अगले दिन सुबह का सूरज धीरे-धीरे हवेली की खिड़कियों से झाँकने लगा। लेकिन चंद्रिका के भीतर एक अलग ही हलचल थी। उसका मन अब सिर्फ और सिर्फ उस कमरे पर टिका हुआ था, जहाँ उसने पिछली रात किताब रखी थी। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी और कदम बेमन से नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास के साथ उस कमरे की ओर बढ़ रहे थे।
रसोई के पास से गुजरते हुए रामदीन ने चंद्रिका को उस ओर जाते देखा। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गईं। उसने तुरंत उसे रोकने की कोशिश की।
मालकिन, इस ओर मत जाइए। मैंने कल रात भी आपको इस तरफ जाते देखा था। सूरजभान बाबूजी ने इस कमरे को बंद रखने का हुक्म दिया है। वहाँ मत जाइए। वहाँ कुछ अशुभ है।"
चंद्रिका ने एक पल के लिए रामदीन की बात सुनी, लेकिन उसकी आँखों की चमक और बढ़ गई। उसने उसकी चेतावनी को पूरी तरह अनसुना कर दिया और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई। रामदीन ने दुबारा रोकने की कोशिश की, लेकिन चंद्रिका ने उसकी ओर एक कठोर नज़र डाली, जो जैसे कह रही हो कि कोई भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकता। रामदीन घबराकर चुप हो गया, लेकिन भीतर ही भीतर कुछ अनहोनी का आभास उसे बेचैन कर गया।
चंद्रिका ने जैसे ही कमरे का दरवाजा खोला, एक ठंडी हवा का झोंका बाहर आया। कमरे के भीतर का दृश्य बिल्कुल वैसा नहीं था जैसा उसने पिछली रात देखा था। पूरा कमरा अब एक रहस्य का स्वरूप ले चुका था। कमरे में एक हल्का-हल्का धुआँ फैला हुआ था, जो किसी मंत्रोच्चार के बाद उठे धुएँ जैसा लग रहा था। वह धुआँ रहस्यमयी तरीके से हिल रहा था, मानो कमरे की हर चीज़ जीवंत हो उठी हो।
जमीन पर किताब खुली हुई थी, और जैसे ही चंद्रिका की नज़र उस पर पड़ी, उसके होंठों पर एक धीमी मुस्कान आ गई। किताब के आस-पास का वातावरण बिल्कुल अलग था। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह किताब जीवंत हो गई हो। उसके पन्ने हवा में खुद-ब-खुद पलट रहे थे।
चंद्रिका का ध्यान किताब के ऊपर एक और अजीब चीज़ पर गया। कमरे में, ठीक किताब के ऊपर, एक तांत्रिक चक्र हवा में घूम रहा था। वह चिह्न चमकदार लाल और काले रंग की आभा से चमक रहा था। उसके घूमने की गति कभी तेज़ हो जाती और कभी धीमी। चंद्रिका को उस चिह्न को देखकर डर नहीं लगा; बल्कि, उसके दिल में एक अजीब सी खुशी महसूस हो रही थी। ऐसा लग रहा था मानो यह सब कुछ उसी के लिए हुआ हो।
पहली बार चंद्रिका को लगा कि वह सही रास्ते पर है। उसके दिल में जो चाहत थी, वह अब सच होने के करीब लग रही थी। वह धीरे-धीरे किताब की ओर बढ़ी। हर कदम के साथ कमरे में हलचल और बढ़ रही थी। जैसे ही उसने किताब को छूने की कोशिश की, उस पर लिखे शब्द "रक्तस्नान" हल्के से चमकने लगे।
कमरे की ठंडी हवा अब गर्माहट में बदलने लगी। वह तांत्रिक चिह्न तेज़ी से घूमने लगा और धुआँ पूरे कमरे में फैल गया। चंद्रिका को ऐसा लगने लगा कि जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसकी मदद कर रही हो।
चंद्रिका ने किताब को हाथ में उठाया और उसके खुले पन्नों को देखा। वह किताब अब खाली नहीं थी। उसके पन्नों पर हल्के लाल रंग के अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था।
चंद्रिका ने धड़कते दिल के साथ उस किताब के पन्ने पलटने शुरू किए। किताब के हर पन्ने पर अद्भुत, रहस्यमयी प्रतीक और कुछ अज्ञात भाषा में लिखे हुए मंत्र थे। कमरा अब भी रहस्यमय धुएँ से भरा हुआ था। किताब के हर पन्ने को पलटते समय उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि उसके शरीर के हर रोंगटे खड़े हो गए हैं। जैसे-जैसे पन्ने पलटते गए, उसकी साँसें और तेज़ होती गईं। फिर अचानक, किताब के एक पन्ने पर लिखे शब्द चमकने लगे।
उस पन्ने पर गाढ़े लाल रंग में चमचमाते हुए शब्द उभरने लगे। वे शब्द ऐसे थे, मानो किसी ने खून से लिखे हों। चंद्रिका ने काँपते हाथों से उन शब्दों को पढ़ना शुरू किया। शब्द स्पष्ट थे, लेकिन उनके अर्थ उसकी आत्मा को झकझोर देने वाले थे।
"तुमने वो माँगा है, जो तुम्हारे भाग्य में नहीं है।"
"तुम्हारी इच्छा पूरी हो सकती है, लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।"
"अगर तुम तैयार हो, तो सुनो—इसे पाने के लिए तुम्हें इक्कीस बच्चों की बलि देनी होगी। उनके रक्त को एकत्रित करना होगा। उस रक्त से स्नान करने पर ही तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।"
ये शब्द पढ़कर चंद्रिका का दिल सहम गया। उसकी आँखें फैल गईं, और उसका शरीर जैसे काँपने लगा। उसकी उँगलियाँ किताब के पन्ने पर स्थिर हो गईं। उसे विश्वास नहीं हुआ कि उसने जो माँगा है, उसकी पूर्ति के लिए इतनी बड़ी कीमत माँगी जा रही थी। उसका दिमाग तेज़ी से दौड़ने लगा।
"क्या मैं सच में ऐसा कर सकती हूँ?" उसने अपने आप से सवाल किया।
"इक्कीस बच्चों की बलि... मासूम बच्चों का खून? क्या ये सही है?"
उसके दिल ने एक पल के लिए उसे रोकने की कोशिश की। उसने सोचा कि शायद उसे पीछे हट जाना चाहिए। लेकिन तभी उसकी आँखों के सामने वो सपना उभर आया, जो उसने इतने लंबे समय से देखा था, उसको ऐसे ही अपने हाथ से कैसे जाने दूं? उसकी यह इच्छा, यह सपना, उसकी पूरी ज़िंदगी का मकसद बन चुका था।
कुछ पलों के गहरे विचार के बाद, चंद्रिका का डर धीरे-धीरे जुनून में बदलने लगा। उसके चेहरे पर एक अजीब सी दृढ़ता आ गई। उसने किताब को बंद किया और धीरे-धीरे खुद को संभाला।
"अगर यह कीमत मुझे चुकानी ही पड़े, तो मैं इसे चुकाऊँगी," उसने खुद से कहा।
"यह दुनिया मेरी इच्छा को पूरी नहीं कर सकती, तो मैं अपनी राह खुद बनाऊँगी।"
उसने महसूस किया कि अब उसके पास दो ही रास्ते थे—या तो वह इस किताब को हमेशा के लिए बंद करके अपनी इच्छा को भूल जाए, या फिर इस रास्ते पर आगे बढ़े, चाहे इसकी कीमत कुछ भी हो। उसने दूसरा रास्ता चुना।
कमरा अब भी रहस्यमय धुएँ और हलचल से भरा हुआ था। किताब मानो अपनी शक्तियों का प्रदर्शन कर रही थी। कमरे में ठंडी हवाएँ तेज़ हो गईं, और दीवारों पर अजीब सी परछाइयाँ नज़र आने लगीं। चंद्रिका ने उन पर ध्यान नहीं दिया। उसकी आँखें सिर्फ उस किताब पर टिकी थीं।
किताब के पन्नों पर खून जैसे लाल अक्षरों में लिखा था:
"इक्कीस बलियाँ... हर बलि तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य के करीब ले जाएगी। हर मासूम का रक्त तुम्हारी शक्ति को बढ़ाएगा। जब सब कुछ पूरा होगा, तभी तुम्हारी इच्छा पूरी हो पाएगी।"
चंद्रिका ने धीरे-धीरे किताब को उठाया और उसकी ओर एक बार फिर देखा। अब उसकी आँखों में डर नहीं, बल्कि एक अजीब सी चमक थी। उसने किताब को आलमारी में रखा और कमरे से बाहर निकलने के लिए मुड़ी।
जैसे ही उसने कमरे का दरवाजा खोला, उसके दिल में एक आखिरी सवाल उभरा:
"क्या मैं सच में ऐसा कर सकती हूँ? क्या मैं सच में इतने मासूम बच्चों की जान ले सकती हूँ?"
लेकिन अगले ही पल उसने खुद को समझाया:
"अगर यह मेरी इच्छा को पूरा करने का एकमात्र तरीका है, तो मुझे यह करना ही होगा। मेरे पास अब कोई और विकल्प नहीं है।"
चंद्रिका ने दरवाजा बंद किया और अपने रोजाना के कामकाज में लग गई।
शाम के समय, जब सूरज ढलने लगा और आसमान हल्के नारंगी रंग में बदलने लगा, सूरजभान हवेली लौट आया। हवेली का माहौल थोड़ा अजीब लग रहा था। जैसे ही उसने मुख्य द्वार से प्रवेश किया, उसे कुछ अलग सा महसूस हुआ। हवेली के कोनों में छाया अंधेरा और सन्नाटा उसके दिल में हल्की बेचैनी पैदा कर रहे थे।
सूरजभान ने अपने कक्ष में प्रवेश किया तो देखा कि चंद्रिका खिड़की के पास खड़ी थी। उसका चेहरा शांत था, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी। वह अपने विचारों में खोई हुई थी, मानो वह किसी गहरे राज को अपने भीतर समेटे हुए हो। सूरजभान को यह सब असामान्य लगा।
सूरजभान ने मुस्कुराते हुए पूछा,
"चंद्रिका, तुम इतनी खोई-खोई सी क्यों लग रही हो? क्या सब ठीक है?"
चंद्रिका ने चौंककर उसकी ओर देखा, फिर हल्का सा मुस्कुरा दी। उसकी मुस्कान में एक रहस्य छुपा हुआ था।
"हाँ, सब ठीक है," उसने धीरे से कहा।
सूरजभान उसकी आँखों में चमक को देखकर उत्सुक हो गया।
"तुम्हारे चेहरे पर ये खुशी कैसी? क्या कुछ खास बात है?" उसने प्यार से पूछा।
चंद्रिका ने गहरी साँस ली और थोड़ा नाटकीय अंदाज में कहा,
"मुझे लगता है, सूरजभान, कि जल्द ही मैं इस दुनिया की सबसे खुश इंसान बनने वाली हूँ।"
सूरजभान उसकी बात सुनकर हैरान हो गया। वह उसके करीब आया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला,
"इसका क्या मतलब है? क्या कोई शुभ समाचार है?"
चंद्रिका ने उसकी ओर देखकर धीमे स्वर में कहा,
"मुझे ऐसा लगता है कि मेरी वर्षों की साधना और प्रार्थना का फल मुझे मिलने वाला है। जल्द ही हमें संतान प्राप्त होगी।"
सूरजभान यह सुनकर बेहद उत्साहित हो गया। उसकी आँखों में एक उम्मीद की किरण जाग उठी।
"सच? यह तो बहुत बड़ी बात है, चंद्रिका! लेकिन यह सब कैसे होगा? क्या कोई उपाय किया है तुमने?"
चंद्रिका को पहले से ही यह सवाल आने की आशंका थी। उसने जल्दी से बात को घुमाने का निश्चय किया।
"हाँ, एक बाबा से भेंट हुई थी। उन्होंने कहा है कि हमें दान-पुण्य करना चाहिए। गरीबों को खाना खिलाना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए। यही हमारी खुशियों का रास्ता है।"
सूरजभान ने उसकी बात पर विश्वास करते हुए प्रसन्नता से कहा,
"यह तो बहुत ही नेक काम है, चंद्रिका। अगर इससे हमारे घर में खुशियाँ आती हैं, तो यह जरूर करना चाहिए। तुम जब चाहो, यह शुरू कर सकती हो। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।"
सूरजभान उसकी बातों में सहजता से आ गया। लेकिन चंद्रिका के दिल में कुछ और ही चल रहा था। बाबा और दान-पुण्य का जिक्र तो बस एक बहाना था। असल में, उसकी योजना किताब में लिखी बातों को पूरा करने की थी। वह जानती थी कि गरीबों को दान-पुण्य के नाम पर बुलाना और उनके बच्चों को हवेली में लाना अब आसान हो जाएगा।
चंद्रिका ने सूरजभान की तरफ देखते हुए हल्की मुस्कान दी।
"धन्यवाद, सूरजभान। आपके समर्थन के बिना यह सब संभव नहीं होता," उसने कहा।
सूरजभान ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और कहा,
"तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है। बस, अपना ध्यान रखना।"
चंद्रिका ने सूरजभान को यह आभास नहीं होने दिया कि उसके भीतर का जुनून अब उसके डर पर हावी हो चुका है। उसके हर कदम के पीछे एक खौफनाक योजना थी। उसने किताब की सच्चाई और उसमें छुपी क्रूर शर्त को गुप्त रखा। सूरजभान के जाने के बाद, उसने खिड़की से बाहर देखते हुए ठंडी हवा में गहरी साँस ली।
"अब वह दिन दूर नहीं, जब मैं अपने सपने को सच होते हुए देखूँगी। जो भी कीमत चुकानी होगी, मैं चुकाऊँगी," उसने मन ही मन कहा।
हवेली के बाहर सूरज ढल चुका था। अंधेरा धीरे-धीरे पूरे आकाश पर छा रहा था। हवेली के कोनों में अजीब सी खामोशी और रहस्यमय आहटें गूँज रही थीं। लेकिन चंद्रिका के मन में अब कोई डर नहीं था—बस उसकी योजना को पूरा करने का जुनून था।
आगे की कहानी अगले भाग में जारी है......