समय धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था, और चंद्रिका बेसब्री से अमावस्या की रात का इंतजार कर रही थी। उसने कई दिनों से खुद को इस रात के लिए तैयार कर रखा था। उसकी आँखों में एक अनोखी चमक थी—एक अजीब सी बेचैनी, जिसमें रहस्य और अंधकार दोनों का मेल था।
सूरजभान अब तक उसकी गतिविधियों पर पैनी नज़र रखे हुए था। वह जानता था कि चंद्रिका के मन में कुछ ऐसा चल रहा है जो वह जानबूझकर उससे छिपा रही है।
अमावस्या से पहले की रातों में, चंद्रिका ने धीरे-धीरे अपने इरादों को अमल में लाना शुरू कर दिया। हवेली के उस कमरे में, जहाँ वह रहस्यमयी किताब रखी हुई थी, उसने विशेष तैयारियाँ कीं। उसके चारों ओर लाल धागों और छोटे-छोटे दीपकों की व्यवस्था थी। कमरे की दीवारों पर चंद्रिका ने किताब में लिखे हुए पुराने मंत्र अंकित कर दिए थे। किताब ठीक बीच में रखी थी, और उसके चारों ओर एक अजीब सी ऊर्जा का आभास होता था। चंद्रिका इस बलि को "महाबलि" कह रही थी।
सूरजभान ने पिछले कुछ दिनों में चंद्रिका के व्यवहार में बदलाव महसूस किया था। उसने देखा कि वह रातों में अधिकतर जागी रहती थी ,उसने एक रात चंद्रिका से पूछा—
सूरजभान: "चंद्रिका, तुम इन दिनों इतनी परेशान क्यों दिखती हो?
चंद्रिका ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया—
चंद्रिका: "कुछ नहीं, सूरजभान। मैं तो बस हमारे पुत्र की सुरक्षा के लिए प्रार्थना कर रही हूँ। माँ बनने के बाद जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं, यही सब सोचकर रातों में नींद नहीं आती।"
सूरजभान ने उसकी बातों पर यकीन कर लिया।
अंततः अमावस्या की रात आ गई वह एक ठंडी और सन्नाटे से भरी रात थी। हवेली के हर कोने में अंधेरा गहरा चुका था। मोमबत्तियों की मंद रोशनी कमरे में हल्की-सी चमक दे रही थी। चंद्रिका रसोई में खड़ी अपने हाथों से खाना बना रही थी। उसकी चाल धीमी थी, लेकिन उसके चेहरे पर एक अजीब-सी बेचैनी थी। उसका हर कदम जैसे किसी योजना की ओर बढ़ रहा था।
सूरजभान अपने कमरे से बाहर आया और धीरे-धीरे रसोई की ओर बढ़ा। उसने चंद्रिका को देखा, जो कुछ मसालों को कटोरी में डाल रही थी। तभी सूरजभान की नज़र उस पर पड़ी जब उसने खाने में कुछ मिलाया। वह सतर्क हो गया। उसकी आंखों में संशय की लकीरें उभर आईं, लेकिन उसने खुद को संभालते हुए किसी तरह शांत रखा।
वह रसोई में दाखिल हुआ।
"चंद्रिका," सूरजभान ने ठंडे स्वर में कहा, "खाना तैयार हो गया?"
चंद्रिका चौंकी, लेकिन खुद को संभालते हुए मुस्कुराई। "हां, सब तैयार है। आप बैठिए, मैं थाली लाती हूं।"
सूरजभान ने उसे ध्यान से देखा। उसकी आवाज में वही पुरानी मिठास थी, लेकिन उसकी आंखों में कुछ और कहानी बयां हो रही थी।
थोड़ी देर बाद चंद्रिका खाने की थाली लेकर आई और सूरजभान के सामने रख दी।
"लीजिए, खाना खाइए। मैंने आज आपके लिए खास बनाया है," उसने मुस्कुराते हुए कहा।
सूरजभान ने थाली को ध्यान से देखा। उसकी नजरें खाने पर टिकी थीं, लेकिन मन में कई सवाल चल रहे थे।
"बहुत मेहनत की होगी तुमने," सूरजभान ने कहा, और फिर बहाने से जोड़ दिया, "लेकिन मुझे लगता है कि बच्चे को दूध पिलाने का वक्त हो गया है। उसे देखा है तुमने?"
चंद्रिका थोड़ा असमंजस में आई, लेकिन फिर खुद को संभालते हुए बोली, "हां, सही कह रहे हो। मैं उसे देख आती हूं। तब तक आप खाना खा लीजिए।"
सूरजभान ने सिर हिलाया, और जैसे ही चंद्रिका कमरे से बाहर गई, उसने झट से थाली उठाई और खाना खिड़की से बाहर फेंक दिया। फिर थाली को उसी जगह पर रख दिया और वैसा ही बैठ गया जैसे कुछ हुआ ही न हो।
कुछ देर बाद चंद्रिका वापस आई। उसने देखा कि थाली खाली थी।
"आपने खा लिया?" उसने संतोष भरे स्वर में पूछा।
"हां, खा लिया," सूरजभान ने जम्हाई लेते हुए कहा, "अब नींद आ रही है। लगता है खाना बहुत अच्छा था।"
चंद्रिका के चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान आई। "अगर ऐसा ही है तो मैं भी आराम कर लेती हूं।"
उसके बाद दोनों कमरे में सोने चले गए, रात के सन्नाटे में चंद्रिका धीरे से उठी। उसने सूरजभान की ओर देखा। वह आंखें बंद किए पड़ा था, जैसे गहरी नींद में हो। चंद्रिका ने धीरे-से बच्चे को गोद में उठाया और कमरे से बाहर निकल गई।
सूरजभान ने आंखें खोल दीं। वह चुपचाप उठा और कमरे की खिड़की से झांक कर देखने लगा। उसने देखा कि चंद्रिका आंगन में जाकर बच्चे को दूध पिला रही थी। उसकी चाल और हावभाव से लग रहा था कि वह किसी योजना के तहत काम कर रही है।
सूरजभान को लगा कि कुछ गड़बड़ है। वह सतर्क हो गया। उसने मन ही मन तय कर लिया कि आज वह इस रहस्य का पर्दाफाश करेगा।
चंद्रिका बच्चे को गोद में लिए धीरे-धीरे हवेली के उस कमरे की ओर बढ़ने लगी, जिसे सूरजभान ने सख्त मना किया था। सूरजभान ने फौरन बिस्तर छोड़ा और बाहर निकल गया।
सूरजभान ने अपने विश्वासपात्र सेवक रामदीन को जगाया।
"रामदीन," सूरजभान ने उसे हिलाते हुए कहा, "जल्दी उठो। मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।"
रामदीन घबराते हुए उठा। "क्या हुआ मालिक?"
"चुपचाप मेरे साथ चलो। लेकिन ध्यान रहे, आवाज न हो।"
रामदीन ने कुछ न पूछते हुए सिर हिलाया। दोनों चुपचाप उस कमरे की ओर बढ़े, जहां से चंद्रिका के कदमों की आवाज आ रही थी।
सूरजभान ने धीरे-से दरवाजे की ओर इशारा किया। "यहां रहो। मैं अंदर की हर बात सुनना चाहता हूं। अगर कुछ अजीब लगे, तो मुझे बताना।"
रामदीन ने सिर हिलाया। सूरजभान की आंखों में आग थी। वह जानता था कि चंद्रिका कुछ बड़ा छुपा रही है। वह अब सच जानने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था।
सूरजभान और रामदीन धीरे-धीरे उस कमरे की ओर बढ़ रहे थे, जहां से मंत्रोच्चार की आवाज़ें आ रही थीं। मंत्रों की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि पूरे वातावरण में गूंज रही थी।
सूरजभान ने अपने कदम धीमे किए और रामदीन को इशारा किया कि वह दरवाजे के पीछे खड़ा हो जाए। दोनों दरवाजे के पीछे छिपकर अंदर झांकने लगे। सूरजभान का दिल तेजी से धड़कने लगा।
कमरे का दृश्य किसी डरावने सपने जैसा था। चारों तरफ धुआं-धुआं फैला हुआ था। एक कोने में एक मोटी, काली किताब जमीन पर पड़ी थी, जिसके पन्ने अपने-आप पलट रहे थे। किताब के आसपास जले हुए दीपक और लाल रंग बिखरा हुआ था।
कमरे के केंद्र में चंद्रिका खड़ी थी। उसकी आँखें बंद थीं, और वह ज़ोर-ज़ोर से मंत्र पढ़ रही थी। उसके हाथ में एक धारदार चाकू था, जो मोमबत्ती की रोशनी में चमक रहा था। उसकी आवाज़ में एक अजीब-सा कंपन था, मानो वह किसी आत्मा को बुला रही हो।
चंद्रिका के सामने ज़मीन पर एक तांत्रिक चक्र बना हुआ था, जो लाल और काले रंगों से खींचा गया था। चक्र के बीच में उनका बच्चा लेटा हुआ था। मासूम बच्चा रो रहा था, लेकिन चंद्रिका को उसकी परवाह नहीं थी।
सूरजभान की आंखें गुस्से और भय से चौड़ी हो गईं। उसने पहली बार चंद्रिका को इस रूप में देखा था। वह अब किसी इंसान की तरह नहीं, बल्कि एक चुड़ैल की तरह लग रही थी।
जैसे ही चंद्रिका ने चाकू उठाया और बच्चे की ओर बढ़ाया, सूरजभान से रहा नहीं गया। उसने दरवाजा धक्का देकर खोला और ज़ोर से चिल्लाया, "रुक जाओ, चंद्रिका!"
चंद्रिका ने पीछे मुड़कर देखा। उसकी लाल आँखें क्रोध से जल रही थीं। उसका चेहरा विकृत हो चुका था, और उसकी मुस्कान खतरनाक थी।
"तुम यहाँ क्या कर रहे हो, सूरजभान?" उसने गुस्से में चिल्लाते हुए कहा।
"तुमने सोचा कि मैं तुम्हारी ये घिनौनी हरकतें नहीं देखूंगा?" सूरजभान ने गुस्से में कहा। "क्या तुम मेरी संतान की बलि देने जा रही हो?"
चंद्रिका हंसी, लेकिन उसकी हंसी में डरावना पागलपन झलक रहा था।
"तुम नहीं समझोगे, सूरजभान," उसने कहा। "यह बलिदान ज़रूरी है। इस बच्चे की बलि से मैं वो शक्तियां प्राप्त कर लूंगी, जिनके बारे में तुमने कभी सोचा भी नहीं होगा।"
सूरजभान ने क्रोध में आकर उसके हाथ से चाकू छीनने की कोशिश की। चंद्रिका ने चाकू को कसकर पकड़े रखा, लेकिन तभी सूरजभान ने एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा। चंद्रिका का चेहरा एक तरफ झुक गया, और चाकू उसके हाथ से गिर गया।
"रामदीन! बच्चे को उठा लो!" सूरजभान ने चिल्लाकर कहा।
रामदीन तुरंत आगे बढ़ा और बच्चे को तांत्रिक चक्र से उठाकर अपनी गोद में ले लिया। बच्चा रो रहा था, लेकिन अब वह सुरक्षित था।
कमरे का माहौल और डरावना हो गया, जैसे ही चंद्रिका ने बच्चे को अपनी आँखों से ओझल होते देखा, उसकी चीख गूंज उठी। कमरे की मोमबत्तियां झपकने लगीं। तेज़ हवाएं चलने लगीं, और धुआं चारों तरफ फैल गया। चंद्रिका की आंखें और भी लाल हो गईं, मानो उनमें आग जल रही हो।
"तुमने मेरी साधना को तोड़ा है, सूरजभान!" उसने गुस्से में चिल्लाते हुए कहा। "तुम नहीं जानते कि तुमने कितनी बड़ी गलती की है। अब तुम मेरे क्रोध से नहीं बच पाओगे।"
सूरजभान ने चंद्रिका की आंखों में देखा। उसमें अब कोई प्यार नहीं था, सिर्फ क्रोध और पागलपन था।
"तुम इंसान हो भी या नहीं, चंद्रिका?" सूरजभान ने गुस्से में कहा। "तुमने अपनी आत्मा बेच दी है इन शक्तियों के लिए।"
चंद्रिका ने एक जलता हुआ दीपक सूरजभान की ओर फेंका। सूरजभान ने झुककर खुद को बचा लिया। कमरे में आग की लपटें उठने लगीं। उसने रामदीन को इशारा किया, "जल्दी यहां से निकलो और बच्चे को सुरक्षित जगह ले जाओ।"
रामदीन तुरंत बच्चे को लेकर कमरे से बाहर भाग गया। लेकिन सूरजभान वहीं खड़ा रहा। वह चंद्रिका को इस पागलपन से रोकना चाहता था।
"चंद्रिका, तुम्हारे इस पागलपन का अंत यहीं होगा," सूरजभान ने दृढ़ स्वर में कहा।
चंद्रिका ने गुस्से में चिल्लाते हुए कहा, "तुम मुझे नहीं रोक सकते, सूरजभान। मैंने अपनी शक्ति हासिल करने के लिए सब कुछ किया है। और अब तुम मुझे रोकने की कोशिश कर रहे हो?"
सूरजभान ने एक कदम आगे बढ़ाया। "तुमने जिस रास्ते पर चलने का फैसला किया है, वो रास्ता सिर्फ विनाश की ओर जाता है। लेकिन मैं तुम्हें और इस परिवार को इस अंधकार से बचाने के लिए किसी भी हद तक जाऊंगा।"
कमरे में बढ़ती आग और चंद्रिका के गुस्से ने माहौल को और डरावना बना दिया। सूरजभान जानता था कि उसे जल्द ही कोई कदम उठाना होगा, वरना सब कुछ खत्म हो जाएगा।
कमरे में मचे कोहराम ने पूरे माहौल को और भयानक बना दिया था। घने बादल छाने लगे, हवाएं तेज़ी से चलने लगीं, और ऐसा लग रहा था मानो पूरी हवेली ही उस तांत्रिक चक्र के प्रभाव में आ गई हो। कमरे का धुआं और घना हो चुका था, और दीवारें गूंजती आवाज़ों से थर्रा रही थीं।
सूरजभान की आंखें गुस्से और बेबसी से जल रही थीं। उसने अपनी पूरी ताकत से चिल्लाते हुए कहा, "चंद्रिका, ये सब क्या कर रही हो तुम? तुम्हारी इच्छा तो पूरी हो चुकी थी! तुम्हें संतान मिल गई थी! फिर ये सब क्यों? अपने ही बेटे की बलि क्यों देना चाहती हो? बोलो, आखिर सच क्या है?"
चंद्रिका के चेहरे पर एक भयानक मुस्कान उभरी। उसने अपनी लाल, क्रोधित आंखों से सूरजभान को घूरा और जोर-जोर से हंसने लगी। उसकी हंसी कमरे में गूंज उठी, और ऐसा लगा जैसे दीवारें भी इस पागलपन से डर गई हों।
"तुम सच जानना चाहते हो, सूरजभान?" चंद्रिका ने गहरे स्वर में कहा। "तो सुनो। मेरी इच्छा कभी संतान प्राप्ति की नहीं थी। मैं जो कर रही हूं, वो किसी और के लिए नहीं, सिर्फ अपने लिए कर रही हूं।"
सूरजभान हक्का-बक्का खड़ा रह गया। उसकी आवाज़ कांपते हुए निकली, "क्या...क्या मतलब है तुम्हारा? तुमने मुझसे कहा था कि ये सब संतान के लिए है। तुमने कसम खाई थी! तुमने मुझसे झूठ बोला?"
चंद्रिका ने क्रूर हंसी के साथ जवाब दिया, "झूठ? हां, झूठ। लेकिन मैं जो चाहती हूं, उसके लिए ये झूठ ज़रूरी था। मैंने किताब में ‘अमर्ता’ लिखी थी, सूरजभान। मैंने लिखा था कि मेरा पुत्र मेरी अमरता का कारण बने।"
सूरजभान के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसकी आंखों में अविश्वास और गुस्सा साफ झलक रहा था। वह कुछ पल के लिए चुप खड़ा रहा, फिर फूट पड़ा, "अमरता? तुम अमर होने के लिए इतना गिर जाओगी? अपने ही बेटे की बलि देने की सोचोगी? और तुमने मुझसे झूठ बोला कि ये सब हमारी संतान के लिए है?"
चंद्रिका की आंखें और लाल हो गईं। उसने ठंडे स्वर में कहा, "हां, मैंने झूठ बोला। लेकिन क्या तुमने कभी सोचा कि मेरी इच्छाएं क्या थीं? मैं सिर्फ एक आम और कमजोर इंसान बनकर नहीं रहना चाहती थी। मैं अमर बनना चाहती थी, उस शक्ति को प्राप्त करना चाहती थी, जो मुझे इस दुनिया से ऊपर उठा दे। और इसके लिए मुझे अपने पुत्र की बलि देनी पड़े, तो ये कीमत कम है।"
सूरजभान ने अपना माथा पकड़ लिया। उसके भीतर भावनाओं का बवंडर उठ खड़ा हुआ था। उसे याद आने लगा कि कैसे उसने चंद्रिका के हर आदेश को मान लिया था, कैसे उसने उसके कहने पर मासूम बच्चों की बलि तक दे दी थी।
"मैं कितना मूर्ख था..." सूरजभान बुदबुदाया। "तुम्हारी झूठी बातों पर विश्वास करता रहा। तुम्हारे प्यार के लिए मैंने अपनी आत्मा तक बेच दी। लेकिन तुमने तो मुझे और हमारे बच्चे को भी अपने स्वार्थ का साधन बना लिया।"
चंद्रिका ने उसे टोकते हुए कहा, "स्वार्थ? नहीं, सूरजभान। इसे स्वार्थ मत कहो। इसे मेरे महान उद्देश्य का हिस्सा कहो। तुम्हें गर्व होना चाहिए कि तुमने इस लक्ष्य में मेरी मदद की।"
सूरजभान ने गुस्से में उसकी ओर देखा। उसकी आवाज़ कांप रही थी, लेकिन अब उसमें दृढ़ता थी। "गर्व? तुमने मुझसे मेरे इंसान होने का हक छीन लिया है, चंद्रिका। मैंने तुम्हारे कहने पर कितने मासूम बच्चों की जान ली। मैंने सोचा था कि ये सब हमारी संतान के लिए है, लेकिन तुम...तुम तो एक राक्षसी हो।"
तभी पूरे कमरे में अजीब घटनाएं होने लगीं। तांत्रिक चक्र, जो जमीन पर बना था, अब हवा में उठने लगा। ऐसा लगा, जैसे वो पूरी हवेली के ऊपर आसमान में घूम रहा हो। हवेली के हर कोने से चीखें सुनाई देने लगीं। हवा में अजीब-सी गंध फैल गई, और खिड़कियां अपने आप खुलने-बंद होने लगीं।
सूरजभान ने चिल्लाकर कहा, "तुमने इस हवेली को भी अपवित्र कर दिया है, चंद्रिका। ये अब किसी मंदिर का नहीं, बल्कि नरक का रूप ले चुकी है।"
चंद्रिका ने पागलों की तरह हंसते हुए कहा, "हां! और ये सब मेरी ताकत का प्रमाण है। अब कोई मुझे नहीं रोक सकता। मेरी अमरता पूरी होने वाली है। और मैं इस दुनिया पर राज करूंगी।"
सूरजभान ने अपनी मुठ्ठी भींची। उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन अब उनमें गुस्सा भी था। उसने ठंडे स्वर में कहा, "नहीं, चंद्रिका। मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगा। मैंने तुम्हें प्यार किया, लेकिन अब तुम्हारे लिए सिर्फ नफरत बची है। तुम्हें रोकने के लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूं।"
चंद्रिका ने क्रोध से उसकी ओर देखा। "तुम मुझे रोक नहीं सकते, सूरजभान। तुम एक कमजोर इंसान हो। और मैं अब इंसान से ऊपर उठ चुकी हूं।"
सूरजभान ने गहरी सांस ली और अपने भीतर की हिम्मत जुटाई। उसने मन ही मन ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह चंद्रिका को उसके पागलपन और इस घिनौने कर्म को पूरा करने से रोकेगा।
सूरजभान ने उसकी बात सुनकर ठंडे स्वर में जवाब दिया—
सूरजभान: "अमरता? तुमने मुझे धोखा दिया। यह सब सिर्फ हमारी संतान के लिए नहीं था। तुम्हारा असली मकसद कुछ और था। तुम्हारी इस पागल साधना को मैं कभी पूरा नहीं होने दूँगा!"
यह सुनते ही चंद्रिका का चेहरा कठोर हो गया। उसने खंजर उठाया और मंत्र पढ़ने लगी। कमरे की दीवारें गूँजने लगीं, मानो वे भी उसकी शक्ति के आगे झुक रही हों। सूरजभान ने उसकी ओर कदम बढ़ाया, लेकिन जैसे ही उसने चंद्रिका के करीब जाने की कोशिश की, एक अदृश्य शक्ति ने उसे पीछे धकेल दिया।
चंद्रिका ने अपनी तेज आवाज़ में मंत्रों का उच्चारण जारी रखा। उसकी आवाज़ जैसे किसी और दुनिया से आ रही हो। सूरजभान ने गुस्से और हताशा में चिल्लाकर कहा—
सूरजभान: "चंद्रिका, रुक जाओ! तुमने मुझसे सब कुछ छिपाया। यह सब बंद करो, वरना इसके अंजाम बहुत बुरे होंगे!"
लेकिन चंद्रिका ने उसकी बात को पूरी तरह अनसुना कर दिया। उसकी आँखों में केवल एक ही लक्ष्य था—अमरता। उसने मंत्र पढ़ते हुए सूरजभान की ओर इशारा किया। अचानक सूरजभान को महसूस हुआ कि उसका गला कसने लगा है। उसकी साँसें भारी हो गईं। वह घुटन के कारण पीछे हटने लगा।
सूरजभान (दम तोड़ते हुए): "च... चंद्रिका... ये... क्या कर रही हो?"
लेकिन चंद्रिका ने उसकी ओर एक बार भी नहीं देखा। उसने अपनी आवाज़ और ऊँची कर दी और चिल्लाकर कहा—
चंद्रिका: "आज मुझे कोई नहीं रोक सकता। यह रात मेरी है। मैं आज अमर बनूँगी, और यह दुनिया मेरी ताकत को देखकर काँपेगी!"
सूरजभान के कदम लड़खड़ाने लगे। उसने अपनी पूरी ताकत लगाई, लेकिन वह हवा में जैसे किसी अदृश्य रस्सी से जकड़ा हुआ था। उसके शरीर में झुनझुनी होने लगी, और उसकी आँखें धुंधलाने लगीं। अंततः वह घुटन के कारण जमीन पर गिर पड़ा। सूरजभान को बेहोश देख, चंद्रिका की आँखों में जीत की चमक आ गई। उसने हँसते हुए खंजर को आसमान की ओर उठाया और ज़ोर से बोली—
चंद्रिका: "तुमने मुझे रोकने की कोशिश की, सूरजभान, लेकिन अब तुम मेरी राह में बाधा नहीं बन सकते।"
कुछ ही क्षणों में, वह कमरे से बाहर निकली। उसकी आवाज़ पूरे हवेली में गूँज रही थी। उसने तेज़ आवाज़ में चिल्लाना शुरू कर दिया जो किसी डरावनी गाथा का अंतिम अध्याय लिख रही हो। सूरजभान बेहोश पड़ा था, और चंद्रिका के कदम अब तेजी से रामदीन की ओर बढ़ रहे थे। रामदीन मासूम बच्चे को लेकर हवेली से भागने की कोशिश कर रहा था, लेकिन चंद्रिका ने उसे दरवाजे पर ही पकड़ लिया। रामदीन ने बच्चे को कसकर पकड़ा और निडर होकर चंद्रिका से कहा,
रामदीन: "तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम माँ कहलाने लायक नहीं हो! अपने ही बच्चे को मार रही हो?"
चंद्रिका ने ठहाका लगाया और कहा,
चंद्रिका: "तुम जैसे छोटे लोग क्या समझोगे बड़े लक्ष्यों की कीमत? यह बलि मेरे अमरत्व का अंतिम चरण है। बच्चा मेरा है, और मैं इसका उपयोग जैसे चाहूं, करूंगी।"
रामदीन ने साहस दिखाते हुए कहा,
रामदीन: "चाहे जो हो, मैं तुम्हें सफल नहीं होने दूंगा।"
चंद्रिका ने गुस्से में आकर उसके पेट में चाकू घोंप दिया। रामदीन दर्द से कराहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा।
बच्चे को उठाकर चंद्रिका वापस कमरे की ओर दौड़ी, लेकिन जब वह लौटी तो देखा कि सूरजभान वहां नहीं था। साथ ही, वह पुस्तक भी गायब थी जिसमें उसकी चंद्रिका की इच्छा लिखी हुई थी।
तभी हवेली के गलियारे में सूरजभान की आवाज गूंजी,
सूरजभान: "चंद्रिका! तुमने माँ का दर्जा तो कलंकित कर ही दिया, लेकिन मैं तुम्हारे पाप का अंत जरूर करूंगा।"
चंद्रिका ने उसे हवेली की छत पर देखा। सूरजभान हाथ में पुस्तक लिए खड़ा था। उसने चिल्लाते हुए पूछा,
सूरजभान: "बताओ, तुमने इतने सारे बच्चों की बलि क्यों दी? क्या यह संतोष तुम्हारे अमरत्व से भी बढ़कर था?"
चंद्रिका ने हंसते हुए उत्तर दिया,
चंद्रिका: "तुम्हें अभी भी नहीं समझ आया, सूरजभान? मेरी इच्छा संतान प्राप्ति की नहीं थी। मेरी सच्ची इच्छा थी अमरत्व! मैंने अपनी अमरता का कारण अपने पुत्र को ही चुना। उसकी बलि देकर मैं अमर बन जाऊंगी।"
सूरजभान ने पुस्तक खोलकर उस पन्ने को दिखाया जिसमें चंद्रिका की इच्छा लिखी थी। उसने उसे फाड़ते हुए कहा,
सूरजभान: "यह सब शक्ति तुम्हें इस पुस्तक से मिली है। इसे नष्ट करके मैं तुम्हारा खेल खत्म कर दूंगा।"
जैसे ही सूरजभान ने पन्ना फाड़ा, हवेली के ऊपर घूमता तांत्रिक चक्र अचानक कमरे के फर्श पर आ गिरा। पूरा कमरा फिर से उसी मंत्रों से गूंजने लगा। चंद्रिका हवा में उठने लगी, लेकिन उसका शरीर धीरे-धीरे उसी कमरे के चक्र की ओर खिंचता चला गया।
सूरजभान ने जब यह देखा तो वह अपना आपा खो बैठा और तेजी से कमरे की तरफ दौड़ा। उसने भीतर जाकर देखा तो चंद्रिका के हाथ में एक चाकू था, और उसने अपनी ही संतान पर जोरदार वार किया। यह देख, सूरजभान का खून खौल उठा, उसकी आंखों में गुस्सा और हताशा दोनों थे, लेकिन अब वह पूरी तरह टूट चुका था। चंद्रिका की खुशी जैसे सातवें आसमान पर थी, उसकी सारी बलियाँ पूरी हो चुकी थीं। उसने एक ज़ोरदार हंसी हंसी और चक्र फिर से हवेली के ऊपर घूमने लगा।
"तुम क्या करोगे, सूरजभान?" चंद्रिका ने चौंकते हुए कहा, "अब तुम मुझे कैसे रोक पाओगे?"
सूरजभान गहरी सांस लेकर बोला, "तुमने बलि दी है, चंद्रिका, मगर राक्तस्नान अभी पूरा नहीं हुआ है। और मैं इसे कभी पूरा नहीं होने दूंगा!"
चंद्रिका की हंसी अब और गहरी हो गई, जैसे उसकी पूरी योजनाएँ पूरी हो चुकी थीं। "क्या तुम मुझे रोक सकोगे, सूरजभान?" उसने बड़बड़ाते हुए कहा, "अब कुछ भी नहीं बचा। मेरी बलि पूरी हो गई है, और अब मैं उसे हासिल करने वाली हूँ, जो मुझे चाहिए था!"
सूरजभान का चेहरा तमतमाया हुआ था। "तुम भूल रही हो, चंद्रिका। तुम अब भी इंसान हो।" उसने कहा, "तुमने अपनी बलि दी, लेकिन राक्तस्नान कैसे करोगी? बिना रक्तपात्र के, राक्तस्नान पूरा नहीं हो सकता!"
चंद्रिका ने अपनी आँखें घुमाईं और चारों ओर देखा, लेकिन रक्तपात्रा वहाँ नहीं था। उसकी आँखों में घबराहट और गुस्सा था, लेकिन उसने खुद को शांत किया और फिर से बोली, "तुम क्या सोचते हो, सूरजभान, तुम मुझे रोक पाओगे? जल्दी बताओ रक्तपत्र कहाँ है? वरना मैं तुमको भी मार दूंगी|
सूरजभान ने गहरी सांस ली, और इस बार उसकी आवाज में एक कड़ा आक्रोश था। "रक्तपात्र का सारा रक्त मैंने छत पर जाने से पहले ही बगीचे में बिखेर दिया था अब तुम्हारा यह राक्तस्नान कभी पूरा नहीं होगा। आज यही कमरा तुम्हारी चिता बनेगी, चंद्रिका।"
चंद्रिका ने उसकी तरफ झपकते हुए देखा, और उसके चेहरे पर घृणा और क्रोध की लहर दौड़ गई। "तुम क्या करोगे?" उसने पूछा। "तुम मुझे रोकने की कोशिश कर रहे हो?"
"हां, मैं तुम्हें रोकूंगा," सूरजभान ने ठान लिया, "तुम्हारा राक्तस्नान आज यहीं खत्म होगा।"
उसने चाकू उठाया, और पूरी ताकत से उसे चंद्रिका की ओर फेंका।
चंद्रिका चौंकी, लेकिन चाकू सीधे उसके मुंह में जा घुसा। चंद्रिका ने कोई आवाज नहीं निकाली, उसकी आंखें खुली की खुली रह गईं, और वह बस खामोशी से खड़ी रही। अब वह बोलने के काबिल नहीं थी, उसका मुंह खून से भर चुका था।
सूरजभान ने एक आखिरी निर्णय लिया। उसने कमरे के चारों ओर घुमा और पूरे कमरे को आग लगा दी। कमरे के अंदर की सारी चीज़ें जलने लगीं, और आग की लपटें उठने लगीं,सूरजभान ने उस किताब को उसी कमरे में आग के हवाले कर दिया। चंद्रिका की सांसें अब भी सिसक रही थीं, लेकिन उसकी आवाजें धीरे-धीरे दबने लगीं।
सूरजभान ने कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और उसे अपने दिल में गहरी शांति महसूस करते हुए देखा। आग की लपटों में चंद्रिका का शरीर जलने लगा, उसकी पीड़ा का अंत अब सामने था। लेकिन तभी अचानक कमरे से चीखने की आवाजें आने लगीं। चंद्रिका की तड़प और जटिल आवाजें हवेली के भीतर से गूंजने लगीं।
सूरजभान का दिल भारी हो गया। उसने कंधे झुकाकर खुद को कोसा, "क्या यह वही रास्ता था, सूरजभान? क्या यही तुम्हारा सही निर्णय था?" उसने खुद से सवाल किया, लेकिन जवाब कुछ नहीं था।
साथ ही, तंत्र चक्र के चारों ओर बिजली की चमकने की आवाज सुनाई देने लगी। कमरे के भीतर से अजीबोगरीब ऊर्जा का संचार हो रहा था। सूरजभान ने कांपते हुए देखा कि चंद्रिका की तड़प अब और बढ़ गई थी, और कमरे से आ रही आवाजें उसे डर से झकझोर रही थीं।
वह खड़ा रहा, कमरे के बाहर, अपने फैसले पर पछताते हुए। उसकी आँखों में पछतावा और दर्द था। "क्या मैंने सही किया?" वह फिर से सोचने लगा, "क्या यही वह शांति थी जिसे मैं चाहता था?" लेकिन अब, उसके पास कोई जवाब नहीं था।
कमरे के भीतर से आग की लपटों और चंद्रिका की तड़पने की आवाजें सुनी जाती रहीं, और तंत्र चक्र की बिजली की चमक ने हवेली को और भी डरावना बना दिया था। सूरजभान खड़ा था, पूरी तरह से टूट चुका, अपनी खुद की जंग लड़ता हुआ।
जैसे-जैसे आग की लपटें बुझने लगीं, चंद्रिका की चीखें भी धीरे-धीरे खामोश हो गईं। हवेली के चारों ओर गूंजती डरावनी आवाज़ें अब पूरी तरह शांत हो चुकी थीं। सूरजभान ने कांपते हुए अपने पीछे के दृश्य पर नज़र डाली। जलते हुए कमरे की लपटों से निकलता धुआं, और उस धुएं के साथ चंद्रिका का अंत… यह सब देखकर उसका दिल पत्थर की तरह भारी हो चुका था। लेकिन वह जानता था, यह उसकी करनी का ही परिणाम था।
हवेली के ऊपर घूमता हुआ तांत्रिक चक्र भी धीरे-धीरे धीमा होने लगा, और आखिरकार वह गायब हो गया। एक पल के लिए ऐसा लगा मानो हवेली के आस-पास की सारी ऊर्जा शांत हो गई हो। लेकिन सूरजभान के अंदर का तूफान थमने वाला नहीं था।
उसने कमरे की ओर एक आखिरी बार देखा और फिर अपनी निगाहें झुका लीं। अब उसमें इतना साहस नहीं था कि और कुछ देख सके। अपने कदम भारी-भारी रखते हुए, वह धीरे-धीरे हवेली के बाहर चला गया। उसकी आँखों में पछतावा था, और दिल आत्मग्लानि से भर चुका था।
आगे की कहानी अगले भाग में जारी है.....