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वो शाम जरूर आएगी।

14 अगस्त 2022

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वंदे, वंदनीय , मां भारती ,,
वो कैसी थी शाम ,जो लाल थी,,
केसरी था रंग ,या स्याह सी,,
हैरान है वतन, पूछे मेरा ,
कयू ऐसी ,,आई वो सांझ  थी।।

जश्न की ही तो ,वो रात थी,,
फिर तडप सी क्यू  ,थी क्यू आग सी ,,
कितनी थी ,,वहशत खून मे ,,
बस स्वार्थ के ही,, जुनून मे।।

कितनो का था ,लहू बहा,,
जिस खातिर  था ,वो न कुछ हुआ,,
बलिदान  तो सब ,छूटे पीछे,,
यह रक्त कैसे ,,सफेद  हुआ।।

जो अभी अभी ,, तो भाई था,,
फिर क्या हुआ जो, ,बना कसाई था।
बन खिलौना,, औरो का रह गया,,
कितनो का था खून  ,जो बह गया।।

बस इक,, स्वार्थ  की ओट मे,,
इक अहम से ,दिल के  खोट मे,
फायदा कहा ,,किसी का हुआ ,,
पानी था जो, पैरो मे बहा।।

ये कौन  था ,जो मुल्क को तोड गया,,
क्या खुद  का स्वर न था,
जो कर  शोर गया  ,,
पी गया ,रक्त के घूंट को,,
ले गया ,,देश  को लूट वो।।

जो था इक ,एक वो तो ,बंट गया,,
भूमि का टुकडा,  ही घट गया,
क्या भूमि ही थी, जो पट गई ,,
या मां की थी, अस्मत,, जो लुट गई ।।

क्यू धीर न था, इस पीड़ मे,
मां के फटे वो चीर मे,
जो था चिथड़े चिथड़े हुआ,,
पूत मां का ही था ,,
जिसका रक्त बहा।।

ये समझा ही न ,,जाने क्यू कोई,,
वो सांझ  ,बेवजह रक्तिम  हुई,
न प्यास  बूझी,, किसी शख्स की,,
न मिली आजादी,, वो सशक्त  सी।।

बस मिला तो ,,टुकडा जमीं का था,,
जिसमे जिस्मानी रक्त न था,,
बस जीव थे,, हर धर्म के,,
इंसान  इनमे कही ,, बस्ता न था।।

यही वो रक्तिम ,, शाम थी,,
कुछ के लिए ,तो बडी ,,महान थी,,
थे खामोश , जो जान लुटा गए,,
न पूछ सके, पर वो जान गए,
वो कौन सी ,आजादी की, शाम  थी
जो इंसानियत के ही,, नाम न थी।।

आज सोचता हू मै खडा,,
क्या वो भारत था ,,जो दो हिस्से हुआ  ,,
या दो शख्स की,,  होड  थी,,
जो देश को गई ,, तोड थी।।

हैरान-परेशान  ,,सा हू मै,,
क्यू रहम न उनमे ,,था जरा ,,
देख कर ,लहू का एक ही रंग,,
क्यू हिन्दू मुस्लिम , बन वो बहा ।।

जो बहा सडको पे ,,वो खून  न था,,
वो तो सिरफिरे का ,,जुनून सा था ,,
जो प्यास अपनी ,बुझा गया,,
भाई भाई को वो ,, लड़ा गया।।

पर कमी कही, उसकी न थी,,
दौलत गई वो जो , उसकी न थी,,
पर कर वो बेऔलाद  गया ।।
उसका था  ही क्या ,,जो कुछ  गया।।

कैसी,, वो नग्न सी ,,शाम  थी,,
आजादी को कर ,,वो बदनाम गई ,,
है आ रही ,मुझे शरम ,,
जो पूछे कोई  ,,उस का भरम,,
तो कैसे दिखाऊ ,,वो पेट के ,,
फफोले जो ,,अभी तक न है मिटे।।

है आज भी ,,वही नफ़रत  भरी,,
दो आजाद  मुल्को के,, भेष मे ही,
क्यू सोची न ,,एक होने को कभी।।
इतनी स्वार्थ  मे,, है  क्यू  जडी,।।

चलो रखे उम्मीद कोई  शाम  तो,,
होगी जो देश  के नाम वो,,
जो लगाएगी ,,  भाई  को गले,,
खुश होगी इंसानियत  ,,
जब दो मुल्क  मिले।।

वो शाम  जरूर  आएगी,,
जो अलग हुए,,उन्हे मिलाएगी,,
वो शाम होगी इंसानियत की,,
जो हिन्दू- मुस्लिम  न कहलाएगी।।

क्या हो नही सकता कही,,
जो उमंग है दिल मे उठी ,,
" वो शाम जरूर ही आएगी  " ,,
जो हिन्दू  मुस्लिम  न कहलाएगी,,
[वो इंसानियत के होगी नाम,,
जो इंसां को प्यार  सिखाएगी।]--{3}
###@###
संदीप  शर्मा।
भारत से।।
जयश्रीकृष्ण।जयश्रीकृष्ण। जयश्रीकृष्ण।।


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रचनाएँ
चल आ कविता कहे ।
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जयश्रीकृष्ण मित्रगण सुधिजन व पाठकगण यह पुस्तक एक काव्य प्रस्तुति है,,जो जीवन के रंग के कई दस्तावेज। आपको दिखाएगी, आप रंगरेज के रंगो का आनंद लीजिएगा। आप को समर्पित। है आपके प्यार को। जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण
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