वे कौन से रावण फूंके है,
रावण के पुतले पूंछे है,
हैं कौन जो मुझको छूते है,
हैं कोई क्या राम सा पूंछे है।
क्या दिखता न इन्हे प्रतिबिंब अपना,
क्यूं बेशरम हुआ मानवता का सपना।।
कौन सा उत्सव है, जो मना ये रहे,
मेरे पुतले को, ताकत दिखला हैं रहे,
करके उससे भी ज्यादा ही गलत,
करतूते अपनी छिपा है रहे।।
हैरत मे जलता वो "दशानन, "
है जोर जोर से हंस हैं रहा,
इक गलती पर मुझको फूंक रहे,
क्यूं ध्यान अपना इन्हे जरा न रहा।
मैने तो अबला का था हरण किया,
ये तो बच्चियों को हर है रहा,
भयभीत था उसके रोष से मै ।
यह क्यू न किसी से डर हैं रहा।
कर हत्या किसी भी भ्रूण की यह,
कोई खौफ भी न ये कर हैं रहा।
बेधड़क कर अपराध को यह,
सिर अपना कलम कोई कर न रहा।
व्यापार देह का कर है रहा,
अस्मत से भी उनकी खेल रहा,
करके कलुषित अस्मत फिर उनकी,
मार अंग तक उनके बेच रहा ।
करके घोर अपराध भी वो लज्जाता नही,
और मुझको अपराधी बता है रहा।
मैं तो इनसे ही कमतर हूं,
फिर क्यूं यह मुझको जला है रहा।
ये कौन हैं जो मुझको फूंके हैं,
रावण के पुतले पूंछे हैं।
किस हक से जलाए ये मुझको,
यहां राम है कौन वो पूंछे हैं।
किया न किसी ने भी तप ही कोई,
बैठ ऊंचे सिहासन पर विराज जो रहे,
और कर विस्तार अविद्या का,
विद्वान बन आदर पा है रहे।
किसको जो पूंछे यहा कोई,
क्या कोई सीख ये सिखा है रहे,
मैं तो बहुत विद्वान सा था,
यह कौन सी विद्वता दिखा हैं रहे,
छल कपट तो मुझसे सीख लिया,
राम को सम्मानित न कयूं कर पा हैं रहे,
बुराई का मै हुआ अंत वहा,
यह अंत को क्यूं न है पा यह रहे।
ये क्यूं मुझको फिर फूंके हैं,
रह रह पुतले यह पूंछे हैं।
यहा कोई क्यूं न राम बना,
बनवास क्यू सबके छूटे है
बैठे धर वेष जो राम सा यह
रावण बन राम को लूटे हैं।।(2)
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मै भी हूं रावण का ही प्रतीक।
संदीप शर्मा।।