मौजूद है विचारो मे ,मेरे
शब्दो का उमड़ना, घुमडना,
रोकू कैसे,इनके संग,,
सिमटना, और लिपटना,
यह कोई काल्पनिक नही,
वास्तविक एक उडान,है,।
पंख इनमे छोटे है पर साहित्यिक है ,
बलवान है,
एक तो पक्ष है व्यवहार का व्यापार का,इंतकाम का।
दूसरा ऐतिहासिक, है साहित्यिक संसार का,।
कल्पना भी वास्तविक सी,
जिसका न पैरोकार है।
सीख तो देने को है पर किसको,
यह दरकार है,।
गोदान, मुंशी की ,गोरा, इधर टैगोर की,,
ईदगाह व ममता, ,
व तौलिए किसी और की,
काबूलीवाला,काकी,पर्दा,
ठेले पर हिमालय ,चितचोर सा,,
अटूट है बंधन साहित्यिक ,
हर साहित्यकार के नूर का,।
लाऊ कैसी ,ऐसी कल्पना,
जिनमे जीवन भरपूर हो,
अब का जो लिखूगा,जो
तो, साहित्य होगा मजबूर तो।
जो कही इसको संजोऊ ,
होगा यह बेहूद सा,
मुझको तो है सींचना,
यौवन को एक महबूब सा,
कहानी पंचतंत्र की,
कालीदास के मेघदूत सा,
यही तो बल देगी,
युवान को,
प्रेम की मुस्कान की,
बहादुरी की,यश की,
नम्रता की,और पुराण की,
ऐसी साहित्यिक कल्पना का ,
करना चाहता,संचार हूं।
बह सके हर कोई जिसमे
उत्तम से ख्याल लू।
सशक्त हो,देशभक्त हो,
अर्थ हो अंत मस्त हो ।
संदेश जिसका ऐसे पसरे ,
जैसे कह रहा कोई संत हो,
ऐसा लिखना चाहता हू,
ले कर के कोई कल्पना,
गौरी जैसे लगा रही हो ,
पैरो पे अपने अल्पना,
भाव दिल के खिल जाए,
ऐसी हो साहित्यिक कल्पना,
पढोगे क्या संदीप की ऐसी ,
लिखी कोई कल्पना,
चाहोगे,क्या,नववधू की जैसी,
घौलती घूंघट से वो अल्हड़पना।
काश लेखनी से मेरी भी,
पैदा हो एक ऐसी संरचना,
जो इक मिसाल बने,
और कहे सब बेहतरीन कल्पना,
लाजवाब साहित्यिक कल्पना,
संदीप की साहित्यिक कल्पना।
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हो सकता है ऐसा क्या ?
संदीप शर्मा।
( देहरादून उत्तराखंड से )
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण