘अरे क्या करती हो,गिर जाओगी,नानी अभी भी तुझसे तो भारी ही है Iसभी खिलखिला उठे I ‘नानी ! कचौड़ी -आलू खिला रहीं हैं ना ! क्या फरजाना अभी भी आपके साथ काम कर रही है ? ‘नानी बोलीं, अरे उस मरी ने हमारा घर कहाँ छोड़ना है, यहीं है, बड़े मन से कचौड़ी–आलू बनाए हैं, उसे तुम्हारी याद है, लेकिन अपने आप से बहुत दुखी हैI अरे आज चौदाह बरस हो गए, उसका बेटा घर से भागा तो लौटा ही नहीं और वो पगली बस उसी की बाट रहती हैI फरज़ाना की नजर अब कमजोर पड़ गई थीI बीस वर्ष उसे घर में काम करते हो गए थेI नज़रा और अबरार की शादी हो गई थीI उसका बस एक ही दुःख था कि इतना छोटा सा गुफ्रान आखिर इतनी दूर कहाँ चला गयाI उसकी आँखें पथरा गईं थीं कि अभी गुफ्रान आता होगा, अब आता होगाI बिना कपडे, लत्ते–पैसे के इतने दूर कहाँ चला गया जो वापस नहीं आ पाया, चप्पल तक पैर में नहीं थीI
संजना को हल्की–हलकी हर बात याद आ रही थी, नानी मिशन चैरिटी में आया करती थींI हम बच्चे उनके आने पर कितना खुश होते थे सब बच्चे उन्हें नानी कहते थे नानी किसी भी बहाने बच्चों को अपने यहाँ आमंत्रित करती थीं, लेकिन हम लोगों के लिए वो उत्सव होता था हम लोगों की दुनिया मिशन चैरिटी होम और नानी के बीच सिमटी थीI और हमने भी नानी के घर में और कोई देखा हो, कभी याद नहींI नानी बहुत बातें पूछती रहीं, किस्से सुनती रहीं .फरज़ाना को बहुत याद नहीं था, लेकिन खुश थी की वो इतनी बड़ी अफसर बन गई थीI संजना ने नानी से पूछा, आप और जयसिन्था मैम इस बार मेरे साथ चलोI मुझे बहुत अच्छा लगेगा Iआप कहो तो कुछेक रोज के लिए फरजाना को अपने साथ ले चलेंI मैं कार से ही आयी हूँ ,आप मना मत करिये’ नानी मान गईं, संजना को पुलिस वर्दी के रुतबे में देखने की मंशा उनकी भी बहुत थीI सिस्टर जयसिन्था उन्हें बताती रहती थींI जयसिन्था मैम के लिए होम छोड़कर जाना संभव नहीं थाI
बस्ती पहुँच कर संजना को उसके बंगले और वर्दी में देखकर नानी बहुत खुश थींI फरज़ाना को भी नानी ने अपने ही कमरे में रखा था, जमीन पर बिस्तर लगवा दिया थाI इसने तो कभी सडक नहीं पार की, यहाँ बंगले में ही कहीं खो जायेगी I
रविवार का दिन था संजना और नानी लॉन में बैठे थेI संजना ने दमयन्तीजी को भी बुला लिया थाI संजना जबसे आई थी, दमयन्ती जी में उन्हें नानी की छवि दिखाई देती थीI दमयंतीजी आ गईं, संजना ने उन दोनों का आपस में परिचय करायाI वहीं ब्रेकफास्ट चलता रहा, कचौड़ियाँ और आलू की सब्जी खाकर दमयंती जी गदगद थीं, इतनी स्वाद वाली कचौड़ी तो तुम्हारे पास पहली बार खाने को मिली है, ‘ हम तो नानी के पास इसी स्वाद से बड़े हुए हैं ‘संजना हंस रही थी I
तभी गार्ड सिपाही ने आकर कहा, मैडम वो मैस वाला लड़का आया है, आपने बुलाया है ! दमयंतीजी चौंकी, आज क्यों आया है, इस बीच हमारी भी उससे कोई बात नहीं हुई, लेकिन चुप रहींI सुल्फान अन्दर आयाI उसने नमस्ते करते हुए सबके पैर छुएI वो दमयंतीजी की तरफ देख रहा था,शायद उन्हीं ने बुलवाया होगा I
संजना बोली, अब आपको मिलवाते हैं ये स्वादिष्ट कचौड़ी बनाने वाली सरप्राइज सेI संजना ने फरज़ाना को अन्दर से बुलवायाI सब एक दूसरे से लगभग अपरिचित ही थेI संजना प्रश्न पर प्रश्न करके उसे झकझोर रही थी, कि अटकी कोई याद उसे रास्ता दिखा दे, सुल्फान ! तुम्हें अपना घर याद है ? याद है, तुम्हारी अम्मी कहाँ काम करती थी ! सुल्फान ! तुम्हे अपने भाई –बहिन के नाम याद हैं, वो नानी याद हैं, जहाँ तुम सब भाई—बहिन उनके यहाँ पढ़ते थे, शाम को और भी बहुत से बच्चे आते थे, कुछ याद है ? मिशन चैरिटी से वहाँ कभी–कभी और बच्चे भी आते थे, कुछ याद है? लॉन में क्रिकेट खेलते थे कुछ याद आ रहा है ...वो अवाक ! हैरान ! था ! ये महिला जो तुम्हारे सामने खडी है इसे ध्यान से देखो ! पहचान सकते हो ! कोशिश करो ....कुछ याद करो ....’फरज़ाना ! गौर से देखो .... देखो...पास से देखो ...तुम्हारी तो नजर भी कमजोर हो गई है....देखती रहो ...कुछ याद करो ......ये सुल्फान है ! ये इन मैडम का बच्चा है ....सुल्फान ...सुल्फान ....सुल्फान ! “ .....नहीं ....................मैडम ये सुल्फान नहीं है, ये इन मैडम का बच्चा नहीं है, ये ही हमारा गुफ्रान है .....गुफ्रान ....गुफ्रान...गुफ्रान.......कहाँ चला गया था, वो गुफ्रान को ऊपर से नीचे तक टटोल रही थी, इतना बढ़ा हो गया ! अरे, कहाँ चला गया था ? किसी ने ढूँढा भी नहीं, कि डर कर भागा है, रात होने तक आ ही जाएगाI उस दिन से आज तक ढूँढ़–ढूँढ़ कर हम सब कितने परेशान रहे I गुफ्रान ....मेरा गुफ्रान मिल गयाI
सुल्फान अब छोटे बच्चे की तरह दहाड़े मार–मार कर रोने लगा, अम्मी से चिपटकर बदहवाश थाI अम्मी हम तुम्हें नहीं ढूँढ़ पाए और तुमने हमें ढूँढ़ लियाI हम तुम सबको याद करके कितना रोये हैं .अब्बा ने तुमको मारा तो नही था? हमें बहुत डर लग रहा था, अब्बा हमें मारने क्यों नहीं दौड़े? हमें पकड़कर बैल्ट से पिटायी क्यों नहीं की ? उस बैल्ट की पिटाई से बचने के लिए मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गयाI
संजना बोली ! तुम्हें अब याद आया, तुम सुल्फान नहीं गुफ्रान हो ! मैं संजना हूँ ! अब याद आया हम नानी के घर जब आते थे तो क्रिकेट खेलते थे ! नर्सरी गीत गाते थे ,कबीर के पद गाते थेI गुफ्रान भौंचक्का सा कभी नानी को, कभी दमयंतीजी को और कभी संजना को देख रहा थाI नानी और दमयन्ती जी दोनों हैरान थींI नानी को विश्वास नहीं हो रहा था की वो छोटी सी संजना इतनी सतर्क–सजग–संवेदनशील अधिकारी बन गई है, दमयंती जी हतप्रभ थीं संजना की पैनी नजर और ज़ज्बे पर I
संजना बोली, उस दिन जब हमने सुल्फान को देखा, सुनते रहे, उसमें कहीं उस गुफ्रान की शक्ल दिख रही थी, वह छोटा सा गुफ्रान याद आ रहा था, हम अपने घर मिशन चैरिटी लखनऊ गए I सिस्टर जयसिन्था के साथ नानी से मिलने गएI आधी कहानी गुफ्रान ने बतायी और उस अधूरी कहानी को नानी ने पूरा कियाI न मैं गुफ्रान को कोई आश्वासन देना चाह रही थी, न फरज़ाना को मैं तो सिर्फ अपने को आश्वस्त कर रही थी, और ईश्वर से मना रही थी की मेरा शक सही निकलेI मिशन चैरिटी से हम बच्चे जब नानी के घर जाते थे तो सच में लगता था की नानी के घर आये हैंI हम तो नानी का दूसरा नाम भी नहीं जानते, वहाँ दिन बिताते, फरज़ाना दीदी को तो बस खिलाने में मजा आता थाI जहाँ तक हमें याद है, ये फरज़ाना दीदी के सारे बच्चे यहाँ नानी के यहाँ ही खेलते मिलते थेI नानी ढेर खाना बनवा कर रखवातीं I
आज मेरी कहानी पूरी हो गईI जिस दिन मैं अपने घर वालों से अलग हुई थी, उस दिन किसी ने हमें पहुँचा पाया होता, तो शायद मेरी कहानी कुछ और होती ! एकदम खिलखिलाकर मूड को बदलते हुए बोली , ‘ अरे तो फिर मुझे माँ स्वरूपा सिस्टर जयसिन्था और नानी कैसे मिलतीं I’
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