तिनका तिनका,,खुद ही जोड़कर,,
घरौंदा एक सजाया जी।।
हर इक बारी,चोगा चुग चुग,,
कितनो को जिलाया जी।।
पंख कभी मेरे थके नही थे,,
हर बार हौसला पाया ही ।
दिल ही जाने जब " बिछड़न" देखी,,
सब अपने जब निज जन की,,
पागल हुआ,,टूटा दिल भी,,
मै कैसे बौखलाया जी।।
अब तो यह सब रोज होता है,,
कैसा मै भरमाया जी।।
क्यू देता है ,, दर्द बेदर्दी,,
क्या जनक नही जन जाया जी ।।
छीन क्यू लेता सुकून सभी का,,
दोषी वही ,,भरमाया जी ।।
खुद बच निकलता,,साफ साफ ही,,
कह तेरे कर्म ,कमाया यही ।।
जबकि सब करनी है उसकी ,
मै तो बंधा बंधाया ही ।।
न कुछ है कोई हाथ मे मेरे,,
फिर कैसा कसूर करवाया जी।।
कर न सकता कुछ भी कभी मै,,
दोषी कैसे मै हो पाया जी ।।(3)
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संदीप शर्मा।
देहरादून से।
जयश्रीकृष्ण