आती बहुत है घर की याद,,
पर जाऊ कैसे ,बनती न बात,,
करता हू जब इक हल ,,ऐसे ,,
आ जाती बात ,,और ,, जाने किधर से ?
इक घर सूना हुआ तब था,,
जब मै निकला,
लिए रोटी का डर था,।
रोटी के लालच को खूब,,
उस घर को क्यू गया मै भूल,,
भूला नही बस वक्त ही न था,,
इस रोटी ने,,न दिया समा था ,।
हो गए हम अपनी जडो से दूर,,
जैसे पेड एक खजूर,,
पंछिन को जो छाया,,नही,,
फल भी लगते है बहुत दूर।।
आती बहुत है याद उस घर की,,
कहती इक लडकी फिर, चहकी ,
पर तब वह उदास हो गई,
बात देखो न खास हो गई है।
जिसमे उसका बचपन था बीता,
ब्याह क्या हुआ ,वो तो फिर छूटा,,
इक तो जिम्मेवारी बहुत है,,
दूजे पीहर की खुशी का न जिक्र है,,
मायके मे ,इज्जत भी तो न मिलती,
करे भी क्या मजबूरी बहुत सी ,,
पहले तो चाॅव वो कर भी लेते थे,,
मुझको घर बुलवा भी लेते थे,,
जब से हुई भाई की शादी,,
बुलावा न आता ,,वैसे शाह जी,,
अब तो रस्मे ,निभाने लगे है,,
घर मे कम बुलाने लगे है।।
यही है अब दर्द का राज,,
घर की बहुत आती है याद।
अब सुनो इक सहमी सी बात,
जिससे रोएगे सबके जज्बात,
न भी ,तुम जो रोना चाहो,,
तो भी रो देगे वो ऑसू,,आज,,
स्वाद मे यह तो खारे होगे,,
फूटते लहू के धारे होगे,,
यह है कहानी वहशीपन की,,
मा बाप,, को न पूछे,,
औलाद आजकल की,,।
औलाद छुडाए सब छीन के पीछा,,
वृदाश्रम मे उनको घसीटा,,
सबकुछ लूट खसोट कर बेशर्म
पी गए वो ऑसू ,,सब शब्द ,,व गम,,
अब बिल्कुल खामोश हो रहे,,
लगे एक खटिया पे वो सो रहे,,
उनसे न पूछना तुम कुछ आज,,
कि आती है क्या घर की याद ?,,
देखना वो तो फफक पडेगे,,
पूछा तो वे भड़क उठेगे,,
क्या इसी दिन के लिए सरताज,,
मांगी थी उन्होने औलाद,,
खुद वो उसे ,धिक्कार नही सकते,,
घर की याद वो ला नही सकते,,
सूनी ऑखे खोज रही है,
अपना तो यहा कोई नही है,,
किसको बताए अपनी फरियाद,,
घर की बहुत आती है,याद,,।
घर की बहुत आती है।याद।।(2)
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मौलिक रचनाकार।
।।।। संदीप शर्मा ।।।।