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नदी किनारा।

21 जून 2022

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नदी किनारा,
प्यार हमारा,

चलते रहते,,
साथ, सागर तक,,


पर मिलते नही ,,
कभी भी किसी पथ पर ,,
यह है मेरा जीवन  सारा,,
हमसफर संग,,
नदी किनारा।
बेखबर नदी,की,
बहती धारा,
हमारा जीवन ,
नदी किनारा,,
उसकी अपनी निज की ख्वाहिशे,,
बेहतरीन  ,बेतरतीब, रिवायते,,
अच्छा है उस पार ही होना,
हमे तो है जीवन  को  नाहक है ढोना,,
सब मे वो एहसान  करे है,,
जाने क्यो वो साथ चले है,,
मजबूरी बंध की कहा जरे है,,
बेमन हो,किनारे खडे है,,
मुडा भी कई  बार उसकी तरफ मै,,
वो मुड गई  ,,दूसरी तरफ कह,
मेरा अपना भी तो जीवन है,,
जिसमे उसके अपने रंग है  ।
यहा है जीवन बेजार  बेचारा,
नीरस उस संग,,नदी किनारा,,
चहक तभी ,,जब मतलब होता,,
निज अपने  का जब काम कोई  होता,,
इधर के बंधन  भारी लगते,,
ऐसी चाहत,, जाने क्यू करते,,
कैसे किसने उसको पाला,,
फिर  क्यू न रख पाए,
यह सवाल उछाला,,
सामाजिक रीत की दे दुहाई,,
क्यू नदी को खारा कर डाला,,
तंज,है वो ,,दोजख,सा सारा,,
जीवन  उस संग,,नदी किनारा,
मिलन न होगा,,कभी हमारा,
क्योकि हम है नदी किनारा।।
मै और वो दो विलग है राही,,
मजबूरी उसकी देखी सारी,,
कभी बैठोगे तो बताऊंगा,,
यहा कहा मै सब लिख पाऊंगा,,
बस है मेरी यही मजबूरी,,
जाना तट तक ,मौत संग  की दूरी,,
न चाहता ,कभी बनू किनारा,,
जिसने चल मुझ संग, एहसान  कर डाला,,

टूट  जाए यह बंध हमारा,,
नही चाहिए  यह नदी किनारा,
बिन मतलब,का न बने सहारा,,
ऐसा नदी का मेरा किनारा,,
ऐसा नदी का मेरा किनारा। (2)
####
मौलिक रचनाकार
संदीप शर्मा।


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रचनाएँ
चल आ कविता कहे ।
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जयश्रीकृष्ण मित्रगण सुधिजन व पाठकगण यह पुस्तक एक काव्य प्रस्तुति है,,जो जीवन के रंग के कई दस्तावेज। आपको दिखाएगी, आप रंगरेज के रंगो का आनंद लीजिएगा। आप को समर्पित। है आपके प्यार को। जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण
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कशमकश। संदीप।

14 जून 2022
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कशमकश मे हू मै,, दिल की सुनवाई से,,। कहता है जो वो ,,वो कर नही पाता ,, जो करता हू वो,, बेचारा सह नही पाता,, होकर अनमना सा ,, नाराज रहता है संग मेरे,, जैसे लिए हो इक लड़की ने ,,

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दूसरा प्यार।

14 जून 2022
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पहला प्यार मेरे मात पिता को ,दूसरा फिर गुरूजन समाज को,तीसरा जिन्हे ईश्वर है कहते,हम सब रिश्ते इनसे समझते,,फिर लगती इक लंबी लडी है बहन ,भाई,पडोस, व दोस्ती बडी है।किसी के प्यार मे नही ह

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अशांत मन।

16 जून 2022
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किधर भटकता इधर उधर, है क्या तुम्हे ये जरा खबर,, यह कोई सौम्य सा बालक नही है ,, यह तो है अशांत मन,,का सफर,। इसकी तो तुम कुछ न पूछो,, यह बच्चा बिगडैल जो बूझो,,, कब किस की जिद्द यह

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सब्र।

18 जून 2022
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सब्र की इंतिहा,, तुम्हारी,, हम सी न होगी,, देखा है तुम्हे रोज रूठते हुए। #### संदीप शर्मा। जय श्रीकृष्ण

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छुट्टियो के दिनो का ,,मजा खूब होता था।

19 जून 2022
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दादा,दादी,नाना नानी,मामा,मामी,काका,काकी,जाने कितने,रिश्ते जीवित होते थे,,जब छुट्टियो के दिन होते थे,।एक मेला सा सजता था,घर घर लगता था,,जब पीढियो के अंतर का नेह प्यार, व संस्कारो का स्

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पिता।

19 जून 2022
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ऐसे एहसास, को,, जो हो बहुत ही खास हो ,, जिसमे हो खुशी बिखेरने का दम,, अंदर ज्वालामुखी का, चाहे हो रहा हो दहन, नम्र से ह्रदय वाला,, कठोर सा दिखने वाला,, जो टूटा हो अंदर से,, बिल्कुल

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घर की याद।

20 जून 2022
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आती बहुत है घर की याद,, पर जाऊ कैसे ,बनती न बात,, करता हू जब इक हल ,,ऐसे ,, आ जाती बात ,,और ,, जाने किधर से ? इक घर सूना हुआ तब था,, जब मै निकला, लिए रोटी का डर था,। रोटी के लालच को

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नदी किनारा।

21 जून 2022
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नदी किनारा, प्यार हमारा, चलते रहते,, साथ, सागर तक,, पर मिलते नही ,, कभी भी किसी पथ पर ,, यह है मेरा जीवन सारा,, हमसफर संग,, नदी किनारा। बेखबर नदी,की, बहती धारा, हमारा जीवन , नदी किनारा,, उसकी

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बिछुडन।

31 जुलाई 2022
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तिनका तिनका,,खुद ही जोड़कर,, घरौंदा एक सजाया जी।। हर इक बारी,चोगा चुग चुग,, कितनो को जिलाया जी।। पंख कभी मेरे थके नही थे,, हर बार हौसला पाया ही । दिल ही जाने जब " बिछड़न" देखी,,

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वो कमतर तो कभी न थी।

4 अगस्त 2022
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वो कमतर तो कभी न थी,, पर उसकी तारीफ कभी हुई न थी।। वैसे काम की थी वो बहुत , पर काम की उसकी कद्र हुई न थी।। किस्से कहानियों मे हर और उसकी चर्चा,, पूछे जरा कि कोई ,,घर कौन सा उसक

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वंदे, वंदनीय , मां भारती ,, वो कैसी थी शाम ,जो लाल थी,, केसरी था रंग ,या स्याह सी,, हैरान है वतन, पूछे मेरा , कयू ऐसी ,,आई वो सांझ थी।। जश्न की ही तो ,वो रात थी,, फिर तडप सी क्यू ,थी क्यू

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20 अगस्त 2022
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हो सके तो तुम ,, मेरी ख़ामोशी पढना, शोर बहुत करेगी , तो, तुम ऐसा करना। खोलना न लब अपने ,, बस उनको सिलना , पता न चले जो भीतर है , जब उससे हो मिलना।। हो सके तो तुम ,, इक बार मेरी ख़ामोशी पढन

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दशानन।

5 अक्टूबर 2022
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वे कौन से रावण फूंके है, रावण के पुतले पूंछे है, हैं कौन जो मुझको छूते है, हैं कोई क्या राम सा पूंछे है। क्या दिखता न इन्हे प्रतिबिंब अपना, क्यूं बेशरम हुआ मानवता का सपना।। कौन सा उत

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