सन् १९३८ अप्रैल का पहला सप्ताह धूप में तेजी आ गयी थी। कंधारी बाग गली में दोपहर में सन्नाटा हो जाता। रेलवे वर्कशाप और कारखानों में काम करने वाले तथा अध्यापक सुबह छः- साने छः बजे निकल जाते। बाबू साढ़े नौ तक गली के लड़के-लड़कियाँ प्रातः ही स्कूल चले जाते। गली की कई स्त्रियाँ भी नौकरी चाकरी करती थीं। कंधारी बाग गली में अधिकांश ईसाई बस्ती थी।
मिसेज़ पंडित दोपहर की रसोई का काम रोज़ी पर छोड़कर आँगन की ओर बरामदे में बैठी बेटी की साड़ी पर लेस टॉक रही थीं। जनवरी के पहले सप्ताह ही सब तय हो चुका था। निर्मलचन्द्र पंत कुछ दिनों के लिये कलकत्ता आया था। उसे मध्य अप्रैल तक लौटना था। सत्ताईस अप्रैल, बृहस्पतिवार प्रातः सगाई निश्चित थी। रविवार को चर्च में विवाह का पहला 'बैन' (विवाह की घोषणा) पब्लिश होगा। सात मई को दूसरा और चौदह मई को तीसरा छैन। जून के पहले सप्ताह में सुबह विवाह, संध्या पार्टी। उसके अगले दिन वर-वधू नैनीताल के लिये रवाना। हे परमेश्वर, तेरी कृपा से काम ऐसे निभ जाय कि सब लोग संतुष्ट रहें। मिसेज़ पंडित ने दुआ माँगी और सोचने लगी: तैयारी के लिये इतना कम समय' 'दामाद और समधी की पोज़ीशन! जाने उन्होंने क्या-क्या अरमान और उम्मीदें बाँध रखी हैं। हमारे सीमित साधन मिसेज़ पंडित सिलाई कसीदे का कुछ काम इधर- उधर से करवा रही थीं। स्वयं किये बिना भी सर न सकता था। कभी सिलाई वाली को घर पर भी लगा लेती।
साड़ी पर लेस टॉकते-टॉकते दो बार खयाल आया उषा नहीं आयी। कह गयी थी, साढ़े दस तक लौटकर अमीनाबाद साथ चलेगी। एक्ज़ाम आज खत्म घर रहेगी तो काम में हाथ बटायेगी फिर खयाल आयाः उपा नहीं आयी। हाथ रुक गया। टाइम देखने के लिये बरामदे से बैठक में आ गयी।
टाइमपीस में साढ़े बारह उग्र चिन्ता हाय, क्या हो गया होगा! कहा था, साढ़े दस तक पहुँच जायेगी। सुनी कई भयंकर घटनायें कल्पना में जागने लगीं। धैर्य के लिये परमेश्वर को याद किया ए हमारे बाप, तू जो आसमान पर है, तेरा नाम पाक माना जाये ।
बावर्चीखाने की ओर झांका, “बेबे, साढ़े बारह हो गये उषा नहीं आयी। जल्दी लौटने को कह गयी थी। पद्मा सदू आते होंगे। चपाती उतार रखो। बच्चे ठहर नहीं पाते।"
नौकरानी रोजी परिवार में सबसे बुजुर्ग। उसे बेबे सम्बोधन किया जाता। रोज़ी ने पहली बात का उत्तर दिया, "दाल ते नालदा हो गया। फुलके भी बना लेनी ऑ (दाल- तरकारी हो गये, चपाती भी सेंक लेती हैं)।" रोजी चौदह बरस से लखनऊ में थी। घर में बोलते समय पंजाब के दोआब की बोली फूट पड़ती।
मिसेज़ पंडित के मन में चिन्ता उमड़ आयी। बरामदे से बैठक में चली गयीं। गली में खुलती खिड़की पर चिक टंगी थी। खिड़की के पल्ले का सहारा लेकर गली में झाँकने लगीं। सूरज ठीक सिर पर गली में चिलचिलाती धूप। मिसेज़ पंडित कल्पना में बेटी को बाज़ार की भीड़ में सूनी सड़क पर साइकल चलाते देख रही थी अभी तक नहीं लौटी। परमेश्वर
ही रक्षक ए ख़ुदा, तेरी ही रहमत का आसरा है।
मिसेज़ पंडित पति से कई बार कह चुकी थी जवान लड़की का इतनी दूर अकेली जाना ठीक नहीं। साइकल मरी का क्या गिरने-पढ़ने, चोट का खतरा। लड़की छोटी थी तो एक बात थी, अब तो पूरी जवान जिस्म भर गया। मरी का नाक नक्शा भी नज़र में गड़ने वाला। लोगों की जवान बेटियों कहीं ऐसे अकेली आती जाती हैं!
एक्जाम आज खत्म। अब अकेली नहीं आने दूंगी। रोज़ी से सुनी किम की बकवास याद आने से कलेजे को कुछ होने लगता। दुनिया में वैसे गुनाहगार भी हैं। शहर में कई वारदातें हो चुकी हैं। बस महीना भर और बेटी अपने घर जाये। परमेश्वर की कृपा से सुखी रहे । गली में पद्मा और सदानन्द आते दिखायी दिये। पद्मा पीठ पर लटके बस्ते का हैण्डल सामने से कंधे पर पकड़े थी। सदानन्द वस्ता बगल में दबाये था। दोनों के चेहरे धूप से तमतमाये। दोनों ने गली से दरवाज़े की कुर्सी की सीढ़ी पर कूदकर एक साथ किवाह पीटा, "मम्मी !"
मिसेज पंडित का हाथ सॉकल पर पहुँच चुका था। किवाह खुल गये।
“मम्मी, आज हमारी सब किताबें रिवाइज हो गयीं। पद्मा ने समाचार दिया और आँखें गोल करके विशेष सूचना दी. "मुंडे से एक्ज़ाम की तैयारी की एक वीक की छुट्टी। दो आना एक्ज़ाम फीस सारे एक्ज़ाम के पेपर होंगे।" उस बरस उसे छठी क्लास की परीक्षा देनी
थी।
मम्मी हमारी भी छुट्टी है। हमारा भी एक्ज़ाम है।" सदानन्द अपना महत्त्व कम नहीं समझता था। उसे पकी पहली की परीक्षा देनी थी।
मिसेज़ पंडित ने दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा।
"शाबाश बेटी, गुसलखाने में चली जा मुँह पर पानी का छींटा ले। भाई का मुँह भी धो दे। खाना तैयार है। बेटी, तेरी जीजी अभी तक नहीं आयी । "
मिसेज़ पंडित ने रोजी को पुकारा। पद्मा सदु को खाना देने के लिये कह दिया। नज़र फिर गली में चिन्ता व्याकुलता बनती जा रही थी।
कुछ मिनट में अमितानन्द भी आ गया। वह इंटर पहले वर्ष में था। पुस्तकें बैठक की मेज़ पर पटक, समीप बेंत के सोफा पर पसर कर साथ लायी पत्रिका के पन्ने पलटने लगा।
"मीतू बेटे, धूप से आया है। मुँह-हाथ धो ले।"
"आई एम आल राइट।"
“खाना दे दें कि डैडी के लिये ठहरोगे?"
"डैडी को आने दो।"
"मीतू बेटे, अच्छी अभी तक नहीं लौटी।"
अमित ने नजर पत्रिका से उठाये बिना ही कह दिया, "आज से उनका एक्जाम खतम। कश्मीरन सहेली के यहाँ रुक कर गप्प कर रही होगी।"
“बेटे, उसने तो जल्दी लौटने को कहा था। कभी कभार कुछ देर रुक गयी। इतनी देर कभी नहीं की। एक बज गया।"
"क्यों जब सहेली रात गाड़ी में छोड़ने आयी थी। "
"उस दिन तो कहकर गयी थी । सुनो तुम जल्दी खा लो। डैडी आ जायें तो तुम साइकल
पर पार्क रोड जाकर उसकी सहेली के यहाँ देख आना। बेटे, मुझे बहुत फिक्र हो रही है। " मकान के बगल की गली में खुलने वाले आँगन के दरवाजे के किवाड़ खटके। पद्मा-सदू ने बरामदे में मेज पर खाना खाते खाते एक साथ पुकारा, “मम्मी, जीजी!" आवाज धीमी हो गयी, "नहीं, डैडी!"
मिस्टर पंडित और उषा अपनी साइकले आँगन के दरवाज़े से भीतर लाते थे।
•"डैडी, जीजी अभी तक नहीं आयी।" पद्मा ने पिता को सूचना दी। माँ बरामदे में आ गयी। उसने भी वही बात चिन्ता से कही।
पंडित ने साइकल धूप से बचाने के लिये बरामदे में दीवार से टिका दी धूप में आने से गरमी के कारण कोट के बटन खोल दिये, "सवा बजे तक नहीं आयी? क्या वजह हो गयी?"
""क्या जाने!" चिन्ता के स्वर में माँ ने बताया, "उसका एक्ज़ाम दस तक था। जल्दी आने के लिये कह गयी थी। मैं कहती हैं, मीतू ज़रा जल्दी से साइकल पर पार्क रोड जाकर उसकी सहेली के यहाँ देख आये जाने क्यों, मुझे बहुत ऐसा-वैसा लग रहा है।"
"सहेली के यहाँ जाने की बात थी?"
"नहीं, बल्कि जल्दी आने को कह गयी थी। खाने से पहले गुलाबी साड़ी के लिये किनारी खरीदने अमीनाबाद जाना था। "
"तो फिर पता कालेज से लेना चाहिये। शायद कालेज में रुकना पड़ गया हो। जाकर देख आयें। खाना लौटकर लेंगे।" पंडित ने एक गिलास जल लिया और साइकल लेकर गली मैं निकल गये।
पति को गये आधा घण्टा गुज़रा था। अमित खा चुका तो माँ ने अनुनय की, “बेटे, पार्क रोड दूर नहीं तेरे डैडी आते हैं, तब तक तू वहाँ पूछ आ तुझे जगह मालूम हैं।" माँ की चिन्ता के विचार से अमितानन्द देखने चला गया।
माँ की नज़र लगातार खिड़की से गली में थी। व्याकुलता और बढ़ी तो देखने के लिये गली के मुहाने तक चली गयी। कैंट रोड पर कैसरबाग की ओर नज़र किये धूप में कई पल खड़ी रही। लौटकर पद्मा से पूछा, "पछी, जीजी कैण्ट रोड से आती जाती है कि दूसरी तरफ की सड़क से
“मम्मी, कभी कैण्ट रोड से कभी बिसेशरनाथ रोड से।" पद्मा ने तर्जनी उठाकर विस्तार से समझाया, "हम बतायें, जब अकेली होती है तो कैण्ट रोड से जब साथ-साथ लौटती हैं। तो बड़े डाकखाने तक साथ आती हैं। सहेली के पास भी साइकल है न। सहेली पार्क रोड पर चली जाती है और जीजी विसेशरनाथ रोड से घर आती हैं।" पद्दी समझदार थी, बात विस्तार से समझा कर करती थी।
रोज़ी के लिये घर के लोग अपना परिवार उनके साथ ही पंजाब से लखनऊ आयी थी। रोज़ी के पिता को मास्टर धर्मानन्द पंडित के पिता देवदत्त पंडित प्रभु ईसू की शरण में लाये थे। बीस-बाईस की आयु में विधवा हो गयी। रोजी उन्हीं के यहाँ आ गयी थी। उम्र में पंडित से तीन-चार बरस बड़ी। उसका एकलौता जवान बेटा बम्बई भाग गया, जहाज पर नौकरी कर ली। जाने कहाँ चला गया। वह परमेश्वर से बेटे के लिये दुआ करती पंडित परिवार का ही अंग बन गयी।
रोजी पंडित परिवार में आयी तो पंडित, मिसेज पंडित और बच्चे उसे बेबे (बड़ी बहिन ) पुकारने लगे। उषा और सब बच्चे उसी के हाथों में जन्मे-पले थे। उन्हें अपने ही बच्चे मानकर स्नेह चिन्ता करती थी। कंधारी बाग गली के लोगों के लिये रोज़ी अच्छा-खासा मजाक, बुढ़िया को 'बेबी' पुकारते। गली के लोग रोज़ी की आयु और सिधाई का आदर करते थे। कोई उसे बेबी आंटी भी पुकार लेते। वह सबको आशीर्वाद देती रहती मला हो, जीते रहो। उपा के लौटने में विलम्ब से रोज़ी भी चिन्तिता पद्मा को साथ लेकर गली के विसेशरनाथ रोड वाले मुहाने की ओर देखने गयी। उन्हें बेवक्त गली में घूमते देखकर पीटर की बहू मेरी और बुड़िया जैन ने पूछ लिया, "बेबी आंटी, क्या देख रही हो?"
"कुछ नहीं बहू ऐसे ही।" रोज़ी ने टाल दिया। पद्मा ने चिन्ता का कारण बता दिया, जीजी को कालेज से दस बजे आना था। अभी तक नहीं लौटी। मम्मी फिक्र कर रही हैं।" अमित तेज़ चाल से गया था। आधे घण्टे से पहले लौट आया। उषा पार्क रोड पर सरगा साहब की कोठी पर नहीं थी। मिसेज़ पंडित का कलेजा धड़कने लगा।
पंडित आई० टी० कालेज से तीन बजे तक न लौटे। मिसेज़ पंडित बेचैनी में पानी से निकली मछली की तरह छटपटा रही थी। कभी बैठक के दरवाज़े की चिक से कभी साथ के कमरे की खिड़की से गली में झाँकती। डेड घंटे से निरन्तर पाँवों पर पाँवों में खून उतर आया था। घुटने काँपने लगे। बैठ पाना भी मुश्किल। कल्पना में लगातार जवान बेटी का आतंकित, त्रस्त चेहरा साइकल पर सड़कों बाजारों से गुजरता। उसकी ओर घूरती बदमाश जालिमों की खूनी आँखें उसकी ओर झपटते क्रूर पंजे ख़ुदा रहम कर इन्हें इतनी देर क्यों हो रही है! उषा ने कई बार कहा था घर से कालेज तक साइकल पर पन्द्रह मिनट में पहुँच जाती है। ये कहाँ अटक गये।
रोज़ी और पद्मा गली में चक्कर लगा रही थीं। कुछ पल कैंट रोड के मुहाने पर डाक्टर चौहान के मकान के समीप बड़ी होकर सड़क पर दूर तक नजर दौड़ाती। फिर व्याकुलता से विनेशरनाथ रोड की ओर देखने चली जाती।
रोज़ी-पद्मा को बेचैनी से गली में बार-बार आते-जाते देखकर गली की खियों में कौतूहल और चिन्ता फेल गयी। मेरी ने सहानुभूति में चिन्ता का कारण पड़ोसियों को बता दिया।
जैन गली में तीन बरस से थी। बाईस बरस पहले विधवा हो गयी थी। तब से लालबाग गर्ल्स स्कूल में मूँगफली, चबैना, खट्टी-मीठी गोली, कापी-पेंसिल, स्वाही बेचकर निर्वाह करती थी। लड़कियों के आचरण और गली-बिरादरी की इज्जत बेइज्जती के प्रति सतर्क समाचार से चिन्तित हो गयी। चिन्ता से कोठरी में गरमी लगने लगी। हाथ की पंखी से शरीर पर हवा लेती गली में निकल आयी। घूम-घूम कर पंडित की जवान लौंडिया के घर न लौटने की परेशानी पड़ोसियों को बताने लगी।
एक दिन होना ही था। 'बखत से शादी करके बसा दिये होते, अब तक दूठो गोद में होते बीस से कम की तो है नहीं। बाप-महतारी लीडिया के मेम बनाये क चाहें। देसी लोग तो फिर देखी लोग। ईसाई हो जाये कि काला लोग रहें। कितनी पढ़ाय लेउ इंगरेज तो वन नाहीं जैहैं। "घर माँ गाने-बजाने की महफिल करें, लॉडिया बेनथ-पगड़ी मैकल पर सहर बहर धुमिहै तो अस होइवे करी ।" जेन चालीस बरस से नगर में थी। तभी से
शिक्षित सभ्य ईसाई संगति में शहर की बोली बोलने का यत्र कर रही थी परन्तु पाँच-छः वाक्य के बाद मुँह से अवधी फिसलने लगती।
पंडित साइकल तेज़ी से चलाते हुए आई० टी० कालेज पहुँचे तो दो बज चुके थे। कालेज और कालेज का दफ्तर बन्दा पंडित पूछताछ के लिये कालेज होस्टल में गये। उपा की तीन सहपाठिनें मिलीं। उन्होंने बताया उषा का पर्चा बहुत अच्छा हुआ था। परीक्षा के बाद उसे कालेज के बरामदे में अर्थशास्त्र की अध्यापक मिस स्टोन से बात करते देखा था।
पंडित ने मिस स्टोन से मिल लेना उचित समझा। मिस स्टोन यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एसोसियेशन के होस्टल में रहती थी। पंडित आई० टी० कालेज से चीना बाजार फाटक गये। मिस स्टोन काफी प्रतीक्षा कराकर बाहर आयी। उससे कुछ अधिक समाचार न मिल सका। केवल बता सकी कि उपा पर्चे से बहुत संतुष्ट थी।
पंडित कंधारी बाग गली में लौटे तो साढ़े तीन हो चुके थे। धूप से चेहरा तमतमा गया था। शरीर पसीना-पसीना। रास्ते भर मनाते आ रहे थे, घर पहुँचकर बेटी को सही-सलामत देखें।
पंडित ने साइकल बैठक के दरवाजे के सामने रोकी किवाड़ खुले थे। साइकल रुकते ही दरवाजे की चिक उठी। उनके बोल सकने से पूर्व मिसेज़ पंडित का आर्त स्वर, "कालेज में भी नहीं
पंडित के मुँह से शब्द न निकल सका। गर्दन इनकार में हिला दी।
मिसेज़ पंडित फूट पड़ीं, "हाय मेरी बेटी
पंडित गली में खड़े सोच रहे थे : क्या करना उचित होगा? डाक्टर चौहान से राय लेकर उनके टेलीफोन से पुलिस को रिपोर्ट की जाये ।
"यहाँ कोई पंडित साहब हैं? पंडित ने घूमकर देखा। बाकी वर्दी पहने व्यक्ति उन्हें पूछ रहा था।
"हम हैं पंडित, कहो क्या काम है?"
"अरे साहब, हम आपका कालेज में भी हेरा। पूछत-पूछत इहाँ लो आएन। आपके तई चिट्ठी।"
पंडित ने लिफाफा लेकर तुरन्त कागज़ निकाला। मेडिकल कालेज के छपे कागज़ पर हाथ से लिखी पंक्तियाँ मिस उषा पंडित सड़क पर चोट लगने के कारण निदान और उपचार के लिये चार अप्रैल ग्यारह बजे हस्पताल में दाखिल की गयी है। कृते सुपरिन्टेंडेंट। पंडित का मस्तिष्क चकरा गया। कागज पर लिखा फिर पड़ा। दस्तखत कर पत्र ले लिया।
चपरासी ने समाचार देने के लिये सलाम किया, पंडित ने दाँत पीसकर जेब में हाथ डाला। जो था, बिना देखे दे दिया।
बेटी सड़क पर चोट खाकर हस्पताल में थी। समाचार निश्चय दारुण था। मिसेज पंडित पति के साथ हस्पताल चल देने को आतुर पंडित को पत्नी के लिये सवारी ढूँढने में विलम्ब स्वीकार न था। पत्नी को धैर्य रखने के लिये कहकर स्वयं तुरन्त हस्पताल चले गये।
उपा पंडित साइकल पर थी संक्षेप में स्पष्ट स्थिति इस प्रकार पूरी एक पीडी तीस वर्ष से अधिक पूर्व की घटना। तब से नगर की रूपरेखा, पोशाकें, रहन-सहन, किसी सीमा तक विचार और व्यवहार भी बदल गये हैं।
उपा हाईस्कूल तक कंधारी बाग गली के समीप लालबाग स्कूल में पड़ी थी पिता की आशानुकूल पहले डिवीजन में पास पंडित उसे अच्छी संस्था में शिक्षा दिलाना चाहते थे। तब लखनऊ में प्रतिवर्ष लड़कियों हजारों की तादाद में हाईस्कूल पास न करती थीं। नगर में इतने महिला विद्यालय, शिक्षा केन्द्र, शिक्षा निकेतन या कालेज न थे। कुल मिलाकर लड़कियों के लिये दो कालेज, एक अमीनाबाद में और दूसरा चाँदबाग में कालेजों में सहशिक्षा की बात उस समय सोची भी न गयी थी। पंडित और उनकी ईसाई बिरादरी के मत से लड़कियों के लिये अच्छी शिक्षा चाँदबाग के आई० टी० (ईसावेला थावर्न) कालेज में थी। कंधारी बाग गली और चाँदबाग के बीच लगभग तीन मील का अन्तर
घर और कालेज के बीच दो अद्राई मील का अन्तर आजकल कुछ बात नहीं परन्तु तब लखनऊ में चारबाग से चाँदबाग तक हर दस मिनट में सिटी बस सुलभ न थी । तब नगर में बस चली ही न थी। वनों की भीड़ और सड़क बाज़ार में उच्छृंखल लोगों से छेड़-छाड़ की आशंका में आजकल भी कुछ अति सावधान परिवार जवान बेटियों को बस में अकेली भेजना उचित नहीं समझते। तब नगर में सर्वसाधारण की सवारी इक्का थी। लखनऊ नगर की पुरानी बस्तियों में इक्का अब भी दिखाई दे जाता है। भद्र वर्ग ताँगे का उपयोग करते थे। साइकल-तब आज की तरह दूध, अंडे, गोश्त मछली, साग तरकारी तथा रद्दी कागज खरीदने वाले, धोबी, कलीगर साइकलों पर चक्कर लगाते दिखाई न देते थे। साइकल रिक्शा का चलन अभी उत्तर प्रदेश में न हुआ था। साइकल खाते-पीते मध्य वित्त की सवारी समझी जाती थी जैसे आजकल स्कूटर या मोटरसाइकल
उषा पंडित साइकल पर थी तब जवान लड़की का साइकल पर सवारी करना, खासतौर पर साड़ी पहने, चौंकाने वाली बात ही नहीं, कुछ लोगों की नजर में शोखी वा चुनौती भी हो सकती थी। उन दिनों आजकल की तरह सड़कों बाज़ारों में अपने-अपने स्कूल की वर्दी या सुन्दर भड़कीले स्कर्ट, मिनी स्कर्ट, चुस्त चूड़ीदार पायजामे, बेल बाटम या साड़ी पहने पाँच-छ:, दस-बारह लड़कियों की टोलियों हँसती-बतियाती स्कूल जाती दिखायी देना आम बात न थी। उस समय इतनी लड़कियाँ स्कूल, कालेज या यूनिवर्सिटी जाती ही न थीं।
विशिष्ट वर्ग की लड़कियों के लिये तब भी कान्वेंट या अंग्रेजी स्कूल थे। इन स्कूलों की अपनी मोटर बसें थीं: बहुत व्ययसाध्य, साधारण वर्ग के लिये असाध्य नगर में साधारण वर्ग की लड़कियों के स्कूल जाने का तरीका वा पड़ोसी गली-मुहल्लों की चार-
लड़कियों को एक साथ किसी प्रांता बुलावी के संरक्षण में पाठशाला भेजना। स्कूलों की ओर से लड़कियों को ले जाने लौटाने का प्रबन्ध बैल जुते, पर्दे लगे ठेले से होता था। चौकसी के लिये ठेले में स्कूल की महरी मौजूद रहती। कुछ ठेलों को बैलों के स्थान पर विश्वस्त कहार धकेलते थे और यह कहार ठेला धकेलने के अलावा अवांछित लोगों से चौकसी भी रखते थे। तब भी दुर्घटनायें हो जाती। कभी ठेलों में प्रणय पत्रों के पुर्जे पकड़े जाते, कभी राह चलते छैले, बाकि लड़कियों की चोटी या आँचल खींच लेते। सम्पूर्ण सुरक्षा और सावधानी के
बावजूद जवान लड़कियों के स्कूल से घर न लौटने की घटना से नगर में सनसनी के अवसर बन जाते। ऐसी स्थिति में उषा पंडित घर से तीन मील साइकल पर कालेज जाती थी। साइकल पर आई० टी० कालेज जाने वाली दूसरी लड़की थी चित्रा सरगा।
बेटी को साइकल पर कालेज जाने की अनुमति देते समय पंडित सशंक और सावधान थे। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने तक उपा पन्द्रह पूरे कर चुकी थी। अपनी बिरादरी की लड़कियों की तरह फ्राक या स्कर्ट पहनती थी। कालेज के पहले वर्ष की परीक्षा तक पंडित स्वयं बेटी को अपनी साइकल के पीछे बैठाकर पहुँचाते रहे। लौटते समय आई० टी० जाकर ले आते। दूसरे वर्ष उषा ने खूब कद निकाल लिया। साड़ी पहनना चाहती और साइकल लेने की जिद्द पंडित ने बेटी को साइकल तो ले दी, परन्तु दो मास साथ जाकर कालेज पहुंचाते और लाते रहे। पिता की प्रतीक्षा उषा को खल जाती। कह देती "डैडी, अब हम बेबी नहीं हैं। जब यूनिवर्सिटी में पढ़ेंगे तब क्या होगा?"
उषा और सहपाठिन चित्रा में खूब बनती थी। आठवीं श्रेणी से साथ, जात-बिरादरी के भेद के बावजूद गहरा सहलापा, दाँतकाटी रोटी या चोली-दामन का साथा आपस में पारिवारिक गोपनीय बातें, भविष्य की कल्पनायें, खुले मजाक और चुहल चित्रा का परिवार उच्च मध्यवित्त, सम्भ्रान्त। कुछ मामलों में उदार विचार और कुछ मामलों में घोर रूद्रिवादी। पिता गवर्नमेंट एडवोकेट वे लोग पार्क रोड पर रहते थे। चित्रा घर की गाड़ी पर कालेज जाती थी। उपा की देखादेखी चित्रा ने भी साइकल ले ली। दोनों अनुमान से चलती कि बंदरिया पुल से इधर या पुल पर मेल हो जाता। कालेज तक साथ-साथ बतियाती हँसती चली जातीं। लौटना सदा साथ न होता। साथ-साथ लौटती तो हजरतगंज की तरफ से बड़े डाकखाने तक साथ रहता।
यूनिवर्सिटी के दिलफेंक जवानों को लड़कियों के कालेज जाने-लौटने के समय याद थे। झलक पाने की आशा में प्रायः यूनिवर्सिटी फाटकों के समीप फुटपाथ पर मौजूद रहते। कुछ मनचले साइकलों पर पुल से आई० टी० के चौराहे तक पीछा कर लेते। बोली ठोली, आशिकाना अन्दाज में शेरो-शायरी। लड़कियों में इन लोगों के लिये कई नाम -मजनू फुटपाथ हीरो, कलगीवाला, नवाब और मुंशी। लड़कियाँ हंसी की गुदगुदी दबाये, नजरें सामने किये पैडल मारती निकल जातीं। कालेज के फाटक के भीतर जाकर लड़कों से नये सुने फिकरों, शेरों पर टीका-टिप्पणी करतीं।
शेरवानी, टोपी, गरारेदार पायजामा पहने एक नौजवान लड़कियों को देखकर तरन्नुम से कोई गज़ल या शेर शुरू कर देता। अक्सर हसरत मोहानी का शेर
"ह्रविसे दीद मिटी है न मिटेगी हसरत
देखने के लिये चाहे उन्हें जितना देखा करें। "
या जिगर, ज़फर की कोई गजलः
लड़कियों ने उसका नाम रखा था नवाबः
"हाय, कमबख्त का गला कितना अच्छा !" नवाब कभी कोई चुभती चीज़ कह देता
तो चित्रा की साइकल धीमी होने लगती। चित्रा को काफी शेर याद थे। सरगा साहब के यहाँ साहित्यिक वातावरण था। अक्सर अदवी महफिल जमती रहती। चित्रा कोई फड़कता शेर या गज़ल सुनती तो उपा को जरूर सुनाती।
पुराने ढंग की गोल काली टोपी, पतली लम्बी मूँछें, खुले कालर का कोट और पायजामा पहने लड़के को मुंशी कहती थीं। मुंशी सिनेमाई गाने हुबहू तर्ज में उतार देने में लासानी | वह अकसर फाटक पर दिखता। लड़कियों को दूर से ही देखे गाना शुरू कर देता।
• चित्रा की साइकल ठुमकने लगती। नज़र सामने किये उषा से कहती, "तुझे कह रहा है। जवाब दे।"
"मेरी सीधी चला!" उषा भी सामने नज़र किये झुंझलाती, "खुद मरेगी और मुझे मरवायेगी।"
आई० टी० कालेज में अधिकांश छात्रायें बोर्डर होती थीं। घर से कालेज आने वाली प्राय: सम्पन्न और उदार विचार परिवारों की लड़कियों। यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों वा दूसरे लोगों की उच्छृंखलता और अभद्रता की आशंका से इन लड़कियों के परिवार उन्हें प्रायः सवारियों पर कालेज भेजते। यह लड़कियां रास्ते में कुत्तों से आतंकित बिल्लियों की तरह चुप, आहट बचाये सतर्क, सहमी रहतीं कालेज के फाटक पर चार-पाँच मिल जाती तो शेर हो जातीं।
आई० टी० कालेज में पर्दे का अनुशासन न था। लड़कियों को खेल-कूद, गाना-बजाना, नृत्य-अभिनय में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया जाता। शिष्ट विनोद-मनोरंजन पर आपत्ति न थी। मास के अन्तिम शनिवार संध्या शिक्षित ईसाई भद्र परिवार के युवकों को कालेज में आने की अनुमति रहती। अध्यापिकाओं के निरीक्षण में सम्मिलित गाने-बजाने और डांस के लिये अवसर दिया जाता, परन्तु उच्छृंखलता और अभद्रता के लिए कहा दण्ड । उस दिन प्रातः उषा पंडित का बी० ए० की परीक्षा का अंतिम पर्चा अर्थशास्त्र का था। पर्चा करके बहुत संतुष्ट, मन में उमंग पर्चे के बाद अर्थशास्त्र की टीचर मिस स्टोन से बातें। उस प्रातः चित्रा की परीक्षा न थी । उपा अकेली घर के लिये चल दी।
यूनिवर्सिटी के नौजवान भी शायद वैसे ही, परीक्षा समाप्त कर निश्चिन्त हो जाने की पुलक में यूनिवर्सिटी के बीच के फाटक पर कुछ लड़के दिखायी दिये। तीन साइकलें। उपा नै नजर सामने किये साइकल तेज़ कर ली। पीछे से सुनायी दिया:
वाह! ये शेखी।
रेस कर रही है।
बड़ जा पड़े। शाबाश!
उपा ने पीछा करती साइकलों के पहियों की सरसराहट सुनकर साइकल और तेज़ की । पुल की चढ़ाई पर उसने पैडलों पर जोर दिया। पीछे साइकले नज़दीक आने का आभास । उसने पूरा दम लगा दिया। पुल के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते दायें हाथ पीछे आती साइकल की झलक मिलने लगी। उषा ने उतराई पर भी पैडल न धीमे किये। पीछे से ललकार रह गया, रह गया जीत गयी, जीत गयी।
रेस में हारने वाले नौजवान ने खीझकर उषा की साइकल के पीछे जोर से ठोकर मार दी। उषा सम्भल न सकी। अगला पहिया मुड़कर सड़क के बायें किनारे कंकड़ों पर फिसल गया। वह गिर पड़ी, साइकल उसके ऊपर सिर लोहे के खम्भे से बहुत जोर से टकरा गया। उपा ने आँखें खोलीं तो समीप खड़ा बड़ा लड़की को गिराकर भाग जाने वालों को धिक्कार रहा था। उपा अपनी हालत से परेशान धरती पर हाथ टेक कर उठने का यत्न
किया। ऊपर साइकल का बोझ, टाँग ने साथ न दिया। पीड़ा और लज्जा से हताश दायें-बायें देख रही थी, क्या करे!
हजरतगंज से छतर मंजिल जाती एक मोटर पुल की ओर घूमकर उसके समीप रुकी। कार से उतर कर एक प्रौढ़ सज्जन उपा की ओर बड़ा। काली शेरवानी, चूड़ीदार सफेद पायजामा, सफेद गांधी टोपी, गले में वकीलों की टाई। उसके पीछे कार का ड्राइवर घटना के गवाह बूढ़े ने लड़कों को गाली और धिक्कार देकर वकील को बताया: गरीब निर्दोष लड़की को गिरा दिया भाग गये।
वकील के आदेश से ड्राइवर ने शरीर पर से साइकल उठाकर एक ओर खड़ी की। उषा के सिर पर चोट लगने से खून कान को भिगोता हुआ कंधे पर टपक रहा था।
"बेटी, उठो!" वकील ने स्वयं उषा को बाँह से पकड़कर उठने के लिये सहायता दी। वह उठ न सकी। वकील और ड्राइवर ने उषा को दोनों बाँहों से पकड़कर पीठ पीछे सहारा देकर गाड़ी की पिछली सीट पर लिटा दिया।
वकील के प्रश्न पर उषा ने पिता का नाम-धाम बता दिया। वकील ने समझाया, “बेटी, ऐसी हालत में तुरन्त हस्पताल पहुँचना लाज़िम हस्पताल यहाँ से करीब तुम्हारे पिता को और घर पर भी खबर करा देंगे।" ड्राइवर ने उषा की साइकल गाड़ी के पीछे रख ली।
वकील साहब की गाड़ी मेडिकल कालेज में इमरजेंसी ड्यूटी रूम के सामने आकर रुकी। कमरे के दरवाजे में दो जवान डाक्टर बात कर रहे थे। डाक्टरों का ध्यान गाड़ी की ओर गया। वकील को पहचान कर एक विनय से हाथ जोड़े बढ़ आया, "प्रणाम, आपने कैसे कष्ट किया?"
उन दिनों लखनऊ नगर में बिरला ही होगा जो प्रसिद्ध वकील और हिन्दू समाज के नेता तिवारी जी को न पहचानता हो किसी भी द्वन्द्व में तिवारी जी की व्यवस्था मान्य होती। उनके हुक्म से आनन-फानन में बाज़ार बन्द हो जाते और उनके संकेत पर हज़ारों लाठियाँ उठ जातीं।
तिवारी जी का ध्यान जवान डाक्टर के कपड़ों की ओर गया—खद्दर! वे स्वयं खद्दर पहनते थे। आत्मीयता से जवान के कंधे पर हाथ रखते पूछा, "बरखुरदार, यहाँ कब से हो?" डाक्टर ने तिवारी जी की दुविधा समझ आत्म-परिचय दिया, "आपका सेवक अमरनाथ आपकी कृपा से में पास हो गया है। रतनलाल सेठ मेरे पिता हैं।"
"रतनलाल सेठ, राजाबाजार वाले! अपने ही बेटे हो।" तिवारी जी ने जवान डाक्टर की पीठ थपथपायी।
"मेरे लायक हुक्म ।" अमरनाथ सेठ ने अनुरोध किया।
"हाँ बेटे, बहुत मौके से मिल गये।" तिवारी जी ने गाड़ी में लेटी लड़की की ओर संकेत कर स्थिति बतायी, “बिटिया को चोट आ गयी है। इसे सम्भालो। देखो इसे तकलीफ न हो, घबराये नहीं, अच्छे घर की बेटी है। चोट गहरी मालूम देती है। जरूरत हो तो इलाज के लिए दाखिला करवा दो। हमें तुरन्त पहुंचना है। पता पूछकर इसके पिता को घर पर भी ख़बर भिजवा दो। हम सॉझ तक तुमसे फोन पर खबर ले लेंगे। बेटे, तुम पर भरोसा कर रहे हैं, खयाल रखना।"
ड्राइवर ने उपा की साइकल उतार दी।
डाक्टर अमरनाथ सेठ ने तिवारी जी का आदेश और जिम्मेदारी स्वीकार कर तुरन्त नर्स को पुकारा। उषा को स्ट्रेचर पर उठवा कर ड्यूटी रूम में ले गया। तिवारी जी उपा को सांत्वना देकर चले गये।
• डाक्टर सेठ ने उषा को तुरन्त दो इंजेक्शन दिये, एक सड़क पर लगी चोट के कुप्रभाव के प्रति सावधानी के लिये, दूसरा चोटों की पीड़ा के शमन के लिये। सिर और कोहनी पर चोटें मामूली थीं। दवा लगाकर पट्टियाँ बाँध दीं। बायीं टॉग में जाँघ की हड्डी टूट जाने का संदेह हुआ। सहयोगी डाक्टर को बुलाकर टाँग को तखतियों के बीच पट्टियों में सीधा बाँध दिया। उपा ने पिता का परिचय दिया, "धर्मानन्द पंडित, इंगलिश टीचर, क्रिश्चियन कॉलेज । मकान कंधारीबाग गली।"
"मैं पंडित साहब का विद्यार्थी रहा हूँ उनका मुझ पर बहुत आभार।" सेठ ने आश्वासन दिया, "कोई संकोच न करें।"
अस्थि-चिकित्सा विशेषज्ञ डाक्टर द्वारा टोंग की परीक्षा और हड्डी उचित ढंग से सटाकर बाँधी जाने के लिये उपा को हस्पताल में ही रहना था। उषा यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स के लिये हस्पताल में विशेष व्यवस्था परन्तु लड़की का दूसरे विद्यार्थियों के साथ रहना उचित न होता। अमर ने जनाना सर्जिकल वार्ड के इंचार्ज से कहकर वार्ड के साइड रूम पर अस्थायी स्टूडेंट वार्ड का टिकट लगवा दिया।
हस्पताल के दफ्तर में जाकर अध्यापक धर्मानन्द पंडित के नाम क्रिश्चियन कॉलेज के पते पर और कंधारीबाग गली में घर के पते पर खबर भिजवाने की व्यवस्था कर दी।
उस समय लखनऊ मेडिकल कालेज और हस्पताल आज की तुलना में दशमांश नेत्र चिकित्सा, दाँत चिकित्सा, शिशु चिकित्सा, औषध उपचार शल्य उपचार, अस्थि चिकित्सा, छुतहा वार्ड के लिये अलग-अलग इमारत और वार्ड न थे। हस्पताल दो ही इमारतों में था, गुम्मददा इमारत जो शाहमीना रोड के समानान्तर है। तब आज की तरह सैकड़ों न न थीं। तीस-चालीस नर्से, यूरोपियन या एंग्लो-इंडियन। तब किसी मरीज को खोज लेना कठिन न होता।
पंडित ने नर्स से सहायता का अनुरोध किया, "मेरी बेटी आज दोपहर से पहले सड़क पर चोट खाकर आयी है।"
"स्टूडेंट हैं?"
"यस।"
नर्स ने समीप ही जालीदार किवाड़ खोल दिया। वार्ड से जुड़ा छोटा कमरा एक पलंग पर उषा, दूसरा पलंग खाली ।
उषा नींद में थी। सिर पर ठोड़ी के नीचे से पट्टी। बायीं बाँह पर कोहनी तक पट्टी। शरीर चादर से ढका समीप हस्पताली डोली पर काँच के गिलास में दूध, बिस्कुट का छोटा पैकेट, एक संतरा । पंडित को सांत्वना बेटी की उपेक्षा नहीं की गयी। पलंग के समीप स्टूल पर बैठ गये।
वात्सल्य से बेटी का माथा हुआ, अधिक गरम न था।
उपा ने पलकें झपकावीं । पिता को पहचाना।
"अब कैसी तबीयत है बेटी! चोट कैसे लग गयी?"
"डैडी, हम लौट रहे थे "उषा झिझकी, "पुल से उतराई पर साइकल फिसल गयी। एक वकील अपनी मोटर में यहाँ ले आये। इमरजेंसी में डाक्टर सेठ हैं। आपका स्टूडेंट था। उसने बहुत ख्याल किया। ये सब उसी ने भिजवाया। " मेज़ की ओर संकेत किया, "बायीं टॉग में दर्द है। घुटना हिलता नहीं। मम्मी से कहना, फिक्र न करें। साइकल डाक्टर ने रखवा ली है। अमित ले जायेगा।"
पंडित बेटी के पास बैठ सान्त्वना देते रहे। उपा की पलकें नींद की दवा के प्रभाव से भारी हो रही थीं। "अच्छा बेटी, क्या खाओगी? भूख लगी होगी।" पंडित ने स्नेह से पूछा। "डैडी, भूख नहीं है। अभी।"
"अच्छा तुम सो जाओ। हम कुछ देर में आयेंगे।"
पंडित को सेठ नाम का विद्यार्थी याद न आया। बीस-बाईस वर्ष से पढ़ा रहे थे। लखनऊ में भी चौदह वर्ष हो चुके थे। साक्षात्कार होने से प्राय: पहचान लेते, नाम भी याद आ जाते। इमरजेन्सी रूम की ओर जाते अनुमान कर रहे थे हमारे कालेज में बहुत बरस पहले विद्यार्थी रहा होगा।
पंडित को दरवाज़े से झाँकते देख डाक्टर सेठ कुर्सी से उठकर बाहर आ गया, "गुड ईवनिंग सर"
"गुड ईवनिंग थैंक्यू माई डियर" पंडित का स्वर स्नेह और कृतजता से गद्गद, "गॉड ब्लेस यू" नाम याद आ गया।
पंडित के कृतज्ञता प्रकाशन से सेठ ने संकोच अनुभव किया, "मास्टर साहब, यह तो मेरी ड्यूटी आप मेरे टीचर टीचर पिता समान। धन्यवाद के पात्र तिवारी जी, गणेशगंज वाले वकील साहब। वे बहिन को उस अवस्था में उठवा कर लाये। मुझ पर प्रबन्ध के लिये भरोसा किया। निश्चिन्त रहिये, मिस पंडित का पूरा खयाल रक्खा जायेगा।"
पंडित का स्वर चिन्ता से द्रवित "उषा को कोई ऐसी-वैसी चोट तो नहीं आयी है?" "चोट तो है पर खास चिन्ता की बात नहीं।" सेठ डाक्टरों की सावधान शैली में बोला, "सिर और बाँह पर मामूली खरोच । दो-तीन दिन पट्टी की जरूरत होगी। घुटने से ऊपर काफी सूजन है। कल सर्जन एक्सरे से देखकर ठीक कह सकेंगे। हो सकता है, भीतर मांस फट गया हो या फीमर फ्रेक्चर (जाँघ की हड्डी टूट गयी) हो। उसका इलाज कठिन न होगा। ऐव रह जाने की आशंका नहीं है।"
"खाने के लिये क्या ले आयें
"जो चाहें भिजवा सकते हैं। आपको हस्पताल में बने भोजन से परहेज न हो तो क्यों इतनी दूर से भेजने का कष्ट करेंगे। यूनिवर्सिटी स्टूडेंट है। आर० एम० ओ० से यूरोपियन डाइट लिखवा दी है। यूरोपियन खाना बेहतर रहता है। यूरोपियनों के लिये सब कुछ अच्छा होना ही चाहिये, हस्पताल में भी।" हँस दिया, "जरूरत के लिये मौजूद हैं। " सेठ आदर में साइकल स्टैण्ड तक पंडित के साथ गया। "मास्टर साहब, चुनाव से पहले आपके मुहल्ले में कुछ लोग कांग्रेस से बहुत आशंकित थे। उन्हें अब शिकायत है?" सेठ ने पूछा।
"अनजान लोग " पेंडित ने संकोच से कहा, "सिरफिरे या मूर्ख कहाँ नहीं होते! शिकायत उन्हें क्या हो सकती है। बदल भी क्या गया! वही सिस्टम कानून, वही अफसर मंत्री बदल गये जनता से दूर।
मेडिकल कालेज के फाटक से निकलते ही पंडित को सेठ की बात से वह घटना याद आ गयी।
चौदह महीने पूर्व, १९३७ जनवरी की बात। देश में विधान सभाओं के चुनाव उससे पूर्व भी होते थे, परन्तु तब उन चुनावों से सर्वसाधारण का कुछ सम्पर्क न होता था। उस समय चुनाव में मतदान का अधिकार केवल टैक्स मालगुज़ारी देने वालों, जमीन-जायदाद के मालिकों और उच्च शिक्षित, हजारों में एक-दो को होता था। भारतीय ब्रिटिश सरकार जनता की आत्मनिर्णय या स्वशासन की मांग को वर्षों के भयंकर दमन से भी कुचल न सकी। १९३५ में जनता को आत्म निर्णय या स्वशासन का आभास देने के लिये विधान सभाओं के मेम्बरों की संख्या बड़ा दी गयी। विधान सभाओं में मेम्बरों के चुनाव के लिये मत देने का अधिकार भी पूर्वपिक्षा अधिक लोगों को दिया गया। अब पन्द्रह रुपया लगान देने वाले या दुकान-मकान का पन्द्रह रुपया किराये देने-लेने वाले और मैट्रिक पास बी. पुरुष भी मतदान के अधिकारी हो गये। तब भी प्रति सैकड़ा दो-तीन व्यक्तियों को ही मताधिकार मिला। अलबत्ता मतदाताओं की संख्या पूर्वापेक्षा कई गुना बढ़ गयी। इसीलिये १९३७ के चुनावों के समय पहली बार जनता में सरगरमी आयी। उसी परिमाण में चुनाव की तैयारियाँ और हलचल भी वह गयी।
लखनऊ नगर में सरकारपरस्त दल की ओर से बहुत प्रभावशाली और सम्पन्न बैरिस्टर मिश्रा साहब चुनाव के मैदान में थे। कांग्रेस की ओर से सामान्य आर्थिक स्थिति के, परन्तु स्वतंत्रता आन्दोलन में कई बार जेल जा चुके और जाने माने जनसेवी गुप्ता जी। ब्रिटिश सरकार और सरकारपरस्त लोगों का दावा था: कांग्रेस देश के बहुमत की प्रतिनिधि नहीं. कुछ उग्र लोगों का संगठन है। देश की सर्वसाधारण जनता को ब्रिटिश सरकार पर भरोसा और विश्वास है। इस विवाद का निर्णय चुनाव के परिणाम पर निर्भर था। चुनाव में दोनों पक्ष अपनी पूरी शक्ति लगा रहे थे। कांग्रेस की ओर से मुहल्ले मुहल्ले सभा द्वारा देशभक्ति की भावना जगाकर और विदेशी गुलामी के विरुद्ध वोट देकर विदेशी सरकार को परास्त करने के लिये ललकारा जाता। सूर्योदय से पूर्व गली-गली में प्रभातफेरी से देश के मान्य नेताओं के संदेश याद दिलाये जाते।
कड़े जाड़ों की सुबह का घना कोहरा पौ फटते-फटते कांग्रेस स्वयंसेवकों की प्रभातफेरी की टोली कैंट रोड से कंधारीबाग गली में आयी। टोली के आगे एक स्वयंसेवक हाथ में चरखा चिन्ह का तिरंगा झण्डा उठाये था। गली से गुजरते गुजरते टोली ने देशभक्ति के दो पद गाये
उठो सोने वालो सबेरा हुआ है.
वतन के फकीरों का फेरा हुआ है।
झण्डा ऊँचा रहे हमारा
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
भारत माता की जय! महात्मा गांधी की जय! भगतसिंह की जय! इन्कलाब
जिन्दाबाद! विदेशी गुलामी का नाश हो।
"बुजुर्गों, भाइयो, माताओं, बहनो देश की आजादी के लिये जान देने वाले शहीदों को
याद रखो। कांग्रेस देश की आजादी की सेना है। गरीबों की रोजी-रोटी के लिये चुनाव के अखाड़े में अपना वोट कांग्रेस के उम्मीदवार जनसेवक गुप्ता जी को देकर विदेशी सरकार को धूल चटा दीजिये। इन्कलाब जिन्दाबाद!"
आधी गली लाँघकर टोली ने फिर गीत आरम्भ किया। गीत गाती टोली विसेशरनाथ रोड की ओर बढ़ने लगी।
“शटप! बांचो!'' यू सनोबिच गेट आउट !
धमकियां और पुकारें।
"रॉबिन' 'हो रॉबिन! पीटर कमान! काला लोग को!"
माचो यू ब्लडी स्वाइन!" ऊँची आवाज में
गली में काला गुण्डा चोर लोग! मारो
दूसरी आवाजें चोर ! चोर! कौन है! पकड़ो! फटाक फटाक किवाड़ खुलने की आहटें । लकड़ियों की खटाखट
टोली के बीच ईंट का एक रोड़ा आ पड़ा। स्वयंसेवक सहम गये। फिर एक चैले का टुकड़ा। स्वयंसेवकों में भगदड़ एक ने पुकारा, "साथियो, ठहरो ठहरो भागो नहीं।" अपनी ओर दौड़ते कदमों की आहट पाकर वह भी भाग खड़ा हुआ।
गली में तीन-चार आदमी निकल आये। दरवाज़े खिड़कियों से औरतें झाँकने लगीं। "डैम काला फकिन गुण्डा लोग स्ट्रीट में हल्ला करेगा! टुम ब्लडी बांचो चुप डेकेगा!" किम ग्रोव क्रोध में बड़बड़ा रहा था, "गुण्डा बीफ इडर चोरी करेगा, टुमारा औरट का फक करेगा, टुम चुप डेकेगा! अम गुण्डा लोग का माचो ईंटा मार-मार हटाया। "
"अरे साब हम तोर बोल सुना, हम दौड़ा एकदम।" रेल वर्कशाप का खरादी रॉबिन किम के पास आकर बोला, “साब, तुम हुक्म बोलो! हम साला ई सब बहन चोदन का मुँह फोड देई । "
बिजलीघर वाले पीटर ने हाथ में लिया चैला दिखाया, "साहब, इधर किसी गुण्डा को आने का आर्डर ना है। जो आयगा हम माचो की टाँग तोड़ देगा।"
जेन ने किवाड़ न खोले अपनी कोठरी की खिड़की के जंगले के पीछे से आतंक प्रकट किया, "हाय कैसा जुलुम काला लोग का भीड़ क्रिश्चियन की गली में बदमासी को आयेगी। इधर वर्तन- भाँडा, कपड़ा चोरी करेगा, लड़की औरत लेडी लोग का बेइज्जती करेगा। किम साब, तुम अफसर लोग को बोलो, इहाँ गली में दू-चार हो सिपाही होना चाही।"
दो-चार लोगों का समर्थन पाकर किम का क्षोभ और उत्तेजना बढ़े। उसने और ऊँचे ललकारा, “ए सब गांडी का ब्लडी गुण्डा बागी लोग ए फकिन इंडियन मैजिस्ट्रेट एस ०. पी० साला गांडू कुच नई ! बहमास लोग का कण्ट्रोल करने नई सकटा। हम आर्मी मैन, हमको कमाण्ड डेंगा!'' हम सब माचो गुण्डा का व्हिपिंग करेगा। साला को एकडम फकिन मशीनगन फट फट फट बैटज ऑल!"
किम का क्षोभ बढ़ता गया। वही बात बार-बार कुछ बढ़ाकर और अधिक गालियों, फूहड़ रेलवाई बोली और एंग्लो इंडियन अंग्रेजी में दूसरे लोग सरदी के कारण अपनी कोठरियों में हो गये। सुनने वालों के अभाव में किम अपने पराक्रम का समाचार बिसेशरनाथ रोड की और देने के लिये बढ़ गया। प्राइमरी की अध्यापिका मिसेज़ बान, टेलर मास्टर फॉस्टर ने सराहना से उसका समर्थन किया, "क्रिश्चियन लोग का कालोनी में बागी लोग आने का काम नहीं।"
कुछ ईसाई इस देश में अंग्रेजी सरकार को ईसाई सल्तनत समझते थे। उनके विचार में अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादारी ईसाइयों का धार्मिक कर्तव्य। गली के उस भाग में टेलर मास्टर फॉस्टर की राय प्रमाण मानी जाती थी। फॉस्टर और मिसेज़ दान कहते थे जो लोग ईसा की शरण में आकर भी अपने नामों के साथ हिन्दू-मुस्लिम जात-पाँत के नाम दुबे, सिंह, चौहान, पंडित, चटर्जी, खान, शेख लगाये हुए हैं, वे हृदय से ईसाई नहीं। सब ईसाई समान हैं, सब ईस की भेड़ें। ईसाइयों में चौबे, ठाकुर, खान, शेख, पंडित का क्या भेद? - मिसेज़ बान और मास्टर फॉस्टर को ऐसे लोगों की राजभक्ति में भी सन्देह ये लोग रंगे सियार। ईसाई सल्तनत की कृपा से लाभ उठाने के लिये ईसाई बने हुए काला दिन हिन्दू- मुसलमान लोग। अंग्रेजी राज के खिलाफ कांग्रेस के साथ।
किम ग्रोव मास्टर फॉस्टर और मिसेज़ बान से सहमत था। फॉस्टर और मिसेज़ बान अपनी बात दबे स्वर में कहते थे। किम ऐसे ट्रेटर्स को निधड़क गाली देता था, आल ब्लडी ब्लैकी काला लोग, सनोविच बागी है। आई रिपोर्ट टु पुलिस ऑल साला टू जेल
फार लाइफ किम को गली के पूर्वी भाग में अपने पौरुष के बखान से सन्तोष न हुआ। अपने फटे कम्बल में ठिठुरने की अपेक्षा गली में बकते -बड़बड़ाते फिरने में उत्तेजना की गरमी । वह केंट रोड की ओर चल दिया। गली के इस भाग में केवल मिस्टर सिंह से उसकी 'हलो' किम पुकार लेता, "हलो मिस्टर सींगा "
सिंह मुस्करा देता "हलो कैप्टन किम ग्रोव" कभी "कैप्टन गोटा"
किम दाँत दिखा देता, "हा. हा. यू ब्लडी जोली फेलो!"
सिंह के मकान के सामने खमीरा तम्बाकू सुलगने की सोंधी गंध और सुबह के सन्नाटे में हुक्के की गुड़गुड़ाहट। सिंह सूर्योदय से कुछ पूर्व उठ जाते। एक मग गर्म चाय लेकर हुका सुलगा लेते। सिंह के जगे होने के अनुमान से किम ने पुकारा, "हलो सींग, गुड मार्निंग।” गुड मार्निंग कैप्टन ग्रोव व्हाट न्यूज?" सिंह ने बन्द किवाड़ों के भीतर से किस को उत्तर दिया।
किम ने गुण्डा बागी लोग को मार-मार कर भगा देने के अपने पराक्रम का बखान ऊँचे स्वर में दोहराया।
"ओ कैप्टन, यू आर ब्रेव! रियल यूरोपियन ब्लड।" सिंह ने सराहना की।
किम ने कनखियों से दूसरी तरफ पंडित के मकान की ओर देखा, “आई तो द ब्लडी बास्टर्ड्स काल्ड गुण्डा हियर आई रिपोर्ट टु पुलिस।"
किम पंडित परिवार से नाराज़ था। उसके कई कारण पंडित किम की अश्लील भाषा और भाव-भंगी के कारण उसे मुँह न लगाते। किम को कहीं भी कोई लड़की-खी दिखायी दे जाती, उसे तोल-अन्दाज़ की नज़र से देख उसके उपभोग के बारे में नाम दिये बिना न रहता। उषा उससे ऐसी हकारत से बचकर निकलती, जैसे रास्ते में कीचड़ में लिखड़ा सुअर खड़ा हो। किम को पंडित परिवार से सैद्धान्तिक शिकायत भी थी। पंडित के यहाँ कई 'हिन्दू-मुसलमान काला लोग आते और देसी ढंग का गाना-बजाना होता।
किम ग्रोव के रूप-रंग से यूरोपियन तिहाई चौथाई दोगला होने का अन्दाज़ हो सकता
था। उसके यूरोपियन होने में संदेह प्रकट करने से वह बौखला उठता, "आई एम ब्लडी रियल फकिन ब्रिटिश ब्लड इन जेल, गवर्नमेन्ट पुट मी इन ब्लडी यूरोपियन वैरक।"
किम के परिचय के लिये जेल में उसके यूरोपियन बैरक में प्रवास, कैप्टन उपाधि, उपनाम गोट और कंधारीबाग गली से उसके सम्बन्ध का संक्षिप्त उल्लेख सहायक होगा। किम ग्रोव का पिता हार्डी ग्रोव रेलवे वर्कशाप में चार्जमैन था। पहले महायुद्ध से पूर्व रिटायर हो गया।
उस समय एंग्लो-इंडियन और ईसाई लोग अंग्रेजी सरकार के समीपी और कृपापात्र हाकिम अकसर अंग्रेज होते। हाकिम का हुक्म ही कानून। गदर के बाद कंधारीबाग और लालबाग में बहुत बड़ी ज़मीन मिशन को स्कूल और गिरजे के लिये दे दी गयी थी। दलित वर्ग के अनेक लोग ईस की शरण ले लेने पर असहिष्णु लोगों से पृथक वहाँ आ बसे थे। उत्तर-पूर्व की ओर आठ सौ वर्गगज़ ज़मीन का टुकड़ा यूरेशियन हार्डी ग्रोव ने ब्रिटिश मैथोडिस्ट चर्च के पादरी साहब की कृपा से मकान बनाने के लिये पचास रुपये में खरीद लिया था।
'थे।
हार्डी ग्रोव ने कच्ची ईंट की दीवारों पर खपरैल की छत डालकर बँगला बना लिया। कुछ मुर्गियों पाल लीं। समीप बस्ती के लोग हार्डी साहब को मानते थे। हार्डी सरकार की जात का था और उसकी सिफारिश से कई पड़ोसियों को रेलवे वर्कशाप में काम मिल जाता। किम ग्रोव को भी वर्कशाप में काम मिल गया था। पहले युद्ध के अंत में हार्डी ग्रोव की मृत्यु हो गयी। पत्नी उससे पूर्व स्वर्गवासी ।
किम को अठारह उन्नीस की उम्र से ही आवारगी और नशे का शौक। पिता की मृत्यु के बाद बिलकुल बेलिहाज़, बेलगाम, बेपरवाह आंधी-पानी में मकान की छत के परेल बिखरते गये। बौछारों से कच्ची दीवारें धुलती गयीं। किम ग्रोव मकान मरम्मत की चिन्ता क्या करता! नशे-पानी का खर्च ही पूरा न हो पाता। किम को परवाह भी न थी, बस, रात लेट रहने के लिये जगह चाहिये थी। अधिक बरसात या सर्दी में उसकी रात हौली, ताड़ीखाने में या चवनी अठन्नी में रात भर वाली जगहों में बीत जाती । गली के पीटर, रॉबिन, गौस उसके लड़कपन के साथी और अब नशे पानी और जवानी के शौक में सहायक और साझी। तीनों चारों नशे के लिये बैठ जाते तो होड़ में उठने लायक न रहते। सन् '३० की बात उस साँझ बर्कशाप में पगार बंटी किम, रॉबिन और गौस आलमबाग की एक हौली में बैठ गये। महुए के कई-कई चुक्कड़ और कलेजी-पकौड़ी के कई पत्ते लेते-लेते रति प्रसंग शुरू किम को तत्काल पौरूष का उद्वेग आलमबाग में ऐसी कोठरियों से परिचित थे। उन दिनों उस भाग में सड़कों-गलियों में रात में रोशनी का प्रबन्ध न था। साँझ का घना अँधेरा और मस्तिष्क में महुए का धुंधा गली रास्ता भटक गये। किम अति आवेग में विलम्ब से बौखला उठा। पैंट के रहे सहे बटन टूटे जा रहे थे। तभी किस्मत, की मारी एक बकरी रस्सी तुड़ाकर घूमती दिखायी दे गयी। नशे के प्रयोग में किम समदर्शी; ठर्रा - भाँग गाँजा मादक कुछ भी अग्राह्य नहीं। नशे की परमावस्था में रति कर्म में आत्मवत् सर्वभूतेषु - दो पाये चौपाये तक के भेदभाव से मुक्त। किम ने लपक कर बकरी की पूँछ पकड़ ली। किम की ललकार से रॉबिन और गौस ने बकरी को कानों से रोक लिया। किम को अँधेरे में भटकने की जरूरत न रही।
किस्मत से आलमबाग पुलिस चौकी का दारोगा दो सिपाहियों के साथ उधर आ निकला। दारोगा ने कुकर्मियों को अमानुषिक जघन्यता के लिये गाली देकर डौटा। सिपाहियों ने उन्हें दो-चार ठोकर थप्पड़ से दुत्कार कर भगा देना चाहा। किम का यूरोपियन रक्त, तिस पर गहरा नशा काले आदमी से गाली और थप्पड़ कैसे सह लेता! किम ने डबल अंग्रेजी - हिंदुस्तानी गाली देकर ललकारा, "यू ब्लडी फकिन काला सनोविच, अम माचो गोट का फक करता। अपना मदर-वाइफ को लाओ, हम उसको ।"
दारोगा को उस समय उस स्थान में किसी अंग्रेज अफसर की नज़र की आशंका न थी। किम और उसके दोनों साथी सिपाहियों और दारोगा के बूटों की ठोकरों और इण्डों की मार से धरती पर गिर पड़े। गिरते पड़ते चौकी पहुंचे। मार ऐसी कि किम का नशा हिरन उसने घिघियाकर क्षमा भिक्षा के लिये काले आदमी के जूते चूम लिये, "पार्डन सर, क्राइस्ट सेक गॉड से पार्डन खुडा का वास्ते माफी ।" रॉबिन और गौस अपनी जेब में बची पगार सिपाहियों के पाँव पर रखकर आधी रात में छूट गये। दारोगा ने किम को नहीं छोड़ा। अंग्रेज सरकार के बनाये ताजीरात हिन्द दफा ३७७ में उसका चालान कर दिया। अदालत से किम को पशु से बलात्कार के अपराध में दो वर्ष कड़ी जेल की सजा ।
रेलवे वर्कशाप के रजिस्टर में किम ग्रोव की नेशनेलिटी एंग्लो-इंडियन दर्ज थी। कंधारीबाग गली के समीप ब्रिटिश मेथोडिस्ट गिरजे के पादरी की सिफारिश ने सहायता की। एंग्लो-इंडियन कैदी का साधारण हिंदुस्तानी कैदियों के बीच रखा जाना ब्रिटिश रक्त के अंश - जितना भी रहा हो—के सम्मान के प्रतिकूला किम ग्रोव को जेल काटने के लिये नैनी सेन्ट्रल जेल की यूरोपियन एण्ड एंग्लो-इंडियन बैरक में भेज दिया गया। किम ने जेल तो काटी परन्तु उसे यूरोपियन होने की सनद मिल गयी।
जेल में किम का यूरोपियन रक्त का दावा और अहंकार बढ़ गया। उस समय नैनी जेल में नमक सत्याग्रह के राजनीतिक कैदी बड़ी संख्या में थे। राजनीतिक अपराधी, सी क्लास के हिन्दुस्तानी कैदी जेल की वर्दी के रूप में पाते दुसूती का आधी आस्तीन का कमर तक कुर्ता, घुटनों तक जाँघिया। नंगे पाँवा नाश्ते के लिये अधुना अधभुना चना। दोपहर-संध्या खाने के लिये गेहूं, चना, बाजरा, मिट्टी मिली टुकड़े-टुकड़े बिखरती चपातियाँ और दाल का काला पानी या उबली हुई चौलाई गोभी के पत्तों की तरकारी जेबकटी, जालसाजी, चोरी और कम उम्र के बालक-बालिकाओं और पशुओं से बलात्कार के अपराधी यूरोपियन एंग्लो- इंडियन कैदियों को वर्दी के रूप में मोटे कपड़े के कमीज जाँघिया के अलावा कोट- पतलून और फौजी बूट दिये जाते खाने के लिये डबलरोटी, मक्खन, दूध, गोश्त, आलू, मसूर की दाल और सब्जी यह दूसरी बात कि किम ग्रोव और उसके साथी यूरोपियन बैरक में मक्खन रोटी, दूध-गोश्त पाकर भी यह चीजें खा न सकते। किम और उसके विशिष्ट यूरोपियन एंग्लो-इंडियन साथी नशे पानी के बिना रह न सकते। जेल का अपना बाजार होता। यूरोपियन कैदी अपना मक्खन- दूध, डबलरोटी, गोश्व दूसरे कैदियों को देकर बदले मैं दो-दो बण्डल बीड़ी और जेल की सी क्लास खुराक लेकर निर्वाह करते। ब्रिटिश शासन- व्यवस्था के न्याय से वे सभ्य और विशिष्ट थे, अहिंसात्मक राजनीतिक आन्दोलन करने वाले हिंदुस्तानी असभ्य बागी गुण्डे
किम ग्रोव कैप्टन और आर्मी मैन भी था। पहले महायुद्ध के समय किम की आयु बीस
वर्ष हो गयी। सरकार ने संकटकालीन स्थितियों की तैयारी के लिये देश में सभी यूरोपियन, एंग्लो-इंडियन और विशेष राजभक्त परिवारों के युवकों को होमगार्ड्स और टेरीटोरियल सेना के रूप में सैनिक शिक्षा देने की व्यवस्था की थी। उस समय किम ने भी तीन मास सप्ताह में दो बार मिलिटरी ड्रिल की थी।
किम ग्रोव जेल से लौटा तो उसके पिता का बनाया कच्ची ईंट और खपरैल का मकान गिर चुका था। जेल से लौटने पर उसकी रेलवे वर्कशाप की नौकरी जाती रही। कंधारीबाग गली से उसका सम्बन्ध कौन तोह सकता था। यहाँ उसकी सम्पत्ति थी, ज़मीन और गिरे मकान का मलबा । उसकी खाली ज़मीन पर एक घोसी ने झोपड़ी डालकर चार भैंसें बाँध ली थीं। घोसी ने गरीबपरवर साहब के सामने हाथ जोड़कर उसकी धरती का किराया चार रुपया मासिक देना स्वीकार कर लिया। एंडी और उसके बेटे रॉबिन को रेलवे वर्कशाप में हार्डी ग्रोव ने नौकरी दिलायी थी। एंडी दस बरस पहले जन्नत नसीब हो चुका था। रॉबिन अब भी किम का एहसान मानता। उसके मकान में तीन कोठरियाँ थीं। एक में किम के लिये चटाई डाल दी।
कंधारीबाग लेन में कांग्रेस की प्रभातफेरी पर हमले का समाचार कांग्रेस की चुनाव प्रचार कमेटी के दफ्तर में अतिरंजित रूप में पहुँचा। नगर के किसी भी भाग में प्रभातफेरी पर हमला और स्वयंसेवकों का मार खाकर या भय से भाग जाना दोनों स्थितियाँ चिन्ताजनक थीं। घटना का कुप्रभाव अन्य गली-मुहल्लों पर भी सम्भव कांग्रेस की प्रतिष्ठा का प्रश्न। चुनाव प्रचार कमेटी को कैसरबाग के डाक्टर दास और मेडिकल कालेज के डाक्टर जायसवाल भी सहयोग दे रहे थे। डाक्टर दास और डाक्टर मदनसिंह चौहान सहपाठी थे। डाक्टर चौहान का पैथोलॉजी का क्लिनिक और रिहाईश केंट रोड पर कंधारीबाग गली के शुरू में थे। डाक्टर दास अपने मरीजों को मूत्र रक्त की परीक्षा के लिये डाक्टर चौहान के यहाँ भेजते। डाक्टर चौहान से डाक्टर दास दो दिन पूर्व बात कर चुके थे तुम्हारे और तुम्हारे पड़ोस के वोट गुप्ता को मिलने चाहिये। हमारा तुम्हारा दुख-दर्द गुप्ता जैसा आदमी ही जानेगा। उसका न घर-बार, न कारोबार। उसकी जिन्दगी लोकसेवा के लिये। बैरिस्टर मिश्रा को तो गवर्नर के दरबार की कुर्सी से मतलब अंग्रेज की ठकुरसुहाती करेगा। अभी रायबहादुर है, सर बन जायेगा।
डाक्टर दास ने कांग्रेस चुनाव प्रचार कमेटी के मंत्री, राजाबाजार के हरिकृष्ण भाई को आश्वासन दिया डाक्टर चौहान उसी गली में हैं। साँझ उसके यहाँ चले चलेंगे । हरि भैया इतने से संतुष्ट न हुए। उन्होंने कांग्रेस के सहायक कुछ युवकों को भी अवसर के लिये तैयार कर लिया।
कंधारीबाग गली में प्रभातफेरी से झमेला शनिवार प्रातः हुआ था। शनिवार संध्या मिस्टर पंडित संगीत का रस लेते थे। किसी संगीतप्रेमी मित्र के यहां चले जाते या उनके यहाँ ही बैठक जमती मिस्टर सिंह और उनके बेटे वीरेन्द्रसिंह को भी संगीत में रुचि। पंडित के प्रोत्साहन से बीरेन्द्रसिंह संध्या म्यूजिक कालेज जाने लगा था। तबले पर अच्छी संगत देता। उनके यहाँ तबले की जोड़ी थी, पंडित के यहाँ तानपूरा और हारमोनियम । पंडित किसी उस्ताद को भी बुला लेते। डाक्टर चौहान भी कभी कुछ समय बैठते। गली के कुछ लोगों को पंडित के यहाँ हिन्दुस्तानी गाना बजाना नापसन्द प्राइमरी की मुख्याध्यापिका मिस जून, टेलर मास्टर फॉस्टर, मिसेज़ बान और किम ग्रोव हिन्दुस्तानी गाने-बजाने को अनक्रिश्चियन, वल्गर म्यूज़िक कहते थे।
संध्या बैठक से मेज़ कुर्सी और बेंत का सोफा निकालकर दरी, गद्दे और सफेद चादरें बिछा दी गयीं। घसियारी मण्डी के उस्ताद मुझे खों आये थे। बैठक जमने से पहले उस्ताद की खिदमत में चाय, पान, जर्दा और बीड़ी हॉज़िर किये गये।
पंडित बड़ी बेटी और बेटे को भी संगीत के लिये प्रेरणा दे उत्साहित करते रहते थे। उषा का गला अच्छा था। ताल-गुर की भी कुछ समझ परन्तु साधना के लिये लगन नहीं। सुनने के लिये बैठ जाती । वीरेन्द्र तबले और तानपूरे को सुर में बैठा रहा था कि दरवाज़े की चित्र उठा। चौहान के नौकर ने ऑककर कहा, "डाक्टर साहब आ रहे हैं।"
शीघ्र ही चौहान आ गये। उनके साथ डाक्टर दास और पंडित के लिये एक अपरिचित सज्जन सफेद गांधी टोपी और शाल ओढ़े और एक जवान डाक्टर दास ऊनी खद्दर के बन्द गले के कोट- पतलून में थे, वैसे ही जवान भी।
"मुआफी चाहते हैं प्रोफेसर साहब, हम लोग बहुत बेवक्त आ गये।" डाक्टर दास ने पंडित से क्षमा चाही।
“आइये तशरीफ लाइये। वेवक्त क्या है?" पंडित के साथ दूसरे लोग भी अभ्यागतों के स्वागत में खड़े हो रहे थे। "नीचे बैठने में परेशानी होगी अमित कुर्सियों ।"
पंडित कह रहे थे कि डाक्टर दास अप्प से नीचे बिछी चादर पर बैठकर जोर से हँसे, "साहब, संगीत का रंग कहीं कुर्सियों पर जमता है!" दास ने चौहान को भी हाथ से खींचकर बैठा दिया।
डाक्टर चौहान ने परिचय कराया, "प्रोफेसर पंडित, बेटी उषा, उस्ताद मुझे खाँ मिस्टर सिंह, वीरेन्द्र । डाक्टर दास को तो आप सब लोग जानते ही हैं। यह हरिकृष्ण भाई, नगर कांग्रेस चुनाव कमेटी के सेक्रेटरी। यह है डाक्टर सेठा"
जवान डाक्टर सेठ ने पंडित की ओर झुककर सलाम का संकेत किया, "आपका पुराना स्टूडेंट!"
पंडित मुस्करा दिये। खेह से स्पर्श कर कंधा थपथपाया। मौसम के विचार से पंडित अतिथियों को चाय पेश करना चाहते थे। डाक्टर दास और अन्य अतिथियों ने भी दोनों हाथ उठाकर इन्कार किया, "नहीं नहीं, हम लोग दस मिनट से ज्यादा आपका समय नहीं लेंगे।"
डाक्टर दास बोले, “हाँ, कहो भाई चौहान, सुबह गली में क्या झगड़ा हो गया?" चौहान ने सिंह और पंडित की ओर देखा, "हमें तो कुछ पता नहीं चला। हरिकृष्ण भाई और डाक्टर साहब ने शिकायत सुनी है कि सुबह इस गली में कांग्रेस वालंटियरों से कुछ झगड़ा हो गया।"
“झगड़ा क्या, " हरि भैया बोले, "वालंटियर लोग प्रभातफेरी कर रहे थे। बीस-पचीस आदमी लकड़ी लाठी लेकर उन पर टूट पड़े।"
"बीस-पच्चीस! ऐसे कौन लठेत हैं गली में!" सिंह ने विस्मय प्रकट किया।
"कुछ नहीं साहब, वीरेन्द्र बोला, "वह गोरवा किम गाली बका का था। उसने दो- चार ठीकरे- बीकरे फेंके होंगे। वालंटियर भाग गये। हैरन के दरवाज़े के सामने ही तो सब
हुआ। उसी ने हमें बताया। किम चिल्लाया, चोर-चोर। दो-तीन आदमी निकल आये, बस! गोरवा खामुखा शेखी हाँकता फिरता है। हमारे दरवाज़े पर भी बकझक गया।"
"वह ताड़ी-गांजे का मारा अपाहिज " सिंह बोले, “वह क्या लाठी चलायेगा?" खैर, होगा। प्रभातफेरी से गली के लोगों को एतराज क्या है?" हरि भैया ने पूछा, प्रभातफेरी सब गली-मुहल्लों में होती है। कांग्रेस स्वयंसेवक इतना ही तो कहते हैं आप लोग अपना वोट गरीब-गुरबा का दर्द समझने वालों को दीजिये। कोई धमकी, गाली- गलौज करते नहीं।"
"एतराज किसी को कुछ नहीं है। यहाँ वोट ही कितने लोगों का है।" सिंह ने चौहान की ओर देखा, "इस सिरे पर चार-पाँच आप हम लोग गली में दूसरी तरफ मास्टरनी मिस जून और दो क्लर्क, बसा बाकी लोगों का वोट ही नहीं। वे क्या जाने वोट किस चिड़िया का नाम।"
"ये ससुर डोम चमार पासी कल तक झींगू-महेंगू थे, सब जॉन हॉब-कॉक बन गये तो समझते हैं अंग्रेज की सल्तनत इन्हीं के बूते खड़ी है।" पिता के समर्थन में वीरेन्द्र बोला, “उस मदकची किम की तिट्टी में आ गये।"
“आप फिक्र न कीजिये, हम लोग समझा देंगे।" सिंह ने आश्वासन दिया।
"तो ठीक है हरि भाई।" घड़ी पर नज़र डाल डाक्टर दास बोले, "अब इन लोगों का रंग जमने दीजिये। इबादत और सोहबत में मुखिल होना गुनाह ।" वे जोर से हँस दिये, "अपनी किस्मत में यह सब कहाँ!"
"आप लोग जिम्मा ले रहे हैं तो ठीक ही है।” हरि भाई दोनों हाथ जोड़ बोले, "कांग्रेस को अपने लिये कुछ माँगना लेना नहीं। भाई साहब, कांग्रेस तो पब्लिक जनता की आवाज, आपकी आवाज। कल सुबह प्रभातफेरी के लिये यह लोग आयेंगे।" उन्होंने सेठ के कंधे पर हाथ रखा, "लाठी बरसे, पत्थर बरसे, यह लोग तो भागेंगे नहीं। बाकी आप जानिये।"
बैठक में अपरिचित मेहमानों के आ जाने से उपा उठ जाना चाहती थी परन्तु सिंह और वीरेन्द्र भीतर कमरे के दरवाज़े के सामने हो गये थे। रास्ता रुक गया था। वह सरक कर पिता के पीछे दीवार के साथ सिमिट गयी। बात-चीत सुनती इधर-उधर देख रही थी। नौजवान का कद काठ, चेहरा आकर्षक। आने वालों में वही एक जवान उषा की नज़र कई बार उसकी ओर घूम गयी। जवान उषा को देखकर भी नजरें बचाये। उपा जानती थी. हिन्दू-मुसलमान पुरुष स्त्रियों-लड़कियों का पर्दे में रहना उचित समझकर उनकी और न देखना शिष्टाचार मानते हैं। उसके अपने परिवार, बिरादरी की धारणा और आई० टी० की संस्कृति के विचार से ऐसा संकोच फूहड़पन ।
हरि भैया ने सेठ के कंधे पर हाथ रखकर जब कहा लाठी बरसे, पत्थर बरसे, यह लोग तो भागेंगे नहीं, उपा की नज़र जवान की ओर उठी हाय, ये मार खायेगा ! उस्ताद मुझे खाँ के लिये अमित पान ज़र्दा, बीड़ी ले आया था। साथ के कमरे में उपन्यास लेकर आराम कुर्सी पर कम्बल ओड़ बैठा हुआ था। उसे संगीत की महफिल के प्रति आकर्षण न था। पिता की पुकार सुनकर दरवाज़े पर गया। बातचीत सुनने के लिये खड़ा
रहा।
डाक्टर दास, हरि भाई और जवान को सड़क तक पहुँचाकर डाक्टर चौहान बैठक में लौट आये। मिस्टर सिंह की राय से तय हुआ गली के उस भाग से मास्टर याकूब और चौधरी लूघर को समझा दिया जाये।
चौहान के अनुरोध से पंडित ने अमित को बुलाकर कहा, "अमित प्लीज़, जरा मास्टर याकूब और चौधरी लूथर के दरवाजे तक चले जाओ। मिस्टर सिंह, डाक्टर साहब का और हमारा सलाम कहना। उन्हें तकलीफ न हो तो दो मिनट के लिये यहाँ डाक्टर साहब की बात सुन जायें।"
वीरेन्द्र की ओर देखकर पंडित का चेहरा गम्भीर हो गया। ओभ से बोले, "एक्सक्यूज़ मी मिस्टर वीरेन्द्र ! ससुर डोम चमार पासी, कल तक के झींगू-महेंगू साहब बन गये इसके क्या मायने? इज इट क्रिश्चियन एटीट्यूड?"
"नो नो सर्टेनली नॉट इट इज रांग, कुएल एण्ड अनक्रिश्चियन। " चौहान ने पंडित का समर्थन किया।
"यस इट इज रांग।" सिंह को भी कहना पड़ा।
“आई एम सॉरी, मास्टर साहबा" वीरेन्द्र ने क्षमा माँगी, "मुँह से निकल गया। आई अपोलोजाइजा
"मुँह से निकल गया, क्योंकि संस्कार गहरे बैठे हुए हैं।" पंडित फिर बोले।
“सर, आई एम सॉरी आई डोंट मीन इट मुँह से निकल गया।" वीरेन्द्र ने फिर क्षमा चाही।
"यू आर सॉरी, आई नो।" पंडित ओभ वश में न कर पा रहे थे, "दे आर नॉट रांग " उस्ताद की उपस्थिति का खयाल कर उर्दू में बोले, "उन लोगों का खयाल क्या गलत? अंग्रेजी राज के इन्साफ और रक्षा के बिना उन लोगों को इन्सानों की ज़िन्दगी नसीब न हो सकती। उनका खौफ बेमानी नहीं कि हिन्दुस्तानियों के राज में उनकी ज़िन्दगी कुत्ते-बिल्ली से बदतर हो जायेगी। इस खौफ से वे लोग हिन्दुस्तानियों के भाई बनने के बजाय अंग्रेजों के कुत्ते बनना बेहतर समझें तो उनका क्या कसूर? जो मुल्क और सोसाइटी मुझे नापाक और घिनौना समझे, मेरे लिये जहनुम से बदतर मेरा उससे बड़ा दुश्मन कौन! मैं ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। ये लोग तो बहुत बर्दाश्त कर रहे हैं। "
"अकसर बेखवरी में सुनी बातें जवान से निकल जाती हैं।" सिंह ने बेटे की ओर से खेद प्रकट किया।
"सिंह साहब, आप सही कह रहे हैं। अकेले वीरेन्द्र से शिकायत नहीं है।" पंडित बोले, “यह उसकी पर्सनल राय नहीं। इस मुल्क की ज़हनियत है, इस मुल्क का सोशल सिस्टम है। वह सौ बार दूसरों से सुनता है, एक बार उसके मुँह से निकल गया। इन्सान से उसका इन्सानी हक छीन लेने से बड़ा गुनाह क्या हो सकता है। पूरा मुल्क इस गुनाह की सजा भुगत रहा है और अभी भुगतेगा। बदकिस्मती यह कि हिंदुस्तानी कोई भी मजहब अख्तियार कर ले, ऊँच-नीच और जात-पाँत का वहम नहीं टूटता।"
"परोफेसर साहब ने बजा फर्माया।" उस्ताद मुझे खाँ बीडी का टूर्रा प्लेट में दबाते हुए बोले, "रमूलेअल्ला वलेसलम का हुक्म है-परवरदिगार ने सब बनी नौ इन्साफ बराबर पैदा किये हैं। ऊँच-नीच जात का खयाल गुनाह है।"
"उस्ताद, कहने को तो हिंदुओं की किताबें कहती हैं," पंडित बोले, "आत्मवत् सर्वभूतेषु
यानी कायनात में जो कुछ जिन्दा है, इन्सान से लेकर कीड़े पतंगे तक सबकी रूह एक सा सबके दर्द को अपना दर्द समझो, लेकिन अमल हम सबका क्या है?"
अमित रेलवे वर्कशाप के खरादिये लूथर और शु मेकर मास्टर याकूब को बुला लाया। पंडित और चौहान ने उन्हें महफिल में बैठा लिया।
“क्यों भाई मास्टर, तुम्हारे पड़ोसियों ने सुबह क्या बाबेला कर दिया?" डाक्टर चौहान ने दोनों की ओर देखा, "शिकायत आयी है कि सुबह कांग्रेस वाले आये तो गली में लोगों ने गालियाँ बकीं। उन पर ईंट-पत्थर फेंके। ये सब क्या मामला है? शहर से झगड़ा लेकर हम लोग कहाँ रहेंगे।"
"डाक्टर साहब, कुछ शौर जरूर सुना था।" याकूब ने कहा, "हम तो हजूर इस जाड़े में बाहर नहीं निकले। वह गोरा किम चोर-चोर चिल्लाकर गाली वाली दे रहा था। ऐसी मार-पीट तो कुछ नहीं सुनी हजूरा"
“आपके पड़ोसी उस जेल काटे गुण्डे गोरवा की तिड़ी में आ गये।" चौहान ने समझाया, "वे लोग चुनाव के सिलसिले में आये थे। चुनाव सरकार के हुक्म से हो रहा है। चुनाव के काम में रुकावट डालना कानूनन जुर्म है। सरकार ने जिन्हें बोट का हक दिया है, चाहे जिसे वोट दें। आपके पास-पड़ोस में किसी का वोट तो है नहीं। वोट नहीं है और चुनाव के मामले में दंगा-बावेला करेंगे तो पुलिस आयेगी और धर लिये जायेंगे। फिर जमानत वमानत के लिये हमारे पास कोई न आये। हम अभी से कहे देते हैं।"
"अरे भाई, ये बड़े-बड़े आदमियों की लड़ाई है, आपके पड़ोसी क्यों परेशान हो रहे हैं। " सिंह ने पूछा, "ये लोग जानते भी हैं चुनाव में किसका किससे मुकाबला, काहे का चुनाव? किसकी तरफदारी में परेशान हो रहे हैं?"
"खाक जानते हैं। हम तो कुछ नहीं जानते साहब, हम लोगों को झगड़े से मतलब!" लूथर बोला, "बेमतलब सिरदर्द।"
"जानते कुछ नहीं, लेकिन झगड़े में फँस गये तो छ: महीने की ठुक जायेगी।" चौहान ने चेतावनी दी।
"हुजूर, हम लोगों को क्या लेना-देना ऐसे झगड़ों से।" याकूब ने क्षमा माँगी, "वह किम बहुत पाजी आदमी है। चिल्लायाः चोर, चोर गली में गुण्डा लोग आ गया। दूसरे लोगों ने सच समझ लिया कि गली में गैर लोगों का क्या काम। सो दो-चार उसके साथ गाली देने लगे। आप फिक्र न करें, हम सबको समझा देंगे। फिर हुजूर, जिसकी आयी है, उसे कौन बचा सकता है।"
याकूब और लूथर के साथ डाक्टर चौहान भी चले गये।
"परोफेसर साहब, अब कुछ हो जाये।" उस्ताद मुझे खाँ ने कोने में दीवार से टिका तानपूरा उठाकर कंधे से सटा लिया। पंडित ने दीवार के साथ रखा हारमोनियम खींचा और वीरेन्द्र ने तबले की जोड़ी सम्भाल ली।
"एक ठुमरी हो जाये।" उस्ताद ने शुरू किया, “मुख मोड़ मोड़।" तानपूरा झनझनाने लगा। हारमोनियम साथ देने लगा। वीरेन्द्र के हाथ तबले पर चौकस तबला और हारमोनियम ठीक संगत न दे रहे थे। उस्ताद ने वीरेन्द्र की ओर देखा जरा चुस्ती से प्यारे!"
उस्ताद ने दो बार टोका। ठीक से न बना तो तानपूरा एक ओर रख दिया, "परोफेसर साहब, आज जम नहीं रहा। माहौल उखड़ गया गाना तो तबीयत की चीज़ हैं।"
"उस्ताद सही फरमा रहे हैं।" पंडित ने क्षमा माँग हारमोनियम दीवार की ओर सरका कर उषा की ओर देखा। उस्ताद, सिंह साहब और वीरेन्द्र के लिये चाय का आदेश दिया। उपा चाय लेने भीतर चली गयी। सिंह और वीरेन्द्र इजाज़त लेकर उठ गये।
• उस्ताद ने चाय पीकर पान दायें-बायें गालों में दबाकर सुलगा ली। महफिल न जम पाने के लिए अफसोस जाहिर कर उठ गये। अभी सात ही बजे थे, साँझ लगते ही गहरा झुटपुटा पंडित उस्ताद को सड़क तक पहुँचाने चले गये।
पंडित उस्ताद को सड़क तक पहुंचाकर लौटे तो अमित और उषा बैठक के फर्श से दरियाँ गद्दे उठाकर यथास्थान रख रहे थे।
"हम कुछ मदद करें?" पंडित ने पूछा।
"ईडी, डोंट बाँदर" उषा ने कह दिया, "हम दो मिनट में किये देते हैं। " "हम कुछ दूर घूम आयें।" पंडित ऊनी कपड़े पहिन चले गये।
• पंडित जनवरी की कड़ी सर्दी में घूमने जा रहे थे। उषा समझ गयी वीरेन्द्र की बात से डैडी बहुत क्षुब्ध हो गये थे। दलित वर्ग के प्रति समाज की घृणा के प्रसंग पर पंडित बहुत क्षुब्ध हो जाते थे। उपा और अमित कारण जानते थे। पंडित ने वह कहानी अपने पिता से कई बार सुनी थी। बेटी-बेटे को तीन बार सुना चुके थे। उषा-अमित के लिये वह प्रकरण ही परिवार का इतिहास था। उषा को याद आने लगा।
धर्मानन्द पंडित के पूर्वजों का स्थान हिमाचल में मंडी के समीप छोटा गाँव कतेरा था। तब हिमाचल राज्य वर्तमान रूप में न था। जिला कांगड़ा पंजाब में था। उस जिले में मंडी, सुकेत, गुलेर, बिलासपुर आदि छोटी-छोटी रियासतें थीं।
देश-काल के विचार से धर्मानन्द पंडित के पूर्वजों की स्थिति बुरी न थी। मंडी शहर से आठ मील कतेरा गाँव में परिवार की तीस-चालीस बीघे जमीन थी। मंडी शहर में एक छोटी दुकान। ब्रह्मण थे, परन्तु निर्वाह के लिए पुरोहिताई या पूजा पाठ की वृत्ति नहीं। पिता और छोटा चाचा अपने खेत-खलिहान और घर के जानवर सम्भालते मँझला वाचा मंडी शहर में दुकान पर रहता। मंडी शहर में मिशन ने उसी जमाने में स्कूल चलाया था।
धर्मानन्द पंडित के पिता देवदत्त पंडित ने अक्षर ज्ञान छः-सात की आयु में अपने पिता से पाया था, धरती पर उँगली से लिख-लिखकर दुकान सम्भालने वाला चाचा भतीजे को आठ-नौ की उम्र में सहायता और दुकान का काम सिखाने के लिये साथ ले गया । देवदत्त स्कूल में दाखिल हो गया। सत्रह की उम्र में मिडिल पास कर लिया। स्कूल के अध्यापकों ने देवदत्त को होनहार और पात्र समझा। हेडमास्टर की कृपा से उसे ऊना के मिशन हाईस्कूल मैं पड़ने के लिये दो रुपये मासिक वज़ीफे और स्कूल फीस माफी का आश्वासन मिल गया। देवदत्त पंडित के पिता और चाचा होनहार लड़के के लिये उन्नति के अवसर से उत्साहित हुए। उस जमाने में अस्मी नब्बे वर्ष पूर्व मैट्रिक तक अंग्रेजी पड़े व्यक्ति के लिये अवसर पाकर डिप्टी कलेक्टर हो जाना सम्भव था। चिन्ता यही थी. लड़का घर से चालीस मील दूर परदेश में रहकर म्लेच्छ ईसाइयों के स्कूल में पड़ेगा। उसके खाने-पीने रहने की
व्यवस्था कैसे, क्या होगी। एक सहारा भी था— पडोसी गाँव का एक ब्राह्मण ऊना में हलवाई की दुकान कर रहा था । देवदत्त को पहली बार ऊना पहुँचाने पिता साथ गये। पडोसी गाँव के ब्राह्मण के यहाँ बेटे के रहने का प्रबन्ध कर दिया। उन दिनों गरीब लोग तीन - चार रुपये में महीने भर दाल-रोटी या दाल-भात निभा सकते थे।
देवदत्त पंडित की कल्पना और चिन्तन में स्कूल के पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य विचारों की ओर भी झुकाव था। मिशन स्कूल में पढ़ाई से पूर्व नित्य प्रार्थना का नियम था । देवदत्त का जनेऊ आठ-नौ की आयु में हो गया था। उसे गायत्री और संध्या-पूजा के कुछ मंत्र भी याद करवा दिये गये थे। उन मंत्रों का पाठ नित्य करने के बावजूद देवदत्त न मंत्रों का शुद्ध उच्चारण जान सका था, न अर्थ उन मंत्रों का पाठ उसे धार्मिक कर्तव्य बताया गया था, उनके पाठ से पुण्य का विश्वास मंडी मिडिल स्कूल में उसे ईसाई धर्म की प्रार्थना उर्दू में याद करायी गयी। देवदत्त स्कूल में नित्य उस प्रार्थना का पाठ करते समय उन शब्दों का अर्थ और भाव जानता समझता था। प्रार्थना के समय मन में परमेश्वर को सम्बोधन करने की कल्पना बन जाती। ऊना हाईस्कूल में उसे अंग्रेजी भाषा में प्रार्थना सिखायी गयी। प्रार्थना का अर्थ भी समझाया गया। प्रार्थना के शब्द बोलते समय चेतना और विश्वास रहता, वह सृष्टि की रचना करने वाले सर्वशक्तिमान दयालु ईश्वर की स्तुति और रक्षा- कृपा की याचना कर रहा है। उस दयालु ईश्वर की कृपा और रक्षा का भरोसा अनुभव होता। बाइबल की क्लास में ईसा के जीवन, प्राणी मात्र के प्रति ईसा की अनुकम्पा, मनुष्य मात्र के पाप के प्रायश्चित के लिए ईसा के आत्म- बलिदान की कथा की व्याख्या और ईसा के उपदेश बताये जाते। ईसा के तप त्यागमय जीवन की हिन्दू अवतारों और देवताओं के उच्छृंखल विलासी और छली व्यवहार से तुलना की जाती। ऐसे अवतारों और देवताओं में विश्वास से मनुष्य सदाचारी और परोपकारी कैसे बन सकता है? कैसे स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त कर सकता है? इसके अतिरिक्त दलित जातियों पर हिन्दू वर्णाश्रम धर्म के अत्याचारों का वर्णन: हिन्दू समाज में स्त्रियों, खासकर विधवाओं की दुरवस्था, छुआछूत, बाल-विवाह, श्राद्ध द्वारा अशरीर आत्माओं की पार्थिव तृप्ति के अंधविश्वास, मन्दिरों में बलि प्रथा, नदियों में स्नान से स्वर्ग-प्राप्ति के उपहासास्पद विश्वासों की मीमांसा । उस समय ईसाई शिक्षा संस्थायें अशिक्षित भारतीयों का केवल इहलोक नहीं परलोक सुधारने के लिये भी यत्त्रवान रहती थीं। सभी सम्प्रदाय अपने स्कूलों में अपने धर्म विश्वासों की शिक्षा देते थे। देवदत्त पड़ोस के नाते चाचा हलवाई के यहाँ पाँच मास रहा। फिर मिशन स्कूल के बोर्डिंग में चला गया। स्कूलों के अध्यापक और पादरी जिज्ञासु और अध्ययनशील विद्यार्थियों के प्रति सहृदय, कृपालु और उदार थे। शिक्षा के प्रभाव में छुआछूत का संकोच देवदत्त के मन से जाता रहा। दरिद्रों, दलितों के प्रति अध्यापकों और फादर ग्राहम के सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार उनके धर्मोपदेशों और बाइबल के अध्ययन से नवयुवक का हृदय ईश्वर पुत्र ईसू के प्रति श्रद्धा और भक्ति से प्लाबित हो जाता। इच्छा होती ईसू के चरणों का आश्रय पाने के लिये बप्तिस्मा लेकर ईसाई धर्म की शरण प्राप्त कर ले। फादर ग्राहम आशीर्वाद से आश्वासन देते, "ईश्वरपुत्र ईस के चरणों में दृड आस्था रखो। ईश्वरपुत्र और पवित्र आत्मा में अडिग विश्वास ही मुक्ति का मार्ग है। पुत्र, कुछ समय ठहरो अपने विश्वास और विचार परिपक्व होने दो।"
अठारह वर्ष की आयु से पूर्व नाबालिग व्यक्ति के धर्म-परिवर्तन पर कानूनी आपत्ति हो सकती थी। फादर देवदत्त की आयु उन्नीस वर्ष हो जाने की प्रतीक्षा में थे।
देवदत्त दसवीं कक्षा में गरमी के अवकाश में महीने भर के लिये गाँव गया था। गाँव जाने पर चीतू से उसकी संगति होती। दोनों की आयु लगभग बराबरा चीतू जात का हूमणा (डोम) था। डूमणे पंडितों के कमीन (बेगार, कठिन परिश्रम के और अप्रिय काम करने वाले)
थे।
हमणों की झोपड़ियाँ ब्राह्मणों राजपूतों के घरों से ढाई-तीन सौ कदम नीचे डलवान पर थीं! गाँव में बावड़ी एक ही थी। बावड़ी अच्छी बड़ी थी, प्रचुर जल, किनारे से छलक कर डल्वान पर पतली धार बहती रहती। केवल जेठ की कही गरमी में जल किनारे से कुछ नीचा हो जाता। बावड़ी से बहता पानी बीस-तीस हाथ नीचे एक छोटे गडे में भरता रहता। हम उस गढ़े से पानी लेते थे। कभी-कभार बैल, भैंस या कुत्ते बावड़ी में मुँह डालकर पानी पी लेते। इ॒मणे बावड़ी में हाथ या वर्तन न डाल सकते थे। कड़ी गर्मी में भी गाँव के ब्राह्मण- राजपूत पुरुष-स्त्री नागर-घड़ा लेकर पानी के लिये या जानवरों को पानी पिलाने के लिए बावड़ी पर जाते तो उनके नहाने घड़ा धोने से पानी नीचे गड़े में भर जाता। दयालु ब्राह्मण- राजपूत यो भी दो घड़े पानी बाहर उडेल देते कि हमणों की बावड़ी में जल हो जाये। गरमी में ऐसा भी हो जाता कि हमने डूमणी पानी के लिये जाते; गढ़ा सूखा देख प्रतीक्षा में बैठे रहते मालिक लोग आये, बावड़ी से पानी उनके गड़े में बहे तो पानी मिले।
चीतू बारह चौदह की उम्र से बंसी बजाने लगा था। हफली बजाकर गाता भी था। देवदत्त मंडी से छुट्टी में घर आता तो चीतू की बंसी पर मोहित हो जाता । देवदत्त ने मंडी बाज़ार से बसी ले ली थी। चीड़ के जंगल में घंटों चीतू से बजाना सीखता रहता । देवदत्त भी बंसी बजा लेता, परन्तु चीतू का मुकाबला न था । देवदत्त चीतू के हुनर का कायल था। दोनों में लड़कपन से परिचय और मैत्री ।
देवदत्त को छुट्टी में ऊना से गाँव आये छः-सात दिन हुए थे। फिर चीतू के साथ चीड़ के जंगल में बैठकर बंसी बजाने की उमंग, ललका चीतू ने दो बार घड़ी-घड़ी भर उसके साथ बाँसुरी बजायी, फिर क्षमा माँग ली, "मालिक, बलेर के मेले में चार दिन रह गये। बॉस चिरे धरे हैं। मेले के लिये डलिया, छीकें बना रहा हूँ। मेला निवट जाये, फिर बजेगी बांसुरी । मालिक, मेले चलोगे न
देवदत्त ने हामी भर ली। अब वह पंजाब में ऊना-होशियारपुर के बाजार और मेले देख चुका था। परन्तु पहाड़ के मेलों की बात वहाँ कहाँ! कैसा ढोल बजता है, अखाड़े में जोड़ छूटते हैं। भारी-भारी लहँगे पहने, नाक में नथ पहने और सिर पर चौक बाँधे अलबेलियों के शुण्ड झिंझोटियों की तानें, बाँसुरियों, अलगोज़े मसखरी-टिचकरी
पहर दिन चक्रे देवदत्त और चीतू मेले के लिये चल दिये। बलेर की देवी का मन्दिर कर से छः-सात मील व्यास नदी के किनारे है। चीतू बॉस की टोकरियाँ, डोलचियों सूप- छीके एक बॉस के दोनों छोर पर बाँधकर कंधे पर लिये था। कुछ टोकरियाँ सूप सिर पर रखे था। राह में चढ़ाई उतराई अधिक न थी, लेकिन बेढंगे बोझ के कारण बंसी बजाते चलना कठिन गाँव से आधे मील पर छोटी पहाड़ी लाँघकर पगडंडी कच्ची सड़क से मिल गयी। "चीतू बॉस का बोझ मुझे दे तू बंसी पर कुछ सुना।" देवदत्त ने अनुरोध किया।
"अरे मालिक, कैसी बात कहते हो?" चीतू डर गया।
देवदत्त ने बोश बँधा बॉस उससे जबरन लेकर अपने कंधे पर रख लिया। चीतू ने बंसी पर एक झिंझोटी छेड़ दी।
मेले में आनगाँवों से दो और ड्रमणे भी बॉस का सामान लाये थे। चीतू का सब माल बहुत सुधरा था। चौथा पर लगते-लगते सब बिक गया । देवदत्त धूम-घूमकर मेला देख रहा था। चीतू ने देवदत्त को खोजकर हाथ जोड़े, "मालिक, उधर साह की दुकान पर बर्तन हैं। बहुत दिन से दाल-भात पीतल की थाली में खाने का चाब है। मैं जाऊंगा तो साह कमीन देखकर दुत्कार दे या अजान समझ ठग ले। तुम देखभाल कर थाली खरीद दो।" उसने अपनी पूँजी देवदत्त को सौंप दी।
देवदत्त ने बहुत सावधानी से थाली परखी। उनकाकर, तुलवाकर भाव-तौल किया। चौदह आने की थाली खरीद ली। लौटते समय चीतू का मन बाग-बाग। रास्ते भर पुलक से बंसी बजाता आया।
देवदत्त लौटा तो पिता आंगन में मचिया पर बैठ नारियल गुड़गुड़ा रहे थे। पूछ लिया, "मेला कैसा भरा था? तुम तो शहरों के मेले देखते हो। गंवई मेला कैसा लगा?"
"अच्छा था।" देवदत्त मचिया के पैताने बैठ बताने लगा, "चीतू ने बड़े शौक से पीतल की थाली खरीदी है। बहुत खुश है। चेहरा कह रहा था, थाली में दाल-भात खाने का चाव है। " पिता के माथे पर गहरी त्योरियाँ पड़ गयीं, "हमणे पीतल के बर्तनों में खायेंगे।" कई गालियाँ मुँह से निकल गयीं। क्रोध में खूब रसा हुआ नारियल भूल गये। देवदत्त के चाचा को पुकारा, "सुना तुमने, मणा मेले से पीतल की थाली ले आया है। पाली में भात खायेगा। "
चाचा को विस्मय हुआ, फिर क्रोध । पड़ोसी ब्राह्मण गुलावे को पुकारा। तीनों बात करते कर्मसिंह राजपूत के आँगन की ओर चले गये।
देवदत्त अपने आँगन में बैठा सुन रहा था। चालीस कदम दूर कर्मसिंह के आँगन से इ॒मणों के स्पर्धा और अनाचार के प्रति क्रोध भरी गालियाँ सुनायी दे रही थीं इनकी माँ इनकी बहन मणे पीतल काँसे के बर्तन में खायेंगे। पलंग पर बैठेंगे, ईंट-पत्थर की हवेली में रहेंगे घोड़े पालकी पर बारात ले जायेंगे। ब्राह्मण राजपूत की बावड़ी में हाथ डालेंगे। अब मरे जानवर कौन करेगा? ये वो कौन करेगा?
देवदत्त बहुत पछता रहा था, चीतू को थाली क्यों खरीद दी खरीद दी थी तो बक क्यों दिया।
देवदत्त का मन विक्षिप्त हो गया। दिन में बारह चौदह मील चलने की थकावट के बावजूद मन की व्याकुलता में मचिया से उठकर आंगन में चहल कदमी करने लगा। आहट से अनुमान हुआ उसके पिता चाचा, कर्मसिंह और दूसरे दो-चार मर्द लाठियाँ लिये हमणों की झोपड़ियों की ओर जा रहे थे। कलेजा कॉप गया।
आकाश में पूनम का चाँद, चटक चाँदनी। दिन में आंगन से नीचे तलवान पर डूमणों की झोपड़ियाँ साफ दिखायी देती थीं। मुँह पर दोने की भोंपी बनाकर पूरे ज़ोर से पुकारने पर आवाज़ भी चली जाती। देवदत्त का दिल धड़क रहा था। इमणों की झोपड़ियों की ओर देखने के यत्न में आँखें फाड़े था, झोपड़ियाँ धुंधली धुंधली दिखाई दे रही थीं। मन छटपटा रहा था क्या करूँ? में भी लाठी लेकर जाऊँ? ये कौन हैं किसी गरीब पर जुल्म करने वाले अपने पैसे से जो चाहे खरीदे, अपने घर में जो चाहे करे। घोर अत्याचार अपने पिता और चाचा पर लाठी उठाऊँ? ऐसे ही, बिना लाठी के समझाना ठीक, चाहे मेरा सिर तोड़ दें। कलेजा धक-धक कर रहा था। देवदत्त बेचैनी से आँगन में चक्कर लगाने
लगा।
देवदत्त रहन सका। डूमणों की झोपड़ियों की ओर लम्बे कदमों चल पड़ा। पचास कदम गया था, बहुत क्रोध में गालियों की ललकारें सुनाई दी। लाठियों की खटाखट पीतल की थाली टूटने की वातावरण चीरती ऊँची सन्नाहट मणे स्त्री-पुरुषों का आर्त चीत्कार देवदत्त दौड़ने लगा। झोपड़ियों से लपटें उठने लगीं। फूस जलने की चिरांधा झोपड़ियों पर धुआं, ऊँची लपटें । देवदत्त के घुटने कॉपकर पत्थर हो गये। अब जाने का क्या लाभ था? चीतू को क्या मुँह दिखाता लौट पड़ा। कल्पना में चीतू और दूसरे डूमणे बी-पुरुष-बच्चे प्राण रक्षा की प्रार्थना में हाथ जोड़े, आँसू बहाते ।
फूस की झोपड़ियों की लपटें कुछ ही देर में बैठ गयीं। देवदत्त के पिता, चाचा, कर्मसिंह और दूसरे चारों आदमी राजपूतों के आँगन में लौट आये। वे लोग अब भी दूमणों की परम्परा के विरुद्ध अधार्मिक स्पर्धा के क्षोभ में उन्हें गालियों दे रहे थे, परन्तु सतुष्ट थे: गाँव की धरती पर पाप बढ़ने का अंकुर कुचल दिया गया। गाँव का धर्म और इज्जत बच गयी। देवदत्त के पिता और चाचा लौटकर खाने के लिये चौके में गये। पूछा: लड़के ने खा लिया? देवदत्त को खाने के लिये बुलाया गया।
“आप लोगों ने बहुत जुल्म किया।" देवदत्त कहे बिना न रह सका।
पिता क्रोध से बौखला गये। अपने पर जब कर हाथ रोक लिया। लड़का डील में बराबर का था। रेख फूट आयी थी। पंजाब के बड़े मदरसे में पढ़ रहा था, लेकिन जवान नहीं रोक सके—हरामजादा, उल्लू का पट्टा और अन्य गालियाँ, जो लड़के को लगने से पहले स्वयं उन्हें लड़के की माँ और खानदान को लगती थीं, बदजात, बाप के सामने बोलता है। निकल जा इसी दम घर से मंगी ईसाई करिस्टानों की पढ़ाई और संगत का असर ऐसी- तैसी अंग्रेजी की पड़ाई की बेधर्म हो गया।"
पिता और चाचा खा नहीं सके। देवदत्त चौके में नहीं गया। लड़के की माँ ने नहीं खाया। जेठानी से सहानुभूति में देवदत्त की चाची भी भूखी रही। सुबह देवदत्त टीले की ओर दिशा गया। दो घड़ी गयी, दोपहर गयी, माँझ आयी और रात गयी। देवदत्त न लौटा।
देवदत्त की माँ और चाची रोती रहीं। पिता बेधर्मी, कुलचनी लड़के पर क्रोध प्रकट करते रहे. “भाड़ में जाये। ब्राह्मण की औलाद होकर ऐसी बात। हमारे नाते मर गया बहुत लोगों के बेटे मर जाते हैं। हमारे पिछले कर्म ऐसे ही थे।"
तीसरे दिन चाचा ऊना गये। देवदत्त स्कूल में मिला। चाचा ने उसकी माँ और पिता की अवस्था बतायी। माँ अन्नपानी बिना पड़ी थी पिता भी अनशन से बुखार में पड़े थे। देवदत्त ने लौटकर मन की व्यथा फादर ग्राहम के सम्मुख कह दी थी। फादर ने शान्ति और समझ से काम लेने का परामर्श दिया था।
देवदत्त माँ को सांत्वना देने के लिये चाचा के साथ लौट गया, परन्तु घर में टिक न सका। सप्ताह भर बाद परीक्षा की तैयारी की बात कहकर ऊना लौट गया । देवदत्त ने आयु
उन्नीस हो जाने पर महीना भर भी प्रतीक्षा न की । बप्तिस्मा लेकर विधिवत ईश्वर के पुत्र ईस की शरण प्राप्त कर ली। पृथ्वी से हिन्दू धर्म की क्रूरता और कुसंस्कारों को मिटाने के लिये जीवन अर्पण करने की दृढ प्रतिज्ञा ।
रेवरेंड फादर निक्सन ग्राहम ने देवदत्त पंडित को बप्तिस्मे के अनुष्ठान ने ईसाई धर्म की दीक्षा दे दी, परन्तु उसे डेविड ग्राहम या डाल्टन ग्राहम का नया नाम न देकर देवदत्त पंडित ही रहने दिया । देवदत्त के मन में उसकी धारणा के अनुसार- रुद्विग्रस्त कुरीतियों, संस्कारों और क्रूर अंधविश्वास के प्रतीक हिन्दू धर्म से इतनी गहरी विरक्ति हो गयी थी कि वह अपने नाम में उस धर्म की स्मृति न रहने देना चाहता। ऊना की उस साडे तीन सौ परिवारों की क्रिश्चियन बस्ती में पुराने हिन्दुस्तानी नाम के व्यक्ति बिरले ही थे।
फादर ने मुस्कराकर देवदत्त को समझाया तुम्हारा नाम सुनने-बोलने में अच्छा, उसका अर्थ अच्छा ईश्वर की देन विश्वास परिवर्तन से तुम्हारा व्यक्तित्व और तुम्हारा अतीत नहीं बदल गया। केवल तुम्हारा मन और आत्मा अज्ञान के अंधकार से मुक्त हो गये। तुम्हारी सन्तान तुम्हारे पूर्वजों की ही वंशज होगी, परन्तु परमेश्वर पुत्र ईसा के सन्मार्ग की अनुगामी। सभी भाषाएँ उसी परमेश्वर की सृष्टि हैं। सभी भाषाओं के माध्यम से सद्भावना की अभिव्यक्ति और परमेश्वर और उसके पुत्र के आदेशों की अभिव्यक्ति सम्भव है। उन्हें किसी भी भाषा में स्मरण करो, वे सुनते हैं।
देवदत्त ने फादर का निर्णय स्वीकार कर लिया। अपना नाम यथावत रहने दिये जाने की संगति वह कुछ समय उपरान्त समझा। इस देश में ईसाई धर्म की ओर अधिक आकर्षण अपेक्षाकृत आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं से दलित वर्गों में रहा है। दलित वर्गों में स्त्री-पुरुषों के नाम प्रायः निरर्थक ध्वनियाँ हेरू, पित्या, मग्गी, मुन्नी, नत्थू होते रहे हैं। नामों से ही क्षुद्रता तथा दीन स्थिति का संकेत ऐसे लोगों को ईसाई धर्म की दीक्षा देने पर पादरी उन लोगों को तिरस्कृत स्थिति की हीन भावना से मुक्त करने के लिये, उनका दीन अतीत मिटा देने के लिये उन्हें शासक जाति जैसे नये नाम मार्क, हंट, वाल्टर, नेलसन आदि दे देते थे। उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा देने वाले धर्मपिता का नाम उनका गोत्र बन जाता, उदाहरणत: मार्क ग्राहम, नेल्सन ग्राहम यदि नाम क्षुद्रता सूचक या निरर्थक न होता तो पुराने नाम के साथ दीक्षक का नाम जुड़ जाता। यथा निर्मल सिंह ग्राहम
पादरी लोग द्विज वर्ग से ईसाई धर्म की शरण आने वालों के नामों में प्रायः परिवर्तन न करते थे। ऊना की उस बस्ती में देवदत्त पंडित के अतिरिक्त तीन और व्यक्तियों के ऐसे नाम थे— नरसिंह राठौर, मोहन चन्द्र शुक्ल और शेख ज़हूर बक्शा ईसाई धर्म के विस्तार से स्पर्धा करने वाले हिन्दू-मुसलमान प्रायः व्यंग्य करते इस देश में केवल दीन-दलित वर्ग ही पेट की आग बुझाने के लिये तथा अन्य प्रलोभनों से ईसा की भेड़ों में सम्मिलित हो रहे हैं। अच्छी जात के खाते-पीते लोगों पर ईसा का उपदेश असर नहीं करता। नरसिंह राठौर, मोहन चन्द्र शुक्ल, शेख ज़हर बक्श और देवदत्त पंडित ऐसी आलोचना के जीवित जागृत उत्तर थे।
एन्फ्रेंस की परीक्षा पास करके देवदत्त को फादर ग्राहम की कृपा से ऊना के मिशन में काम मिल गया। वह बहुत श्रद्धा और उत्साह से ईसाई धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करने लगा। बरस भर गाँव न गया। उसकी खैर-खबर के लिये चाचा को फिर ऊना जाना पड़ा।
भतीजे ने बीस रुपया मासिक पर मिशन में नौकरी कर ली, सुनकर चाचा को निराशा हुई। परिवार को आशा थी लड़का घर से दूर रहकर अंग्रेजी पड़ रहा है, बड़ी नौकरी पायेगा। एकदम डिप्टी साहब नहीं बन जायेगा तो मुंसिफ, तहसीलदार, कोई अच्छा अफसर तो बनेगा ही। पचास-साठ-सौ रुपया माहवार तक पायेगा। बीस रुपया तो मंडी में दुकान से भी बन सकता था। उस जमाने में बीस से आरम्भ भी बहुत कम न था ।
भतीजे की तलाश में चाचा के ऊना आने का दूसरा कारण भी था । देवदत्त ने मिडिल की परीक्षा दी थी, तब सत्रह का हो गया था। तभी उसका विवाह हो गया दुलहिन बारह- तेरह की थी। दुलहिन का डोला लाने की रस्म पूरी करके लड़की को दूसरे दिन मायके लौटा दिया गया था। ऐसा ही रिवाज़ था। विवाह के ढाई-तीन बरस बाद बेटी जवान हो जाती तो उसका मुकलावा (गौना) होता। अर्थात् बेटी को ससुराल में गृहस्थ आरम्भ करने के लिये आप के घर से विदा किया जाता। देवदत्त की दुलहिन सोलह लाँघ गयी तो उसके पिता और परिवार को उसे ससुराल के लिये विदा करने की चिन्ता देवदत्त का परिवार भी चाहता था वह घर आये।
देवेदन को दो बार संदेश भेजे गये। उसने टाल दिया; पहले नौकरी से छुट्टी मिलने की कठिनाई, फिर पाँच-छ: महीने बाद आने का वायदा दुलहिन के परिवार को सन्देह हुआ लड़का शहर में रहता है। बीस बरस का पूरा जवान शहरों में सौ प्रलोभन रोकने-टोकने वाला कोई नहीं। कहीं बहक गया। हमारी बेटी का क्या होगा। वह क्या करेगी, कहाँ जायेगी! विलम्ब ठीक नहीं।
देवदत्त दुविधा में था उसका निश्चय था, अपना जीवन ईश्वर पुत्र ईसू का धर्म-संदेश पृथ्वी पर फैलाने के निमित्त अर्पण करेगा। सन्तों और भगवान ईस की तरह नारी संगति के पाप से मुक्त रहने की इच्छा। मन में यह भी सोच: मुझसे विवाहिता मेरी पत्नी बना दी गयी लड़की का क्या होगा? हिन्दू कुसंस्कारों के कारण ब्राह्मण की अछूती लड़की का भी दूसरा विवाह हो नहीं सकेगा। उस लड़की का क्या होगा? वह मेरे कारण विधवा का जीवन बितायेगी। हिन्दू विधवाओं की दुरवस्था जानता था। लड़की के दुर्भाग्य की कल्पना से दिल दहल जाता। उस बेचारी का कसूर? लड़की को उसकी पढी बना दिया गया था। विवाह क्यों किया? परन्तु उससे पूछा किसने था; न उससे न लड़की से उस लड़की या पत्री के प्रति इस दया के अतिरिक्त देवदत्त को क्या आकर्षण होता! परिचय ही न था।
देवदत्त का अपनी पत्नी से केवल इतना परिचय था परिवार उसे सुखपाल (पालकी) पर बैठाकर बारात के साथ लड़की के घर ले गया था। ढोल, नगाड़े, तासे, नरसिंहे, तुरही बज रहे थे। वह लड़की बहुत से लाल कपड़ों में लिपटी गठरी जैसी थी। लड़की का चेहरा, हाथ पाँव के लिपटे थे। देवदत्त के कंधे पर दुपट्टे के छोर से लड़की के कपड़े का छोर बाँध दिया गया था। कुछ आग जलायी गयी। लड़की के मामा या भाई ने लड़की को बाँहों में उठा लिया। दोनों को आग के सात फेरे लगवा दिये। यह विवाह था। खूब भोज हुआ। वह फिर पालकी पर बैठा। बारात के साथ ढोल, नगाड़े, तुरही तासे, नरसिंहे बजाते बारात अपने गाँव लौटी। उसकी पालकी के पीछे दूसरी पालकी में एक औरत दुलहिन को लेकर बैठी थी। देवदत्त ने पीछे आती पालकी से बहुत देर तक लड़की का रोना सुना था। उसे अच्छा न लग रहा था। सब खुश थे, लड़की रो रही थी।
देवदत्त के परिवार के आँगन में ढोल- तुरही बज रहे थे। बहुत शोर था। औरतें चहक- चहककर गा रही थीं। देवदत्त की उससे चार बरस बड़ी बहिन शादी के अवसर पर ससुराल से अपने बेटे के साथ आयी थी। बहिन ने चुपके से पूछा, , “अपनी दुलहिन को देखेगा?" देवदत्त झेंप गया।
बहिन मौका देखकर देवदत्त को भीतर की कोठरी में ले गयी। बहुत से कपड़ों में लिपटी दुलहिन सिर घुटनों पर रखे, घुटने बाँहों में समेटे बैठी थी। बहिन ने दुलहिन के चेहरे से घूँघट हटाकर, तर्जनी से दुलहिन की ठोड़ी उचका कर चेहरा उठा दिया। बारह-तेरह बरस की लड़की । माथे पर कानों में गले में चाँदी के जेवर, नाक में सोने की बड़ी सी नथ आँखें मुँदी हुई। रो-रोकर सूजी गुलाबी पलकें आँसुओं से भीगे गाल गीली नाका "सुन्दर है न?" बहन ने हुलसकर पूछा।
देवदत्त झेंप गया। उसे लड़की पर बहुत दया आ गयी।
"वेबे, " देवदत्त ने दया से भीगे स्वर में बहिन से अनुरोध किया, "यह अपनी माँ के लिये रो रही है। इसे माँ के पास लौटा दो।"
"हट पागल !" बहिन लाइ से हंसी, "ऐसे तो सभी रोती हैं। हम नहीं रोये थे। तुमसे हिल जायेगी। फिर मायके से बुलावा आयेगा तो न जाने के लिये चार बहाने बतायेगी।"
रात दुलहिन को देवदत्त की माँ ने पुचकारकर अपने पास सुलाया दुलहिन को बेटी- बेटी कहकर गोद में लेकर सांत्वना देती रही। दोपहर में वह फिर पालकी पर बैठा। उसके पीछे दूसरी पालकी पर दुलहिन और नाउन बैठी। देवदत्त दुलहिन को उसके पिता के घर छोड़ आया तो लड़की का दुख दूर हो जाने की शान्ति अनुभव की यही परिचय था देवदत्त का अपनी पत्नी से उसका खयाल आने पर कल्पना में रो-रोकर निकाल लड़की की सूजी- गुलाबी पलकें, आँसुओं से भीगे गाल -नाक दिखायी दे जाते उस बेचारी का क्या होगा? देवदत्त का चाचा उसे गाँव लिवा ले जाने के लिये आया था। उसकी दुलहिन का मुकलावा लाने में और विलम्ब उचित न था।
देवदत्त कठिन दुविधा में फादर ग्राहम से परामर्श लेता था। फादर बहुत वर्ष से उसी इलाके में काम कर रहे थे। स्थानीय भाषा, रीति-रिवाजों, धर्म-विश्वासों से परिचित थे। शादी-विवाह, धर्म-परिवर्तन सम्बन्धी कानूनों का भी ज्ञान। फादर ने परामर्श दिया था: वह अबोध निर्दोष लड़की अपने पिता के घर रहे या तुम्हारे पिता के घर, वह निरपराध अंतिम साँस तक हिन्दू समाज की रीति से वैधव्य का अपमान और यातना पायेगी। जाने- अनजाने में तुम्हारा उससे विवाह हो गया तो तुम पर भी कुछ उत्तरदायित्व है। उसे ले आओ।
"मेरा निश्चय है, जीवन धर्म प्रचारार्थ अर्पण करूँगा।" देवदत्त ने अपनी दुविधा बतायी। "पुत्र, गृहस्थ भी धर्म प्रचारक हो सकता है। हमारे प्रोटस्टेंट धर्म सम्प्रदाय में पादरी गृहस्थ भी हो सकता है। तुम जानते हो, हम भी गृहस्थ हैं। तुम्हारी अबोध निर्दोष पत्री
अकारण क्यों यातना भोगे। वह भी ईश्वर के पुत्र की शरण में आकर स्वर्ग की अधिकारी बने, सहज स्वाभाविक जीवन का अवसर पाये।"
फादर ने परामर्श दिया: यह उचित है कि तुम परिवार को अपने धर्म-विश्वास परिवर्तन की सूचना दे दो।
देवदत्त के पिता ने सुना कि बेटा शिखा सूत्र त्याग कर किरस्थान बन गया, दाताने कि शिखा-सूत्र त्याग कर फिर
कुजात और
चाचा इस महाविषद में अपराधी का संकोच भी अनुभव कर रहा था। स्वयं समधियों के यहाँ गया। आँसू पोंछते -पोंछते बता दिया, "हम तो कहीं के न रहे। लड़का किरस्टान हो गया। हमारे घर से तो गया। बहू हमारी है। हम उसे बेटी मानेंगे, सिर आँखों पर रखेंगे। लड़का कहता है— मुकलावा ले आयेगा तो बहू को अपने साथ पंजाब ले जायेगा। आप लोग जैसा कहें।"
दुलहिन की माँ ने सिर फोड़ लिया। घर में विलाप मच गया, जैसे दामाद की मृत्यु का समाचार आया हो। समधियों ने क्रोध में कहा उनके साथ धोखा- दगा हुआ लड़का जरूर पहले विधर्मी हो चुका था। चार-छः मास दोनों परिवारों में झगड़ा चलता रहा। लड़की मियानी सत्रह बरस की हो चुकी थी। उसका विचार जानने का यब किया गया। बहू ने तत्कालीन हिन्दू लड़की की तरह कहा: मेरा क्या है। यहाँ जो बाप-माँ कहते हैं, करूँगी। वहाँ जो ससुर-सास कहेंगे, करूंगी। माँ-बाप ने जिसके पल्ले बाँध दिया, जो कहेगा-करेगा, करूँगी। कहो कुएं में कूद पड़, कहो नदी में कूद जाऊँ।
लड़की लाज की मारी पिता-माता के सामने अपने दुख के लिये प्रकट में रो भी न सकती। गुम सुम गर्दन लटकाये सदा मौन पति जिन्दा, परन्तु वह विधवा भीतर-भीतर आँसू पीती रहती। उस ज़माने में ऐसा ही शील और आचार था। कम आयु की लड़की, बाल- बच्चा होने से पूर्व विधवा हो जाती तो उसका बुक्का फाड़कर रोना-चिल्लाना निर्लज्जता समझा जाता, उसके मायके और ससुराल के लिये निन्दास्पद। वह अबोध, हकी-बक्की बनी कलेजा दोनों से काटे मौन रहती। परिवार, सम्बन्ध और पड़ोस की स्त्रियों बालविधवा को घेरकर, उसके दारुण दुख के लिये गला फाड़-फाड़कर रोतीं, छाती पीटतीं, सिर के बाल नोचती हाय बेचारी बच्ची क्या जाने! कैसा करम फट गया बेचारी का दारुण शोक को दारुणतम बनाने, करुण को अतिकरण बना देने की कला। दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना। व्यक्ति को दुख शोक के अतिरेक से स्तब्ध जड़ कर देना, दुख की अनुभूति के लिये
असमर्थ ।
लड़की के पिता-माता के लिये आँखों के सामने बेटी का आजन्म शोक असा था। बड़े- बूढ़ों ने तय किया: बेटी का धर्म दामाद के साथ गया। बेटी कर क्या सकती है? पति के साथ नहीं जाती तो भी पाप स्त्री का तो एक ही धर्म-पति विधाता ने यही उसके भाग्य में लिख दिया। समधियों के यहाँ संदेश भेज दिया। बेटी देकर लौटायी नहीं जाती। तुम्हारी बहू है। बेटी डोली पर ससुराल गयी, या अर्थी पर ससुराल गयीं, हमारे यहाँ से गयी।
"देवदत्त अपनी पत्नी को लिवाने के लिये ससुराल गया। लड़की के परिवार ने रीति के अनुसार न बाजा बजवाया न अवसर पर चार सम्बन्धियों को बुलाया। उस समय कांगड़ा जिले के परम्परानुगत द्विज लोगों के आँगन में भी मुसलमान, ईसाई या अछूत का प्रवेश निषिद्ध था। दामाद आँगन के किनारे खड़ा रहा। बेटी को उसके हवाले कर दिया गया। लड़की का परिवार आँसू बहा रहा था। बेटी की ससुराल के लिये विदाई के आँसू या श्मशान जाती बेटी के लिये आँसू ! पाप की भावना अपनी बछिया कसाई के हाथ सौंपने की विवशता का मूल बेटी सिसक-सिसक कर रोती सिर झुकाये पति के पीछे चली गयी। जिस
देश-काल में जवान स्त्रियों विश्वास के बल से या मूढता में श्रृंगार करके पति के शव के साथ चिता पर बैठने, ज्वालाओं में भस्म हो जाने के लिये पति की अर्थी के पीछे-पीछे चली जाती थीं, उस समाज की खियाँ ये सभी कुछ सहने के लिये तैयार हो सकती हैं।
देवदत्त पंडित की सत्रह वर्ष की पत्नी अनिवार्य नियति से विवश, पति के संकेत से सब कुछ सहने करने के लिये प्रस्तुत होकर ऊना आयी थी। कुछ समय वह मौन हतचेतन सी रही। उसे चारों ओर निर्लज्जता और अनाचार दिखायी पड़ता। ऊना के उस ईसाई निवेश में सभी बच्ची, जवान, बुद्धी खियाँ मुँह उघाड़े मर्दों के सामने आती जातीं। आमना-सामना होने पर हर किसी से सलाम- दुआ कर कुशल-क्षेम पूछती, हॅस-बोल लेतीं। देवदत्त की बहू विस्मय और लज्जा से गड़ जाती। पति के समझाने से शनै-शनैः उसका घूँघट कम हुआ। देवदत्त उसे गिरजा ले जाता। पड़ोसियों से मिलाया। अक्षर अभ्यास कराया। अब देवदत्त की पत्नी को लोगों के व्यवहार में निर्लज्ज उच्छृंखलता के बजाय सौहार्द और आदर जान पड़ने लगा। बप्तिस्मा लेकर उसे संतोष अनुभव हुआ। चैपल के अन्य उपासकों के साथ धर्मगीत गाने लगी।
देवदत्त पंडित लगन, उत्साह और शक्ति से ईश्वरपुत्र ईसू के धर्म-सन्देश का प्रचार करते रहे। उनका क्षेत्र तत्कालीन पंजाब में होशियारपुर, गुरदासपुर और काँगड़ा के जिले थे। उनकी धर्मनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता से दलित वर्ग के कई सौ परिवारों ने, कुछ द्विजों ने भी भगवान ईसू की शरण स्वीकार की। जो मनुष्य मानव शरीर पाकर भी वर्णाश्रम के संस्कारों से मानुषी अधिकारों से वंचित थे, पुनः मनुष्य बन सके। उस क्षेत्र के ईसाई समाज में उनका बहुत आदर था। ईश्वरपुत्र ईस की अपार करुणा से देवदत्त ने दो पुत्रों और दो पुत्रियों का आशीर्वाद पाया । देवदत्त की इच्छा थी, उनके दोनों पुत्र ईसू के धर्म-संदेश के प्रसार से मानव समाज के उत्थान का कार्य करें। बड़ा बेटा सत्यानन्द पंडित एंट्रेंस पास करके मिशन की कृपा से ईसाई धर्म- सिद्धान्त की विशेष शिक्षा के लिये जबलपुर चला गया। दूसरे पुत्र धर्मानन्द पंडित के लिये भी पिता ने वही मार्ग उचित समझा।
सत्यानन्द पंडित ने जबलपुर सेमिनरी से ईसाई धर्म दर्शन, धर्मोपदेश और ईसाई पुरोहिती की शिक्षा प्राप्त की। वे कई वर्ष उत्साह और लगन से धर्मोपदेशक का काम करते रहे। बाद में सत्यानन्द पंडित पंजाब बाइबल सोसाइटी के मंत्री नियुक्त हो गये। सन् १९३६ में आल इंडिया क्रिश्चियन कांग्रेस का वार्षिक सम्मेलन लखनऊ में हुआ था। सत्यानन्द पंडित उस अवसर पर लखनऊ पधारे थे। सम्मेलन में सत्यानन्द पंडित की विद्वत्ता और धर्म प्रचार कार्य का उल्लेख विशेष रूप से हुआ था।
धर्मानन्द पंडित ने एंट्रेंस के बाद जबलपुर सेमिनरी से ईसाई धर्म के स्नातक की परीक्षा पास की। अन्य धर्मविश्वासों, विशेषतः हिन्दू सम्प्रदायों की अनेक शाखाओं के सिद्धान्तों, व्यवहारों और विश्वासों की असंगतियाँ और अंतर्विरोध समझने के लिये संस्कृत का भी अध्ययन किया। धर्मानन्द पंडित की प्रकृति प्रचार कार्य के अनुकूल न थी। वे मिशन स्कूल में अध्यापक का कार्य करने लगे। अपने अध्यवसाय से अंग्रेजी साहित्य में प्राइवेट एम० ए० पास कर लिया।
पराधीन देश में सामयिक राजनीति, शासन नीति और व्यवस्था के प्रति असंतोष और आलोचना के अतिरिक्त क्या हो सकती है! अंग्रेज सरकार जनता और शिक्षा संस्थाओं में राजनीतिक चर्चा पसन्द नहीं करती थी। इसलिये आई० टी० गर्ल्स कालेज में भी राजनीति चर्चा उत्साहित न की जाती। धारणा थी: शिक्षा संस्थाओं और विद्यार्थियों को सामयिक राजनीति से दूर रहना चाहिये। सद्रागरिकों और ईसाइयों का धर्म और कर्तव्य राजभक्ति है। अंग्रेज ईसाई हैं। भारतीय ईसाई अंग्रेजों के सहधर्मी हैं। कांग्रेस बागी लोग हैं। कांग्रेस ईसाइयों के विरुद्ध है।
उपा का राजनीतिक आन्दोलनों से सम्पर्क न था, परन्तु उससे बिलकुल बेखबर भी न थी। पंडित अखबार नित्य पढ़ते थे। घर में अखबार आता था। नज़र पड़ जाय तो उषा और अमित भी मुखपृष्ठ या सनसनीखेज समाचार पढ़ लेते। किसी समाचार से कौतूहल- जिज्ञासा होती तो डैडी से समझना चाहते। पंडित बच्चों की जिज्ञासा दमन या उपेक्षा नहीं करते थे। उपा और अमित की जिज्ञासा के उत्तर में पंडित ने बताया था: शासन में सुधार की माँग करना राजद्रोह या बगावत नहीं होता। सभी देशों में लोग समय-समय पर अपने शासन में सुधार या परिवर्तन की माँग या यंत्र करते रहते हैं। ब्रिटेन में शासन नीति प्रजा के प्रतिनिधियों की पार्लमेंट निश्चित करती है। हिन्दुस्तान में भी कॉसिलें हैं, परन्तु कौंसिलों के लिये प्रतिनिधि चुनने का हक बहुत कम लोगों को, हजार में एक-दो को ही है। गली में देखो; डाक्टर चौहान, सड़क पर ऐडवोकेट चैटर्जी, एडवोकेट खान, मिस्टर सिंह, मिस जून और हमारे ही बोट हैं, यानी सर्वसाधारण गरीब लोगों को वोट का हक नहीं हम ग्रेजुएट हैं इसलिये हमें हक है वर्ना न होता।
कांग्रेस की माँग है, जिस प्रकार ब्रिटेन में सरकार बनती और शासन होता है, उसी प्रकार हिदुस्तान में भी सरकार बने और शासन हो। यह ब्रिटेन से विद्रोह नहीं है, ब्रिटेन के अनुकरण की इच्छा है। अनुकरण विद्रोह नहीं, भक्ति है। कानून और सरकार जनता के प्रतिनिधियों की राय से चलें, इसमें हिन्दू-मुसलमान ईसाई का क्या सवाल! कुछ हिन्दू- मुसलमान सरकार के तरीके से संतुष्ट हैं, बहुत लोग कांग्रेस की माँग के समर्थक हैं। कांग्रेस को शुरू करने वाला मिस्टर ह्यूम खुद अंग्रेज था और ईसाई। ऐसे ही मिस्टर बैडले फादर एण्ड्रज हैं, मिस्टर स्टोक्स हैं, मिर्ज़ापुर के वकील विलियम्स हैं, विक्टर जोशी हैं। सर महराजसिंह सरकार के समर्थक और होम मेम्बर हैं। उनकी बहिन राजकुमारी अमृतकौर मिस्टर गांधी और कांग्रेस के साथ हैं। वह भी ईसाई हैं। ऐसे ही मिस स्लेड्स हैं। यह सवाल धर्म-सम्प्रदाय का नहीं, देश और लोगों की भलाई के बारे में राय का है।
"परन्तु डैडी," उषा ने शंका की, “कांग्रेस वाले कानून तोड़ते हैं। कानून के विरुद्ध जंगल काटते हैं, नमक बनाते हैं, कपड़े और लिकर (शराब) की दुकानों के आगे लेटकर रास्ता रोकते हैं, इसीलिये उन्हें जेल भेजा जाता है।"
"तुम ठीक कहती हो। कांग्रेस वाले कानून के खिलाफ नमक बनाते हैं, जंगल काटते हैं। " पंडित ने स्वीकार किया, "लेकिन छिपकर चोरी से नहीं। वे लोग अपने ख्याल में दूसरे लोगों की भलाई के लिये कानूनों को बदलना चाहते हैं। इसे अपने कानशिपेंस (अंतरात्मा) की आवाज कहते हैं। उनका काम कानून के खिलाफ अपराध होता है, लेकिन अनैतिक अपराध नहीं कहा जा सकता। तुमने पड़ा है, पैगन रोमन लोग ईयू का धर्म स्वीकार करने वालों को सजा देने के लिये जिन्दा जला देते थे। ईसा को भी उस समय का कानून भंग करने
के लिये सूली पर चढ़ा दिया गया था। कानून मनुष्यों की समझ के अनुसार बदल जाते हैं। तब कानून को बदलवाने के लिये बलिदान हो जाने वाले लोग संत और शहीद मान लिये जाते हैं।"
हरि भाई ने चलते-चलते जवान के कंधे पर हाथ रखकर कहा था, "सुबह ये लोग प्रभातफेरी के लिये आयेंगे। लाठी बरसे, पत्थर बरसे, ये लोग भागेंगे नहीं!"
हाय गली में ऐसा होगा सोचकर उषा के शरीर में झुनझुनी आ गयी। पिछली सुबह उत्तरती नींद में गली में कुछ सुनायी तो दिया था, परन्तु उठकर देख लेने की उत्सुकता न
हुई।
उषा और पद्मा ऊपर के कमरे में सोती थीं। उस सुबह गली से जय महात्मा गांधी की जय! इन्कलाब जिन्दाबाद की पुकारें सुन उषा लिहाफ से निकल खिड़की से झाँक्ने लगी। गहरे धुंध में स्पष्ट न दिखायी दिया। सुनायी दियाः उठो सोने वालो सवेरा हुआ है, वतन के फकीरों का फेरा हुआ है। टोली के लोग गाते चले जा रहे थे। आगे चलता आदमी हाथ में झण्डा उठाये था। सब कुछ धुंधला-धुंधला सोचा: क्या रात वाला जवान है?
सुना: माताओ, भाइयो, बहनो! अपने देश की आजादी के लिये, अपने प्यारे शहीदों की याद में अपना कीमती वोट कांग्रेस के उम्मीदवार गुप्ता जी को दीजिये"" ।
उषा विद्यार्थी थी। डाक्टर अमरनाथ सेठ के अनुरोध से वार्ड इंचार्ज ने उषा की सहायता के लिये एक व्यक्ति को समीप रह सकने की अनुमति दे दी। पंडित घर लौटकर मिसेज़ पंडित को हस्पताल ले गये। उषा को गहरी चोट लगने का समाचार पाकर रोजी भी लड़की को देख आने के लिये तड़प उठी थी वह भी मिसेज़ पंडित के साथ चलने के लिये व्याकुल।
उषा नींद की दवाई के प्रभाव से पलंग पर मौन निश्चला चेहरा पीला। शरीर चादर से डा, दायीं टाँग पर पट्टियाँ। बेटी की अवस्था देख माँ का कलेजा मुँह को आ रहा था। नींद की बेसुधी में उषा के मुँह से अस्पष्ट कराहट निकल जाती माँ का रोम-रोम सिहर उठता। संध्या डाक्टर सेठ नर्स के साथ फिर आया। उपा नींद में थी। सेठ ने मिसेज़ पंडित को आश्वासन दिया, "इन्हें नींद में कोई कष्ट महसूस न होगा। आप निश्चिन्त आराम कर सकती हैं। नर्स देखती रहेगी। आपके खाने के लिये क्या भिजवा दिया जाये?"
कुछ ही मिनट पूर्व अमित माँ के लिये खाना दे गया था। मिसेज पंडित ने डाक्टर को धन्यवाद दिया, "बेटा खाना दे गया है।" पर कुछ भी खाने को मन न था।
डाक्टर सेठ ने पुनः आश्वासन दिया, “आप संकोच न करें। मैं पंडित साहब का पुराना स्टूडेंट हैं। कोई भी जरूरत हो, वार्ड बॉय या दाई से मुझे संदेश भिजवा सकती हैं।" अपने कार्टर का नम्बर बता दिया है।
मों का मन अतल चिन्ताओं में इबा जा रहा था। बेटी के कष्ट की कल्पना से व्याकुलता, उसके अंग-भंग की दारुण आशंका। बेटी की सगाई में केवल अढ़ाई सप्ताह और विवाह में दो मास तब तक उठने-बैठने, चलने-फिरने लायक हो सकेगी? ईश्वर और उसके पुत्र की दया का ही सहारा कुदरत और जलाल हमेशा तेरा ही है। उसकी कृपा से चमत्कार भी सम्भव । इतने कम समय में बेटी का इलाज और उसकी सेवा-शुश्रूषा करेगी या विवाह की तैयारी का काम! सभी कुछ करने को शेष था। इतने मेहमान आने वाले इसी इतवार मकान में सफेदी के लिये मिश्री आने वाला था। उषा तसल्ली देती रही: मम्मी, चिन्ता मत करो। एक्जाम हो जाये, फटाफट सब करवा दूंगी। हे परमेश्वर ।
पंडित पत्नी के लिये बेटी के समीप फर्श पर या खाली पलंग पर लेट सकने के लिये दरी, तकिया, चादर लेते आये थे। माँ का मन लेटने को न हुआ। रात भर बेटी के पलंग के समीप स्टूल पर बैठी, कभी जमीन पर घुटने मोड़ परमेश्वर और उसके पुत्र ईसू से बेटी पर कृपा के लिये प्रार्थना और दुआ करती रही।
पंडित सुवह कॉलेज जाने से पूर्व बेटी को देखने के लिये आये तो रोज़ी साथ आयी। वे पत्नी और बेटी के लिये थर्मस में गरम चाय लेते आये थे। रोज़ी ने उषा का माथा हाथ घूम- चूम, उसकी बलायें ले लेकर उसका कष्ट अपने पर लेने के लिये परमेश्वर से प्रार्थना की। पंडित का सुझाव था, रात भर जागी पढी घर लौटकर विश्राम करे। साँझ तक रोज़ी उपा के समीप रह जायेगी, लेकिन माँ बेटी की चोट का पूरा ब्योरा जाने बिना पर जाने को तैयार न थी। पंडित रोजी को फिर कंधारीबाग लेन के लिये इक्के पर बैठा स्वयं कालेज चले गये।
नौ बजे दूसरी नर्म उषा को दाइयों की सहायता से स्ट्रेचर ट्राली पर, टॉग में चोट की एक्सरे परीक्षा के लिये ले गयी। मिसेज़ पंडित बेटी के लौटने की प्रतीक्षा में उसके पलंग के समीप बैठी परमेश्वर और उसके कृपालु पुत्र से दुआ माँगती रहीं बेटी के शरीर का कष्ट मेरे शरीर पर देकर उसे स्वास्थ्य दान दोए हमारे बाप, तेरी मर्जी जैसे आसमान पर पूरी होती है, जमीन पर भी पूरी हो। कुदरत और जलाल हमेशा तेरा ही है। आमीन बेटी की शादी समय पर हो जाय।
उषा को एक्सरे परीक्षा के लिये गये काफी समय हो चूका था। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था. माँ की चिन्ता उग्रतर हो रही थी हे परमेश्वर तेरे ही रहम का सहारा है बेटी की रक्षा कर
उषा स्ट्रेचर ट्राली पर वार्ड में लौटी तो औषध के प्रभाव से मूर्च्छित थी। वार्ड इंचार्ज और डाक्टर सेठ स्ट्रेचर के साथ आये। उपा की चोट खायी टाँग जाँघ से टखने तक तख्तियों और पट्टियों में सीधी कसी हुई थी। डाक्टर, नर्स और दाई ने उषा को पलंग पर चित लिटा दिया। तख्तियों और पट्टियों में कसी टाँग के नीचे गड़ियाँ और तकिये रखकर टोंग को पलंग के पैताने के जंगले के बरोबर उठाया गया। पलंग के जंगले पर एक चर्बी कमी गयी। डोर में बंधा छोटा सा वजन उपा के टखने के ऊपर टाँग की हड्डी में फॅसायी गयी सलाख में बाँधकर चर्बी पर से लटका दिया गया, जैसे कुएँ की जगत पर लगी चख मे पानी भरे डोल या बाल्टी खींचे जाते हैं। सब व्यवस्था करके उषा को मूर्च्छा भंग न होने के लिये सुई लगा दी गयी।
मूर्च्छित बेटी को और उसके टखने में बिंधी लोहे की सलाख देख आतंक से माँ का रोम- रोम सिहर कर पसीना आ रहा था। बहुत यत्र से आँसू रोक सकी। एक बज चुका था। पंडित फिर आ गये।
डाक्टर सेठ ने पंडित और मिसेज़ पंडित को सांत्वना दी, पेशेंट मूर्च्छा में कोई पीड़ा अनुभव नहीं कर रही है। हड्डी में सुराख करके लटकाये वजन से भी कोई पीड़ा न होगी।
एक्सरे से सन्देह है कि जाँघ की हड्डी टूटकर कागज भर ऊपर चढ़ गया है। हड्डी को जोड़ देने के लिये यों ही प्लास्टर कर देने से यह टाँग कुछ छोटी पड़कर लंगडापन रह जाने की आशंका थी । सर्जन ने यह व्यवस्था हड्डी को उसके उचित स्थान पर लाने के लिये की है। सप्ताह भर बाद फिर एक्सरे में देख लिया जायेगा। संतोष होने पर सलाख निकाल कर प्लास्टर कर दिया जायेगा। यह सब पेशेंट के हित में है। सप्ताह-दस दिन अधिक लग सकते परन्तु ऐव रह जाने की आशंका न रहेगी।"
"डाक्टर साहब, टांग कब तक ठीक हो जायेगी?"
"प्लास्टर कम से कम छः सप्ताह रहना चाहिये।" डाक्टर ने उत्तर दिया।
हृदय पर भारी चिन्ता की चोट, गहरे साँस के लिये माँ के ओठ खुल गये। मन ही मन गुहराया: हे ईश्वर के पुत्र, बेटी की और हमारी रक्षा कर
डाक्टरों के चले जाने पर मिसेज़ पंडित के लिये अपनी विह्वलता दबाये रखना सम्भव न रहा। दोनों हाथों से मुख पर आँचल दबाकर वार्ड के बाहर बरामदे में निकल फफक- फफक कर रोती रही। पंडित पीछे-पीछे आये। कुछ कड़ाई से बोले, "धैर्य रखो, जरा मौके- मुहाल का सवाल करो। रोने से क्या होगा!"
""ऐसी हालत में सत्ताईस तारीख को क्या होगा?" मिसेज़ पंडित सुबक कर बोली। "जो ईश्वर को मंजूर होगा। बेटी की और हमारी हालत में जो सम्भव होगा। जिस पर हमारा बस नहीं, उसके लिये क्या कर सकते हैं। "
"आगरा, लाहौर, अम्बाला सब जगह लिख चुके हैं। "
"अभी समय है। पंडित ने कहा, "दो-तीन दिन में सोच-विचार कर उन्हें सूचना दे देंगे।"
अमित माँ के लिये खाना ले आया। पंडित अमित के साथ वापस घर चले गये। साँझ पाँच बजे डाक्टर चौहान दम्पति और सिंह परिवार सहानुभूति में उषा को देखने के लिये हस्पताल आये। मिस जून और मिस्टर हैरन भी आये उषा के घर लौटने में विलम्ब का समाचार अमित से पाकर चित्रा को चिन्ता हुई थी। उसने स्वयं आदमी भेजकर फिर पुछवाया था। सहेली हस्पताल में है, सुनकर चिन्ता में भागी आयी।
संध्या उषा सचेत थी। मूर्च्छित उपरान्त चेहरे पर थकान और पीलापन । समवेदना में आने वालों के सलाम और सहानुभूति का उत्तर संकेतों से दे रही थी। चित्रा ने पलंग की पाटी पर बैठकर उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया तो आँखों में जरा चमक आ गयी, ओठ मुस्कान में हिल गये।
डाक्टर चौहान की बेटी चन्द्रा मेडिकल कालेज में पढ़ रही थी। उषा से तीन बरस बड़ी । दोनों बचपन में साथ खेली सहेलियाँ। चौहान ने चन्द्रा को बुलवा कर उषा और मिसेज़ पंडित की सब सुविधा जरूरत का खयाल रखने के लिये ताकीद कर दी। समवेदना और सहानुभूति में आने वालों की निगाहें मिलती तो प्रश्न सत्ताईस अप्रैल को लड़की की सगाई और जून में शादी कैसे हो सकेगी? उपा के सामने किसी ने जवान न खोली।
रात उपा के पास रहने के लिये रोज़ी अमित के साथ छः बजे पहुँच गयी थी। मिसेज़ पंडित विधाम और नहा-धो सकने के अवसर के लिये पति के साथ घर लौट गयी। दुर्घटना से उत्पन्न परिस्थिति पर विचार भी करता था।
कंधारीबाग गली लौटकर पंडित के आँगन में चौहान दम्पति सिंह दम्पति और पंडित दम्पति में विचार-विमर्श हुआ। किसी भी निश्चय निर्णय के लिये दोनों पक्षों की सुविधा का विचार आवश्यक था। सबसे पहले पंत परिवार को सूचना देना जरूरी था। सूचना देने में सावधानी आवश्यक थी। मामला नाजुक था। कुछ छिपाना उचित न था। उन्हें कल्पना से अधिक अनुमान कर लेने और आतंकित हो जाने का अवसर देना भी गलत था। सम्बन्ध का निश्चय मिसेज़ चौहान के माध्यम से हुआ था। स्थिति को बिगड़ने न देने या गलतफहमी से बचाने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व उसी पर आता था। पड़ोसी के संकट में सहायता का कर्तव्य तो था ही।
निश्चय हुआ: साढ़े आठ के लगभग चौहान दम्पति और पंडित क्ले स्क्वायर जाकर पंत और मिसेज़ पंत से बात करें। चोट की वास्तविक स्थिति के सम्बन्ध में चौहान डाक्टर के नाते अधिकार से कह सकते थे। चौहान दम्पति और पंडित, चौहान की छोटी मौरिस कार में कले स्क्वायर गये। पंत दम्पति पर पर न थे। उनके अर्दली और खानसामा ने बताया: साहब और मेम साहब बेटी के साथ बनारसीबाग किसी साहब के यहाँ मिलने गये थे। मालूम न था, कब लौटेंगे।
केवारीबाग गली लौटते हुए डाक्टर चौहान ने राय दी. "आज शुक्रवार है। कल का दिन चुप रहा जाये, रविवार संध्या चर्च में भेंट होगी ही। समाचार पाकर वे लोग अगले दिन लड़की को देखने जायेंगे तब तक उषा की तबीयत काफी सम्भल जायेगी।" पंडित डाक्टर से सहमत थे।
गली के दूसरे दो-चार पड़ोसी भी सहानुभूति में उषा को देखने और उसकी सेहत के लिये दुआ करने हस्पताल गये। लड़की को भयंकर चोट, जाँघ की हड्डी टूटकर टेडी हो जाने, हड्डी में छेद करके कील ठोके जाने की अफवाह गली में फैल गयी। जैन, मेरी और किम ने उसकी व्याख्या की लड़की की कमर टूट गयी। समाचार गली में नहीं, नरही और लालबाग की ईसाई बस्तियों तक पहुँच गया पूरी जवान, इतनी पढ़ी-लिखी खूबसूरत लड़की चलने लायक हो पायेगी? चल सकी तो भी उम्र भर के लिए अपाहिज जो भी सुनता, दुख और सहानुभूति प्रकट करता।
शनिवार दोपहर बाद मिसेज़ पंडित बेटी की देखभाल के लिये हस्पताल आ गयी। रविवार प्रातः उपा उठी तो चेहरा स्वस्थ लग रहा था। मां पिछली संध्या बेटी के बदलने के लिये कपड़े लेती आयी थी। सुबह गीले तौलिये से चेहरा शरीर पोंछकर कपड़े बदलवा दिये। पंडित पत्नी के लिये नाश्ता लेकर आये तो उषा ने मुस्कराकर स्वागत किया। पंडित ने बेटी की मुस्कान देखकर परमेश्वर को धन्यवाद दिया।
डैडी, पड़ने के लिये कुछ भिजवा दीजिये।"
पंडित ने बेटी को पुस्तकें भेज देने का आश्वासन दिया।
रविवार वार्ड में डॉक्टरों का चक्कर लगाना जरूरी नहीं होता, परन्तु डाक्टर सेठ साहे आठ के करीब आ गया। उषा ने डाक्टर सेठ के अभिवादन का उत्तर मुस्कान से दिया। "आज बेहतर दिखायी दे रही हैं।" सेठ ने पूछा, नींद ठीक आ
उपा ने धन्यवाद दे हामी भरी।
मिसेज़ पंडित ने उषा के लिये हस्पताल से आया नाश्ता उसे लेटे-लेटे खिला दिया। अब
टोटीदार प्याले से चाय पिला रही थी।
"टोटीदार प्याले की क्या जरूरत?" सेठ ने मिसेज़ पंडित की ओर देखा, "बस, इनकी टॉंग न हिले । पीठ के पीछे सहारा देकर कंधे उठा दीजिये। खाने-पीने में सुविधा रहेगी।" फिर उपा की ओर देखा, "कोई और कष्ट?"
"जी नहीं थैंक्यू टाँग में केवल जकड़न और बोझ लगता है।"
"ठीक कहती हो । जकड़न और बोझ तो होगा, वही इलाज है, अब दर्द नहीं होगा। बस लेटे रहने का कष्ट । मेरे लायक सेवा बताइये।" सेठ ने मिसेज़ पंडित की ओर देखा । मिसेज़ पंडित ने धन्यवाद दिया, "डाक्टर साहब, आपने बहुत सहायता की। आपके हृदय में ईश्वर का वास है। "
"माता जी, सहायता की कोई बात नहीं यह तो डाक्टर का काम है और आपको बता चुका हूँ, मैं मास्टर साहब का पुराना स्टूडेंट हैं। मास्टर साहब मुझे पहचानते हैं। आपके मकान पर भी जा चुका है। आपका मकान कंधारीबाग गली में है न!"
"परमेश्वर आपका भला करे डाक्टर साहब!" मिसेज़ पंडित ने विस्मय प्रकट किया, "हमें याद नहीं आ रहा।"
"आपसे भेंट नहीं हुई। " सेठ ने कहा, "मास्टर साहब को याद है। मिस पंडित को देखा था। साल भर से अधिक हो गया। डाक्टर चौहान, डाक्टर दास और हरिकृष्ण भैया जी के साथ गया था।" सेठ हँस दिया।
उषा को कुछ धुंधली सी याद आयी।
“आपके यहाँ उस दिन संगीत का कार्यक्रम था।" सेठ से चलते-चलते फिर कहा, "कोई भी जरूरत हो, आप मुझे निस्संकोच याद कर सकती हैं। मेरे क्वार्टर का नम्बर छः है।" "एक्सक्यूज मी डॉक्टर साहब,” उषा जरा झिझकी परन्तु कह दिया, "हो सके तो पढ़ने के लिये कुछ दे सकेंगे?"
"अखबार भिजवा दूँ?"
"अखवार या कोई पुस्तका मैंने डैडी से भी कहा है पर वे दोपहर या शाम तक भिजवा सकेंगे।"
"जरूर प्रयत्न करूँगा।"
डाक्टर पंडित का विद्यार्थी है, भला है, मिसेज पंडित का भी हौसला बढ़ा। पूछ लिया, डाक्टर साहब, इसकी टाँग किसी तरह जल्दी ठीक नहीं हो सकती?"
"माता जी, जल्दी का ही उपाय किया जा रहा है।"
"आप तो कहते हैं, हफ्ते भर बाद छः हफ्ते के लिये प्लास्टर लगेगा। प्लास्टर लगा रहेगा तो लड़की चल-फिर सकेगी?"
उषा ने झुंझलाहट से माँ की ओर देखा।
परेशान माँ के अज्ञान पर सेठ हँसा नहीं, "प्लास्टर में चलना-फिरना तो कठिन होगा; कुर्सी पर बैठ सकेंगी। बगल में बैसाखी लेकर दस-बीस कदम चल भी सकेंगी। क्या इम्तहान विम्तिहान की फिक्र है?"
"नहीं, डाक्टर साहब।" माँ ने गहरा साँस लिया, “इम्तहान तो ईश्वर की कृपा से पूरा हो गया। बेचारी उसी दिन आखिरी पर्चा करके आ रही थी। "
"तो फिर क्या चिन्ता?"
"डाक्टर साहब, इसकी तो शुरू जून में शादी है। लड़का पी० सी० एस० है, उसे शादी के बाद ट्रेनिंग के लिये जाना है।"
उपा को माँ की व्याकुलता से झेंप अनुभव हो रही थी। माँ को रोकती भी कैसे!
"जून शुरू तक तो मुश्किल है।" सेठ ने माँ की चिन्ता से सहानुभूति प्रकट की। दोनों हाथ कमर के पीछे पकड़े, कदम सुविधा से फैलाकर आराम से हो गया। "तारीख बदलवा लीजिये। आप लोगों के यहाँ तो हिन्दुओं की तरह लगन साइत का झंझट होता नहीं तीन- चार मास बाद चलने-फिरने लगे तो ठाठ से शादी कीजिये। हमें भी खबर दीजियेगा, भूलियेगा नहीं।" सेठ ने हँसकर उषा की ओर देखा। उषा की पलकें झुक गयीं।
"जरूर डाक्टर साहब," माँ ने हामी भरी, "आपको कैसे भूल सकते हैं।"
डाक्टर सेठ के जाने के कुछ देर बाद एक नौकर लड़का दैनिक अखबार दे गया। दस बजे तक अमित रोज़ी को लेकर आ गया। उषा के लिये एक उपन्यास भी लाया था। उषा ने तुरन्त अखबार छोड़ पुस्तक उठा ली- 'बदरिंग हाइट्स'
"हाय बुद्ध, क्या ले आया, मेरा पड़ा हुआ है।"
जीजी, तुमने दुनिया भर के नावेल चाट लिये तो डैडी क्या करें। कल दूसरा ले आऊँगा।" अमित ने कहा।
रोज़ी उषा के पास रह गयी। माँ बेटे के साथ लौट गयी। उषा अखबार के रविवार- पत्रिका अंश में से रोचक भाग पड़ती रही। दोपहर खाने के बाद उसे झपकी आ गयी। रोजी समीप के खाली पलंग पर लेट गयी थी। उपा के उठने पर उसने बताया, "एक मुंडा (लड़का आया था। डाक्टर ने तेरे वास्ते किताब दी है।"
अच्छी भारी पुस्तक । उपा ने कौतुहल से पुस्तक देखी पुस्तक अंग्रेजी में 'माई स्टोरी' —जवाहरलाल नेहरू । आरम्भ में पंडित जवाहरलाल नेहरू का और बीच में उनके पारिवारिक चित्र। पंडित जवाहरलाल के नाम से कौन पड़ा लिखा व्यक्ति अपरिचित था। उषा जानती थी, बहुत बड़े नेता हैं। याद आ गया: कुछ मास पूर्व, पिछले दिसम्बर में पंडित नेहरू को देखा था। यूनिवर्सिटी में कन्वोकेशन एड्रेस देने आये थे। नेहरू के आदर में कैसरबाग से यूनिवर्सिटी तक सड़क के दोनों ओर भारी भीड़ थी, नारे लग रहे थे. जवाहरलाल नेहरू जिन्दाबाद। पंडित नेहरू जिन्दाबाद। भीड़ को सम्हालने के लिये काफी पुलिस । कालेज की लड़कियाँ भी नेहरू को देखने के लिये उत्सुक थीं। दूर से देखा था: नेहरू लोगों को दर्शन देने के लिये चलती मोटर में बड़े भीड़ का उत्तर दे रहे थे। हैण्डसम, नसवारी शेरवानी, सफेद गांधी टोपी, चूड़ीदार पायजामा, सीने पर लाल गुलाब की कली । देखे हुए व्यक्ति की कहानी पढ़ने के लिये कौतूहल उमंग उठा। तुरन्त पड़ने लगी।
खाने के पहले अखबार का पत्रिका अंश पढ़ते समय और खाते समय भी उषा के मन में दूसरी बातें आ-जा रही थीं। मार्च के अन्त में निर्मल का पत्र आया था। उपा ने संक्षिप्त उत्तर दे दिया था' ७ अप्रैल को अंतिम पेपर है। उस दिन फिर लिखूँगी। अंतिम पेपर के बाद वह घर के बजाय हस्पताल पहुँच गयी। लिख सकने की स्थिति में न थी । निर्मल ने सोलह-सत्रह तक ईस्टर संडे से पूर्व लखनऊ पहुंचने के लिये लिखा था। आते ही क्या समाचार मिलेगा। निर्मल के दुख की कल्पना से दिल भर आया।
मम्मी-डैडी की बातों से अनुमान था कि दुर्घटना का समाचार अभी पंत परिवार को नहीं दिया जा सका था। मिसेज़ पंत चर्च मिस न करती थीं। संध्या चर्च में उनसे भेंट होगी। बेचारी सुनकर कितनी व्याकुल होंगी। वे लोग जरूर आयेंगे। सिर पर पट्टी बाँह पर पट्टी, टोंग बँधी हुई कैसी लगूँगी! हाय, कितना बुरा लगेगा कांट हेल्प चर्च से लौटकर अमित बेवे के लिये खाना लेकर आयेगा तो पता चलेगा, निर्मल की मम्मी ने क्या कहा? निर्मल को घर पहुँचते ही सैड न्यूज' खैर तब तक प्लास्टर के बाद घर पहुँच जाऊँगी। मुझे पलंग पर जख्मी पड़ी देखकर उसे कैसा लगेगा। उपा इस उधेड़बुन में कुछ देर उलझी रही। फिर मेरी कहानी' आरम्भ की तो उसमें गहरी दूब गयी।
पढ़ते-पढ़ते सहसा अंधकार। उपा की आँखों को दो हाथों ने दबा लिया था। "कौन?" उपा के मुँह से निकला। खुली पुस्तक सीने पर रखकर आँखों पर दुवे हाथ पहचानने के लिये बायाँ हाथ उठाकर आँखें बन्द करने वाले का सिर चेहरा टटोले, "चित्तू!" • चित्रा आयी तो उषा पुस्तक में गहरी डूबी थी। बिना एड़ी की सैंडल की आहट न पा सकी। उषा को पुस्तक में रमी देख चित्रा को अच्छा लगा। रोजी उसे पहचानती थी। चित्रा ने ओठों पर उँगली रखकर चुप का संकेत कर दिया था। रोज़ी मुस्कराकर सहेलियों का खेल देखती रही। आहट बचाकर उषा के सिराहने के पीछे चली गयी। चौंकाने के लिये उसकी आँखों पर हाथ रख दिये। उपा को पहचानते में असुविधा न हुई । चित्रा ऐसी हरकत पहले भी कर चुकी थी। उषा उसके हाथों, उँगलियों के स्पर्श से परिचित थी।
"कैसी दूबी हुई थी पड़ने में!" चित्रा पलंग पर उषा से सटकर बैठ गयी, “किताब के बहाने अपने चितचोर के सपने देख रही होगी।"
“हाय चित्रा, बहुत ही इंटरेस्टिंग।" उपा ने बताया। पुस्तक का शीर्षक दिखाया। भीतर के दो-तीन चित्र दिखाये।
"ही इज ए ग्रेट मैन।" चित्रा ने माना, "हमने दो बार नजदीक से देखा है। बक्शी साहब रिश्ते में हमारे फूफा होते हैं। उन्हीं के यहाँ ठहरते हैं ये लोग। "
शुक्र संध्या चित्रा आयी थी तो उषा बात करने लायक स्थिति में न थी । अन्य बहुत से लोग थे। अब दोनों अकेली थीं। रोजी का होना न होना बराबर। दोनों में घुट-घुटकर बातें होने लगीं।
“मरी, साइकल से गिर कैसे पड़ी? क्या चितचोर के सपनों में खो गयी थी!" उपा ने संक्षेप में दुर्घटना का ब्यौरा दिया।
“पागल, तुझे उन लफंगों से रेस करने की क्या जरूरत थी!" चित्रा ने चिन्ता प्रकट की, "ऐसी हालत में तेरी सगाई और जून में शादी कैसे होगी?"
"परमेश्वर जाने मेरे या किसी के बस में क्या है!" उषा का स्वर उदास हो गया। “पागल, मन छोटा करने की क्या बात है!" चित्रा ने झुककर उपा के गालों पर प्यार किया, "लोग कहते हैं, पाने से चाहने के दिन ज्यादा मीठे होते हैं। वह तेरा, तू उसकी हो चुकी। दो चार महीने में क्या फरक हो जायेगा। मैं तो कहती हूँ. एक तरह अच्छा हुआ।" चित्रा उपा के मुँह की ओर झुक गयी, "जून के शुरू में शादी हो जाती। पंत ट्रेनिंग पर चला जाता। तू बिरहन बनकर बैठ जाती आहे भरती रहती। दिसम्बर में ट्रेनिंग से लौटेगा तब शादी ज्यादा अच्छी ।" चित्रा ने आँख मारी, "लोग कहते हैं जाड़ों की शादी ज्यादा अच्छी होती है।"
उपा को हँसी आ गयी, "मर बेशरम ! तेरी कल्पना में बस एक बात "
उपा का मन बहलाने के लिये चित्रा कहती गयी, “सोलह-संग्रह को पंत लौट रहा है। खबर पाते ही दौड़ा आयेगा। सुबह-शाम आकर तेरे सामने बैठेगा। आँखों आँखों में बातें हुआ करेंगी। बड़ी खुशकिस्मत है। हमारी भी तो सगाई हुई है। हमारा हाल देख, न खत लिख सकते हैं, न बात कर सकते हैं।"
उपा और चित्रा में बतरस के लिये प्रसंगों का अंत न था। छः बजे हस्पताल की घंटी बज गयी। मरीजों से भेंट के लिये आये लोगों को लौट जाने का संकेत चित्रा कुछ मिनट बाद उठी। फिर आने का आश्वासन दे गयी।
पुस्तक बहुत रोचक थी, परन्तु चित्रा उससे भी मार्मिक स्मृतियाँ उकेर गयी थी। उसके चले जाने के बाद उपा बहुत देर तक पुरानी यादों में तैरती-उतराती रही।
पंडित परिवार रविवार संध्या नियम से गिरजा जाता था। उषा का गला अच्छा था, स्वयं लय पकड़ लेती थी। बचपन से ही कॉयर (प्रार्थना संगीत मंडली) में भाग लेने लगी। कैंट रोड और कंधारीबाग गली के अधिकांश परिवार अमेरिकन मैथोडिस्ट चर्च के मेम्बर थे। पंत परिवार का भी इसी गिरजे से पुराना सम्बन्ध था। पंत साहब व्यस्तता से कभी गिरजा न भी जाते । मिसेज़ पंत अधिक निष्ठावान थीं। मिसेज़ पंत पहले उपा को ह वात्सल्य की दृष्टि से देखती थी। गत नवम्बर के आरम्भ में पडित परिवार से सम्बन्ध की बात हो जाने के बाद उपा दिखायी दे जाती तो उसे बाँह में ले, ठोड़ी छु, सिर चूमकर आशीर्वाद देतीं। अपनी ऊँची स्थिति की चिन्ता न कर पंडित और मिसेज़ पंडित से भी कुशल-मंगल पूछ लेती।
सात के लगभग उषा के लिये हस्पताल का खाना आ गया। रोज़ी ने उषा को सहारा देकर पीठ पीछे तकिये लगा दिये। सामने तौलिया फैलाकर खाने की ट्रे रख दी। उषा ने अपने हाथ से खा लिया। फिर पुस्तक आरम्भ न की। अनुमान था अमित आठ तक रोज़ी के लिये खाना लेकर आयेगा। उससे पंत परिवार से भेंट का समाचार मिलेगा। उसके बाद पड़ेगी। सवा आठ तक अमित आ गया। पूर्व निश्चय अनुसार पंत परिवार से बात करने के विचार से पंडित दम्पति और चौहान दम्पति साथ-साथ गये थे।
गिरजे के आँगन में चौहान दम्पति और पंडित दम्पति को देख मिसेज़ पंत उनकी ओर बढ़ आयी थीं। दोनों ओर से गुड ईवनिंग मिसेज़ पंत ने उद्या को न देख विस्मय प्रकट किया।
• मिसेज़ पंडित का गला भर आया। पड़ोसिन के प्रति सहानुभूति में उत्तर मिसेज़ चौहान ने दिया साइकल फिसल जाने से लड़की को चोट आ जाने की दुर्घटना। परमेश्वर की कृपा से कोई घातक चोट नहीं आयी। चेहरे मोहरे पर कोई खरोंच भी नहीं। हाँ गिरने से जाँच की हड्डी में कुछ ज़रब आ गयी थी। डाक्टर चौहान ने बात सम्भाली। डाक्टरी भाषा में बताया फीमर का सिम्पल फ्रैक्चर नथिंग सीरियसा ठीक होने में अधिक समय न लगना चाहिये। डाक्टर सिन्हा बहुत लायक सर्जन हैं। जाँघ की हड्डी गलत जुड़कर टॉग में लैंगड़ापन रह जाने की आशंका दूर करने का उपाय भी कर दिया। टखने की हड्डी में सूराख कर सलाख डालकर उसे वजन से बाँध ठीक जगह खींच दिया गया है। आपरेशन बहुत नीट
हुआ है। समय तो कुछ लगेगा परन्तु टाँग में ऐब रह जाने की कोई आशंका नहीं ।
समाचार से मिसेज़ पंत का चेहरा फका आँखें चिन्ता और समवेदना से अपलका पर्स से हैंकी निकालकर आँखों के कोने पोंछे । दीर्घ निश्वास लिया, “परमेश्वर की दया असीम है। इलाज से जरूर जल्दी ठीक हो जायेगी। बस, बेपरवाही न हो। हम उसकी सेहत के लिये प्रभु जीजस से दुआ करेंगे। लौटकर साहब को खबर देंगे। हम लोग कल आयेंगे। हमारे लायक काम हो तो जरूर बताना, संकोच न करना।"
मिसेज़ पंडित ने भी रूमाल से आँखें पोंछकर धन्यवाद दिया, "परमेश्वर की कृपा का ही भरोसा है। हम तो उसके साधन हैं। माँ-बाप बस चलते बच्चों के लिये क्या नहीं करेंगे। सहायता के लिये आपसे नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे। लड़की तो आपकी हो चुकी । हमारे यहाँ तो आपकी अमानत है।" मिसेज़ पंडित फिर आँखें पोंछने के लिये रुकी तो मिसेज़ चौहान ने जोहा, "यह लोग ठीक कह रहे हैं. ऐसी हालत में विवाह जून में कैसे हो सकेगा। दोनों तरफ की सुविधा सोचकर कोई दूसरी तारीख ठीक कर ली जाये ।
“हाँ हों," मिसेज़ पंत ने स्वीकार किया, "ऐसे कामों में उतावली ठीक नहीं। पहले इलाज। उतावली काम शैतान का अब बैठा जाय, प्रार्थना आरम्भ हो रही है।" वे चर्च के दरवाज़े की ओर घूम गयीं।
चर्च से लौटते समय मिसेज़ पंत ने पंडित और चौहान परिवार को गुड नाइट कहते समय फिर सान्त्वना देकर ताकीद की, "बेटी का इलाज पूरी सावधानी से होना चाहिये। उसे हमारा प्यार देना और दुआ कहना। हम साहब के साथ आयेंगे। हमारे लायक काम बताने में जरा भी संकोच न हो।"
अमित ने सारी बात उपा को अंग्रेजी में बतायी। बेबे को हिन्दुस्तानी में बताया- सुनकर मिसेज़ पंत को रोना आ गया। कल आयेंगी।
चर्च में भेंट का प्रसंग अमित से सुनकर उषा सोचती रही, निर्मल की मम्मी कितनी डिसेन्ट और अफेक्शनेट हैं। स्मृतियाँ साकार होने लगीं। उनका तारतम्य यों था:
बरस भर पहले तक पंडित और पंत परिवारों में एक चर्च के मेम्बर होने के नाते परिचय था, विशेष सामीप्य नहीं। दोनों की स्थिति में बहुत अन्तर पूर्णचन्द्र पंत साहब सेक्रेटेरियेट में शनै: शनै: उन्नति करके अब अर्थ विभाग में अण्डर सेक्रेटरी। उस ज़माने में हिंदुस्तानी के लिये बड़ी बात। पंडित क्रिश्चियन इंटर कालेज में टीचर या लेक्चरार थे। कुछ लोग उन्हें सम्मान से प्रोफेसर भी पुकार लेते। समाज में पंडित की विद्वत्ता का आदर था। पादरी के अनुरोध पर साल में एक-दो बार चर्च में उनका भाषण भी हो जाता। आखिर थे तो मास्टर, वेतन केवल एक सौ पचहत्तर उस जमाने में वह भी कम न था, परन्तु पंत साहब से क्या मुकाबला । उपा कॉयर में भाग लेती तो मिसेज़ पंत उसके स्वर की सराहना करती थीं। इसी नाते उषा पर उनका खेह और कृपा।
१९३७ का सितम्बर मास। उस रविवार संध्या भी उपा और नोरा कॉयर में थीं। कैंट रोड के चर्च के कांग्रिगेशन (प्रार्थना समाज) में काफी लोग आते थे। फिर भी नौजवान लड़के-लड़कियाँ देखने लायक लड़के-लड़कियों को देख ही लेते। नोरा ने उषा के कान में फुसफुसाया, "पंत तुझे देख रहा है।"
"कौन पंत?"
"एन० सी० पंत अपनी मम्मी मिसेज पंत के बायें। "
उषा की नज़र उस जवान की ओर स्वयं भी गयी थी। नमकीन गंदमी चेहरा, स्वस्थ स्पोर्ट्समैन टाइप, हैण्डसम दो बार उड़ती-उड़ती नजरें मिल गयी थीं। नोरा की बात सुनकर वह शरमा गयी। फिर उधर न देख सकी। लगता था, पहले कहीं देखा है पर याद न आ रहा था, कब कहाँ
पूर्णचन्द्र पंत का बेटा निर्मलचन्द्र पंत पाँच बरस पूर्व लखनऊ में काल्विन कालेज मे इंटर करने के बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में चला गया था। लखनऊ आता-जाता रहता
था।
प्रार्थना समाप्त होने के बाद उषा डैडी मम्मी के साथ हो गयी थी। लोग चलने से पूर्व परस्पर गुड नाइट कर रहे थे। मिसेज़ पंत बेटे के साथ पंडित परिवार की ओर आ गयी। उपा के गाने की प्रशंसा कर पंडित दम्पति को बधाई दी। परिचय कराया—हमारा बेटा निर्मलचन्द्र। पिछले साल इलाहाबाद से एम० ए० किया था। ईश्वर की कृपा और आप सब मित्रों की सद्भावना से पी० सी० एस० में आ गया। शुरू में तो डिप्टी कलक्टरी ही है परन्तु ईश्वर की कृपा से कलेक्टर प्रोमोट हो सकता है।
मिसेज़ पंत और मिसेज़ चौहान में चर्चा हुई। फिर मिसेज़ चौहान और मिसेज़ पंडित में सूचनाओं का आदान-प्रदान, विचार-विमर्श मिसेज़ पंडित और पति में विचार। बातचीत उषा से परोक्ष और फुसफुसाहट में हुई। ऐसी बातों से घर की हवा में गुदगुदी भर जाती है। उपा को भनक और संकेत मिल रहे थे। हैटी की बात साफ: लड़की की परीक्षा हो जाये लड़की लड़का दोनों समझदार हैं। पहले उनकी राय जाननी चाहिये। उषा का विचार तो एम० ए० करने का है। वह क्या कहती है?" "साल देत साल का समय उन्हें देना चाहिये। एक-दूसरे को समझ-पहचान लें।
चन्द्रा चौहान प्राय: शनिवार संध्या होस्टल से घर आ जाती थी। चन्द्रा की छोटी बहिन रीटा दसवीं में थी। रीटा ने दो दिन पूर्व सुन लिया था, पंत फैमिली निर्मलचन्द्र के लिये उषा को चाहते हैं। इतनी बड़ी बात मन में कैसे समेटे रहती। बहिन के आते ही क्लिक कर खबर उडेल दी।
चन्द्रा ने नाभि से गहरा सॉस खींचा। निर्मल पंत के बारे में कभी सोचा न था। उषा से प्रतिद्वन्दिता का प्रश्न न था, परन्तु वह बाईस पूरे कर चुकी थी. उम्र के लिहाज से हक पहले उसका था। उस जमाने में शायद अब भी लड़की चाहे जितना पढ़-लिख ले, अपने जीवन की परिणति और सफलता विवाह में ही समझती थी। पास-पड़ोस, परिचय में कुमारी जवान लड़की को अपने से कम आयु लड़की की सगाई व्याह का समाचार सुनकर लगता है, उसे धोखे या धक्के से क्यू में पीछे हटा दिया गया। अपने व्यक्तित्व की उपेक्षा या अवहेलना की कचोट चन्द्रा ने मन को समझाया अपना-अपना चांस प्रसन्नता प्रकट करना जरूरी था।
चन्द्रा तुरन्त पंडितों के यहाँ दौड़ी गयी। उपा को बाँहों में भर लिया "कान्ग्रेचुलेशन्स!” क्यों? क्या हुआ?
“वाह!" चन्द्रा को विस्मय हुआ, "बड़ी भोली है। एन० सी० से तेरी मैरेज की बात" "कौन एन० सी०?” उषा अधिक जान सकने के लिये अनजान बनी।
"अरी निर्मलचन्द्र पंत! पूर्णचन्द्र पंत अंडर सेक्रेटरी का लड़का सुना है, डिप्टी कलेक्टरी में आ गया, कलेक्टर बनेगा। कलेक्टर की वाइफ बनकर हमें न भूल जाना।
"छोड़ो इन ठलुआ अफवाहों को पहले अपना बताओ।" उपा ने मन का पुलक छिपा बेपरवाही दिखायी।
अगले रविवार एन० सी० पंत फिर चर्च में दिखायी दिया। उषा को उसकी दृष्टि से रोमांच हो जाता परन्तु नजरें बचाये सामान्य बनी रही। पंत दम्पति पंडित और मिसेज़ पंडित से कुशल-मंगल पूछ रहे थे। निर्मल ने उसे सम्बोधन किया, "गुड ईवनिंग मिस पंडित, आप बहुत अच्छा गाती हैं। आई० टी० में म्यूजिक क्लास भी होती है?' बी० ए० फाइनल कर रही हैं। इंगलिश लिटरेचर में विशेष रुचि है, दैट्स फाइन ।”
प्रार्थना के बाद पंत दम्पति और मिसेज़ चौहान फिर पंडित मिसेज़ पंडित की ओर आ गये। पंत ने बात की, "इस बुधवार को गंगा स्नान की छुट्टी होगी। आपका पूर्व निश्चित कार्यक्रम न हो तो साँझ पाँच बजे सिकन्दरबाग में साथ चाय पी जाये। लड़के-लड़कियों सब लोग आयें। मिसेज चौहान आप भी रीटा को भी जरूर लाइयेगा । "
सिकन्दरबाग में पिकनिक का निमंत्रण पंत ने दिया था परन्तु मिसेज़ पंडित ने भी कुछ पेस्ट्री नमकीन मँगवा लिये। उपा की कधी चोटी और कपड़ों की चुस्ती दुरुस्ती की ओर विशेष ध्यान । उपा को अनुमान था, पिकनिक में निर्मल भी होगा। स्वयं सुरुचि से तैयार
हुई।
पंत परिवार ने बाग में एक घने वृक्ष के नीचे चाय का जमाव किया था। चाय के लिये स्टोव, केतली, प्लेट प्याले सब सामान था। मदद के लिये साहब का अर्दली सिब्तेहसन । मिसेज़ पंत परोसने लगीं तो माँ के संकेत से उषा बढ़ आयी, "आंटी, मे आई हेल्प यू. मुझे बताइये।"
मिस्टर पंत और पंडित में बातचीत चल रही थी साढ़े तीन मास पूर्व कांग्रेस मंत्रिमण्डल ने शासन का उत्तरदायित्व संभाल लिया था। पंत हँस रहे थे मिनिस्टर तो बन गये परन्तु अभी इन लोगों को शासन की समझ या अनुभव क्या? काम पहले भी सब सेक्रेटरी करते थे, अब भी वहीं। हाँ, अब टाइम ज्यादा लगता है। सिफारिशें बहुत आने लगी हैं। जिसे देखो दफ्तर में धँसा चला आ रहा है।
चाय पीते-पीते निर्मल ने उपा की ओर देखा, "मिस पंडित, बताइये हमारे ऊपर इस वृक्ष का नाम क्या है?"
"अशोका" उषा ने बताया, "यूनिवर्सिटी रोड पर यही पेड़ है। वे सीधे ऊँचे हैं। यह फैलाव में छाँटा गया है। पत्ते एक जैसे हैं।"
"अच्छा, वह बायें हाथ क्वारी में खूब चौड़े गहरे हरे पत्ते, लाल-पीले बड़े-बड़े फूल
"कैना। हमारे कालेज में बहुत है।"
निर्मल ने दूर दिखायी देते फूलों का नाम पूछा। उपा नहीं बता सकी।
"वे एक्ज़ोरा हैं। इसके गुच्छों की गठन बहुत सुन्दर होती है। नज़दीक से देखिये। देखें, आप कितने फूलों झाड़ियों के नाम बता सकती हैं?
अमित, पद्मा, पंत साहब की छोटी बेटी पप्पुल और रीटा भी इधर-उधर घूमने लगे थे।
निर्मल और उषा एक्ज़ोरा की क्यारियों की ओर बढ़ गये। निर्मल फूलों और झाड़ियों के नाम पूछता बताता जा रहा था। दोनों सौ- सवा सौ कदम एक ओर चले गये।
“मिस पंडित, अनुमति हो तो बात करना चाहता हूँ।"
"हूँ" उपा ने स्वीकारा। समझ गयी, इसीलिये इधर आये हैं। लज्जा और उत्कंठा की
धक-धका
"मिस पंडित, शायद आप जानती हैं, हम दोनों के सम्बन्ध के लिये चर्चा चल रही है।" "हाँ" के संकेत में उषा की गर्दन झुक गयी। साड़ी का छोर उंगलियों में दवा लिया। इस विषय में अन्तिम निर्णय हम लोगों को ही करना चाहिये।" उषा का गला लाज से रूघने लगा। उपा ने संकेत से अनुमति प्रकट की।
"मिस पंडित, ऐसे निर्णय जीवन भर के लिये होते हैं इसलिये बात निस्संकोच, पूर्ण स्पष्टता और सावधानी से होनी चाहिये। मेरी ओर से स्थिति स्पष्ट है। जितना आपको जानने का अवसर मिला है, मैं इस सम्बन्ध को अपना सौभाग्य समझेंगा। इफ यू परमिट मी टू बी फ्रैंक आई हैव लाइक्ट यू बेरी मच आई वेग यू, प्लीज वी फ्रैंक यू थिंक यू कैन लाइक मी?
उपा का संपूर्ण शरीर कंटकित। गले में लाज का अवरोध गर्दन झुक गयी। पल भर सम्भल कर उत्तर दिया, "आई थिंक सो।" पसीना आ गया। गर्दन झुकाये रहना फूहड़पन अभद्रता लगी। कनबी से निर्मल की ओर देखा तो लाज से मुस्करा दिया।
मिसेज़ चौहान की मार्फत पंत दम्पति का संदेश आया लड़का-लड़की राजी हैं। अंगूठी बदलवल से सगाई पक्की हो जाये। शादी की तारीख जनवरी फरवरी में तय कर ली जाये। समय कम है। बात पक्की हो जाये तो तैयारी शुरू की जाये। मिसेज़ पंडित के लिये मानो झोली में चाँद आ पड़ा। उसकी राय थी बात चली है तो काम हो ही जाना चाहिये। समधी के संतोष के लिये सब कुछ करना पड़ेगा।
पंडित को इतनी जल्दी नापसंद। बेटी की परीक्षा समाप्त हो जाने से पहले उसका ध्यान दूसरी बातों में न बँटने देना चाहते थे। उषा भी परीक्षा के बाद ही चाहती थी। आई० टी० का अपना वातावरण है। वहीं विवाहित अध्यापिकारों तक पसन्द नहीं की जातीं। वह उँगली में सगाई की घोषणा अंगूठी पहनकर जाती तो उसका तमाशा बन जाता।
मिसेज़ चौहान ने पंत परिवार की ओर से विवाह के लिये जल्दी की मजबूरियाँ समझायीं। निर्मल को जुलाई में छ: मास ट्रेनिंग के लिये जाना था। पंत दम्पति चाहते थे, विवाह उससे पहले हो जाये। लड़का बहू कुछ दिन साथ रह लें। इसके अतिरिक्त मिसेज़ चौहान ने स्पष्टवादिता से काम लिया।
पी० सी० पंत अट्ठावन पूरे कर रहे थे। तीन वर्ष पूर्व रिटायर होने का समय आया तो तीन वर्ष का एक्सटेंशन मिल गया था। एक्सटेंशन अगस्त तक समाप्ता अब और एक्सटेंशन की क्या आशा हो सकती थी। फाइनेन्स के अंडर सेक्रेटरी थे। पी० डब्ल्यू० डी० और दूसरे डिपार्टमेंट्स में भी लिहाज था। रिटायर हो जाने के बाद किसे खुशामदी
"अफसर की इज्ज़त-कदर कुर्सी से।” मिसेज़ चौहान ने कहा, "रिटायर्ड अफसर और बूड़े बैल को लोग सूखी घास नहीं डालते। जो लोग आज हरदम चुल्लू सामने किये हैं, बाजार- सड़क पर देखकर मुँह फेर लेंगे विवाह के मामले में खर्च कम नहीं होता। दो लड़कियों के
विवाह में काफी पिट गये हैं। सर्विस में रहते जो बात इशारे या मामूली अनुरोध में हो सकती है, रिटायर हो जाने के बाद उसके लिये सौ-दो सौ लगेंगे।"
यह बात नहीं कि पी० सी० पंत को सितम्बर ३७ से पहले बेटे का विवाह रिटायर हो जाने से पूर्व सम्पन्न कर लेने का ध्यान न आया हो। निर्मल के लिये वह दो बरस पूर्व चीफ एकाउण्ट्स आफिस, इलाहाबाद के सुपरिन्टेंडेन्ट मिस्टर जोशी की बेटी से तय कर चुके थे। निर्मल इलाहाबाद था। दूसरे-तीसरे सप्ताह मिस्टर जोशी साहब के यहाँ आता-जाता रहता। सब बातचीत हो चुकी थी। पंत तभी चाहते थे, अंगूठी बदलवल की रस्म करके सगाई पक्की हो जाये। विचार था, मार्च-अप्रैल में विवाह हो जाये। सगाई की बात मिस्टर जोशी ने टाल दी थी। वे चाहते थे, निर्मल ढंग से नौकरी पर लग जाये तभी सगाई पक्की की जाये।
मिसेज़ पंत ने मिसेज़ चौहान को बताया था, "हमें तो परमेश्वर ने बचा लिया। अंग्रेजी अमलदारी में सेक्रेटेरिवेट गर्मियों में तीन मास के लिये नैनीताल जाता था। पंत परिवार नैनीताल में था। इलाहाबाद से जोशी परिवार भी नैनीताल आया हुआ था। मिसेज़ पंत ने मेल-जोल में सुना कि जोशी साहब की बेटी की तबीयत खराब थी। मिसेज़ पंत मिजाजपुर्सी के लिये गयीं। लड़की को खाँसी का भयंकर दौरा आया था। पास- पड़ोस से पता लगा, लड़की को पुराना दमा है।
"बहिन, दमा तो लाइलाज होता है।" मिसेज़ पंत ने मिसेज़ चौहान को बताया, "हमने परमेश्वर को धन्यवाद दिया कि वक्त से पता लग गया। जोशी मिसेज़ जोशी यह बात छिपाये थे।"
पंत दम्पति ने परमेश्वर को धन्यवाद दिया 'अच्छा हुआ जोशी साहब बात टालते रहे। देखकर मक्खी कौन निगल सकता है। पंत और मिसेज़ पंत के सामने विकट समस्या थी। इतनी जल्दी में अच्छे खानदान की सुलक्षणा लड़की ढूंढ लेना आसान न था। लड़की क्रिश्चियन होनी ही चाहिये, विशेषकर ब्राह्मण क्रिश्चियन ! दोनों तरफ से खानदान ठीक हों। बहुत से क्रिश्चियन लोग लड़की सुन्दर या समझदार जँच गयी जो लड़की के माँ-बाप की, जात-बात की चिन्ता नहीं करते।
परमेश्वर की दया से मिसेज़ पंत को लखनऊ में ही बचपन से देखी भाली स्वस्थ, चुस्त, सुन्दर, समझदार लड़की का ध्यान आ गया प्रोफेसर डी० एन० पंडित की बेटी उषा पंत ने पत्नी के विचार का समर्थन किया।
पंडित दम्पति से बात चलाने के लिये सबसे उपयुक्त माध्यम मिसेज़ चौहान थी। स्थिति नाजुक थी। मिसेज़ चौहान की अपनी बेटी की बात अभी कहीं तय न हो पायी थी। चन्द्रा का चेहरा जरा बड़ा और रंग काफी ढका हुआ था। उम्र में उपा से बड़ी, बदन भी भारी । मिसेज़ पंत ने निर्मल के पी० सी० एस० में आ जाने और जोशियों की दगाबाज़ी से प्रसंग आरम्भ किया तो पेशवन्दी के तौर पर कह दिया, "बहिन, जात-पात के बहस में तो हम लोग नहीं पड़ते पर हमारे यहाँ अब तक सब रिश्ते ब्राह्मणों में ही हुए हैं। रिश्तेदारों की राय का भी खयाल करना पड़ता है। मिस्टर पंत कहते हैं कि लड़की लड़के की उम्र में चार साल का फर्क होना चाहिए। लड़कियों लड़कों से जल्दी मैच्योर हो जाती हैं। निर्मल तेईस का हो गया। (एक बरस घटाकर बताया)। मिस्टर पंत कहते हैं लड़की बीस के नीचे हो ।
इतना भी फरक न हो तो लड़की हस्बैंड की रिस्पेक्ट नहीं कर सकती। जानती हो, हमें दान-दहेज की तो फिक्र है नहीं। लड़की चुस्त देखने में ठीक, कल्चर्ड हो। खानदान ठीक हो। 'मिस्टर पंत चाहते हैं रिटायर होने से पहले लखनऊ में ही काम हो जाये। जानती हैं। हमारे तो सैकड़ों मिलने वाले। देहात पहाड़ में जाकर शादी करेंगे तो बड़े लोगों की खातिर लायक सुविधा कहाँ से जुटायेंगे। लोगों को अलग परेशानी होगी। फरवरी-मार्च में काम निबट जाये न हो लेटेस्ट मई जून में।"
पंडित उपा का विवाह इतनी जल्दी न निबटा देना चाहते थे। मिसेज़ पंत ने मई में ही कार्य सम्पन्न कर देने की आवश्यकता के लिये जो परिस्थितियाँ बतायीं, उनसे पंडित को खास सहानुभूति न थी परन्तु मिसेज़ पंडित इस सौभाग्य को किसी प्रकार हाथ से फिसल जाने न देना चाहती थी। बेटी के लिये इतना अच्छा वर पा सकने के लिये वह सभी कुछ करने को तैयार। आठ-दस मास पूर्व उषा विवाह के प्रसंग पर कह देती थी: लाइफ में मैरेज ही सब कुछ नहीं है। हम तो बी० ए० के बाद यूनिवर्सिटी में एम० ए० करेंगे। सगाई के लिये अँगूठी बदलीवल की रस्म पर उषा ने जरूर आपत्ति की परीक्षा से पहले हम कुछ नहीं करेंगे। हम वैसी अँगूठी पहनकर कालेज नहीं जा सकते हैं।
जून में शादी के प्रस्ताव पर वह मौन रही सियानी बेटी मौन से अनुमति प्रकट कर रही थी तो पंडित क्या करते।
मिसेज़ पंत ने बातचीत में उपा की जन्मतिथि- समय पूछ लिया था। चुपचाप अपने विश्वास के ज्योतिषी से लड़के-लड़की के जन्म नक्षत्रों के योग विचार कर और मिस्टर पंत की सुविधा देखकर विवाह के लिये जून का दिन निश्चय कर लिया था। यह बात तो आयी- गयी, लेकिन मिसेज़ पंत ने मिस्टर जोशी की बेटी करुणा और निर्मल के ग्रहों-नक्षत्रों के संबंध की अनुकूलता के सम्बन्ध में भी उसी ज्योतिषी से राय ले ली थी। पंत ग्रहों-नक्षत्रों में अपने पुरखों के विचार केवल वहम नहीं मानते थे। उनका कहना था नक्षत्र हैं तो उनका प्रभाव भी हो सकता है। अंधेरा, रोशनी, ऋतुएँ सब नक्षत्रों के प्रभाव से होती हैं। नक्षत्रों का विचार रखने से लाभ न हो, हानि की तो आशंका है नहीं। जून में विवाह की औपचारिक घोषणा तो गिरजा में बैन (शादी की सूचना) लगाने पर ही की जाती। दोनों परिवारों में बात पक्की समझ ली गयी थी। उसी हिसाब से तैयारी भी हो रही थी।
बड़े दिन से पूर्व संध्या पंत साहब के यहाँ दावत थी। पंडित परिवार भी निमंत्रित था। उषा ने क्रिसमस कैरोल गाये। निर्मल को उषा की खातिर सुविधा का विशेष ध्यान था। मिसेज़ पंत उषा पर निछावर हो रही थीं। सभी मेहमान भावी सम्बन्ध के बारे में जान गये।
उषा स्मृतियों में खोई सुन्न थी। रोज़ी को सन्देह हुआ, लड़की को नींद आ गयी। उसने उपा के चेहरे पर झुककर देखा। उपा मुस्करा दी। कुछ मिनटों में महीनों की बातें सोचा, उन स्मृतियों में तो सारी रात बीत सकती है। 'मेरी कहानी' पुस्तक शुरू कर दी। ऐसी म हुई कि समय का खयाल न रहा।
नर्स ने वार्ड में झाँका, "हैलो, अभी तक पढ़ रही हो। अब सोना चाहिये। साढ़े दस बज रहे हैं।"
"थोड़ा और पड़ लूँ।" उपा ने अनुरोध किया, "अभी सो जाऊँगी।"
"माई गॉड.' " नर्स ने दूसरी बार टोका, सवा बारह बज गये थे। "नो-नो, यू मस्ट स्लीप " नर्स ने बत्ती बुझा दी। उषा को पुस्तक रख देनी पड़ी।
प्रात: आठ बजे के लगभग डाक्टर सेठ आया। उषा को पुस्तक में रमे देखकर खुश हुआ, "बहुत तेज पढ़ती हैं!" सेठ ने बताया, इस सोमवार से उसकी ड्यूटी वार्ड नम्बर दो और स्टूडेंट वार्ड में हो गयी है।
सोमवार मिसेज़ पंडित दोपहर बाद तीन बजे ही पद्मा के साथ हस्पताल के लिये तैयार पति से कहा, "आप वक्त से आ जाइयेगा हम चल रहे हैं। कल चर्च में सब लोगों ने सुना है। कुछ लोग लड़की को देखने आ सकते हैं हम चलकर उसके कपड़े ठीक कर दें।" मिसेज़ पंडित को संतोष हुआ, लड़की के सिर की पट्टी सुबह खुल गयी। रोज़ी ने चिलमची पकड़वा कर बेटी का मुँह धोया। कंघी करके दो चोटियाँ बाँधीं। ब्लाउज बदलवाया। बिस्तर पर साफ चादर बिछवा दी।
पद्मा बहिन के कान पर झुक गयी, "जीजी, तुम्हारी मदर इन-ला आयेगी। कल चर्च में उन्हें पता लग गया है। खूब सज जाओ।"
"चुप रह।" उपा ने डॉटा "बड़ी पुरखिन बनती है।"
मिसेज़ पंडित की सावधानी व्यर्थ न थी। चर्च में समाचार पाकर फादर चैटर्जी और पाँच व्यक्ति समवेदना में धैर्य बँधाने और सहानुभूति प्रकट करने आये थे।
पंडित ने उपा के सिरहाने रखी पुस्तक कौतूहल से उठाकर देखी, "पंडित नेहरू की आत्मकथा पढ़ रही हो। डाक्टर सेठ ने दी होगी। कैसी है पुस्तक?"
"डैडी, बहुत ही रोचक।" उषा ने उत्साह से बताया, डेडी, नेहरू ने पूरी शिक्षा इंगलैण्ड में पायी है। पूरा यूरोप देखा है। कांग्रेस के कई लीडर यूरोप में पड़े हैं।"
अंग्रेजी शासन के ज़माने में बिरले ही लोगों को विदेश जाने का अवसर मिलता था। किसी नगर मुहल्ले या गली का कोई आदमी इंग्लैण्ड या युरोप हो आता तो वह परिवार विदेश घूमे परिवार के नाम से प्रसिद्ध हो जाता। हिन्दुओं में तो कोई समुद्र यात्रा करके लौटता तो उसे बिरादरी में पुनः सम्मिलित होने के लिये गंगा खान या अन्य पूजा-पाठ, ब्राह्मण भोज द्वारा शुद्धि या प्रायश्चित करना पड़ता। विदेश में शिक्षा पाये लोगों की बहुत मान्यता थी।
“तुहें नहीं मालूम?" पंडित हँस दिये, “खुद मिस्टर गांधी ने बहुत वर्ष इंगलैण्ड में रहकर शिक्षा पायी है। मिस्टर गांधी और नेहरू दोनों बैरिस्टर हैं। यह लोग यूरोप के विचारों और संस्कृति से अनजान नहीं हैं। गांधी-नेहरू इस देश के करोड़ों लोगों के लिये वैसे ही हैं जैसे अमेरिकनों के लिये लिंकन, वाशिंगटन, रूस के लिये लेनिन, स्टैलिन, जर्मनी में हिटलर गोविन्दबल्लभ पंत बरस भर पहले जुलूस निकाल कर जेल जाते थे, अब चीफ मिनिस्टर हैं।"
"देखें डैडी ।" अमित ने पिता के हाथ से पुस्तक ले ली। दूसरे पलंग पर बैठ पुस्तक में डूब गया। छः बज गये परन्तु पंत परिवार से कोई न आया। हस्पताल की घंटी बज गयी। पंडित लौटना चाहते थे।
मिसेज़ पंडित बोली, "जरा और देख लें बिजी लोग हैं, उन्हें सौ काम रहते हैं।" सवा छः पर पंडित उठ गये। पंत परिवार के न आने से मिसेज़ पंडित उदास हो गयीं।
उस साँझ भी रोजी उषा के साथ रही।
डैडी मम्मी के जाने के बाद उपा फिर पुस्तक पड़ने लगी। मन पुस्तक में रमा रहने पर भी बार-बार ख्याल आ जाता मम्मी खामुखा उदास हो गयीं, उन्हें तो कोई बात यों ही लग जाती है। जानती हैं. वे लोग बहुत बिजी रहते हैं। आज नहीं आ सके, कल आ जायेंगे। निर्मल की मम्मी बहुत डीसेण्ट और अफेक्शनेट हैं। कोई मजबूरी हो गयी होगी।
मंगलवार उषा ने सुबह ही पुस्तक आरम्भ कर दी थी। लखनऊ में साइमन कमीशन के आने पर कांग्रेस द्वारा बहिष्कार और विरोध प्रदर्शन का प्रसंग: कांग्रेस और नागरिकों के जुलूस काले झण्डे लिये 'साइमन गो बैक साइमन कमीशन का बायकॉट' नारे लगाते सड़क पर बढ़ रहे हैं। जुलूस का रास्ता रोकने के लिये लठैत पुलिस और घुड़सवार पुलिस की लाइनें सड़क को रोककर खड़ी हैं। जुलूस के आगे पंडित नेहरू और पंडित गोविन्दबल्लभ पंत कांग्रेसजन के बीच में चल रहे हैं। जुलूस और नेता, लठैत सिपाहियों और उनके पीछे खड़े घुड़सवार सिपाहियों को देखकर भी आगे बढ़ते हैं। दृश्य पुस्तक के पन्ने पर प्रत्यक्ष हो रहा था।
जुलूस पुलिस की दीवार तक पहुँच गया। आगे रास्ता नहीं। जुलूस की हरवल खड़े होकर अधिक ऊँचे स्वर में नारे लगा रही है। पीछे से अपार भीड़ का धक्का है। कांग्रेस स्वयंसेवक और नेता आगे आ गये। पुलिस की दीवार पर जुलूस के ध
पुलिस अफसरों ने भीड़ को तितर-बितर हो जाने का हुक्म दिया। भीड़ अधिक उत्तेजित, अधिक नारे। अफसरों के हुक्म से पुलिस स्वयंसेवकों पर टूट पड़ी। खटाखट लाठियाँ बरसने लगीं। लाठियों की चोट से लोगों की टोपियों गिर गयीं, कुछ लोग लड़खड़ा कर गिर पड़े। कांग्रेसी मार से पीछे नहीं हटे। नेहरू और गोविन्दबल्लभ पंत ने भीड़ को धैर्य का आदेश दिया। वे कांग्रेसृजन के साथ मार खाते रहे परन्तु पीछे नहीं हटे। अधिक मार पड़ने पर सड़क पर बैठ गये।
पुलिस अफसर ने अपनी असफलता से खीझकर घुड़सवार पुलिस को जुलूस पर आक्रमण का हुक्म दिया। घुड़सवारों के घोड़े सड़क पर बैठे हुए कांग्रेसजन और नेताओं पर दौड़ पड़े। भीड़ के लोगों के हाथ अपने सिर बचाने के लिये ऊपर उठ गये, परन्तु वे भागे नहीं भीड़ की पीड़ा के अनुमान से उषा का गला उमड़कर आंसू गालों पर वह आये।
उषा उस समय अकेली थी। वेवे निष्क्रियता और मौन से ऊबकर वार्ड की दाइयों से बतियाने बरामदे में चली गयी थी। उषा पुस्तक दोनों हाथों से सम्भाले थी उग्र आकुलता -आगे क्या हुआ ? उषा ने पैरा समाप्त किया: पुलिस हार मानकर प्रदर्शनकारियों को छोड़कर चली गयी।
उषा ने पुस्तक एक ओर रखकर चादर से आँसू पोंछ लिये।
"हाय री क्या हुआ, रो क्यों रही है?"
कुछ नहीं बेवे ये किताब ही ऐसी है। मैं ठीक हूँ फिक्र न कर।" ऐसी किताब का क्या पड़ना! छोड़ दे इसे।" बेबे ने चिन्ता से समझाया।
उपा उत्सुकता में फिर पढ़ने लगी: साइमन कमीशन के विरोध में दूसरे दिन स्टेशन पर प्रदर्शन पिछली संध्या जुलूस, विरोध प्रदर्शन की तैयारी भर थी, अब वास्तविक विरोध। पिछली साँझ की अपेक्षा भारी जुलूस और कहीं अधिक लठैत, बन्दूकची और घुड़सवार
पुलिस अफसरों के हुक्म से जुलूस पर पहले दिन की अपेक्षा पुलिस का अधिक खूँखार आक्रमणा लाठी आक्रमण निष्फल रहा तो घुड़सवार भीड़ पर टूट पड़े। अंग्रेज घुड़सवार अफसरों ने नेहरू और गोविन्दबल्लभ पंत को लक्ष्य कर घोड़े बढ़ाये। नेता और कांग्रेसजन अडिग घोड़े अगले सुमों के लिये जगह न देखकर पिछले सुमों पर तुले रह गये। नेहरू सिर पर लाठी की चोट से अचेत होकर गिर पड़े। कांग्रेसजन उनके चारों ओर घेरा डालकर वार अपने सिरों पर लेने लगे उषा के आँसू पूर्वापेक्षा अधिक वेग से पुस्तक एक ओर रखना आवश्यक हो गया।
बेबे परेशान, "हाय धिये, क्यों पढ़ती है ऐसी किताब छोड़ दे।" उसने पुस्तक उठाकर दूसरे पलंग पर रख दी, “ऐसा भी क्या पढ़ना!" उषा के पलंग के समीप डोली पर रखी पुस्तक अपने माथे से आकर उपा की ओर बड़ाई, पड़ना है तो अंजील पढ़ सवाब होगा। रुलाने वाली किताब का क्या पड़ना!"
उपा ने आँसू पोंछकर अनुनय किया ही था कि कमरे का दरवाजा खुला।
"गुड मार्निंग! कैसी तबीयत है?"
गुड मार्निंग डाक्टर! धन्यवाद, बहुत आराम से हूँ। "
"वाह डाक्टर सावजी!" बेबे बोल पड़ी, स्वर में क्षोभ, "क्या किताब दी अच्छी को, वो रो-रोकर बेहाल।"
उपा ने माथे पर तेवर और ओंठों पर तर्जनी से बेवे को संकेत किया चुप्पा
"क्यों, क्या हुआ?" सेठ समीप आ गया, माथे पर चिन्ता का भाव ।
"आई एम सॉरी डाक्टर," उषा को झुंझलाहट और संकोच भी, “बेचारी बहुत सिम्पल
है। इसकी बात का बुरा न मानिये नेहरू की आत्मकथा में कुछ प्रसंग बहुत ही द्रावक । इतनी अच्छी पुस्तक के लिये धन्यवाद!"
“ओह, यह बात! कौन प्रसंग पड़ रही थी?"
उपा का उत्तर नुन सेठ ने अनुमान के भाव से गर्दन हिलाई, "तुमने कहा था, रुचि केवल साहित्य में। "
"ये साहित्य भी, इतिहास भी और भी बहुत कुछ है।"
"बुढ़िया ने तुम्हारी विह्वलता देख पुस्तकें छीन ली?"
"बहुत सीधी है, वत्सल । "
" जी, ये किताब पढ़ने से इन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी, पढ़ने दीजिये।" सेठ ने बेबे से सिफारिश की।
रोजी विवश हो गयी पुस्तक लाकर फिर उषा को दे दी। सेठ की ओर देखा, "डाक्टर साव, इसे कहो, अजील पढे! उससे बरकत होगी।"
"इंजील?" सेठ मुस्कराया, “हाँ-हाँ, इंजील भी पड़े। ये भी पड़ने दो।" सेठ चला गया। “वेवे, तू सबके सामने लड़ने लगती है!" उषा ने रोज़ी को डाँटा, "आँसू आ गये थे, यह कहने की बात थी?"
""मैं क्या लड़ी!" रोज़ी ने विरोध किया पर कमरे का दरवाज़ा खुलने की आहट से चुप हो गयी।
"हैलो, उषी!” चन्द्रा आ गयी, "बेबी से क्या झगड़ा हो रहा है?"
"आ, बेटी आ!" रोजी ने बात बदली और उषा से रूठकर बरामदे में चली गयी। चन्द्रा बारह एक के बीच दो मिनट के लिये उषा को देख जाती थी "लेटे-लेटे नावेल पड़ने की मस्ती काट रही हो!" चन्द्रा ने समीप पूड़ी पुस्तक की ओर संकेत किया, "कोई ज़रूरत हो तो बताओ!" चन्द्रा पूछकर चली गयी।
उपा ने फिर पुस्तक उठा ली। ख्याल आया, बेबे भी क्या पढ़ते-पढ़ते आँसू बह जाने की बात ही कह दी। डाक्टर बहुत कंसीडरेट, समझदार, सीरियस, पॉलिटिक्स में इन्टरेस्टेड है। वैसे स्मार्ट है डाक्टर दास के साथ आया तो चुप-वृत्त बना रहा। विश भी न किया। परिचय नहीं था, क्या मुँह लगाता। अपनी-अपनी सोसाइटी का ऐटीकेट माई निर्मल ही इज़ हैंडसम, चार्मिंग: पलकें मुँद गयीं। कल्पना में पीठ पर निर्मल की बाँह मधुर अँगड़ाई ।
उषा पुस्तक पढ़ने लग गयी। प्रसंग की अंतिम पंक्तियों फिर पड़ीं बहुत से हिन्दुस्तानी सिपाही और अफसर ड्यूटी या कर्तव्य का दिखावा करने के लिये ढीले-ढीले हाथों से लाठियाँ इधर-उधर पटक रहे थे, परन्तु अंग्रेज अफसर अपने क्रोध और द्वेष की भड़ास निकालने का अवसर पाकर भीड़ पर पूरे जोर से चोटें कर रहे थे। आखिर तो इंडियन थे, उषा को खयाल आया लेकिन इंडियन्स को मारने वालों के साथ! 'निर्मल डिप्टी कलेक्टर बन रहा है, वह भी ऐसा ही करेगा?
अब तो गोविन्दवल्लभ पंत मिनिस्टर हैं। याद आ गया, पंत जी कालेज भी आये थे। स्वागत के लिये कितनी तैयारी सब स्टूडेन्ट, प्रिंसिपल और टीचर फाटक से बिल्डिंग तक सड़क के दोनों ओर खड़ी हुई थीं। पंत जी बहुत लेट आये थे परन्तु सब लोग प्रतीक्षा में खड़े। उन्हीं पंत जी ने लाठियों की मार खायी इंडियन्स के लिये मार खायी। एक यह पंत है। अंडर सेक्रेटरी होने का इतना घमंड है। डैडी ठीक ही कहते हैं, तनखाह चाहे जितनी हो है तो क्लर्क ही"।
उपा दोपहर के खाने के बाद भी पढ़ती रही। मम्मी चार बजे से कुछ पहले ही आ गयीं। बेटी का मुँह धोया, कंघी चोटी की। बिस्तर की चादरें और उषा के कपड़े बदलवाये। ख्याल था. पंत परिवार पिछली संध्या व्यस्तता में न आ सका, आज तो आयेंगे ही। कागज़ में लिपटा छोटा सा पैकेट खोलकर उषा को दिखाया, "तरबूजी रंग की शिफॉन की साड़ी के लिये ये किनारी ठीक रहेगी? तुमने महीन नाखूनी सिल्वर जरी के लिये ही कहा था। लौटावी करके लायी हूँ। देख ले, सगाई की साड़ी उनके यहाँ से ऐसी ही आयेगी। उसके लिये भी तुमने ऐसी किनारी बतायी थी।"
"मुझे ऐसी ही पसन्द है।" उषा संतुष्ट थी।
माँ यथाशक्ति तैयारी में शिथिलता न कर रही थी। मिसेज़ चौहान की राय की लड़के के ट्रेनिंग पर जाने से पहले सगाई ज़रूर हो जाये। चाहे लड़की को कुर्सी पर बैठाकर काम हो! शादी चार-छ: मास टेल भी जाये तो हर्ज नहीं।
सवा चार तक पंडित भी आ गये। मिसेज़ पंडित की नजर बार-बार घड़ी की ओर। अमित 'मेरी कहानी' लेकर पड़ने के लिये दूसरे पलंग पर बैठ गया। पद्मा रोज़ी के साथ आस-पास जगह देखने चली गयी। माता-पिता और बेटी में देर तक क्या बात होती उपा 'डैडी को 'मेरी कहानी में पढ़े प्रकरण बताने लगी।
डाक्टर अमरनाथ सेठ के अतिरिक्त मेडिकल कालेज में कुछ और भी डाक्टर पंडित के विद्यार्थी रह चुके थे। समाचार पाकर सेठ से एक वर्ष सीनियर रजा अहमद और एक वर्ष जूनियर प्रफुल्ल बैनर्जी शनिवार संध्या पंडित को सलाम करने आये, योग्य सेवा पूछ गये थे। उस दिन धीरेन्द्र वर्मा आया। धीरेन्द्र वर्मा फाइनल का स्टूडेंट था। उसने भी पंडित, मिसेज़ पंडित और उषा से समवेदना प्रकट करके सेवा के लिये पूछा।
माँ ने गहरी साँस ली, "लोग तो परिचय भर के नाते से ऐसे अवसर पर आकर पूछ रहे हैं। हमारे समधियों को फुर्सत नहीं!" पंडित ने पत्नी को मौन का संकेत किया।
साढ़े पाँच बज गये। पंत लोग न आये। माँ का चेहरा उतर गया। पंत परिवार से किसी का न आना उषा को भी खल रहा था, परन्तु उससे अधिक खल रही थी माँ की उदासी भेंट का समय समाप्त होने की घंटी बजी तो माँ ने निराशा से गहरा श्वास लिया, "हे ईश्वर, तू कसूर मुआफ कर ताकि हम भी अपने कसूरवारों को मुआफ कर सकें।" पल भर को पलक मूँद लिये।
पंडित लौटने के लिये उठे । मिसेज पंडित रोज़ी से बोली, "बेबे, तुम यहाँ थक गयी हो और घर जाना चाहती हो तो चली जाओ आज रात में ठहर जाऊँगी।"
"नहीं मम्मी, तुम क्यों समय बर्बाद करोगी।" उषा बोल पड़ी। माँ का उदास चेहरा उसे बहुत चुभ रहा था। रोज़ी की ओर देख मुस्करायी, "आज बेथे से में पुरानी कहानियाँ सुनूँगी।" उपा और वेबे में अचार, मिर्च, चटनी के अलावा अन्य रहस्य भी मम्मी से परोक्ष चलते रहते थे। बेबे उपा और दूसरे बच्चों को बचपन से कुछ बातों में डैडी-मम्मी की डॉट और नाराजगी से बचाती रहती थी।
"मैं यहाँ धान कूट रही हैं। क्यों थक गयी? मेरा खाना ले आयी हो, अब क्या करूंगी जाकर।" रोजी ने उपा की बात रखी।
डैडी मम्मी के चले जाने के बाद उषा का मन पढ़ने को न हुआ। मिसेज़ पंत का न आना उसे भी जरूर खटक रहा था इतनी उपेक्षा, बेपरवाही ! सामने इतना लाड़-प्यार और अब देखने आने तक की फुर्सत नहीं। मन को समझाया, कोई अनिवार्य कारण हो गया होगा। मम्मी तो इतनी उदास हो जाती हैं "शायद कल आयें। कल न आयें तो अमित को भेजकर पता लिया जाये किसी कठिनाई में तो नहीं है। बारह तो बीत गयी, निर्मल सोलह को आ रहा है। उसके आने पर भी नहीं आयेंगे? उसकी मम्मी के व्यवहार के बारे में उसे लिखूं? बह पत्र पहुँचने से पहले चल देगा। अपनी मम्मी-डैडी के व्यवहार के बारे में क्या कहेगा? ''जब यहाँ नहीं आ सके तो निर्मल को क्या सूचना दी होगी। आकर सुनेगा तो उसे कैसा लगेगा? पत्र में लिखा था, सोलह को लखनऊ पहुँचूँगा। एक दिन रुकना पड़ गया तो सत्रह को उपा को पत्र याद आने लगा "तुम्हारी परीक्षा सात अप्रैल को समाप्त हो जायेगी। शब्द थे यू विल बी फ्री टुगो आउट ए बिटा इन शब्दों के अभिप्राय की कल्पना से उषा का पूरा शरीर कंटकिता जरा धूम-फिर आने की याद "।
क्रिसमस के तीसरे दिन निर्मल दोपहर बाद कंधारीबाग गली में आया था। मिसेज़ पंडित से बोला, "मम्मी हम दोनों जरा धूम फिर आयें।" मिसेज़ पंडित को ऐसी एंग्लो- इंडियन उच्छृंखलता नापसन्द परन्तु पी० सी० एस० दामाद को कैसे इनकार करती !
निर्मल घर की कार लाया था। उषा को दिलकुशा बाग ले गया। एक अन्य परिवार पिकनिक के लिये आया हुआ था। निर्मल बैठने के लिये एकान्त स्थान की खोज में उषा के साथ घूमता बात करता रहाः सुना है तुम्हारा एम० ए० करने का भी विचार है गुड आइडिया। जून से छ: मास मुझे ट्रेनिंग में रहना है। उसके बाद देखेंगे नियुक्ति कहीं होती है। शुरू-शुरू में लखनऊ, इलाहाबाद या आगरा तो मुश्किल है और देखा जायेगा।
निर्मल झाड़ी से घिरी एक सूनी बेंच देखकर उपा के साथ बैठ गया। प्रसंग बदल गया था मम्मी तुम्हें दिखाने के लिये चर्च ले गयीं। मेरा विचार अभी दो-तीन साल विवाह टाल देने का था परन्तु तुम्हारी छवि पहली नजर में ही मन में गहरी उत्तर गयी। समझ लिया पार्टनर आफ माई डेस्टिनी! निर्मल मुस्करायाः इसी को लोग लव एट फर्स्ट साइट कहते होंगे।
अपनी कमनीयता की सराहना का उन्मादा उपा की चेतना गर्व और सम्मोहन के बगूले में उही जा रही थी। उपा का हाथ अपने हाथ में लिये निर्मल उसके नाखून सहला रहा था। निर्मल की बाँह ने उषा की पीठ पीछे से पास ले लिया। उषा आनन्दीद्वेग में अवशा अजाने या वेबसी में निर्मल के कंधे का सहारा ले लिया। निर्मल का स्वर महरा गया, "हम एक-दूसरे के हो जाने की प्रतिज्ञा कर चुके।"
उपा की आँखें मंदी थीं। उसने गर्दन के संकेत से अनुमति दी।
“हम पति-पत्नी का सम्बन्ध स्वीकार कर चुके हम अपनी प्रतिज्ञा पर एक किस से मोहर क्यों न लगा दें "
आवेश से उपा का श्वास तीव्र निर्मल की बाँह ने उसे अपनी ओर समेटा "इधर देखो।"
उपा की पलके न खुली, मुख उसकी ओर उठ गया। ओठों पर निर्मल के ओठों के स्पर्श से नस-नस में तीव्र रोमांच, सिहरन की बिजली, बेसुधी ।
बेंच से गाड़ी तक लौटते समय उषा की बाँह निर्मल की बाँह में थी। उषा के पाँव धरती पर न थे; जैसे उमंगों की लहरें उसे लिये जा रही हों।
जवान बेटी का उन्मेष माँ की नजर में छिप न सका। दिलकुशा में निर्मल की संगति का खुमार दूसरे दिन भी उपा की आँखों में बना था। माँ को टोकना पड़ा, "अच्छी, तेरी आँखें सुर्ख क्यों हैं रात भर पड़ती रही?"
“नहीं तो मम्मी।"
माँ ने परमेश्वर को स्मरण किया किसी की नजर न लग जाये।
उपा की आँखों का गुलाबीपन तीसरे दिन दूर हो गया, परन्तु नये अनुभव के गर्व और उल्लास का उफान हृदय में समेटे रखना कठिन कालेज खुलने पर दो दिन मन मारे रही। चित्रा लाहौर से अपने मंगेतर के सम्बन्ध में पाये समाचार या उसके लखनऊ आने का पूरा ब्योरा उषा को बता देती थी। चित्रा को मंगेतर के समीप बैठकर बतियाने या पत्र-व्यवहार का अवसर न था। केवल उसके सम्बन्ध में बात कर लेने का संतोष। तीसरा पीरियड दोनों का खाली था। उपा ने लजा-लजाकर सब कुछ बता दिया।
तक
उपा का रहस्य सुनकर चित्रा ने विस्मय से पूछा, "पति-पली का सम्बन्ध बस चूमने
उपा को विवाह से पूर्व अपने लिये ऐसा संकेत लांछन या गाली लगी। क्रोध आ गया,
"हम लोग ऐसे गिरे हुए नहीं हैं। वह तुम लोगों में ही चलता होगा। तुम लोग तो छू जाने में भी सेक्स देखते हो। तुम्हारी कल्पना में सेक्स के अलावा अन्य कुछ नहीं। तुम लोगों में तो पूजा भी सेक्स सिम्बल से हमारे यहाँ चूमना आदर और पवित्र प्रेम का प्रतीक है। हम लोग बाइबल को चूमते हैं। खेद है, मुझे तुम ऐसा समझती हो। "
चित्रा को कालेज में देख अब उषा मुँह फेर लेती।
उषा का खाली पीरियड था। लाइब्रेरी में बैठी नोट ले रही थी। पीठ पीछे से दो हाथों ने उसकी आँखें दबा लीं।
"छोड़ दो न?" उपा ने कहा, "" "जानती हूँ शेरन है।" आँखों पर से हाथ हटा देने का यत्न किया। हाथों की जकड़ और बढ़ गयी। उपी अल्लाई, "छोड़ो न क्या बेबकूफी!" पीठ पीछे से उपा की आंखें मूंदे हाथों ने उषा की गर्दन पीछे झुकाकर उसका चेहरा उठा लिया। गहरा चुम्बन।
"मेरे आदर और पवित्र प्रेम का प्रतीक " उषा ने स्वर पहचाना। चित्रा से लिपट गयी। दरवाजा खुलने की आहट से उषा का ध्यान बेटा उसके लिये खाना आ गया था। घंटे भर स्मृतियों में खोई रही थी, पाँच-छः मास का जीवन फिर जी लिया हो। रोज़ी ने उसके सामने तौलिया बिछाकर उसे खाना खिलाया खाने के बाद उपा फिर पुस्तक में रम गयी। अगले दिन बुधवार भी उषा दिन भर पुस्तक में मग्न रही। डॉक्टर सेठ ने वार्ड में झांका। पुस्तक में व्यस्त देख बिना पुकारे चला गया। पुस्तक रोचक थी, परन्तु बीच-बीच में राजनीतिक प्रसंग उषा के लिये नयी अजानी बातें थीं। ऐसे प्रसंग पढ़ते समय पंत परिवार का व्यवहार और निर्मल की याद मन में खुदबुदा जाती। उसी के परिणाम में वह संध्या अपने क्षोभ वश में न रख सकी।
पंत परिवार के व्यवहार से खिन्न सभी थे। पंडित को चिन्ता न हो सो बात न थी, परन्तु हरदम उसी बात से क्या लाभ लेकिन मिसेज़ पंडित के लिये कुछ और सोच सकता असम्भव संध्या साढ़े चार के लगभग मम्मी रोज़ी के लिये खाना लेकर आ गयीं। पंडित रास्ते में काम के कारण विलम्ब से आये माँ की उसासे सुनकर उषा के लिये पुस्तक में ध्यान लगा सकना कठिन । माँ की प्रकृति का कुछ अंश बेटी ने भी पाया था। उषा आवेश- उन्मेष के दमन का यत्र करती जरूर थी, परन्तु भड़क उठती तो संयम भूल जाती। पंत दम्पति के व्यवहार से खिन्न थी ही, मां की उदासी और साँस सॉस में परमेश्वर को गुहार जख्म पर नमक बन रही थी।
"मम्मी मुझे मर गयी समझ लिया जो मेरा सोग मना रही हो!" "हमें न किसी के आने- जाने की परवाह न जरूरता में किसी के रहम की मोहताज नहीं प्लीज, मेरे सामने बैठकर मत बिसूरो। जिससे मतलब है, निवाहनी है वह आयेगा देखा जायेगा, निपट लूँगी।"
पंडित साढ़े पाँच तक आये। हाल-चाल पूछा। दोनों छः बजे लौट गये। उपा अप्रिय प्रसंगों से ध्यान बचाने के लिये फिर पुस्तक में डूब गयी। रात बहुत देर तक पड़ती रही। नी बजे पुस्तक समाप्त पुस्तक के अन्त में पत्नी की बीमारी के समय बेडन वीलर (स्विट्जरलैंड) में पुस्तक के उपसंहार रूप में लिखी पंक्तियाँ मन में चुभ गयीं।
पंक्तियों को दूसरी बार पढ़ा: इस समय भारत ब्रिटिश शासन से क्या आशा कर सकता है। इस सम्पूर्ण शासन व्यवस्था, शासन का उत्तरदायित्व सम्भाले बड़े अफसरों, इंडियन सिविल सर्विस के लोगों से किसी भी भलाई की आशा व्यर्थ है। इन लोगों का लक्ष्य जनहित नहीं, संकीर्ण वैयक्तिक स्वार्थ मात्र है। इस शासन व्यवस्था का खर्च नित्य बढ़ता जा रहा है परन्तु इस व्यवस्था को चलाने वाले सरकारी अफसरों की विशेषता केवल नैतिक और बौद्धिक पतन ही है। पूरी शासन प्रणाली और शासक वर्ग में अनैतिकता और बेईमानी का बोलबाला है। ऊंचे पद पर बैठे लोग सबसे गिरे हुए हैं। ऊँची सरकारी नौकरी के लिये चुनाव और योग्यता की कसौटी कमीनी, खुशामदी, संकीर्ण, स्वार्थी मनोवृत्ति बन गयी है। इन अफसरों के विचारों और कल्पना में उदात्त भावना, सच्चाई, मानवी न्याय और जनहित के लिये कोई स्थान नहीं।
उपा को पंक्तियाँ अच्छी न लगीं। पुस्तक एक ओर रख दी। बहुत देर तक मन में कई बातें आती रहीं. कभी मधुर स्मृतियाँ, कभी पंत परिवार की रुखाई की खटक हो सकता है। निर्मल के डैडी ऐसी ही प्रकृति के हों पर निर्मल ऐसा नहीं हो सकता। नेहरू जैसा व्यक्ति गलत क्यों कहेगा। नेहरू ने वह १९३५ में लिखा था अब तो सरकार या व्यवस्था बदल गयी। कितना लम्बा और कठिन संघर्ष था! उषा कुछ मिनट सोचती रही। फिर पुस्तक उठाकर उसके पन्ने पलटने लगी। कई पृष्ठों पर हाशिये पर चिह्न थे, कहीं प्रश्न चिह्न, कहीं सही का चिह्न, कहीं कोटा। चिह्नित पैरे राजनीतिक, खासकर समाजवादी कार्यक्रम के बारे में थे। शेष रोचक प्रसंगों की तुलना में उपा को यह प्रसंग कम समझ में आये थे।
नर्स नौ बजे ही उपा को आपरेशन थियेटर ले गयी। एक्सरे से टाँग की हालत देखी गयी। सर्जन सिन्हा बहुत संतुष्ट थे। टाँग पर से तख्तियाँ हटाकर प्लास्टर लगा दिया गया। सर्जन ने आश्वासन दिया: हड्डी का जोड़ बहुत ठीक बैठ गया है। प्लास्टर से यदि दो दिन कोई परेशानी न हुई तो घर जा सकेगी।
उषा के आपरेशन थियेटर जाने पर बेबे ईश्वर से प्रार्थना करती रही। उषा स्ट्रेचर पर लौटी तो मुस्करा रही थी। बेबे ने हाथ जोड़ माथा झुकाकर होंठों ही होंठों में ईश्वर और ईश्वर के बेटे को कृपा के लिये धन्यवाद दिया। उषा के सिर पर प्यार का हाथ फेरा। आपरेशन थियेटर से लौटकर उषा बोझ मुक्ति से प्रसन्न थी। सेठ का नौकर दैनिक अखबार दे गया था। अखवार पर नजर डालने लगी।
"गुड मार्निंग"
"गुड मार्निंग! डाक्टर!" उपा ने अखबार एक ओर रख दिया।
सेठ ने प्लास्टर लग जाने और टाँग से बोझ हट जाने के लिये सन्तोष प्रकट कर पूछा, "पुस्तक रोचक थी?"
बहुत रोचक परन्तु मेरे लिये बहुत सी बातें अनजानी थीं। कितना बड़ा संघर्ष था। अब तो कांग्रेस की माँग पूरी हो गयी।"
सेठ हाथों में धमा स्टैपिस्कोप सुलाते हुए कदम फैलाकर आराम से खड़ा हो गया, कांग्रेस की माँग पूरी हो गयी?" उसने विस्मय से प्रश्न किया, "कांग्रेस के कुछ नेता या लोग ऐसा समझते हैं, सब लोग नहीं। खान फर्क भी क्या आया? पहले अंग्रेज सरकार द्वारा नियत नवाव छतारी वाजपेयी, महाराज सिंह, सी० बाई चिन्तामणि मिनिस्टर थे, अब कांग्रेस के नेताओं की पसंद के लोग मिनिस्टर हो गये।"
"कांग्रेस के लोग मिनिस्टर हैं," उपा झिझकी, "तो व्यवस्था कांग्रेस के हाथ में है। " "नहीं, ऐसी बात नहीं है।" सेठ ने सिर हिलाया, "अंतिम निर्णय तो गवर्नर के हाथ में। गवर्नर के ऊपर दिल्ली में वायसराय गवर्नर और वायसराय पर जनमत का अंकुश नहीं। कायदे कानून वही हैं। सिर्फ कुर्सियों पर आदमी बदल गये। आठ महीने में क्या बदल गया? इस परिवर्तन से नेहरू भी संतुष्ट नहीं हैं। "
"नेहरू संतुष्ट नहीं?" उषा को विस्मया
"नेहरू संतुष्ट नहीं हैं, यह तो पुस्तक से जाहिर है। नेहरू कहते है, आम जनता की समस्यायें समाजवादी व्यवस्था के बिना हल नहीं हो सकती। "
"कांग्रेस समाजवादी व्यवस्था नहीं लागू कर सकती?"
"नहीं! कांग्रेस मंत्रियों को इतना अधिकार अवसर नहीं है। कांग्रेस की प्रवृत्ति भी उस ओर नहीं है। नेहरू ने स्वयं लिखा है, कांग्रेस की विचारधारा पूँजीपति वर्ग से प्रभावित है। उसका स्वप्न विदेशी पूँजीपतियों की जगह देशी पूँजीपतियों को प्रभुत्व है। कांग्रेस के अधिकांश लोग समाजवादी विचारधारा से परिचित ही नहीं उनकी रुझान समाजवाद की और कैसे हो सकती है!"
हैं।"
उपा मौन रह गयी।
"जयप्रकाश का नाम जानती हैं? उनकी एक छोटी सी पुस्तक है, पढ़ेंगी?"
"ज़रूर!" उपा ने स्वीकार किया, "नेहरू की पुस्तक ईडी और अमित भी पढ़ना चाहते
"बहुत अच्छा, अभी रखिये।"
दोपहर बाद उपा झपकी से उठी तो बेबे ने बताया, डाक्टर का नौकर दो छोटी-छोटी पुस्तकें दे गया था। 'समाजवाद ही क्यों?' – जयप्रकाश नारायण और एमाइल बर्न की पुस्तका
संतुष्ट।
संध्या पिता और माँ आये। उपा की दोनों टाँगें समतल और बँधा वजन हट गया देख
"डेडी, आप नेहरू की आत्मकथा ले जा सकते हैं। डाक्टर सेठ से कह दिया है।" पंडित का ध्यान छोटी पुस्तकों की ओर गया, "मोशलिज्य स्टडी कर रही हो?" “बेटी, देख रही हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं जानती।"
"जानना तो अच्छा है। जानने का मतलब है, किसी भी विचार या समस्या के दोनों पक्षों का परिचय।"
मिसेज़ पंडित बेबे से बोली, "हस्पताल में बेआरामी से बहुत थक गयी हो। कल गुडफ्राइडे है। प्रार्थना के लिये गिरजा न गयी तो दुखी होगी। कपड़े दोनों के ले आयी हूँ। चाहो तो घर चली जाओ। यहाँ मैं रह जाऊँगी।"
नियमित रूप से गिरजा न जाने वाले ईसाई भी गुडफ्राइडे की तीनों प्रार्थनाओं में गिरजा जाना आवश्यक मानते हैं परन्तु उषा की अवस्था ऐसी थी कि सहायता के लिये किसी का समीप रहना अनिवार्य ।
माँ बात कर रही थी तो अमित आ गया। बोल पड़ा, "जीजी की मदद के लिये मैं ठहर जाऊँगा।"
पिता ने उसकी ओर मौन नजर उठायी। माँ ने उसकी नादानी पर मीठी झिड़की दी. "तुमसे कुछ नहीं कहा। यह तुम्हारा काम नहीं।"
"मेरे लिये कपड़े ले आयी हो।" देवे बोली, "रब्ब और रब्ब का पुत्तर देख रहे हैं. मैं बीमार बच्ची की हालत से मजबूर। बीमारों की मदद उसका हुकमा उसका हुकम ही मेरा कलीसिया। वह मेरे गुनाह बनेगा में यहाँ ही दुआ कर लूंगी। अमित की और देखकर ताकीद की, "काका, तू गिरजा जरूर जाना, सुना!"
गिरजा जाने के प्रति अमित की उदासीनता उपा जानती थी। पिछली यादें उकरने लगीं। डेढ़-दो बरस से उषा का भी कुछ वैसा ही भाव था। वही परिवर्तन अमित में आ रहा था। उस परिवर्तन के लिये कुछ उत्तरदायित्व स्वयं पिता का था। पिता बेटी-बेटे को वैज्ञानिक विकास और आविष्कारों की कहानियाँ पढ़ने के लिये उत्साहित करते रहते थे। विकासवाद पर आरम्भिक पुस्तकें बच्चों को स्वयं लायब्रेरी से लाकर दी थीं। परिणाम में बच्चों को शंकायें: यदि इस सृष्टि, पृथ्वी का निर्माण लाखों बरस में शनैः शनैः हुआ है, सूर्य और सैकड़ों तारे पृथ्वी से लाखों बरस पूर्व मौजूद थे, मनुष्य ने अनेक जीवों की अवस्थाओं से गुजर कर अपना वर्तमान रूप पाया है तो ईश्वर के आदेश से प्रकाश हो जाने, ईश्वर द्वारा संसार के निर्माण और ईश्वर द्वारा मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाने की बातें कैसे सही हैं? बेटी-बेटे की ऐसी शंकाओं से माँ बहुत क्षुब्ध हो जाती, "ऐसा क्या पढ़ाना कि बच्चे दहरियों जैसी बातें करें।"
पंरित धैर्य से बच्चों से बात करते और समझाते धर्म-विश्वास का आधार अज्ञान नहीं, ज्ञान होना चाहिये। ज्ञान मनुष्य को ईश्वर की सबसे बड़ी देना ईश्वर ने मनुष्य को ज्ञान देकर ही उसे अपना प्रतिरूप बनाया है या अपनी शक्ति का अंश दिया है। ईश्वर असीम है. इसलिये निराकार शक्ति ईश्वर भौतिक पदार्थ नहीं। उसे भौतिक ज्ञान के साधनों से नहीं खोजा जा सकता। ईश्वर की अनुभूति का साधन अन्तर चिन्तन और अन्तर-ज्ञान । पिता की बातों से उपा को ईश्वर के अस्तित्व की चिन्ता के बजाय ईश्वर-पुत्र के प्रतीक से प्रकट ईश्वरीय गुणों से ही सन्तोष था।
पुस्तक
बेबे वार्ड की आया से बतियाने के लिये बरामदे में निकल गयी। एमाइल बर्न की उठाते उपा को खयाल आया कल निर्मल के पेरेंट्स और डैडी मम्मी की वर्ष में भेंट होगी। कुछ तो पता लगेगा। परसों निर्मल आ जायेगा। यहाँ शाम तक तो जरूर ।
गुडफ्राइडे । उषा की आँख खुली तो बेबे नहा-धोकर धुले-साफ कपड़े पहन चुकी थी।. नित्य उपा की नींद टूटते ही बेबे उसे मुँह-हाथ धुलवा गरम चाय का मृग थमा देती थी। बेबे को नींद टूटते ही चाय की तलब। बेबे ने चाय देने के बजाय कहा, "बच्ची, पहली इबादत कर ले। तू बीमार है, तेरे लिये चाय बना दूंगी।"
गुडफ्राइडे के दिन बेबे को संध्या की प्रार्थना तक निर्जल निराहार रहना था। वेवे की भावना का विचार कर उषा ने कहा, "ऐसी क्या बीमार हूँ मैं तीन बजे तक कुछ नहीं लूँगी।"
बेबे ने उपा का शरीर गीले तौलिये से पोंछकर साफ कपड़े पहना दिये। पीठ पीछे तकियों का सहारा देकर प्रार्थना के लिये बैठा दिया। तकिये के समीप बाइबल रख दी। स्वयं दूसरे पलंग के समीप तहाया हुआ कम्बल बिछाकर, घुटने टेक, हाथ बाँधकर माथा
नवाकर प्रार्थना में लीन हो गयी।
उषा ने भी भक्ति मुद्रा में हाथ जोड़कर पलकें मूंद लीं। कल्पना में बचपन से पिता और पादरी के वर्णनों से बना ईश्वर-पुत्र का रूप ईसा मनुष्य मात्र के पाप मोचन के लिये यंत्रणा सहने के लिये प्रस्तुत है। आततायियों ने उसके हाथ पीठ बाँध दिये हैं, उसके सिर पर शूलों का ताज कस दिया हैं, आततायियों ने संटियाँ मार-मारकर शूलों को उसके सिर में गड़ा रहे हैं, उसके शरीर पर चोटें कर रहे हैं, उसे गालियों दे रहे हैं, उसके मुख और शरीर पर थूक रहे हैं। ईसा मौन, उन्हीं आततायियों के कल्याण के लिये सब अपमान और यातना सह रहा है। निरीह ईसा धैर्य, शान्ति, निर्भय, क्षमा, सहिष्णुता का प्रतीका
कुछ पल में दूसरी कल्पना एंटी-कम्युनियन सर्विस के अन्त में ईडी-मम्मी और निर्मल के पेरेंट्स से भेंट। कुछ मिनट में उपा की पलकें खुल गयीं। वेवे घुटने टेके, हाथ जोड़े, सिर नवाये होंठ मौन प्रार्थना में हिल रहे थे। उपा कुछ पल छत की ओर टकटकी लगाये रही। फिर बर्न की पुस्तक खोल ली। बेबे ने आधे घंटे तक प्रार्थना की।
बेबे ने वार्ड में पूछकर एगोनी सर्विस (ईसा के सूली पर लटकाये जाने के समय यातना में सहानुभूति संवेदना की प्रार्थना) का समय बारह बजे बता दिया। वेवे और उषा ने भी पलकें मूँद, सिर नवाकर ईश्वर-पुत्र के यातना आकुल, सिर पर शूलों का ताज गड़ाये, सूली पर लटके हृदय और दूसरे अंगों से रक्त बहते शरीर के बिम्ब को अपनी श्रद्धा अर्पण की। कुछ पल शोक और श्रद्धा से सिर नवाये जमात की कल्पना ।
उपा ने पलकें खोलीं तो वेवे प्रार्थना में लीन।
उपा ने सिराहने रखी बाइबल उठा ली। पवित्र पुस्तक से सूली पर प्राणान्तक वातना में छटपटाते ईसा के मुख से निकले सात 'शब्द' का पाठ किया, “हे पिता, इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये जानते नहीं क्या कर रहे हैं। एली एली लामा शवक्तनी (हे मेरे ईश्वर, तूने मुझे क्यों भुला दिया) ''मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों सौंपता हूँ। बाइबल को माथे से छुआ कर सिरहाने रख दिया। अपलक छत की ओर देखती रही। कुछ मिनट बाद उषा नें पुस्तक फिर आरम्भ कर दी। पुस्तक के कुछ ही पृष्ठ शेष थे। बर्न के विचारों के विषय में सोचने लगी: मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्त सबके लिये समान अवसर वाले समाज से अभिप्राय पृथ्वी पर ईश्वर की इच्छा का पूरा होना। समाजवाद को धर्म विरोधी क्यों कहा जाता है। उपा की नजर बेबे की ओर गयी। बेबे घुटने तोड़े कम्बल पर बैठ गयी थी परन्तु प्रार्थना में लीन बहुत देर बाद आमीन में माथा झुकाकर उठी तो फर्श पर हाथ टेकने पड़े। घुटने सीधे न हो रहे थे।
तीन बज चुके थे। बारह से पहले हस्पताल से खाने की ट्रे आ गयी थी। बेबे सूप और सब्जी गरम कर लायी। उषा से अनुरोध किया, "बल्लो, तू थोड़ा ले ले। बीमारी में देर तक फाका करना ठीक नहीं।"
उषा ने सूप पीकर कुछ चम्मच सब्जी ले ली। बेवे से कहना व्यर्थ था जानती थी, संध्या प्रार्थना से पूर्व कुछ नहीं ले सकती। सोच रही थी, पैशन सर्विस के बाद वेवे के लिये खाना लेकर मीतू साढ़े नौ तक आयेगा। अमित साढ़े पाँच से कुछ पहले आ गया।
"काका, तुझे शाम गिरजा नहीं जाना!" बेबे के स्वर में असंतोष
"अभी बहुत टाइम । " अमित ने कहा, "मम्मी ने तुम्हारा खाना भेजा है। शाम को सर्विस के बाद बहुत देर हो जायेगी।"
"ऐसी क्या देर! अंधेरे से पहले मुझे क्या जरूरत! बेबे ने कटोरदान खिड़की में रख दिया।
अमित ने स्टूल बहिन के पलंग के समीप खींच लिया। बहिन की आँखों में जिज्ञासा की सहानुभूति में बोला, "नीरा सुबह कॉयर में थी। उसने बताया, मिस्टर और मिसेज़ पंत सर्विस आरम्भ होने से कुछ पल पहले आये। सबसे पीछे बैठे। सर्विस समाप्ति पर चुपचाप बाहर एगोनी सर्विस मैं भी उसी तरह आये और चले गये। "
उपा सुनकर मौन रही ।
संध्या सात बजे बेबे ने फिर उषा की पीठ पीछे तकियों का सहारा देकर प्रार्थना के लिये बैठा दिया। स्वयं प्रार्थना के लिये बैठ गयी। उषा का मन उदास कल्पना में ईसू का विक्षत, रक्त से भीगा, उपेक्षा और तिरस्कार से दफनाया गया शरीर बेबे की ओर नजर गयी, उसकी प्रार्थना में मंदी पलकों की कोरें भीगी थीं।
शनिवार सुबह सब सामान्य उपा के मन से पिछले दिन की उदासी का बोझ सर्वधा मिट न गया था। अखबार पर नजर डाली, फिर 'व्हाई सोशलिज्म ओनली' शुरू कर दी। नौ बजे नर्स पट्टी करने आयी। एंग्लो-इंडियन नर्स हिदुस्तानी बोल न पाती थी। नर्स ने मुस्कराकर बतायाः घाव भर आया, बस दो दिन और पट्टी की जरूरत।
बारह के लगभग चन्द्रा झौंक गयी। उसके कुछ मिनट बाद डाक्टर सेठ आया। हाल चाल पूछकर आश्वासन दिया, "सोमवार आपके घर लीटने की पूरी आशा। पुस्तकें कैसी लगी?
उपा ने दूसरी पुस्तक भी लगभग पढ़ ली थी, बोली, "मेरे लिये नयी बातें हैं। समझने का यत्न कर रही हूँ कोई और पुस्तक — कहानी, इतिहास दे दें तो जरा मन लग सके। " दोपहर झपकी के बाद नींद टूटी तो बेबे को पुकार कर उपा ने पूछा, "क्या बजा है?" बेबे ने बताया, दो बजे गये।
आज सुबह से उषा का ध्यान निर्मल की ओर था। सुना था, कलकत्ता से मेल दो-ढाई बजे पहुंचती है। आज निर्मल के पहुंचने का निश्चय यहाँ पाँच नहीं तो छः तक जरूर आ सकता है। सेठ ने नवीन की पुस्तक 'माई फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम' भेज दी थी।
पुस्तक का प्राक्कथन पढ़कर उषा को पुस्तक में विस्मयपूर्ण जिज्ञासा आयरलैण्ड, ग्रेट ब्रिटेन का भाग । आम हिन्दुस्तानियों की नजर में अंग्रेज-आयरिश एक ही बात आयरिश लोग भी ईसाई, परन्तु उन्हें अंग्रेजों का शासन नामंजूर पुस्तक में रम गयी परन्तु निर्मल की याद बार-बार काँध जाती।
"बेबे, क्या बज गया!" उषा ने दोपहर बाद तीसरी बार प्रश्न किया था। अपने पलंग से समय के अन्दाज के लिये बाहर धूप न देख सकती थी ।
वार्ड से समय छ आयी। पाँच बज गये थे। उषा ने मन-ही-मन में कहा: निर्मल डैडी मम्मी के बाद आये तो अच्छा।
किवाड़ खुलने की आहट से उषा की गर्दन घूम गयी। डैडी थे, उनके पीछे मम्मी कुछ
परेशान लगीं।
"मम्मी, कल के उपवास से तबीयत खराब हुई न!" उषा ने कहा।
"नहीं मुनी, रात नींद नहीं आयी। दो बार गोली भी ली।" मम्मी की उदासी और उनींदेपन के कारण उपा जानती थी। डैडी ने नवी पुस्तक के पन्ने पलटकर कहा, "उपी, तुम्हें पालिटिक्स में एकदम गहरा इन्टरेस्ट!" पुस्तक पर सेठ का नाम देखकर हँसे, "सेठ तुम्हें चेला बना रहा है।"
"नहीं डैडी, पालिटिक्स तो क्या, पुस्तक रोचक है। समझना चाहती हूँ।"
मम्मी कटोरदान के साथ अपने कपड़े भी लायी थी। मम्मी की साड़ी का बार्डर दिखायी दे रहा था। उषा को अनुमान हो गया, मम्मी ईस्टर संडे की प्रार्थना के लिये अपने कपड़े लेकर आयी है ताकि बेबे को घर लौटा सके।
"बेबे, रात में रह जाऊँगी। तुम घर चली जाओ। सुबह जलाल की दुआ के लिये गिरजा जा सकोगी।"
उषा ने कातर दृष्टि से बेचे की ओर देख लिया था। नहीं चाहती थी कि निर्मल मम्मी के सामने आये। उसका अपना मन उदास तिस पर मम्मी की उदासी।
बच्चे बेबे की गोद में पले थे, बच्चों के सैन भोपती थी। उसने गर्दन हिला दी, "न न तू घर जा तूने मंजी पकड़ ली तो सबकी मुसीबत हो जायेगी। हम दोनों ने जैसे कल इबादत- दुआ कर ली, सुबह भी कर लेंगे। मुझे और कपड़ों की जरूरत नहीं। कल पहने कपड़े रात उतारे कर रख दिये थे, अच्छे भले साफ हैं। खाना तू ले ही आयी है।"
मुलाकात का समय समाप्त होने की घंटी पर डैडी मम्मी उठ गये। उषा ने पुस्तक उठा ली तो बेबे बरामदे के सामने चहलकदमी के लिये निकल गयी। उषा की नजर पुस्तक के पृष्ठों पर परन्तु ध्यान में निर्मल उपा को वेवे से समय पूछते झेंप अनुमान सात बज रहे होंगे "क्या निर्मल आया ही नहीं? ऐसा क्या कारण हो गया! ओ मीतू की बात से लग रहा था, उसके पेरेन्ट्स बहुत चुप-चुप थे। वे लोग शायद किसी कारण चिन्तित हों! हमें बताना न चाहते हों। हम लोग उनकी चुप से चिन्तित हे ईश्वर क्या होने वाला है, तेरा क्या विधान ! फिर ख्याल शायद मेल लेट हो ।
ईस्टर संडे वेवे ने उपा के सिर माथे पर प्यार करके उसके कंधे हिलाकर उसे जगाया। उषा को रात नींद विलम्ब से आयी थी। कमरे में अभी अंधेरा था। किवाड़ों की जाली से बरामदे में बिजली की रोशनी दिखलायी दे रही थी।
"बल्लो, अँधेरा फटने लगा।" बेबे ने उषा को पुकारा, "उठ जा मेरी बच्ची रानी, जलाल की दुआ का वक्त हो रहा है।" पलंग के समीप स्टूल पर दाँत मंजन, साबुन, पानी, तौलिया रखे हुए थे। बेबे स्वयं आध घंटे पहले बाहर खुले में जाकर पूर्व की ओर सफेदी के आभास के लिये दो बार नज़र डाल आयी थी। स्वयं नहाकर साफ कपड़े पहन लिये थे।
शुक्र की सुबह की तरह उपा को तैयार कर प्रार्थना के लिये बैठा दिया। स्वयं भी प्रार्थना में लीन। उषा ने भी हाथ जोड़कर एकाग्रता के लिये पलकें मूंद लीं कल्पना में कब्र से उठकर ईसा का जाज्वल्यमान शरीर आकाश में स्वर्ग की और जाता हुआ। उपा ने मौन ईश्वर को गुहारा: जैसे स्वर्ग में तेरी इच्छा पूर्ण होती है, वैसे ही तेरी कृपा से पृथ्वी पर भी सबके हृदय में सत्य, दया, न्याय का आवास हो । तेरी ज्योति से सब भ्रम-आशंका का अँधेरा
दूर हो। मेरे निर्मल, मेरे परिवार निर्मल के परिवार पर तेरे करुणा- हस्त की छाया हो । आज मेरा निर्मल आये। निर्मल की रक्षा करो, उसके राह की बाधा दूर करो। उषा की पलकें तीन-चार मिनट में खुल गयीं। सिर नवाये बेबे के ओंठ प्रार्थना में हिलते रहे। फिर गर्दन झुकाकर आमीन कहा। फर्श पर दोनों हाथ टिकाकर उठी। उस दिन भी प्रार्थना से पूर्व चाय न ली थी। बेबे वार्ड की अँगीठी पर चाय बनाने चली गयी। तन्मय प्रार्थना के बाद उषा उदास।
आठ बजे से ईस्टर संडे की दूसरी प्रार्थना । वेवे प्रार्थना से उठी तो उपा डैनबीन की पुस्तक में लीन थी।
"मुन्नी, आज तो तुझे इंजील पढ़ना चाहिये?" बेबे टोके बिना न रह सकी। बेबे निरक्षर थी, परन्तु इंजील के पते और जिल्द पहचानती थी।
"बेथे, इसमें भी इंजील की ही बातें हैं।"
ख्याल आया दस बजे चर्च में प्रार्थना हो चुकी होगी। इस प्रार्थना के अन्त में कुशल- मंगल, शुभकामना की बातों का अवसर होता है। हमारे पेरेन्ट्स और निर्मल के पेरेन्ट्स में जरूर बात हुई होगी। निर्मल कल बहुत बिलम्ब से पहुँचा हो अब क्या स्थिति है? आज संडे, भेंट मुलाकात के लिये लोग दिन में भी आ जाते हैं। निर्मल को तो यों भी कौन टोकेगा ! "उषा के लिये क्षण-क्षण पहाड़ हो रहे थे और ज्यों-ज्यों क्षण बीत रहे थे, निर्मल के न पहुँचने से दुविधा - चिन्ता पहाड़ों से बड़ी होती जा रही थी।
पण्डित जल्दी, चार के लगभग अकेले आ गये।
"सान्ती का क्या हाल है, तबीयत कैसी?" बेबे ने चिन्ता से पूछ लिया।
"ठीक है।" पण्डित बेबे की नज़र बचाये थे “कल रात भी नींद नहीं आयी। डाक्टर चौहान ने पुड़िया दी। सिरदर्द को तो फायदा रहा, सो नहीं सकी। शायद खून का दबाव बढ़ गया। सुबह वक्त न था। लौटते में स्वामी जी से दवा लेते जायेंगे। उनकी दवा मुआफिक बैठती है।"
पण्डित उठते उठते बोले, “बेटी, कल तो घर लौट रही हो। तुम्हें कितने बजे लेने आयें?" "डाक्टर सेठ कह रहे थे, सर्जन सिन्हा पर निर्भर है। राउण्ड पर आयें या अपने यहाँ बुलवा लें। एक तो बज ही जायेगा।"
पण्डित ने बेबे की सलाम का संकेत कर कहा, "हमें जल्दी है। खाना अमित दे जायेगा!" अमित सूर्यास्त के समय आया । सदा हँसते रहते लड़के को गुमसुम देखकर बेबे को आशंका, "काका, माँ का क्या हाल है?"
अमित ने कटोरदान वेबे को देकर स्टूल बहिन के पलंग के समीप खींच लिया, "मम्मी ठीक है। थोड़ा सिरदर्द है। डैडी ने कहा, धूप में मत जाओ। कल जीजी लौट ही रही है।" भाई की गम्भीरता देख उषा ने अंग्रेजी में पूछा, "मम्मी को क्या हुआ?" “मम्मी तो एकदम परेशान हो जाती हैं, तिस पर चौहान आंटी भड़काने वाली! अमित ने अंग्रेजी में जवाब दिया। बच्चे या दूसरे लोग बेबे के सामने अंग्रेजी बोलने लगते तो वह चिढ़कर स्वयं दूर हट जाती। बेबे बरामदे में चली गयी। अमित ने बताया: आटी तो फ्राइडे को ही मिस्टर मिसेज़ पंत के ढंग से चिढ़ गयी थी। हम लोग पैशन सर्विस से लौट रहे थे तो बोली, तीनों सर्विस में लास्ट मिनट पर आना और तुरन्त नजर बचाकर भाग जाना;
जैसे पहले साहबियत के मिजाज का गुरूर था। ये लोग मुँह चुरा रहे हैं।
डैडी ने कहा, शोक का अवसर है। मन भारी हो तो बोला नहीं जाता।
आंटी ने कहा, सोग तो पूरी उम्मत को इनका कोई निराला सोग है। सोग में दूसरी बात न सही, अपने बच्चों की तकलीफ बीमारी की बात तो पूछी कही जाती है। मम्मी पहले ही भरी बैठी थीं, घर आते ही रोने लगीं।
कल फिर वही बात। सनराइज़ सर्विस के बाद वे लोग चर्च में चाय के लिये भी न ठहरे। रीता कॉयर से उठकर बाहर आयी तो उसने बताया, परसों की तरह लास्ट मिनट पर आये थे। निर्मल भी था। सबसे पहले बाहर निकल गये।
निर्मल भी था सुनकर उपा के दिल पर गहरी चोट
अमित कहता गया आज दूसरी सर्विस में आंटी बहुत तैयार होकर गयी थीं कांग्रीगेशन के बाद मिस्टर - मिसेज़ पंत को जरूर पकड़ेगी। फिर वही हुआ। वे लोग लास्ट मिनट पर आये, सबके पीछे बैठे। सर्विस के अन्त में सबसे पहले निकलने वालों के साथ बाहर चौहान आंटी सिंह आंटी को साथ लेकर खुद पीछे ही बैठी थीं। लेकिन जब तक ये दोनों पोर्टिको में पहुंचीं, वे लोग गेट के बाहर फोर्डम ने बताया, मिस्टर मिसेज़ पंत और पप्पुल थी, निर्मल न था।
आंटी को बहुत गुस्सा लौटते समय डेडी से बोलीं, परसों की बात हम मानते हैं, सोग का दिन था। आज सुबह सब लोग चाय के लिये ठहरे, बातचीत हुई। अब सर्विस के बाद भी लोग बातचीत कर रहे थे। उन लोगों को क्या हम आप दिखायी नहीं दिये ! इधर छः सात महीने कैसे लपक कर आते थे! जाहिर कि नजरें चुरा रहे हैं। आपको उन लोगों से बात करनी चाहिये, मामला क्या है? हम तो जरूर पूछेंगे। मिसेज चौहान पंत दम्पति के व्यवहार से बहुत क्षुब्ध रिश्ते के लिये उन्होंने बिचॉअल की थी।
हाँ, बात क्यों नहीं करेंगे। ईडी ने कहा, हम उनके पीछे क्यों दौड़ें? हमें चिन्ता है; उतनी ही उन्हें भी होनी चाहिये। उतावलेपन से क्या लाभ !
उषा अतल निराशा में गिरी जा रही थी। निर्मल कल साँझ जब भी आया हो, परन्तु आज दिन भर उसे समय न मिला! ओ गॉड, यह सब क्या ।
संध्या उषा को भोजन से अरुचि बेबे के दुखी होने की आशंका में जैसे-तैसे कुछ निगला । लड़की की भूख गायब देखकर बेबे परेशान । बेबे बहुत सीधी थी, परन्तु भाँप लिया था कि बात उससे छिपायी जा रही है। इतनी नासमझ न थी। पंत-पंतनी के न आने पर उसने भी विस्मय प्रकट किया था। सभी के चेहरों पर चिन्ता देख रही थी। बात आखिर और क्या हो सकती थी?
रात उषा बहुत बेचैन, पंखे के बावजूद गरमी की शिकायत नर्स दस के बाद दरवाज़े से झाँक लेती थी। नर्स के दरवाज़ा खोलते ही बेबे ने पुकार लिया- "मिस साब, लड़की बहुत परेशान है।"
नर्स ने आकर उपा का माथा हुआ, नब्ज देखी, हाल-चाल पूछा।
उषा ने बताया, , सिर में हलका दर्द है, नींद नहीं आ रही है।
एक गोली भेजती हूँ नींद आ जायेगी।" नर्स ने सान्त्वना दी। बेबे को साथ आने का संकेत किया।
डाक्टर सेठ सोमवार नौ से पहले आया। उषा का उतरा चेहरा और आँख गहरी देखकर नब्ज पर हाथ रखा। चार्ट पर नज़र डाली। टैम्प्रेचर नार्मल से नीचे, नब्ज कमजोर थी। पूछ लिया, क्यों कैसी तबीयत है। रात नींद बहुत देर से आयी
उपा ने मुस्कराने का यंत्र किया।
हस्पताल से ऊब गय! या कुछ चिन्ता है?" सेठ मुस्कराया। उपा की टाँगें समतल रखकर जाँचता रहा, "आज छुट्टी मिल जाने की पूरी आशा। घर जाकर सब ठीक हो जायेगा।"
"ख्याल तो है।" उषा ने मुस्कराकर धन्यवाद दिया।
सर्जन सिन्हा जूनियर डाक्टरों और विद्यार्थियों से घिरा हुआ एक बजे के बाद वार्ड में आया। सर्जन के सामने जूनियर डाक्टर ने वही सब देखा जो सुबह सेठ ने देखा था। सर्जन ने घर जाने की अनुमति दे दी।
उपा के डिस्चार्ज कार्ड लाने में सेठ को पौन घंटे का समय लग गया। पण्डित एक बजे आ गये थे। चिन्ता में थे लड़की की एक टोंग जाँघ से टखने तक प्लास्टर में जकड़ी, घुटना मुडना असम्भव उसके लिये किसी भी सवारी पर बैठ सकना कठिन लड़की को कंधारीबाग गली तक कैसे ले जायें?
सेठ ने कार्ड पण्डित के हाथ में देकर कहा, "मिस पण्डित के लिये एम्बुलेंस बुक करवा दी है। गाड़ी कुछ मिनट में आ रही है। "
गाड़ी आयी आध घंटे बाद उपा को स्ट्रेचर पर उठाकर एम्बुलेंस के पीछे लम्बी सीट पर रख दिया गया। उसके सामने समानान्तर सीट पर वेवे बैठी। पण्डित सामने ड्राइवर के
साथ।
डाक्टर सेठ के व्यवहार से पण्डित बहुत अनुगृहीत थे। पढी की ओर से भी धन्यवाद दिया, “तुम्हारे सौजन्य और सहायता के सहारे हमने इस कठिनाई को कुछ भी महसूस न किया। जब समय मिले सुविधा हो तो आकर उपा को देख जाना। उपा और हम सबको बहुत प्रसन्नता होगी।"
"मास्टर साहब, मुझे शर्मिंदा न कीजिये। में कुछ न कर सका। मेरे लायक सेवा हो तो निस्संकोच याद कीजिये। जरूर हाज़िर होऊँगा। विवाह की तारीख बताइयेगा। निमंत्रण की जरूरत नहीं। घर का आदमी हूँ। कामकाज के लिये आऊंगा।"
पण्डित का हृदय उमग आया, "तुम्हारी बहिन है। मदद के लिये तुम नहीं आओगे तो कौन काम करेगा?"
सेठ हाथ में दो पुस्तकें लिये था। पण्डित एम्बुलेंस में बैठ गये तो पुस्तकें उनकी ओर बड़ा दी, उषा समाजवाद के सम्बन्ध में पड़ना चाहती है। खाली समय में आप भी देखियेगा। अमित लौटा जायेगा या खुद ले लूंगा।"
महम लोगों को सोशलिज्म और पालिटिक्स पड़ा रहे हो!” पण्डित हँसे, अपने स्टूडेंट्स
की प्रोग्रेस देखने तुम्हें आना पड़ेगा।"
"हम सब आपके स्टूडेन्ट हैं।"
एम्बुलेंस का दरवाजा बन्द करते समय सेठ ने उपा को नमस्ते कहा। उपा ने भी
नमस्कार कर आने का अनुरोध किया।
मिसेज पण्डित ने बेटी के सोमवार दोपहर तक हस्पताल से लौट आने की सम्भावना पड़ोसियों को बता दी थी। बेटी की सुविधा के विचार से बैठक के साथ के कमरे का फर्श धोकर पलंग डाल दिया था। बेटी के सकुशल घर लौटने की आशा के उत्साह में उदासी दब गयी थी। पूरा विश्वास, बेटी के भली-चंगी घर पहुँच जाने पर गलतफहमियों खुद दूर हो जायेंगी। अनुमान था, पण्डित बेटी को डेट-दो बजे तक घर ले आयेंगे।
मिसेज़ खान और मिसेज़ सिंह में होड़ रहती थी, ईस्टर मेले में सौदे की बिक्री से चर्च को कौन अधिक दान देता है। गली के तीन-चार अन्य परिवार भी सौदा बनाकर मेले में ले जाते थे। मिसेज़ खान ने वाल्टी भर आइसक्रीम तैयार की थी। गार्ड मैथ्यू सिंह के यहाँ शनिवार को एक बड़े हिरन की टांग दे गया था। मिसेज़ सिंह ने बड़ी ट्रे भरकर कवाब और चटनी तैयार किये थे। मास्टर याकूब प्रतिवर्ष मेले में बच्चों के बहुत उम्दा दो जोड़े जूते बनाकर ले जाता, मिसेज़ हैरन कढाई के टेबुल कवर और टी-कोजी। बच्चों को भी सौदा बेचने का चाव होता है। किसी भी चीज़ के छोटे-छोटे पैकेट या पुड़ियों ले जाते बच्चों का मन रखने के लिये उनका सब सौदा बिक जाता।
चर्च को दिये दान का ढिंढोरा नहीं पीटा जाता, वह गुप्त रहना चाहिये। जब होड़ का मामला हो तो लोगों को पता लगना भी ज़रूरी। अपने सौदे की बिक्री की रकम बता देने में क्या हर्ज ! चर्च को खर्चा काटकर केवल मुनाफा नहीं दिया जाता, बिक्री की पूरी वसूली दी जाती है।
पद्मा के लिये मिसेज पण्डित ने तली हुई मूंगफली की पुड़ियाँ बना दी थीं, सदानन्द के लिये लेमनड्राप की। मिसेज़ पण्डित हस्पताल से लौटी बेटी को अकेली छोड़कर मेले में कैसे जाती। मिसेज़ सिंह ने कह दिया था, पद्मा और सदानन्द को अपने साथ ले जायेंगी। मिसेज़ पण्डित का ख्याल था, बेबे लौट आये, उसे बच्चों के साथ मेले भेज देगी। बेचारी इतने दिनों से बंधी बैठी है।
सवा तीन बजे तक भी पंडित बेटी को लेकर न लौटे तो मिसेज़ पण्डित व्याकुल होने लगी। हे ईश्वर, हमें और आजमाइश में न डाल, रक्षा कर "गली बड़ी मोटर के इंजन की आवाज़ से गूंज उठी: लोगों ने दरवाज़ों खिड़कियों से झाँका, सफेद एम्बुलेंस देखकर विस्मित। मिसेज़ पण्डित भी दरवाज़े में आ गयीं। गाड़ी उन्हीं के मकान के सामने रुकी। अमित माँ की सहायता के लिये घर पर था। पण्डित एम्बुलेंस से उतर आये माँ का हृदय उमंग उठा । तुरन्त ईश्वर को धन्यवाद दिया।
उषा के लौट आने की सूचना मोटर की गरज से गली में स्वयं फैल गयी थी। फिर भी माँ ने पद्मा को पुकारा, "मुनी, डाक्टर अंकल, खान साहब, सिंह अंकल और पड़ोसियों को बता दे, बहिन हस्पताल से आ गयी।"
गली की स्त्रियाँ तुरन्त एक-एक, दो-दो करके आने लगीं। सभी ने शुभ दिन पर बेटी के हस्पताल से घर लौटने के लिये माँ को बधाई दी। परमेश्वर और उसके पुत्र की अनुकम्पा के लिये धन्यवाद दिया और उषा की सेहत के लिये दुआ की। खियाँ बीस मिनट- आधे घंटे बैठकर सहानुभूति में उषा की चोट के सम्बन्ध में चिन्तापूर्ण जिज्ञासा करतीं।
मिसेज़ पण्डित उनकी सहानुभूति की कृतज्ञता में अथक उत्साह और पूरे ब्योरे से बतातीं, "जब सुना जाँघ की हड्डी टूट गयी, हमारी आँखों के सामने अँधेरा। हमने तो कहा,
हे ई. बेटी तुम्हारे चरणों में, तुम्हीं रक्षक हो। ईश्वर की कृपा से जो पहला डाक्टर मिला, पंडित साहब का स्टूडेन्ट चार-पाँच डाक्टर और इनके स्टूडेन्ट हैं। बड़े डाक्टर भी इनका नाम जानते थे। डाक्टरों ने एक्सरे की रोशनी से जिस्म के भीतर हड्डी देखकर ठीक जोड़ मिलाया कि कमर न रह जाये। इसलिये रखने की हड्डी में बर्गे से छेदकर सूत मिलाया ।" बमें से टखने की हड्डी में छेद किये जाने की पीड़ा के अनुमान से सुनने वालियों की आँखें फैलकर रोमांच "इनके लिहाज में दिन-रात में दो-दो डाक्टर आकर देखते रहते। देखभाल, खिदमत के लिये दिन-रात में अलग-अलग गोरी नसें हमें तो घर का खाना भी नहीं ले जाने दिया। दूध, अंडे, टोस्ट, पॉरिज का ब्रेकफास्ट दोपहर शाम भी सूप, चाय-कटलेट, मीट स्टू, फल सब कुछ। डाक्टरों ने एक्सरे से देख लिया- हड्डी ठीक जुड़ गयी। लड़की को महीना पाँच हफ्ते आराम से लेटने को कहा है कि मजबूती आ जाये ।" गली की गरीब खियाँ आँखें और ओठ फैलाये विस्मय से सुनती—बड़े लोगों की बातें ख़ुदा के रहम से इत्ती पडी-लिखी, सुघड़, खूबसूरत, जवान, भली लड़की की जिन्दगी बच गयीं। वे ख़ुदा के रहम की दुआ करके चली गयीं।
मिसेज़ सिंह मोटर एम्बुलेंस आते ही देखने चली आयी थीं। मिसेज़ चौहान पर पर न थीं। उनकी प्रतीक्षा थी। मिसेज चौहान को सूर्योदय से पूर्व नरही से जरूरी संदेश आया था। उनकी बड़ी बहन की बहू को दर्द उठ रही थी। उनके पहुंचते ही बच्चा हो गया। साँझ तीन- चार तक लौटने की आशा थी।
मिसेज़ सिंह को अपना सामान मेले में ले जाने की जल्दी थी। मिसेज पण्डित ने आग्रह से वेवे को भी उनके साथ किया।
मिसेज पण्डित ने पति से कहा “आप भी ईस्टर मिलन में हो आइये, अमित को भी ले जाइये। लोगों ने मिलकर विश करना ही चाहिये। अच्छी के लौट आने का समाचार भी लोगों को मिल जायेगा।" अभिप्राय पंत परिवार से था।
पण्डित सवा छः बजे तक लौट आये। कुछ देर बाद अमित भी मिनेज पण्डित उत्सुकता दमन न कर सकीं, "मेले में वे लोग दिखायी नहीं दिवे
पण्डित ने इन्कार में सिर हिलाया। अमित ने बताया, "मिस्टर मिसेज को तो नहीं देखा पुष्पल ने अपनी आया के साथ आइसक्रीम की स्टाल लगायी है।"
बेटी के घर पहुँच जाने और उसके बाद ईस्टर मेले में सब लोगों से भेंट की सम्भावना से मिसेज़ पण्डित के मन में भ्रम का अँधेरा दूर कर सकने वाली दीपशिखा उक्सने लगी थी, वह फिर दब गयी। इस विषय में पति से कुछ कहना व्यर्थ था। आशा की केवल मिसेज़ चौहान से। वह नरही से अब तक न लौटी। ईश्वर करे वहाँ (नरही में) सब कुशल हो।
उपा की झपकी टूटी नज़र दरवाज़े से आँगन में गयी। साँस का प्यारा झुटपुटा, “मीतू, खुली हवा में लेटने को मन चाह रहा है। चौदह दिन से कमरे में कैद थी। एक प्याला चाय मम्मी के हाथ की।"
मिसेज पण्डित चाय बनाकर ले आयी। प्यालों में चाय डालने को ही थीं, बैठक के दरवाज़े पर दस्तक। उसके साथ ही पुकार- "पद्मा बेटी!"
चौहान आंटी।" अमित कुर्सी से उछलकर बैठक की ओर लपक गया।
अमित ने किवाड़ खोलते-बोलते उल्लास से ऊँचे स्वर में सूचना दी, "आंटी, जीजी
हास्पिटल से आ गयीं।"
"मिसेज़ चौहान, यहाँ ही आ जाइये। मुबारक! पोते के लिये बहुत बहुत बधाई। जच्चा- बच्चा ठीक हैं न!"
""थैंक यू उपी की मम्मी सब ठीक हो गया ईश्वर की कृपा से बच्चा तन्दुरुस्त है, सात पौंड का जच्चा भी ठीक है।"
"चाय पीजिये। अभी बनाई है, बिलकुल ताजी ।" मिसेज़ पण्डित ने अनुरोध किया। "बैंक यू, उपी की मम्मी ।" मिसेज़ चौहान फट पड़ीं, "देखो, हम तो उसी दिन ताड़ गये। हमने कहा था ये लोग मुँह चुरा रहे हैं। आपने कह दिया, सोग का दिन है, मन भारी हो तो बोला नहीं जाता। हम तो लोगों की नीयत भाँपते हैं। नरही से लौटते में हम चर्च होकर आये कि लोगों से मिलजुल कर विश कर लें। रीटा को साथ लेते चलें। हम फाटक पर ताँगे को पैसे दे रहे थे, तभी पंत की कार आकर रुकी। निर्मल ड्राइव कर रहा था। हमने पूछा, बेटे कब आये? उसने जवाब दिया, परसों आ गया था। फादर से बोला, आप लोग लौटने के लिये ताँगा ले लें। हम छावनी जा रहे हैं, देर हो जायेगी।"
उषा की गर्दन झुक गयी, साँस रोके सुन रही थी। मिसेज़ पण्डित का हाथ प्याले में चाय डालते डालते काँप गया।
मिसेज़ चौहान आवेश में, "इससे पहले कि हम शिकायत करते वह बोलीं, मिसेज़ चौहान, लोगों ने जाने क्या-क्या अफवाहें उड़ा रखी हैं कि कमर की हड्डी टूट गयी है। हमें विश्वास तो नहीं लेकिन ईश्वर की इच्छा कौन जान सकता है। बहिन, हमें तो ईश्वर ने बचा लिया। निर्मल से इंगेजमेंट हो जाती तो हम कहीं के न रहते। तुम जानो, लड़का पी० सी० एस० । अफसरों की वाइफ लोग क्लब पार्टी में साथ जाती है। कभी गवर्नर के यहाँ भी जाना हो जाता है। वाइफ अपाहिज लुंजी हो तो आदमी की क्या पोजीशन हमारे लड़के को तो डांस - बांस का भी शौका वह तो सुनकर धक रह गया। बोला, आप लोगों की इच्छा। हमें तो जल्दी थी नहीं। इलाज़ से ठीक हो जायेगी तो भला वर्ना जो किस्मत बताओ, बहिन, जान-बूझकर लड़के के गले में उम्र भर की मुसीबत कैसे डाल दें! हड्डी जुड़ तो जाती है पर मरम्मती चीज़ में असली बात थोड़े ही आ सकती है। जाड़े, हवा, पानी में दर्द उठे बिना नहीं रहती। हमें तो कई आफर थे। हमने कहा, बेचारों की चाहे जो हैसियत पर भले लोग ब्राहमन हैं। लड़की वेल एजुकेटेड, नाक-नक्शे, अंग-ढंग से अच्छी पर ईश्वर को मंजूर नहीं तो "
उषा ने मुख दीवार की ओर कर लिया। मिसेज़ पण्डित ने साड़ी का आँचल आँखों पर दबा लिया।
"और छोड़िये, परमेश्वर ने उन्हें बचा लिया, हम भी बच गये।" पण्डित ने बात समाप्त करने का प्रयत्न किया।
"हम थूकते हैं ऐसे कमीनों पर! यह इज़्ज़तदार बनते हैं। इससे पहले इलाहाबाद वाले जोशी की बेटी से बात ठहराकर झुठला चुके। अरे, जो अपनी बात का नहीं अपने बाप का नहीं। इन लोगों ने भले इज्ज़तदार लोगों के साथ जैसा धोखा किया, परमेश्वर का कहर गिरेगा इन पर दोज़ख की लाइन्तहा आग में जलेंगे ।"
"जाने दीजिये मिसेज़ चौहान" पण्डित ने मिसेज़ चौहान के लिये चाय बना दी " उस बात को आया गया समझिये उस जिन की ज़रूरत नहीं।"
मिसेज़ चौहान प्याला मुँह तक ले जाते जाते बोली, "ज़लील बेगैरत ये ईसाई हैं!" • मिसेज़ चौहान के चले जाने पर घर में सन्नाटा छा गया। उपा चुप दीवार की ओर मुँह किये सुन लेटी थी। बेटी की ओर देखने से मिसेज़ पण्डित का कलेजा मुँह को आता। वे खुलकर रोने के लिए ऊपर कमरे में चली गयीं।
आठ बजे पद्मा ने समीप आकर पूछा, "जीजी, मम्मी पूछ रही हैं, खाना ले आयें।" उपा ने इन्कार कर दिया। बेबे ने कुछ खा लेने का अनुरोध किया। उषा चुप रही। माँ भी कुछ न खा सकीं। सद्द पद्मा और अमित उपासे न रह जायें, इस खयाल से पण्डित ने उनके साथ बैठकर कुछ खा लिया।
उपा को नींद न आयी पूर्णतः सचेत भी न थी। मस्तिष्क पर चोट से विक्षेप, अर्धचेतन मूढ़ता की अवस्था क्या हो गया! उस पर छल, निराशा, अपमान का पहाड़ टूट पड़ा। ली जाने, फिसल जाने के लिये आत्म- धिक्कार और ग्लानि! इस सम्बन्ध को सौभाग्य समझेंगा अपने विश्वास में पति पत्नी बन गये हम अपनी प्रतिज्ञा को व्यवहार से पूर्ण क्यों न कर दें धोखा! कमीने के फरेब में आ गयी।
उपा की नींद टूटी तो आँगन की दीवार पर धूप की किरणें आ रही थीं। मस्तिष्क अपेक्षाकृत साफ था। शरीर क्लान्त और शिथिल, सिर में हल्का दर्द, प्यासा बरामदे से बेबे लपक आयी। उषा का माथा चूमा।
"मैं चाय पियूँगी।"
बेटी को चाय पिलाकर माँ और बेबे ने उसका शरीर भीगे तौलिये से पोंछ दिया। कंधी- चोटी कर कपड़े बदलवा दिये। अब उपा के मस्तिष्क में मूढ़ता नहीं, छल और प्रबंचना के लिये, छली जाने के लिये घृणा थी। उपा अखबार पर नज़र डालने लगी। बात करने को मन न था। सेठ की दी पुस्तक के पन्ने पलटे । पुस्तक उतनी रोचक न थी। मम्मी को पुकार कर नेहरू की 'मेरी कहानी' फिर माँग ली। पुस्तक पढ़ते बार-बार अपने प्रति छल का ध्यान आ जाता। उस खयाल को झटककर फिर पुस्तक पढ़ने लगती पुस्तक दूसरी बार शुक्रवार नाश्ते के बाद समाप्त हो गयी। पुस्तक के अन्त में सरकार और सरकारी नौकरों के सम्बन्ध में बेडनवीलर में लिखी नेहरू की राय को दो बार पड़ा बिलकुल ठीक लिखा है। जो कमीने लोग निजी स्वार्थ के लिये देश के लाखों लोगों के साथ विश्वासघात कर सकते हैं उनके लिये सच्चाई, प्रेम और वफादारी का क्या सवाल! उनसे नीचता और विश्वासघात के सिवा और क्या आशा हो सकती है?' 'धोखे में आ जाने के लिये क्षोभ और लज्जा।
शुक्रवार दोपहर बाद चित्रा आ गयी। उषा ने सहेली का स्वागत मुस्कान से किया। साथ पलंग पर बैठा लिया।
"क्या बात है, कुछ थकी, मुर्मायी सी लग रही हो।"
"तुझे यों ही लग रहा है। झपकी आ गयी थी। अभी उठी हैं।"
पैंत आया था?" चित्रा ने उषा की ओर झुककर मुस्कान से पूछा।
"छोड़ो उस बात को ।" उषा की पलकें झुक गयीं।
"क्यों, क्या बात है?" चित्रा की भाँवें उठ गयीं।
उपा कुछ पल मौन, निप्पलक दीवार की ओर देखती रही चेहरा गम्भीरा
चित्रा ने और समीप हो उसके केशों में उँगलियों फँसाकर पूछा, "क्यों, क्या हुआ?" उपा का गला रुंध रहा था। कुछ पल सम्भल कर धीरे-धीरे मिसेज़ चौहान से सुनी बात संक्षेप में बता दी।
चित्रा उदास हो गयी। कुछ पल फर्श की ओर नज़र लगाये मौन रही, "कमीने बेईमान ने बहुत धोखा दिया।"
"बहुत अच्छा हुआ। उषा की आँखें क्रोध से गुलाबी, "अगर शादी के बाद ऐसी दुर्घटना हो जाती! बैंक गॉड, घटना महीने भर पहले हो गयी। मैं उनके लिये फटी जूती की तरह बेकार हो जाती। माना चर्च में सेरेमनी नहीं हुई पर उसका विश्वास और प्रतिज्ञा कहाँ गये! ''लोग बाइबिल हाथ में लेकर खायी कसम नहीं तोड़ देते! ""बड़ा सरकारी अफसर बनने का घमंड है, इन लोगों की असलियत बतायें! उषा ने नेहरू की पुस्तक खोलकर सरकारी अफसरों के सम्बन्ध में नेहरू की राय दिखा दी। जिसे अपने देश और लाखों लोगों के लिये दुख-दर्द नहीं, उसके लिये किसी के भी जीवन का क्या ! बच गयी, धोखे में अंधे कुएं में कूदने जा रही थी। ऐसे कमीने बेवफा आदमी के साथ जिन्दगी कैसे निभती!"
"उषी, प्रेम-वरेम कुछ नहीं!" चित्रा ने गहरी साँस ली, "सच मान, लड़कियों के लिये शादी तो दिल्ली के लड्डू हैं। जिसे न मिले पछताये, जो खाये तो पछताये मर्दों के आराम, संतोष का इंतजाम अपने परिवार बिरादरी में नित्य देख रहे हैं। प्रेम निष्ठा मर्दों की रीझ और औरतों का धर्म मर्दों को जो ज़रूरत हो, जैसा मन चाहे, सब जायज तुझे बता चुकी हूँ। हमारी बड़ी माँ उनके बाल-बच्चा नहीं हुआ था तो फादर ने दूसरी शादी कर ली। है तो हमारी सौतेली माँ लेकिन हमीं जानते हैं जैसे उन्होंने निवाहा है। खयाल आ जाता है, अगर हमारी जिन्दगी में ऐसा हुआ !
चित्रा चार बजे आ गयी थी, सात तक रही। दोनों में फुसफुस होती रही। माँ ने सहेलियों की बातचीत में विघ्न नहीं डाला। पाँच बजे चाय बनाकर दे दी। चित्रा के सामने विश्वासघात की पीड़ा और अपमान के घुटन की भड़ास निकाल सकने से उषा का मन- मस्तिष्क कुछ हल्के हो गये। चेहरे पर प्रसन्नता और हंसी तो नहीं लौट आये पर बोलचाल, व्यवहार बहुत कुछ सामान्य।
पंडित डाक्टरी परामर्श के अनुसार बेटी के लिये बैसाखियाँ ले आये थे। उपा ने लॅगड़ेपन के अभिशाप से यथाशीघ्र मुक्ति के लिये बैसाखियों ले आँगन में सुबह-शाम चलने का अभ्यास शुरू कर दिया। लेटे-लेटे भी प्लास्टर में बँधे पाँव की उँगलियों को हिलाने का व्यायाम करती रही। कल्पना थी, टॉग खूब जल्दी ठीक हो जाये। वह रविवार संध्या चर्च जाये। पत परिवार को न पहचाने, न विश करे। उनके सामने से हाई हील के सैंडल खट-खट करती निकल जाये"।
उषा को भरोसा था, प्लास्टर तीस मई को कट जायेगा। यूनिवर्सिटी मध्य जुलाई में खुलती है। एम० ए० ज्वाइन करने का पूरा निश्चय। तब तक सुविधा से चलने लायक हो जाये। जयप्रकाश नारायण और एमाइल बर्न की पुस्तकें दो-दो बार पड़ चुकी थी। अब लास्की की पुस्तक को भी ऐसे ध्यान से पड़ रही थी, जैसे परीक्षा के लिये पाठ्य-पुस्तक पढ़ रही हो। पंत प्रसंग की स्मृति बिलकुल मिटा देना चाहती थी। विच्छेद के लिये खेद नहीं,
ग्लानि । 'उस कमीने को 'किस' क्यों करने दिया। ओठों पर गन्दगी छू जाने की घिनौनी याद।
तब मिशन का केन्द्र अमीनाबाद में था।
रविवार नाश्ता करके पंडित अमीनाबाद में रामकृष्ण सेवा मिशन चले गये थे। मिशन के होमियोपैबिक डाक्टर स्वामी आत्मानन्द की दवा मिसेज़ पंडित को रास आती थी। कभी पण्डित स्वामी आत्मानन्द का प्रवचन भी सुनते। अद्वैत दर्शन पर स्वामी जी का अध्ययन अच्छा था। उस दिन पंडित दवा लेकर जल्दी ही लौट आये।
उपा अखवार पर नजर डालकर लास्की की पुस्तक पढ़ रही थी। पण्डित उपा के पलंग के समीप कुर्सी पर बैठ अखबार देखने लगे। खयाल था, बेटी का ध्यान जितना अधिक इधर-उधर बँटा रहे, भला उससे जिस तिस प्रसंग पर बात छेड़ देते। कानपुर में कपड़ा मिलों के फाटकों पर हड़ताली मजदूरों के धरने और मजदूरों पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज का समाचार था। समाजवाद के सम्बन्ध में दो-तीन पुस्तकें पढ़कर उषा और अमित मज़दूरों के शोषण का विरोध करने लगे। उनकी सहानुभूति मजदूर आन्दोलनों के प्रति पण्डित उपा से बात कर रहे थे, "मज़दूरों की माँग से सहानुभूति सभी को, लेकिन उनके आक्रामक रंग को कैसे उचित कहा जा सकता है ""?".
पण्डित बात पूरी न कर सके। गली में मोटर साइकल की धड धड सोचा, स्वामी जी आये होंगे पर आवाज़ उनकी गाड़ी की न लगी। स्वामी जी कभी-कभी अपने मरीजों को देखने के लिये उनके घर पर भी चले जाते। मिशन की ओर से चिकित्सा निःशुल्क करते थे। पण्डित स्वामी की अगुवानी के लिये बैठक की ओर चले गये।
“हलो डाक्टर सेठ, आओ!" उषा ने बैठक से टेडी की आवाज़ सुनी। मन पुलक उठा। सुना, "बहुत अच्छा हुआ तुम आ गये। उपा बहुत खुश होगी!" पंडित सेठ को उपा के कमरे मैं ले गये।
उपा केवल पेटीकोट ब्लाउज में थी। ऊपर ली हुई चादर अस्त-व्यस्त तुरन्त चादर गले तक खींचकर सब ओर से ढक लिया। चेहरा खिल गया।
सेठ जी के नमस्ते के उत्तर में उषा ने भी दोनों हाथों से नमस्कार किया। आँखो में चमक आ गयी, "आपकी पुस्तकें पढ़ डालीं। और लाये हैं?"
“जरूर लाया हूँ।" सेठ मुस्कराया।
पंडित ने बरामदे की ओर बढ़कर पुकारा, "शान्ति जी, डाक्टर सेठ आये हैं। जा जाइये।"
पंडित बरामदे से एक और कुर्सी उठा लाये।
"मास्टर साहब, कुर्सी में खुद ले सकता था।"
"बैठो बैठो।" पंडित ने सेठ को बाँह से पकड़ बैठा दिया।
“गुड मार्निंग डाक्टर साहब!" मिसेज़ पंडित ने नेह से गद्गद हो स्वागत किया, “हम तो आपका एहसान ""
सेठ विनय में खड़ा हो गया। आपत्ति के संकेत में हाथ उठाया, “मम्मी मुझे डाक्टर साहब न कहिये। मास्टर साहब मुझे अमर पुकारते रहे हैं। आपके लिये भी अमर हैं। एहसान- बहसान की बात फिजूल है। अमित भी एहसान करते हैं आप पर?" ""जीते रहो, बड़ी उम्र हो।""
“आप क्या पसन्द करेंगे?" मम्मी ने पूछा। मन में दुविधा भी हिन्दू है, हमारे यहाँ खा- पी सकेगा। हिन्दू कई तरह के स्वामी आत्मानन्द उनके यहाँ निस्संकोच माँगकर जल पी लेते, चाय शरबत से भी परहेज नहीं।
"इस गरमी में ठंडा जला" सेठ हँसा ।
मम्मी भीतर चली गयीं। पद्मा को भेजकर अमित को सिंह के यहाँ से बुलवाया। तुरन्त साइकल पर मिठाई और बरफ लाने के लिये भेज दिया।
प्लास्टर के कारण कोई परेशानी तो नहीं?" सेठ ने उपा से पूछा।
"नहीं, बस बोझ लगता है।"
"जरा आपके पाँव देखें
उपा ने पाँव पर से चादर हटा ली। सेठ ने दोनों पाँवों को बराबर रखकर देखा। पंजों की उँगलियाँ हिलायीं।" गुड "बैरी गुड़ बैसाखियों के सहारे चलने का यत्र शुरू किया ठीक। लेकिन अभी बंधी हुई टाँग पर बोझ बिलकुल न डालें। "
पंडित ने अखबार के जिस प्रसंग पर बात की थी, उषा ने वही दूसरी तरह सेठ से पूछ लिया, "कांग्रेस के शासन में भी मज़दूरों पर लाठीचार्ज हो रहे हैं, यह क्या उचित है? "" "पूँजीवादी सरकार से और क्या आशा।" सेठ ने उत्तर दिया।
मजदूरों की भीड़ मिलों के रास्ते रोककर काम में बाधा डाले, अव्यवस्था करे तो क्या होगा? सरकार कोई भी हो, व्यवस्था की रक्षा तो आवश्यक है।" पण्डित बोले।
“मास्टर साहब, मजदूर तो न्याय के लिये अपील कर रहे हैं। अपील की सुनवाई न होने पर सत्याग्रह कर रहे हैं।" सेठ ने कहा।
"न्याय के लिये या छंटनी के विरुद्ध?" पंडित ने पूछा, “मिल को उचित ढंग से चलाने के लिये कितने मज़दूरों की आवश्यकता है, यह तो मालिक ही निश्चय करेगा।" "मिल केवल मालिक वर्ग के निर्णय से चलनी चाहिये, मज़दूर वर्ग के निर्णय से नहीं, यह कैपिटलिस्ट दृष्टिकोण है।"
"भिन्न वर्गों का भिन्न न्याय होगा!" पंडित ने विस्मय प्रकट किया।
"मास्टर साहब, न्याय सबके लिये एक होना चाहिये। न्याय का विचार सद्भावना मात्र है।" सेठ ने आपत्ति की, "न्याय और औचित्य की मान्यताएँ सदा सशक्त वर्ग वा शासक वर्ग के दृष्टिकोण से निश्चित होती रही हैं।
""मनुष्य का विवेक और न्याय बुद्धि कुछ नहीं ?"
इतिहास के अनुसार तो मनुष्य का विवेक और न्याय बुद्धि उसके संस्कार मात्र रहे है। एक युग में सभी समाज दास प्रथा का अनुमोदन करते थे। आज सभ्य संसार में कोई भी समाज दास प्रथा का समर्थन नहीं कर सकेगा।"
उपा अपलक सेठ की बात सुन रही थी।
अमित ने छोटी मेज उषा के पलंग से सटाकर रख दी। मम्मी ने मेज़ पर एक ट्रे में मिठाई नमकीन पंडित ने बहस टालने के लिये कहा, "चखकर देखो, अमित क्या लाया
है।
चाय लेंगे या नीबू का शरबत?" मिसेज़ पंडित ने पूछा।
“जो आप लोग लेंगे, मैं भी लूँगा।"
"तुमने मेडिकल कालेज में लेक्चरारशिप ले ली है या हस्पताल में काम कर रहे हो?" पंडित ने पूछा।
"एम० बी० बी० एस० के बाद वर्ष भर कालेज हस्पताल में काम करना आवश्यक है। मेरा वर्ष जनवरी में पूरा हो जायेगा। "
"फिर प्रैक्टिस का विचार?"
"प्रैक्टिस क्या करूंगा। किसी भी सरकारी हस्पताल में नौकरी मिल जायेगी। पिताजी को यह पसन्द नहीं। वे अकेले हैं। उन्हें सूना-सूना लगता है। चाहते हैं, घर पर रहूँ। पिता कहते हैं हजारों खर्च करके डाक्टरी पड़ी, अब डेढ़ सौ रुपल्ली की नौकरी करोगे। इतनी रकम परचून की दुकान में लगाते तो इससे ज्यादा कमाई हो सकती।"
"ठीक कहते है।" पंडित मुस्कराये, पर प्रैक्टिस जम जाये तो डाक्टर के लिये पाँच सौ- हजार माहवार भी खास मुश्किल नहीं।"
"मास्टर साहब, नये आदमी का जमना आसान नहीं। शहर में बीसियों डाक्टर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। मेरे लिये और मुश्किल। उनसे फीस कैसे माँगेगा। आप भी जानते हैं, आम लोग बीमार ही इसलिये होते हैं कि भरपेट या ठीक खाना नहीं पाते। वे डाक्टर को क्या देंगे?" सेठ की बात उषा का मन छू गयी।
"ठीक कहते हो।" पंडित ने स्वीकारा, "लेकिन डाक्टर को भी निर्वाह करना है। शादी
हो गयी?"
"नहीं मास्टर साहब।"
"क्यों! कहते हो पिता अकेले हैं। वे जरूर चाहते होंगे ।"
“जी, उन्हें तो बहुत जल्दी लेकिन मैं नहीं चाहता।"
"तुम्हारी आयु तो विवाह योग्य ठीक है। चौबीस-पच्चीस के तो हो चुके। "
"जी, पर ऐसी जल्दी और जरूरत भी क्या है।" सेठ हंस दिया।
"जरूरत! नार्मल लाइफ भी एक जरूरत है। साधारणतः अकेला व्यक्ति जीवन में पूर्णता
नहीं अनुभव करता।"
"ठीक है मास्टर साहब, " सेठ ने सोचकर कहा, "लेकिन जीवन की पूर्णता या सार्थकता के लिये विवाह के अलावा दूसरे उद्देश्य या लक्ष्य भी हो सकते हैं।"
“हो सकते हैं। तुम साधु-संन्यासी तो बनोगे नहीं।" पण्डित हँसे, “तुम्हारा मतलब है, समाज या जनसेवा।"
"अपनी ही सेवा " " सेठ भी हँसा, "अपना संतोष अपनी ही सेवा है। आदमी को कुछ तो करना चाहिये। पेट भर लेना कोई बहुत बड़ा लक्ष्य नहीं है।"
उषा सेठ की बातें बहुत ध्यान से सुन रही थी। सेठ चलने लगा तो पड़ी पुस्तक लौटाकर पूछ लिया, "अब कब पुस्तकें लायेंगे?"
"आज दो लाया हूँ।"
"इन्हें चार दिन में नहीं छः दिन में पढ़ लूंगी। मुझे और कुछ करने को है नहीं। " "नावल हो तो जीजी रोज़ एक पूरा कर सकती है।" अमित बोल पड़ा।
उपा ने भाई को चुप रहने के इशारे से घूरकर देखा।
"रविवार को छुट्टी रहती है, अगले रविवार कोशिश करूँगा।"
"डाक्टर साहब, पुस्तकें मैंने भी पढ़ी हैं। कुछ पूछना चाहता हूँ। आपके यहाँ आऊँगा । मेरा एक्जाम समाप्त बिलकुल फ्री हैं।"
सेठ को गुडबाई करने के लिये मिसेज़ पंडित भी आ गयी थीं। परोक्ष में भी आशीर्वाद दिया, "भला लड़का है। ईश्वर सबका भला करे।"
"ही इज़ ए नोबल सोल। प्रभु उसका कल्याण करें।" पंडित ने समर्थन किया। मम्मी और डैडी के मुँह से उषा के मन की ही बात निकली। उसे अच्छा लगा। सुबह डाक्टर सेठ के आने, सेठ और डैडी की बातचीत से उपा का मन बहुत बहुल कर हल्का हो गया था। दोपहर के खाने के बाद लम्बी झपकी ली। रविवार था। तीन बजे मिस्टर मिसेज़ सिंह आ गये। सिंह को ब्रिज का शौक था, मिसेज़ सिंह को ब्रिज की धत्त । पंडित भी ब्रिज में रुचि लेते थे। उषा देख-देखकर सीख गयी थी। छुट्टी के दिन कभी सिंह के यहाँ, कभी पंडित के यहाँ ब्रिज जमता। सवा पाँच तक ब्रिज चला। मिसेज़ पंडित ने चाय तैयार कर दी। साढ़े पाँच बजे सिंह दम्पति उठ गये। दोनों परिवारों को चर्च जाने के लिये तैयार होना था।
गिरजा जाने से पहले पंडित ने उपा के लिये आँगन में आराम कुर्सी रखवा कर स्टूल पर टेबल फैन लगवा दिया। अमित बहिन के समीप एक कुर्सी डाल स्वयं भी पुस्तक लेकर बैठ गया। सुबह सेठ नयी पुस्तक दे गया था आइडियल आफ इक्वेलिटी, लिबर्टी एण्ड फ्रेटर्निटी' उषा बैसाखियों के सहारे आँगन में आराम कुर्सी पर आ गयी पुस्तक आरम्भ कर
दी। दूसरे पृष्ठ पर आधे तक पहुँचते-पहुँचते नज़र पुस्तक पर रही, याद आ गयाः जीवन की पूर्णता या सार्थकता के लिये विवाह के अलावा दूसरे उद्देश्य या लक्ष्य भी हो सकते हैं। "सोचा, विवाह को जीवन का लक्ष्य तो मैंने भी समझा था याद आया, सातवीं-आठवीं में पड़ती थी। उन दिनों लालबाग स्कूल में मिस क्रुप लड़कियों को बहुत अच्छी लगती थी। मिस ग्रुप एम० ए० थी। लड़कियाँ मिस ग्रुप का बहुत आदर करती थीं। उसका व्यवहार स्नेहमय, हँसमुख, प्यारी सूरता ड्रेस सिम्पल परन्तु सुघट्ट उषा की कल्पना थी, मिस प जैसी बनेगी।
सड़क पर कभी-कभी एक छोटी टेंडन में सेंट एंथोनी गर्ल्स स्कूल की ओर जाती दो नन (भक्तिने) दिखायी दे जातीं। सिर से टखनों तक काली पोशाक केवल माथे पर बर्फानी सफेद पट्टी चेहरा भक्ति, सेवा, त्याग मूर्तिमान पंडित परिवार और कंधारीबाग गली की बस्ती, लालबाग गर्ल्स स्कूल सब प्रोटेस्टेट ईसाई थे। उषा जानती थी, भक्तिनें रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय में होती हैं। प्रोटेस्टेंट सम्पदाय में भक्तिन बनने की प्रथा नहीं है। कुछ प्रोटेस्टेंट भक्तिन प्रथा का मजाक भी उड़ाते भक्तिनों के बारे में अश्लील बातें उषा जानती थी, भक्तिनें स्वयं को ईसू की दुलहिन मानती हैं सिर मुंडाकर भक्ति साधना और मानव सेवा के लिये आजीवन कौमार्य व्रत निवाहती हैं। सुख भोग, विलास से दूर। उनके त्याग की कल्पना से उषा के मन में भक्तिनों के प्रति श्रद्धा उमड़ आती "यदि हम लोग रोमन कैथोलिक होते, मैं जरूर भक्तिन बनती। बाद में सिर मुंडाकर क्राइस्ट की दुल्हन बनने की कल्पना उसे मूर्खता जान पड़ने लगी। विद्वान स्वावलम्बी युवती बनने की महत्त्वाकांक्षा आई० टी० कालेज संस्था के इतिहास के परिचय रूप छोटी सी पुस्तिका पड़ी थी। मिस इजाबेला थॉवन ने भारत में नारी शिक्षा के लिये किस धैर्य, दृढ़ता से तप, त्याग और परिश्रम किया था। लालबाग गर्ल्स हाईस्कूल और भारतवर्ष भर में प्रसिद्ध आई० टी० गर्ल्स कालेज सब मिस थॉबर्न की बुद्धि, धैर्य, लगन और धम का परिणाम उषा को मिस यौवन की तरह शिक्षा का काम करने की महत्त्वाकांक्षा
और याद आया कालेज में पहले वर्ष से ही 'टेल्स फ्राम शेक्सपियर पड़ने और कहानी- उपन्यास का चस्का लगने के बाद कल्पना में लब-रोमांच के स्वप्न बनने लगे। तब सोचती श्री, लब तो जरूर करेगी लब की रोमांचक कल्पनायें। लव करने की महत्त्वाकांक्षा के स्वप्न जरूर, परन्तु हाउस वाइफ के नहीं।
ऐसे प्रसंग में चित्रा ने रहस्य वार्ता में 'होम एण्ड फैमिली' क्लास की टीचर मिसेज़ ग्रीन की बात याद दिलायी थी, शारीरिक प्रवृत्ति की पूर्ति के लिये पति-पत्नी का सम्बन्ध आवश्यक होता है, परन्तु क्या उस प्रवृत्ति के लिये पूरी ज़िन्दगी वबंद कर दी जाये! मिसेज़ सिंह, मिसेज़ चौहान, मिसेज़ पंडित क्या है— चिकन-कपड़े, बच्चों का गु- मूत, मकान सफाई, हस्बैंड की घुड़कियों, कभी थप्पड लात-घूंसे भी इससे तो मिस स्टोन, मिस पिल्ले, मिस जस्टिना, मिस खुर्शीद, मिस जून अच्छी वह खुद व्यक्ति है। व्यक्तियों में कितना फर्क होता है। ऐसे भी हैं जो जीवन की सार्थकता समाज या लोक सेवा समझते हैं। और ऐसे कमीने भी जो लाखों के दुख-सुख से निरपेक्ष
"जीजी, अँधेरे में कौन देख सकता है?" अमित हँस रहा था। उपा को मालूम न हुआ, अमित समीप की कुर्सी से उठकर कब चला गया और कब अंधेरा हो गया। पुस्तक अब भी उसके सामने खुली थी।
हट्ट बेवकूफ उषा शेप गयी, "में कुछ सोचने लगी थी।"
"टेबल लैम्प लादूँ?"
"अब नहीं।" उषा ने बाँहें उठाकर अंगड़ाई ली।
अगले रविवार उपा के कान नौ बजे से ही मोटर साइकल की आहट की प्रतीक्षा में सेठ की दी हुई दोनों पुस्तकें समाप्त कर चुकी थी। सेठ बारह तक भी न आया। अमित चित्रा के यहाँ से एक बड़ा उपन्यास ले आया था। उपा ने उपन्यास शुरू कर दिया तो उसमें गहरी घूम गयी। किसी समय भी छोड़ना मुश्किल। अब वह उपन्यास में सामाजिक न्याय-अन्याय की समस्याएँ देख रही थी। चार दिन-रात में पुस्तक समाप्त कर दी।
अगला रविवार मई का दूसरा रविवार लू का वेग और ताप खूब बढ़ गया। पंडित ने उपा के कष्ट के विचार से कमरे की खिड़की पर बस की टट्टी लगवा दी। अमित और पद्मा आते-जाते टट्टी पर पानी छिड़क देते। कमरा ठण्डा और मुहावनी महका
उस साल लू जबर्दस्त थी तो खरबूजे भी प्रचुर और खूब मीठे हुए। पंडित सुबह ही कैसरबाग जाकर झल्ली भर खरबूजे ले आये थे। मिसेज़ पंडित ने टब में बरफ और पानी भरवाकर खरबूजे डलवा दिये थे। उषा के पलंग के सामने कुर्मियों लगाकर खरबूजा पार्टी जमी। मम्मी एक एक खरबूजा काटकर बाँटती जा रही थी। पंडित और बच्चे बताते थे कौन खरबूजा कितना मीठा उषा भी खा रही थी परन्तु मौना
उपी, तुम्हें कोई खरबूज़ा अच्छा नहीं लगा? पंडित ने टोक दिया, "तुमने कोई राय नहीं दी।"
में।
उषा चौकी, "डैडी बहुत अच्छे हैं। सभी अच्छे हैं।"
पंडित सोच रहे थे लड़की के मन से कलख गयी नहीं, लेकिन उषा के कान दूसरी टोह
साँझ साढ़े छः बजे मिसेज़ पंडित ने बच्चों को चर्च के लिये तैयार कर दिया, स्वयं तैयार हो रही थी। लू रुकी न थी। तीन चौथाई आँगन में छाँय हो गयी थी।
"उषा, अभी कमरे में ही रहो।" पंडित ने राय दी।
"डैडी फिक्र न कीजिये। मैं यहीं हूँ। आँगन में पानी छिड़ककर जीजी को आँगन में पहुंचा दूंगा।" अमित ने चर्च न जाने के लिये कारण बता दिया। डैडी, मम्मी, बेबे, पद्मा, सदानन्द चर्च चले गये। उषा पलंग पर और अमित समीप आराम-कुर्सी पर दोनों जासूसी नावलों की दुनिया में विचरण कर रहे थे।
गली में मोटर साइकल की धड़धड़ से उपा के हृदय की धड़कन में तीव्रता। अमित कुर्सी से उछलकर बैठक में सॉकल गिरने की आहट और अमित की उल्लसित पुकार, "आइयें डाक्टर साहब!"
अमित सेठ को भीतर ले आया। धूप की चौंध से साफ देख सकने में कुछ पल लगे। सेठ ने उषा के अभिवादन का उत्तर देकर हाल-चाल पूछा।
"सब लोग चर्च गये में जीजी की सेवा के लिये हूँ।” अमित ने कहा।
"तुम बहुत अच्छे भाई हो।" सेठ ने सराहना की।
उषा अप्रत्याशित प्रसन्नता से गद्गद सेठ की ओर मान भरी आँखें तरेरी, "आपको बड़ी फिक्र है मेरे हाल की!” ऐसे बोल गयी जैसे चित्रा या अमित से रूठ रही हो। सेठ के चेहरे पर विस्मय। सोचकर बोला, “आपकी शिकायत सही है।" "सॉरी, गुस्ताखी के लिये क्षमा चाहती हूँ।" नजर झुक गयी।
"नहीं नहीं, गुस्ताखी नहीं है। " सेठ सहानुभूति से बोले, “गलती मेरी है। वायदा करके आ नहीं सका। ऐसे ही कई कारण बन गये।" उपा की मान मुद्रा और आत्मीयता भरा उलाहना भला लगा।
"जीजी, एक मिनट में आया।" अमित मेहमान की खातिर के लिये जा रहा था। "डाक्टर साहब, आपने कुछ समझने-पढ़ने का रास्ता बताया। पढ़ना-समझना चाहती हूँ आप ही सहायता कर सकते हैं। इतने दिन पढ़ने के लिये कुछ न था। देखिये, जासूसी नोवेल पढ़ रही हूँ। मजबूरी में समय बर्बाद, इसलिये ऐसी गुस्ताखी हो गयी। खेद है।" उपा ने संकोच से अपने व्यवहार की सफाई दी।
"तुम्हारी बात ठीक है। वायदा करके न आ सकने के लिये मुझे खेद है। "
"आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं।"
"सच मानो, ठीक कह रहा हूँ।" सेठ ने उसकी आँखों में देखा, "मुझे आने का खयाल रूर था, परन्तु पिछले रविवार मई दिवस की मीटिंग में जाना ज़रूरी था। आज सुबह गली के एक बुजुर्ग के बुखार के कारण न आ सका, बल्कि कल शाम से ही उनके यहाँ रुक जाना पड़ा। खयाल था, तुम्हें पुस्तकों की प्रतीक्षा होगी। केवल एक पुस्तक लाया हूँ।"
सेठ से आश्वासन पाकर उषा की आँखों में कृतज्ञता ।
"तुम समाजवाद को समझने में रुचि ले रही हो, इसमें स्वयं मेरा संतोष।"
बातचीत शुरू हो गयी: मई दिवस क्या स्टडी सर्किल में क्या होता है? पंडित दम्पति पौने आठ के लगभग गिरजा से लौटे। बैठक के किवाड़ खुले थे। भीतर बहस का ऊँचा स्वर। चर्चा में अमित भी उत्सुकता से भाग ले रहा था। "बहुत गरम बहस हो रही है।" पंडित ने सेठ के आगमन पर प्रसन्नता प्रकट की। सेठ, पंडित और मम्मी के अभिवादन में खड़ा हो गया।
"डाक्टर साहब को कुछ पानी-वानी भी पिलाया कि बस बकबक!” मम्मी ने लाड से उपा की ओर देखा।
"बहुत बढ़िया शर्वता" सेठ ने खाली गिलासों की ओर संकेत किया। मई-जून में सूर्यास्त उत्तरोत्तर विलम्ब से होता है। साढ़े सात तक भी कुछ उजाला सेठ संध्या रविवार को कार्यक्रम ऐसा बनाता कि संध्या कंधारीबाग गली जा सके। कोई नयी पुस्तक लेकर आता उषा और अमित उसकी बातें अपलक बहुत ध्यान से सुनते। सेठ के आने पर उषा को पलंग पर पड़े रहना अच्छा न लगता। वह इतवार साढ़े छ के बाद ढंग से साड़ी पहनकर प्लास्टर में बंधी टाँग को फैलाये आराम कुर्सी पर बैठ जाती।
बातचीत के लिये प्रसंग अधिकांश सेठ की लायी पुस्तकों का विषय ही होता। हँसी- मजाक भी। सेठ प्रायः पंडित दम्पति के चर्च से लौटने की प्रतीक्षा करता। पंडित दम्पति सेठ के आने से प्रसन्न छलियों से सतायी बेटी का मन बहलता था। बेटी टाँग में चोट के कारण कहीं जा सकने में असमर्थ थी।
कैसे सम्भव कि घर में जवान लड़की हो, कोई मर्द वहीं आये जाये, खासतौर पर माँ- बाप के पीछे और बातें न उठे। बल्कि कहा जाने लगा: इधर माँ-बाप गिरजा गये, उधर बार की फटफटिया आयी। लौंडिया एक नम्बर की शातिर, अंग्रेजी कालेज की घुटी। भाई को बाजार चलता कर देती है। बेबे, मिसेज़ सिंह, मिसेज़ चौहान की मार्फत बात मिसेज़ पंडित के कान में पड़ी। कलेजे पर झुरियाँ चल गयी। पंडित के डर से प्रतिवाद करने गली में तो न गयी पर ऐसे आक्षेप की उपेक्षा कैसे कर सकती थी। डाक्टर के आने पर लड़की के चेहरे का उल्लास छिपा न था । सोचा: कोई कितना ही भला हो, आखिर जवान लड़का बात बड़ जाने से पहले सावधानी भली। लोगों की जवान नहीं पकड़ सकते। अपनी इज्जत अपने हाथ।
मई के अंत में उषा की टाँग से प्लास्टर कट गया। उसे जल्दी से जल्दी चल सकने की चिन्ता। सेठ जून के तीसरे रविवार आया तो उषा की आरामकुर्सी के समीप एक छड़ी दीवार के साथ टिकी थी।
"वेरी गुड!" सेठ बोला, "छुट्टी से चलना शुरू कर दिया। जरा चलकर दिखाइये।" - आपके सामने लंगड़ाकर दिखायें!"
"हमसे डाक्टर से क्या संकोच डाक्टर को सही हालत मालूम होनी चाहिये।" "आप तो लाजबाब कर देते हैं।" उपा ने मान किया, "हँसियेगा नहीं!" "बोलूंगा भी नहीं।" सेठ बुद्ध प्रतिमा की तरह गम्भीर
उषा छड़ी के सहारे दरवाजे तक छः कदम गयी और लौटकर कुर्सी पर बैठ गयी। "अनुमति हो तो संतोष प्रकट कर सकता हूँ?" सेठ ने गम्भीरता से पूछा।
"नॉट अलाउड ।" अमित ने तर्जनी उठा दी। वह उस मंत्री विनोद में समान भाग मानता था।
डंडी-मम्मी चर्च से लौटे तो तीनों की बहस गली में सुनाई दे रही थी। मकान के सामने मोटर साइकल मम्मी का माथा भन्ना गया पर क्रोध वश में रखा। डाक्टर के अभिवादन के उत्तर में दो शब्दों में कुशल पूछ भीतर चली गयीं। बेटी पर बहुत गुस्सा डाक्टर के जाने के बाद फूट पड़ीं, "जानती हो, गली के लोग क्या बक रहे हैं। इशारे भी कर चुके। इसे तो समझ ही नहीं। किताब पढ़ने और बहस की बहुत अक्ल ।"
उषा को भी गुस्सा माँ से कम न आता था, लेकिन बात को घाँट गयी। झगड़े में नुकसान ही था। दो दिन से आसमान पर खूब गहर चढ़ी हुई थी। दमघोट उमस मानसून के तेवर | सोमवार की रात बरस गया। जैसी कही गरमी पड़ी थी, वैसा ही जोर का अंधी-पानी। छतों पर सोये लोगों की खाटें उलट गयीं, खाली पड़ी खाटें उड़कर दो-तीन आँगन दूर जा पड़ीं। कितने ही बड़े-बड़े पेड़ गिर गये। मूसलाधार वर्षा एक ही बारिश से सब तरफ सीला सुबह भी खूब घने बादल मिसेज़ पण्डित को पुराने रिवाज़ के अनुसार पहली बारिश के दिन बच्चों के लिये मीठे पुए बनाने का चावा अमित को पुकारा, सोडा लाने के लिये दुअन्नी बेटे के सामने मेज़ पर रख दी। उषा भीतर टेबल फैन के सामने बैठी पढ़ रही थी। अमित बरामदे में बैठा एक छोटी-सी पुस्तक में ध्यान गड़ाये मना आखिर मम्मी झल्ला उठीं, "नास हो इन नावलों का, जब देखो नावल कोई ढंग की किताब हो तब भी कोई कहे ।" अमित तुरन्त दुअनी उठा बाजार भाग गया।
अमित हाथ की किताब मेज पर खुली उलट गया था। माँ बरामदे से गुजरी तो किताब पर नजर पड़ गयी। उपा अमित मम्मी को पढ़ी-लिखी न समझते थे। उन्हें बाइबिल के सिवा दूसरी पुस्तक पढ़ते न देखा था। बाइबिल अंग्रेजी में ही पड़ती थीं। मम्मी को पढ़ने- लिखने का समय कहाँ था? चिट्टियाँ जरूर पढ़ती- लिखती थीं। मैट्रिक पास उषा के जन्म से पहले दो बरस मिडिल स्कूल में टीचरी भी की थी। पुस्तक का नाम था-'हाई आई एम नॉट ए क्रिश्चियन।
मम्मी के क्रोध की लपट तालू फोड़ गयी। चीख उठीं, "यह किताब डाक्टर दे गया है? वह दहरिया यहाँ जहर फैलाने आता 'साँप कहीं का कोई जरूरत नहीं ऐसे गुनहगार के यहीं आने की।" पति को पुकारा, "देख लो, इन नौनिहालों की करतूत। बड़े फिलॉसफर बनते हैं। वह शैतान हमारे बच्चों को बहकाने के लिये आता है। क्या होगा इनका ! दोखज़ की आग में जलेंगे।" मम्मी क्रोध से भूल गयी थीं, पंडित घंटे भर पहले कहीं गये थे। माँ ने किताब उपा के सामने पटक दी, “वे डाक्टर दे गया है?"
"डाक्टर तो यह किताब दे गया।" उषा ने समीप पड़ी पुस्तक दिखायी हिस्ट्री आफ इंडियन नेशनल कांग्रेस।"
"ये किताब कहाँ से आयी?"
"अमित लाया होगा।"
ऐसी स्थिति में अक्षरश: सत्य बहुत कठिन होता है। तथ्य था डाक्टर कांग्रेस का
इतिहास दे गया था। कांग्रेस का इतिहास उपा धीरे-धीरे पढ़ रही थी। जून के दूसरे रविवार डाक्टर छोटी-सी पुस्तक दे गया था-" हैज रिलीजन मेड यूसफुल कंट्रीब्यूशन टू सिविलाइजेशन?"
उपा पड़ रही थी, अमित सुन रहा था तो पण्डित कमरे में आ गये, “क्या पढ़ रहे हो?" बहिन-भाई को डैडी से नाराजगी की आशंका न थी। पण्डित भिन्न विचार की पुस्तकें पड़ने से रोकते न थे। लड़की लड़के की शंकाओं का दमन नहीं समाधान का यन करते थे।
उपा ने पुस्तक पिता को दिखा दी। पुस्तक का शीर्षक देखकर पिता ने कहा, "पढ़ लो। हमें अपना विचार बताना।" वे पुस्तक से परिचित थे।
पढ़ चके। दूसरी बार पढ़ रहे हैं।" उषा ने बताया और बोली "डैडी, लेखक ने प्रमाण दिये हैं कि मजहब का आधार अज्ञान का भय और अंध-विश्वास मात्र है। मजहब ज्ञान के लिये प्रयत्न को अपराध और अंध-भक्ति को सद्गुण बताता है।"
अमित बोल उठा "धर्मगुरु और धर्मरक्षक स्वामी वर्ग के प्रतिनिधि बनकर सदा शोषण और अत्याचार करते रहे हैं। मजहब सदा सबल के सामने झुकने और दीन के दमन का समर्थन करता रहा है. मजहब ने सदा विकास और परिवर्तन का विरोध किया है। नारी और दासों के प्रति सभी मजहब क्रूर रहे हैं। आज भी मजहब पुरानी मान्यताओं और मालिक वर्ग का समर्थक है और समाजवादी विचारधारा का विरोधी।"
"तुम लोग केवल एक पक्ष क्यों देख रहे हो।" पण्डित उपा के पलंग की पाटी पर बैठ गये, “मजहब को अंध विश्वास क्यों कहा जाये। वह मानव का विवेक है। पुस्तक में आठ सौ हजार वर्ष पूर्व की स्थितियों के उदाहरण हैं, उनकी आलोचना आधुनिक विचारों की दृष्टि से कैसे संगत है? उस समय यदि समाज में धर्म की दृष्टि से उचित-अनुचित के विवेक का विचार न होता तो क्या समाज इन उदाहरणों की अपेक्षा भयानक स्थिति में न होता । ईसू को स्वामी श्रेणी का समर्थक कैसे कहा जा सकता? नहीं जानते, ईसा के दो हजार वर्ष बाद तक दीन और दास वर्ग को स्वामी वर्ग के अन्यायी अत्याचारों का सामना करने की शक्ति ईसाईयत ने ही दी थी। ईसाईयत नारी को भोग की वस्तु नहीं, आदर का पात्र मानती है। " पण्डित बेटी-बेटे को बहुत देर तक समझाते रहे।
संध्या बहन-भाई में फिर अकेले में बात हुई। दोनों का विचार: डैडी उदार विचार के हैं, परन्तु धर्म-विश्वास की सीमा के भीतर।
सेठ जून के तीसरे रविवार आया तो अमित ने शंका की, "इस पुस्तक में आलोचना केवल ईसाई मजहब की है जो बातें ईसाई धर्म विश्वास में हैं, वहीं बातें दूसरे मजहबों में भी हैं।"
सेठ ने स्वीकारा, "तुम्हारी बात ठीक है। यह पुस्तक ईसाई समाज को सम्बोधन करके लिखी गयी। वास्तव में सब मजहब एक से हैं। सब मजहब ईश्वर के सम्बन्ध में कल्पनाओं और ईश्वर के काल्पनिक आदेशों के नाम पर सर्वसाधारण को अंध-विश्वास में जकड़ते हैं। मजहब को स्वीकार करने का मतलब है- -स्वयं सोचने या निर्णय के अधिकार अवसर का त्याग मजहब के पास मनुष्य की सब शंकाओं का एक उत्तर है- परमेश्वर सर्वशक्तिमान- सर्वज्ञ है, उसके आदेश के विषय में शंका पाप है।"
पुस्तक से उपा भी उत्तेजित थी। खासकर नारी के प्रति मजहब के अन्याय से सभी समाज नारी को पाप का मूल हेय और अविश्वासी समझते हैं। मजहबी लोगों का ख्याल है।
परमेश्वर ने नारी को पुरुष की खिदमत और जरूरत के लिये तो बनाया है, लेकिन पुरुष को उसका विश्वास नहीं करना चाहिये।
सेठ ने झिझक से बात पूरी की "बात कुछ अभद्र लगेगी पर है सही। मेरा मित्र रजा कहता है— मजहबी लोग औरत को लैट्रिन समझते हैं। सेहत और आराम के लिये मकान में जरूरी। उसे एहतियात से साफ रखना जरूरी लेकिन चीज गन्दी है। नारी को पूर्णतः पुरुष के समान राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समान अधिकार और अवसर का सिद्धान्त समाजवाद ने ही स्वीकार किया है। समाजवाद नारी को पुरुष के समान समाज का अंग मानता है।"
सेठ पण्डित दम्पति के लौटने से पहले चला गया था।
अमित सप्ताह भर कैसे मन मारे रहता। छुट्टियाँ थीं। सोमवार खूब सुबह माँ से बोला, "मम्मी एक किताब लानी है, अभी आया।" साइकल लेकर उड़ गया। सात तक सेठ से पुस्तक लेकर लौट आया 'व्हाई आई एम नाट ए क्रिश्चियन।
अमित ने पुस्तक बहिन को दिखायी। दोनों साथ-साथ पढ़ने बैठ गये। बहिन पड़ रही थी भाई सुन रहा था। बीस पृष्ठ का पैम्फ्लेट समझने के लिये बहुत आहिस्ता-आहिस्ता पढ़ने पर भी तीसरे पहर तक पुस्तक समाप्त हो गयी, कुछ अंश दो-दो बार पढ़ें। ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण में मूल कारण की युक्ति और उस सम्बन्ध में लेखक की शंका को तीन बार पड़ा बिना तर्क या प्रमाण के ईश्वर को संसार का स्रष्ठा 'मूल कारण मानकर युक्ति दी जाती है कि यदि ईश्वर नहीं है तो संसार को किसने बनाया?
है।
ईश्वर को किसने बनाया? इस प्रश्न का उत्तर होता है ईश्वर स्वयम्भू, अनादि और अनन्त
लेखक की शंका थी: यदि ईश्वर स्वयम्भू अनादि, अनन्त हो सकता है तो संसार स्वयम्भू, अनादि और अनन्त क्यों नहीं हो सकता?
बहिन और भाई विस्मित इतना साधारण सन्देह या सरल तर्क उन्हें या दूसरे लोगों
को क्यों नहीं सूझा शायद इसलिये कि ऐसा सन्देह या तर्क करना पाप मान लिया गया है। अमित का मन मिथ्या विश्वास का धोखा मिट जाने के उल्लास से उमग रहा था। संध्या पुस्तक ईडी को दिखाकर ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण में 'मूल कारण' की युक्ति के थोपन की बात की।
डैडी पुस्तक से परिचित थे। बेटी-बेटे को धैर्य से समझाया: ईश्वर का अस्तित्व भौतिक प्रश्न नहीं इसलिये ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण के सम्बन्ध में भौतिक विज्ञान की पद्धति से तर्कसंगत नहीं हो सकता। ईश्वर विश्वास आध्यात्मिक प्रश्न है। अध्यात्म चिन्तन, ज्ञान आश्रित कल्पना, युक्ति और विश्वास का समन्वय है। मनुष्य का अस्तित्व केवल भौतिक या शारीरिक नहीं। उसकी भावना और विचारों का भी अस्तित्व है। जैसे मनुष्य की शारीरिक जरूरतें हैं, उसी प्रकार मनुष्य की आध्यात्मिक, भावनात्मक और वैचारिक जरूरतें भी हैं। धर्म-विश्वास हमारी उन आवश्यकताओं को पूरा करता है। लेखक ने अधिकांश में आलोचना की है, कैथोलिक पोपडम की हमारा प्रोटेस्टेंट चर्च कैथोलिक पोपडम की रूद्रि और संकीर्णता से मुक्त, विवेक की उदार प्रगतिशील विचारधारा है।
बहिन-भाई में उस प्रसंग पर फिर चर्चा हुई। अमित के प्रश्न पर उषा ने
कहा,
"डैडी की बात सदाशय है, परन्तु रसेल की शंका का उत्तर नहीं है।"
दूसरे दिन सुबह माँ ने अमित से बेकिंग पाउडर ला देने के लिये कहा तो लड़का वही पुस्तक तीसरी बार पढ़ रहा था।
बेटे के लौटते ही माँ भड़क उठी, "वह किताब कहाँ से आयी डाक्टर लाया न?" "यह पुस्तक कल मैं लाया।" अमित भी तेजी से बोला, "कल डैडी को दिखायी। डैडी से बात भी हुई। डैडी से पूछिये! आप खामुखा नाराज हो जाती हैं। "
"आने दो डैडी को!" माँ फुंकार कर रसोई में चली गयी।
पंडित जल्दी ही आ गये। माँ ने उन्हें पुकार लिया, "लड़की लड़के को क्या पढ़ा रहे हैं? अपना मजहब नहीं मानेंगे तो क्या बनेगा इन लोगों का! ये गाड फियरिंग क्रिश्चियन फैमिली है या दहरियों का टब्बर कैसे-कैसे लोग वहाँ आने लगे हैं।"
"यह बात हम पर छोड़ो।" पंडित ने पत्नी को चुप करा दिया, "विचारों के दमन से श्रद्धा नहीं विरोध जागता है। जो समझना चाहते हैं उनका शंका समाधान होना चाहिये।" मिसेज़ पंडित को ऐसी उदारता असा पूरा विश्वास कि बच्चों के पथभ्रष्ट होने का कारण डाक्टर का प्रभाव। उससे अधिक क्रोध डाक्टर के प्रति रविवार संध्या आ धमकने पर लड़की जानती है, गली में क्या-क्या बकवास हो रही है। अभी एक चोट की टपकन मिटी नहीं, दूसरी की तैयारी। कह देने पर भी नहीं समझना चाहती। इसके जरा से इशारे पर झगड़ा मिट जाता। यहाँ लच्छन दूसरे पत्नी की इस चिन्ता से पंडित भी सहमता
रविवार छब्बीस जून संध्या बदली के कारण डाक्टर सेठ जल्दी आ गया। उसकी मोटर साइकल रुकते ही बैठक की चिक उठ गयी, "गुड ईवनिंग डाक्ट!" अमित जैसे प्रतीक्षा में चिक के पीछे खड़ा था।
बहिन-भाई डैडी से बातचीत के आधार पर प्रश्न सोचे बैठे थे। भाई के अनुरोध से उषा बोली, "पुस्तक हम दोनों को बहुत अच्छी लगी परन्तु ईश्वर के अभौतिक अस्तित्व के लिये भौतिक ज्ञान के प्रमाणों की माँग कैसे संगत?"
"अस्तित्व केवल भौतिक हो सकता है।"
"विचार और कल्पना ठोस भौतिक वस्तु नहीं है," उषा ने टोका, "परन्तु हम विचार और कल्पना को अनुभव करते हैं। हमारा अनुभव उनके अस्तित्व का प्रमाण ऐसे ही विश्वासी ईश्वर को अनुभव कर सकते हैं।"
सेठ मुस्कराया, "तुम्हारी बात का स्पष्ट अर्थ होगा कि विश्वासी ईश्वर को अपने विचारों और कल्पना ही में मानते हैं इसीलिये विभिन्न धर्मों में ईश्वर के रूप और आदेशों की भिन्न- भिन्न कल्पनायें हैं। "
"जैसे भूतों पर विश्वास।" अमित ने उत्साह से टोका।
"बिलकुल सही।" सेठ ने सराहना की।
सेठ ने रसेल की पुस्तक के उदाहरणों से बताया, "ईश्वर के सम्बन्ध में मनुष्य की सभी कल्पनायें ऐसी शक्ति की होती हैं जो प्रसन्न होने पर मनुष्य को आपत्ति, भयं से बचाकर उसकी आवश्यकता और इच्छायें पूरी कर सकती हैं और अप्रसन्न होने पर भयंकर दण्ड दे सकती हैं। मनुष्य उस शक्ति की कल्पना भी मनुष्य के आकार में ही करता है। ईश्वर के रूप,
सत्तावान मुखिया या राजा जैसे होते हैं।"
उषा ने शंका की, "ईश्वर की परिभाषा तो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार असीम शक्ति है।"
"ईश्वर की अनेक परस्पर विरोधी परिभाषायें हैं।" सेठ ने कहा, "यदि ईश्वर सभी प्रकार से असीम है तो सीमित सामर्थ्य मनुष्य उसे ठीक से जान-समझकर उसकी सही परिभाषा कैसे बना सकता है?"
"यह पोलेमिक्स है!” उषा ने आपत्ति की और अमित की ओर देखा, "रोशनी कर दे। अँधेरा नहीं मालूम हो रहा?"
अमित ने लैम्प का स्विच दबाकर पूछ लिया, "पोलेमिक्स से क्या मतलब?"
"शब्दजाल ।"
"वह शब्दजाल कैसे?" अमित ने विरोध किया, "यह तो साधारण बुद्धि की बात। मनुष्य सीमित मस्तिष्क में असीम ईश्वर की सही परिभाषा कैसे बना सकता है? तीनों बहस में इतने उत्तेजित कि आहट से बेखबर
गिरजा में मिसेज़ पंडित का मन बहुत व्याकुल था। कांग्रिगेशन (प्रार्थना) समाप्त होते ही पंडित परिवार लौट पड़ा। गली में कदम रखते ही अपनी बैठक के दरवाज़े से गली में रोशनी पड़ती दिखायी दी। दरवाज़े से कुछ कदम उधर ऊँची आवाजों में बहस का शोर मिसेज़ पंडित का माथा खौल गया।
"हैलो डाक्टर सेठ, गुड ईवनिंग।"
सेठ पंडित के आदर में खड़ा हो गया। "गुड ईवनिंग सर" सेठ ने आगे बढ़ हाथ मिलाया।
"गुड ईवनिंग मम्मी।"
मिसेज़ पंडित का चेहरा जैसे घना बादल, बरसने को तैयार। सेठ के अभिवादन के उत्तर में रूखा-सा थैंक्यू कह, नजर झुकाये भीतर चली गयी।
सेठ स्तम्भित। उपा चकित और खित्र ।
पंडित जेब से रूमाल निकालकर चेहरे का पसीना पोंछते हुए सोफा पर बैठ गये। पत्नी का व्यवहार अनदेखा कर गरमी और उमस की शिकायत करने लगे। अमित ने टेबल फैन पिता की ओर घुमा दिया।
"अब आज्ञा दीजिये।" सेठ उठ खड़ा हुआ, "आपको विश कर लेने के लिये प्रतीक्षा कर रहा था।"
उपा ने कनखी से सेठ की ओर देखा, चेहरा गम्भीर हो गया था। मम्मी की अभद्रता पर खीझ आयी यह क्या तरीका! मम्मी की नाराजगी का कारण मस्तिष्क में कौंधा तो और क्रोधा "पदो प्लीज, मम्मी को कहो डाक्टर सेठ जा रहे हैं, एक मिनट के लिये आ जायें। " चाहती थी, डाक्टर निरादर अनुभव करके न जायें।
सेठ उपा की ओर देखकर ठिठक गया।
“मम्मी गुसलखाने में चली गयीं।" पद्दो ने बताया। डाक्टर गुडनाइट कहकर चला गया।
उपा का इतना क्रोध कि मुख से बोल न फूट सका। आँगन में बड़ी खाट पर जा लेटी, बिलकुल गुमसुम
ने
"उषा, खाना रख दिया।" आधे घंटे बाद मम्मी ने पुकारा।
"भूख नहीं है।" प्रोटेस्ट प्रकट कर दिया, परन्तु आशंका न जाने क्या- क्या मतलब निकाले जायेंगे। उपा दांत पीसकर उठ गयी। तीन के बजाय एक ही चपाती खाकर चटनी चाटती रही।
मम्मी-डैडी, उषा और अमित का प्रोटेस्ट समझ रहे थे। सोचा, आप ही ठीक हो जायेंगे। उपा को रात बहुत देर तक नींद न आयी। मन अन्याय की आँच में सुलगता रहा। बेवकूफ उटपटांग बकते हैं गली में लोग बकते हैं, यह हमारा कुसूर है। डाक्टर न हमारी विरादरी का न हमारे मजहब का
दूसरे दिन भी उषा का क्रोध कम न हुआ। झगड़ा बचाने के लिये सामान्य व्यवहार का यत्र कर रही थी। बोलने को मन न था। मन में ईडी-मम्मी पर क्रोध। जो कहना था, मुझे कहते "'डाक्टर का अपमान क्यों किया। विवश क्रोध आँसुओं के रूप में वह जाना चाहता
था।
चौथे दिन उषा को दूसरी चिन्ता। जून की उनतीस तारीख संध्या बी० ए० का रिजल्ट प्रतीक्षित था। परिणाम प्रकाशन से पूर्व किस परीक्षा देने वाले को धुकधुक नहीं होती। अपने बवाल में पर्चे सन्तोषजनक किये थे। पास हो जाने का पूरा भरोसा। चिन्ता थी रिवीजन की डेडी ने चेतावनी दी थी: एम० ए० ज्वाइन करना है तो डिवीजन का ख्याल रखो।
बी० ए० के परिणाम के लिये अखवार संध्या विशेषांक भी प्रकाशित कर देते थे। यूनिवर्सिटी में परिणाम चार बजे प्रकाशित हो जाने की सूचना थी। अमित रिजल्ट की खबर के लिये तीन से पहले यूनिवर्सिटी चला गया।
आँगन के उड़के किवाड़ों पर धक्का लगते ही किवाड़ खुल गये।
अमित ने उषा की ओर देखा। चेहरा गम्भीर
उपा की सांस रुक गयी।
"बेरी सॉरी” "अमित ने साइकल भीतर धकेलते हुए कहा, "पुअर जीजी सिर्फ तीन
मार्क्स से रह गयी
उपा का शरीर पसीना-पसीना ।
“क्या है अमित?" पंडित उत्सुकता में बैठक से आ गये, “कितने मार्क्स?"
"डैडी, ग्राण्ड पार्टी!" अमित चिल्लाया, "सिर्फ तीन नम्बर से फर्स्ट डिवीजन रह गया। "पार्टी पार्टी!"
पद्मा और सदानन्द भी कूद-कूदकर ताली बजाने लगे।
“बेबकूफ कहीं का!" उपा ने सांत्वना का सॉस लेकर अमित की ओर घूरकर देखा। पण्डित की आंखों में चमका उषा का सिर चूम आशीर्वाद दिया।
"यहाँ आ!” उषा ने अमित को छड़ी दिखाई, "इसे जरूर मारूँगी। ऐसा धोखा देता है। मेरा तो कलेजा ।"
अमित ने लपककर उषा की बाँह जकड़ कर खाट पर चित्त कर दिया। घुटने नीचे फर्श
पर टिकाकर अपना सिर उसके सिर से टकराने लगा।
"मम्मी!" उषा रक्षा के लिये चिल्लायी। ऐसी गद्गद पुकार कितने दिन बाद उसके गले से निकली थी।
बेबे रसोई से निकल आयी, "हाय की होगा। मैंनू बता।"
अमित ने दौड़कर बेबे को कौली में कस लिया, "बेबे, जीजी बड़े जोर से पास हो गयी। मिठाई खिलाओ।"
"सब उसी ईसर ते उसके बेटे ईसू दा रैम है। " वेवे आवाद से बोली, “भला होवे, भला होवे। खूब मिठाइयाँ खाओ। जमजम खाओ।"
मिसेज़ पंडित दो मिनट के लिये मिसेज़ सिंह के यहाँ गयी थी। उसने बैठक के भीतर आते-आते अमित की बात सुन ली थी। हर्ष के आँसू छलक आये। तुरन्त हाथ बाँध ईश्वर को याद किया: हे ईश्वर, सब कुदरत और जलाल तेरा है। रविवार की साँझ में मन में घुटा क्रोध निचुड़कर दो आँसुओं में बह गया। उषा को बाँहों में ले बार-बार सिर और गाल चूमें, "मेरी लवणी थी । " वेवे की पंजाबी की छत उसे तुरन्त लग जाती थी।
मिसेज़ पण्डित ने संकल्प किया था: बेटी के स्वास्थ्य लाभ पर ईश्वर और ईश्वर-पुत्र ईसू की कृपा के लिये धन्यवाद रूप पति की मासिक आय का पंचमांश रोगियों और पीड़ितों की सहायता के लिये दान देगी। जिस दिन बेटी छड़ी लेकर चलने लगी, उसने रुपये चर्च के चैरिटी वाक्स में डाल दिये थे।
"सब लोग खाना खा लो। कुबेल्ला हो रहा है।" बेबे ने पुकारा ।
मिसेज़ पण्डित ने अनुरोध किया, "बेबे, इक मिंट, बच्चे मुँह तो मीठा कर लें।" सलुके की जेब से एक रुपया मीतू को हीवेट रोड वाले बंगाली के यहाँ से रसगुल्ले लाने को दे दिया। "हम भी चाकलेट लेंगे!" पद्मा एड़ी पर घूम गयी।
"हम भी चाकलेट ! " सदानन्द दौड़ा। मम्मी ने चवन्नी उसके हाथ पर भी रख दी। सब खाने के लिये बैठे तो मम्मी की इच्छा से सब लोगों ने दुआए रब्बानी (प्रार्थना) डैडी के साथ ऊँचे स्वर में बोली। आरम्भ में ऐसा कायदा था। उषा अमित बड़े हो गये तो कह देते दिखाने की क्या जरूरत है। प्रार्थना हम मन में कर लेते हैं। खाते-खाते निश्चय हो गया: पार्टी तीन-चार जुलाई को होगी।
अमित जीजी के पास होने की खुशी में पार्टी के लिये बहुत उत्साहित था। माँ से पूछा, पार्टी में किन लोगों को इनवाइट करेंगे?"
"ये ही तीन-चार घर गली के दूसरे दस-बारह परिचित " कुछ नाम पण्डित ने याद दिलाये। उषा उत्सुक प्रतीक्षा में थी लेकिन डाक्टर सेठ का नाम किसी को याद न आया। फिर निमंत्रण के लिये नाम गिने जाने लगे।
"डाक्टर चौहान और सिंह अंकल की पार्टी तो हिवस्की रम की बिना होती नहीं ।" उपा
ने ध्यान बढाने के लिये कहा।
" सिंह आंटी भी रम पीती है।" पद्मा बोल पड़ी।
"चुप्य!" "तुझे क्या मालूम !" मम्मी ने डॉटा
"हमें रीटा जीजी ने बताया- विमटो में मिला लेती है।"
"तुम्हें मतलब "बहुत चौधराइन बनती हो !" मम्मी ने फिर डॉटा ।
"जीजी के फ्रेंड्स को नहीं बुलायेंगे अमित ने याद दिलाया। "चित्रा जीजी, नोरा जीजी, लायन्स पद्मा गिनाने लगी।
"जरूर बुलायेंगे।" मम्मी ने स्वीकारा। खाने के अंत तक चौबीस नाम हो गये। सेठ का नाम अंत तक नहीं उषा की प्रसन्नता बुझने लगी। फिर गिना जाने लगा: पार्टी के लिये क्या-क्या होना चाहिये। किस चीज का आर्डर देना होगा, क्या-क्या घर में बनेगा। अमित कागज पेंसिल लेकर लिखने लगा निमंत्रण के लिये नाम। पार्टी के लिये सामान।
उस रात आकाश साफ था। हवा स्तब्ध। बरसात की चिपचिप गरमी दो टेवल पंखों के आगे करीने से खाटें पड़ जाती। उषा पंखे के फरटि में चित्त लेटी तारों की ओर नजर। मन में अन्याय के लिये विरोध पुट रहा था पार्टी मेरे नाम पर। मेरी इच्छा का कोई मूल्य नहीं। अगले दिन सुबह पार्टी के सम्बन्ध में शेष बातें भी तय हो गयीं किस आमंत्रित को कौन संदेश देगा, कितनी कुर्मियों मेजें, गिलास प्लेटें दरकारा गली में किनके यहाँ से ली जायेंगी।
उपा ने अमित को संकेत से समीप बुलाया। अमित बहिन की कुर्सी की बाँह पर हाथ रखकर झुक गया। उपा ने उसके कान में पूछा, "डाक्टर सेठ को नहीं बुलाओगे?
“कल मैंने कहा था, जीजी के फ्रेंड्स को नहीं बुलायेंगे। तुम बोली ही नहीं।" उपा भाई की नादानी पर क्या कहती, 'डाक्टर तेरे फ्रेंड नहीं हैं। तुमने क्यों नहीं कहा?"
""मम्मी नहीं चाहतीं डाक्टर आये। उस किताब की वजह से डाक्टर से नाराज हैं। गली में बकबक से भी परेशान है। वेवे भी कह रही थी मुंडे कुड़ियाँ दा बहुत साथ बैठना ठीक नहीं हुन्दा
उषा को मालूम था फिर भी पूछ लिया, "गली में क्या बकबक
"इसकी उसकी यारी, इश्क फिश्क और क्या! चौहान आंटी तो भट्टमडिया हैं। सिंह आंटी बहुत फरेबी; एक फूंक से बुझाये, दूसरी फूँक से सुलगाये और वह हंग जेन एक नम्बर स्कैंडल मांगरा
अमित ने बताया, डी, डाक्टर सेठ का नाम तो रह गया।"
न बेटा, यह कम्पनी डाक्टर सेठ को सूट न करेगी।" पण्डित बैठक से बोले, "बाकी लोग उसके लिये अपरिचित। वह खद्दरपोश वैष्णव हिवस्की रम कबाब से उसे परेशानी होगी। क्या फायदा।"
थी।
अमित निरुत्तर चला गया। जो सम्भव था, उषा ने यत्न कर लिया। आशा पहले भी नहीं
रविवार सुबह से पार्टी की तैयारी के लिये व्यस्तता। पद्दा-सददू उत्सव के उत्साह, उल्लास से पुलकित । उपा मौन ।
माँ ने बेटी के कोप से अनजान बनने के लिये पूछ लिया, "उपी, तुम भी तो कुछ बोलो। तुम्हें कुछ खास पसन्द हो। तुम्हारी पार्टी में तुम्हारी राय सबसे पहले कोई और चीज मंगवानी हो।"
"मेरी काहे की पार्टी!" उपा ने उत्तर दिया। फिर सम्भली, "पार्टी की बात क्या जो लोग चोट से मर नहीं जाते, ठीक हो ही जाते हैं। परीक्षा में पास होना कौन नयी
बात' 'चौदहवीं बार पास हुई है।"
सायंकाल परिवार वर्ष के लिये तैयार होने लगा। मम्मी ने फिर उषा को पुकारा, "बेटी, डाक्टर चौहान को कहला दें, तुम्हें गाड़ी में लेते जायें?"
"मम्मी, मेरे बस का नहीं है।" उषा ने दीवार की ओर मुँह कर उत्तर दिया।
"बेटी, महीने का पहला इतवार होली कम्बुनियन है। तुझे ईश्वर की दो-दो कृपाओं के लिये धन्यवाद देना है। चली चला" मम्मी ने खुशामद की।
"ओ यस ” अमित ने बरामदे से भीतर झाँका, "एक टांग तोड़ने की कृपा, फिर टाँग जोड़ने की कृपा!"
"खबरदार बकवास किया। दहरिया कहीं का!” मम्मी ने थप्पड़ दिखाया।
अमित थप्पड़ की पहुँच से बहुत दूर था फिर भी आतंक दिखाने के लिये पीछे हट गया। "ईश्वर क्या यहाँ नहीं है!" उषा नजर बचाये रुखाई से बोली, "मेरी हालत भी देख रहा है। तुम वहाँ धन्यवाद देना, मैं यहाँ धन्यवाद दे लूंगी। मुझे लोंगड़ाकर तमाशा बनना मंजूर नहीं। "
बेटी की रूखी बातों से माँ का मन टूट गया। होली कम्युनियन का दिन, क्रोध से बची रहना चाहती थी। चर्च से लौटकर मिसेज़ पण्डित ने बहुत सात्वना अनुभव की। सेठ न आया था।
सोमवार पार्टी छः बजे थी। चित्रा पाँच बजे ही आ गयी। उपा को देखते ही बोली, "अरे तुम तैयार नहीं होगी। जोगन बनी बैठी हो। अभी तक बिसूर रही हो उस उल्लू के गम में! तुम्हारे लिये लड़कों की कमी?"
"भाड़ में जाय उल्लू।" उपा ने नाक सिकोड़ी। “हो जाती हैं तैयार।"
चित्रा ने उपा को मना धनाकर तैयार कर दिया था। तरबूजी शिफों की साड़ी में रोशनी फेंकती उषा ऐसी लग रही थी जैसे पूरे कद की गुड़िया ।
पार्टी का आरम्भ फादर चैटर्जी ने प्रार्थना, ईश्वर की अपार अनुकम्पा के लिये धन्यवाद और उषा को आशीर्वाद से किया। चित्रा और नोरा की चुटकियों से वातावरण हल्का हो गया। उषा को हंसी वश में न कर पाते देख मिसेज पण्डित मन ही मन ईश्वर को बार-बार कृतज्ञता से धन्यवाद दे रही थीं।
डाक्टर सेठ उससे अगले रविवार भी न आया तो अमित उसके यहाँ चला गया। लौटकर बहन को बताया डाक्टर उससे पूर्ववत् हँसा बोला था। अप्रिय प्रसंग का उल्लेख नहीं। सेठ की उदारता और सहिष्णुता से उषा का मन आदर से प्लावित कुछ पल कल्पना में डाक्टर का हँसता चेहरा सामने बना रहा।
ग्रीष्मावकाश के बाद यूनिवर्सिटी जुलाई के तीसरे सप्ताह के आरम्भ में खुली। पण्डित दूसरे दिन उषा को ताँगे पर यूनिवर्सिटी ले गये। नये पुराने विद्यार्थियों की भीड़। दो अढाई सौ लड़के और दस-बारह लड़कियाँ। लड़कियाँ सहमी-सहमी सी भीड़ से बचकर अभिभावकों के साथ खड़ी तमाशाइयों की नजरें खास तौर से लड़कियों की ओर पण्डित उषा को एक ओर खड़ी कर फार्म देने के लिये दफ्तर में गये।
उपा ने सुना: पटाखा है या दूसरी आवाजः अमां लंगड़ी है। तीसरी आवाज: पीली साड़ी वाली तो बिलकुल चिर्मिती उषा सुन चुकी थी, कुछ दिन पुराने स्टूडेंट नवागन्तुक लड़के लड़कियों का रेगिंग करते हैं। नजर घुमाये सोचा, सब जगह यही चलता है, बकने दो सड़क पर, गली में लोग कहाँ आवाजें नहीं करते।
एम० ए० में प्रवेश के लिये पाठ्य विषय के विभागाध्यक्ष की अनुमति चाहिये। उपा को अंग्रेजी साहित्य विभाग के अध्यक्ष डाक्टर सामन्त से साक्षात्कार के लिये अगले मंगलवार की तारीख मिली। उस दिन भी पण्डित उपा के साथ गये। पण्डित आर्ट्स विभाग की योनी में झिझक रहे थे कि किधर जायें। उसी समय थोड़ी में एक कार रुकी। कार से उतरी लड़की उषा से लम्बी, छरहरी, गर्दन तक घंटे बाल।
"एक्सक्यूज मी प्लीज " उषा ने विभागाध्यक्ष का स्थान पूछा।
उपो का प्रयोजन सुनकर लड़की ने उसे साथ आने का संकेत किया। उषा को चलने में कष्ट देख सहायता के लिये बाँह देकर बताया, "मेरा नाम रखा सामन्त ।" "मैं उषा पण्डित"
बी० ए० कहाँ से किया
"आई० टी० से।"
रखा ने उपा को पल भर दरवाजे पर रुकने का संकेत किया और भीतर चली गयी। दो पल में लौटी। उपा को भीतर की ओर संकेत करके मुस्कुरायी कभी सहायता की जरूरत हो तो निस्संकोच कहना। वहाँ की पुरानी विद्यार्थी हूँ।"
उपा को प्रवेश की अनुमति सुविधा से मिल गयीं। रवा सामन्त अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर डाक्टर जी० पी० सामन्त की बेटी थी।
अगस्त के पहले सप्ताह से क्लासेस शुरू हो गयीं परन्तु एक-डेढ़ बजे के बाद कैम्पस में हो-हल्ला, उत्तेजना, नारे, भाग-दौड़ा जहाँ-तहाँ दीवारों पर सड़कों पर भी लाल-काले, नीले, सफेद बड़े-बड़े अक्षरों में को वोट दो को वोट दो! नारे लगते इन्कलाब जिन्दाबाद! महात्मा गांधी की जय! भगतसिंह जिन्दावाद पूँजीवाद साम्राज्यवाद का नाश हो! पूँजीपतियों के दलालों से सावधान। विदेशी एजेन्टों से सावधान। सत्र के आरम्भ में यूनिवर्सिटी यूनियन के पदाधिकारियों का चुनाव था। पदों के लिये स्टूडेन्ट कांग्रेस और स्टूडेंट फेडरेशन के उम्मीदवारों में संघर्ष छोटे-छोटे मजमों में लेक्चरबाजी चलती। अपने पक्ष का समर्थन और वोट के लिये अपील।
मुख्य पक्ष दो थे। स्टूडेंट कांग्रेस मे कांग्रेस और कांग्रेस समाजवादी पार्टी के समर्थक थे। उनके नारे थे: महात्मा गांधी की जय कांग्रेस जिन्दाबाद, भगतसिंह जिन्दाबाद, इन्कलाब जिन्दाबाद! स्टूडेंट फेडरेशन में कम्युनिस्ट या उससे सहानुभूति रखने वाले थे। कम्युनिस्ट पार्टी उस समय गैरकानूनी थी। उत्तर प्रदेश में बरस भर पूर्व कांग्रेस मंत्रिमंडल कायम हो जाने से, विशेषतः रफी अहमद किदवई, तत्कालीन पुलिस मंत्री की उदारता से कम्युनिस्टों को अपेक्षाकृत आजादी मिल रही थी। स्टूडेंट फेडरेशन के समर्थकों के नारे थे: पुँजीवादी- साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! दुनिया के मजदूरों, एक हो! इन्कलाब जिन्दाबादा उस समय यूनिवर्सिटी में जनसंघ की आवाज स्पष्ट न थी। मुस्लिम लीग का प्रभाव था, वह भी कम
रवा सामन्त दो वर्ष पूर्व एम० ए० कर चुकी थी। पी-एच० डी० के लिए शोध कर रही
थी। सजग, निशंक, अभिजात मुद्रा, तौल-तौल कर बोलने का ढंग। बातचीत बहस में लड़कों की तरह सिगरेट मुलगा लेती। अंग्रेजी में बोल चाल, कान्वेंट का उच्चारण।
रवा की सहानुभूति फेडरेशन से चुनाव संघर्ष में भाग ले रही थी। कुछ और भी लड़कियों फेडरेशन के साथ थीं। नसीमा हबीबुल्ला, वहीदा उस्मान, सुरमा सरकार, ललिता तिवारी और माधुरी शर्मा। वे सब विद्यार्थी थीं। बहीदा और सुरमा बी० ए० फाइनल में, माधुरी और हबीबुल्ला बी० ए० प्रीवियस में लड़कियाँ फेडरेशन के हर मोर्चे पर आगे। सदा सक्रिय विद्यार्थियों से घिरी बाँहें उठा-उठाकर नारे लगाती और हथेली पर दूसरे हाथ की मुट्ठी मारकर बहस करतीं। क्रान्ति के मोर्चे पर बलिदान हो जाने की होड़। रत्रा का सहयोग निर्देशक और परामर्शदाता के रूप में। बिना चीखे चिल्लाये भी उसकी गिनती फेडरेशन के अगुवाओं में ललिता इनामिक्स एम० ए० फाइनल में थी। उसका सहयोग मौन वैचारिक सहानुभूति से स्टूडेंट कांग्रेस के साथ केवल दो लड़कियों कपिला दुबे और सरोज सिन्हा।
उपा समझ गयी, रत्ना उसे फेडरेशन की ओर खींच रही थी। गत चार मास से उसका झुकाव समाजवादी विचारधारा की ओर हो चुका था। रत्ना उसे फेडरेशन की गोष्ठियों में ले गयी तो उसने संतोष पाया। जमाल हैदर और चेतन खूब तन्मय भंगिमा और प्रवाह से बोलते। सेठ सोच-सोचकर सीधी भाषा बोलता था, लालित्य नहीं। जमाल हैदर का अध्ययन भी गहरा । कामरेड वेतन उतना प्रांजल न बोलता बात उसकी संक्षिप्त परन्तु पैनी होती । उषा को फेडरेशन या कम्युनिस्ट झुकाव के विद्यार्थियों की संगति बेहतर लगी। जमाल, चेतन, हरीश, रना, ललिता और दूसरे साथी समझ गये उपा समाजवाद और वर्ग-संघर्ष के दृष्टिकोण से अपरिचित न थी। उस संगति में अनाड़ी न समझी जाने से उषा को आत्मविश्वास और संतोष। ऐसे प्रसंग में सेठ की याद जरूर आती रविवार संध्या चर्चा होती थी। सेठ जून के अन्त से नहीं आया। स्मृति में मम्मी के अन्याय का शूल उभर् आता । उपा के साथ एम० ए० इंगलिश फर्स्ट इयर में दूसरी लड़की थी मिस कपूर। दो सप्ताह में ही उषा की सहेली बन गयी। कपूर के नख-शिख कुछ ऐसे-वैसे नाक छोटी, नथुने बड़े, मुँह का बाक फैला हुआ, मोटे ओठ, कद दबा हुआ पर रंग गोरा माँ-बाप ने बेचारी का लाह नाम राजदुलारी रख दिया था। यह नाम उसकी मुसीबत बन गया। यूनिवर्सिटी में उसने नाम आर० डी० कपूर लिखाया था। खोजी स्टूडेंट हर लड़की का पूरा नाम-पता खोज लेते
थे।
कपूर बातूनी थी। यूनिवर्सिटी के सब स्कैण्डल्स की जानकार फेडरेशन में कौन सुरमा के दीवाने हैं, कौन वहीदा के कपिला दुबे किसके साथ घूमती है' 'ललिता तिवारी कोहली पर फंदा डालने की घात में है, इकनामिक्स में उसके नम्बर कोहली के हाथ में डिपार्टमेंट का हेड मुकर्जी कोहली के जेब में कोहली रना के पीछे। फिलासफी वाला डाक्टर गोपाल भी रखा के लिये दीवाना । "रना आजकल कोहली को लिफ्ट दे रही है," कटाक्ष से मुस्करायी, "आई मीन कार में। "
ज्यों-ज्यों चुनाव की तारीख समीप आ रही थी, हंगामा बढ़ता जा रहा था। स्टूडेंट फेडरेशन और स्टूडेंट कांग्रेस के कार्यकर्ता चुनाव के माध्यम से अपने दलों की जड़ें गहरी जमाने के प्रयत्न में थे।
तीसरे सप्ताह फेडरेशन ने कैम्पस में जगह- जगह छोटी-छोटी गोष्ठियों शुरू कर दीं। रखा ने इस काम में उषा को भी समेट लिया। उषा ने दो बार समाजवादी पक्ष की प्रगतिशीलता पर बात की। रत्ना ने उपा की सराहना की. "यू स्पीक बेल। तुमने काफी पड़ा है। कल चार बजे यूनियन हाल में डाक्टर कोहली सोशलिज्म और नेशनलिज्म पर बोलेगा, जरूर सुनना उपयोगी वार्ता होगी।"
उस दिन शनिवार था। डाक्टर कोहली के अध्ययन और सूक्ष्म बुद्धि की ख्याति थी। उपा ने कोहली को दो बार देखा था, बोलते न सुना था। सोशलिज्म और नेशनलिज्म पर वार्ता जरूर सुनना चाहती थी, लेकिन डर रही थी वर्षा से उषा को दो बजे से फुर्सत । सोच रही थी, बारिश से पहले घर पहुँच जाये। चार बजे डाक्टर कोहली के टाक का भी ख्याल था। दुविधा में बरामदे में बड़ी थी। दाहिनी ओर के बरामदे से जमाल और रत्ना आपस में बात करते उसकी ओर आ गये। रजा ने उपा को बाँह में ले लिया, "चार बजे, याद है न!" इच्छा तो बहुत है पर बारिश का डर है बरसने लगा तो मुसीबत हो जायेगी।" "बारिश का क्या भरोसा!" रवा मुस्करायी, "तुम बाहर कदम रखो और शुरू हो जाये और रात तक न बरसे। बहुत इम्पोर्टेन्ट सबजेक्ट है। अड़ाई बज गया। आओ, हमारे साथ एक प्याला काफी ले लो।"
रखा ने उपा को साथ ले लिया। उपा इतनी आत्मीयता की उपेक्षा कैसे करती! उपा को काफी में रुचि न थी। तब लखनऊ में काफी का चलन न था। यूरोपियन होटलों के कैफे में ही काफी मिलती थी। हाँ, उसी साल 'काफी सेस कमेटी ने काफी के प्रचार के लिये हजरतगंज में इंडिया काफी हाउस शुरू किया था, बहुत ठाट-बाट से खूब बड़ा हाल। बनिया फर्नीचर बनिया काजू तरह-तरह के सैंडविच बर्दीधारी बेरे काफी पीना आधुनिकता और फैशन का अनुषंग माना जाने लगा।
उषा इससे पूर्व दो-तीन बार स्टडी सर्किल में बैठी थी। अकसर आठ-दस लोग होते थे, इस समय अनुमानत: पचास ठीक चार बजे जमाल, रत्ना और कोहली आये। उपा और ललिता बक्ता के ऐन सामने समीप थीं दुबे भी उनके साथ आ गयी। कोहली को इतने समीप से पहली बार देखा। बहुत हल्के रंग का सूट, गहरे बादामी रंग की टाई छरहरा लम्बा जवान। क्लीन शेव सिर के बाल घने, घुँघराले बेहरा गेहुँआ मर्दाना आकर्षण
कोहली कुर्सी पर बैठकर सहज भाव से बोला । व्याख्यान नहीं, क्लास में समझाने का डंग। कभी मेज पर कोहनियाँ टिकाकर पंजे बाँध लेता, कभी कुर्सी की पीठ पर सीधा हो जाता। कभी भौवे उठ जातीं. कभी मुस्कान प्रसंग गम्भीर था, परन्तु उसका ढंग सहज अभिप्राय था: समाजवाद की दिशा मानवी बिरादरी और राष्ट्रीयता की संकीर्णता से मुक्ति की है। राष्ट्रीय भावना की नींव दूसरे राष्ट्रों से आतंक और स्पर्धा पर है। समाजवाद या सोशलिज्म को राष्ट्रीयता या नेशनलिज्म के शिकंजे में कसने का प्रयोजन, समाजवाद की अधिक उत्पादक और सक्षम प्रणाली को साम्राज्यवादी विस्तार का साधन बनाना है। प्रमाण में जर्मनी में नाजीवाद का उदय और उसकी आक्रामक विस्तार प्रवृत्ति।
कोहली का विशेषण उषा को तथ्य तथा तर्क-संगत तो लगा, परन्तु राष्ट्रीय भावना की ऐसी व्याख्या से विस्मय भी।
कोहली ने कहा, "मेरी बात यदि अस्पष्ट रह गयी हो तो आप लोग प्रश्न पूछ सकते हैं।"
स्टूडेंट कांग्रेस के अविनाश ने शंका की, "राष्ट्रीय भावना का सदा आक्रामक होना आवश्यक नहीं है। विदेशी शोषण से संघर्ष के लिये राष्ट्रीय भावना को संकीर्ण स्पर्धा कैसे कहा जा सकता है?" श्रीवास्तव ने स्पष्ट कहा, “आपकी बात का अभिप्राय भारत की परिस्थितियों में होगा कि हम विदेशी शासन से मुक्ति के लिये समाजवादी विश्व क्रान्ति की प्रतीक्षा करें। आपका अभिप्राय कम्युनिस्ट नजरिये से कांग्रेस समाजवादी नीति को नाजीवाद बताना है।" उषा को श्रीवास्तव की आपत्ति संगत लगी। सोचा: डाक्टर सेठ होता तो शायद बात अधिक स्पष्ट हो सकती।
कोहली मुस्कराये, “कांग्रेस समाजवादी दल और जर्मनी के शासक नाजी दल को एक साथ नहीं तोला जा सकता क्योंकि दोनों की स्थितियाँ भिन्न हैं। तथ्य हैं— पूँजीपति वर्ग अपने देश की राष्ट्रीय भावना का प्रयोग अपने लाभ के क्षेत्रों के विस्तार में करता है। नाजीवाद उसी का उदाहरण है। किसी भी देश को समाजवादी विश्व क्रान्ति की प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है। प्रत्येक देश के शोषित वर्ग की मुक्ति का प्रयत्न समाजवादी विश्व क्रान्ति में सहायक होगा।"
जमाल ने कपिला दुबे, ललिता तिवारी और उषा को उत्साहित किया, “आप कुछ पूछिये!" उषा श्रीवास्तव की शंका को और विस्तार से उठाना चाहती थी, परन्तु प्रश्न ठीक से सोच न पायी थी। इतने अधिक लोगों के बीच बोलने में झिझक आई० टी० में अकसर डिबेट में भाग लेती थी। वहाँ सब लड़कियाँ थीं। फिर यह नयी जगह।
गोष्ठी के बाद रत्ना ने उपा को अपने साथ ले लिया। ब्योही में आये तो हल्की वर्षा । ऐसी कि सौ कदम चलने में भीग जायें।
“तुम्हें बहुत परेशानी होगी!" रत्ना ने उषा की ओर देखा, “तुम्हें हजरतगंज तक पहुँचा दें?"
"गंज से मेरा मकान दूर नहीं है।"
"हमारे साथ आओ। जमाल को हबीबुल्ला होस्टल पहुँचा दें, फिर हजरतगंज चलेंगे।" रत्ना स्टियर पर बैठी। उषा को सामने सीट पर पास बैठाया। जमाल और कोहली पीछे की सीट पर कार पहले हबीबुल्ला होस्टल गयी। जमाल को वहाँ उतार कर हजरतगंज की ओर।
हजरतगंज में वर्षा अधिक थी। कॉफी हाउस के सामने गाड़ी रोककर रत्ना ने पूछा, "तुम्हारा मकान है किस तरफ?"
"आप फिक्र न करें, यहाँ ताँगा मिल जायेगा।"
"बताओ तो।"
उपा ने बताया — बर्लिंगटन के पीछे कैंट रोड पर दो-ढाई सौ कदम।
"हम कॉफी बर्लिंगटन में ही ले लेंगे।"
"बेहतर" कोहली ने अनुमोदन किया।
रत्ना ने कार आगे बढ़ा दी। बर्लिंगटन होटल की ड्योढ़ी में कार रोककर रखा ने कहा, "यहाँ तक आयी हो तो एक प्याला गरम कॉफी लेकर जाओ। डाक्टर कोहली से तुम्हारा परिचय भी हो जाये।"
रखा और कोहली के साथ उपा होटल के रेस्तरों में चली गयी। उषा का परिचय
कराया, "डाक्टर एन० एन० कोहली, इक्रामिक्स डिपार्टमेंट तुमने इनका टाक सुन लिया, वह बेहतर परिचय है।" कोहली को बताया, "उषा पंडित एम० ए० प्रीवियस इंगलिश लिटरेचर। इसने समाजवाद के विषय में काफी पढ़ा है। बहुत कुछ समझती है।"
"बेरी 'गुड।" " कोहली के स्वर में सराहना, "साहित्य और सामयिक समस्याओं में व्यापक रुचि है?"
"समझना जरूर चाहती है पर पढ़ा बहुत कम है।"
"आप क्या लेंगी?" कोहली ने उपा से पूछा।
"इस समय जरूरत नहीं, इच्छा भी नहीं है।"
"मुझे तो भूख है। लंच नहीं ले पायी।" रखा ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
"कॉफी और तीन प्लेट सैंडविच " कोहली ने आर्डर दिया।
बी० ए० कहाँ से किया?" कोहली उषा की ओर घूम गया।
"आई० टी० से।"
" आपके परिवार में दूसरे लोगों को भी ऐसी समस्याओं और समाजवाद में रुचि है?"
"मेरे पिता डी० एन० पण्डित क्रिश्चियन कालेज में टीचर हैं।"
धर्मानन्द पण्डित!" कोहली की आँखें फैल गयीं। "मैं पण्डित साहब का स्टूडेंट था। लखनऊ के आधे पढ़े-लिखे लोग पण्डित साहब के विद्यार्थी" कोहली ने जिज्ञासा की, "उन्हें समाजवाद में रुचि है?"
"इस बारे में मुझे डाक्टर सेठ ने बताया।"
"डाक्टर सेठ कोहली की भाँवे उठ गयीं। पल भर सोचा, सेठ ब्रह्मचारी?” उषा ने
कौतूहल से कोहली की ओर देखा।
"तुम्हारा मतलब अमर, डाक्टर अमरनाथ सेठ खद्दरधारी, कांग्रेस सोशलिस्ट!" उषा ने मौन स्वीकारा।
"वह ब्रह्मचारी तुमसे कहाँ भिड़ गया?"
"कौन है वह?" रखा ने पूछा।
“विचित्र आदमी है। मेटीरियलिस्ट इन फेथ आइडियलिस्ट इन प्रैक्टिस ! सिगरेट, पान, चाय, सिनेमा कोई शौक नहीं। जीवन स्वास्थ्य के लिये मनोरंजन, समय का अपव्यय । सनक का पक्का। आनेस्ट टु द लिमिट आफ स्टुपिडी। हम दोनों गली के पड़ोसी, लड़कपन के साथी हमारे पिता भी मित्रा सेठ पण्डित साहब के यहाँ आता है?"
"कई बार आये। परिचय हस्पताल में हुआ। मेरा फीमर फ्रेक्चर को गया था।" "ठीक-ठीक समझ गया। " कोहली ने गर्दन हिलायी।
सैंडविच आये तो उषा ने भी खा लिये। मन मारकर काफी तीन-चौथाई प्याला मुड़क लिया।
वे लोग रेस्तरों से निकले तब भी बरस रहा था। बर्लिंगटन के चौराहे पर पहुँचकर रवा ने रास्ता समझ लिया, "ये कंट रोड कैसरबाग से यूनिवर्सिटी । "
"प्लीज, मैं इस गली में उतरूँगी।"
बैठी रहो, भीगो क्यों मकान बता देना। हम भी मास्टर साहब को सलाम कर लेंगे।" कोहली बोला।
बैठक के किंवाड़ खुले थे। सामने मोटर रुकने की आहट से पण्डित ने झाँककर देखा। उषा कार से निकल रही थी।
गाड़ी की पिछली सीट से उतर कर सूट पहने लम्बा घरहूरा व्यक्ति बैठक में आ गया, "गुड आफ्टरनून सर, आपका पुराना स्टूडेंट नरेन्द्रनाथ कोहली।"
पण्डित ने बहुत ध्यान से देखा, "औह नरेन्द्रनाथ!" कोहली के कंधे पर हाथ रखकर हँस दिये, "यू वेयर ए ब्रिलियेंट स्टूडेंट ए बिट नाटी । "
"कहीं हो आजकल? क्या कर रहे हो?"
"मास्टर साहब, आपके नक्शे कदम पर मास्टर बन गया। यूनिवर्सिटी में इकनामिक्स पढ़ाता हूँ।"
“यू मीन लेक्चरार! बेरी गुड" पण्डित ने गद्गद होकर कोहली की पीठ थपथपायी, "गुरु गुड़ रहे, चेला शक्कर हो गये। शाबाश!"
"मास्टर साहब, इस समय चलूँगा। आज मिस उषा पण्डित से परिचय हुआ। शी इज इंटेलिजेंट एण्ड स्टूडियस ।"
"थैंक्यू ! अब तुम्हारी स्टूडेंट हो गयी। "
पंडित से पुराने स्टूडेंट मिलते थे तो उषा को पिता के प्रति उनके आदर भाव से संतोष होता था।
उषा ने बताया, "डैडी, मिस रखा सामन्त मुझे अपनी गाड़ी में लायी हैं।" पंडित अभिप्राय समझकर तुरन्त गली में उत्तर गये। बेटी की सहायता के लिये रत्ना को बहुत धन्यवाद दिया। बेटी को अच्छी संगति में देखकर पिता की संतोष
उषा रात ग्यारह तक पढ़ती रहती थी। नींद न आ रही थी। काफी की आदत न थी, शायद उसका असर वर्षा रुक गयी थी। भीगी भीगी शीतल सुहावनी हवा स्मृतियों और कल्पनाओं को उकसाने वाली।
अमित तीन बार सेठ से पुस्तकें ले आया था। सेठ ने कभी इनकार न किया। अमित लौटकर सेठ से भेंट की चर्चा बहिन से करता था। उषा सोचती, हमारे लिये कभी नहीं पूछा भुला दिया कैसे हो सकता है। कल आठवाँ रविवार सेठ से भेंट न हो सकने की विवशता धीरे-धीरे सह ली थी। उस संध्या कोहली की बातों ने यादें उकेरकर उस इच्छा को व्याकुलता बना दिया। कोहली सराहना नहीं, विद्रूप कर रहा था— लगन का पक्का, आनेस्ट टु द लिमिट आफ स्टुपिडिटी ब्रह्मचारी !
उषा को डैडी और स्वामी आत्मानन्द की बातचीत याद आ गयी। डंडी ने पूछा था रामकृष्ण सेवा मिशन के कार्यकर्ताओं का साथ होना क्यों जरूरी। स्वामी ने कहा था: साधु से क्या मतलब? गेरुआ कपड़े हमारे कार्यकर्ताओं की यूनिफार्म है। यूनिफार्म व्यक्ति को अपनी स्थिति और उत्तरदायित्व से सचेत रखती है। हमारे साधु त्याग नहीं करते, समाज सेवा करते हैं। ब्रह्मचर्य का मतलब भी गृहस्थ से दूर या सेलीवेसी मात्र नहीं मन-वचन- कर्म के निग्रह या सेल्फ रिस्ट्रेंट से अपने सामर्थ्य या एनर्जी को अपने उद्देश्य या लक्ष्य के लिये अर्पण करता है।
डाक्टर सेठ में कितना सेल्फ-रिस्टेंट डैडी ने खुद कहा था: ही इज ए नोबल सोल। ऐसे आदमी की इन्सल्ट! इन लोगों ने ऐसा क्या देखा? मेरे लिये शक। इन लोगों की नजर में आदर भी लव हाँ, मैं उसका बहुत आदर करती हूँ आई बिलीव इन हिम, आई हैव ग्रेट रिगार्ड फार हिम
मेरी मजबूरी है डेडी मम्मी की आश्रित होना। एम० ए० के दो वर्ष फिर आत्मनिर्भर । किसी स्कूल-कालेज में नौकरी, लखनऊ में या कहीं बाहर। आत्मनिर्भर और स्वतन्त्रः उपा को अब चर्च चलने के लिये न कहा जाता। बार-बार कहना अच्छा न लगता। बच्ची तो थी नहीं। मम्मी ने हार मान ली जब तक हमारे बस था, चर्च साथ ले जाते थे। अब बराबर की है, क्या कहें। अमित सत्रह का हो रहा था। उसे ऐसी ढील देना माँ को नामंजूर लड़के का आचरण माता-पिता की जिम्मेवारी पंडित पत्नी से सहमत। लड़के को समझाया: तुम जो चाहो पढ़ो। हमारा बताया भी पढ़ो जानने समझने का यत्न करते रहो। जिज्ञासा बुरी प्रवृत्ति नहीं है, परन्तु अभी तुम्हारी आयु अपना मार्ग स्वयं निश्चय करने योग्य नहीं। चर्च में कोई गलत बात नहीं कही जाती । मान लो तुम्हारे चर्च जाने से हमें सन्तोष होता है। मिसेज़ पंडित ने आँसू पोंछ लिये बेटी-बेटा दोनों लामजहब इनकी आकवत (परलोक) का क्या होगा? हे ईश्वर हमारे कुसुर मुआफ कर
रविवार संध्या भी पना बादल था। पहवा के झोंकों में हल्की-हल्की फुहारें। पंडित परिवार के लोग छाते लगाकर गिरजा चले गये। उषा बैठक में पुस्तक लेकर बैठ गयी थी। पुस्तक खोलने से पूर्व ख्याल आ गया— चौबीस घंटे पूर्व कल इस समय डाक्टर कोहली डॉक्टर सेठ के विषय में क्या कह रहा था कोहली की सब बातें एक-एक कर याद आयीं। उन बातों के विश्लेषण, उनका अभिप्राय । ख्याल आया पुस्तक तो खोली नहीं। घने बादल के कारण बैठक में झुटपुटा हो गया था। बिजली जलाने के लिये उठी कि गली में आहट सुन हाथ दरवाजे पर लटकी चिक पर पहुँच गया।