विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सी.एस.डी.एस.) द्वारा प्रायोजित लोक-चिन्तन ग्रन्थमाला की इस पहली कड़ी में समझने की कोशिश की गयी है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से ले कर एक आधुनिक राष्ट्र-निर्माण की विराट परियोजना चलाने के दौरान दलित समस्या पूरी तरह क्यों नहीं दूर हुई । दलित आन्दोलनों के स्रोत्रों की खोज से शुरू हुई यह बौद्धिक यात्रा इतिहास, संस्कृति, अस्मिता, चेतना, साहित्य, अवमानना के राजनीतिक सिद्धान्त और ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्रों से गुजरने के बाद व्यावहारिक राजनीति में होने वाली दलीय होड़ की जाँच-पड़ताल करती है ताकि भारतीय गणतंत्र के संविधान प्रदत्त सार्विक मताधिकार की समाज परिवर्तनकारी क्षमताओं की असली थाह ली जा सके । यह दलित-मीमांसा उन ताजा बहसों पर गहरी नजर डालती है जो अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँची हैं लेकिन जिनकी परिणतियों में दलित प्रश्न को आमूल-चूल बदल डालने की क्षमता है । ये बहसें दलित प्रश्न के भूमंडलीकरण से तो जुड़ी हुई हैं ही, साथ ही भूमंडलीकरण के साथ दलितों के सम्बन्ध की प्रकृति को खोजने की कोशिश भी करती हैं।/ Read more