पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा कि किस तरह से सिद्धांत ने चालाकी से गीतांजलि को डॉक्टर तरंग से मिलाया। साथ में यह भी पढ़ा कि उनके बुझे मन बच्चों के लिए फिर से कैसे खिल गए।
अब आगे पढ़े...
सिद्धांत की शर्ट के भीतर झांकती हुई गीतांजलि की ललचाई नज़रों को सिद्धांत ने भांप लिया। उसे प्यार से देखते हुए उसने गाना गुनगुनाया, जो पुराना नहीं था, इसी उम्र का था। इसी ज़माने का बड़ा प्रसिद्ध गाना, "बोल दो न जरा
दिल में जो है छिपा
मैं किसी से... कहूंगा नहीं"
सुरीली आवाज का मालिक था सिद्धांत, गाने का शौक तो उसे कॉलेज के समय से ही था। लेकिन कभी स्टेज पर नहीं गया। गाया तो बस... अपने परिवार के लिए, अंजलि के लिए, बच्चों के लिए या अपने दोस्तों के लिए। सब कहते थे उसे गाना चाहिए, प्रोफेशनली।उसका जवाब होता, खुशियां अपनों के साथ बांटने के लिए होती है।
दोनों प्रेम की भावनाओं में इतने डूब गए कि अगर वह उनका कमरा होता तो कब का एक दूसरे को समेट लेते एक दूसरे के भीतर। लेकिन कभी-कभी प्रेम की सफलता लिपटने में ही नहीं, दूर से प्रेम करने में होती है।
क्या हुआ अगर वह सामाजिक मर्यादाओं की वजह से पास नहीं आ सकते थे... उस मीठी कशिश को महसूस तो कर ही सकते थे । सिद्धांत के गाने के साथ जब लहरों का संगीत मिल गया, तो उस किनारे का मौसम ही रुमानी हो गया।
उन दोनों को उस समय ना कोई खबर थी ना सुध कि आस-पास कौन बैठा है?
कौन उन्हें देख रहा है या नहीं... कुछ भी तो नहीं!!!
इसी को प्रेम कहते हैं, जब दो प्रेमी यह भूल जायें कि वे कहां है?
बहुत ही अच्छा अनुभव दिलों में लेकर वह वापस होटल पहुंचे।
होटल की पहली शाम की तरह वह शाम भी रोमांटिक होनी ही थी। सचमुच उनका हनीमून.... इतिहास बनने जा रहा था। यादगार बनने जा रहा था।
लेकिन क्या किसी और के लिए?? नहीं सिर्फ उन दोनों के खुद के लिए।
अंजली बोली, "याद है सिद्धांत वेदांत के नाम को लेकर, हम सब की कितनी मीठी लड़ाई हुई थी घर में।
अम्मा झगड़ रही थीं कि मुझे तो उसका नाम रंजन रखना है, और दोनों दीदीयाँ अपने अलग-अलग नाम रखना चाहती थी। बुआ होने का हक जो जता रही थीं।
उधर तुम... तुमने तो पहले ही सोच रखा था कि तुम्हारे जैसा नाम ही होगा बेटे का।
लेकिन मुझे पसंद नहीं आया था एक बार में।क्योंकि छोटे बच्चे का नाम नहीं लग रहा था वेदांत, किसी बड़े का नाम लग रहा था।
बाद में सुनते-सुनते मुझे भी पसंद आने लगा।
सिद्धार्थ को भी सब याद आ गया, बोला, "अम्मा वैसे ही डरती थी मेरे गुस्से से,पिताजी जैसा गुस्सा ही था मेरा। औरतों को भी ना सभी आदमियों को गुस्सा सहन करना पड़ता है। पहले उन्होंने अपने पति का किया और बाद में अपने बेटे का।"
अंजली झट बात काट कर बोली, "क्यों मैंने नहीं किया क्या तुम्हारा गुस्सा सहन?"
" हां, तुमने भी किया, लेकिन तुम्हारा तो मैंने भी किया ना!" अंजली को चिढ़ाता हुआ सिद्धांत बोला।
"मैं गुस्सा करती हूं? लड़ाकू हूं?" खीझ कर अंजली ने कहा।
"क्यों नहीं? तुम बहुत गुस्सा करती हो। ये तो मैं हूं, जो तुम्हें संभाल लेता हूं। नीलकंठ की तरह, तुम्हारे गुस्से के जहर को पीता लेता हूं।" सिद्धांत की कोरी बकवास शुरू हो गयी।अंजली मारे गुस्से के तमतमाने लगी। झूठ से उसे सख्त नफ़रत थी।
सिद्धांत को समझते देर नहीं लगी। बात संभालता हुआ बोला, "लेकिन अगर तुम ना होती, तो मेरी और अम्मा की कभी ना बनती।"
लेकिन अंजली का मूड खराब हो चुका था सिद्धांत के झूठे इल्ज़ाम से।
अब उसे अंजलि को मनाने में ज्यादा मेहनत तो करनी ही थी। खिसिया कर बोला,
"ओहो अंजली तुम भी क्या, इतने साल हो गए, तुम अब भी मेरी बकवास का बुरा मान जाती हो! इधर देखो मेरी आँखों में
(जबरदस्ती अंजली के चेहरे को अपनी ओर घुमाता हुआ)
कान पकड़कर सॉरी, तुम्हें पता है, झूठ बोल रहा हूं, मस्ती कर रहा हूं, चिढ़ा रहा हूं तुम्हें। पता है क्यों , क्योंकि जब तुम चिढ़ जाती हो तो बहुत खूबसूरत लगती हो।"
अपने गाल अंजलि के गाल से रगड़ता हुआ बोला, " अंजली तुम्हारे चेहरे पर जो यह अलग-अलग तरह के भाव आते हैं, इनको देखने के लिए तुम्हें परेशान करता हूं।"
"कभी इतना ज्यादा परेशान मत कर देना कि ...." कुछ कहना ही वाली थी अंजलि कि सिद्धांत की दुखती रग हरी हो गयी।
सिद्धांत के माथे पर गुस्से से बल पड़ गए। चेहरा बदल गया उसका। आंखों में पानी आ गया।
अंजली समझ नहीं पाई, एकाएक सिद्धांत को क्या हुआ!!
" ऐसे नहीं बोलोगी तुम.. बस यह आखरी बार है जो तुमने इस तरीके से बोला है!!" सिद्धान्त ने बोलते हुए अंजली के बाल तेज हाथों से पकड़ लिये।
(जब होश में आया तो उसने उसके बालों को छोड़ा) मौके की नज़ाकत को समझकर अंजली ने कहा,
"अरे यार मजाक कर रही थी, तुम कर लो तो कोई बात नहीं, मैं करूँ तो सहन नहीं होता तुम्हें!!"
"नहीं मजाक में भी नहीं....तुम ऐसा मज़ाक भी नहीं करोगी कभी।" अंजली को कसकर गले से लगाकर पागलों की तरह प्यार करने लगा।
सिद्धांत जाने क्यों आंसुओं से भीग गया!
जब वह शांत हुए तो अंजली सिद्धान्त के आंसुओं को पोंछती हुई बोली, "तुम हर बात को इतना सीरियसली कब से लेने लग गए? कुछ दिनों से देख रही हूं, खासकर जब से मेरी तबीयत खराब हुई है, तुम बहुत गंभीर हो गए हो।
कोई बात है क्या?
जो तुम मुझसे छुपा रहे हो?"
" अच्छा कोई बात होगी, तो ही मैं तुम्हारे ऊपर नाराज हो सकता हूँ... नहीं तो नहीं?" नज़रे चुराता हुआ वह बोला।
अंजलि को पति से बहस करना नहीं आता था। वह कभी किसी से विवाद नहीं करती थी। दूसरों की भावनाएं समझ के, वह अपने शब्दों को अपने मुंह में ही चबाना जानती थी। उसे पता था कि कुछ देर बाद उबाल शांत होता ही है, और जब शांत होगा तो... या तो मैं समझ जाऊंगी या फिर वह समझ जाएगा। सिद्धांत की हथेली में हथेली डालकर उसको बेड पर बैठाती हुई बोली, "क्या सिद्धांत!! तुम मुझसे नाराज मत हुआ करो, ठीक है सॉरी, वह कान पकड़ती हुई बोली"
ऐसा ही गुस्सा किया था तुमने उस दिन अम्मा पर।
और ....अपनी बात मनवा ली थी।
बेटे का नाम वेदांत ही रखा था।
अंजलि ने बात को मोड़ दे दिया वहीं पर ले गई जहां पर छोड़ी थी।
सिद्धांत भी छोटे बच्चे की तरह उसी के साथ पिछली यादों में चला गया।
अम्मा बोल रही थी, "मैं दादी हूं मेरा हक बनता है, मैं घर की बड़ी हूं, मैं ही रखूंगी अपने पोते का नाम।"
मैंने कहा "तुम क्यों रखोगी? तुमने मेरा नाम नहीं रखा था क्या?
बहनों का नहीं रखा था क्या? सभी के नाम तुम ही रक्खोगी?
तुम तो बड़ी रहोगी ही, तो फिर हमारी कोई जिंदगी नहीं है? हमारी कोई इच्छा ही नहीं है? हम जो चाहेंगे वह नहीं होगा क्या कभी? कितनी देर तक बकवास करता रहा था मैं! पता नहीं क्या क्या कह दिया था,
एक लंबा चौड़ा मोनोलॉग बोल दिया था मैंने! दोनों बहनें और अम्मा सबका मुंह खुला रह गया था।"
" सात महीने का सिद्धांत कितना कमजोर था.. जब पैदा हुआ था... हम सब की मेहनत से कितनी जल्दी मोटा ताजा हो गया।
एक साल का था जब वह दो साल का लगता था। अम्मा हमेशा काला टीका लगा कर रखती थी उसको, और वह पैरों में नजरिया भी तो बांधी थी।
मैंने कितना समझाया था मां को, "यह नजरिया, जब गीली हो जाती हैं तो परेशान करती हैं बच्चे को, लेकिन यहां मेरी एक नहीं चली।"
उसने कहा, "चुप रह बस बहुत हो गया, उठाकर फेंक दूंगी तुझे इस घर से। बड़ा आया भाषण देने वाला। बाप क्या बन गया है तू तो सर पर ही चढ़ा जा रहा है, मेरा बाप थोड़ी ना बन गया है??"
जैसे ही उन्होंने यह कहा- सुधा और कांता जोर-जोर से हंस पड़ी।
" मैं भी हंस रही थी दरवाजे के पीछे, तुमने देखा नहीं" अंजली ने चुटकी ली।
पुरानी बातें करते हुए दोनों बिल्कुल जैसे दोस्तों की तरह लग रहे थे जो कितने दिनों बाद मिले हों और पुरानी बातें याद कर रहे हों।
हमेशा साथ रहने वाले लोगों की भी पुरानी यादें हो सकती है और वह अपनी यादों को इस तरीके से याद करके ऐसे खुश हो सकते हैं!!
आजकल की कंप्यूटर और मोबाइल की दुनिया यह सुख कहां से ले सकती हैं??
इस सुख का आनंद आजकल के बच्चे समझ ही नहीं सकते।
सिद्धांत और गीतांजलि अपने एक ही जीवन को दो-दो बार जी रहे थे।
ऐसा सब कर सकते हैं लेकिन यह वहीं हो सकता है, जहां पैसे कमाने की आपाधापी ना हो।
दिखावे की होड़ में इंसान खुद को जलाता ना रहे, घर में सुख हो.... शांति हो...
एक दूसरे पर विश्वास हो और सहनशक्ति हो।
कौन कहता है कि बच्चों के चले जाने पर बूढ़े अधूरे हो जाते हैं, यहां देखिए जैसे जीवन फिर से लौट आया हो।
अगर आप अपने जीवन को स्वर्ग बनाना जानते हैं तो घर में किसी के जाने से आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आपको बस हर परिस्थिति में हर समय अपने आप को खुश रखना आना चाहिए।
सिद्धांत और गीतांजलि की यही खूबी थी कि उन्होंने अपने बच्चों के बिछड़ने का ज्यादा दुख नहीं किया, बल्कि उनसे बिछड़ने को एक अवसर की तरह लेकर सुख में बदल दिया।
सिद्धांत जहां रिटायरमेंट के बाद भी ऑफिस जाने लगा, उधर गीतांजलि ने पड़ोस के बच्चे पढ़ाने शुरू कर दिए।
क्या अगले भाग में गीतांजली को अपनी बीमारी का पता चल जाएगा? कैसे बताएगा सिद्धांत उसे?