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आज़ाद दुःख

14 अगस्त 2016

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ऐ मेरे आज़ाद दुःख

बुद्धिभोजियों के देश में

अब तुझे क्या मिलेगा

लगता है इस  परिवेश से  

कोई ज़मींन सरक रही है

हवाओं का रुख किधर है

नहीं पता किसी दिशा का

अंत नहीं  काली निशा का

सपनों की  तरह टूट जाती है

सुबह होते कितनी जिंदगी

घर जैसा लगते हुए भी

अब यहाँ कोई घर नहीं है

थक गए अब  सारे रास्ते

बाकी कोई सफर नहीं है

कोल्हू के बैल की तरह घूमना

शक्तिपीठ का चरण चूमना

बनावटी सपनों के ढेर में

बाज़ारू सुख के अंधेर में

पथराई आँखे दुख रहीं हैं

सुख की दुकान सजाये

अब जिंदगी सूख रही है ।

अनिल कुमार शर्मा

१४/०८/२०१६





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आज़ाद दुःख

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ऐ मेरे आज़ाद दुःखबुद्धिभोजियों के देश मेंअब तुझे क्या मिलेगालगता है इस  परिवेश से  कोई ज़मींन सरक रही हैहवाओं का रुख किधर हैनहीं पता किसी दिशा काअंत नहीं  काली निशा कासपनों की  तरह टूट जाती हैसुबह होते कितनी जिंदगीघर जैसा लगते हुए भीअब यहाँ कोई घर नहीं हैथक गए अब  सारे रास्तेबाकी कोई सफर नहीं हैकोल्हू

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पोएट्री मनजमैंट

14 अगस्त 2016
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अब बासी शब्दकोशों परफफूंद की तरह उगे छन्दों मेंउलझी हुई कविता दाद खाज की तरह खुजलाती हैअंतःवस्त्र खोलकरगुप्तांग दिखाती हैनंगे समय का यह नंगा सच हैऊलजलूल सी पुरस्कार में गच हैइस बंद समय में कुछ खुलता हैउद्देश्यहीन भी उद्देश्य में झूलता हैफाटक के बाद दरवाजादरवाजे  के बाद खिड़कीखिड़की के पल्ले बंद हैंकल

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