वो कमतर तो कभी न थी,,
पर उसकी तारीफ कभी हुई न थी।।
वैसे काम की थी वो बहुत ,
पर काम की उसकी कद्र हुई न थी।।
किस्से कहानियों मे हर और उसकी चर्चा,,
पूछे जरा कि कोई ,,घर कौन सा उसका।।
जन्मी कही और ,,
और घर किसी के और धकेली गई,
पूछी न मर्जी उसकी कही ,
बस ऐसी ही सरेराह वो चली ।।
यही बात उसकी ,सखी ,,
मुझको बहुत है खली।।
क्या बनाऊ,पूछ कर भी,
स्वाद न अपना लिया,,
जो बचा बस खा लिया ,,
यह वजूद उसका रहा।।
कहने को वो एक थी ,,
अपने पापा की प्यारी परी,,
पर न जाने वो कौन सी घडी,,
जब उसकी किस्मत थी गढी।।
बात हो कोई महत्व की भी ,
जरा न उससे पूछता कोई ,,
सारा दिन बस ,झुलस कर फिर ,,
रात को उसका बदन नोचता कोई ।।
यही उसकी अमर गाथा ,
सब जाति की एक सी ही व्यथा।।
खाली स्थान रख रहा हू।
भरना शर्मा या कि लता।।
बस नाम भरना शेष है,
नही अन्य कोई भी कथा।।
फर्क नही अंजू मंजू,
शीतल छाया या अनुपमा।।
कोई भी नाम भरो कथा सबकी,,
रही एक सी ही यही ।।
ताज्जुब मुझे यू नही ,
कि कहानी सबकी एक है।।
अचरज है तो बस यही,,
कि दुश्मन उसका विशेष है।।
जाति की ही शत्रु जाति,,
क्या कहू कि कथा शेष है।।
सब ही समझ गए है देखो ,,
शब्द कहा निस्तेज है।।
एक पीढी दूसरी, को अपनाती है नही,,
शायद यह कारण है कि ,,
व्यथा यह जाती नही।।
जो गर फिर बात कही ,,
समझ आ जाए तुम्हे कही,,
तो बताना मुझको भी ,,
मै लिखता हू सब सही।।
मेरी बेटी बेटी है ,,
पर उसकी बेटी मेरी नही।
वो है बहू जो छोड आई ,
घर अपना उसका है वही।।
यही भेद ये जाति करती,,
सजा पाती इस बात की यही।।
ठिठक कर यू सिसकना,,
देखा न मुझसे कुछ गया ,
पर यह बात कैसे समझा बहन की
जबकि पत्नि की न समझ सका,,
इसके पीछे भी बात वही ,
जो मैने पहले कही ,,
अपनी ही जाति है शत्रु इसकी,
जो करती भेद अपने से वही ।।(3)
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संदीप शर्मा।देहरादून से।।
नोट:-कुछ समझ सको तो बताना ,,
क्या लिखा है ,,
क्या तुमने जाना।।
जो आए समझ कही तो शीर्षक तुम ही बताना।।
जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण।