बार रूम के बरामदे में वकील कोहली कुर्सी पर बैठे समीप खड़े महेन्द्र को मुकदमे के बारे में समझा रहे थे। बजरी पर कार के पहियों की सरसराहट से नजर उठी। कचहरी में नरेन्द्र का आना अप्रत्याशित! बेटे का चेहरा देख और घबराहट। पिता की आँखों में प्रश्न, नरेन्द्र भराये गले से अधूरे वाक्य बोल पाया।
कोहली की पलकें मुँद गयीं। कुछ पल मौन। पलकें खुली तो छलछला आयी आँखें रूमाल से पोंछ लीं। गहरी साँस ली, "वाह रे कालवे तकदीर! कैसी-कैसी तकदीरें लिखी। तूने।" फिर दो पल मीना गहरी सांस लेकर महेन्द्र की ओर देखा, "पेशकार को दूसरी तारीख के लिये अर्जी देकर जल्दी आओ।"
कचहरी से निकल कर बाबू ने गाड़ी रुकवायी। महेन्द्र को हस्पताल जाने का परामर्श दिया, "पुलिस से इजाजत वगैरह लेने और दूसरे प्रबन्ध में डाक्टर रजा को मदद की जरूरत होगी। वहाँ से छोटी गली में ले आना।"
नरेन्द्र को अमीनाबाद चलने का संकेत।
कोहली चिन्ता में थे, रतनलाल भाई को समाचार कैसे देंगे? बाबू और नरेन्द्र के चेहरे देखकर सेठ जी का हृदय दहल गया, कठिनाई से पूछ पाये, "क्या हुआ?"
"दुकान बढ़वा दीजिये घर चलिये।" बाबू ने समाचार किश्तों में दिया।
सेठ जी के हाथ-पाँव डीले लगभग अर्द्धचेतन नरेन्द्र और मुनीम नेतराम ने उन्हें सहारा देकर गाड़ी में बैठाया।
परसू ने गली में खबर पहुंचा दी थी। कुछ पल में समाचार फैल गया। हरि भैया परसू के साथ ही आ गये थे। सेठ जी के गले में बाँह डालकर फूट-फूटकर रो दिये। सेठ जी की आँखें खुश्क अर्द्धचेतन, निडाल। गली की स्त्रियों आँगन में भर आयी थीं। कोहलियों के आँगन से दोनों परिवारों की खियाँ, टंडन- बजाज और खन्ना परिवारों की स्त्रियाँ, मास्टरनी, अग्रवालों के यहाँ से, साहबसिंह और रामसहाय के घर से भी बुआ छाती पीट-पीटकर सिर नोच रही थी। सरीके परिवार की स्त्रियाँ पुराना बैर भुलाकर आ गयी थीं। वे शोकाचार में सबसे उग्र । हरलाल के पोते गोपीचन्द्र को दुकान पर सूचना के लिये भेज दिया था।
दारुण शोक में भी रीति व्योहार निवाहना आवश्यक बाबू को उसका ध्यान दूसरी आशंकाएँ भी। नरेन्द्र को परामर्श दिया, “हस्पताल से शरीर यहाँ आयेगा । बिरादरी यहाँ ही जुड़ेगी। अर्धी यहाँ से उठेगी। बहू के लिये यह सब कठिन जरूर, परन्तु रीति-व्यौहार के समय बहु का यहाँ होना बहुत आवश्यक उसे ले आओ। पोते को देखकर रतन भाई को कुछ डास होगा।"
नरेन्द्र ने गौरी की सहायता से उपा और बेबे को छोटी गली के आँगन में पहुँचाया। एकत्र स्त्रियों के लिये उषा अजानी। मास्टरनी भावो पुष्पा की हृदय विदारक चीखों से दूसरी स्त्रियों ने पहचाना तो क्रन्दन- विलाप और छाती पीटने का उपक्रम बहुत तीव्र गंगा और सरीके की स्त्रियों के दुहत्थे सिर और छातियों पर जोर से पड़ने लगे। उषा हिन्दू
विधवा के वेश में सुबह पहनी सफेद साड़ी अब तक मसली मैली।
गौरी की नजर विधवा भाभी के हाथों पर गयी। शरीर पर कोई जेवर न था। कलाइयों पर केवल काँच की लाल चूड़ियाँ, वही जो न होनी चाहिए थीं। गौरी ने हाथ बढ़ाकर चूड़ियाँ कड़का कर गिरा दी। चीख पड़ी, "हाय भैया!" स्वयं उसी ने भाभी को अपने हाथों कांच की चूड़ियाँ पहनायी थीं, उन्हीं हाथों तोड़ीं। यह उषा का पति के पैतृक घर में प्रथम प्रवेश-स्वागत।
समाचार पाकर किशनलाल, लक्ष्मीचन्द, दीपचन्द भी आ गये। उनके आँसू और बिलखना अति विह्वल। साढ़े चार तक मास्टर जी स्कूल से आ गये। अन्य लोगों के साथ झमनी गली से सर्राफ जगतराम कपूर भी आ गये। बिरादरी के हर्ष-विषाद के अवसर पर उनका परामर्श और निर्देश मान्य होते थे।
सेठ जी दुकान से आकर मसनद पर गावतकिये के सहारे लुड़क गये थे। अब भी उसी स्थिति में, हलकी लाल आँखें, दीर्घ निश्वास बाबू उनका शोक पिपला देने के प्रयन में बार- बार स्वयं आँखें पोंछते, पोते को उनकी गोद में दे देते। पोते को सीने से लगाकर सेठ जी की आँखें रिसने लगतीं।
पाँच बजे महेन्द्र, डाक्टर रज़ा और तिवारी एम्बुलेंस में डाक्टर अमरनाथ का शरीर लेकर आये। शव परीक्षा के बाद शरीर को पुनः सी बाँधकर जोड़ दिया गया था। रज़ा, तिवारी और मेहन्द्र ने हस्पताल के समीप चौक से सफेद कोरा कपड़ा और तख्ता मँगवा कर शरीर को कफन में लिपटवा कर तख्ते पर बँधवा दिया था। रीति अनुसार श्मशान यात्रा से पूर्व शरीर का स्नान आवश्यक था। रजा और तिवारी ने महेन्द्र की मार्फत बाबू और जगतराम कपूर को सावधान कर दिया शरीर पर लपेट कर बँधा कफन न हटाया जाये। क्षत-विक्षत शरीर को देखना और सम्भाल सकना आप लोगों के बस का न होगा। कपूर की अनुमति से शरीर से कफन हटाकर स्नान कराने के बजाय उस पर गंगाजल के छींटे दे देना पर्याप्त समझा गया।
तख्ते पर सफेद कफन में लिपटे शरीर को घोड़ी से आँगन में ले जाते समय उस पर सेठ जी की नजर पड़ गयी। "आह" हृदय विदारक कराहट। श्वास में रुकावट से उठ बैठे। बाबू समीप थे, उन्होंने फिर लिटाने का यन किया। सेठ जी श्वास में कष्ट के कारण लेट सकने में असमर्थ, चेहरे पर विकट पीड़ा की ऐंठन रजा और तिवारी को बैठक में बुलाया गया। डाक्टरों की जेब में स्टेथिस्कोप मौजूद डाक्टरों के विचार में सेठ जी को माईल्ड हार्ट अटैक
पंडित आधी छुट्टी के बाद पहला पीरियड पढाकर दसवीं कक्षा से निकले तो उनके सामने अमित आ गया। अमित का चेहरा, लाल आँखें भीगी पलकें देख पंडित अवाक् । अमित ने संक्षेप में समाचार दिया। पंडित ने आँखें मूँद गर्दन झुका ली, कुछ पल प्रार्थना में मीन। बेटे को प्रतीक्षा का संकेत कर छुट्टी के लिये दफ्तर की ओर चले गये।
पंडित कॉलेज से शेष समय की छुट्टी लेकर घर पहुँचे। समाचार से मिसेज़ पंडित की आँखों से झड़ी बेटी के इस शोक संकट में उसकी उपेक्षा न कर सकते थे। अमित ने बता दिया था, डाक्टर कोहली, उपा, बच्चे और बेबे को छोटी गली ले गये हैं। शव यात्रा यहीं से
होगी। पंडित दो-तीन अवसरों पर हिन्दू लोगों के यहाँ ऐसे सोग के समय जा चुके थे। जानते थे, सोग अनुष्ठान की रीति, दोनों बिरादरियों में बहुत भिन्ना हिन्दू बिरादरी में ऐसे समय भी मर्द और त्रियाँ पृथक-पृथक इकट्ठे होते हैं। बेटी को सांत्वना देकर धैर्य बंधाने के लिये उसके समीप जा सकने को अवसर हो सकेगा? अमित पहले साइकल पर छोटी गली जाकर नरेन्द्र से बात कर आया।
अमित पिता-माता को तोंगे पर लेकर सूर्यास्त के समय छोटी गली पहुँचा। नरेन्द्र ने बाबू से पंडित का परिचय कराया। हरी भैया पूर्व परिचित थे। दामाद का शव अर्थी पर बाँधा जा रहा था। अँधेरा घिरा आ रहा था। उन दिनों अर्थी 'स्वर्ग विमान पर श्मशान ले जाने का रिवाज चालू न हुआ। अर्थी दो-चार छः मील कंधों पर उठाकर ही ले जायी जाती थी। सम्बन्धी, समीप मित्र बारी-बारी से कंधा देते जाते। अँधेरे के उपाय के लिये कई बड़े- बड़े पेट्रोमैक्स मंगवा लिये गये थे। लैम्पों को सिर पर उठाकर अर्थी के साथ चलने के लिये मजदूर।
उपा आँगन में रोती- कलपती स्त्रियों से घिरी थी। नरेन्द्र ने मिसेज़ पंडित को आंगन में पहुँचा दिया। बेवे ने आगे बढ़ मिसेज पंडित को बाँहों में लिया। दोनों ऊँचे स्वर में रो दीं। विहवल माँ बेटी को बाँहों में लेकर बिलखी। तीन बरस बाद, बेटी के विवाह के उपरान्त पहली भेंट बेटी के वैधव्य के अवसर पर माँ को पहचानने में उषा को पल भर लगा।
पंडित स्त्रियों की भीड़ में कैसे जाते । उपोळी से बेटी को माँ की बाँहों में सिसकते देख रहे थे। आँसुओं से तर रूमाल और आंसू सोख सकने के लिये बेकाम ।
बाबू का ध्यान लक्ष्मीचन्द और दीपचन्द की ओर गया। दोनों ने चाचा डाक्टर अमरनाथ का दाह कर्म करने के लिये नाई बुलवा कर सिर मुंडवा लिये थे। रीति के अनुसार उचित ही था। पड़ोसियों को सरीकों के पुराने व्यवहार भुला नहीं गये थे। सरीकों की इतनी शोकविह्वलता पड़ोसियों के लिये अप्रत्याशित |
औषध की सूई के प्रभाव से सेठ जी की अवस्था सम्भल रही थी। अर्थी आँगन से गली में निकाली जाने लगी। विलाप और छाती पीटने के कोलाहल में ज्वार बाबू ने अर्थी सेठ जी की नज़र से बचाने के लिये बैठक का किवाड़ उड़कवा दिये थे। गली से वैराग्य का तुमुल घोषः राम नाम सत्त है! हरि का नाम सत्त है! राम नाम बोले सत्त है!
पंडित ने पलकें मूंद, गर्दन झुकाकर मौन प्रार्थना की तुम्हारी देन तुम्हें समर्पित राख में राख धूल में धूल ।
'राम नाम सत्त है' की हुंकार से सेठ जी को दूसरा हार्ट अटैक ऐसी अवस्था में बाबू श्मशान कैसे जाते । महेन्द्र, नरेन्द्र अर्थी के साथ श्मशान गये। बाबू डाक्टरों के साथ बैठक में
रहे।
अर्थी विदा हो जाने के बाद आँगन से अधिकांश स्त्रियों चली गयीं। पंडित ने आँगन में जाकर बेटी के सिर पर हाथ रख उसे हृदय से लगा लिया। धैर्य के परामर्श के सिवा और क्या कह सकते थे। उषा डैडी के सीने पर सिर रखे हिचकियों से बेहाल। उपा को ऐसी अवस्था में छोड़कर जाते भी माँ की छाती दरक रही थी। चाहती थी, बेटी और नाती को साथ ले जाती परन्तु मजबूरी!
माँ अर्द्धचेतना में भी बच्चे को नहीं भूल सकती। प्रताप का सुबह से रो-रोकर बेहाल होते रहना असह्य स्थिति को और विकट बना रहा था। बच्चा चारों और सबको रोते देख बार- बार रो देता। उसे डंडी याद आ रहे थे। साँझ तक चेहरा मुर्झा गया था। मिसेज़ पंडित स्वयं नाती को साथ ले जाने की चिन्ता में बेबे बच्चे को दो-चार बार घंटे दो घंटे के लिये उसकी नानी के यहाँ ले जा चुकी थी। प्रताप नानी से हिला न था। उसके साथ कैसे चला जाता। बेबे बच्चे को लेकर पंडित के साथ चली गयी। मिसेज पंडित रात बेटी के साथ ठहर गयीं।
अर्थी ले जाने वाले लोग श्मशान का कर्मकांड पूरा कर रात ग्यारह तक लौट पाये। सेठ जी की अवस्था वैसी ही बाबू ने रज़ा और तिवारी के खाने के लिये यहाँ प्रबन्ध करवा दिया था। दोनों डाक्टर सेठ जी के सिरहाने बने रहे।
रात एक बजे फिर पड़ोसियों ने गंगा के रो-रोकर बैठे गले से मृत्यु- सूचक चीख सुनी। पड़ोसी बटुर आये। विलाप, रोने-पीटने का दूसरा दौरा
• पंडित और अमित सुबह सूर्योदय के समय मिसेज पंडित और उपा के लिये प्रातः के लिये आवश्यक चीजें लेकर आये तो गली में फिर अर्थी की तैयारी देखी। सर्राफ जयराम कपूर फिर लाल अंगोछा कंधे पर रखे हरि भैया के साथ प्रबन्ध में व्यस्त। हरिभैया की आँखें और अधिक सूजी हुई और सुख अब किशनलाल, चाचा की अग्रिदान की तैयारी में अपनी ड्योड़ी से लगे चबूतरे पर नाई से सिर मुँहवा रहा था। आँगन में उपा रोती-बिलखती स्त्रियों से घिरी हुई थी। पंडित का अनुमान, दो-तीन घंटे से पूर्व अर्थी न उठ पायेगी। पंडित आधे घंटे तक नरेन्द्र, महेन्द्र, हरि भैया, वकील साहब के सम्मुख सम्वेदना प्रकट कर उठ गये।
पंडित ग्यारह बजे आये तो सेठ जी की अर्थी जा चुकी थी। उषा रात भर सो न सकी थी। वही हालत मिसेज़ पंडित की। उपा के चेहरे पर महीनों की बीमारी का पीलापन । मृत्यु के बाद हिन्दू परिवार अशुद्ध हो जाते हैं। उस अवस्था में खाट पलंग या गद्दे बिस्तर पर लेटना सोना वर्जित । मिसेज़ पंडित को फर्शी चटाई पर नींद कैसे आती।
पंडित और मिसेज़ पंडित ने बात की अब लड़की के लिये यहाँ क्या है? जो ईश्वर को मंजूर था। बेटी ऐसी विकट मानसिक-शारीरिक यातना में कैसे जी पायेगी। उसे अपने यहाँ ले जाने के लिये व्याकुल, परन्तु किसी को कहे-सुने बिना कैसे ले जाते। ब्याही लड़की पराया धन इस समय बाबू भी श्मशान गये थे।
पंडित बेटे के साथ चार बजे फिर आये। बैठक का ढंग बदल गया था। फर्शी दरी, गद्देदार मसनद, गावतकिये कुछ नहीं। दीवारों के साथ और बीच में चढाइयाँ और शीतलपाटी। कर्ता के स्थान पर मुँह मुड़ाये किशनलाल चटाई पर बैठे थे। उनके समीप लक्ष्मीचन्द और दीपचन्द। उनके सामने चटाइयों पर अन्य, पाँच-सात व्यक्ति। चेहरे पर शोक की स्तब्धता, सहानुभूति । आँगन में सिर झुकाये स्त्रियाँ उन्हीं में उषा और उषा की माँ स्त्रियों कुछ-कुछ देर बाद रोने लगतीं। पंडित और अमित के लिये सब अपरिचित । पंडित अन्य लोगों की तरह जूते दरवाजे के समीप छोड़कर चटाई पर बैठ गये थे।
पंडित के सामने बैठ जाने पर किशनलाल बोलने लगा, "हमें तो उनका ही सहारा था। थे तो चाचा पर हमने बाप की जगह जाना-माना। सेहत कुछ बुरी नहीं थी। उम्र भी इकहत्तर कुछ ज्यादा नहीं होती। बस लड़के का गम ले गया। लड़के को बहुत अरमानों से डाक्टरी पढ़ाई थी। लड़का हमारे घर का सूरज । हमारे लिये तो अब सब अँधेरा
भगवान
को जो मूंजर था!" किशनलाल ने कंधे से अंगोछा ले आँखों पर दबा लिया। आकाश की ओर हाथ जोड़ दिये, "शिव शम्भो शिव शम्भो !"
किशनलाल ने बात समाप्त की ही थी। दो अन्य व्यक्ति शोक के लिये आकर बैठ गये, "हमने तो अभी सुना, जैसे नीले अम्बर से बिजली गिरी। हे भगवान ये कैसे! बीमारी की तो कोई खबर नहीं थी।”
किशनलाल फिर आँसू पोंछ गहरे निश्वास से बोलने लगे, "हमें तो उनका ही सहारा था।" वे ही शब्द वही क्रम शिव शम्भो ! शिव शम्भो !"
बैठक से उठकर पंडित नरेन्द्र कोहली के मकान की ओर गये। नरेन्द्र घर पर ही था। नरेन्द्र को बुलवा कर पंडित ने बेटी को साथ ले जा सकने के विषय में बात की।
नरेन्द्र पंडित को बैठक में ले गया, "मास्टर साहब, मैं आपसे सहमत हैं। उषा के संस्कार- अभ्यास के लिये यह स्थिति असह्य, लेकिन ऐसी समस्याओं के कई पहलू होते हैं। पिता ठीक राय दे सकेंगे।" नरेन्द्र ने पिता को बुला लिया।
पंडित के आने से पूर्व आशंका का कुछ आभास मिल गया। किशनलाल लड़कों के साथ श्मशान से दो बजे लौटा था। लौटते ही बहू के हाथ गंगा को संदेश भिजवाया जो मुसीबत आन पड़ी, झेलनी ही होगी। संसार के काम तो चलेंगे ही। कागजात की आलमारी और तिजोरी की चाबी दे दें। देख लिया जाये किससे लेना, किसका देना। इन बातों में देर ढील ठीक नहीं होती।
गंगा की जबान बहुत तेज बुद्धि उतनी नहीं। रात सेठ जी के पूरे हो जाने का समाचार पाकर भावो, बहू और दूसरी खियों के साथ सेठ जी के यहाँ आ गयी थी। भावो गंगा की समझ से वाकिफ उन्होंने रो-रोकर छाती पीटती बेहाल गंगा को उसी समय सतर्क कर दिया था, "बहिना, बहू कुछ समझती नहीं। तुम उठकर पहले कागज-पत्तर और तिजोरी की चाबियाँ सम्भालो " गंगा सीधी थी पर खत्रियों की बेटी वह वह सरीकों का पिछले तीस बरस का व्यवहार भूल न गयी थी उस बेहाली में भी सतर्क हो गयी। बैठक के साथ के कमरे में जाकर आलमारी में एक अच्छा मोटा ताला जड़ दिया। आलमारी की और तिजोरी की चाबी अपनी कमर में खोने थी। सरीक बहू सन्देश लेकर आयी तब भी भावो वहीं थी । गंगा ने सरीक बहू को जवाब दिया, "हमें क्या समझ कागद-पत्तर की हम अभी सब कुंजी चाबी देखकर भिजवाये देते हैं।" सरीक बहू के जाते ही गंगा ने चाबियों भाबो को सहेज दीं, "भाभी, कुंजियाँ तुम अपने यहाँ ले जाओ।"
पंडित का निवेदन सुनकर कोहली बोले, "आपकी चिन्ता, भावना से हमें पूरी सहानुभूति। अपने मित्र की बहू और पोते के प्रति हमारा भी कर्तव्य है। " कोहली ने बताया: इस समय बेटे को लेकर यहाँ से बहू के जाने का मतलब अपनी लाख सवा लाख की विरासत पर सरीकों को कब्जा देने के लिये निमंत्रण हम इन लोगों की नस-नस से बाकिफ ये लोग तो श्मशान से लौटते ही चाबियाँ और कागजात हथियाने की चिन्ता में। इनसे सभी कुछ की आशंका। बहू को जायदाद सम्पत्ति का मोह न हो, परन्तु यह उसका ही नहीं, उसके बेटे का हक है। अबोध बालक के साथ अन्याय नहीं होना चाहिये। नाती के हक की रक्षा में सहायता आपका भी कर्तव्य।
पंडित को जमीन-जायदाद की चिन्ता और झगड़ों से कभी वास्ता न पड़ा था। स्वीकार किया: आप जैसा उचित समझें। अब आप हमारी बेटी के अभिभावक हम इन बातों से नावाकिफ बेटी की सहायता के लिये जो आप कहें, हमारे बूते में हो प्रस्तुत हैं।
बाबू कुछ देर विचार कर बोले, "बहुत अच्छा हुआ, आपसे ये जिक्र हो गया। आठ-साडे आठ के करीब फिर जरूर कष्ट कीजियेगा। उस समय हम आपके साथ चलकर बहू से बात कर लेंगे।"
सवा आठ बजे पंडित अमित फिर आये। समाचार पाकर बाबू और भावो उषा के यहाँ आ गये। उन दिनों लोग सम्वेदना के लिये सूर्यास्त के पश्चात् न जाते थे। बैठक में केवल किशनलाल का लड़का लक्ष्मीचन्द चटाई पर पसरा हुआ था।
बाबू ने लक्ष्मीचन्द को पंडित और अमित का परिचय दिया, "ये बहू के पिता और भाई है। उसके लिये खाना लेकर आये हैं।"
लक्ष्मीचन्द उठ खड़ा हुआ, "आप लोग बैठे हैं, तब तक हम भी दो कौर निगल आयें। बुआ के लिये भिजवाये देते हैं।"
उषा, मम्मी दुआ दिन भर सोग-सम्वेदना के लिये आकर बैठने वाली खियों के साथ बैठी बैठी थक गयी थीं। अब चटाइयों पर कमर सीधी कर रही थीं। मदों के आने से उठ बैठीं।
"बेटी, तुम्हें दो मिनट तकलीफ देंगे।" बाबू पंडित और अमित के साथ पालथी से चटाई पर ही बैठ गये। संध्या पंडित से बात का प्रसंग, उषा को समझाया, माना तुम आत्मनिर्भर होने में समर्थ हो लेकिन प्रताप के हक की रक्षा भी तुम्हारा कर्तव्य है। सरीकों से सब प्रकार की आशंका। तुम बुआ को साथ लेकर आलमारी से कागजात और तिजोरी से नोटों की शक्ल में रोकड़ और सोने का भारी गहना निकाल लाओ। गहना रोकड सब तुम्हारा और प्रताप का हक" पंडित की तरफ देखा, "बेटी और नाती के हित में यह सब अपने साथ लेते जाइये।" भावो तिजोरी और आलमारी की चाबियाँ साथ लेती आयी थी।
बुआ और उषा चाबियों लेकर भीतर गयीं। आयीं तो झोलियाँ भरी हुई थीं। सोने के दो- सवा दो सेर जेवर, छोटा कटोरदान भर मिश्री आठ हजार के करीब करेंसी नोटा बुआ ने बताया, "डाई तीन पसेरी चाँदी और चेहराशाही रुपया है सो कैसे उठायें?
""दो-ढाई हजार का होगा।" बाबू ने अनुमान प्रकट किया, "अभी रहने दीजिये, फिर देखा जायेगा। यहाँ तुम लोगों को खर्च भी चाहिये।"
इतना रुपया जेवर देख पंडित परेशान, "इसका हिसाब लिख लिया जाये।"
"उसके लिये समय नहीं। आप स्वयं लिख लीजियेगा। आप इसे टिफिन कैरियर में भरिये। जीजी, " गंगा की ओर देखा, "कोई थैला बैला निकाल दो इन्हें बेहतर है हम लोग जल्दी चलें। किशनलाल और उसके लड़कों के आने के पहले वे लोग ड्योड़ी बन्द कर लें। उन लोगों को रात बैठक में आने देना मुनासिब नहीं। "
कुछ देर बाद लक्ष्मीचन्द और दीपचन्द ने इथोड़ी के किवाड़ खटकाये। वे बैठक में सोने के लिये आये थे। बुआ ने बैठक की खिड़की से उत्तर दिया, "मैये, यहाँ बैठक में बहू और हम लोग पौड़ रही हैं। आँगन में हरिया, परसू हैं। इस बखत तुम तकलीफ न करो। "
दूसरे दिन सुबह आठ से पहले किशनलाल, लक्ष्मीचन्द दीपचन्द नहा-धोकर बिरादरी- बाजार से आने वाले मर्दों की सम्वेदना सहानुभूति स्वीकारने के लिये आये तो हैरान। बैठक
में बिछी चटाइयों पर बीच में उपा, उसके समीप बुआ, भाबो, टंडन दादी और हेमराज की माँ बैठी थीं। मर्द केवल दो दीवार के साथ चटाई पर हरि भैया और मास्टर जी का दूसरा बेटा वेदप्रकाश ऊँचे स्वर में गीता पाठ कर रहे थे। बैठक में धूप अगर के पवित्र धुएँ की महक। किशनलाल अकबका कर लड़कों के साथ पीछे हट गया। औरतों से क्या मुँह लगता!
सरीकों की ओर से पुरखित हरलाल की विधवा दो बहुओं के साथ आयी। बैठक में मर्दों की जगह औरतों को आसन जमाये देखकर विस्मय-विरोध में भाबो और टंडन दादी को सम्बोधन किया, "ई कौन नई रीत! जनाना का कायदा भीतर आँगन में बैठे का मर्द लोग अइहैं तो किनसे बोलें बतियायेंगे?" प्रौढा ने उपा को लक्ष्य किया, "वह हम लोगों में जनाना मर्दों के सामने नहीं आती।"
उत्तर दिया भावो ने, “पना की दादी, रीति जो है सो है; वह बेचारी क्या करे? घर में मर्द तो उसका दो बरस का बेटा भाग्य ने उस पर जैसी डाल दी, निवाहेगी। मर्द आयेंगे, उधर चले जायेंगे। किशनलाल भैया उधर बैठ जायें। यहाँ जनाना बैठ गयीं।"
पत्रा की दादी ने विरोध किया, "महिन्दर की माँ, ऐसा अनरथ तो कभी नहीं देखा कि जनाना मर्दों से आगे बढ़के चलें ।" लक्ष्मीचन्द दीपचन्द की बहुएं भी विरोध के लिये बढ़ीं।
गीता पाठ करते वेदप्रकाश की करारी आवाज, "पाठ के समय ये क्या हल्ला!"
टंडन दादी ने अपनी सूखी बाँह फटकार की मुद्रा में उठाकर ललकारा, "जाओ जाओ, बहुत न सिखाओ! जिस पे जैसा बखत आयेगा, जिस पे जैसा सरेगा कल्लेगा। तुम कहाँ की सरपंच! जाओ बैठी अपने हियों, तुम लोगों का सब जानते हैं ।" भावो ने टंडन दादी से पहले बात करके उसका समर्थन सहायता प्राप्त कर ली थी। वर्ना वो सरीकों की ओर से बोलती।
"क्या हुआ, क्या हुआ?" मास्टरनी गली लाँघकर आ गयी, “हे भगवान ये बखत ऐसे लड़ाई-झगड़े का! भगवान से डरो !"
टंडन बजाज, मास्टर जी, खन्ना, साहबसिंह, अग्रवाल सभी गली में निकल आये। सभी घरों की खियाँ उत्सुकता से ड्योड़ियों या ऊपर खिड़कियों में से झाँकने लगीं। हरि भैया ने पाठ छोड़कर उठकर पुकारा, "शान्ति शान्ति !”
मास्टर जी ने किशन लाल के दरवाजे पर पुकारा, "किशनलाल भाई जी, ये क्या हो रहा है! आप भाभीजी को समझाइये। अपने घर में जो जैसा निबाह पाता है, करता है। " • टंडन बजाज ने मास्टर जी का समर्थन किया। पड़ोसियों को कुछ तो सध्य विधवा से सहानुभूति, तिस पर यह कैसे सह लेते कि किशनलाल और उसके बेटे भतीजे संतमेंत में इतना बड़ा मकान-सम्पत्ति बटोर लें।
किशनलाल लक्ष्मीचन्द दीपचन्द अपने विरुद्ध गली के लोगों का षड्यंत्र भाँप गये। उस समय स्थिति हाथ से फिसल गयी थी। घर भर के मर्दों का सिर मुंडा लेना व्यर्थ गया। दीपचन्द्र ने ऊँची आवाज में अपने घर की स्त्रियों को पुकारा "ताई, चलो तुम लोग अपने यहाँ बैठो। घर में झगड़े कराने वालों को भी हम देख लेंगे।"
सरीके की औरतों को मोर्चे से हटना पड़ा। लेकिन हार का विष मौन कैसे निगल लेतीं! अन्योक्ति से गालियों पर आ गयीं। सबसे पहले वकील कोहली पर पड़ोस में काले साँप की
बाम्बी का कटाक्ष और फिर दिवंगत सेठ जी के कुकर्मों का आख्यान: जैसे बाप तैसे पूत मलेच्छनी लायके बिठा ली जहान बाजार के मैले रिझाने वाली सोग मनाने बैठी। पन्ना दादी की बात बिलकुल गलत न थी। बिरादरी बाजार के मर्द सोग सम्वेदना के कर्तव्य के लिये आने लगे। बैठक में चटाइयों पर बैठी या सुबकती औरतों को देखकर अचकचा कर पीछे हट जाते। बाबू के सुझाव से हरिया और कुछ समय वेदप्रकाश गली में खड़े थे। सम्वेदना के लिये जाने वाले मर्दों को किशनलाल की योड़ी की ओर संकेत कर देते।
रतनलाल सेठ के बेटे और स्वयं उनकी मृत्यु के शोक में उनकी सर्राफ की दुकान बन्द श्री सेठ जी का मुनीम दुकान के ऊपर कोठरी में और गुमाश्ता और चौकीदार जौहर जीने के नीचे रहता था। सरीकों ने मुनीम से दुकान की चाबियाँ माँगी। मुनीम नेतराम चाबियाँ मालकिन बहू (उषा) के सामने सौंप देने को तैयार था उसकी आज्ञा बिना नहीं। सरीक मदद के लिये आदमी लेकर गये थे। उन्होंने दुकान के ताले पर जबरन अपना ताला डाल दिया।
तीसरे दिन उपा की ओर से अदालत में सरीकों के खिलाफ मदाखलत बेजा के लिये दावा दायर कर दिया गया।
अदालत में उपा का आवेदन में उषा सेठ और मेरा पुत्र प्रताप सेठ अपने स्वर्गीय पति और मेरे पुत्र के स्वर्गीय पिता डाक्टर अमरनाथ सेठ, पुत्र स्वर्गीय रतनलाल सेठ की संपूर्ण चल-अचल सम्पत्ति के जायज कानूनी वारिस हैं। हमारे सरीकों (सरीकों के नाम और धाम) ने जिनका कि तत्कालीन पारिवारिक सम्पत्ति और कारोबार के बँटवारे के बाद से मेरे स्वर्गीय ससुर और स्वर्गीय पति से कोई सम्बन्ध न था, न उनकी सम्पत्ति और कारोबार पर कोई हक और सम्बन्ध था, बदनीयत से मेरे ससुर की दुकान पर अनधिकार ताला डालकर मेरी और मेरे बेटे की सम्पत्ति पर अन्यायपूर्ण कब्जा कर लिया है। सरीकों को अदालत नाजायज ताला हटवाने का आदेश देकर मेरे और बेटे के कानूनी अधिकार की रक्षा करे । इस शिकायत के साथ स्वर्गीय ससुर की विरासत के उत्तराधिकार पत्र के लिये भी आवेदन दे दिया गया।
उसी दिन रात बाबू ने सेठ जी के साईस गुने को आदेश दे दिया, सुबह पौ फटते पर इक्का जोत कर तैयार रखें। सुबह मास्टर जी के साथ सैर के लिये जाते ही थे। उस सुबह पैदल जाने के बजाये इक्के पर बैठे। सामने चुन्नीलाल खन्ना और पुत्तीलाल रस्तोगी सैर के लिये जाते दिखायी दिये। बाबू ने दोनों को अनुरोध से पुकार लिया, “आइये, इक्के पर आ जाइये, आपकी मदद की जरूरत है।" पास-पड़ोस में बाबू का सम्मान था। मुहल्ले के दोनों पड़ोसी साथ हो गये। बाबू ने दबे स्वर में प्रयोजन बता दिया।
चुन्नीलाल खन्ना और पुत्तीलाल रस्तोगी गवाह रहे। बाबू ने भैंसाकुण्ड श्मशान के अचारज को पुकार कर अपना परिचय दिया। बाबू और मास्टर जी ने डाक्टर अमरनाथ सेठ और रतनलाल सेठ की चिताओं से अस्थियों चुनीं और गायत्री मंत्र पढ़कर दोनों की अस्थियों का गोमती में प्रवाह कर दिया। मास्टर जी ने नदी के किनारे बैठकर शान्ति पाठ के मंत्र पड़े। अचारज को उदार दक्षिणा देकर नोट करवा दिया— डाक्टर अमरनाथ सेठ और उसके पिता रतनलाल सेठ की अस्थियों, दाह-संस्कार के चौथे दिन आर्यसमाजी रीति से
नदी में विसर्जित कर दी गयीं।
बाबू, मास्टर जी, चुन्नीलाल पुत्तीलाल भैंसाकुण्ड से लौट रहे थे। आधे रास्ते में किशनलाल और दीपचन्द उसी और जाते हुए दिखायी दिये। इन लोगों को देख उनके चेहरे
फक
बाबु ने बहुत उदारता से बतायाः आप लोगों का आने का विचार था तो कह दिया होता. इक्के पर साथ आ जाते। हम लोगों ने फूल चुनकर प्रवाह कर दिया। सेठ भाई तो वैदिक रीति मानते थे।
"आप लोग चलिये। हम अपना काम निबटा कर आ जायेंगे।" किशनलाल ने कह दिया। बाबू ने लौटकर पिता-पुत्र के फूल नदी में प्रवाह कर देने की सूचना गली में सब लोगों को दे दी।
किशनलाल और दीपचन्द भैंसाकुण्ड से लौटे तो डोरी के फंदे में बँधी कोरी हांडी हाथ में लटकाये थे। उन्होंने बताया, रतनलाल भाई और अमर के फूल चुन लाये हैं। हरिद्वार जाकर गंगा जी में बिसर्जन करेंगे। उसके साथ धमकी, हमारे रिश्तेदारों के फूल चुनने का क्या हक!
पंडित और अमित सूर्यास्त के समय उषा और प्रताप का हाल-चाल देख जाते थे। पिछली साँझ बाबू ने उन्हें बुलवा लिया था। मास्टर भी थे। बाबू ने पंडित से बात की हिन्दू रूढ़ि से तेरह दिन तक अशुद्ध रहकर धरती पर सोना और दूसरी रीति निबाहना उपा के लिये कठिन होगा। वैदिक रीति से चौथे दिन हवन कराकर गृह-शुद्धि कर दी जाये। इस योजना में हरि भैया और कुछ दूसरे सहानुभूति रखने वालों का भी सहयोग था।
उषा ने चार दिन से सिर न कंघी की थी, न ब्रश केश उलझ कर बहुत विरूप हो रहे थे। मास्टर जी ने समझाया, "बहू, तुम्हें हवन पर बैठना है। हवन पर नहा-धोकर, शुद्ध होकर बैठा जाता है। सिर धोकर बाल बाँध लो "
उषा सिर धोकर आँगन में चटाई पर बैठी उलझे बाल कंघी से सुलझा रही थी। सरीकों के आँख-कान-नाक सब इस ओर की गतिविधि के लिये सतर्क!
आँगन के दूसरी ओर से नरीकों के विरोध उपालम्भ के ऊँचे बोल: कल रॉड हुई। चार दिन सबर नहीं। कंधी-पट्टी सिंगार शुरू।
बुआ भड़क कर सरीकनियों को रॉड हो जाने का शाप देने लगी। उषा को भी क्रोध आ गया। अमित और परसू हास्पिटल रोड की बैंगलिया का सामान समेट समेट कर ला रहे थे। सुबह सिलाई की पिटारी ले आये थे। उषा ने उठकर पिटारी से कैची ले ली। गर्दन से ऊपर बालों की एक मोटी लट पकड़ी और कच से काटकर फेंक दी, फिर दूसरी, तीसरी चौथी लट काट रही थी मास्टरनी ने दौड़कर उपा के हाथ पकड़ लिये, "बहू, क्या कर रही हो ! ""पागल हो गयी?" उपा से कैची छीन ली, "क्या असगुन कर रही हो ! बेटे की माँ केश नहीं काटती।" उपा जितने बाल काट चुकी थी. शेष रहने देने में कोई संगति न थी। मास्टरनी ने आँसू बहाते उपा के बाल गर्दन तक बराबर कर दिये।
बाबू, हरि भैया और नरेन्द्र के प्रयत्न से दिवंगत आत्माओं की शान्ति और गृह-शुद्धि के हवन में सम्वेदना से कांग्रेसी, आर्यसमाजी और यूनिवर्सिटी के इतने लोग आये कि आंगन में अट न सके। मेहमानों को ड्योढ़ी, बैठक और बरामदे में बैठना पड़ा।
वैदिक रीति और धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर बाबू के इन कानूनी पत्रों का प्रयोजन सरीक खूब समझते थे। अपना क्षोभ कहाँ तक घोटे रहते! आखिर बोल पड़े, "हम इस जाल- फरेब का मतलब समझते हैं। ये सब हमारे बिरादरी खानदान की रीति नहीं है। हमारे चाचा पक्के सनातनी हिन्दू थे। हमारे जिन्दा रहते उनकी जायदाद को कोई हड़प नहीं सकता। चाचा के पोते के सरपरस्त हम हैं। हम सब देख लेंगे"" गली के लोगों के लिये तमाशा । सेठ जी के मकान में मृत्यु उपरान्त चौथे दिन हवन से गृह-शुद्धि कर दी गयी थी। सरीकों के यहाँ परम्परानुसार रतनलाल सेठ और डाक्टर अमरनाथ का क्रिया-कर्म किया गया तेरहवें दिन ।
सेठ जी का देहान्त बैठक में बिछी मसनद पर हुआ था। रीति के विचार से बैठक के फर्श पर बिछी दरी, भारी गद्दा, मसनद, चादर, गावतकिये सब अशुद्ध हो गये थे और आचार्य ब्राह्मण को दान दे दिये गये थे। उषा के सामने समस्या — उससे सम्वेदना के लिये या अन्य प्रयोजन से बात करने के लिये आने वालों को कहाँ बैठाये? नरेन्द्र और अमित ने हास्पिटल रोड की बंगलिया का फर्नीचर भी छोटी गली के मकान में पहुँचा दिया था। उषा ने गलिया की बैठक के सोफा, कुर्सियों, छोटी मेज उस मकान की बैठक में लगवा लिये।
मास्टर जी के आदेश से गुमाश्ता जौहर हवन के लिये आम का सूखा-सुथरा ईंधन लेने रानीगंज गया था। पुल के समीप अब्दुल लतीफ ने जौहर को पुकार लिया, "कहो दद्दा, किधर जा रहे
जौहर का उदास चेहरा देख अब्दुल लतीफ को विस्मय। लतीफ को समाचार देते जौहर की आँखें छलछला आयीं। लतीफ सकते में। जौहर के साथ ही छोटीगली आ गया, परन्तु मकान की ड्योढ़ी पर ठिठक गया। सोच रहा था, हरिया को पुकारे क्या करे। मास्टर जी उसे पहचानते थे। उनकी ओर जाकर आँसू पोंछते पोंछते अर्ज की सेठ जी हमारे लिये बड़े बाप (पिता के बड़े भाई) और अमर छोटे भाई थे। उषा बीबी उसे पहचानती हैं। मातमपुर्सी का अवसर चाहता था। हवन के लिये कई लोग आ चुके थे, बैठक भरी हुई थी। मास्टर जी ने लतीफ को हवन के लिये रोक लिया, "यह भीड़ निपट जाये, तब वह से बात कर लेना।"
पिछले तीन बरस से उपा खाला के यहाँ दोनों ईदों पर पति और बेटे के साथ मुबारक कहने और होली दिवाली पर मिठाई लेकर जाती थी। खाला ने जैसे अमर के जन्म के समय बहू-बेटे के लिये कपड़े और कंगन दिये थे, वैसे ही प्रताप के जन्म पर बच्चे और उपा के लिये कपड़े लागी। उषा को खाला का बाँह में समेट कर सिर माथा चूम-चूमकर दुआ देना, तकियेदार मोद्रे या मसनद पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाना और तर्जे गुफ्तगू बहुत प्यारे लगते थे। खाला से सदा किवाम खमीरे, हिना-खस की महक आती रहती। रतनी की तरह 'अम्मीजान' पुकार कर खाला की बगल में घुस जाती। ईशा को भी उषा से बहुत दुलार। अमर उषा को सामने बैठाकर खिलाती । ईदुज्जुहा के मौके पर रतनी दोनों के सामने बड़े चाल में मसाले महकती बिरवानी परोस देती। अमर चावल-चावल खाता गोश्त उपा के लिये। कटोरदान भर कर अमित-वेवे के लिये हिस्से ले जाती।
अगली सुबह अब्दुल लतीफ के साथ रतनी मातमपुर्सी के लिये आयी। उषा के सिर के बाल कटे, बिना किनारी की चाक सी सफेद धोती में देखकर रतनी ने सिर पीट लिया, "हाय मेरे चञ्च्चा!" उपा को कौली में लेकर चीख से "अम्मू भाई!" पुकार कर रो उठी।
रतनी ने बताया,
"अम्मीजान सुनकर कुछ लम्हे के लिये बेहोश । फिर रो-रोकर बेहाल। आधी रात तक जोर का बुखार और खाँसी का दौरा। सुबह अकबरी दरवाजे से डाक्टर कपूर को बुलाकर दिखाया। भाभी, दवा नहीं खा रही। कह रही हैं हमें नहीं जरूरत दवा की। ऐ अल्ला, हमें ये दिन दिखाने को बचा रखा। मेरा मसीहा मेरा बेटा था।" पिछले चार साल में ईशा ने अमर के नुस्खे के अलावा दूसरी दवा न ली थी। "रट लगाये बैठी हैं, हमें दुल्हिन के पास ले चलो।" डाक्टर कपुर की चेतावनी थी, बुखार टूट जाने पर छः- सात दिन पलंग से न उठे। उन्हें आधे घंटे के लिये भी अकेले छोड़ना नामुनासिव रतनी को जल्दी लौटने की मजबूरी।
उषा के आँसू न रुक रहे थे। लतीफ से अनुरोध, "अम्मीजान से हाथ जोड़कर कह रहे हैं. कि दवा जरूर खायें। अब हमारे सिर पर उनका ही साया। हम आपके साथ उन्हें देखने खुद चलते लेकिन मजबूर हैं। जब तक डाक्टर उन्हें इजाजत न दे, आने की कोशिश न करें।" उपा ने लतीफ को डाक्टर रजा के नाम पत्र दे दिया, 'डाक्टर भाई, अम्मीजान को मेरी सास समझें या माँ उनके लिये जो भी मुमकिन हो, मेरी खातिर गवारा करें।"
ईशा को घर का जीना उतरने लायक होने में तीन सप्ताह लग गये। अब्दुल लतीफ बड़ी डोली पर ईशा और रतनी को लेकर आया। उषा की हालत से ईशा और रतनी का दिल कटा जा रहा था और ईशा की हालत देखकर उपा द्रवित ईशा कुछ बोल ही न रही थी। उषा को सीने से लगाये रोती रही। वही हाल उषा का रज़ा से मालूम हो गया था, बुढ़िया सदमे से बहुत झटक गयी थी कुछ नहीं कहा जा सकता, कब क्या हो जाये! अम्मीजान से सहानुभूति सान्त्वना की अपेक्षा के बजाय उपा उन्हें धैर्य बँधाने के लिये आतुर।
न्याय के लिये अदालत में उषा की दुहाई की सुनवाई के लिये पहली तारीख अप्रैल के दूसरे सप्ताह में मिली।
वकील कोहली का अनुभव और विश्वास, सभी कानूनों की व्याख्या और प्रयोग पर जज की भावना और मानसिक रुझान का प्रभाव अनिवार्य भेद्र कुल की सुशिक्षित सौम्य, सध्य: विधवा, शोकग्रस्त युवती और उसके गोद के बालक के प्रति जज की सहानुभूति और करुणा से सहायता की आशा बाबू का परामर्श था, पेशी के समय उषा बालक सहित अदालत में पेश हो।
ससुर की दुकान पर सरीकों के अन्याय से कब्जे की उपा की शिकायत और ससुर के उत्तराधिकार के लिये प्रमाण-पत्र के लिये आवेदन पर सरीकों की ओर से जवाबी दावा था: इकत्तीस वर्ष पूर्व गृह कलह की उत्तेजना में पारिवारिक सम्पत्ति और कारोबार के बँटवारे के पश्चात् शीघ्र ही स्वर्गीय रतनलाल सेठ और स्वर्गीय रामलाल सेठ के पुत्रों यानी रतनलाल सेठ के सगे भतीजों के परिवार और कारोबार फिर संयुक्त हो गये थे और रतनलाल संयुक्त परिवार के कारोबार के कर्ता थे। रतनलाल सेठ अपने स्वर्गीय पुत्र डाक्टर अमरनाथ सेठ के अधार्मिक आवारा व्यवहार से अप्रसन्न और असंतुष्ट थे। डाक्टर अमरनाथ ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध अपने परिवार से भागी हुई उच्छृंखल आचरण, विधर्मी स्त्री उषा पंडित से विवाह कर लिया था। रतनलाल ने पुत्र का विवाह स्वीकार न किया। कुल-रीति विरुद्ध पुत्र के विवाह से अप्रसन्नता और विरोध के कारण उस विवाह में
सम्मिलित न हुए। रतनलाल ने अपने निर्णय और आदेश की अवज्ञा से असंतुष्ट और खिन्न होकर पुत्र अमरनाथ को परिवार से बहिष्कृत करके उत्तराधिकार से वंचित कर दिया था। अमरनाथ विधर्मी स्त्री उषा से विवाह के बाद सदा परिवार से बहिष्कृत और पृथक रहा। रतनलाल ने बहिष्कृत पुत्र अमरनाथ की विधर्मी पत्नी उषा और उससे उत्पन्न पुत्र को पारिवारिक मकान में कभी प्रवेश नहीं करने दिया। रतनलाल की मृत्यु के बाद उनका अग्निदान रतनलाल के भतीजे किशनलाल सेठ ने वंशक्रमागत हिन्दू परम्परा से किया और रीति अनुसार तेरहवें दिन क्रिया-कर्म सम्पन्न किया। रतनलाल के भतीजे और पोते, भतीजे हरलाल- किशनलाल सेठ और उनकी पुत्र संतानों पर स्वर्गीय रामलाल और स्वर्गीय रतनलाल के श्रद्ध और पिंडदान के धार्मिक कर्तव्य निवाहने का उत्तरदायित्व है। इसलिये रामलाल और रतनलाल के संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति और कारोबार के पूर्ण उत्तराधिकारी रामलाल के पुत्र और रतनलाल के भतीजे स्वर्गीय हरलाल व किशनलाल और उनकी पुत्र संतानें हैं। डॉक्टर अमरनाथ की विधवा और डाक्टर अमरनाथ का पुत्र अमरनाथ की अर्जित सम्पत्ति के अतिरिक्त पारिवारिक सम्पत्ति और कारोबार के उत्तराधिकारी नहीं हो सकते। इस आवेदन पर निर्णय तक डाक्टर अमरनाथ की विधवा या किसी भी व्यक्ति को रतनलाल सेठ की दुकान तथा पारिवारिक चल-अचल सम्पत्ति के उपयोग अथवा बिक्री न कर सकने का आदेश दिया जाये।
अदालत के सामने पर्याप्त साक्षी: दुर्घटना के बाद स्वर्गीय डाक्टर अमरनाथ सेठ का शव उसके पिता रतनलाल सेठ की उपस्थिति में पैतृक मकान में लाया गया था। अमरनाथ की अर्थी पैतृक मकान से उठी। अमरनाथ की पवी उषा अर्थी उठने के पूर्व से उसके ससुर रतनलाल सेठ की उपस्थिति में और उनके ज्ञान में पैतृक मकान में मौजूद थी। अदालत ने उत्तराधिकार के प्रश्न के निर्णय तक के लिये मध्यावधि आदेश दिया दुकान पर दोनों विवादियों के ताले रहें। विवादास्पद सम्पत्ति के लेखा अदालत में पेश किया जाये। उषा ससुर की मृत्यु के समय मकान में थी इसलिये अन्तिम निर्णय तक वह मकान और मकान की भीतर सम्पत्ति की स्वामी मानी जाये। शेष अचल सम्पत्ति के किराये या बिक्री का विवाद के निर्णय तक उसे अधिकार नहीं।
मर्मान्तक शौक की जड़ता में भी कचहरी जाने की मजबूरी उषा के लिये असा यातना और अपमान। कचहरी का समय सुबह दस बजे था। दस से संध्या पाँच बजे तक जाने किस समय पुकार हो जाये। बच्चे को लेकर साढ़े नौ घर से चल दी थी। कचहरी में स्त्रियों केवल मजबूरी में ही जाती हैं। एक पेड़ के नीचे दो देहातिनें धरती पर कूल्हे टेके, घुटने जोड़े, लम्बे घूँघट खींचे सिर झुकाये बैठी थीं। उषा के लिये महेन्द्र ने बार रूम के बरामदे में एक कुर्सी रखवा दी। सफेद साड़ी ब्लाउज में बिना घूँघट कुर्सी पर बैठी औरत आने-जाने वालों के लिये अजूबा। सब उसे घूर घूर कर देखते। प्रतीक्षा में बैठी तो एक बज गया। बार रूम की ओर जाते अपने वकील की ओर कातरता से देखा। वकील ने आश्वासन दिया, कोशिश कर रहे हैं, पेशी जल्दी हो जाये। वर्ना दूसरी तारीख ले लेंगे।
माँ की बाँहों में कैद, ऊब से परेशान बच्चे को सम्भाले रखना और संकटा अपनी भूख- प्यास की तो कोई बात नहीं, परन्तु बच्चे को बार-बार प्यास, कभी पेशाब की हाजत। डाई बजे उसकी पुकार हुई—मुसस्मात ओशा सेठ देवा डाक्टर अमरनाथ सेठ बनाम किशनलाल
सेठ हाजिर हो 5! पुकार के इस तरीके से उषा को अपमान की चोट ।
उपा साढ़े चार बजे अदालत से लौटी। उषा और बच्चा बकान और ऊब से निढाल, चेहरे पर धूल की परत बेबे ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर सांत्वना दी। उपा अदालत के अपमानजनक व्यवहार से देर तक खिन्न।
रज़ा पेशी के बारे में पूछने आया था। दुर्घटना के बाद रज़ा का ढंग अधिक कोमल और आत्मीयता का हो गया था। उषा के लिये भी पिता, माँ, बेबे के साथ वही अधिक समीपी और भरोसे का वह पति-पत्नी में गलतफहमी के रहस्य से परिचित, पति के अन्तिम शब्दों का साक्षी अमर को उस पर इतना विश्वास कि पत्नी के न पहुँच सकने की आशंका में पत्नी के मन का अंकुश दूर करने के लिये गोपनीय अंतिम सन्देश भी उसे सहेज दिया था।
रज़ा की सहानुभूति से उपा का मन भर आया। ओंठ काटकर बोली, "डाक्टर भाई, कचहरी की फजीहत असह्य मुझे इस जायदाद की जरूरत नहीं। अपाहिज नहीं हूँ। अपना और लड़के का पेट भर सकूँगी। जहन्नुम में जायें उत्तराधिकार और जायदाद!" अदालत का अपमान जनक व्यवहार बताते उषा को क्रोध आ गया।
"भाभी तुम सम्पत्ति के लिये नहीं लड़ रही हो।” रज़ा निश्चय से बोला, "अन्याय से बेटे की रक्षा कर रही हो। सरीक तुम्हारे बेटे का हक छीनना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अमर न्याय के लिये लड़ता। अन्याय का विरोध न करना, अन्याय की सहायता।"
उषा को मौन देख रजा ने कहा, "भाभी, बेटे के अधिकार की रक्षा तुम्हारे अमर के प्रति भी कर्तव्य याद है उसके अंतिम शब्द उसने न कहा होता तो भी वह तुम्हारा फर्ज था।" रज़ा उठने को था। उषा ने रोक लिया। रजा ने बैठकर सिगरेट लगा लिया, "भाभी, पश्चात्ताप के लिये कल्पना में खुद को अमर की दुर्घटना का कारण समझकर उदास क्यों हो । इस आत्मपीड़न से, कल्पना में अपराध भावना से क्या लाभ? मन किसी बात से चुटिया जाता है तो व्यक्ति आत्मकरुणा से संतोष चाहता है। आत्मकरुणा स्वयं को झुठलाना है। जानती हो, नरेन्द्र यौं कितना यथार्थ और तर्क-परक व्यक्ति, परन्तु अन्तरतम में सदा से बहुत भावुक इस काल्पनिक आत्माभियोग में वह भी कितना मुर्झा गया है। "
अपनी वेदना में डूबी उपा का ध्यान नरेन्द्र की ओर न गया था। नरेन्द्र कई दिन से न आया था। उपा ने शिकायत भी न की थी।
रजा कहता गया, "उसे बता दिया, अमर की गलतफहमी दूर हो गयी थी। अमर के अंतिम शब्द भी उसे बता दिये, लेकिन उसका कलख दूर नहीं होता। बार-बार वही बात- क्या दुर्भाग्य कि अमर को मुझ पर संदेह हो गया।"
"फिजूल वहम !” उषा ने बात टालनी चाही।
“भाभी, यो वह बहुत ज़हीन, बहुत बेलाग और तार्किक बनता है लेकिन अन्तरतम से बहुत भावुक, नाजुक। एक बार तुम खुद उसे समझा दो।"
रज़ा भाई, आप जो मुनासिब समझें, कीजिये। हम चाहते हैं, सब भूल जायें, खत्म ही हो जायें। बस पप्पू की वजह से "" गहरे श्वास से आँखें मूंद लीं। पलकों की कोरें भीग गयीं।
“भाभी, यह बहुत गलता " रजा ने टोका, "अमर के अंतिम शब्द क्या थे, दुख न मनाते रहना हैव नार्मल लाइफ।"
"लाइफ तो उनके साथ गयी। अब तो जिन्दा रहने की मजबूरी। "
रजा उषा को ऐसी मनःस्थिति में कैसे छोड़ जाता, “भाभी, एक प्याला कॉफी लेकर जायेंगे। प्लीज, उठो!"
अप्रैल के अन्त में अदालत ने उषा बनाम सरीकों में उत्तराधिकार के मामले में निर्णय तक मध्यावधि में स्वर्गीय रतनलाल सेठ की सम्पत्ति के प्रबन्ध के लिये रिसीवर नियुक्त कर दिया। रिसीवर ने रतनलाल सेठ के लेन-देन के सब बहीखाते अपने कब्जे में ले लिये। सम्पत्ति से किराये की आमदनी दो सौ पचहत्तर मासिक थी। अदालत ने आदेश दिया: मध्यावधिकाल में सम्पत्ति का किराया विवादी नहीं रिसीवर वसूलेगा। उषा और बालक पूर्ववत् मकान में रहेंगे। सम्पत्ति से प्राप्त किराये से निर्वाह के लिये उन्हें एक सौ मासिक मिलेगा। एक सौ प्रतिमास स्थावर सम्पत्ति की मरम्मत और मुकदमे के व्यय आदि के लिये सरकारी खजाने में जमा होगा। पचहत्तर रुपया मासिक रिसीवर को मेहनताना।
गंगा बुआ को विधवा भतीज बहू की कठिनाई में बहु और पोते के प्रति सहानुभूति और करुणा। जब उपा घर से दूर थी. उसके सामीप्य और स्पर्श से अपवित्रता की आशंका न थी तो उसके रूप के शील और भाई के इकलौते वंशधर की माँ होने के नाते भी बुआ उसे मानने लगी थी। अस्तु, बहू जैसी भी सुघड़ थी तो किरस्टान की बेटी अब घर में दो-दो मलेच्छों उषा और बेबे के प्रतिक्षण समीप होने और छू जाने से अन्तकाल में परलोक बिगड़ने की आशंका और पिना
हिन्दू विधवा सदा धर्मभीर आँगन में नल लगे तेरह बरस हो गये थे। भैया की देखा- देखी गंगा नल के पानी से नहाने तो लगी परन्तु पीने और रसोई के लिये हरिया तीन-चार गागर कुएँ से ले आता। महरी चौका बर्तन नल के जल से करती थी और बुआ उस पर कूप जल का छींटा देकर पवित्र कर लेती। अब खुद किरस्टान घर में आ बैठी।
सरीकों ने गंगा बुआ को आदर और चिरौरी से अपनी ओर बुला लेना चाहा। रिश्ते से बुआ के लिये जैसे रतनलाल भाई, उनका बेटा और पोता वैसे ही बड़े भाई रामलाल के बेटे- पोते। किरस्टानियों की छूत में रहकर अपना परलोक क्यों बिगाड़ेगी, परन्तु गंगा सरीकों का पैतालीस बरस का अनुभव कैसे भूल जाती। वह सीधी थी, परन्तु इतनी सीधी भी नहीं कि छोटे भाई के पोते की जायदाद हड़प लेने के लिये और उसे अपनी ओर मिलाने के लिये बड़े भाई के बेटे-पोतों की चाल न भौंप सकती।
उषा ने पुष्पा भाभी के सुझाव पर बुआ की भावना के विचार से घर में प्याज-लहसुन लाने का पूर्ण निषेध कर दिया था। बुआ की सुविधा के खयाल से परसू बेवे के लिये ऊपर छत पर कोयले की अंगेठी दहका देता। परसू या बेबे अपना खाना ऊपर बना लेते या कभी आँगन में अंगीठी रखकर
उपा की सब चिन्ता प्रयत्न के बावजूद गंगा बुआ को अस्पृश्यता की परेशानी। वह नल के पानी से नहाने लगती तो खयाल आ जाता नल को किरस्टानियों ने हुआ है। चुटकी भर मिट्टी या आँगन में ईंट के फर्श पर हाथ रगड़ कर नल को माँज कर गंगा-गोदावरी- जमना' का नाम लेती नहा लेती। बेबे को अपने प्रति ऐसी घिन से ताव आ जाता। उपा ओठों पर तर्जनी रखकर वैबे को बरज देती, "चुप! जाहिलों के मुँह नहीं लगता।" बेबे
बड़बड़ाती रह जाती। गंगा के विचार में बेबे अपवित्र, अछूत और बेबे की नजर में गंगा बहुत गलीज।
गंगा की साढ़े तीन-चार हजार की निजी पूंजी थी। सेठ जी महीने महीने विधवा बहिन के नाम कुछ जमा करते रहते थे। उसकी ननद गंगावास के लिये हरिद्वार में रहती थी। भाई की मृत्यु के पचास दिन बाद गंगा, कोहली की सहायता से अपनी पूँजी का प्रबन्ध कर हरिद्वार चली गयी।
उषा के सामने प्रश्न, पी-एच० डी० का काम पूरा करे या अपने पाँव खड़े होने का यन करे? कोहली और पिता के परामर्श से इक्का घोड़ा बेचकर सब प्रकार से मितव्यय का प्रयत्न कर रही थी। उस समय यूनिवर्सिटी और सब स्कूल-कालिजों में अवकाश । गली के पड़ोस से नित्य कोई परेशानी सबसे अधिक चिन्ता बेटे पर गली के कुप्रभाव की लड़का ढाई बरस का हो गया था। लोगों से सुनकर माँ-बहिन की गालियाँ तुतलाने लगा था। उषा खीझती- हर समय स्त्रियों की संगति में जनाना हरकतें ही सीखेगा!
ये अच्छा था कि पप्पू पद्मा सदानन्द से हिल गया था। पद्मा को पप्पू से आंटी कहलाने का शौक, दोहते से नानी को भी लाइ प्यार। पद्मा शनिवार साँझ उसे ले जाती, अमित रवि की साँझ या सोम की सुबह लौटा जाता।
वेदप्रकाश अमित का समवयस्क अमर और पाठक के खास चेलों में। गली में ठीक दरवाज़े के सामने के पड़ोस के नाते और अपने पिता पर सेठ जी की कृपा की स्मृति से उपा भाभी के लिये आदर और सहानुभूति। सुबह बाहर जाने से पहले अखबार देखने उषा की बैठक में चला जाता और भाभी की जरूरत या सुविधा के विषय में पूछ लेता।
कुछ दिन से वेद की छोटी बहिन सरला अखबार ले जाती। वही उषा की जरूरत या तबीयत के बारे में भी पूछ लेती उषा ने सरला से पूछ लिया, "वेद कई दिन से नहीं दिखायी दिये, क्या बात?"
सरला ने साफ कह दिया, "आपकी सरीकनें और गली की दूसरी औरतें बातें बनाती हैं -जवान लड़का है, जब देखो वहाँ ही घुसा है वो लोग तो अमित भाई के लिये भी ऐसा ही कहती हैं। डाक्टर साहब या जो कोई आये, बकने लगती हैं।"
उस दिन वेद बाहर जाते समय ड्योढ़ी से पुकार कर बैठक में आ गया। उषा को संकेत से बुलाकर धीमे से पूछा, "साँझ कोई मिलने तो नहीं आ रहे? ज्योतिषी आना चाहते हैं। छः बजे के लिये कह दें?"
"जरूर!" उषा ने अनुमति दे दी।
वेदप्रकाश पिता मास्टर जी और भाई ओमप्रकाश से बहुत भिन्न, उसे अपनी सूझ-बूझ पर भरोसा खूब चलती रकम ओमप्रकाश घर से अलग रहने लगा था, परन्तु घर में जनसंख्या वृद्धि से मास्टर जी की तनखाह में गुजारा कठिन वेद इण्टर में था, मास्टर जी को भाई की तरह ट्यूशनों में सहायता देता। उसे राजनैतिक काम का भी उत्साह अमर ने परिचय करा दिया तो साप्ताहिक 'संघर्ष' में प्रूफ देखने और दौड़-भाग के कार्यों में सहायता देने लगा। पाठक के परामर्श से कम्पोजिंग सीखने का भी यत्न किया था।
वेद को पिता की ईश्वर भरोसे निरीह प्रकृति और घर में कृच्छ्रता से ऊब होती। पिता
की तरह स्कूल मास्टरी या भाई की तरह क्लर्की कभी न करने का निश्चया पढ़ाई में कमजोर न था, परन्तु वी० ए० पास करना केवल समय की बर्बादी समझकर इंटर के बाद पढ़ाई छोड़ दी। सुबह-शाम दो-तीन प्रेसों में प्रूफ देखने, उनकी उगाही करके और आर्डर ला देने का काम भी करने लगा। ऐसे काम में कमीशन से मासिक तीस-चालीस बना लेता।
संगम प्रेस के मालिक सत्यनारायण भार्गव को आदमी की परख थी। उसने वेदप्रकाश को अपने यहाँ स्थायी काम दे दिया। एक तरह से असिस्टेंट मैनेजरा भार्गव से उसकी गुट्टी बैठ गयी।
सत्यनारायण भार्गव के लिये संगम प्रेस ही एकमात्र काम न था। प्रेस उसके पिता की विरासत था। युद्ध से पहले प्रेस ऐसा-वैसा ही चल रहा था। भार्गव को उसके लिये समय भी कहाँ प्रेस के बजाय म्युनिसिपैलिटी या पीडब्ल्यूडी से छोटे-मोटे ठेके लेकर या थोक माल का सौदा करके आगे बेच देता युद्ध आरम्भ हो जाने पर ऐसे व्यापार के लिये बहुत
अवसर।
१९४० में सरकार ने युद्ध के पक्ष में जन-भावना उत्साहित करने के लिये 'जन-सम्पर्क' विभाग जारी कर दिया था। प्रयोजन था, जनता को सरकारी दृष्टिकोण से सच्ची सही खबरें देकर शत्रु रेडियो के झूठे प्रचार और बागी लोगों द्वारा निरुत्साह और निराशा फैलाने वाली खबरों का निराकरण कर जनता का मनोबल बढ़ाना।
भार्गव इस अवसर से न चूका। उसने 'लोकमत' साप्ताहिक आरम्भ कर दिया। समाचार अंग्रेजी दैनिकों से और रेडियो से ले लिये जाते विशेष महत्त्वपूर्ण युद्ध की योजनाओं के सम्बन्ध में साइक्लोस्टाइल किये समाचार, लेख कविता- नज्मों चुटकुलों चित्रों और कार्टूनों के तैयार ब्लाक जन सम्पर्क विभाग से मिल जाते। इस योजना में उसका मुख्य कर्ता वेदप्रकाश। सरकार निःशुल्क वितरण के लिये 'लोकमत' की दो हजार प्रतियाँ खरीद लेती। उसका मूल्य प्रति तीन मास के लिये अग्रिम मिल जाता। सरकारी विज्ञापन भी मिल जाते। सबसे बड़ी बात थी यूज- प्रिन्ट का कोटा। बुद्ध के कारण विदेश से कागज आने में कठिनाई और युद्ध प्रयवों के लिये कागज की माँग बहुत ज्यादा कागज ब्लैक में बिक रहा था।
'लोकमत' ने शुरू में पाँच हजार प्रतियों का कोटा लिया था। अब पन्द्रह हजार प्रतियों का कोटा जन-सम्पर्क विभाग पत्र की लोकप्रियता से संतुष्ट पत्र को सभी प्रकार की सहायता देने के लिये प्रस्तुत। वास्तव में 'लोकमत' छपता था तीन हजार दो हजार सरकार खरीद लेती। शेष प्रतियाँ अनेक वाचनालयों, स्कूलों में मुफ्त भेज दी जातीं। बड़े स्टेशनों के रेलवे बुक स्टाल पर बिक्री के लिये तीन-तीन, चार-चार प्रतियाँ मूल्य का कोई तकाजा नहीं। मतलब था, जन सम्पर्क के इंस्पेक्टर को स्टेशन बुक स्टाल पर 'लोकमत' दिखायी देता रहे।
'लोकमत' के सम्पादक के स्थान पर भार्गव के दामाद का नाम छपता, प्रिंटर- पब्लिशर की जगह वेदप्रकाश का काम सब वेद करता। जन-सम्पर्क और सिविल सप्लाई विभागों में उसका आना-जाना होने से अनेक अफसरों से राह रसूखा सरकार समर्थक अखवार का मैनेजर था, कोतवाली और इथोड़ी आगामीर की चौकी की पुलिस उसे भरोसे का आदमी मानती थी।
वेद के सहयोग का मूल्य भार्गव समझता था। कागज का कोटा बढ़ जाने पर तनखाह
पचहत्तर मासिक कर दी थी। जन सम्पर्क, सिविल सप्लाई कंट्रोल के लोगों की चाय पानी, पान-सिगरेट से खातिर के लिये ढाई-तीन रुपया खर्च कर सकने की सुविधा। उस जमाने में यह बहुत । वेद से पाठक का परिचय सन् अड़तीस से पार्टी के लिये गुप्त पर्चे छपवाने का काम वैद के जिम्मे था। कागज का उपाये भी वही कर देता। पार्टी के लोगों से मिलता तो सावधानी से
उषा का दिन उत्सुक प्रतीक्षा में बीता। पिछले दिनों उसे बातचीत का अवसर केवल रजा या अमित से दोनों का राजनैतिक दृष्टिकोण उषा के प्रतिकूल। इतने दिन बाद अपने विचारों से सहमत व्यक्ति से बात का अवसर दिसम्बर के पहले सप्ताह श्यामा निगम ने संदेश दिया तो उसी के साथ यूनिवर्सिटी से सीधी फतेहगंज की बधियारी गली में निगम के मकान पर गयी थी। पाठक सन् इकतालीस के आरम्भ से ही फरार भेस बदल कर रहता
था।
उषा को श्यामा अपने मकान में ले गयी। उसका मकान मिश्र भवन के पिछवाड़े का भाग था। दोनों मकानों के आँगनों में एक कोठरीनुमा दर्श मिश्र भवन के आँगन में पाठक उसकी प्रतीक्षा में था। पोथी-पत्रा बाँचने वाले फूहड़ देहाती पंडित जैसा भेस। सफाचट चेहरे के बजाये लम्बी होंठ बैंके मूँछें, कई दिन की हजामत माथे कनपटियों, गर्दन पर चन्दन का लेप
उन दिनों यूनिवर्सिटी के चुनाव, साल में दो बार अगस्त और दिसम्बर के टर्म्स के होते थे। नवम्बर के अन्त तक कम्युनिस्टों ने युद्ध को जनयुद्ध मानकर युद्ध विरोध की नीति बदल दी थी, इसलिये देशद्रोही माने जा रहे थे।
पाठक ने उषा को समझाया : यूनियन को फेडरेशन के प्रभाव से निकालने का बहुत अच्छा अवसर है। यह आने वाली स्थिति के लिये बहुत जरूरी युद्ध विरोध के लिये भाषण देने की जोखिम हरगिज नहीं लेना। हमारा नारा- कम्युनिस्ट देश में फूट डालने वाले वेपेंदी के देशद्रोही विदेशी एजेंट हैं। राष्ट्र के नेताओं पर विश्वास से, राष्ट्रीय दृष्टिकोण से राष्ट्रीय एकता के लिये स्टूडेंट कांग्रेस को वोट दो।
"उषा ने वकील कोहली की चेतावनी के बावजूद चुनाव में स्टूडेंट कांग्रेस को सहयोग दिया। माहौल कुछ ऐसा बँध गया कि यूनियन पर फेडरेशन का बरसों का प्रभाव टूटकर, स्टूडेंट कांग्रेस का जाफर यूनियन का प्रेसीडेंट बन गया। तब से पाठक से भेंट का अवसर न हुआ था। इस बीच उषा को तो संसार ही समाप्त! उसके अतिरिक्त देश में और अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में क्या कुछ हो गया था।
उषा छ: बजे से पहले प्रताप के उधड़े कपड़े मरम्मत के लिये लेकर बैठक में आ गयी थी। गली में कदमों की आहट से नजर चिक से डॅकी खिड़की की ओर उठ जाती । खिड़की से कद्दावर व्यक्ति की झलक, ड्योढ़ी के किवाड़ों के कड़े की खटखटाहट। उषा ने तुरन्त उठकर किवाड़ खोल दिये। पाठक के सिर पर दबी हुई मैली टोपी, शेष वही फूहड़ देहाती भेस कंधे पर लाल अंगोछे में बंधा पोथी- पत्रा। हाथ में, मोटा सोंटा। बिना साबुन धुलने से बदरंग कपड़े के कुर्ता-धोती। पाँव में धूल से ढँका चमरौधा।
पाठक ने समीप कुर्सी पर बैठ सम्वेदना से आरम्भ किया, "दुर्भाग्य से भेंट का अवसर न बन सका। शोक समाचार उसे और माया को इलाहाबाद में मार्च दूसरे सप्ताह में मिला
था। वह उस साँझ जरूरी काम से पटना जा रहा था। माया ने अपनी सम्वेदना कहने का अनुरोध कर दिया था।"
उपा ने बताया, "माया ने सन्देश दिया था! माया मार्च के तीसरे सप्ताह आयी थी। पहले हॉस्पिटल रोड पर गयी। फिर पता लेकर छोटी गली पहुँची। ठहर न सकती थी. अपनी बरस भर की बेटी आया को सौंप कर आयी थी। रात लौट गयी। पाठक अप्रैल के अन्त में लखनऊ आया तो उस दिन उषा पेशी के लिये अदालत गयी थी।
उपा ने संक्षेप में सरीकों के कुचक्र, मुकदमे और सब कुछ रिसीवर के हाथ में होने की स्थिति बता दी।
पाठक ने गहरी साँस ली, "अमर जैना लगन और भरोसे का साथी ! पूछा "तुमने गांधी जी का क्विट इंडिया' लेख और कांग्रेस वर्किंग कमेटी इलाहाबाद बैठक की कार्रवाई पड़ी होगी। न पड़ी हो तो भेज दूंगा। जरूर पड़ी। ऐसे ही समय 'वह' नहीं। पिछले साल पहली बार हम यूनिवर्सिटी में यूनियन पर कब्जा कर सके। उसका बहुत श्रेय तुमको। अब तुम भी मजबूर
उपा पल भर मौन, "मजबूरियाँ जरूर हैं, सबको हैं। अगर मैं कुछ कर सकूँ T कर तो तुम बहुत सकती हो। करके दिखा चुकी लेकिन तुम पर बच्चे की जिम्मेदारी, दूसरी जिम्मेदारिया"
"यह सबसे बड़ी जिम्मेदारी!" उषा की गर्दन तन गयी, "उनकी जगह मैं हूँ। ये ही
उनकी अंतिम बात थी।"
दोनों कैसे निवहेंगे! अब संघर्ष का पुराना तरीका नहीं चलेगा।"
"जैसा भी हो। मेरा निश्चय और उनकी बात"
दोनों में नयी स्थिति के बारे में बात होने लगी।
ड्योड़ी पर दस्तक और साथ ही पुकार, प्रताप! परसू
"कौन?" पाठक चौका
रज़ा भाई, डाक्टर रजा। उनसे क्या आशंका
डाक्टर रजा अहमद?" पाठक ने पलाश सोचा, "आने दो।"
का
रजा ने साइकल थोड़ी में टिका कर बैठक में कदम रखते हुए फिर पुकारा, "प्रताप बहादुर! सलाम वेवे जी।" रजा अपरिचित की स्थिति से कुछ "हाओ डू यू इट अपरिचित ने मुस्कराकर हाथ बढ़ा दिया।
"अरे!" पहचान कर रजा मुस्कराया, "क्या भेस रचा है यार! वारंट! अब तो लोग रिहा हो रहे हैं।"
"सिर्फ लीडर या इस जनयुद्ध में सहयोग के समर्थक कम्युनिस्ट आगे देखो क्या होता है।"
"तुम्हारे खयाल में क्रिप्स के प्रस्ताव ठुकरा देना गलती नहीं थी?" रजा ने चिन्ता से पूछा, "शायद मौलाना और नेहरू गांधी और कांग्रेस को समझा सके।"
"गांधी ने तो दो टूक कह दिया- पहले तुरन्त पूर्ण स्वतंत्रता, युद्ध में सहयोग की बात बाद में जिसके कदम लड़खड़ा रहे हैं, उसके वायदे का क्या भरोसा? ब्रिटेन के वायदे दिवालिया बैंक की हंडी।"
"यह है गांधी की अहिंसा का तत्त्व!" रजा के स्वर में विद्वप, "दो बरस पहले जब ब्रिटेन के कदम मजबूत लग रहे थे, गांधी की राय में युद्ध की कठिनाई में फँसे ब्रिटेन से स्वतंत्रता की माँग अन्याय था और युद्ध में सहयोग सहायता का मूल्य माँगना अनैतिक अब ब्रिटेन का दिवाला निकलता लग रहा है तो पहले से ज्यादा मूल्य और तुरन्त क्विट इंडिया !" "आप कब से अहिंसा के सन्त बन गये!" उषा मुस्करायी। इतने दिन बाद उपा के चेहरे मुस्कान से रजा को संतोष उषा ने कहा, "ब्रिटेन की नाजियों से लड़ाई है तो हमारी ब्रिटेन से लड़ाई है। हम अवसर से फायदा क्यों न उठायें?
पर
"फायदा इस संकट में आत्मरक्षा की चिन्ता करने में है या ब्रिटेन को 'ट्विट इंडिया' कहकर आत्महत्या का मार्ग खोलने में?"
"यू डोंट वांट ब्रिटिश टु ट्विट इंडिया?" उषा को विस्मय, "ब्रिटेन को "भारत छोड़ो' कहना आत्महत्या है?"
"जरूर!" रज़ा ने माना, "पूर्व में जापान भारत की सीमा पर खड़ा है, पश्चिम में नाजी काकेशस पर पहुंचे हुए हैं। इस समय ब्रिटेन को भारत से भाग जाने के लिये कहने का मतलब है, भारत नाज़ियों और जापानियों को सौंप देने के लिये कहना। ब्रिटिश जान बचाकर भाग जायें तो जापान यहाँ वही करेगा जो उसने मंचूरिया, कोरिया, सियाम, मलाया, सिंगापुर, बर्मा में किया।"
"गांधी नहीं चाहते भारत में ब्रिटेन, नाज़ियों और जापान की लड़ाई से भारत का विध्वंस हो । ब्रिटिश तो जापानियों से लड़ाई की तैयारी के लिये पूरे बंगाल-बिहार को फूँककर उजाड़ देने के लिये तैयार हैं। जापान के बंगाल लांघते ही पूरे जमशेदपुर को बम से उड़ा देने की योजना बन गयी है। इसमें संहार हमारा होगा कि ब्रिटेन का ?"
"हमारा!" रजा ने सीने पर हाथ रखकर स्वीकारा, "इसलिये हम चाहते हैं कि ब्रिटिश और अमरीकन सैनिक शक्तियों की सहायता से नाज़ियों को पश्चिम में और जापान को पूर्व में भारत की सीमा से दूर रखा जाये। गांधी को ब्रिटेन की यह चिन्ता मालूम हो गयी इसलिये अब अहिंसा की रक्षा के आन्दोलन के बजाय क्विट इंडिया गांधी की ब्रिटेन को सलाह है कि भारत की रक्षा के लिये अपना खून बहाने के बजाय रसा-बसा, हरा-भरा भारत नाज़ियों और जापान की थाली में परोस कर भाग जाये।"
"आप अंग्रेजों को जाने दीजिये। फिर भारत नाज़ियों और जापानियों को भी देख लेगा!" उषा बोली।
रजा की आँखें विस्मय से फैल गयीं। उसने गहरा साँग लिया, "नाज़ियों और जापानियों को देख लेंगे। राजनैतिक आन्दोलन और सत्याग्रह से? यह बताइये कांग्रेस की या हमारे राजनैतिक आन्दोलन का प्रभाव है कितना और कहाँ? इस समय ब्रिटिश सेना में पाँच लाख से अधिक हिन्दुस्तानी। उससे अधिक हिदुस्तानी पेट के लिये ब्रिटेन के युद्ध प्रयत्नों में लगे हुए हैं। वैयक्तिक सत्याग्रह में कितने लोग जेल गये? आन्दोलनों की लड़ाई ब्रिटेन के विरुद्ध की जा सकती है, क्योंकि ब्रिटेन जनतंत्र का दावा करता है, ब्रिटिश जनता जनतंत्र के पक्ष में है। नाज़ियों और जापान की जनतंत्र के तकल्लुफ से वास्ता नहीं। इस समय हमारी रक्षा जर्मनी और जापान के पराजय में ही है।"
"यह दूरदर्शिता कम्युनिस्टों को कब से सूझी?" पाठक ने पूछा। "दोस्त, असल में युद्ध
जनयुद्ध हो गया और क्रिप्स के प्रस्ताव भी संतोषजनक हो गये, क्योंकि क्रिप्स को समझौते के लिये सोवियत राजदूत मैक्सिम ने भिजवाया।"
इस समय क्रिप्स के प्रस्ताव कांग्रेस को सन् चालीस की माँग से अधिक दिलवा रहे हैं। और बुद्ध के सम्बन्ध में कम्युनिस्टों ने नीति बदली तो गांधी और कांग्रेस ने भी बदली। यह दोनों की परिस्थितियों की अपनी-अपनी समझा राय ने शुरू में ही कह दिया था, यह युद्ध अन्ततः नाजियों और सोवियत में, नाजी साम्राज्यवाद तथा जनतंत्र और समाजवाद में युद्ध होगा।"
पाठक अड़ा रहा, “जिन लोगों ने जीतते जापान के सहयोग से सिंगापुर में आज़ाद हिन्द सेना बनायी है, वो भी कुछ समझते हैं।".
रजा का चेहरा बहुत गम्भीर, "आपको मालूम है जर्मनी ने यूरोप में कब्जा किये देशों को और जापानियों ने दक्षिण-पूर्व एशिया में समेटे देशों को कैसी आजादी दी है। वर्मा से जो हिंदुस्तानी भाग कर आ रहे हैं, उनसे पूछ लीजिये।"
""तुम्हारी बात भी स्पष्ट" पाठक भी गम्भीर, "तुम लोगों के लिये अपनी आज़ादी पाने के अवसर की अपेक्षा नाज़ियों और जापान के विरोध और सोवियत के निर्देशों के पालन का महत्त्व अधिका"
"दोस्त" रजा ने हाथ पाठक के घुटने पर रख दिया, "मेरी बात का मतलब अगर ये ही समझा तो मैं समझा सकने के नाकाबिला" वह जोर से हँस दिया।
उपा ने कटुता की आशंका में मुस्कान से चेतावनी दी, "मतभेद में नाराजगी नहीं!" और रज़ा की और नजर किये पुकार लिया, "वेवे, डाक्टर भाई के लिये चाय नहीं बनायी "उठ गयी, "में लाती हूँ।"
उषा लौटी तो रज़ी पाठक को पेट ठीक रखने के लिये दवा बता रहा था।
रजा के अपनी कलाई पर समय देखने से समझ गयी, रजा उठना चाहता है। फिर भी पूछ लिया, "मिलिटरी में जाने के बारे में क्या फैसला किया?"
"वही बताने आया था।" रजा ने कहा, "कल दरखास्त दे दी। वो लोग जाँच-पड़ताल करके जवाब देंगे।"
प्याला समाप्त कर रज़ा उठ गया, “प्रताप बहादुर को प्यार देना।" पाठक की ओर हाथ बना दिया, "खुदा हाफिज
पाठक को मौन देखकर उषा ने पूछ लिया, "क्या सोचने लगे?"
पाठक का स्वर चिन्ता से दबा, विचारों-विश्वासों के इतने गहरे भेदों में मित्रता कैसे निभ सकती है?
उषा ने पाठक की आँखों में सीधे देखा, “आपको डाक्टर भाई से आशंका
"रजा से आशंका नहीं," पाठक ने कहा, "लेकिन अपने-अपने विश्वासों विचारों के लिये दृढ़ता वा ईमानदारी, भाई को भाई पर गोली चलाने के लिये मजबूर कर सकती है।" उपा भी खिड़की की ओर नजर किये मौन रह गयी।
पाठक ने सिगरेट सुलगा ली। कुछ कश लेकर बोला, "फरवरी के अन्त में नेहरू और इंदिरा यूनिवर्सिटी में आये थे। नेहरू के लिये तो सबसे बड़ी समस्या फासिज्म का खतरा । उनका ध्यान सदा राष्ट्रीय से अन्तर्राष्ट्रीय की ओर अधिक। कम्युनिस्ट जेलों से छूट आये हैं।
वे लोग नेहरू के भाषण को लेकर अपना ढोल पीट रहे हैं। जानती हो, कम्युनिस्ट यहाँ की बात वहाँ जोड़कर अपने पक्ष में दलील बना लेने में बहुत कुशल । ""जुलाई से यूनिवर्सिटी जा सकोगी?"
"मेरे जाने से कुछ हो सके तो जरूर कोशिश करूँगी।"
"यूनिवर्सिटी खुलने में अभी देर।" पाठक ने सोचकर कहा, "फिर आऊंगा।"
जापानी जंगी हवाई जहाज अप्रैल में सिंगापुर-अन्दमान से आकर मद्रास, त्रिचनापल्ली आदि में तीन-चार बार बम फेंक गये थे। जून शुरू में कलकत्ते के दमदम पत्तन और ईछापुर में भी जापानी बम गिर गये। वर्मा से गवर्नर और सरकारी दफ्तर फरवरी में ही शिमला भाग आये थे। अब कलकत्ता से भी अधिकांश सरकारी और बड़े-बड़े व्यवसायों के दफ्तर, दफ्तरों के कार्यकर्ता सम्पन्न लोग, दूसरे लाखों परिवार पश्चिम के नगरों में भागे चले जा रहे थे। वे लोग किसी भी दाम पर सिर छिपाने की जगह के लिये व्याकुल सहसा मकानों की बहुत किल्लत और किराये बहुत बढ़ गये।
से
सब ओर युद्ध के आतंक और सतर्कता के प्रयन एंग्लो-इंडियन, क्रिश्चियन और बहुत राजभक्त परिवारों के जवान टेरीटोरियल सेना में भर्ती होकर ट्रेनिंग लेने लगे। संकट काल में स्थिति सम्भाल सकने के लिये नगरों में सिविल डिफेंस कमेटियाँ बना दी गयीं। इन कमेटियों में कुछ सरकारी अफसर, कुछ सरकारपरस्त खिताबदार रईस और पेंशनिया लोग थे। मुहल्लों में वार्डन नियुक्त कर दिये गये। मिलीशिया कपड़े (राख के रंग) की वर्दी पहने सिविल गार्ड दिखाई देने लगे। यह लोग पार्कों में कवायद करते भी दिखाई दे जाते ।
नगर के पार्कों में, स्कूलों, हस्पतालों, दफ्तरों की खुली जगहों में बम गिरने के समय सिर छिपाने के लिये खाइयाँ खोद दी गयीं। सरकारी इमारतों के दरवाजों खिड़कियों के सामने रक्षा के लिये रेत भरी बोरियों की दीवारें। उन इमारतों के दरवाजों खिड़कियों के काँच पर कागजों की ऐडी-वेंडी कतरनें चिपका दी गयीं कि धमाकों से काँच के टुकड़े उड़- उड़कर लोगों को जख्मी न कर दें। हर मुहल्ले या वार्ड में बम वर्षा या आगजनी की आशंका में प्राथमिक सहायता के दवा-दारू का प्रबन्ध कभी-कभी इस उस मुहल्ले में दुर्घटना से लगी आग बुझाने की शिक्षा का नाटक हो जाता।
उस समय तक इस देश को युद्ध के संकट त्रास का कुछ अनुभव न था। वह युद्ध जनता की नजर में अपना युद्ध भी न था। सामान्य प्रजा को अंग्रेजों से घृणा और विरोध जनता को नगर सुरक्षा के प्रयत्नों से कोई सम्पर्क-सरोकार नहीं। जनता की नजर में नागरिक सुरक्षा में सहयोग देने वाले सरकारी पिट्ट, जी हुजूर, टोडी बच्चे अंग्रेजों के कुत्ते थे। सरकार के व्यवहार में आतंक के चिन्ह देखकर जनता प्रसन्न होती: साले अंग्रेजों की कॉल डीली। हिटलर के डर से वहाँ हजारों मील दूर भी इनकी फटी जा रही है।
संकट सिर पर आ गया देखकर कांग्रेस को भी नागरिक सुरक्षा की चिन्ता । कांग्रेस ने जनता को सावधान किया। इस निकम्मी सरकार पर जनता को विश्वास भरोसा नहीं, न यह सरकार जनता का सहयोग पा सकती है। हमें संकट में आत्मरक्षा के लिये स्वयं सावधान आत्मनिर्भर होना चाहिये। यह काम कांग्रेस के स्वयंसेवक संगठन 'कौमी सेवा दल को सौंपा गया। स्वयंसेविकाओं के संगठन की भी बात सोची जाने लगी।
हरि भैया पर कांग्रेस के सभी आयोजनों और कार्यक्रमों का उत्तरदायित्व। उन्होंने उपा
से बात की सरकार से हमारा असहयोग, परन्तु जनता के संकट की चिन्ता और उनकी रक्षा हमारा कर्तव्य। तुम कुछ लड़कियों को तैयार करो। इस काम में अपना समय लगाओ तो कांग्रेस की ओर से कुछ मासिक अलाउन्स, पचास-साठ रुपये का प्रबन्ध हो जायेगा।
उषा ने स्वीकारा: अलाउन्स देखा जायेगा। मेरे योग्य काम बताया जाये क्या-कैसी ट्रेनिंग दी जायेगी। यदि आस-पास के मुहल्लों से कुछ परिवारों की लड़कियों, खियाँ तैयार हों, अनुकूल जगह हो तो प्रस्तुत हैं । उपा लालबाग स्कूल और आई० टी० में गर्ल गाइड्स मैं थी। फर्स्ट एड भी सीखा था। उसने कहा, "ऐसी ट्रेनिंग धोती-साड़ी में कैसे होगी? गली- मुहल्ले की अधिकांश स्त्रियों मात्र धोती में रहती हैं, उन्हें सलूके की भी आदत नहीं।"
हरि भैया ने बताया: इलाहाबाद में सरकारी निर्देश से स्वतन्त्र महिला नगर रक्षा दल बन गया है। गोपी बाबू बता रहे थे, वहाँ बहुत अच्छा हो रहा है। नेहरू जी ने तारीफ की है। उन लोगों ने चुस्त पर्देदार बर्दी बनायी है—घुटने तक कुर्ता, चुस्त चूड़ीदार पायजामा, सिर पर गांधी टोपी सब सफेद कंधे से जनेऊ पेटी की तरह कसा हुआ केसरी दुपट्टा कवायद करती हैं, फर्स्ट एड का प्रदर्शन भी उन्होंने नेहरू को सलामी दी थी।
हरि भैया तुरन्त काम आरम्भ कर देना चाहते थे। ट्रेनिंग के लिये पर्देदार जगह भी सोच ली गयी, नादानमहल रोड का चारदीवारी से घिरा जनाना पार्क।
वेदप्रकाश ने पाठक को बता दिया था। छोटी गली में उषा के मकान पर पुलिस की नजर न थी। उस मकान में आने के बाद से उषा घर से निकलती न थी, साढे पाँच मास में केवल तीन बार, बस अदालत जाने के लिये। जुलाई के पहले सप्ताह पाठक फिर उपा के यहाँ आया।
उषा ने हरि भैया के प्रस्ताव के बारे में पाठक से जिक्र किया। पाठक हँसा, “काम तो अच्छा है, लेकिन ट्रेनिंग के लिये पर्दे की जरूरत, काम भी पर्दे में करेंगी। इलाहाबाद के जिस महिला नगर रक्षक दल की तारीफ गोपी बाबू और नेहरू जी ने की, उनका फैन्सी ड्रेस शो या ब्यूटी परेड हमने भी देखी है। गोपी बाबू रसिक जन, नेहरू भी विनोबा के चेले नहीं। उनकी तारीफ का मतलब अच्छा तमाशा इलाहाबाद में हम किसे नहीं जानते। माया दो बार वहाँ गयी कि संगठन के जरिये काम की बात हो सके। वहाँ बस टु लुक स्मार्ट की बात। सिविल लाइन की दस बारह कुंआरी या विवाहित युवतियों का शगला उस ट्रुप की आर्गेनाइजर मिसेज़ पंचन, टॉक आफ द टाउन! अपने साधनों से बहुत बड़े हौसले पहले यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों की मोटर में दिखाई देती थी, अब हाईकोर्ट के जजों तक पहुँच गयी। उसका मियाँ अपनी बीबी पर हाईकोर्ट के जजों की कृपा अपनी प्रैक्टिस के लिये उपयोगी समझता है। पंचन सरकारी कृपा और पैसे के लिये टेरिटोरियल फोर्स में कैप्टन बीबी नगर सुरक्षा दल बनाकर जिला मैजिस्ट्रेट को परेड दिखाती है। इस बहाने डी० एम० से परिचय लोगों पर दबदबा नेहरू को भी सलामी देती है। माया ने बताया, उस ग्रुप की मेम्बरों को परेड के लिये जाने से पहले दो घंटे जूड़े मेकअप के लिये दरकारा
पाठक ने राय दी हरि भैया लड़कियों की ट्रेनिंग का प्रबन्ध कर सकें तो बहुत अच्छा। लड़कियों सम्पर्क के काम में सहायता दे सकेंगी। सरकारी परिवारों से भेद ला सकेंगी। तुम्हारी सहायता सुमित्रा और श्यामा भी करेंगी, परन्तु लड़कियों को ग्रुप में लेते समय उनके परिवारों का पूरा परिचय होना चाहिये। सी० आई० डी० इस समय 'कौमी
सेवादल' के ट्रेनिंग कैम्प के भेद लेने की सिरतोड़ कोशिश कर रही है। पुलिस लड़कियों का प्रयोग भी कर रही है। कम्युनिस्ट परिवारों की लड़कियों से भी सावधान । चलने से पूर्व पाठक ने पूछा, "यूनिवर्सिटी के बारे में क्या सोचा?"
"स्टडी में तो अभी ध्यान क्या जमेगा। काम हो तो जाने को तैयार हूँ। " "मेरे विचार में जाना हर तरह से बेहतर" पाठक ने कहा, “काम तो होगा ही। बरस भर पी-एच० डी० के लिये काम किया है, वह श्रम व्यर्थ क्यों जाये! आत्म निर्भरता के लिये सहायक होगा।"
ग्रीष्मावकाश के बाद उषा छठे दिन यूनिवर्सिटी गयी। कुछ पुराने विद्यार्थी शोक समाचार पा चुके थे। अनेक उपा का नया वेश मुद्रा देखकर चकित पहले वह आधुनिक युवतियों की तरह साड़ी का आँचल कंधे पर रखती थी। उसका उजला ऊंचा माथा चटक लाल बिन्दी से खिल जाता था। अब बिना किनारे की साड़ी, पूरी आस्तीन का ब्लाउज। चेहरा उदासी से दुबला-पीला। माथे से बिन्दी गायब। बाल कंधे तक काट लेने से साड़ी का आँचल सिर पर
उषा इधर-उधर नजर दौड़ाकर जायजा ले रही थी। कम्युनिस्ट सेशन के आरम्भ से ही सक्रिया एक मजमे में अमित अंग्रेजी में दहाड़ रहा था। उन दिनों अंग्रेजी में भाषण देने में अक्षम विद्यार्थी नेता नहीं बन सकता था। अमित समझा रहा था, "हम अन्तर्राष्ट्रीय प्रभावों से नहीं बच सकते। नाज़ीज्म और फासिज्म का प्रभाव हमारे जैसे निर्बल राष्ट्रों का भविष्य समाप्त कर देगा। दूसरी ओर कुछ लड़कों के घेरे में खड़ी सुरमा बैनर्जी अपनी सींखिया बाँहें हवा में फेंक- फेंककर बोल रही थी।
उपाने भाँपा, कम्युनिस्ट दिसम्बर के चुनावों में हार की कसर नये चुनाव में पूरी करने के लिये तैयारी कर रहे हैं। फिर खयाल, गांधी जी के 'क्रिट इंडिया' प्रस्ताव के बारे में पाठक की बात उस आन्दोलन के लिये पहले से वातावरण तैयार करना जरूरी और कम्युनिस्टों को फिर न जमने देने के लिये सतर्कता, लेकिन अभी उसका बढ़कर बोलना जँचता न था । परिचित उससे सम्वेदना प्रकट कर रहे थे। वह रिसर्च स्कॉलर, उसका जगह-जगह बोलते फिरना ठीक न था।
रविवार सुबह से सही लग गयी थी। पद्मा सदानन्द न आ सके थे। दिन उदास उदास था। उपा समय काटने के लिये बैठक में सोफा पर अधलेटी एक उपन्यास पड़ रही थी। आहट से उपा की नजर ड्योढी की ओर गयी। श्यामा निगम, और उसका भाई। निगम ड्योढ़ी में छतरी रखकर बहिन के पीछे-पीछे आ गया। उन्हें देख उषा का मस्तिष्क अनुमानों में सतर्क निगम और श्यामा से केवल मिलने के लिये आने की आशा न थी, खासकर इस वर्षा में।
निगम, पाठक का सन्देश लेकर आया था वर्धा में कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य 'क्विट इंडिया' पर सहमत हो गये थे। समाचार अखबार में भी। निगम प्रस्ताव की छपी हुई प्रतिलिपि लाया था।
पाठक का संदेश सुनकर उपा ने स्वीकारा, कल यूनिवर्सिटी में कम्युनिस्टों की हलचल देखकर उसने भी सोचा था, चुनाव स्थगित रखने का सुझाव बहुत ठीक है।
निगम ने फिर चेतावनी दी, "समय से पूर्व गिरफ्तार हो जाने की उग्रता से सावधान।" उपा सोमवार ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी पहुँची। सेन से बताया, जेल से टूटकर आये कम्युनिस्ट क्वाइँगल में जमावड़ा लगाये हैं। हमारे साथियों को बोलने नहीं दे रहे सेन के साथ उषा कागल की ओर चली गयी।
कामरेड जाफरी बोल रहा था। वह जेल से छूटकर आया हीरो, बहुत अच्छा वक्ता करारी साफ आवाज़, आत्मविश्वास की मुद्रा, लच्छेदार भाषा, नाटकीय अदा, भाव के अनुकूल स्वर का उतार-चढ़ाव, आप इतनी जल्दी नहीं भूल सकते।" भौवें मुस्कान से उठ गयीं। उसने तर्जनी दिखायी, "युद्ध आरम्भ होते ही साम्राज्यशाही से टक्कर लेने वालों में सबसे आगे कौन लोग थे?" उसने सीना ठोंका, "आज भी हम उसी तरह निर्भय, कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी से परिस्थितियों के अनुसार सही मोर्चा ले रहे हैं। हम अपनी मातृभूमि पर आये खतरे के सामने कबूतर की तरह आँख बन्द करके निर्भय नहीं हो सकते।"
दो विद्यार्थियों ने शंकायें की "शटअप ! बाद में !! डॉट डिस्टर्ब!" "बाद में" सुरमा बैनर्जी और दूसरे कम्युनिस्टों ने उन्हें चुप करा दिया।
जाफरी ने श्रोताओं की ओर हाथ फैलाकर पूछा, "हमारे नेताओं में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और स्थिति को पंडित नेहरू से बेहतर कौन समझता है! आपको याद है फरवरी के आखिरी हफ्ते में, " उसने यूनियन हाल की ओर संकेत किया, "उस हाल में पंडित नेहरू ने हमें सावधान किया था। नेहरू चीन जाकर अपनी आँखों जापान के पाशविक फासिज्म की हरकतें देख आये थे। नेहरू ने हमें चेतावनी दी थी। दोस्तो, आपको नेहरू के शब्द याद होंगे; मैं उनके शब्द दोहरा रहा हूँ। उनके शब्द थे जरूरी नहीं कि हमारे दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त और मददगार हो। वह इस दुश्मन से ज्यादा खूंखार और खतरनाक हो सकता है।'' "हमारा भविष्य अन्तर्राष्ट्रीय जगत में जनतंत्र और राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकारों की मान्यता पर निर्भर करता है। फासिज्म का विरोध किसी दूसरे की सहायता नहीं, हमारी आत्मरक्षा का युद्ध है। फासिस्ट विरोध को निर्बल बनाना कौमी खुदकुशी और अपनी मातृभूमि के साथ दगा है "।"
उषा मजमे को चारों ओर से घेरे भीड़ से दो कदम आगे बढ़ गयी। "लीडरों के कोटेशनों का गलत प्रयोग ईमानदारी नहीं है।" उषा ने ऊँचे स्वर में टोका। उसे धमका कर चुप नहीं करा दिया जा सकता था। उसके स्वर में भी चुनौती, "हमें याद दिलाया जा रहा है, फरवरी में नेहरू ने क्या कहा था, लेकिन पन्द्रह जुलाई के क्विट इंडिया प्रस्ताव में गांधी, नेहरू और पूरी कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने फासिज्म के विरोध के जिस एकमात्र नैतिक और सम्भव रास्ते की माँग की है, कम्युनिस्टों की कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी उस पर क्यों पर्दा डाल रही है?"
"हिवर-हियर इन्कलाब जिन्दाबाद! क्विट इंडिया! महात्मा गांधी की जय!' भीड़ से उपा के समर्थन में नारे।
उपा बोलती गयी, "यह निहायत अफसोस की और शर्मनाक हरकत है कि जब हमारी यूनियन का प्रेसीडेंट बिना किसी मुकदमे या उस पर आरोप प्रमाणित हुए जेल में सह रहा है, जनतंत्र की रक्षा का दावा करने वाले कामरेड फासिज्म के विरोध के पर्दे में
यूनियन पर कब्जा कर लेने की चालें चल रहे हैं। लेकिन देशभक्त विद्यार्थी ऐसी चालें सफल नहीं होने देंगे। जब तक बिना अपराध जेलों में बन्द हमारे साथी छूटकर नहीं आ जाते, यूनियन के चुनाव नहीं होंगे!"
'शेम! शेम! डाउन विद ट्रेटर्स!" स्टूडेंट कांग्रेस के समर्थकों ने नारे लगा दिये, 'इन्कलाब जिन्दाबाद! महात्मा गांधी की जय! स्टूडेंट कांग्रेस जिन्दाबाद!' उपा के समर्थन में भीड़ से तालियों की गूँज ।
जाफरी धैर्य के मुस्कान से उत्तर दे सकने के अवसर की प्रतीक्षा में तालियों की गूंज समाप्त होते ही जाफरी ने बाँह उठाकर ललकारा, "दोस्तो !"
अविनाश और सिन्हा ने गला फाड नारे बुलन्द कर दिये, 'इन्कलाब जिन्दाबाद! क्विट इंडिया जिन्दाबाद! महात्मा गांधी की जय। डाउन डाउन विद ट्रेटर्स! गद्दार मुर्दाबाद!' नारे पर नारे। जाफरी धैर्य से मुस्कराता रहा। अविनाश सिन्हा और दूसरे स्टूडेंट कांग्रेसी भीड़ को जुलूस की तरह पीछे लगाकर नारे लगाते कैम्पस में चक्कर लगाने लगे, 'डाउन डाउन विद कम्युनिस्ट फेडरेशन! जब तक हमारे साथी जेल में, चुनाव नहीं होगा।'
उपा क्वाट्रेंगल की मीटिंग के बाद घर लौटने के लिये गेट की ओर जा रही थी आवाज़ पहचान कर बायीं और देखा । "हमें भावुकता भरे नारों से नहीं बहकना चाहिए ।" अमित दूसरी ओर मुँह किये दस-बारह लड़कों से घिरा बोल रहा था। उपा ने फाटक से निकल कर राजाबाजार के लिये इक्का ले लिया।
कागल की मीटिंग के बाद सेन और अविनाश ने उपा से कहा था आपने कामरेडों का सप्ताह भर में जमा प्रस्ताव एक फूंक से उड़ा दिया। उपा उत्साहित थी। साथ ही खयाल आया, अमित आकर जरूर बहमेगा— जीजी, आप समझना नहीं चाहतीं । अन्तर्राष्ट्रीय रूप से लाठी की शक्ति की मान्यता और जनतंत्र का लोप हमारे लिये आत्मनिर्णय के अवसर या जनतंत्र की सम्भावना नहीं रहने देगा। कोई भी राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय प्रभावों से अछूता नहीं रह सकता। कम्युनिस्ट स्वयं सब कुछ मास्को की खिड़की से देखेंगे, हमारे नजरिये को संकीर्ण कहेंगे! ''मैं तो उसे कुछ तरह भी दे जाऊँ, वह जिद्दी कभी नहीं मान सकता। पाठक की बात याद आ गयी, विश्वासों विचारों के भेद ।
उषा, सीधी गली के सिरे पर इक्के से उतर कर छोटी गली में घूमी तो सामने डाक्टर रजा साइकल पर दिखायी दिया, "हलो, भाभी, बहुत वक्त से आ गयी! मालूम न था, यूनिवर्सिटी जाना शुरू कर दिया।" उसके स्वर में उत्साहा
"अभी पाँच बज रहे हैं। हमें क्या अनुमान आप जल्दी आ सकते हैं। "
"सही कहा, हम जल्दी आ गये। बेअदबी मुआफ कीजिये "।" कहते-कहते रजा ने अपना कोट उतार कर कुर्सी की पीठ पर लटका दिया। कमीज़ पसीने से तर
" किस मुहिम से लौट रहे हैं?" उषा ने रज़ा के पसीने और थकावट के प्रति सहानुभूति
में पूछा।
""मुहिम पर जा रहे हैं। सब फार्मेलिटी पूरी हो गयी। समझ लीजिये, खुदा हाफिज़ कहने आये हैं, फिर आने की कोशिश जरूर करेंगे मगर वक्त न भी मिले। बहुत कुछ समेटना है। अट्ठाईस तारीख सुबह मेल से हैदराबाद के लिये बुकिंग।"
"सच!" उषा की भाँव उठ गयीं, "आठवें दिन!" चेहरे का उत्साह गायब।
"वाह भाभी, आपको बता दिया था, किसी भी दिन आर्डर्स मिल जायें।"
रजा ने उपा की अधीरता भॉप कर कहा, "बीच में आने की कोशिश जरूर करूंगा। अभी तो कैंट से सफर के वारंट लेकर घर जाने से पहले आपके यहाँ आया हूँ। जाने की तारीख बता देने के लिये।"
रज़ा के सेना में जाने की इच्छा के कारण उषा को मालूम थे। अपने सेना में जाने के प्रयत्न और वहाँ मंजूरी के बारे में भी वह उपा को समाचार देता रहा था। फिर भी उपा को धक्का जैसे विश्वास न था कि सचमुच चला जायेगा। उस समय रजा ही उसका सबसे अंतरंग, उसकी भावना से परिचित पति का सबसे विश्वन्तः उसके अंतिम शब्दों का साक्षी उषा की सबसे कठिन स्थिति में उसी ने सांत्वना के लिये पीठ पर हाथ रखा था। उपा सम्भलने के लिये नजर बचाये कई पल मौन रह गयी और स्मृति में कितना कुछ काँध गया।
नवम्बर दूसरे सप्ताह में रजा गेती के साथ मिठाई लेकर उपा के यहाँ अपनी उन्नति का शुभ समाचार देने आया था। सर्जरी के सीनियर लेक्चरार गोयल को आगरा मेडिकल कॉलेज में सर्जरी में रीडरशिप मिल गयी थी। रज़ा एम० एस० कर चुका था। सर्जरी का अध्यक्ष प्रोफेसर निगम, प्रोफेसर हामिद और जायसवाल उसके सहायक थे। सर्जरी के असिस्टेंट प्रोफेसर अब्दुल समद की आपत्ति के बावजूद रज़ा को अस्थायी सीनियर लेक्चरार बना दिया था।
दिसम्बर के अन्त में प्रोफेसर हामिद रिटायर हो गये। जनवरी में रजा के नये पद पर कन्फर्मेशन का प्रश्न आया। समद की आपत्ति पर कन्फर्मेशन तीन मास के लिये स्थगित रह गया। मार्च के अन्त में प्रोफेसर निगम की भी अवधि पूरी हो रही थी। रजा को चेतावनी मिल गयी, समद उसकी अवनति कराने का पूरा यत्र करेगा।
वेतन बढ़ने और नये पद के कन्फर्मेशन के पूरे विश्वास में रजा ने कमाल और नादिरा को स्कूल के किंडरगार्टन में भरती करा दिया था। अब चिन्ता, यदि उसे पुराने पद और कम वेतन पर लौटना पड़ा तो अपमान और कैरियर बर्बाद होने की कलख के साथ बच्चों की शिक्षा के भविष्य का भी प्रश्ना
सेठ के जेल से लौटने पर नरेन्द्र से पूर्व निश्चित सिनेमा के कार्यक्रम के कारण पति-पत्नी में झंझट से तीसरी संध्या, रजा रात नौ बजे आया था। बहुत देर बात करता रहा- “मुझे सरकारी नौकरी या युद्ध प्रयत्न में सहायता से सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं। यह पाखंड भी बेकार कि फासिस्ट विरोधी युद्ध में कर्तव्य भावना से जा रहा हूँ। वैज्ञानिक क्षेत्र में कुछ कर सकने की मेरी महत्त्वाकांक्षा के लिये अवसर नहीं रहा। मार्च के अन्त में समद् मुझ पर चोट करेगा। पुराने पद पर लौटने का अपमान, वेतन में कमी से बच्चों की शिक्षा के भविष्य की बर्बादी मेरे लिये असा होगी। मेरा निश्चय है, ऐसी स्थिति आते ही सेना में काम के लिये दरख्वास्त दे दूंगा। वहां डाक्टरों खासकर सर्जनों की बहुत माँग। यहाँ तीन सी पर अपमान में क्यों सुबकता रहूँ। एम० एम० हैं, मेजर का रैंक सीधे मिलेगा। स्पेशलिस्ट का अलाउंस मिलकर नौ सौ हजार माहवार युद्ध का जोखिम है तो एडवेंचर भी, विलायत घूमने का भी वांसा
"आगा-पीछा सोच लो !" सेठ ने सावधान किया था, "सैनिक काम और एडवेंचर तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल होगा? तुम्हारी कल्पना और महत्त्वाकांक्षा पैसा कमाने के बजाये सर्जरी में नये प्रयोग के लिये शोध की थी।"
"उसके लिये कालेज में क्या अवसर रह गया?" रजा ने कहा, "उसकी सम्भावना दूसरा रास्ता बना सकने पर ही फौज में टैम्पोरेरी कमीशन या जंग की अवधि के लिये काम की दरखास्त दूंगा, कालेज से इस्तीफा दूंगा नहीं। इस काम के लिये अवैतनिक छुट्टी इनका बाप भी नामंजूर न कर सकेगा। सेना से मिली रकम से बच्चे कान्वेंट में पड़ सकेंगे, गेती को खर्च की परेशानी न होगी। युद्ध के बाद इंग्लैंड जाकर एफ० आर०सी० एस० कर सकने के लिये पैसा बचा सकूँगा।"
"डाक्टर भाई, आप सब एकतरफा सोच रहे हैं।" उपा ने टोक दिया था, "गेती भाभी दो बच्चों को लेकर अकेली कैसे रहेंगी? उनकी अम्मीजान भी नहीं रहीं। "
रज़ा बात करते सेठ की ओर झुक गया था। उषा के सवाल से सीधे होकर उषा की ओर देखा, "भाभी!" ठिठक कर कोट की जेब से सिगरेट और माचिस निकाल लिये। सिगरेट सुलगा कर बोला, "इस परिवर्तन की जरूरत का एक कारण खुद गेती। अमर जानता है, मैं गेती को अपने अनुकूल बनाने में असफल रहा, उसके अनुकूल बनना नामंजूर। आपसे क्या कहूँ, हम दोनों अनुकूल दम्पत्ति नहीं। मुझे उसकी प्रकृति से ऊब उसे मुझसे सन्तोष नहीं।" उषा को घबराहट का रोमांच, पत्नी पर पति से उस तरह असंतुष्ट रहने से बड़ा और क्या लांछन ! रज्ञा की बात से संकेत, इस प्रसंग में सेठ को पहले बता चुका है; उसके सामने कहने से झिझक
"पप्पू नींद में बहुत हाथ-पैर चलाता है। कपड़ा न गिरा दिया हो। बेबे वालाकदर गयी थी लौटी नहीं ।" उषा उठकर चली गयी। साढ़े दस हो चुके थे। पलंग कमरे में जा लेटी । पति को आने में इतनी देर लगी कि उसके आने पर उपा प्रकाश बुझाये बिना ही गहरी नींद में। रज़ा की बातें सोचते-सोचते सेठ को भी नींद आ गयी।
दूसरे दिन रजा की बात उषा को कई बार याद आयी, परन्तु पति की व्यस्तता में ऐसे प्रसंग पर बात करने लायक एकान्त का अवसर न बन सका। संध्या खाने के बाद दोनों रिफाए आम क्लब चहलकदमी के लिये चले तो उषा ने फटकिया से निकलते ही पूछ लिया, "रजा भाई कल क्या कह रहे थे कि उन्हें गेती से ऊब गेती को उनसे संतोष नहीं?" "कल से वही सोच रही हो ! इतना कौतूहल था तो रजा से पूछ क्यों नहीं लिया!" सड़क पर बिजली के खम्भे आगे-पीछे दूर थे। मद्धिम प्रकाश में पति की ओर घूर कर गुस्सा दिखाने का अवसर न था। "ननसेन्स!", उद्या ने विरोध का गहरा साँस लिया, पति कमर पर चिकोटी काट ली, "ये उनसे पूछने की बात है! आपको क्या बताया उन्होंने? इस तरह पत्नी का अपमान! "
"पत्री या किसी के बीमारी के जिक्र से अपमान का क्या सवाला" सेठ नाजुक प्रसंग पर डाक्टर के बेलाग लहजे में बोला, "रजा रहता है, गेती के काम व्यवहार या कामेच्छा में विकृति है, पुरुष से सामान्य काम व्यवहार के बजाय बलात्कार की चाह काम व्यवहार में कुछ बल प्रयोग या पीड़ा से रस और तुष्टि बढ़ती है। ऐसी या अन्य विकृतियाँ अनेक नर- नारियों में होती हैं, कुछ विकृति में रक्तप्रवाह देखने और कभी हत्या की प्रवृत्ति तक।
हस्पतालों में ऐसे मामले आते रहते हैं। ऐसी दैहिक या मानसिक विकृति एक प्रकार की बीमारी अपनी असामान्य प्रकृति से बेबस, परन्तु रजा पत्नी के रोग का दण्ड कब तक भोगे।"
उषा मौन गर्दन झुकाये चलती, सोचती रही।
रजा की परेशानी समझ ली? पति ने पूछ लिया।
उषा ने आस-पास देख लिया, एकान्त था। फिर भी स्वर दबाकर बोली, "राजे आप बहुत सरल, रज़ा भाई एक नम्बर घंटा में ये नहीं कहती कि ऐसा होता नहीं होगा, परन्तु उतना ही सम्भव कि मर्द का मन एक औरत से भर जाये ।"
“तुम्हारा मतलब रज़ा बहुत घंट-चतुर में बुद्ध" सेठ ने टोका
"राजे, ये मतलब नहीं, "उषा ने अनुनय से आग्रह किया, "रजा भाई ने एक मेडिकल पान्ट सुझा दिया, आप दोस्त से सहानुभूति में मान गये। मेरा भी सवाल है. उनकी शादी को छः साल से ज्यादा हुए, गेती भाभी में ऐसी विकृति इतने दिन बाद आ गयी? रजा की परख, समझ में दोष नहीं हो सकता?"
"तुम बहुत वकील बन गयी।" सेठ मुस्कराया। वे क्लब के सामने चौराहे पर पहुँचकर लौटने को थे । सेठ ने कहा, "रजा का मकान यहाँ से नजदीक उसके यहाँ चलो। तुम स्वयं रजा की बदमाशी के लिये डॉट देना। हम दोस्त से सहानुभूति में कुछ न बोलेंगे।"
"हम नहीं बोलते आपसे!" उया झमक कर मान में पति से बोली, "आपके दोस्त जानें, आप जानें, हमें क्या!"
"तुम तो बिना जाने सब कुछ जानती हो।" पति ने चिडाया, "यह कैसे जान लिया कि रजा की शादी के छ: बरस बाद शिकायत हो गयी? रजा ने तो शादी के छः मास बाद ही मुझे और नरेन्द्र से यह कहा था। उसने माना, छः मास वह स्वयं पहले आवेग के उन्माद में मतवाला, फिर अति से घबराने लगा। उसने बताया, गेली की बल प्रयोग वा पीड़ा के लिये अतुष्टि का परिणाम क्या होता है; उसे मान-डेड मास बाद शिकायत हो जाती है. पति की अन्यत्र कहीं आसक्ति उसकी चिन्ता नहीं। किसी न किसी कारण पति को मारने-पीटने के लिये मजबूर कर देगी। रजा को पहले बैनी पशुता से ग्लानि परन्तु देखा, जितनी करारी मार गेती को उतना ही गहरा संतोष महीने इंद्र महीने बाद फिर भड़का और यह रोग बड़ता ही जा रहा है।"
उषा सोचती रही, दो दिन पूर्व पति को अनुदार और असहिष्णु समझने के लिये खेद। पति के उदार और तर्कसंगत विचारों के लिये गर्व भी रजा और गेती के दुर्भाग्य के लिये दोनों के प्रति अस्पष्ट सी सहानुभूति। पति से सुनी, पुष्पा भाभी और उसके पति में असामंजस्य की आजीवन यातना की बात भी याद आयी। सोचती रही, परिवारों द्वारा आयोजित विवाहों में ही नहीं, स्वयं वरण करने वाले दम्पतियों में भी ऐसी स्थिति की सम्भावना। ऐसे असंतुलन से बचाव का उपाय भी क्या जो विवाह के बाद ही प्रकट हो सके।
उषा ने रसेल की पुस्तक 'मैरेज एण्ड मौरल्स' पड़ी थी। नर-नारी में परस्पर सम्यक परिचय के लिये विवाह से पूर्व काम सम्बन्धों के सुझाव से बहुत ग्लानि अनुभव हुई थी। अब खयाल, उस नैतिकता में दम्पति में असामंजस्य की निरन्तर यातना की सम्भावना भी
सम्मिलित ऐसे विवाह को जारी रखने में क्या नैतिकता? रसेल के सुझाव पर अपराध भावना के बिना सदाशय से विचार नहीं किया जा सकता?
उषा ने मौन तोड़ने के लिये कहा, “आपने अपना नया मकान दिखाया नहीं। हम कभी गेती भाभी से मिल आते। वो तो खुद आयेंगी नहीं।"
"वह खुद नहीं आ सकेगी।" रजा ने माना, "आपसे कहा था, चलने के लिये आपको कम्युनल लोगों से परिचय नापसन्द । आपको बताया, हमारा साडू फजल अहमद मजहब और रस्मो-रिवाज के बारे में कम्युनल या असहिष्णु नहीं, केवल राजनैतिक दृष्टि से कम्युनल है; उसका फायदा भी उठा रहा है। यह बात मुझे बहुत नापसन्द, लेकिन उसकी मदद के सिवा गेती के लिये प्रबन्ध मुमकिन नजर न आया।""
रजा बता चुका था उसके सेना में जाने के विचार से गेती, उसके पिता, सम्बन्धी, स्वयं रज़ा का परिवार सभी असहमत थे। केवल उसके हमजुल्फ ने ही उसके विचार का समर्थन किया था। साहू को मुस्लिम रूढ़िवादी ढंग स्वयं नापसन्दा अपनी लड़की को आधुनिक शिक्षा देना चाहता था, परिवार में भी नया ढंग चालू करने की इच्छा।
लखनऊ में जहाँ अब महलनुमा विधायक निवास बन गये हैं, उस समय दारुलशफा के खस्ताहाल मुहल्ले की बस्ती थी। उसी जगह फजल अहमद और रज़ा ने अपने परिवारों से दूर रहने के लिये मिलकर एक खस्ताहाल, पुराने ढंग का लेकिन अच्छा बड़ा मकान किराये पर ले लिया था। वहाँ खास सुविधा थी बच्चों के लिये लालबाग स्कूल और कान्वेंट स्कूल समीप होने की और दो बरस पूर्व कैंट रोड पर आधुनिक ढंग का मॉन्टेसरी स्कूल भी खुल
गया था।
बेबे को चाय के लिये पानी चढ़ाने के लिये कहकर उपा मुस्करायी, “डाक्टर भाई, आप तो ब्रिटिश सेना के सिपाही । जानते ही हैं, हम तो आपके विरुद्ध मोर्चे में हम युद्ध-विरोध में, क्विट इंडिया आन्दोलन में शामिल हो जायें तो आप सरकार के हुक्म से हम पर गोली चलायेंगे?”
"भाभी, आन्दोलनों की रोकथाम पुलिस का काम, सेना का नहीं। सेना दूसरे देशों से लड़ाई के लिये। हम जर्मनों- जापानियों से लड़ सकते हैं; हिंदुस्तानियों से कैसी लड़ाई। आप क्या जापानी सेना की ओर से लड़ने के लिये बढ़ेगी?" रजा हँसा।
क्या मालूम !" उषा भी हंसी।
"आप जापानियों की करतूत देखकर उनकी ओर से नहीं, उनसे ही लड़ेंगी।" रज़ा ने विश्वास से कहा।
उषा फिर मौन रजा ही बोला, "अभी तो हम दो माह ट्रेनिंग में रहेंगे। फिर देखिये बेस कैम्प में भेजा जाता हूँ या फ्रंट पर भविष्य कौन जाने, लेकिन मेरा मन कहता है, यह हमारी अन्तिम भेंट नहीं, न हमारे सम्पर्क का अंत !"
"आपने मेरे मुँह की बात कह दी।” उषा मुस्करायी।
उषा का खयाल था, अब शुरू कर दिया तो डील देना ठीक नहीं। सोमवार भी ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी जाने का विचार था। सवा नौ श्यामा आ गयी हाथ में पुस्तकें- नोटबुक । "आओ! आओ! हम तो खुद यूनिवर्सिटी जा रहे हैं, ग्यारह बजे।" उपा ने स्वागत किया
आँखों में जिज्ञासा।
"इसी अनुमान से ज्योतिषी भैया ने भेजा है।" श्यामा ने बताया, "आपके परसों के भाषण की रिपोर्ट उन्हें मिल गयी। उनकी ओर से बहुत सराहना और बधाई। भैया का विचार है, आप कुछ ज्यादा तेज बोल गयीं। अब आप कुछ दिन वर्सिटी में चुप रहें। आपके परसों के भाषण पर पुलिस की प्रतिक्रिया देख ली जाये। वेद भैया से कहियेगा, खयाल रखें, पुलिस ने आप पर नजरसानी तो शुरू नहीं कर दी। "
दो दिन बाद वेद ने सूचना दी, गी० आई० डी० का आदमी सीधी गली में पूछ-ताछ करके काली साड़ी वाली बीबी का मकान देख गया है। विश्वास दिलाया, इस गली में आपके बारे में कोई रिपोर्ट नहीं देगा। फिर भी सावधानी बेहतर।
उपा दो दिन बाद यूनिवर्सिटी गयी। कम्युनिस्टों का काम, जहाँ तहाँ छोटे-छोटे दलों में चल रहा था। उपा चुपचाप लाइब्रेरी में चली गयी। तीन बजे लौट रही थी तो फेडरेशन वाले इन्क्लाब जिन्दाबाद से फासिस्ट विरोध और जनतंत्र के समर्थक नारे लगा रहे थे। उनके पीछे-पीछे स्टूडेंट कांग्रेस के कुछ लड़के 'गद्दार मुर्दाबाद'! महात्मा गांधी की जय! इन्कलाब जिन्दाबाद!' के नारे लगा रहे थे। उपा नजर बचाये निकल गयी।
अमित रविवार पद्मा को लेकर आया। बहस के बजाय मजाक करता रहा। उपा का ध्यान अखबार के समाचारों की ओर दिलाया सोवियत सेनाओं ने नाजियों से खारकोब और रोस्तोव वापस ले लिये थे। दूसरे दो मोर्चों पर भी नाज़ी कई मील पीछे हटे थे। अमित ने कई कारण बताये अब स्थिति तेजी से बदलेगी ।
तीन अगस्त, सोमवार सरला ने सन्देश दिया, आपकी सहेली ने तीन बजे यूनिवर्सिटी आने को कहा है। काली साड़ी में न जाइयेगा।
उपा गर्ल्स कॉमन रूम में गयी। श्यामा प्रतीक्षा में थी। दोनों चल दीं।
“मंकी ब्रिज के बजाय डालीगंज के रास्ते चलें। वह रास्ता बहुत लम्बा है, लेकिन उस पुल से इक्के पर अमीनाबाद जाने में साफ देख सकेंगे, कोई फालो तो नहीं कर रहा।” श्यामा ने सुझाया।
"श्यामा और उषा कैम्पस के भीतर रास्ते से बाबूगंज से डालीगंज तक पैदल गयीं। वहाँ से अमीनाबाद के लिये इक्का ले लिया। अमीनाबाद से फिर पैदल
फतेहगंज में श्यामा एक लम्बी लगभग सूनी गली से गुजरी दो मोड़ों पर रुककर देख लिया, कोई पीछा नहीं कर रहा था। घर के दरवाज़े पर श्यामा की दस्तक के उत्तर में किवाड़ खोले श्यामा की माँ ने जिया की नजर उषा के चेहरे पर पड़ गयी।
उपा को याद था, जिया के यहाँ और भीतर मिश्र भवन में उसका नाम इन्दु है और याद आ गया, पहली बार जिया को और भीतर सरस्वती की माँ और बुआ को भी उषा की अनविंधी नाक देखकर बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ था।
उषा आठ मास पूर्व श्यामा के यहाँ आयी थी तो आँचल आधे सिर पर था। तब उषा के सिर के पीछे भरा-पूरा जुड़ा था और माथे पर चटक लाल बिन्दी अब उषा सिर के केश काट देने के कारण साड़ी के आँचल से सिर पूरा ढँके थी। माथे पर से बिन्दी गायब। उषा ने जिया का विस्मय भाँप कर अनदेखा कर दिया।
उपा जिस हिन्दू या मुसलमान परिवारों में जाती, स्त्रियों को उसकी अनबिंधी नाक से
विस्मय। ईशा ने अमर के सामने आग्रह किया था, "हाय, कितनी प्यारी सूती हुई नाक है दुल्हन की ऐसी सपाट अनबिंधी नाक लोग अच्छी नहीं मानते रतनी को बहुत अच्छा अन्दाज है। पड़ोस में लोग उसी को बुलाते हैं। हल्दी लगा डोरी पल भर में डाल देगी। दरद नहीं होगा, नाक पकेगी भी नहीं हम अपने हाथ से हीरे की कनी की कील पहना देंगे। बहुत खिलेगी इस पर ईशा ने उपा के गाल दुलरा दिये थे।
"अम्मीजान, इनकी नाक अच्छी लगती है तो उसे काटना क्यों चाहती हैं?" सेठ हँस दिया था।
"हाय, हाय! नौज।" ईशा के माथे पर तेवर नाराज हो गयी थीं, "ऐसी बात हमारे दुश्मनों के वहाँ बेटे, ऐसी बदकलामी नहीं करते।"
उपा मुस्कराकर रह गयी। उसे कुछ कहना न पड़ा। ईशा या रतनी ने भी फिर वह जिक्र
न उठाया।
उपा के पहली बार आने पर जिया और सरस्वती की माँ के समाधान के लिये पाठक ने बात बना दी थी ये उत्तराखण्ड की बहुत ऊँची ब्राह्मण हैं। इन लोगों के यहाँ बेटी देवी मानी जाती है। इनके यहाँ बेटी की नाक छेदना पाप माना जाता है। दोनों प्रौढ़ायें 'राम जी जानें' सोचकर चुपा सरस्वती तब महिला कॉलेज की दसवीं कक्षा में थी। ऐसी गप्प कैसे निगल जाती! उसने खोद-खोद कर श्यामा से उपा की वास्तविकता जान ली। उसे उषा अच्छी लगी थी। पाठक सरस्वती से राजनैतिक काम के सन्देश जहाँ वहाँ भिजवाता रहता। लड़की को इसमें एडवेंचर का रस मिलता था।
श्यामा अपने आंगन में कोने के बरौठे से उषा को मिश्र भवन में ले गयी। आँगन में पाठक की मौसी, सरस्वती की माँ दिखायी दी। उपा ने आदर से गर्दन झुकाकर पूछ लिया, "सरस्वती ऊपर है?"
"अभी स्कूल से कहाँ लौटी। ग्यारहवीं में पढ़ने लगी।" श्यामा और उषा जीने से ऊपर मंजिल के बरामदे में चली गयीं। पाठक पहले की तरह तख्त पर बैठा था। गरमी के कारण केवल बनियान धोती। सिर के केश, दाह्री उसी तरह परन्तु साफ-सुधरे। युवतियों को देखकर उठ गया, "सॉरी! एक मिनट!" भीतर कमरे में जाकर कुर्ता पहन आया। उपा पाठक के समीप तख्त पर बैठी। श्यामा जरा परे बैठ तख्त से एक पुस्तक लेकर पलटने लगी। पाठक भीतर से कागज भी लेता आया था। उसने बर्सिटी में उपा के पिछले भाषण की सराहना करते-करते एक छपा हुआ कागज उसकी ओर बढ़ा दिया, "आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के नौ अगस्त, बम्बई अधिवेशन के लिये विट इंडिया रेजोल्यूशन ! मूल प्रस्ताव वही है, वर्धा वाला अन्त के दो पैराग्राफ नये हैं, कार्यक्रम के बारे में उन्हें देख लो। "
उपा ने प्रस्ताव पढ़ लिया। पाठक ने दूसरा छपा हुआ कागज उसे दिया, "यह पट्टाभि का गुप्त सर्कुलर पट्टाभि इज गांधी जवायसे!" दूसरा कागज पढ़कर उषा के चेहरे पर तत्परता का भावा "यह है आगामी संघर्ष का रास्ता। अब गिरफ्तार हो जाने का संघर्ष नहीं है। गिरफ्तारी से बचने के लिये फरार होकर लड़ाई जारी रखनी होगी।" पाठक ने समझाया, "नेताओं के गिरफ्तार हो जाने पर सब निर्देश निर्णय कार्यकर्ताओं, हम लोगों के हाथ में विश्वस्त सूचना है कि सरकार पूरी तरह तैयार है। सब अफसरों और पुलिस के लोगों की छुट्टियाँ कैंसिल कर दी गयी हैं। सक्रिय कांग्रेसियों की सूचियाँ तैयार हैं, अधिकांश
पर नजरसानी शुरू। वर्किंग कमेटी की मीटिंग चार की संध्या है ए० आई० सी० सी० में प्रस्ताव नौ को जायेगा। प्रस्ताव पास होते ही एक झपाटे में सब नेता गिरफ्तार कर लिये जायेंगे। बम्बई बन्दरगाह पर जहाज तैयार है। पूरी कार्यकारिणी को गिरफ्तार करके दक्षिण अफ्रीका मौरिशस भेज दिया जायेगा।" पाठक ने सीधे उपा की आँखों में देखा, "क्यों
"तैयार हैं। जब कहिये।" उषा ने निष्पलक उत्तर दिया।
नौ रविवार है। कहना कठिन है, बम्बई से समाचार कब कैसे मिलेंगे। कम्युनिस्ट ए० आई० सी० सी० में क्विट इंडिया प्रस्ताव की माँगों का समर्थन करेंगे, परन्तु देश की सीमा पर फासिस्ट आक्रमण की स्थिति में युद्ध विरोधी आन्दोलन स्थगित रखने का संशोधन पेश करेंगे। यहाँ संघर्ष का आरम्भ यूनिवर्सिटी में होगा। कूच की ललकार तुम दोगी। यूनिवर्सिटी जाओ तो नौ तक बिलकुल मौना"
दूसरे दिन प्रातः सरला अखवार लेने आयी तो उषा ने अनुरोध किया, "भैया से कहना मुझे मीतू से जरूरी काम है।"
अमित सात की संध्या आया। उषा ने बिस्कुट के दो खाली टीन के डिब्बे, सामान से भरे, कस-बाँधकर तैयार, उसे सहेज दिये, "ये डैडी मम्मी को सौंप देना, मेरी और पप्पू की धरोहर।"
अमित घाघ लड़का युद्ध विरोधी उग्र लोगों से बहिन की सहानुभूति और सम्पर्क से परिचित था। उसे अनुमान, बहिन को तलाशी के लिये पुलिस के आने की आशंका है। उसने पूछा, "डैडी को सौंप दूँ या
अभिप्राय समझकर उपा ने विश्वास दिलाया, “कुछ नकदी, कुछ जेवर हैं।"
नौ अगस्त सुबह उषा नींद खुलते ही अखबार की प्रतीक्षा में अखबार आते ही पढ़ने लगी। प्रस्ताव का मसविदा मालूम था। कार्यकारिणी में प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास होने की आशा थी ही उषा को विस्मय, मुख्य शीर्षक में प्रस्ताव पास होने का समाचार। उसके नीचे उप शीर्षक में दूसरा समाचार - वायसराय से क्विट इंडिया प्रस्ताव पर सद्भावना से विचार की प्रार्थना के लिये गांधी का पत्र कांग्रेस गांधी के पत्र पर शान्ति और सद्भावना से विचार के लिये वायसराय को तीन सप्ताह का समय देगी। बायसराय से सहानुभूतिपूर्ण उत्तर न मिलने पर आन्दोलन आरम्भ करने से पूर्व गांधी अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट और चीन के राष्ट्रपति च्यांग काई शेक से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार में मध्यस्थता के लिये अनुरोध करेंगे।
उपा के सिर में क्षोभ से चक्कर वह अपनी नाव आन्दोलन में ठेल देने के लिये लंगर खोले तैयार, यहाँ अभी वायसराय से अपील पर सम्भावना की आशा में तीन सप्ताह प्रतीक्षा। फिर अन्तर्राष्ट्रीय अपीलों के सिलसिले में शायद तीन मास या अधिक।
क्विट इंडिया प्रस्ताव के सम्बन्ध में वेद को भी बहुत उत्सुकता। वह शहर में पुलिस की तैयारी से भी परिचित। उस दिन समाचार की उत्सुकता में स्वयं आ गया। उषा अखबार उसकी ओर बढ़ाकर मौन रही ।
वेद पूरा समाचार पढ़कर फट पड़ा, "यह कैसी कॉमेडी ! गांधी आठ मास से ब्रिटिश सरकार से न्याय, नैतिकता और सद्भावना के लिये पूर्ण निराशा प्रकट करते रहे, इसीलिये
क्विट इंडिया प्रस्ताव में अंग्रेजों को भारत से निकल जाने की ललकार उस ललकार का परिशिष्ट, सद्भावना की अपील! विकट पहेली है।"
उपा मीन। दोनों हथेलियाँ दिखा दीं, जो है तुम्हारे सामने।
वेद और क्षुब्ध, "जो नाटक कल बर्निंग कमेटी में हुआ, आज ए० आई० सी० सी० में होगा। गांधी को डिक्टेटर माना तो उनकी बात पर आपत्ति कौन करेगा? कम्यूनिस्टों का संशोधन आन्दोलन स्थगित रखने के ही पक्ष में।"
उपा विवशता का संकेत कर मौना
रविवार था। वेदप्रकाश को प्रेस न जाना था। दो दिन पूर्व सिब्तेहसन के सन्देश के उत्तर में कहला दिया था. रविवार सुबह हाजिर होगा। नवाब फर्रे का छोटा बेटा सिब्तेहसन और वेद स्कूल में सहपाठी थे। दोनों को स्पोर्ट्स का शौक। स्पोर्ट्स में वेद की गति बहुमुखी, कनकैया से क्रिकेट तक। नवाब फरें की हवेली के हाते में क्रिकेट के लिये अच्छी जगह थी। सिब्ते ने अपनी क्रिकेट टीम बनायी थी। वेद टीम का सबसे अच्छा गेंद फेंकने वाला। वेद गुफ्तगू के लहजे, अदब सलीके से वाकिफा नवाब साहिब और बड़े नवाबजादे नूरुल हसन की भी मंजूरे नजर वेद के लिये नवाब साहब का दीवान तफरीह की जगह। उनके यहाँ रेडियो भी था। उससे अधिक दिलचस्प मुसाहिबों और खुद नवाब साहब की टिप्पणियाँ। नवाब साहब और नवाबजादे अंग्रेजों के वफादार राजभक्त, लेकिन बड़े नवाब साहब को अंग्रेजियत से गहरी नफरत उनके खयाल में अंग्रेजी तहजीब गुफ्तगू पोशाक सब लाशऊर और कमीने नवाब साहब के गर्दन तक घंटे पटेदार वालों में माँग रहती। मखमल की जरीदार ऊँची टोपी, छकलिया अचकन, चूड़ीदार पायजामा, कामदार सलीमशाही जूती । बेटे अंग्रेजी तालीम के असर से आधुनिक हेयर कट करवाते, शौकिया कोट- पतलून भी पहन लेते।
दीवान में नवाब साहब के लिये खूब बड़े तख्त पर मोटी मसनद और मखमली जरीदार गिलाफ चढे गावतकिये थे। मेहमान अगल-बगल जरा नीची मनसदों पर बैठते। कुछ मोढ़े और पाँच-छ: किस्म-किस्म की कुर्सियाँ भी नवाब साहब के सामने हर वक्त खमीरा महकता नेचा रहता। मेहमानों के लिये दो और नेचे घूमते रहते। खुशबूदार जर्दे और किमाम लगी गिलौरियाँ आती रहतीं। नवाब साहब घंटे-डेढ़ घंटे में नीरस हो चुका पान फेंककर ताजी गिलौरीयाँ लेते रहते।
वेद नवाब साहब के दीवान में पहुंचा तो दो-चार लोगों के साथ नूरुल मौजूद था। रेडियो पर समाचारों से पूर्व संगीत चल रहा था। दीवार पर घड़ी में आठ में दो मिनट नवाब साहब कभी सुबह दीवान में आते कभी न आते। अंग्रेजी न जानते थे इसलिये उनकी मौजूदगी में अंग्रेजी प्रोग्राम लगाने की बेअदबी न की जाती थी। नूरुल ने तालुकदार कालेज में इन्टर तक पढ़कर छोड़ दिया था। जहीन जवान, अंग्रेजी अखबार मजे में पढ़ता था। अंग्रेजी में समाचार भी सुनता।
समाचार आरम्भ हुए। पहले समाचारों के शीर्षक तीसरे वाक्य से ही नूरुल और वेद के चेहरे पर तनाव । कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने क्विट इंडिया प्रस्ताव पास कर दिया था। बम्बई में मिस्टर गांधी, कांग्रेस प्रेसीडेंट मौलाना आजाद और वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य सुबह
गिरफ्तार कर लिये गये थे। अन्य स्थानों पर भी सक्रिय कांग्रेसियों की गिरफ्तारी के आदेश । समाचारों के साथ सेक्रेटेरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया एमरी का वक्तव्यः कांग्रेस ने जनतंत्र पर फासिज्म के भयंकर आक्रमण की नाजुक स्थिति में, जब भारत की सीमा पर जापानी हमला हो रहा है, क्रिट इंडिया प्रस्ताव से विध्वंस की बली बगावत की धमकी दी है। सरकार के हाथ में कांग्रेस के गुप्त आदेशों के प्रमाण मौजूद हैं जिनसे स्पष्ट है कि विट इंडिया आन्दोलन अहिंसात्मक क्रान्ति के नाम पर विध्वंस का अभियान है। पट्टाभि सीतारमैया और यू० पी० के कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी के० डी० मालवीया के निर्देशों में बुद्ध की नाजुक स्थिति में यातायात और सम्पर्क के साधनों सड़कों, रेल, तार डाक और शासन व्यवस्था के केन्द्रों के ध्वंस से फासिस्ट शत्रु की सहायता और जनतंत्र के साथ विश्वासघात के कार्यक्रमों के सुझाव हैं। ब्रिटिश सरकार मिस्टर गांधी और कांग्रेस की उनके प्रस्ताव पर सहृदयता से विचार की अपील के धोखे में कांग्रेस को विध्वंसक अभियान आरम्भ करने और उसे बड़ा सकने का अवसर देने का आत्मघाती भोलापन नहीं दिखा सकती ।
“सरकार ने पहल कर दी।" समाचार समाप्त होते ही नूरुल बोला, "लड़ाई में पहले जबर्दस्त वार की बहुत अहमियता"
“सही है नवाब साहब।” वेद ने उठते हुए झुककर तसलीम किया। वह तुरन्त लौटकर उपा को समाचार देने के लिये व्याकुल
“शहर में आसार से जाहिर था, सरकार तैयार है।" नूरुल ने और कहा।
"बजा फर्माया नवाब साहब।" वेद रुखसत होने के लिये सलाम करने को था, नवाब साहब ने दीवान में कदम रखा। वेद ने फिर झुककर सलाम किया। नवाब के आते ही चल देना गुस्ताकी होती। नवाब के बैठ जाने पर विनय में एक बार बैठना जरूरी था।
नवाब ने कृपापूर्वक वेद को सम्बोधन कर लिया, "कहो साहबजादे, वैरियत है? मुद्दतों में न्याज न्याज हुआ।"
वेद ने झुककर फिर तसलीम से शुक्रिया कहा। हिंदुस्तानी में खबरें शुरू हो गयीं। -गौर से सुना जाये।" नवाब साहब ने मौन के संकेत में हाथ उठा दिया। वेद दाँत पीसकर चुप बैठे रहने को मजबूर उसे पूरे समाचार हिंदुस्तानी में दुद्वारा सुनने पड़े।
समाचार समाप्त होते ही वेद उठने को कसमसाया। तब तक नवाब साहब नेवे से दो कश लेकर बोल पड़े, "बहुत नही। अंग्रेज सियासतदार है। हुकूमत का ये ही सही तरीका है। रियाया की क्या ताब कि शहनशाह को धमकावे ।" बोलते-बोलते नवाब ने खवास को गिलौरियों के लिये इशारा कर दिया।
नवाब पान के लिये हुक्म कर चुके थे। पान कबूल किये बिना उठ जाना बेअदबी । वेद को लग रहा था, चीटियों के भिटे पर बैठी हो लेकिन महफिल के अदब-कायदे से मजबूर। एक खिदमतगार बड़ा गिलौरीदान और तौलिया लेकर हाजिर हुआ, दूसरा खादिम टोंटीदार लोटा और मिलपची लेकरा नवाब गावतकिये से जरा आगे झुक गये। खादिम ने दोनों हाथों में थमी सिलपची उनके सामने कर दी। नवाब ने मुंह में भरे पान की लीजी मिलपची में थूक दी। दूसरे खादिम ने लोटे की टॉटी उनके मुँह से लगाकर पानी दिया। नवाब ने सिलपची में दो कुल्ले करके मुँह साफ किया। दूसरे खादिम ने तौलिये से नवाब के होंठ पोंछे। खादिम ने गिलौरीदान से दो गिलौरी लेकर सामने की। नवाब ने मुँह बोल
दिया। खादिम ने गिलौरियाँ नवाब के मुँह में दे दीं। नवाब ने पान जमाने के लिये जबड़े चलाये। खादिम ने फर्श से उगालदान उठाकर उनके सामने किया। नवाब ने एक पीक उगालदान में डालकर महफिल की तरफ इशारा किया। खादिम ने पहले नूरूल के सामने पेश किया, फिर दूसरे मेहमानों के सामने मेहमानों ने इधर-उधर पहले आप, पहले आप' कहकर तकल्लुफ से पान कबूल किये।
वेद दाँत पीसे नवाब के लिये शुभ कामनायें कर रहा था लेकिन पान कबूल करके बड़े होकर झुककर सलाम किया और नवाब के सामने मुंह किये दो कदम पीछे हटकर ही रुखसत हो सका।
वेद नवाब फरें की हवेली से साइकल तेज दौड़ाता लौटा। उपा के समीप बैठकर नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार बताया, खासतौर पर एमरी का वक्तव्य. "दीदी, ठन गयी!" समाचार से उपा को दूसरी चिन्ता नेताओं की गिरफ्तारी के समाचार से संघर्ष आरम्भ होने की बात थी। संघर्ष का आरम्भ यूनिवर्सिटी से रविवार यूनिवर्सिटी बन्द गिरफ्तारी के समाचार की आशा दस तारीख को थी। सरकार ने एक दिन पहले चोट कर दी। पाठक ने निर्देश की प्रतीक्षा के लिये कहा था। उसे मालूम न था, आरम्भ का क्या कार्यक्रम निश्चय किया गया है। उसने वेद की ओर देखा “शहर में समाचार कैसे पहुँचेगा? कांग्रेसी क्या कर रहे हैं?"
"जगह-जगह लाउडस्पीकर लगे सरकारी रेडियो हैं, सरकार समाचार और गुप्त सर्कुलर भी लोगों को स्वयं बता देगी। " वेद ने कहा, "आपको समाचार देने आया था। अब देखकर आता है।"
वेद चौथे पहर लौटा। पहली सूचना दी, सी आई डी का आदमी आपकी बाबत पूछताछ करके यह मकान देख गया है, और बताया: सक्सेना साहब और गोपी बाबू ए० आई० सी० सी० में बम्बई गये हैं। गुप्ता जी, हरि भैया, मंजूर साहब गिरफ्तार कर लिये गये। कांग्रेस दफ्तर पर पुलिस ने अपना ताल डालकर पहरा लगा दिया है। बाजार में बहुत दुकानें बन्द हैं, कुछ खुली भी हैं। लीग वाले कहते फिर रहे हैं, जिना का हुक्म है कि मुसलमान न जंग की मुखालफत में कांग्रेस के साथ न जंग की हिमायत में अंग्रेजों के साथ मुसलमान न्यूट्रल हैं, उन्हें हड़ताल से वास्ता नहीं।
वेद यूनिवर्सिटी का भी चक्कर लगा आया था। बताया होस्टलों में खूब गरमागरमी थी। फेडरेशन वाले जुलूस निकाल कर नारे लगा रहे थे— 'महात्मा गांधी की जय! हमारे लीडर छोड़े जायें! यह जुल्म नहीं चलेगा! इन्कलाब जिन्दाबाद! फासिज्म मुर्दाबाद! फासिस्ट पिट्ठू मुर्दाबाद! संसार के मजदूरों एक हो! हिन्दू-मुसलिम एक हो! देश की आवाज है, लीडर हमारे सरताज हैं। आजादी के लिये फेडरेशन को वोट दो! एकता के लिए फेडरेशन को वोट दो!' 'क्विट इंडिया' या 'भारत छोड़ो' के नारे नहीं लगा रहे हैं। फेडरेशन के जुलूस के आगे सुरमा बैनजी, लता शर्मा वाजिदा और हमीदा मुट्टियाँ बाँहें फेंक-फेंककर नारे लगा रही थीं।
स्टूडेंट कांग्रेस वालों के जुलूस अलग, उनके नारे 'महात्मा गांधी की जया अंग्रेजो, भारत छोड़ो! इन्कलाब जिन्दाबाद भगतसिंह जिन्दाबाद! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! हिन्दू- मुसलिम एक हो! अंतिम संघर्ष में बढ़ो! करो या मरो! गद्दारों से सावधान! हमारे लीडर
जेल में हैं। इलेक्शन नहीं होगा!" दोनों जुलूसों में भिड़न्त होते-होते बची।
गोलागंज में रिटायर्ड दारोगा हाजिम गुण्डों को लेकर मुसलमानों को भड़का रहा है। मुसलमानों को हिन्दू राज के खतरे की मुखालफत करना जरूरी है। कांग्रेसी हिन्दू, अंग्रेजों, मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ अपनी हिमायत में बुतपरस्त जापानी बुद्धों को बुला रहे हैं।
उषा पिंजरे में बन्द पंछी की तरह व्याकुल, क्या करे? वेद से अनुरोध किया, इस मकान पर पुलिस की नजर है तो वहाँ (पाठक को सूचना हो जानी चाहिये। कोई आने-जाने वाला मुसीबत में न पड़ जाये।
"कोशिश करूँगा।” वेद को पाठक का निश्चित ठिकाना मालूम न था। किसी विश्वस्त साथी की मार्फत सन्देश भेज सकता था।
उपा रात भर चिन्ता में सुबह अखबार की आहट पाते ही उधर लपकी। नेताओं की गिरफ्तारी के बाद जहाज से मॉरीशस वा दक्षिण अफ्रीका नहीं, स्पेशल ट्रेन से देश में ही किसी अज्ञात स्थान की ओर भेज दिया गया था। यू० पी० में पाँच सौ से अधिक गिरफ्तारियाँ हो चुकी थीं। बनारस, आगरा, इलाहाबाद, कानपुर में विद्यार्थियों के छुटपुट जुलूसों को लाठीचार्ज से तितर-बितर किये जाने की खबरें थीं। लखनऊ में कुछ भी नहीं। उषा दुविधा में 'वर्सिटी जाये या नहीं?
दिन खिल गया था पर सूर्य की किरणें अभी मकान की छतों की मुंडेरों से न उतरी थीं। ज्योती पर दस्तक से उषा को चिन्ता, इतनी जल्दी कौन? खिड़की की चिक से गली में झाँककर देखा। कोई गृहस्थित चादर ओडे, छोटा घूँघट उषा को विस्मय जाकर इथोडी की सोकल खोली।
उषा अचकचायी और फिर चिन्ता मुस्कान में बदल गयी, "बडी पुरखिन बनी हो!" श्यामा थी। सादी साड़ी पर दुपट्टा ओडे, छोटा घूँघट हाथ से झूलती मन्दिर जाने की छोटी कंडी, कंडी में चार-छः फूल, पूजा की छोटी लुटिया उषा ने उसे साड़ी पर दुपट्टा ओ कभी न देखा था। श्यामा ने बैठक में आकर दुपट्टा एक ओर रख दिया। दोनों सिर जोड़कर साँस के स्वर में बात करने लगीं।
श्यामा पाठक का संदेश लाबी थी। उँगलियों पर गिन-गिनकर एक-एक प्रसंग बताया। चाय के लिये भी न ठहरी। "आप दस तक जरूर पहुँच जायें!"
श्यामा के लौट जाने पर उषा की व्याकुलता तत्परता में बदल गयी। तैयार होते बेबे से कहा, “आज कचहरी में तारीख है।" कुछ देर बाद और बताया, "सरीकों ने बहुत झगड़े डाल दिये हैं। वकील कह रहा था, इलाहाबाद हाईकोर्ट में दरखास्त देनी होगी। उसके साथ दोपहर की गाड़ी से उधर चली जाऊँगी। रात इलाहाबाद में सहेली के यहाँ रह लूँगी। इलाहाबाद गयी तो कल सुबह आऊँगी, नहीं तो कल साँझ या परसों सुबह तुम्हें यहाँ अकेले खलेगा। मम्मी के यहाँ चली जाना। लौटकर बुलवा लूंगी।"
उपा तैयार हो गयी। बिना किनारे की काली साड़ी ब्लाउज सबसे बड़ा पर्स लिया, खूब भरा था। दस-दस के चार नोट और दस छुट्टे रुपये वेवे की मुट्ठी में रख दिये! ये मैं कहाँ सम्भालूँगी।" बेबे परेशान ।
"ज्यादा निकाल लिये। इतने क्या करूंगी।" उषा ने कहा, "कहीं भी रख ले।"
उषा पर्स ठीक कर रही थी। वेवे को चिन्ता, लड़का माँ को जाते न देखे उसे बहलाया, पप्पू दौड़ो दौड़ो, छत पर पतंग गिरी।"
उषा ने पुकार लिया, "पप्पू बेटे आओ, मामा को बाई बाई करो!"
बेबे चकित, लड़की क्या कर रही है। लड़के को सम्भालना मुश्किल हो जायेगा। फिर खयाल, बेचारी कल तक के लिये बच्चे को छोड़कर बाहर जा रही है।
पप्पू ने मों के साथ जाने की जिद्द में उसकी साही मुट्ठियों में कम ली। गला फाड़ कर दहाड़ा। उपा ने लड़के को बेबे की गोद में दे दिया। जोर लगाकर बच्चे की मुट्ठी खोली। जाते- जाते दाँत पीसे उसके हाथ चूम लिये।
कैसरबाग से आगे वर्सिटी की ओर जाते विद्यार्थियों की संख्या साधारण से बहुत अधिक सुबह अखबार में समाचार था, शहर में दफा १४४ जारी कर दी गयी है। फेडरेशन और स्टूडेंट कांग्रेस दोनों ओर के कार्यकर्ता, विरोध प्रदर्शन के लिये विद्यार्थियों को बटोर- बटोर कर वर्सिटी ला रहे थे। जुलूस के लिये यूनिवर्सिटी पुल के दोनों ओर लठैत, बन्दूकची और घुड़सवार पुलिस बड़ी संख्या में पुलिस के बड़े अंग्रेज अफसर मौजूद ।
उषा ने यूनियन हाल के समीप फाटक पर सवारी छोड़ दी। तब पुलिस और खुफिया
• पुलिस वर्सिटी की सीमा में कदम न रख सकते थे। विद्यार्थियों या स्टाफ में भेदियों की बात दूसरी उन दिनों पुल से यूनिवर्सिटी तक सड़क का नक्शा बिलकुल दूसरा था। उषा यूनियन हाल के सामने से जा रही थी, सुरमा बैनर्जी उसकी ओर लपक आयी, "कामरेड हरीशे और शर्मा आपकी प्रतीक्षा में हैं। "
सुरमा उसे आर्ट डिपार्टमेन्ट के स्टाफ रूम की ओर ले गयी। कामरेड हरीश और शर्मा उन्हें देखकर उधर आ गये. दूसरी ओर से अविनाश सिंह और सिन्हा भी । हरीश ने बैठते ही बात शुरू की, "हमें सन्देश मिला है, स्टूडेंट कांग्रेस आज का प्रोग्राम संयुक्त रूप से करने के लिये तैयार है। आपके क्या सुझाव और शर्तें हैं?"
"क्विट इंडिया रेजोल्यूशन आपको मालूम।" उपा ने साफ कहा, "हमारा प्रस्ताव संघर्ष के लिये पुकार आप कहाँ तक सहयोग देंगे?"
"हमारी नीति आपको मालूम है। संयुक्त प्रोग्राम के लिये हमारा सुझाव है, हरीश ने जेब से एक कागज निकाल लिया, "पहली बात, इस समय मुख्य नारा लीडरों की गिरफ्तारी का विरोध और उनकी रिहाई की माँगा "
"गिरफ्तारी का विरोध ठीक है।" उषा ने कहा, "रिहाई की माँग निष्फल रहेगी। उसका
लाभ?"
"गिरफ्तारी के विरोध में रिहाई की माँग सम्मिलित इस बात पर जन क्षोभ जगाने और जन सहयोग पाने के लिये।" हरीश ने कहा।
उषा ने अविनाश सिन्हा की ओर देखा। "ठीक है।" दोनों ने स्वीकारा। उषा ने हामी भर सी। हरीश ने दूसरी बात कही, "आज के प्रदर्शन में चुनाव का मामला न उठाया जाये। तीसरा, सभा और जुलूस में फेडरेशन और स्टूडेंट कांग्रेस के विरुद्ध नारे न लगाये जायें।" उसने कागज उपा को दिखा दिया।
"मंजूर है।" उषा ने स्वीकार कर लिया।
"विरोध प्रदर्शन के दो भाग हो सकते हैं।" हरीश ने फिर कहा, "एक रैली, दूसरा
जुलूस। नगर में दफा १४४ है। आप चाहें रैली कन्ट्रोल कर लें, चाहें जुलूस लीड कर लें।" "हम दोनों में समान भाग लेंगे।” सिन्हा बोला।
“जरूर दोनों में भाग लीजिये, परन्तु जिम्मेदारी बँट जानी चाहिये। उसमें दखल नहीं।" "हम रैली प्रिसाइड करेंगे।" सिन्हा ने कहा।
उपा ने उसकी ओर असंतोष से देखा।
"मैं जुलूस में खुद लाठियाँ खाने, महने को तैयार हूँ।" सिन्हा ने सीना ठोंका, परन्तु जुलूस में दूसरों को साथ ले जाने की जिम्मेदारी नहीं ले सकता।"
रैली तो कैम्पस के भीतर होगी।" शर्मा का स्वर कहा, "शहर को क्या पता लगेगा? हरीश ने उसकी बाँह पर हाथ रखकर चुप करा दिया।
“आप जुलूस निकालने की जिम्मेदारी लेते हैं?" उपा ने पूछा।
"हाँ लेते हैं। जो सम्भव होगा, करेंगे।"
क्या प्लान है? योजना आपसी सुझाव से बनना बेहतर।" उपा ने पूछा। "अपनी योजना तब बतायेंगे जब जिम्मेदारी हमें दी जायेगी। आपके सुझाव सुनेंगे, व्यावहारिक होंगे तो मानेंगे।"
"जिम्मेदारी आपकी रही।" उषा ने स्वीकारा। हरीश ने पाँच वाक्यों में अपनी योजना बता दी। हरीश जुलूस का कमाण्डर स्वीकार किया गया, रैली का प्रेसीडेन्ट सिन्हा, मुख्य
वक्ता उपा
आर्ट डिपार्टमेन्टका कागल भीड़ से ठसाठस भरा था, बरामदों में भी विद्यार्थी। लॉन के सिरे पर वक्ता के लिये छोटा तख्त सिन्हा, हरीश शर्मा, अविनाश, उषा को तख्त की ओर ले गये। श्यामा और दूसरी लड़कियाँ बरामदे में थीं। तख्त पर खड़ा फेडरेशन का खरे बोल रहा था। उसी ने कहा, "साथियो, अब सभा की नियमित कार्रवाई शुरू होती है। " सिंह ने घोषणा की, “कामरेड सिन्हा से अनुरोध है, सभापति का आसन लें।" सिन्हा तख्त पर आकर बोला, "साथी विद्यार्थियों, इस संकट काल में हमें विदेशी दासता और साम्राज्यवाद से युद्ध में परस्पर भेदभाव भुलाकर अपने नेताओं के वफादार सैनिकों की भाँति एकप्राण होकर उठना है पहले कामरेड आनन्द बोलेंगे।"
कामरेड आनन्द घोर कम्युनिस्ट, बहुत पैंतरे और तर्क से बोलने वाला। उसने कहा जनता अपने सरताज नेताओं की गिरफ्तारी की चोट से सिर झुकाकर चुप नहीं हो जायेगी। ब्रिटिश सरकार का यह तरीका फासिस्ट विरोध का सही तरीका नहीं है। विट इंडिया रेजोल्यूशन फासिस्ट शत्रु की सहायता के लिये तैयारी नहीं है, बल्कि फासिज्म से लड़ने के लिये अवसर की माँग है। भीड़ से विरोधी नारे, 'नो कम्प्रोमाइज फाइनल स्ट्रगल ! डाउन विदट्रेटर्स! कामरेड उपा! कामरेड उपा बोलें !"
सिन्हा ने खड़े होकर भीड़ को चुप कराया, "विद्यार्थी साथियों, देश के नेताओं पर सरकार द्वारा चोट के विरोध में हम सब विद्यार्थी और भारतवासी संघर्ष में एक हैं। साथियो, धैर्य से सुनिये। मैं कामरेड उपा सेठ से आने का अनुरोध करता हूँ।"
उषा तख्त पर चली गयी, काली साड़ी ब्लाउज। चेहरे पर तमतमाहट। शोक और क्रोध का प्रतीक ज्वाला और थुये का स्तूप, स्टूडेंट कामरेड्स! सिटिजन्स ! कन्ट्रीमेन!" अंग्रेजी में उद्वेग से थर्राती नारी कंठ की प्रेरके ललकार, "हमारे राष्ट्र के गौरव और राष्ट्रीय भावना के
प्रतीक गांधी और हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्रीय जीवन और अस्तित्व के अधिकार के लिये हमें मोर्चे पर पुकारा है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी फासिज्म ने हमें कुचल सकने के अहंकार में हम पर पहले चोट करके इस संघर्ष को हमारे लिये अंतिम मोर्चा बना दिया है। इस संघर्ष का अंत हमारी स्वतंत्रता से होगा या हमारे अंतिम श्वासों और हमारे रक्त की अंतिम बूँदों से गांधी का आदेश स्पष्ट है हमें लाशों और खून के दलदल को लाँघकर आगे बढ़ना है या उसमें डूब जाना है।"
भीड़ से बहुत ऊँचे नारे – 'इन्कलाब जिन्दाबाद! क्विट इंडिया! हू आर डाई! दूसरी ओर से नारे 'हमारे नेताओं को छोड़ो! फासिज्म मुर्दाबाद! इन्कलाब जिन्दाबाद!"
उपा का स्वर और ऊँचा, इस संघर्ष में हमारे नेता सबसे पहले सिर पर कफन बाँधकर आगे बड़े हैं और अपना उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर साँप गये हैं। हमारे सेनापति नेताओं की गिरफ्तारी के बाद प्रत्येक सैनिक अपने स्थान पर सेनापति है और उसका कर्तव्य अंतिम लक्ष्य तक पहुँचना है। साथियो, आप भी सिर पर कफन बाँधकर कदम पीछे न हटाने के प्रण से आगे बढ़िये ।" समर्थन में गगनभेदी नारे।
"चर्चिल और एमरी की सरकार हमारे आत्मनिर्णय की मांग को बगावत कहकर हमें कुचलने के अधिकार का दावा कर रही है। साथियो हमारी ललकार है, हम बागी हैं। बगावत प्रत्येक पराधीन राष्ट्र का जन्मसिद्ध अधिकार और कर्तव्य है। साथियो, हम मंजूर करते हैं क्विट इंडिया रेजोल्यूशन ब्रिटेन के फासिस्ट दमन से बगावत है और वह हमारी और मानवी स्वतंत्रता का क्रूसेड है।" उपा ने गुप्त कांग्रेस सर्कुलर के निर्देश भीड़ को दे दिये, “साथियों, यह संग्राम है, आन्दोलन नहीं। हमें अपनी गुलामी की पूरी मशीन, अपने दमन की व्यवस्था कचहरियों, तहसीलों थानों यातायात और सम्पर्क के सभी साधनों को समाप्त कर देना है। फासिज्म से लड़ने के लिये ब्रिटेन जो कुछ कर रहा है, ब्रिटिश फासिज्म से लड़ने के लिये हमें उससे अधिक करना होगा। हमारा लक्ष्य और नारा है, अंग्रेजों को भारत से निकालो! करो या मरो!" बहुत ऊँचे नारे 'महात्मा गांधी की जय! 'इन्कलाब जिन्दाबाद!"
उपा के तख्त से उतरते ही कामरेड हरीश तख्त पर पहुँच गया। कम्युनिस्ट को तख्त पर देखकर फिर नारे 'गद्दार मुर्दाबाद!' हरीश ने दोनों बाँहें झटके से आकाश की ओर उठाई, “कामरेड स्टूडेंट्स! हमारे नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध की आवाज यूनिवर्सिटी की चारदीवारी में सीमित नहीं रहेंगी। यह पुकार नगर तक ले जाने के लिये हमारे साथ जुलूस में चलिये।" उसने तर्जनी हिलाई, "याद रखिये, शहर में दफा १४४ है, लेकिन आप कामरेड उपा के सुझाव के अनुसार सिर पर कफन बाँधकर हमारे साथ आइये। जुलूस में भाग लेने बाले सिपाही यूनियन हाल के सामने इकट्ठे हो।"
इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे। विद्यार्थी क्वाइँगल से आर्ट डिपार्टमेन्ट के कमरे लाँघ- लाँघकर यूनियन हाल की ओर भागने लगे। भीड़ का बिखराव हो गया। विद्यार्थी लड़के- लड़कियों की छोटी सी भीड़ बरामदे बरामदे आर्ट डिपार्टमेन्ट के स्टाफ रूम की ओर चली गयी। उसी में काली साड़ी पहने युवती। कुछ ही पल में स्टाफ रूम से तीन-चार लड़कियों कागल और सड़क की ओर निकल गयीं। उनमें काली साड़ी पहने युवती न थी। आर्ट्स सेक्शन के स्टाफ रूम के साइन्स ब्लाक की ओर दरवाज़े से एक जवान लड़की
निकली, पीली छींट की साड़ी में सिर पर माथे से कुछ आगे खिंचा आँचल आर्ट ब्लाक और साइन्स ब्लाक के बीच वर्सिटी के भीतर की सड़क पर तीन रिक्शा खड़े थे। उन दिनों रिक्शा इतनी बड़ी संख्या में न चलते थे। सवारी देखकर एक रिक्शा आगे बड़ा रिक्शावाले ने कंधे से अंगोछा लेकर रिक्शा की गद्दी साड़कर पुकारा, "आइये हुजूरा" लड़की के बैठते ही रिक्शा चल दिया। सौ कदम आगे मोड़ पर दाहिने से साइकल पर आते जवान ने इशारा किया आ जाओ! रिक्शा तेज हो गया। लाइब्रेरी से आगे रिक्शा प्रोफेसरों के बेंगलों के सामने से निकलकर यूनिवर्सिटी कैम्पस से गोकरणनाथ रोड पर बाबूगंज की ओर बढ़ गया। बाबूगंज की, फैजाबाद रोड की ओर पहली गली में छोटे दो मंजिले मकान के सामने रिक्शा रुका। मकान के किवाड़ों पर दस्तक के लिये रिक्शावाले का हाथ लगते ही किवाह खुल गये, जैसे स्पर्श से खुलने वाले स्वचालित किवाड़ हों। रिक्शाचालक के संकेत से उपा उतर रही थी. उससे नजर मिली! साथी मोतीराम! रिक्शे पर बैठते समय उत्तेजना में ध्यान से न देखा था। मोतीराम भेस से सचमुच रिक्शावाला।
उषा को अपरिचित घर-परिवार के दरवाजे पर पहुंचा कर मोतीराम तुरन्त रिक्शा दौड़ा ले गया। उपा खुले दरवाज़े की ओर झिझक से बड़ी आधे खुले किवाहों से दिखाई दी युवती गृहिणी की मुद्रा बहुत आदर से अगवानी की, जैसे उत्सुक प्रतीक्षा में थी। किवाहों पर सांकल लगाकर पाहूनी को आंगन में छोटे जीने से ऊपर ले गयी छोटा कमरा मेहमान के लिये तैयार था।
गृहिणी ने उपा को सफेद बिछावना बिछी चारपाई पर बैठाया। सिरहाने बिना ताक की आलमारी में रखी सुराही से शीशे के गिलास में जल लेकर उसकी ओर बड़ा दिया। उपा उत्तेजना में पसीना-पसीना हो गयी थी। जल पी रही थी. नीचे योनी के किवाड़ों पर जोर की भद्रभट्टा
उषा चौकी " " क्या किसी ने पीछा किया? आहट से युवती के चेहरे पर आता-आता तनाव रुक गया, जैसे आहट पहचान कर आश्वस्त ।
"अभी आयी बहिन जी।" कहकर जीना उतर गयी।
किवाह खुलने पर बालक की पुकार, "चाची, आज छुट्टी! अंग्रेजों ने गांधी बाबा को केंद कर लिया। हड़ताल की छूटी।"
गृहिणी का बेटा वीरसिंह हड़ताल के कारण स्कूल से लौट आया था। सात-आठ बरस का लड़का ऊपर आते समय युवती बीरू की दो बरस की बहिन को गोद में ले आयी थी। नीचे आँगन में सोती बच्ची की नींद किवाड़ों की भड़भड़ से उचट गयी थी। युवती कोने से छोटा मोड़ा चारपाई के समीप खींचकर बैठ गयी। चारपाई के सिरहाने से बौजना लेकर उपा को हवा करने लगी।
"न न! यह क्या कर रही हैं।" उषा ने संकोच से उसका हाथ पकड़ लिया।
"कोई बात नहीं बहिन जी। आप धूप से आयी हैं, बहुत पसीना आ रहा है।" उषा बीजना गृहिणी के हाथ से ले हिलाने लगी स्वयं को, गृहिणी और उसकी बच्ची को भी हवा लगे।
गृहिणी पाहुनी की ओर झुककर दबे स्वर में बोली, "बहिन जी, वीरू के पिता कह गये हैं, पड़ोसनें आकर पूछें पूछे तो आप कह दें, बीरू की बुआ हैं। मेरठ से देवर के लिये रिश्ता
देखने आयी है ।" गृहिणी की नजर अपने चेहरे पर गड़ी देखकर उषा को अनबिंधी नाक के प्रति कौतूहल का अनुमान हो गया।
युवती ने बता दिया, बीरू का पिता सेक्रेटेरियेट में क्लर्क था। युवती के ढंग से समझ गयी, वह मेहमान को शरण देने के जोखिम से परिचित थी; उसके लिये गर्व का भाव । "बहिन जी, खाने के लिये यहाँ ले आऊँ या नीचे चौके में चलेंगी?" गृहिणी ने पूछा। उपा ने क्षमा माँग ली। घर से चलते समय बेबे ने उसे भर पेट खिला दिया था। गृहिणी उसे विश्राम का अवसर देने के लिये नीचे चली गयी।
उपा चारपाई पर लेट गयी. परन्तु मन में चिन्ता युनिवर्सिटी में क्या हो रहा होगा? विरोध प्रदर्शन के लिये जुलूस कैसे निकला होगा? शहर में दफा १४४ और पुल पर सशस् पुलिस बहुत बड़ी संख्या में। उसे स्वयं जुलूस में जाना चाहिये था, परन्तु निर्देश मुद्दतों बाद बिना पंखे के मकान में थी। अगस्त की गरमी बीजना डुलाती रही। नींद आ गयी तो बीजना रुक गया।
उपा की नींद दो घंटे बाद टूटी। पलक खुलने पर फिर खयाल जुलूस कैसे निकला होगा? शहर में क्या हो रहा है? पप्पू और बेवे! पप्पू साँझ तक तो बहला रहेगा, रात में उसे याद करेगा। बेचारी बेबे ।
गृहिणी ने साढ़े पाँच बजे उपा को पति के दफ्तर से लौट आने का समाचार दिया। सूरतसिंह ने श्रद्धा से बहुत झुककर नमस्कार किया, जैसे चरण छू लेना चाहता हो । समीप मोढ़े पर बैठकर बताया: शहर में दफा १४४ के कारण पाँच जने से अधिक इकट्ठे होने या साथ चलने की मनाही यूनिवर्सिटी के पुल पर पुलिस की बहुत बड़ी गारद । निशातगंज और डालीगंज के पुलों पर भी पुलिस का जबर्दस्त पहरा स्टूडेंट्स चार-चार, पाँच-पाँच की टोलियों में दस-पन्द्रह कदम के अन्तर से तीनों पुलों से गोमती पार जाकर इधर-उधर बिखरते रहे। कुछ नावों से पार हो गये। सैकड़ों डालीगंज स्टेशन से ट्रेन में बैठकर सिटी स्टेशन गये और गोमती की तरफ लौट आये। ठीक तीन बजे यूनिवर्सिटी पुल के सामने सब ओर से ढाई-तीन हजार विद्यार्थियों का हुजुम जुलूस हजरतगंज की ओर बढ़ चला बहुत बुलन्द नारे 'महात्मा गांधी की जय! हमारे लीडर छोड़े जायें! अंग्रेजों भारत छोड़ो! तानाशाही नहीं चलेगी! साम्राज्यवाद का नाश हो। फासिस्ट मुर्दाबाद! विट इंडिया ! जालिम सरकार को तोड़ो! अंग्रेज सरकार मुर्दाबाद! हिन्दू-मुसलिम एक हों!'
पुलिस सब ओर से दौड़ पड़ी। पुलिस ने रास्ता रोककर जुलूस को तितर-बितर करने के लिये लाठीचार्ज किया। विद्यार्थी सड़क के दोनों तरफ पार्क में बिखर गये। दो सौ कदम आगे जाकर फिर जुलूस बन गया।
पुलिस फिर उनके पीछे दौड़ी, फिर लाठीचार्ज। तीस-चालीस स्टूडेंट्स को चोटे आयीं। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लाठी की चोट से यूनिवर्सिटी के कम्युनिस्ट लीडर हरीश तिवारी की बाँह टूट गयी। जुलूस पर चौथा लाठीचार्ज नरही वाले चौराहे पर हुआ।
सूरतसिंह ने बताया: कम्युनिस्टों ने झंडेवाला पार्क में सभा की। सभा में बहुत कम लोग थे। जिला मैजिस्ट्रेट लुइस लॉयड ने लाठीचार्ज रोक दिया। शहर में पुलिस की गश्त जारी
सूरतसिंह कहता गया, "सेक्रेटेरियेट में आजकल मुसलमान अफसर और क्लर्क बहुत
खुश, जैसे उनका राज हो गया। कुछ शरीफ मुसलमान शर्मिन्दा, आँखें चुराये। अंग्रेज अफसर मुसलमानों को शह दे रहे हैं, जब हिन्दू कांग्रेस का राज नहीं हो सकेगा। पहले भी इस में चार नौकरियाँ मुसलमानों को दी जाती थीं, अब आठ-नौ बहिन जी, पेट के लिये ईमान बेचने वाले हिन्दू भी कम नहीं। हम ही क्या कर रहे हैं? सब समझते हैं पर पेट के लिये विदेशियों की गुलामी कर रहे हैं। आत्मा को चोट लगती है, परन्तु फंस चुके पत्नी, दो बच्चे, घर पर बूढ़ी माँ घर पर सिर्फ तीस बीघा धरती, उस पर दो भाई खेती से अपने बाल- बच्चों का पेट पाल रहे हैं। जो लोग देश के लिये जान पर जोखिम ले रहे हैं, धन्य हैं।"
कालेज में पढ़ते समय सूरतसिंह को भी देशभक्ति की उमंग थी। सन् '३४ में बी० ए० किया तो आन्दोलन दब गया था। उसका पिता पिछले महायुद्ध में मेसोपोटामिया में लड़ा था। हवलदार था। लड़ाई में लंगड़ा कर रिटायर हो गया तो पेंशन मिल गयी थी। इसलिये उसके बेटे को नौकरी मिल गयी।
सुबह उषा की आँख खुली तो छः बजने को थे । सुरतसिंह बाहर गया हुआ था। लौटा तो दूध और सौदा सुल्फ के साथ अखबार लेता आया; चेहरे पर उत्तेजना। दूध की डोलची और सब्जी एक ओर रखकर अखबार उषा के सामने कर दिया। बोल न पाया। तर्जनी से मुखपृष्ठ के निचले भाग में एक समाचार दिखाया।
समाचार था पुलिस युवती विद्यार्थी नेता की खोज में! पी-एच० डी० की विद्यार्थी उपा सेठ यूनिवर्सिटी में युद्ध विरोधी राजद्रोही उत्तेजक भाषण देने के बाद यूनिवर्सिटी कैम्पस से लापता पुलिस उपा सेठ की तलाश में उसके मकान में और नगर के अन्य स्थानों पर उसके लिये खोज और छानबीन कर रही है। उषा सेठ अभी तक लापता ।
अखबार में अपना समाचार देखकर उषा को रोमांच की झुरझुरी उत्तेजना प्रकट न करने के लिये दो पल मौन गर्दन झुकाये रही। आधा अखबार सूरतसिंह की ओर बढ़ाया तो उसने हाथ जोड़ दिये, “धन्य है आप शक्ति माता!"
उपा की गर्दन संकोच ने झुक गयी, दूसरे समाचार देखने लगी। विद्यार्थियों के जुलुस पर पुलिस के लाठीचार्ज का समाचार वाइस चांसलर के आर्डर से यूनिवर्सिटी अनिश्चित काल के लिये बन्द एक छोटा समाचार उपद्रवी भीड़ ने चारबाग स्टेशन के पार्सल दफ्तर में घुसकर कागज पत्र जला कर नकदी लूट ली थी। पुलिस उपद्रवियों की खोज कर रही थी। दूसरे नगरों बनारस, इलाहाबाद से भी पुलिस और विद्यार्थियों में मुठभेड़ के समाचार। अखबार पढ़कर उषा का अनुमान, समाचारों को दबाकर महत्त्वहीन बनाने का यत्न किया गया है।
ड्योढ़ी के किवाड़ों पर दस्तक से सूरतसिंह ने किवाड़ खोले। उपा की नजर कनखी से उस ओर चली गयी। भीतर आया खाकी कमीज, सफेद पाजामा पहने जवान, किश्तीनुमा खाकी टोपी, हाथ में छोटी छड़ी पुलिसिया ढंग उषा के चौंकने से पहले सूरतसिंह ने जवान को बाँहों में लेकर गले लगा लिया। उसे उषा की ओर ले गया, "मोती आये।" उषा ने पहचान लिया था।
"तुम कल बहिन जी को खुद रिक्शा चलाकर लागे।" सूरतसिंह ने पूछा। आँखों में
सराहना।
"उससे सैफ और क्या होता? कल सुबह रिक्शा दिन भर चलाने के लिये किराये पर ले
लिया था।"
"यार तुम सचमुच मोती! तुम्हारा जवाब नहीं अखबार में बहिन जी की खबर आ गयी।" सूरतसिंह ने अखबार मोती को दिखाया।
"हमें मालूम।" मोती बोला, "हमें पूरी खबर इनकी गली से भी पता मिल गया। पुलिस ने कल इन्हें अरेस्ट करने के लिये साँझ छः बजे इनके यहाँ छापा मारा। वहाँ इनकी बुढ़िया मौसी बहुत घबरायी, रोयी थोयी उसने दुहाई दी, लड़की तारीख पर कचेहरी गयी थी। इलाहाबाद की बड़ी कचेहरी का कागज लेने गयी है। इनका बेटा डर गया। पुलिस ने मकान के कोने-कोने की तलाशी ली। कुछ कागज-किताब उठा ले गयी। " उषा दाँत दबाकर मौन ।
मोती ने बताया, "पुलिस ने पड़ोसियों से पूछा, कहीं आती जाती हैं? सबने कहा, कहीं आते-जाते नहीं देखा। बस कभी तारीख पर कचेहरी जाती है या कालेज । पुलिस आपकी बुड़िया मौसी और बच्चे को लेकर आपके माँ-बाप के मकान पर तलाशी के लिये पहुँची। वहाँ भी पूरे मकान की तलाशी बुढ़िया-बच्चा वहीं ही रह गये।
पुलिस लौट गयी तो आपकी पड़ोसिन सरीक औरतें बकने लगी- हाय रे कैसी डाइन! हमने और चलित्तर तो देखे सुने थे पर ये नहीं जाना कि मेहरी चोरी-डकैती भी करती है। गली के कई लड़के इधर-उधर से उन्हें धमकाने लगे गली में किसी ने किसी को गाली- वाली दी तो ठीक नहीं होगा "किसी को कुछ हो जाय, हम नहीं जानते। सब चुप!",
मोतीराम ने सब समाचार देकर कहा "बहिन जी, हम आपको लिवाने आये हैं। तैयार हो जाइये। हम इक्का ले आयें।"
मोतीराम ने सुरतसिंह की पत्नी को पुकारा, “भाभी, बहिन जी के लिये कोई दुपट्टा- ओढ़नी निकाल दो। बाजार गुजरेंगे तो घूंघट किये रहना ठीक होगा।" वह इक्का लाने चला गया। गृहिणी ने पीले रंग की ओढनी निकाल दी। उसने उपा के ओढ़ने के यह से भाषा, ओनी लेने का तरीका नहीं जानती ओढ़नी लेने का ढंग समझाने लगी, घूंघट कैसे किया जाता है। उषा ने दो बार स्वयं ओढ़नी ओढ़कर समझ लिया। अपना पर्स छोटी गठरी में बाँध लिया।
उषा इक्के पर बैठी तो माथे से डेढ़ बालिश्त का घूँघट खींचे थी। घूँघट में से इधर-उधर देख सकने की कला से अनभिज्ञ। उसके लिये घूँघट आँखों के सामने घबरा देने वाली आह- पर्दा मोतीराम ने इक्का एक गली के सामने रुकवाया। उषा को इक्के से उतार कर गली में चार कदम बढ़ा था। "दीदी आ गयीं!" श्यामा का परिचित स्वरा मोतीराम नमस्ते कहकर लौट गया।
"दीदी, घूँघट में चलते नहीं बन रहा।" श्यामा हँसी, "गली में क्या जरूरत। "
श्यामा की दस्तक पर विवाह खुले। उपा को देखकर जिया को इस बार भी विस्मय ये औरत सदा नये भेस रूप में पहले आयी तो नये ढंग की अच्छी साड़ी में, जवानी से खिला चेहरा, फिर विधवा के उदास भेस में, अब पुराने ढंग की साड़ी पर ओनी किये! छोटे आंगन में छाया थी। श्यामा ने खाट डालकर उषा को विश्राम के लिये बैठाया। गिलास
में जल दिया। सोचा, माँ कौतूहल- विस्मय का बोझ हल्का करने के लिये इधर-उधर पड़ोस में कुछ चर्चा न करती फिरे जिया को उषा का नाम पहले इन्दु बता चुकी थी। अब अपने यहाँ उसके आने की चर्चा किसी से न करने का संकेत दे दिया। माँ बेटे-बेटी के ऐसी परेशानी घर ले आने से चिन्तित पर इतने पढ़े-लिखे जवान बच्चों को क्या कहती!
श्यामा माँ से बात करके उषा को आँगन के कोने के बरीठे से मिश्र भवन के आँगन में ले गयी। उस आँगन में दायें ओर के बरामदे में सदा की तरह सरस्वती की सिर मुंडी जोगन हुआ। माथे बाँहों पर चन्दन लगाये जीप-पाठ में व्यस्त। दुआ मौन रहती, परन देखती ब । उपा ने आदर के संकेत में बुआ की ओर सिर झुका दिया। श्यामा उसे जीने से ऊपर के बरामदे में ले गयी।
पाठक ने आहट सुन घूमकर देखा और कमरे से आ गया। उषा को देखकर प्रसन्नता से खिल गया, "अँड! बहुत बहुत बधाई।"
श्यामा और उषा को बरामदे में तख्त पर बैठाकर पाठक भी घुटने तोड़कर तख्त पर
बैठ गया, "रात उस मकान में परेशानी तो नहीं हुई?"
"नहीं नहीं! बहुत ही सज्जन दम्पति बहुत खातिर ।"
उपा बात पूरी न कर पायी थी. सरस्वती दौड़ी आयी। समीप जाकर पीठ पीछे छिपाया अखबार उषा के सामने कर तर्जनी समाचार पर रख दी पुलिस युवती विद्यार्थी नेता की खोज में।
"देख चुके।" उषा ने सरस्वती को बाँह में ले लिया। लड़की उसे प्यारी लगती थी। पद्मा से डेढ़-दो बरस बड़ी, छरहरी, गोरे चेहरे पर फुटती जवानी का लावण्य, चुलबुली-हँसोडा “तुम्हारे भाषण से शहर में बहुत सनसनी है।" पाठक ने कहा।
"भैया जी दीदी तो साहस, प्रेरणा की मूर्ति की तरह बोलीं श्रोता मंत्र-मुग्ध !” श्यामा सराहना में गद्गदा में
"तुम्हारे भाषण और तुम्हें गिरफ्तार करने में पुलिस की असफलता से पब्लिक के सामने तुम्हारी इमेज बन गयी।" पाठक ने जुलूस निकालने में कम्युनिस्टों के चातुर्य और साहस की भी सराहना की।
"माँ जी ने कालेज में भरती होने की इजाजत दे दी?" उषा ने सरस्वती की ओर देखा। “हमने चाचा से बार-बार कहलवाया तो मानीं।" "सरस्वती ने अपनी चतुरता बतायी। उषा की पीठ पर हाथ रखकर श्यामा हँसी, "भैया जी, दीदी दुपट्टे, घूंघट मैं ऐसे लड़खड़ा रही थीं कि अब गिरी अब गिरी।"
चादर, घूँघट बल्कि बुरका अब आपके लिये बहुत जरूरी वर्ना आपकी अनबिंधी नाक, खुद पुकारती पहचान। चादर घूंघट का अभ्यास आज शाम से पहले जरूरी।" श्यामा की ओर देखा, "यह ट्रेनिंग आज हो जाये।"
"चाचा!" सरस्वती ने गहरे साँस से चेतावनी दी। दायीं ओर बरामदे से ईंट के फर्श पर खड़ाऊँ की आहट सभी की नजर उस ओर त्रिवेदी रसोई की ओर से धीमे-धीमे आ रहे थे। शरीर पर मात्र खद्दर की सफेद बनियान, कमर में धोती। सामने तीन लड़कियाँ देखकर चेहरे पर मुस्कान मंत्री मंत्री आँखें मोटे काँच के चश्मे में से मुंदी लग रही थीं।
पाठक ने सरस्वती की ओर देखा, "तुमने तो कहा, जीम कर उधर चले गये!"
"बहुत देर पहले रसोई में गये थे। सरस्वती ने अपनी भूल के लिये खेद से कहा, "हमें क्या मालूम, माँ से बतियाते रहे।"
"ये ए० आई० सी० सी० की मीटिंग के लिये बम्बई गये थे।" पाठक ने धीमे स्वर में उषा को बताया, "नी की सुबह गिरफ्तारियों हो गयीं तो तुरन्त वहाँ से भागे। दुबकते- छिपते आज सुबह यहाँ पहुँचे हैं। अब भी गिरफ्तारी से लिये हुए हैं। "
ऊपर की मंजिल में जाने के लिये बरामदे बरामदे वही रास्ता। त्रिवेदी के समीप जाने पर पाठक आदर में खड़ा हो गया, उसके साथ उषा और श्यामा ने उठकर नमस्कार किया। त्रिवेदी जी ने संकेत से आशीश देकर पूछा, "क्या मिसकौट हो रही है?" तख्त पर बैठते हुए बोले, "बैठो बैठो।" सरस्वती को बाँह से पकड़ कर बगल में बैठा लिया, हाथ उसके कधे पैर रखे रहे। उपा की ओर घूमे।
"चाचा जी ये इन्दु जी।" सरस्वती उषा के परिचय के लिये बोली।
त्रिवेदी जी ने पलाश सरस्वती को घूरकर पूछा, “इन्दु जी को कब से जानती हो?" फिर उषा से पूछा, "कहिये इन्दु जी, आपने मुझे पहचाना? स्वस्थ प्रसन्न हैं?"
उषा अचकचा गयी। उसने त्रिवेदी जी की पहली नजर से भांप लिया था, पहचान गये हैं। “धन्यवाद, मैंने पहले ही नमस्कार किया। आपके आशीर्वाद से ठीक हैं। सित्तो मुझे इन्दु बुलाती है।"
"हैं।" संकेत, सब समझते हैं फिर उषा की ओर, "शाबाश! अद्भुत साहस और कौशल के लिये बधाई।" पाठक को भी सम्बोधन किया, "इस संघर्ष का कार्यक्रम जेलों को भरना नहीं जेलों को तोड़ना है। सरकार ने आप लोगों के लिये कुछ जल्दी ही रास्ता खोल दिया। गांधी जी के निर्देश और सुझाव आप लोगों को मिल गये। इस संघर्ष की स्ट्रेटेजी लड़ाई को लम्बा करके शत्रु को थकाने में नहीं, तुरन्त अकस्मात् चोट से शत्रु को पंगु कर सकने में है। हम बम्बई से तो जैसे तैसे निकल आये चार-पाँच दिन में जो कुछ कर सकें। इस आयु में फरारी हमारे बस की नहीं। यह मोर्चा आप लोगों को लेना है।" उठने के लिये घुटनों पर हाथ रखकर कहा, "आप लोग बात करें। कुछ विश्राम कर लें। इकतालीस घंटे के सफर ने थक्का दिया।" सित्तो की पीठ पर थपकी दी, “बेटा, हमारे लिये दो बढ़िया बीड़े अपने हाथ से लगा लाओ।" ऊपर के जीने की ओर बढ़ गये।
सित्तो ने त्रिवेदी जी के पीछे मुंह चिना दिया, "दिन भर पान! ऊपर हाथ पकड़ कर बैठा लेंगे। सिर, कंधे, पीठ पर सहलाते, थपकी देते रहेंगे। हमें नहीं अच्छा लगता।" "जाओ, चाचा को जल्दी पान देकर आओ। काम है।" पाठक ने कहा।
सित्तो त्रिवेदी जी को पान देकर लौटी तो श्यामा लौट गयी थी। सित्ती फिर उपा के समीप बैठ गयी।
पाठक ने सित्तो को साथ के कमरे में बिछी सीतलपाटी दिखायी, "सीतलपाटी जंगले के साथ बिछाकर लेट जाओ।"
"हम यहाँ से देख रहे हैं।" सित्तो को उपा के समीप बैठने और उन लोगों की बात सुनने
का चावा
"नहीं, तुम वहाँ लेटो।" पाठक ने कहा, "ऐसी बातें बच्चे नहीं सुनते।"
पाठक कमरे में जाकर एक झोला उठा लाया। कुछ देर उषा की ओर झुककर दबे स्वर में
बात करता रहा। झोले में से कागज निकाल कर उपा को पड़ने के लिये दिये। फिर दोनों में कुछ परामर्शी
"सुनो!" पाठक ने सित्तो को पुकारा, "इन्हें अपने कमरे में ले जाओ। इन्हें कुछ लिखना है। मौसी पूछेगी तो क्या कहोगी?
कहना क्या! पहले भी तो आती थीं। माँ जी कौन अखबार पड़ती है। कह देंगे, श्यामा के यहाँ आयी थीं। हम इन्हें बतियाने को बुला लाये।"
पाठक तख्त पर बैठा प्रतीक्षा में बार-बार घड़ी में समय देख रहा था। उपा कमरे से बीस मिनट में बाहर आ गयी। पाठक ने कागजों पर नजर डालकर उषा को लौटा दिये, "मैं जा रहा हूँ। कल सुबह भेंट होगी। निगम से आते ही सब समेट देने के लिये कहियेगा।" चलते-चलते हाथ उपा की ओर बड़ा दिया, पहला पड़ाव सकुशल पार हो गया। रात दूसरे प्रस्थान के लिये शुभकामना ।” उषा ने निस्संकोच हाथ मिलाया।
छः बजे श्यामा के साथ देवशंकर निगम भी आया। उसने बताया नगर भर में उपा का चर्चा था। अनेक अफवाहें, उषा ने लेक्चर में कहा-हम एक भी अंग्रेज को जिन्दा नहीं रहने देंगे। कचहरियाँ, दफ्तर, रेल, तार- डाक सब फना कर दिये जायें। यूनिवर्सिटी के चारों ओर लठैत, बन्दुकची और घुड़सवार पुलिस का घेरा। बड़े-बड़े अंग्रेज अफसर मौजूद उपा लेक्चर देकर सभा में निकली। पुलिस ने उसे घेर लिया। उपा पुलिन के घेरे में सड़क तक आयी और लापता। पुलिस देखती रह गयी।
दूसरी अफवाह: उपा पुलिस के घेरे को तोड़कर दौड़ी, पुलिस उसके पीछे उषा एक छलाँग में यूनिवर्सिटी की ऊँची बाड फाँदकर सड़क पर कूद गयी। सड़क पर अंग्रेज पुलिस अफसर की मोटर थी। उपा ने मोटर में बैठकर ड्राइवर को पिस्तौल दिखाया, चलो। पुलिस देखती रह गयी।
ड्राइवर आधी रात वापस लौटा। उसने बताया, सीतापुर के बीस मील आगे जाकर वह बेहोश हो गया। उसे होश आया तो रात का अंधेरा मोटर जंगल के किनारे थी। उसके सामने स्टियर पर सौ रुपये का नोट पुलिस सब तरफ सौ-सौ मील तक घेरा डाले है। उपा का कहीं पता नहीं। कोई कहता है कलकत्ता चली गयी, कोई कहता है बम्बई पहुँच गयी। निगम हंसा, बोबीस घंटे में आप लीजेंड बन गयीं।"
उपा भी हंसी, "दे हैव मेड ए विच ऑफ मी।"
निगम का स्वर सहानुभूति का हो गया, "संगम प्रेस में वेदप्रकाश से मिलकर आया है। पुलिस के छापे के बाद वकील कोहली और बेड के पिता मास्टर जी की सलाह से आपकी मौसी प्रताप को लेकर वालाकदर आपके फादर के यहाँ चली गयी। पुलिस कल वहाँ भी तलाशी लेने गयी थी। आपके फादर बल्कि भाई अमित पंडित ने निधड़क कहा आप मनचाहे ढंग से तलाशी ले सकते हैं, लेकिन न्याय और ईमानदारी का तकाजा है कि आप स्वयं यहाँ कुछ रखकर यहाँ से मिली चीज़ न बता दें। उपा सेठ मेरी बहन है, परन्तु उषा के और हमारे राजनैतिक विचारों में भेद है। मेरी बहन ने विवाह के बाद साढ़े तीन बरस में यहाँ कभी कदम नहीं रखा। हमारे डैडी क्रिश्चियन कॉलेज के प्रोफेसर, वे राजनीति से सम्पर्क नहीं रखते। मैं स्वयं फासिस्ट विरोधी हैं, युद्ध प्रयत्न में विरोध की नीति को देशहित के विरुद्ध समझता है।"
प्रताप अपनी नानियों और मौसी के साथ बहल गया है-उषा ने सान्त्वना अनुभव की रात साढ़े नौ बजे लखनऊ चारबाग स्टेशन की मुख्य ड्योढ़ी में, ताँगे से एक भद्र युवक, पर्दापोश महिला और सामने ताँगे वाले की बगल से एक नौकर उतरा। टिकट पहले से खरीदे हुए थे। भद्र युवक लखनौआ देश में—टसरी शेरवानी चौड़ी मोहरी का सफेद पाजामा, काले वार्निशी चमाचम पम्प भू, पुराने ढंग की गोल फेल्ट क्रिस्टी टोपी, हाथ में नाजुक छड़ी। युवक के दूसरे हाथ में पेंचदार ढक्कन लगा कड़े से झूलता गंगाजली लोटा । उन दिनों छूत और पवित्रता का बहुत विचार करने वाले यात्री उस प्रकार के लोटे का प्रयोग करते थे।
युवक के पीछे महिला साड़ी पर सफेद रेशमी चादर ओढे, माथे से बालिश्त भर का घूँघट खींचे। उनके पीछे कुली से सामान उठाये जवान नौकर, लखनौ देहाती की तरह लम्बे ढीले कुरते, घुटनों तक धोती में टोपी पर लाल अँगोछा बाँधे। नौकर की एक बगल में उसकी गठरी, दूसरे हाथ में सामान से भरी कंडी। वे लोग स्टेशन पर बायें हाथ इलाहाबाद पैसेन्जर के प्लेटफार्म की ओर जा रहे थे।
निगम ने उषा को जनाना इंटर काम्पार्टमेंट में बैठा दिया। गंगाजली लोटा और टिकट उसे दे दिये। मोतीराम ने कुली से उठवावा सामान, वार्निशी ट्रंक, दूरी में बँधा विस्तर, केन्वस का बैग मालकिन (उषा) के साथ जनाना डिब्बे में रखवा दिये। अपने हाथ की कंडी भी रख दी। अपनी गठरी लेकर साथ के थर्ड क्लास में बैठ गया। कुछ ही पल में गाड़ी छूट गयी।
पाठक के सुझाव से उपा प्लेटफार्म से आड़ की जगह में बैठी थी। खियाँ स्त्रियों से पर्दा नहीं करतीं । उपा ने घूंघट हटाने से पूर्व देख लिया, सहयात्री तीन मुस्लिम खियाँ थीं। वे गाड़ी छूटने तक चेहरों पर नकाब किये रहीं। एक प्रौढ़ा के वेश में ईसाई होने का अनुमान । तेजी पकड़ती गाड़ी की खिड़की से उषा की नज़र रेलवे लाइन के किनारे पीछे छूटते जाते लखनऊ के मकानों की ओर इस ओर कभी न आयी थी। ये मुहल्ले और यहाँ के लोग उसके अपरिचित, परन्तु उसके नगर के मुहल्ले और लोग मन में बेटे, माता-पिता, भाई-बहिन और बेबे को सदा के लिये छोड़ जाने की टीस इस संघर्ष का अन्त कब, क्या होगा । बिरजू, साढ़े ग्यारह बजे कड़कती धूप में इलाहाबाद रामबाग स्टेशन पर पहुँचा। पिछले दिन आधी रात तक उत्तेजना में दम तोड़ दौड़-भाग, फिर संघर्ष समिति में आगे के कार्यक्रम की मंत्रणा । चार बजे श्याम जी का आदेश, सिकरौल स्टेशन से छः बजे की पैसेन्जर से इलाहाबाद जाने का। सुबह की पैसेन्जर में कचहरी जाने वालों की उसास भीड़। बिरजू को कमर सीधी करने का भी अवसर नहीं। ऊँघ में पाँच घंटे बैठे-बैठे इलाहाबाद पहुँचा। बिरजू नींद-अकान की चिन्ता न कर विश्वस्त सम्पर्क के लिये तुरन्त कर्नेलगंज गया। उसकी दस्तक पर किवाड़ खोले साथी के प्रौढ़ पिता ने प्रौढ़ की नजर से संदेह, आतंक और क्रोध। रूखा उत्तर; घर में नहीं है और किवाड़ खटाक से मुँद गये। भीतर से सांकल चढ़ा देने की आहट ।
बिरजू समीप कटरा में गया। दूसरे साथी का दरवाज़ा खटखटाया। इस दरवाजे पर भी लगभग पहले जैसा स्वागत, परन्तु उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया काम से कानपुर गया हैं। विरज को अनुमान, साथी गिरफ्तारी की आशंका में फर्र हो गये।
बिरजू ने लूकरगंज के लिये इक्के पर बैठने से पहले 'लीडर' ले लिया था। पिछले तीन दिन में इलाहाबाद में अनेक गिरफ्तारियाँ हो चुकी थीं। दस और ग्यारह अगस्त दोनों दिन सम्भ्रान्त महिलायें पुलिस के लाठीचार्ज के बावजूद जुलूस के आगे थीं। नेहरू परिवार की और दूसरी अनेक महिलायें गिरफ्तार हो गयी थी।
बिरजू लूकरगंज में असफल होकर रानीमंडी, मुडीगंज भी गया। कोई सम्पर्क सूत्र न मिल सका। सोचा, इलाहाबाद में समय बर्बाद करने के बजाय रात की गाड़ी से लखनऊ चला जाये। श्याम जी ने लखनऊ में भी सम्पर्क सूत्र बता दिया था। स्वयं भी लखनऊ और लखनऊ के कार्यकर्ताओं से खूब परिचित
स्टेशन जाने से पहले लूकरगंज में जोशी के यहाँ सन्देश देने गया गज्जन से भेंट हो तो कह देना, ठाकुर से बहुत जरूरी काम है। सम्पर्क के लिये लखनऊ जा रहे हैं। वहाँ कुछ न बना तो
“भीतर आ जाओ!" गज्जन की धीमी पुकार तुम्हारे आने की खबर मिल गयी। लखनऊ से यहाँ ही आ गया। चलो हमारे साथ।"
बिरजू को लेकर गज्जन रानीमंडी की ओर चला। उसे एक खपरैल छाये अपरिचित मकान में ले गया। गज्जन ने तख्त पर बैठकर एक हाथ से बीजना बुलाते पत्रिका पड़ते प्री व्यक्ति के समीप बैठकर धीमे स्वर में बात की। प्रौड़ ने विरजू की और नजर उठाकर भीतर दरवाजे की ओर संकेत कर दिया।
आँगन में खपरैल छाये चौड़े बरामदे के नीचे दो बाटें थीं। खाट पर एक युवक उस ओर पीठ किये सिगरेट से कश ले रहा था। युवक ने आहट से धूमकर देखा। नजरें मिलने पर दोनों ओर बाँचें खिल गयीं। इधर से बिरजू लपका, उधर से युवक दोनों टक्कर से गले मिले। "हम दोपहर तुम्हारे यहाँ गये।" बिरजू ने बताया, "शायद तुम्हारे बड़े भाई थे। हमें बहुत सन्देह से देखा, फिर बोले, परसों कानपुर गये है। पहले हम कनैलगंज गये थे। वहाँ बंसी भी लापता हमें अनुमान हो गया था।"
विरजू को समीप बैठाकर रामलहर सिंह ने बताया, "हम परसों साँझ घर लौट रहे थे। आजाद पार्क के सामने उधर से आते एक पड़ोसी ने हमें बता दिया, तीन बजे हमारे यहाँ पुलिस गयी थी। हमारे यहाँ बहुत ठोक-बजाकर तलाशी ली, फिर हमारे लिये पूछा। हमारे लोगों ने कह दिया. हम सुबह कानपुर गये हैं, नौकरी के बारे में बात करने के लिये। पुलिस के हाथ कुछ कागज जरूर लग गये। हम घर गये ही नहीं। पड़ोसी से कह दिया, घर पर बता दे कि हमें खबर मिल गयी। बंसी तो बहुत बचे।" लहरी ने बताया, पुलिस उसे गिरफ्तार करने गयी। गलती से बगल की गली में उसके मकान के लिये पूछा। गली में कोई भला आदमी। उसने मकान दूसरी गलत गली में बता दिया। पुलिस को उच्चर जाते देखा तो अपनी बेटी को बंसी के यहाँ दौड़ाकर खबर कर दी। पुलिन भटक भटक कर उसके मकान पर पहुंची तब तक बंसी उड़ गये थे।"
तभी!" बिरजू ने लहरी (रामलहर सिंह) के भेस पर नजर डालकर कहा। लहरी साधारणतः कुर्ता-पाजामा पहनता था। इस समय बगल में कल्बई कपड़े की शेरवानी चौड़ी बाड़ की हरे मखमल की किश्ती टोपी और धूप चश्मा रखे थे। खाट के नीचे टीन का बैगनुमा बक्सा, अलीगढ़ के ताला एजेन्ट का रूप भेसा
"आ गये।" गज्जन ने कहा। विरजू की नजर दरवाजे की ओर उठी बढ़िया बुर्राक सफेद कुर्ता महीन धोती, कंधों पर गर्व का दुपट्टा लिये व्यक्ति मुस्कराता हुआ आया। उसके चेहरे पर शौक से ठकुराना ढंग की पत्नी पुसी उमेठी हुई मूंछ दात्री माथे और कान की लौ पर सफेद चन्दन। गर्दन तक घंटे चिकने काले पटों पर ऊँची बाड़ की चिकन की चुन्नट पड़ी इलाहाबादी दुलिया टोपी। हाथ में गांठदार मजबूत मोटी घड़ी, सम्पन्न पंडे की मुद्रा ।
आगन्तुक को देखकर बिरजू के चेहरे पर पल भर अपरिचय का असमंजस नजर मिली तो उछल कर सीने से जा लगा, “ठाकुरदा, ये पंडागिरी कब से?"
"कब आये? वहाँ क्या हाल? तुम लोगों ने नौ को ही जुलूस निकाल दिया।" पाठक ने खाट पर बैठकर पूछा, "और क्या हाल चाल?"
"दादा वहाँ तो बज गयी। तीन आदमी खेत रहे। दो पुलिस वाले भी।"
"क्या?" पाठक की भौंवें उठ गयीं, "अखवार में था, नौ और दस को विद्यार्थियों के छोटे-छोटे जुलूस निकले। कोई-कोई दुकान बन्द थी। कल भीड़ ने कुछ लूट-पाट की तो पुलिस ने चेतावनी के लिये हवा में गोली चलायी। भीड तितर-बितर हो गयी।" "सेन्स न्यूज ! बकवास! हम तो वहीं थे।" बिरजू ने विरोध किया।
"वो तो होगा। तुम बताओ। श्याम शर्मा ने कहा था, एक अगस्त, तिलक जयन्ती से तैयारी कर देंगे।"
"एक अगस्त से तो वर्सिटी कैम्पस में पहले बताया गया कि बम्बई से नौ की साँझ खबर आयेगी। बिल्ला होस्टल में शर्मा जी ने नौ की सुबह रेडियो पर खबर सुन ली। उन्होंने पन्द्रह-बीस स्टूडेंट तुरन्त दौड़ा दिये। रविवार गीता भवन में वाइस चांसलर का प्रवचन रहा। राधाकृष्णन विद्वान चाहे जितने हों पर सरकार के एक नम्बर चापलूस। "राजभक्त न होते तो 'सर' कैसे बनते!" लहरी ने टोक दिया।
“राधाकृष्णन प्रवचन से पहले रेडियो पर नेताओं की गिरफ्तारी और एमरी का स्टेटमेंट सुनकर आये होंगे। दादा, एमरी ने मजा कर दिया, खुद लोगों को बंगावत का प्रोग्राम बता दिया।
"साथियों ने दौड़-दौड़कर सब होस्टलों में एलान कर दिया सब लोग गीता हाल चलें। असरानी तो गांधी से ज्यादा गांधीवादी। वो बोले, गांधी जी वायोलेंट बगावत का आदेश नहीं दे सकते। सरकार वायोलेट का प्रोग्राम बताकर जनता को उत्तेजना दे करके दमन का अवसर बनाना चाहती है।"
"गीता हॉल में कितने लोग आ गये।" पाठक ने पूछा। ने
"मामूली तौर पर तो जानो साठ-सत्तर वाइस चांसलर जाये तो हॉल ठसाठस भरा हुआ। प्रवचन होते-होते हॉल के बाहर हजार स्टूडेंट।"
"राधाकृष्णन ने क्या कहा?" पाठक को उत्सुकता।
"दादा, हमें लगा, रेडियो पर आयी खबर से हॉल में भीड़ देखकर राधाकृष्णन दहल गये। बी० एच० यू० की तो परम्परा राष्ट्रीय संघर्ष में आगे रहने की। राधाकृष्णन ने कहा, गीता स्थितप्रज्ञ रहने का उपदेश देती है। सब सुख-दुख आवेश, उद्वेग उत्तेजना में प्रज्ञा स्थिर रखो दम साधे रहो। किसी भी विचार-भावना से विचलित या उद्वेलित न हो। मतलब कि राष्ट्रीय अपमान और चोट सहकर शान्त बने रहो।
"राधाकृष्णन हॉल से निकले तो भीड़ को अनदेखा कर अपनी मोटर में वाइस चांसलर निवास भाग गये। तब डाक्टर गैरोला ने स्टूडेंट्स को ललकार कर रेडियो का समाचार बताया- सरकार ने हमारे लीडरों को गिरफ्तार करके देश को चुनौती दी है। जवानो गांधी जी का अन्तिम आदेश है, हू आर डाई! करो या मरो!
गैरोला ने कहा, इस क्षण हम लोग स्वतंत्रता के सिपाही हैं। हमें सैनिकों की तरह डिसिप्लिन में चलना होगा। विद्यार्थी सिपाही चार-चार की लाइनों में हो जायें।
"दादा, मेडिकल कालेज का मुकुल है न, उसे बड़े जोर की सूझी। उसने कहा, हम मोर्चे पर जा रहे हैं। हम यूनिवर्सिटी के पिता महामना मालवीय जी का आशीर्वाद लेकर कूच करेंगे।
"दादा, मालवीय जी का स्वास्थ्य बहुत गड़बड़ा डाक्टरों का कड़ा निर्देश, मालवीय जी को किसी तरह जरा भी डिस्टर्ब न किया जाये। विद्यार्थी चार-चार की लाइन में मालवीय जी के बंगले की तरफ चले। मालवीय जी सुबह बेंगले के सामने बायें हाथ के कमरे में रहते हैं। कमरे की बड़ी खिड़की में सींखचे लगे हैं। लोग वहीं से दर्शन कर लेते हैं। मालवीय जी भी रेडियो सुनकर बहुत विचलिता श्याम जी और सुकूल ने जाकर प्रार्थना की, विद्यार्थी बापू की गिरफ्तारी से राष्ट्रीय अपमान का विरोध करने जा रहे हैं। हम आपके आशीर्वाद के लिये खिड़की के सामने से प्रणाम करते निकल जायेंगे।
“दादा, मालवीय जी कितने माडरेट हों, परन्तु राधाकृष्णन की तरह मर्सिनरी इंटेलेक्चुअल नहीं! राष्ट्रीय अपमान नहीं सह सकते। बोले गांधी की गिरफ्तारी राष्ट्र का अपमान। उस अन्याय के विरोध और गांधी के आदर में मेरा पूर्ण सहयोग
“मुकूल ने विद्यार्थियों को मालवीय जी का सन्देश सुना दिया। विद्यार्थी प्रणाम में हाथ जोड़े खिड़की के सामने से निकलते गये। मालवीय जी को मसनदी तकियों के सहारे बैठा दिया गया था। वे आशीर्वाद में हाथ उठाये थे। मंदी आँखों से धँसे गालों में आँसू की धारें। विद्यार्थियों में अंग्रेजों के खिलाफ क्रोध की बिजली तड़क उठी।
“विद्यार्थियों का जुलूस शहर को चला। आगे कांग्रेस का झण्डा चले तो पन्द्रह-सोलह सौ लोग थे। यूनिवर्सिटी से निकले तो शहर के लोग शामिल होने लगे। कुछ लंका, अस्सी में बड़े सुनारपुरी, गौदलिया, चौक तक और तीन-चार हजार सुनारपुरा के विन्देसरी पाठक और कुछ दूसरे लोग हड़ताल करवा रहे थे। जुलूस के नारे सुने तो दुकानों के किवाड़, त पटापट, खटाखट मैदने-गिरने लगे।
“टाउन हाल के सामने मैदागिन पहुँचते-पहुँचते पन्द्रह-बीस हजार की भीड़ा मैदान में कांग्रेस का झण्डा गाड़कर गैरोला ने 'भारत छोड़ो' संग्राम की ललकार दी नेताओं के रिहा होने तक शहर में मुकम्मल हड़ताल रहेगी। सीना ठोंककर कहा- हमारा प्रोग्राम वही जो एमरी ने बताया। एक भी अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं रह सकेगा।
"शहर में पुलिस चौकस थी पर बोली कुछ नहीं सुना, कलक्टर फिनले का आर्डर था, जुलूस तोड़-फोड़ लूट-पाट न करे तो पुलिस दखल न दे। दादा, फिनले की बाबत तो सुना होगा। साफ हिन्दी बोलता है। जवान का मीठा शहर के रईसों से रब्त जब्ता डाक्टर भगवानदास से हिन्दू दर्शन पड़ता है। सुना कि आयरिश है। आयरलैण्ड भी ब्रिटेन से
नाराज।
"दादा, मजा तो आया दूसरे दिन दस तारीख, सोमवार सब स्कूलों कालेजों के लड़के प्रदर्शन में शामिल उधर से उदयप्रताप कालेज के लड़के इधर से डी० ए० वी० कालेज और हरिश्चन्द्र स्कूल के सात-आठ हजार की भीड़ बरुना पार कचहरी पहुँच गयी। लोगों ने कहा, , बीच के गुम्बद पर यूनियन जैक हटाकर कांग्रेस का झण्डा लगाया जायेगा। कचहरी की गारद ने भीड़ को कचहरी के सामने सड़क पर रोका तो आकाशफाड़ नारे महात्मा गांधी की जय! अंग्रेजों भारत छोड़ो! इन्कलाब जिन्दाबाद!
"फिनले कचहरी में था। भीड़ के सामने आ गया। बोला इतना शोर हंगामा क्यों? क्या हो गया?
"भीड़ ने ललकारा, कचहरी पर अंग्रेजों का नहीं भारत का झंडा लगेगा।
"फिनले ने बहकाया, आप लोग कांग्रेसी हैं। कांग्रेस की नीति वायलेंस और उत्पात की नहीं। अपना सैद्धान्तिक प्रदर्शन शहर में कीजिये कचहरी के काम में गड़बड़ डालना ठीक नहीं। यहाँ पूरे जिले से सात-आठ सौ आदमी जरूरी काम से आया है। किसी को न्याय के लिये दरखास्त देना है, कोई लम्बे मुकदमे का फैसला सुनने आया है, किसी को बजाने में जमा करना, किसी को लेना उन लोगों का ख्याल करना चाहिये।
"मी का शोर, कचहरी पर भारत का झंडा लगेगा। कचहरी अपना काम करे। हमें सिर्फ झंडा लगाना है।
" फिनले एक चतुर! बोला कोई आदमी कचहरी के भीतर किसी दरवाजे कमरे में कदम नहीं रखेगा। कोई शौर नहीं होगा। झंडा बेशक लगा लो। दादा, वो कचहरी के दोनों पंखों के बीच का गुम्बद जिस पर यूनियन जैक लगा है, साठ फुट से ऊँचा फिनले को खयाल, जीने के बिना कोई दूसरी छत पर जायेगा कैसे? गुम्बद उससे भी ऊँचा ।
पर दादा, बनारसी किससे कम! एक आदमी ने दीवार पर हाथ टिका दिये, दूसरा उचक कर उसके कंधों पर ईसरगंगी मुहल्ले का जायसवालों का चीदह-पन्द्रह बस का लड़का रामप्रकाश उन लोगों के कंधों पर चढ़ गया। दादा, कपूर ने बताया कि लड़के ने आगे परनाले का पाइप पकड़ लिया और बन्दर की तरह यह जा वो जा, गुम्बद पर जा पहुँचा। भीह के नारों से आसमान थर्रा रहा था— अंग्रेजो भारत छोड़ो! इन्कलाब जिन्दाबाद ! रामप्रकाश ने यूनियन जैक पकड़कर झटका तो पुलिस ने उसकी तरफ बन्दुकें उठाई। फिनले ने उन्हें रोक दिया। रामप्रकाश कमर में कांग्रेस का झंडा बाँधे था। उसने यूनियन जैक की जगह भारत का झंडा फहरा दिया। दादा, फिर नारों का क्या कहना!
एक आदमी फिनले से भिड़ गया, अब कलक्टर अंग्रेज नहीं हम हैं। तुम यहाँ से निकलो। हम काम सम्भालेंगे।
"ठीक है, कलक्टर तुम ही हो फिनले हँस दिया, लेकिन तुम्हें यह काम सीखना होगा। हमारे साथ बैठकर देखो। हम तुम्हारा ही काम कर रहे हैं। बाकी लोग जायें। यहाँ कचहरी के काम से आये लोगों का हर्ज नहीं करना चाहिये।
“भीड़ कचहरी पर आजादी का झंडा फहरा कर स्वतंत्रता की घोषणा करने के लिये नगर की ओर चली गयी।
"संघर्ष समिति ने तुरन्त निर्णय किया, नगर का शासन कांग्रेस को सौंप दिया जाये। गैरोला, श्याम शर्मा, सुकुल और कई लोग श्रीप्रकाश बाबू से शासन सूत्र संभालने की
प्रार्थना करने के लिये सिगरा में उनके मकान पर पहुँचे। लोग हैरान! श्रीप्रकाश बाबू को पुलिस कुछ समय पूर्व गिरफ्तार करके ले गयी थी।
“भीड़ ने कलक्टर के बँगले पर धावा बोल दिया, ऊँचे नारे और ललकारें हमारे नेता को रिहा करो! श्रीप्रकाश बाबू को रिहा करो!
"फिनले फिर भीड़ के सामने निकल आया। दोनों हाथ उठाकर सुनने का संकेत, आप लोग श्रीप्रकाश बाबू को परेशान न करें। वे बहुत शान्त प्रकृति व्यक्ति हैं। उन्हें शोर-शराबे और उत्तेजना से परेशानी होगी। वे जब चाहेंगे, घर लौट जायेंगे।
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“जनता को तब तक मालूम हो गया, श्रीप्रकाश बाबू ने स्वयं फोन कर कलक्टर से अनुरोध किया था कि वे 'क्विट इंडिया' आन्दोलन के लिये भाषण देने जा रहे हैं। उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाये। जनता मुँह लटकाये वापस लौट गयी।
"रात यूनिवर्सिटी में गैरोला के यहाँ संघर्ष समिति ने भावी कार्यक्रम निश्चित किया। समीप देहातों और छोटे नगरों फैजाबाद, जौनपुर, आजमगढ़, बलिया में क्रान्ति संघर्ष आरंभ करने के लिये युवकों के दल भेज दिये गये।
"तारघर, कलक्टरेट और पुलिस के कुछ लोगों में भी राष्ट्रीय भावना। उन्होंने खबर दी कि पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट मार्श, डिप्टी कलक्टर भूपनारायण सिंह वगैरा राजभक्त अफसरों ने लखनऊ में गवर्नर को कलक्टर की कमजोर नीति की शिकायत का तार देकर तुरन्त कुमुक के लिये संदेश भेज दिये थे। यह भी सुना कि सी० आई० डी० फिनले को खबर दी, वर्सिटी में विद्रोही विद्यार्थियों ने यू० टी० सी० के डेढ़-दो सौ राइफलों पर कब्जा कर लिया है। उत्तेजित विद्यार्थियों की संख्या नगर की पुलिस से कहीं अधिक फिनले को आशंका, जनता पलड़ा भारी देखकर पुलिस भी न बागी हो जाये। वह स्थिति सम्भाले था। उसने स्वयं भी सशस्त्र पुलिस और फौजी कुमुक के लिये संदेश भेजे थे।"
"यू० टी० सी० सेन्टर की फौजी गारद ने क्या किया?" पाठक ने टोका, "कितनी राइफलें, गोली गट्टा मिला?"
गैरोला ने मना कर दिया था, फौजियों से उलझना ठीक नहीं। वहाँ का टेलीफोन काट दिया कि वो शहर से बात न कर सकें।"
“उलझने का क्या मतलब!" पाठक के स्वर में वित्रता, "उनकी सहानुभूति पानी चाहिये थी। यह बात महीना भर पहले सोचने की थी। उन्हें बताना था, कचहरी पर अपना झंडा लग गया। एक-दो को ले जाकर दिखा देते। उतना हरबा हथियार अपने हाथ होता तो कितने काम आता। "
बिरजू ने आगे बताया, "लोगों को संदेह, दूसरे दिन कचहरी पर फिर न यूनियन जैक लग जाये। ग्वारह को नौ-दस बजे भीड़ का बहुत बड़ा रेला कचहरी की ओर गया। ग्यारह को शहर में सशस्त्र पुलिस भी अधिक संख्या में।
बना के पुल के इधर नदेसर में सशस्त्र पुलिस रास्ता रोके खड़ी थी। सुपरिण्टेण्डेण्ट मार्श कोतवाल सिद्दीकी और डिप्टी कलक्टर भूपनारायण सिंह पुलिस ने हुक्म दिया, पब्लिक पीछे हट जाये। पुल पार करना मना है। भीड़ नारे लगाकर आगे बढ़ीं। मार्श ने गोली चलवा दी। दो आदमी गिर पड़े तो भीड़ के पाँव उखड़ गये। भागती भीड़ पर लठैत पुलिस ने हमला कर दिया।
"संघर्ष कमेटी ने निश्चय किया, जनता को डिमरिलाइज नहीं होने देंगे। संघर्ष की ललकार के लिये शहर में जगह-जगह जुलूस निकालने का आर्डर दे दिया। हरिचन्द्र की तिमुहानी पर पुलिस के साथ फौजी गारद भी मौजूद। जुलूस नहीं रुका तो भूपनारायण सिंह ने गोरे फौजियों से गोली चलवा दी। जुलूस के आगे था सुनारपुरा का बिन्देसरी पाठक उसने लोगों को विदकते देखा तो ललकार कर आगे बढ़ा। दूसरी बार और ज्यादा फायरिंग ! दो-तीन लड़के गिर गये। बिन्देसरी ने कहा, लेट जाओ रेंग कर आगे बढ़ो। फौजियों को गिरा दो। फिर फायरिंग हुआ तो भीड़ रुक न सकी। बिन्देसरी के पाँव में गोली लगी। एक बेचारा मल्लाह मारा गया। एक लड़की भी गोली लगने से घायल हुई। यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी चालीस जख्मियों को उठाकर यूनिवर्सिटी हस्पताल ले गये।
" हम लोगों को बहुत चिन्ता, मार खाकर जनता दर्द न जाये। देवेन और श्याम जी ने राय दी, सरकार पर सामने नहीं, बगल से वार करना चाहिये। पहले सरकार से देहात में लोहा लिया जाये। धानापुर से शुरू हो। वहाँ कामता बाबू का प्रभाव। वे उग्र कांग्रेसी उन्हें खबर मिली थी कि कचहरी पर कांग्रेसी झंडा लग गया। कामता ने हुक्म दिया, यहाँ थाने पर भी कांग्रेसी झंडा लगेगा। थानेदार ने भीड़ आती देखी तो सिपाहियों को बन्दूकें देकर थाने की छत पर चढ़ा दिया था। सिपाहियों की गोली से एक आदमी गिर गया। कामता बाबू की ललकार से भीड़ ने थाने को घेरकर उसमें आग लगा दी। सिपाही छत से कूदकर भाग तो भीड़ ने दो को पकड़ कर आग में धकेल दिया। बस, देहात में आग फैल गयी। जीनपुर लाइन पर दो स्टेशन फूँक दिये। बनारस का हवाई अड्डा बाबतपुर खोदकर बेकाम
कर डाला।
"यूनिवर्सिटी के फाटक पर संघर्ष कमेटी का ताला है। चौबीस घंटे पहरा सी० आई० डी० पुलिस कोई नजदीक नहीं फटक सकता। पुलिस आये तो ऐसा ईंटा-पत्थर बरसे कि सालों को छठी का दूध याद आ जाये।
"साँझ सर्कुलर के मुताबिक सम्पर्क और यातायात साधन समाप्त करने के लिये देहात में दल भेज दिये गये। इंजीनियरिंग कालेज से बहुत मदद मिली। औजार भी मिल गये। अब पुलों के लिए मसाला चाहिये। श्याम जी ने हमें प्रोपेगेण्डा मैटीरियल और ग्वालियर वाला माल लेने भेजा है। लेकर जल्दी लौटना है।"
पाठक ने कुछ पल सोचकर आश्वासन दिया, "हो जायेगा। उसमें चार-पांच घंटे लग जायेंगे। तुमसे और भी जरूरी बात करना है। साढ़े आठ पौने नौ के बीच घंटाघर से जानस्टनगंज के बीच रहना।" पाठक लहरी के साथ चला गया।
ब्रजेश सिंह उर्फ बिरजू ने बी० ए० इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से किया था। बिरजू विद्यार्थी अच्छा था, परन्तु अठारह की आयु तक आजमगढ़ बलिया के प्रभाव से शौक- व्यवहार में देहाती। इलाहाबाद के कालेजों और होस्टलों में पूर्वी देहाती विद्यार्थी नागरिक विद्यार्थियों के विद्रूप मनोरंजन के पात्र इस दृष्टि से बलिया का देहाती अनाड़ी सरलता का प्रतीक उनकी संज्ञा 'बलियाटिक' 'टिक' संकेत पर्याप्त कुछ पूर्वी देहाती विद्यार्थी नागरिकों के मजाक को निरीहता से लेते और फिर मजाक को भोली चुटकी से पलट कर मजाक करने वाले को मिट्टी कर देते।
बिरजू में इतनी सहिष्णुता न थी। बचपन में भैंस के दूध की धारें लेकर खेतों में उछल-
कूद से निधड़का फिर शिक्षा के लिये निपुत्र मामा के यहाँ आजमगढ़, गाजीपुर के कस्बों और बलिया में रहा। उसकी प्रवृत्ति और विचारों पर मामा का प्रभाव। लड़कपन से कसरत- अखाड़े का भी शौक अपनी बातों पर बहुत भरोसा। विद्रुप में अपमान की ध्वनि की शंका से ही हाथ छोड़ बैठता। तीन-चार से भिड़ जाने में भी बेझिझक
उस समय यूनिवर्सिटी में फेडरेशन का बहुत जोर था। बिरजू भी साम्यवाद के मानवी आदर्शो से प्रभावित हुआ, परन्तु कांग्रेस समाजवादियों, विशेषकर पाठक की संगति से उसे कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीयता में अपने राष्ट्र की उपेक्षा खटकने लगी। समाजवाद के प्रति झुकाव के कारण उसकी सहानुभूति कांग्रेस समाजवादियों से हो गयी।
बिरजू एम० ए० के लिये १९३८ में लखनऊ चला गया। घर की सीमित धरती पर खेती संभालने के लिये बड़ा भाई था। बिरजू का विचार पुरातत्व में शोध से पी-एच० डी० करने का। बिरजू की अध्ययन महत्त्वाकांक्षा को मामा का प्रोत्साहन पुरातत्व के शोध- अध्ययन में निर्देश के लिये बी० एच० पू० में डाक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल से बेहतर कौन हो सकता था। बिरजू को पाठक का भी परामर्श, बी० एच० यू० में अध्ययन के लिये बहूतर अवसर के अतिरिक्त अपने पूर्वी जिलों में पिछड़ी राजनैतिक चेतना के लिये कुछ करने की भी चिन्ता उचित बिरजू १९४१ से बी० एच० ० चला गया था। वहाँ श्याम शर्मा का विशेष विश्वासपात्र सहयोगी।
श्याम शर्मा ने दस अगस्त की रात संघर्ष समिति के निर्णय के अनुसार सुबह चार बजे बिरजू को छः बजे की पैसेन्जर से इलाहाबाद जाने का आदेश दिया, प्रोपेगण्डा मेटीरियल और डायनामाइट के लिए सम्पर्क बता दिये।
बिरजू चौकसी में साढ़े आठ से तीन मिनट पूर्व घंटाघर पहुँच गया। बायें फुटपाथ की दुकानों पर सरसरी नजर डालता टहलते कदमों से जानस्टनगंज की तरफ गया। एक पनवाड़ी से पान लिया और आगे बढ़ गया। रेल पुल के नीचे से पावर हाउस के फव्वारों के सामने से लौटकर दूसरी ओर के फुटपाथ पर घंटाघर की ओर लौट रहा था। जीरो रोड के सामने पहुँचा तो जोशी आ रहा था। नजरें मिलने पर जोशी ने आँख से बायें इशारा किया और जीरो रोड पर घूम गया। बिरजू उसके पीछे। जीरो रोड पर बायें हाथ दूसरी गली में घुसे जोशी और बिरजू गली के एक मकान की ड्योड़ी के जीने से दूसरी मंजिल पर चले गये। जीने के साथ के कमरे में एक जवान रेडियो पर प्रोग्राम लगा रहा था।
जवान ने जोशी को देखकर दूसरी दीवार के साथ तख्त की ओर संकेत कर दिया। तख्त पर दूसरा जवान बैठा था। पीछे दीवार पर लगे बिजली के लैम्प के प्रकाश में चेहरे के सामने हाथों से थमे अखबार पर नजर गड़ाये। युवक ने आहट से अखबार नीचे किया तो बिरजू पुलक उठा, बसीधर दुबे ! बंसीधर दुबे भी नये भेस में कमीज, चूड़ीदार पायजामा, समीप बंद गले का रियासती फैशन का कोट और उसी ढंग से बँधा मुड़ा सा रखा था।
बंसी ने बताया, सुबह से अखबार देखने का टाइम न मिला था। बंसी ने अखबार के तीसरे पृष्ठ के अंतिम कॉलम में पहला समाचार बिरजू को दिखाया, “भाई कमाल कर दिया कामरेड ने! कल भी खबर थी, यूनिवर्सिटी में क्विट इंडिया की ललकार देकर पुलिस के घेरे से निकल गयी!"
बिरजू ने दोपहर में ही 'लीडर' में समाचार देख लिया था। लखनऊ से ग्यारह अगस्त
का समाचार था फरार विद्यार्थी युवती उपा सेठ के भ्रम में दो वैकाई युवतियों को परेशानी लखनऊ-फैजाबाद सड़क पर बाराबंकी की ओर बहुत तेजी से जाती मोटर गाड़ी का पीछा करके लखनऊ पुलिस ने गाड़ी को रोक लिया। गाड़ी में बैकाई वर्दी पहने दोनों युवतियों ने सैनिक सेवा के और परिचय कार्ड पुलिस को दिखाये, परन्तु पुलिस को समाधान न हुआ। पुलिस दोनों युवतियों को साख कड़े पहरे में लखनऊ लौटा लायी। सैनिक अधिकारियों द्वारा युवतियों की पहचान करके उनके विशिष्ट कार्य के लिये बाराबंकी डिपो में भेजे जाने की साक्षी देने पर ही युवतियों को रिहा किया गया। सैनिक अधिकारी आवश्यक कार्य में ऐसे हस्तक्षेप से बहुत क्षुब्ध हैं। लखनऊ के सरकारी क्षेत्रों में इस समाचार की बहुत चर्चा है।
उपा सेठ के दस अगस्त को वर्सिटी कैम्पस में भाषण देकर फरार हो जाने का समाचार बिरजू ने पिछले दिन संध्या बनारस में ही पढ़ लिया था। वहाँ भी लोग उपा सेठ की वीरता से चमत्कृत थे। बारह को उसके सम्बन्ध में दूसरा समाचार।
"हमने तो उषा सेठ को देखा है न हम तब लखनऊ वर्सिटी में रहे। एम० ए० इंगलिश में रही।" बिरजू उत्तेजना में भोजपुरी लहजे पर आ गया, "भई पर्सेनैलिटी रही इम्प्रेसिव !" पूर्वी अंचल का सदाचारी युवक, किसी युवती को मुन्दर सुदर्शन कैसे कह देता! "अइसा जमकर स्पीच देती रही, घंटी अइसा गला कि पूछो नहीं लेकिन ई का मालूम रहा कि झाँसी की रानी हो जायी । "
उपा के साहस की प्रशंसा कर बिरजू ने रेडियो में व्यस्त साथी की ओर संकेत किया, "बर्लिन, रोम लगा रहे कि सिंगापुर
बंसी ने मीन धैर्य का संकेत कर दिया। रेडियो से टुक! टुक! टुक! से नौ बजे का संकेत । "यह तो आल इंडिया रेडियो "सब झूठ!" बिरजू के स्वर मैं उपेक्षा की ग्लानि, "रोम-बर्लिन लगाओ तो गरम खबर आये।"
"सुन तो लो!" बंसी ने कहा, "झूठ तो होगा ही कोई काम की बात भी निकल आती है। " रेडियो बहुत धीमे बोल रहा था। बसी और जोशी रेडियो के समीप जाकर ध्यान से सुनने के लिये समीप फर्श पर उकडूं बैठ गये। बिरजू को पिछले छत्तीस घंटे से कमर सीधी करने का अवसर न मिला था। तख्ते पर चित्त पसर गया था। रेडियो का स्वर सुनायी दे रहा था। अंग्रेजी में समाचारों के बाद हिन्दुस्तानी में समाचार। तब हिन्दी-उर्दू के प्रसारण पृथक न होते थे। समाचार फारसी से लदी दुर्बोध हिन्दुस्तानी में सुनाये जाते थे।
समाचार समाप्त होते-होते नीचे जीने पर आहट जोशी जंगले से नीचे झाँककर जीना उतर गया। जोशी के साथ पाठक भी गया। वह बिरजू के समीप तख्त पर बैठ गया। उसके आने पर बिरजू उठ बैठा था। उसने रेडियो के समीप बैठे युवक से पूछ लिया, “समाचारों में कोई काम की बात?"
"हाँ, वायसराय और प्रान्तीय गवर्नरों ने सरकारी अमले, खासतौर पर पुलिस को शह दी है। वर्तमान परिस्थिति में उन्हें व्यवस्था, शान्ति और सार्वजनिक यानी सरकारी सम्पत्ति की रक्षा के लिये विशेष अधिकार दे दिये गये हैं। अफसर और पुलिस स्थिति अनुसार अपने निर्णय से आवश्यक शक्ति प्रयोग कर सकेंगे। व्यवस्था रक्षा के लिये उनके काम के विरुद्ध कोई विभागीय या कानूनी तहकीकात या कार्यवाही नहीं की जायेगी। उनकी राजभक्ति
और कर्तव्य परायणता की सराहना में उचित पुरस्कार दिये जायेंगे।"
इस एलान से सरकार का एक झूठ तो स्पष्ट हो गया," जोशी ने कहा "कि जनता को इस आन्दोलन से कोई सहानुभूति नहीं है। सर्वसाधारण जनता कांग्रेस के उपद्रव से खिन्न है। पुलिस को पुचकार कर विशेष अधिकार देने का कारण है कि आन्दोलन फैल रहा है। और "
रेडियो पर दूसरा प्रोग्राम लगाने में व्यस्त युवक ने मौन के संकेत में हाथ उठाया, कांग्रेस रेडियो है।" पाठक के साथ बिरजू भी रेडियो के समीप आ गया। बिरजू को रोमांच! "आप यू० पी० के विद्यार्थी नेता, लखनऊ यूनिवर्सिटी की उषा सेठ का सन्देश सुनिये। उपा अंग्रेजी में बोलेंगी। मौजूदा हालत में उनसे साक्षात्कार सम्भव नहीं। यह आपका सौभाग्य है कि आप उनका सन्देश सुन रहे हैं।" युवकों के हृदय की गति बड़ गयी। "उनके पश्चात यू० पी० कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी केशवदेव मालवीय 'भारत छोड़ो' संघर्ष के कार्यक्रम के लिये आदेश देंगे।"
युवती कंठ की स्पष्ट आवाज अंग्रेजी में, "देश के नर-नारी और युवकों अपने महात्मा गांधी के आदेश से हम अंग्रेजों को भारत से निकालने के संघर्ष में करो या मरो' के प्रण से कूद चुके हैं। दासता से मुक्ति का एकमात्र ऐतिहासिक मार्ग शोषक शक्ति से बगावत है। "अंग्रेजों भारत छोड़ो' उसी खुली बगावत की ललकार है। बगावत दासता से पीड़ित प्रत्येक समाज का जन्मसिद्ध अधिकार है।
"इस खुली बगावत का मार्ग बापू के 'मिक्स कमाण्डमेंट्स' (छः आदेशों) में स्पष्ट हैं। पहला आदेश प्रस्ताव पास होने के क्षण से प्रत्येक भारतीय पूर्णतः स्वतंत्र नागरिक है। हमारे लिये एकमात्र कानून भारतीय जन के बहुमत का निर्णय होगा। अंग्रेजी सरकार के सब कानून दासता के बधन और हमारे लिये अमान्य हैं।
“बापू का दूसरा आदेश अहिंसा हमारा लक्ष्य है, परन्तु अहिंसा का अर्थ हिंसा को सह कर हिंसा को प्रोत्साहन देना नहीं है। अहिंसा के लक्ष्य के लिये विदेशी शासन के शोषण- दमन की हिंसा के विरुद्ध इस धर्मयुद्ध में हमें सभी सम्भव साधनों का उपयोग करना है।
"बापू का तीसरा आदेश- विदेशी सरकार की शस्त्र-शक्ति का भय न कीजिये। आप सरकारी व्यवस्था और कामों में हडतालों से असहयोग कर सरकार की शख-शक्ति को बेकाम कर सकते हैं। सरकार को किसी भी प्रकार का सहयोग देना राष्ट्रदोह है। लोगों को ऐसे अपराध से रोकना हमारा कर्तव्य है। सरकारी व्यवस्था को विश्रृंखल और पंगु करने के लिये जो भी आवश्यक हो, किया जाना चाहिये।
"बापू का चौथा आदेश – विदेशी शोषक साम्राज्यशाही को समाप्त करने के लिये इस व्यवस्था की सभी केन्द्र ग्रन्थियों-सरकारी दफ्तरों, कचहरियों, वानों, जेलों को अपने कब्जे में कर लेना जरूरी है। इस काम में हमें सरकार की लाठी, तलवार और तोप का भी सामना करना पड़ेगा। हमें इस काम के लिये सिर पर कफन बाँधकर पीछे न हटने के निश्वय से आगे बढ़ना है।
बापू का पाँचवाँ आदेश है— राष्ट्रीय मुक्ति के संग्राम में किसी भी जोखिम से झिझकना अक्षम्य कायरता है। शत्रु सरकार को समाप्त करने के लिये पूरे देश में बगावत की आग लगा दो। शत्रु की सैनिक और युद्ध शक्ति को समाप्त करने के लिये उसके हाथ-पाँव यातायात और
सम्पर्क के साधनों, रेल लाइनों, सड़कों, पुलों, डाक-तार फोन को ध्वंस कर दो। इस समय शत्रु की किसी भी प्रकार की सहायता राष्ट्रद्रोह है। जो लोग स्वार्थ से शत्रु के सहायक बने रहना चाहते हैं, वे भी राष्ट्र के शत्रु हैं।
"बापू का छटा आदेश- इस धर्मयुद्ध में जूस जाने के प्रण से सिर पर कफन बाँधकर बढ़ो। इस संघर्ष का अन्त हमारी विजय से होगा या हमारी अन्तिम साँसों और हमारे रक्त की अन्तिम बूंदों से होगा।"
युवक साँस रोके सुन रहे थे। उपा सेठ के स्वर के बाद केशवदेव मालवीय ने बापू के आदेशों की विस्तृत व्याख्या से संघर्ष के लिए प्रेरणा दी। रेडियो के समीप बैठे युवक ने बताया, "मालदीय कल भी बोले थे। कल अंग्रेजी में बोले थे। ये अच्छा कि स्टूडेंट्स और इंटेलेक्चुअल लोगों के लिये उपा सेठ और जनता के लिये मालवीय!" रेडियो बन्द हो जाने पर पाठक ने युवकों की ओर देखा, "का हो, कैसा रहा?"
तीनों युवकों के चेहरों पर उत्तेजना की दमक बसी ने पूछा, “क्या, लखनऊ रेडियो पर अपना कब्जा हो गया? वहीं से तो ब्राडकास्ट होता है न!"
"वो भी होगा।" पाठक ने कहा, "समय पर।"
"सुना नहीं कांग्रेस रेडियो!" रेडियो सेट करने वाला युवक बोला, "कांग्रेस रेडियो! संघर्ष का अपना रेडियो अभी इसकी परिधि पचास मील तक बस!"
वंसी की आँखों में और विस्मय, "उषा सेठ और मालवीय इलाहाबाद में भई कमाल कर दिया! सरकार की नाक के नीचे फुलझड़ी छोड़ दी न! दादा, ऐसा ब्राडकास्ट बनारस में करवा दो। उपा सेठ एक बार बी० एच० यू० में दहाड़ दे तो जोन आफ आर्क की तरह रेवोल्यूशन लीट कर ले जाये।"
"हूँ।" पाठक ने लहरी और बिरजू को साथ चलने का संकेत किया। ड्योढ़ी में पाठक ने अपनी साइकल ले ली। जी० टी० रोड से धीरे-धीरे कीटगंज की ओर चलने के लिये कहा । स्वयं बंसी के साथ हीवेट रोड की तरफ घूम गया।
बिरजू जी० टी० रोड पर कीटगंज तक पहुँचा था, पीछे से आकर पाठक उसके साथ साइकल ठेलता चलने लगा। दस बज रहे थे। सड़क बाजार लगभग सूने। पाठक स्वर दबाकर बोला, "तुमने जो सामान बताया था, स्टेशन चला गया। सुबह ठीक जगह पहुँच जायेगा। तुम्हारे लिये ज्यादा जरूरी काम है, बहुत समझ और जिम्मेदारी का "पाठक ने बिरजू की ओर देखा ।
बिरजू की गर्दन तत्परता में तन गयी, "हुकुम करो!"
"तुमने कहा, बनारस में उपा जी का प्रभाव बहुत उपयोगी हो सकता है। "
"जादू हो जायेगा दादा! दस तारीख के जुलूस में गर्ल्स होस्टल की लड़कियाँ ह दमयन्ती, लीला जमरा जुलुस के आगे चलीं तो लड़कों में क्या जोश रहा! दादा, लोगों का मारल बढ़ता है न? उषा जी तो अब झसी की रानी बन गयीं।"
"तुम्हारे बलिया में आज दोपहर तक भी एकदम सन्नाटा। वहाँ कलक्टर निगम और तहसीलदार ने ऐसा आतंक जमाया है कि पत्ता नहीं खड़कने दे रहे। बलिया का महत्त्व समझते हो? पूर्व से बलिया ही यू० पी० का रास्ता। बिहार में संघर्ष बहुत आगे बढ़ गया। छपरा तो समझो अपने हाथ में याद है, मार्च में वर्मा से सरकार शिमला भाग गयी तो
हमने क्या कहा था? हल्ला पूरब से जायेगा। बलिया में रास्ता साफ रहना चाहिए। समझते हो! यह तुम्हारी बलिया वालों की जिम्मेदारी।"
कीटगंज से आगे पाठक ने जी० टी० रोड के दाहिने बड़े वट वृक्ष के समीप, ऊँची कुर्सी के एक पुराने ढंग के बड़े मकान की छोड़ी पर दस्तक दी। किवाड एक प्रौड़ा ने खोले ।' सम्धान्त मुद्रा मध्य प्रदेश महाराष्ट्र जैसा वेशा
पाठक के प्रश्न पर उत्तर दिया, अभी नहीं लौटी।
बिरजू को पाठक इथोड़ी के साथ की बैठक में ले गया। बैठक छोटी परन्तु सुविधा का प्रबन्धः कोने में टेबल फैन पाठक ने दो कुर्सियाँ बैठक की खिड़की की ओर खींच लीं। बैठक में प्रकाश बुझा दिया। बिरजू को समीप बैठाकर भावी कार्यक्रम बनाता रहा। पाठक की नजर खिड़की से सड़क पर पूर्व की ओर "शायद आ रहे हैं।" पाठक ने कहा। पाठक ने खिड़की मूंदकर बैठक में प्रकाश कर दिया और दबोड़ी में चला गया। बैठक से वोड़ी में भी प्रकाश जा रहा था। बिरजू की दृष्टि कौतूहल से उसी ओर।
वोड़ी के किवाहों पर दस्तक से पाठक ने एक किवाड खोला। बिरजु को ड्योड़ी से भीतर आती युवती की झलक मिली। पाठक ने युवती की ओर स्वागत में हाथ बढ़ाया। युवती के चेहरे पर मुस्कान, दोनों ने निस्संकोच आत्मीयता की सरगरमी से गूढ़ मित्रों की तरह हाथ मिलाया। बिरजू को रोमांच! आमूल सामाजिक, राजनैतिक क्रान्ति! पुराने संस्कारध्वंस पाठक जैसा संयमी युवक!
युवती के पीछे दूसरी युवती ने भीतर आकर योड़ी की मॉकल चढ़ा दी। पाठक और युवती ने बैठक में कदम रखा। बिरजू युवती के आदर में खड़ा हो गया। युवती को पहचान कर उसे दूसरी बार रोमांच उपा सेठ बिरजू ने उपा को दो बरस पूर्व लखनऊ वर्सिटी में देखा था। उपा का शरीर पूर्वापेक्षा कुछ दुबला चेहरा अधिक गम्भीर, रोबीला।
पाठक और उपा के पीछे दूसरी जवान लड़की बैठक में आ गयी। उसके दूधिया साँवले चेहरे पर उल्लास की उमंग बोली, “भई उपा जी ने कमाल कर दिया। बेरी प्रिमाइज़ ! स्पष्ट, पूरी बात, प्रेरका एक भी व्यर्थ शब्द नहीं! इतना साफ स्वरा मालवीय और पटेल ने बहुत सराहा। कहा, नयी भारत कोकिला। पटेल ने कहा, श्री मस्ट हैव आल इण्डिया टूर!" "बिलकुल नहीं। हम लोगों ने भी सुना। पाठक ने समर्थन किया।
"छोटी अटेची दे दो।" पाठक ने लड़की से कहा, "ग्यारह बज रहे हैं। खाना जल्दी दिला दो!" बिरजू की ओर संकेत किया, "ये कामरेड भी खायेगा। रात वहाँ ही रहेगा।"
पाठक ने विरजू को समीप की कुर्सी पर बैठने को कहा। उपा की ओर संकेत कर पूछा, लखनऊ वर्सिटी में देखा होगा। पहचाना?"
बिरजू ने संकेत से स्वीकारा। तब वर्सिटी में दो-ढाई हजार विद्यार्थियों में तीस-चालीस लड़कियों। सभी लड़कियाँ पहचानी जा सकती थीं। लड़कियों के लिये सब लड़कों को पहचानना कठिन था।
उपा ने बिरजू को ध्यान से देखा, "अविनाश या दीक्षित के साथ देखा होगा।" बिरजू पहचान लिये जाने के सौभाग्य से प्रसन्न।
पाठक ने उपा को बिरजू का परिचय दिया, ब्रजेश सिंह उर्फ कामरेड विरजू, अगली मंजिल में आपका ए० डी० सी०, शरीर-रक्षक और दुभाषिया । बनारस से आगे आपको
दुभाषिया की सहायता आवश्यक। बनारस संदेश भेज दिया है। चौदह अगस्त सुबह का कार्यक्रम निश्चित है।" बिरजू की ओर देखा, "प्लीज़ रिमेम्बर! एक बार ब्रॉडकास्ट के बाद तुरन्त सामान हटा दिया जाये। सरकार के एक्सपर्ट ब्रॉडकास्ट की डाइरेक्शन आसानी से पकड़ सकते हैं। यहाँ मालवीय जी के आग्रह और उषा जी के कारण दो बार ब्रॉडकास्ट की जोखिम ली गयी। यह विकल्प था। ऐसी जोखिम दूसरी बार किसी हालत में नहीं ली जानी चाहिये।"
युवती ने लौटकर छोटा अटैचीकेस पाठक को देकर कहा, "आ जाइये, माँ खाना परोस रही हैं।"
"चलो, हम आ रहे हैं।"
पाठक ने अटैची उषा और बिरजू के सामने खोल दिया, "ये देखो क्या है?"
बिरजू की भाँवें उठ गयीं, विस्मय- उत्साह की मुस्कान। उषा भी मुस्करायी, "सिनेमा
और तस्वीरों में तो देखा है। पटाखे चलाने के लिए सभी लड़के खरीदते हैं।"
"यह है अंग्रेजी कानून की बरकत ऐसी चीजें हम लोग सिनेमा और चित्रों में ही देख सके हैं। छोटे-मोटे शस्त्र भी देश में निन्यानवे फीसदी के लिये अजूबा है।" पाठक ने कहा, "और गांधी की अहिंसा में भी यह त्याज्या"
पाठक ने अटैची से दो पिस्तोल निकाले एक ३.५ बोर का छः इंच नाली का कोल्ट पिस्तौल, दूसरा बहुत छोटा लगभग साढ़े तीन-चार इंच नाली का खिलौने जैसा पिस्तौल पाठक ने दोनों पिस्तौल खोलकर मैगजीन में कारतूस भरने, निकालने और कारतूस चलाने का ढंग बताया। पिस्तौल से फायर करने, पिस्तौल में गोली रहने पर उसमें सेफ्टी कैच से स्वयं चल जाने की आशंका से बचने का ढंग समझा दिया।
उषा ने छोटा कोल्ट बिना गोली चलाकर तरीका समझ लिया। पाठक ने उषा से कहा, “इसे आसानी से सदा अपने शरीर पर रख सकती हैं। इसकी गोली बहुत छोटी है। सिर कनपटी या हृदय में लग जाये तभी पूर्णतः घातक होगी। युवती के लिये कई तरह की कठिनाइयाँ आ सकती हैं। ऐसी स्थिति भी सम्भव जब आत्मसम्मान की रक्षा का एकमात्र उपाय पिस्तौल कनपटी पर रखकर आत्महत्या हो सके।" पाठक का चेहरा बहुत गम्भीर हो
गया।
“थैंक्यू फार बेरी प्रेशस इन्स्ट्रूमेंट।" उषा मुस्करायी।
उषा, पाठक, बिरजू उठ ही रहे थे, लड़की उन्हें बुलाने फिर आयी। उपा ने पाठक, बिरजू के साथ ऊनी आसन पर बैठकर सामने चौकी पर रखी थाली में शुद्ध हिन्दू पद्धति से भोजन किया। पाठक ने उषा को अनुमान बता दिया, बनारस में दूसरे ढंग की जगह या परिवार में ठहरना पड़ सकता है। लड़की ने कुछ आवश्यक वस्तुएँ उषा को अपने टीन के बक्स में रखने के लिये दे दीं।
उषा और बिरजू पौ फटने से पहले प्रस्थान के लिये तैयार थे। उषा ने रुद्राक्ष की माला पहन ली थी। लड़की ने उसके लिये सफेद चन्दन का लेप तैयार कर दिया था। माथे पर चन्दन का लेप लगाते समय उषा को सावित्री की सिर मुंडी बुआ की याद आ गयी। पाठक की ओर देख मुस्करायी, "आपकी शिष्या बन गयी।" यात्रा के लिये उषा के कंधों पर सफेद रेशमी चादर थी, घूँघट कर लेने के लिये सिर पर आँचल ।
बिरजू और उपा को स्टेशन के लिये रवाना करने के पूर्व पाठक संदेश की प्रतीक्षा में बार-बार व्याकुलता से पड़ी देख रहा था।
पूर्व से साइकल पर आते जवान को देखकर पाठक ने सांत्वना अनुभव की जवान पाठक को दबे स्वर में संदेश देकर चला गया। पाठक का चेहरा अधिक गम्भीर, "सामान नहीं निकाला जा सका। मुहल्ले में स्थिति गड़बड़ है। दूसरी गाड़ी से भेजने का जतन करेंगे।"
पाठक ने विरजू से कहा, "वहाँ तैयारी रखना सामान पहुँच गया तो दो घंटे में फिट हो जायेगा।" पाठक ने फिर चेतावनी दी, "यह काम हो या न हो, कल के प्रोग्राम में कोई विकल्प नहीं।"
यात्रा में पाँच घंटे घूंघट की परेशानी से बचने के लिये उषा रामबाग स्टेशन से जनाना डिब्बे में बैठी। गाड़ी बनारस स्टेशन प्लेटफार्म पर पहुँची तो माथे पर घूंघट खींच लिया। गाड़ी रुकने पर कुछ पल में जनाना स्वर, "पद्मा दीदी जी नमस्ते । "
उषा ने पुकारने वाली जवान लड़की को देखकर अभिवादन स्वीकारा। साधारण नख- शिख, खत्री लड़कियों जैसा रूप रंग। उन्नीस-बीस का क्या धानी रंग की रेशमी साड़ी, सिर पर आँचल, कंधों पर हलका बादामी रेशमी दुपट्टा, मध्यवित्त सम्भ्रान्त परिवार का ढंग ।
मरदाने डिब्बे से बिरजू आ गया। इलाहाबाद से चलते समय उसने कपड़े बदल लिये थे, धारीदार लम्बा कुर्ता, घुटनों तक धोती। कंधे पर अँगोछा, सिर पर कसीदे की बनारसी टोपी । बिरजू ने उपा का सामान ले लिया। स्टेशन पर सन्नाटा, न यात्रियों की गहमा-गहमी, न खोमचे वालों की पुकारें, जगह-जगह लठैत और बन्दूकची पुलिस
स्टेशन के बाहर भी उजाड़, सूना। जगह-जगह सशत्र सिपाही चार-छः सवारियाँ थीं, उन्हें दूसरे मुसाफिर लेकर चल दिये थे। बिरजू इधर-उधर देखकर रिक्शा ले आया। अगुवानी के लिये आयी लड़की उषा को बता रही थी, शहर में चार दिन से हड़ताल है। स्टेशन आते समय आधा रास्ता पैदल आयी थी। पिछले चार दिन की घटनाओं का कुछ ब्यौरा जो उषा इलाहाबाद में सुन चुकी थी।
लड़की ने बता दिया माँ जी कट्टर रूढ़िवादी, बहुत छुआछूत मानने वाली। हमारी भाभी के हाथ की बनी दाल तक से परहेज़ माँ के अतिरिक्त बड़ा भाई, भाभी। भाई और भाभी आपके बारे में जानते हैं आपके काम के लिये ऊपर चौथी मंज़िल में प्रबन्ध है। हमारे आँगन में दो और परिवार हैं। बहुत पुराने खयाल के लोग, अशिक्षित स्त्रियाँ हम लोग खन्ना खत्री हैं। आपके लिये कह दिया है, हमारे प्रोफेसर जुल्ली साहब की बहिन तीर्थ यात्रा पर गया, जगन्नाथपुरी जा रही हैं। भक्तिन हैं। बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिये आ रही हैं। कश्मीरी हैं, यहाँ की बोली नहीं जानतीं। भाभी हिन्दी पड़ लेती हैं। 'आज' में आपके बारे में पड़ा है। उन्हें बता भी दिया है कि सावधान रहें, दूसरी औरतें आपको परेशान न करें। मेरा नाम पूनम है। मेडिकल थर्ड इयर में हूँ"।
विरजू उनकी रिक्शा के पीछे साइकल पर आ रहा था। रिक्शा तंग गली के सिरे पर रुका। लड़की और उपा के पीछे-पीछे बिरजू सामान उठाये बड़े मकान की ड्योढ़ी में चला
गया।
पूनम की भाभी कुछ सहमी हुई थी, परन्तु मेहमान को बहुत आदर से लिया। उपा को परेशानी से बचाने के लिये पूनम बहुत सतर्क। पड़ोसिनों को सुनाकर भाभी से कहा, "दीदी कहती हैं, गाड़ी में सब तरह के लोगों के साथ बैठना-छूना होता है। पहले नहाकर, कपड़े बदलकर पूजा करेंगी।"
उपा ने नहाकर कपड़े बदले तब तक पूनम ने उषा के टीन के बक्स से चन्दन लेकर घिसकर तैयार कर दिया था। उषा ने फिर माथे पर चन्दन लगा लिया। पूनम उसे खाने के लिये चौके में ले गयी। पूनम ने पाहुनी के लिये तीसरी मंजिल पर अपने कमरे में प्रबन्ध कर दिया था। छोटा सुविधाजनक कमरा। कमरे में पलंग, मेज़-कुर्सी न थे। लम्बे तख्त पर गद्दा, तकिया। दूसरी दीवार के साथ कम चौड़े तख्त पर पूनम के पढ़ने-लिखने का सामान। कमरे में टेबल फैन पूनम, उषा के साथ तख्त पर बैठकर बात कर रही थी। देखा, एक पड़ोसिन दायीं ओर के छज्जे से झाँक रही थी। कुछ देर बाद पूनम की ही आयु की एक श्री दरवाज़े से लॉककर पीछे हट गयी। पूनम खीझ गयी, "इन औरतों को कितना कौतूहल ! गोबिन्द (विरज) पाँच बजे आने को कह गये हैं। हम किवाड़ मूंदे देते हैं। आप सफर से थकी हैं। कुछ देर झपकी ले लीजिये।"
कुछ देर में उषा की झपकी टूट गयी। दिन में सोने की आदत न थी। लेटी थी परन्तु मुन में अनेक कल्पनायें! इलाहाबाद में माया की याद भी आयी माया एक दिन पूर्व जुलूस में गिरफ्तार हो चुकी थी । निष्क्रिय लेटी उपा की कल्पना में लखनऊ, पप्पू, वेवे, मम्मी, ईडी सोचा, समय काटने के लिये क्या पड़े? पूनम की पुस्तकों पर नज़र डाली-ग्रे की एनाटॉमी' 'बेस्ट और टेलर की फिजिऑलोजी । याद आया, इलाहाबाद में गीता ने उसके बक्स में पाठक के सुझाव से भागवत की पोथी रख दी थी।
उपा ने उठकर बक्स में से पोथी निकाल ली। भागवत उसके लिये अपरिचित पुस्तका व्यर्थ कल्पनाओं की कलपन से बचने के लिये हिन्दू पुराण कथा के प्रति कौतूहल पोथी भारी थी। लेटे-लेटे पढ़ने में उसे सम्भाल सकना कठिन बैठकर पढ़ने लगी। जो पृष्ठ खुला, वहीं से स्कूल में मैट्रिक तक हिन्दी पढ़ी थी। सुविधा से पढ़ लेती थी, परन्तु भागवत की हिन्दी पाठ्य पुस्तकों की हिन्दी से भिन्न पुस्तक में कृष्ण जन्म का प्रसंग वसुदेव और देवकी की सन्तान को जन्मते ही हत्या कर देने के लिये राजा कंस ने उन्हें पत्थर की दीवारों और लोहे के जंगलों में बन्दी बना दिया था। बालक का जन्म होते ही लोहे के दरवाजे स्वयं खुल गये। प्रहरी नींद में बेसुध ।
वसुदेव नवजात शिशु की प्राण-रक्षा के लिये सूप में लिये यमुना पार गोकुल ले जा रहे थे। नदी की लहरें ऊँची उठने लगीं। लहरें बसुदेव की कमर से ऊपर सीने तक पहुंचीं। वसुदेव ने शिशु की रक्षा के लिये सूप को ऊंचा उठाया। लहरें कंधों तक। वसुदेव ने सूप सिर पर रख लिया। लहरों के और ऊँचा उठने पर वसुदेव निराशा लहरें और ऊँची उठी, पलांश के लिये बसुदेव के सिर से भी ऊँची यमुना सूप में नवजात बालक रूप भगवान का चरण छूकर सहसा वसुदेव के घुटनों के नीचे ।
उपा मन में मुस्करायी, क्या कल्पना है। भक्तों को प्राकृतिक शक्तियों से ऊँची शक्तियों की कल्पनाओं से कितना सहारा मिलता है। बिलकुल बाइबल की चमत्कार कथाओं की तरह तर्क के बल के बिना विश्वास को सदा चमत्कार के सम्बल की जरूरत ।
कमरे के किवाड़ों पर हलकी दस्तक से ऊषा की नज़र उस और एक किवाड़ धीमे से खुला, फॉक में से पूनम ने झांका। मेहमान को बैठी देखकर भीतर आ गयी।
"बहिन जी, इन जाहिल औरतों ने परेशान कर दिया। इनके कौतूहल का अंत नहीं। हमने इन्हें चुप कराने को कह दिया था— अमरनाथ, केदारनाथ, बदरीनाथ, सब तीर्थों की यात्रा करके आ रही हैं। हर समय भगवत भजन में लीन रहती हैं। बाल जोगन हैं। बोलती नहीं, लेकिन उन्हें ऐसी भक्तिन के दर्शन का कौतूहल
एक हमारी सरीक भौजाई है। उसका बरस भर का लड़का है। उसे सूखा रोग है। हमने समझाया, हस्पताल ले जाओ। दवा दिला देंगे या नुस्खा लिखा देंगे। पूजा, टोना-टटका करती रहती है, दवा पर विश्वास नहीं। दो घंटे से मुसीबत किये है। रोये जा रही है लड़के को भक्तिन से फूंक दिलवा दो। आप बच्चे को आशीर्वाद देकर एक फूँक मार दीजिये। " उपा की नज़र दरवाज़े की ओर गयी। दरवाज़े में बहुत उदास युवती, गोद में मूर्च्छित से बच्चे को लिये खड़ी थी।
पूनम ने अपने पढ़ने के तख्त से ऊनी आसन उठाकर फर्श पर बिछा दिया। उषा आसन पर पाल्थी से बैठ गयी। बच्चे को गोद में लिये युवती आकर आसन के सामने फर्श पर बैठ गयी। बच्चे को दोनों हाथों में उषा के सामने बढ़ा दिया। माँ के आँसू बह रहे थे। उपा को स्वयं आँसू रोकना कठिन । वह पलकें मूँदे, ध्यान मुद्रा में हाथ जोड़े कुछ पल मौन रही । दोनों हाथ बच्चे के शरीर पर रख दिये। कठिनाई से स्वयं को वश किये थी। बच्चे के शरीर पर फेंक दे दी।
उषा आसन से उठकर तख्त पर लेट गयी। लगभग दो बरस पहले पप्पू की बीमारी की याद से मन व्याकुल तब पप्पू अठारह मास का था। अब उस पप्पू को छोड़कर उपा दाँत पीस कर उठ बैठी, क्या हो रहा है मुझे! अब मेरे लिये सारा देश पप्पू!
किवाड़ों पर बहुत धीमी दस्तक। पूनम ने आकर याद दिलाया, सवा पाँच बजे हैं। उषा को साढ़े पाँच बजे बाहर जाना था। दूसरा समाचार दिया, "गोबिन्द कहते हैं, साढ़े चार की गाड़ी से सामान नहीं आया। वहाँ हालत ठीक नहीं है।"
पूनम साढ़े पाँच बजे मेहमान को साथ लेकर चलने लगी तो पड़ोसिनों को सुनाकर माँ और भाभी से कहा, "दीदी विश्वनाथ बाबा और गंगा जी के दर्शन के लिये जा रही है। "पूनम अब हलकी आसमानी सूती साड़ी पहने थी, कंधों पर सुबह की तरह हलका रेशमी दुपट्टा उषा श्वेत साड़ी, रेशमी दुपट्टे में
उषा ने ज्योड़ी से निकल कर छोटा घूँघट कर लिया। गली के सिरे पर रिक्शा प्रतीक्षा में था। रिक्शा के समीप साइकल थामे बिरजू। दोनों रिक्शा पर बैठ गयीं। रिक्शा गली से बाज़ार में हो गया। दुकानें बन्द, सब ओर सूनापन, जगह-जगह लठैत पुलिस, कहीं बन्दूकची सिपाही । आतंक का वातावरण बाजार में आकर पूनम ने भी छोटा घूँघट कर लिया। उपा केवल सामने देख पा रही थी। बिरजू आगे चल रहा था। बिरजू को साइकल से उतरते देखकर पूनम ने रिक्शा रुकवा लिया। दोनों रिक्शा से उतर गयीं।
बिरजू फिर साइकल पर दस कदम आगे बायें हाथ गली में घूम गया। पूनम और उषा उसके पीछे पैदला गली के पुराने मकानों की ईंटें लोनी से खुर रही थीं। दो सौ कदम चलकर खाली जगह, जैसे बाजार का पिछवाड़ा। सरपत कटियारी और कुछ आक के पौधे पश्चिम
ओर झुक चुके सूर्य की किरणें मकानों की छतों से फिसल कर उजड़े स्थान पर फीकी सी धूप सामने पुरानी ईंटों की खंडहर ऊँची दीवार दीवार में पत्थर की चौखट चौखट के बीच एक जवान दोनों हाथ कमर के पीछे किये, तत्परता की मुद्रा में दोनों पाँव फैलाकर जमाये रास्ता रोके।
खंडहर दीवार के भीतर अच्छा बड़ा आँगन आँगन में भी कटियारी पर ऊँची घासा सामने मकान का छत टूटा खंडहर आँगन में चौदह-पन्द्रह जवान। अधिकांश नौजवाना मेहमानों के आने से पूर्व कुछ लड़के दीवारों की टेक लिये खड़े या आँगन में पड़े मलबे के टुकड़ों पर बैठे बतिया रहे थे। उपा और पूनम के आने पर सब सावधान हो गये, स्तब्धता ।
अगवानी के लिये दरवाज़े में आया युवक बिरजू, उषा और पूनम को खंडहर की ओर आँगन के सिरे पर ले गया। जवानों को समीप सिमिट आने का संकेत। जवानों के चेहरों पर विस्मय, उम्र उत्सुकता की एकाग्रता ।
नेता युवक एक कदम आगे बड़ा स्वर ऊँचा नहीं, ध्वनि गम्भीर और अधिकार की, "साथियो, हमारा सौभाग्य है कि देश के विद्यार्थियों की प्रमुख नेता, डाक्टर उपा सेठ पी- एच० डी० हमारे सामने हैं। आप जानते हैं हमारी वीर सेनानी ने किस तरह सशस्त्र पुलिस के घेरों को तोड़कर सरकार को नीचा दिखाया है। उषा जी अपने सम्पन्न परिवार के राजसी वैभव को त्याग कर " नेता ने बाँह उठायी, "अपने एकलौते गौद के बेटे का मोह त्याग कर भारत से विदेशी शत्रु को निकालने के संग्राम में मार्ग निर्देशन के लिये जान हथेली पर रखकर देश का दौरा कर रही हैं। वे हमारे देश के सपूर्ण युवकों की माता हैं। यह देश माता की पूजा करता है। हम उनके आदेश और इशारे पर अपने सिर बलिदान करने के लिये प्रस्तुत हैं। आप ध्यान से उनके निर्देश सुनें।"
उषा पूरी शक्ति से भावोन्मेष को वश कर बोली, "देश की मुक्ति के लिये, क्विट इंडिया संग्राम में सिर पर कफन बाँधकर आगे बढ़ने वाले युवकों, मैं आपकी आदर भावना के लिये आभारी हूँ। में, आप और हमारे जैसे देश के लाखों जवान और प्रत्येक भारतीय नर-नारी हमारे नेता महात्मा गांधी के सैनिक हैं। हमारे नेता ने क्विट इंडिया संग्राम का कार्यक्रम अपने सिक्स कमाण्डमेंट्स में स्पष्ट कर दिया है। यह छ: आदेश हमारे क्विट इंडिया धर्मयुद्ध के छः सूत्र या छः मंत्र है।" उषा अंग्रेजी में बोली, बहुत धैर्य से धीमे और स्पष्ट उसके जोगन वेश, रुद्राक्ष की माला, माथे पर चन्दन और स्पष्ट शुद्ध अंग्रेजी उच्चारण से युवकों पर जादू का प्रभाव।
उपा ने गांधी जी के छः आदेशों की व्याख्या करके तीन-चार वाक्य प्रेरणा के लिये कहें, " क्विट इंडिया धर्मयुद्ध की ज्योति को देहातों में प्रत्येक नर-नारी तक पहुँचाना हम सबका कर्तव्य है """
उपा के बाद विरजू ने मुट्ठी बाँध युवकों को ललकारा, आपने दुर्गा की अवतार अपनी सेनानी का आदेश सुना। हमारी मातृभूमि विदेशी शासन से भ्रष्ट हो चुकी है। अपनी मातृभूमि को हमें उसी विदेशी शोषक और उसकी सहायता में देश का रक्त बैचने वालों के रक्त से पवित्र करना है। हमारी दासता का पाप दास भूमि में बहने वाली गंगा में स्नान से नहीं, धर्मयुद्ध में बहाये जाने वाले पुण्य रक्त की गंगा में स्नान से ही धुलेगा।"
नेता ने सावधान के संकेत में बाँह उठायी। नेता के हाथ में रिवाल्वर था, "सैनिको
सावधान! पहले सेनापति उषा सेठ और उनके शरीर रक्षक आँगन मे जायेंगे। दूसरा कोई व्यक्ति अपने स्थान से न हिले। आदेश उल्लंघन पर गोली मार दी जायेगी।"
नेता के आदेश से पहले एक नौजवान उठकर बाहर गया। दो पल बाद उषा और पूनम, उनके पीछे बिरजू
उषा और पूनम खंडहर होते से बाहर निकलीं तो सूर्य की किरणें पृथ्वी पर न रही थीं, परन्तु पश्चिम और आधे आकाश तक लाली । उपा उत्तेजना और साड़ी पर रेशमी चादर के कारण पसीना-पसीना। दोनों बाजार के रास्ते से लौट रही थीं। विरजू उनसे तीस-चालीस कदम आगे साइकल ठेलता चल रहा था। उसने एक रिक्शा रोक लिया। रिक्शा पर बैठकर पूनम ने कहा, "दीदी जी, काशी आयी हैं तो गंगा जी तो देख लीजिये। घाट पर ठण्डी हवा से कुछ चैन मिलेगा। अभी समय है।" सुझाव उपा को अच्छा लगा।
रिक्शा बाजार-बाजार जा रही थी। उषा की कल्पना थी खुली हवा में गंगा तट पर जाने की रिक्शा रुका तो सामने एक विशालकाय साँड़ फुंकार से पूँछ अपनी पीठ पर फटकार कर एक कदम आगे बढ़ा। उपा का जितना पसीना रिक्शा में हवा लगने से सूखा था, तत्काल उससे अधिक सॉड सींग झुकाकर रिक्शा को उछाल देता तो रिक्शा दस- बारह फुट आकाश में उछल कर बीस फुट दूर जा गिरता, परन्तु साँड रिक्शा पर दो युवतियों देखकर विरक्ति की फुंकार से सिर हिला कर दूसरी और घूम गया आखिर हिन्दू था और बनारसी ! उषा ने सांत्वना की साँस ली।
उषा और पूनम रिक्शा से उतर ईंटों के फर्श पर पचास कदम आगे बड़ीं तो भीख माँगने वालों की भीड़ ने उन्हें धर लिया। भिखमंगों में अधिकतर सिरमुंडी, बुडी, श्रीर्ण शरीर खियाँ, कमर से घुटनों तक धोती लपेटे, धोती का पल्ला कंधे पर डाले। अपने सूखे सिकुड़े लटकते स्तनों की नम्रता से निस्संकोच कुछ बच्चे, अपाहिज
नदी में सामने अनेक नावें। कुछ लोग तैर रहे थे। एक ओर पूरा शरीर धोती में ढके दो खियाँ जल से निकलीं। महीन कपड़े की धोतियाँ भीगकर उनके शरीर पर चिपक गयी थीं। भीगकर चिपकी थोतियों से पुष्ट कूल्हों के बीच गहराई, री, कंधे, पूरी आकृति स्पष्ट परन्तु चेहरा ढँका हुआ।
यह कैसा पर्दा!"
“दीदी, एनाटमी (शरीर रचना) तो सभी की एक सी। अन्तर या पहचान चेहरे से; वह पर्दे में तो पर्दा
उपा समर्थन में मुस्करायी। उसकी नजर कौतूहल से गीले कपड़ों में निकली खियों की ओर।
खियों ने नयी सूखी साड़ियों धोतियों के आँचल सिर पर लेकर पहले घूंघट किये और सिर मुँह से गीली धोतियाँ खींच दीं। उसके बाद सूखी धोतियाँ खिसक कर कंधों और कमर पर आ गयीं और गीली धोतियाँ और नीचे गिर गयीं। उसके बाद सुखी नयी धोतियों कमर पर लिपटी और गीली धोतियाँ बिलकुल नीचे फिसल गयीं। युवतियों ने उसी प्रकार बंडियाँ साड़ी के पर्दे में शरीर पर बड़ा ली।
वंडरफुल!" उपा ने सराहना से कहा "खुले आम नदी में नहाकर खुले मैदान में कपड़े भी बदल लिये और शरीर का एक इंच भाग दिखायी न दिया।"
नदी में कई नावों पर सीढ़ियों पर भी स्त्रियाँ सिर से पाँव तक शरीर ढँक थीं, परन्तु मर्द केवल लाल लंगोट या कमर पर अँगोछे मात्र बाँधे। उषा को विस्मय, मर्दों की नग्नता से किसी को आपत्ति नहीं।
कई नावों पर और सीढ़ियों पर भी मर्द बहुत उत्साह से हमक-हुमक कर सिलों पर कुछ पीस रहे थे।
"ये क्या पीस रहे हैं?" उषा ने पूछा।
"भाँगा"
"यहाँ बैठकर नशा भी करते हैं?"
"बहुत लोग यहाँ भाँग पी लेते हैं। काशी में इसका बहुत रिवाज है। यह तो बम भोले शिवजी महाराज का प्रसाद। "
पूनम ने बताया सात बज रहे हैं। दोनों उठकर वापस सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। "जरा बायें देखिये।"
घूमकर देखा, दो स्थानों पर धुंआ उठ रहा था। बीच में त्रिशूल गहे हुए। पूरे शरीर पर राख मले नंगे लोग सिरों पर जटायें बंधी हुई। ऐसे साधु उपा ने पहले भी देखे थे। इन टोलियों में लोग चिलमें ऊँची उठाकर कश ले रहे थे।
"साधु-संन्यासी ।" पूनम ने बताया, "ऊपर आपने भीख माँगती खियाँ देखीं। यहाँ गली- गली जवान बूढ़ी स्त्रियाँ भीख माँगती फिरती हैं। प्राय: ही बाल या निःसन्तान विधवाओं के अभिभावक उन्हें बनारस लाकर उनके सिर मुंडवा कर यहाँ ही छोड़ जाते हैं। बेचारी भीख से निर्वाह पर विवश या जैसे गुजारा चले।"
उषा मौन रही । मन में सोचा, यह सब धर्म के नाम पर जबरन बनायी गयी 'नन्स'! "काशी का तो परिचय ही, रॉड सॉड, साधु-संन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी। " पूनम बोली।
उषा और पूनम घाट की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँची तो बिरजू पान की दुकान पर साइकल थामे खड़ा दिखाई दिया। वे रिक्शा पर बैठ गयीं। विरजू साइकल पर तीस- चालीस कदम पीछे चल रहा था।
पूनम ने एक संकरी गली के मुहाने पर रिक्शा रोक लिया। गली में बिरजू युवतियों मे कुछ कदम आगे हो गया था। उपा ने इससे पूर्व इतने ऊंचे मकानों के बीच इतनी संकरी गलियाँ न देखी थीं। गली में दिल मिचला देने वाली दुर्गन्ध
दोनों युवतियाँ बिरजू के पीछे एक भव्य मकान की कुर्सी की पाँच सीढ़ियाँ चहीं। ड्यो खूब चौड़ी, ड्योढ़ी के विवाह खुले बीचों-बीच रास्ता रोकने के लिये बैठा जवान हथेली पर सुरती मल रहा था। बिरजू ने झुककर धीमे स्वर में कुछ कहा, जवान रास्ता देने के लिये एक ओर हट गया। गली की संकीर्णता की तुलना में मकान का आँगन खूब बड़ा, जैसे किसी स्कूल या सार्वजनिक स्थान का आँगन ।
दशाश्वमेध से चलते ही बिरजू ने बता दिया था. श्याम जी जरूरी परामर्श, विशेषकर उपा से मिलने के लिये यूनिवर्सिटी से आये हैं। पुलिस फौज यूनिवर्सिटी के भीतर जा नहीं सकी, लेकिन वर्सिटी को चारों ओर से घेरे हुए हैं। यूनिवर्सिटी अनिश्चित अवधि के लिये बन्द कर दी गयी है। विद्यार्थियों को होस्टल छोड़ जाने का आदेश, परन्तु बहुत से स्टूडेंट डटे
बिरजू धर्मशाला जैसे विस्तृत मकान में उषा और पूनम को जीने से ऊपर की मंजिल के एक कमरे में ले गया। कमरे में दो सीतलपाटियां बिछी थीं। एक गोरे चिट्टे, भरे-भरे गोल चेहरे के सुदर्शन जवान ने युवतियों के स्वागत में उठकर उन्हें बैठाया। युवक के समीप दूसरा बैठा व्यक्ति भी विस्मय और आदर में खड़ा हो गया था। उस आदमी का वेश परचून के दुकानदार जैसा। चेहरे पर तीन-चार दिन की हजामत, थकान और परेशानी।
“ठीक-ठाक हो।” युवक ने पूनम से परिचय की मुस्कान से पूछा। फिर सराहना की, "यू आर एडमिरेबल ब्रेव गर्ल!"
उपा को मालूम था, श्याम जी बनारस के प्रमुख उग्र नेताओं में से हैं। पाठक ने जरूरत पर उन्हीं से राय लेने का परामर्श दिया था। उनके साक्षात्कार से प्रसन्नता ।
"श्याम जी ने समीप बैठे व्यक्ति का परिचय दिया, "चरण भैया बलिया से आये हैं। पहले इनकी बात सुन लें। आपको वहाँ की स्थिति का कुछ आइडिया हो जाये।"
चरण बहुत यत्र से स्वयं को रोके थे, संकेत पाते ही फूट पड़े "शर्मा जी, हम के महीधर महाराज भेजे हैं कि आप कुछ मदद करो नहीं जानो, इस बखत बंचो बलिया में कांग्रेस की नाक कट गयी। ऊ जो माचो करवा कलट्टर निगम, सो बचो इंग्रेज से बड़ा हिटलर आठ तारीख को रातिये छापा मार के जेतने कांग्रेसी मिले गिरफ्तार। ऊ सरो चित्तू पांडे, जगन्नाथ और राधामोहन सबकी सिट्टी-पिट्टी गायब! गिरफ्तारी से बचे तब ने दूसरे लोगों को कुछ रास्ता बतायें। सबकी भगई ढीली। बंचो आजादी आइने भिटे में दुबकाले मिली का? माची शहर भर में 1
“गाली मत बतो!" श्याम जी ने युवतियों का संकोच भौंपकर टोका।
"हम किस माची के गाली दिये!" चरण को विस्मय, "हम त बहनचो आपका हालात बतावत रहे।"
"अच्छा, अच्छा।" श्याम जी ने टोकना व्यर्थ समझा।
"हम बताये कि पुलिस जे का वाहे माचो एकदम दिला वारंट हवालात में बन्दा ऊ कमूनिस्ट बीरन का त जानते हैं आप! ऊ जो अपना नाम मरदाना रखे हैं। सीखिया पहलवान, सरी अइसन बड़-बड़ झाड़ से मुंछ रखे हैं कि आधा मुँह मेंन में सरौ पहलवान जइसा बाँह फैलाये, सीना फुलाये चलत हैं कि बंचो हथियो सामने पट्टि जायें तो ओहू के उठाय के पटक दें। ई बात पक्की कि माची लाठी-चारज, गिरफ्तारी होय त मरदाना सबसे आगे। सरी के जान का मोह तो है ये नाई। सारी के गले के कौआ में राम जाने कौन जादू कि लेवर विघाडे त कोस भर सुनाई दे।"
“कौन वीरन मर्दाना श्याम जी ने बिरजू की ओर देखा।
बिरजू ने बताया, "वीरेन्द्र सिंह बलिया जिले में सब जानते हैं। तीन बार सत्याग्रह में जेल गया। नमक सत्याग्रह में जेल गये तो तीन महीने की सजा जेल में कम्युनिस्टों के साथ जेल अफसर को मार-बार बैठे। सजा बन गयी, ढाई बरसा कम्युनिस्टों की संगत में रहा, अब पक्का कम्युनिस्ट सदा 'वर्कर्स आफ द वर्ल्ड' की बात पड़ा-बड़ा जैसा जैसा है, बात- बात में मार्क्स, डायलेक्टिक्स की बात झाड़ता है। सन् चालीस में सबसे पहले बुद्ध बायकाट का जुलूस निकाल कर पुलिस से सिर फुड़वाया, जेल गया। पिछले दिसम्बर से पीपल्स बार,
नाजी फासिस्ट साम्राज्यवाद के विरोध में जन युद्ध के लेक्चर और नारे। वहाँ नाजी- फासिस्ट साम्राज्यवाद कौन जाने पर जब नेताजी बोस को फासिस्ट सहायक, देशद्रोही कहा तो लोगों ने ईंटा-पत्थर चलाकर 'गद्दार! गद्दार' के नारे लगा दिये। पर वो कहाँ मानने वाला।"
"हाँ तो सर्मा जी !" चरण फिर बोला, 'कलट्टर त सहर में दफा एक सौ चवालीस लगाय के लेञ्चर जुलूस सब बन्द कर दिये। बीरन मान जाय त मरदाना क्या! जाने कहाँ से दस- बारह लौंडे बटोर लाया। मरदाना लाल झंडी लिये आगे और जुलूस निकाल दिया, नाज़ी मुर्दाबाद फासिस्ट मुर्दाबाद! जनता जर्मनी- जापान से लड़ेगी। ये सरकार निकम्मी है। जनतंतर की लड़ाई हमारी कौमी जंग! हमारे नेता छोड़े जायें। इन्कलाब जिन्दाबाद! जन- विरोधी सरकार नहीं चलेगी ! इन्कलाब जिन्दाबाद !
" पुलिस तो चुतिया बन गयी, ई मरदाना कब से अमनुसभाई बन गया। मरदाना अपना जलूस ले के कचहरी जा घुसे, सीधे कलट्टर की कचहरी में वहाँ कलट्टर को लेचर, जनतंतर की रच्छा का युद्ध जनता लड़ेगी। जनता के सहजोग के लिये गांधी नेहरू और दूसरे नेता छोड़े जायें। कचहरी के अस्लाखाने और पुलिस लाइन की बन्दूक राइफलें जनता को दो जनता का जुद्ध हम लड़ेंगे और जाने का औय बॉय ।
"सुना, कलट्टर ने सरी के हाथन में लगवा दी हथकड़ी सिपाही से खींच-खींच मूँछ उखड़वा दी। मुँह से खून फेंक दिया। एक सिपाही ई गाल पर चपत लगा रहा, दूसरा सिपाही ऊ गाल पर पाजामा उतरवा दिये। चूतर पर बेंत पर बेंत मरदाना को मुँह जैसे बानर की गाँड़ । आँखिन से आँसू बह रहे पर नारे, जन- जुद्ध जिन्दाबाद! इन्कलाब जिन्दाबाद! जालिम सरकार नहीं रहेगी! तब से सहर में मरघट जइसा सन्नाटा। बस महीधर महाराज, हम और गजाधर फरारा सो महाराज, हमारा का परभाव, हमारी कौन सुने! इहाँ से गाजीपुर से मदद पहुँचे तब त कुछ बने, नई तो सर्मा जी, बलिया की तो नाक कट गयी।"
"अच्छा चरन भैये, आप ते फिर बात करी । आप तनिक बरामदा में बैठें। " श्याम जी बोले, "हम जरा बहिन जी से बात कर लें।"
चरण बाहर चला गया। श्याम जी उषा की ओर घूम गये, “आपकी लखनऊ की स्पीच, ब्रॉडकास्ट और पिशाचमोचन के भाषण के बारे में सुना। हमारी बहुत इच्छा थी, यूनिवर्सिटी में आपका भाषण हो सकता, परन्तु पाठक भाई की बात सही। आपको यूनिवर्सिटी में ले जाने में बहुत जोखिम हम लोग तो चार दिन से किले में घिरे हैं पाँचों फोटकों के सामने सशस्त्र पुलिस का पहरा हम नौ फुट ऊँची दीवार फॉदकर आये हैं, दीवार पर काँच के टुकड़े। वैसे ही लौटेंगे। वास्तव में आपके लिये निश्चित प्रोग्राम ही समस्या का हल है। नगर में जैसा आतंक है देख रही हैं। एकमात्र उपाय है, सरकार की शक्ति को देहातों में समाप्त कर देना। कल सुबह का प्रबन्ध ठीक हो सके, आपके दर्शन भी हो जायें, इसीलिये हम आये हैं।"
इलाहाबाद रामबाग स्टेशन से उन दिनों ८८ डाउन पैसेन्जर छः बजे बनारस आकर साढ़े छ: पर छूटती थी। चौदह अगस्त सुबह स्टेशन पर पिछले तीन-चार दिन की अपेक्षा
अधिक सवारियाँ अधिकतर जवान और नौजवाना गाड़ी काशी स्टेशन पर पहुँची तो बैसों ही तीस-चालीस और सवारियाँ सवा घंटे में गाड़ी औड़िहार जंक्शन के प्लेटफॉर्म पर रुक रही थी तो सी- सवा सौ जवान प्लेटफार्म पर कूद पड़े। ऊँचे नारे 'महात्मा गांधी की जय! इन्कलाब जिन्दाबाद!' कांग्रेसी झंडे फहराने लगे। स्टेशन के लोग दो-चार छ: पुलिस वाले विस्मित और स्तब्ध अंग्रेजो, भारत छोड़ दो! उपा सेठ जिन्दाबाद!"
ट्रेन रुकते ही कुछ जवान जनाना डिब्बे की ओर बढ़ आये। भीड़ में उषा को पाठक की आवाज का अनुमान उषा गाड़ी से उतरी। सफेद साड़ी और सफेद रेशमी चादर सिर पर साड़ी का आँचल परन्तु घूँघट नहीं। नारे लगाते जवान उपा को प्लेटफार्म पर ऊँचे बाँस पर फहराते कांग्रेस के तिरंगे के नीचे ले गये। नारों की अधिक ऊँची ललकारें, 'इन्कलाब जिन्दावाद ! अंग्रेजो, भारत छोड़ो! शहीद जिन्दाबाद! महात्मा गांधी जिन्दाबाद! नेताजी बोस जिन्दाबाद! भगतसिंह जिन्दाबाद! आजाद जिन्दाबाद! उपा सेठ जिन्दाबाद!"
एक जवान ने बाँह उठाकर भोजपुरी हिन्दी में ललकारा। पाठक का सुझाव बनारस के बाद भोजपुरी में बोला जाये। उपा का भाषण हिन्दी में लिख दिया गया था। रात उसे कई बार पढ़कर सरल कर लिया था। दूसरे लोग क्या बोलेंगे, उसके लिये पाठक सुझाव दे चुका था। जवान ने ललकारा, "जनता विद्यार्थियों और जवानो, देश के युवकों की प्रमुख नेता वीरांगना उपा सेठ का संदेश सुनिये।"
उषा हिन्दी में बोली। अनभ्यास के कारण, कुछ भावोन्मेष से शब्द शब्द या वाक्यों पर रुक-रुककर बोल रही थी, हमारे बेताज बादशाह और नेता देश से अंग्रेजों को निकालने के युद्ध में मोर्चे पर बढ़ चुके हैं। करो या मरो की प्रतिज्ञा से हमारे नेता इस युद्ध में कफन बाँधकर मोर्चे पर बने हैं। हमें भी उनके अनुकरण में कदम पीछे न हटाने की प्रतिज्ञा से सिर पर कफन बाँधकर आगे बढ़ना है।" खुली बगावत के लिये महात्मा गांधी के छः आदेशों की सरल व्यावहारिक भाषा में व्याख्या, हमें गुलाम रहकर जिन्दा रहना मंजूर नहीं है। इन्कलाब जिन्दाबाद! लड़खड़ाती सरकार को एक धक्का और दो!" और अधिक ऊँचे नारे। उषा के बाद बिरजू ने उपा के भाषण को भोजपुरी में दोहराया। फिर नारे। औड़िहार स्टेशन पर ट्रेन पन्द्रह मिनट रुकती थी, परन्तु डेढ़ घंटे तक रुकी रही। उसी समय पूर्व से औड़िहार के रास्ते जौनपुर जाने वाली ७९ अप पैसेन्जर आ गयी थी। इस गाड़ी के मुसाफिर भी नारों में शामिल।
उषा ने पाठक को देख लिया था, परन्तु वह झंडे को घेरे भीड़ में न आया था। पाठक और चरण दूसरे कामों में व्यस्त थे। गाड़ी रुकते ही पाठक ने दो जवान इंजन की ओर भेज दिये थे। उनमें से एक के हाथ में रिवाल्वर था। जवानों ने ड्राइवर और फायरमैन को इंजन से कुछ अन्तर पर रहने का आदेश दे दिया। एक जवान ने ट्रेन के अन्त में जाकर गार्ड से लाल-हरी झंडियों और उसकी पेटी और सीटी ले लिये। ऐसा ही जौनपुर पैसेन्जर के ड्राइवर और गार्ड के साथ। दोनों गाड़ियों के ड्राइवर और गार्ड उत्साह से भीड़ के साथ दोनों ट्रेनों के इंजनों के सामने कांग्रेसी झण्डे लगा दिये गये। एक सफेद कपड़े पर बड़े-बड़े लाल अक्षरों में लिखा था— इन्कलाब स्पेशल वह कपड़ा इलाहाबाद छपरा पैसेंजर के इंजन के सामने बाँध दिया गया। बनारस से आये जवानों में से जौनपुर जिले से परिचित आठ-दस जवान जौनपुर पैसेंजर में क्रान्ति के कार्यक्रम के निर्देशन के लिये चले गये। औड़िहार से बनारस की
ओर बीस-पच्चीस गज लाइन उखाड़ दी गयी। जौनपुर पैसेन्जर छूटने के बाद उस लाइन का स्टेशन से लगता भाग भी उखाड़ दिया गया।
भीड़ को स्टेशन का माल गोदाम, पार्सल गोदाम, टिकट घर लूट लेने की छूट। स्टेशन से किरासिन लेकर स्टेशन का अनि समर्पणा स्टेशन के कर्मचारी मौन या तमाशाइयों में शामिल। औड़िहार क्षेत्र से परिचित चार-पाँच युवक गाँव-जवार में देहातियों की सहायता से यातायात और सम्पर्क साधन विच्छिन्न कर देने के लिये वहाँ रह गये।
इन्कलाब स्पेशल बहुत ऊंचे नारों से गाजीपुर की ओर बही। अधिकांश क्रान्तिकारी जवान एक बड़े कम्पार्टमेन्ट में बैठे। पाठक ने उषा के समीप आकर उसकी सफलता के लिये बधाई दी। गाड़ी चलने के साथ ऊँचे स्वर में मौलाना हसरत मोहानी की, शहीद रामप्रसाद विस्मिल के नाम से प्रसिद्ध गज़ल जवानों के सशक्त समवेत स्वर में शुरू हो गयी- सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए क़ातिल में है।
शहादत की उमंग में गजलों और तरानों के उत्साहपूर्ण कोलाहल में उपा और बिरजू से पाठक भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में बात करता रहा।
सैदपुर और नन्दगंज स्टेशनों पर औड़िहार स्टेशन के कार्यक्रम की आवृत्ति गाजीपुर स्टेशन जिले का सदर मुकाम स्टेशन अपेक्षाकृत कुछ बड़ा। इस स्टेशन पर फिर प्लेटफॉर्म पर, ऊँचे बाँस पर कांग्रेस के तिरंगे के नीचे उषा ने 'भारत छोड़ो संग्राम' में योगदान के लिये आह्वान किया। उषा के बाद भोजपुरी में बिरजू की ललकार जवानों के ऊँचे समवेत स्वर में 'सरफ़रोशी की तमन्ना " 'की गज़ल अन्य स्टेशनों की तरह यहाँ भी कुछ युवक क्रान्ति के कार्य में मार्ग दर्शन के लिये रह गये। इन्कलाब स्पेशल गाजीपुर से चली तो स्टेशन के पश्चिम बीस-पचीस गज लाइन उखाड़ दी गयी, जैसे ट्रेन कभी पश्चिम न लौटने के इरादे से पूर्व की ओर जा रही थी। इन्कलाब स्पेशल फेफना जंक्शन पहुँची तो साँझ गहरा रही थी। बनारस कैंट से फेफना तक चार घंटे की यात्रा गाड़ी साढ़े बारह घंटे में तय कर पायी। फेफना में भी औड़िहार का कार्यक्रम
बलिया में महीधर को दोपहर में पुलिस के ही एक आदमी ने खबर दे दी थी कि पुलिस को उसका पता मिल गया है। महीधर बनारस से सहायता की प्रतीक्षा न कर तुरन्त पश्चिम चल दिये थे। सूर्यास्त से कुछ पूर्व छिपते छिपाते आठ मील फेफना पहुँचे थे। फेफना में इन्कलाब स्पेशल की बचौ महीधर तुरन्त स्टेशन दौड़े गये।
महीधर ने बताया, "सुबह से पूरब से कोई गाड़ी बलिया नहीं आयी। पूरब पश्चिम तार - फोन समाप्त। कलक्टर ने पबराहट में शहर में मार्शल लॉ लागू कर दिया। सब अफसर कमर में तमंचे बांधे घूम रहे हैं। कलक्टर का हुक्म है, जिससे खतरे का अन्देशा हो बेशक गोली मार दी जाये। पूरब से स्टेशन जला देने की खबरें आयी हैं। बलिया स्टेशन के बाहर- भीतर सशस्त्र पुलिस तैनात है। उषा जी तुम्हारा हमारा ट्रेन से बलिया जाना ठीक नहीं। ट्रेन के मुसाफिरों में कौन जाने कैसा आदमी ।"
नाजुक स्थिति में बलिया में प्रवेश के लिये सावधानी आवश्यक थी। बनारस से आये क्रान्ति सैनिक लाइन के स्टेशनों पर बँटते बैटते फेफना तक केवल दस-बारह रह गये थे। पाठक और महीधर में निश्चय हुआ, बलिया सदर में सशस्त्र पुलिस से टक्कर लेने के बजाय
देहात में आन्दोलन से शहर को घेरकर काबू किया जाये।
देहात में भाषा की कठिनाई के कारण उपा का वहाँ क्या उपयोग! उसका प्रभाव बलिया नगर की शिक्षित जनता में ही हो सकता था। जोखिम ली जाये तो ढंग से बनारस से आये साथी फेफना में उतर गये।
निश्चय हुआ, पाठक नरही और गड़वार की ओर जाय। महीधर और चरण बलिया से बचकर पूर्व में सहतवार, रेवती बाँसडीह की ओर। बिरजू और गज्जन उषा को बलिया पहुँचायें।
फेफना से बलिया तक आठ मील के सफर के लिये दो घंटे बहुत काफी प्रबन्ध कर दिया गया कि ट्रेन चार घंटे तक फेफना से न चल सके।
रुद्रदत्त पाठक ने सोच-विचार कर ब्रजेश सिंह उर्फ बिरजू को उषा का दुभाषिया साथी और शरीर-रक्षक नियत किया था। बलिया जिला, वहाँ की बोली, रहन-सहन उषा के लिये अपरिचित बिरजू बुद्धिमान जवान, साहसी और बहुत भरोसे का बस एक ऐवतैश में जल्दी आ जाता था। उसके चाचा गोबिन्द सिंह बलिया हाईस्कूल में गणित के अध्यापका पाँच बरस की उम्र से उनके ही साथ रहा था। चाचा की जिले, तहसील, कस्बे में बदली होती रही, बिरजू साथ रहा। एक तरह से निःपुत्र चाचा-चाची का बेटा। चाचा अपनी दोनों बेटियाँ ब्याह चुके थे। अब चाची के सम्पूर्ण वात्सल्य का अधिकारी बिरजू चाचा ने ही उसे बी० ए०, एम० ए० करने के लिये इलाहाबाद-लखनऊ भेजा था। अपनी महत्त्वाकांक्षायें बेटे जैसे भतीजे द्वारा पूरी हो सकने के स्वप्र । बिरजू के पिता घर की धरती खेती सम्भालते थे। उनकी सहायता के लिये बिरजू से बड़े दो और भाई थे। बिरजू बलिया के पूरे गाँव- जवार और शहर के गली-मुहल्लों से परिचित नगर में उसके अनेक विश्वस्त साथी और मित्र।
बिरजू और गज्जन को फेफना में एक साइकल मिल गयी। गज्जन एक इक्का खोज लाया। वे लोग फेफना से चले तो अँधेरा हो चुका था। गज्जन साइकल पर। बिरजू और उषा इक्के
परा
इवाला बहुत बड़ा पर आम इलेवालों की तरह बातूनी भद्र लोक सवारियाँ देखकर उसने उषा के लिये अबोध भोजपुरी में बात शुरू कर दी, "देखा आपने, बदमाशों ने स्टेशन फूंक डाला, लाइन उखाड़ दी। आप लोग संकट में पड़ गये। खैर, बड़े लोगों की तो अपनी गाड़ियाँ, सवारियों गरीब-गुरबा मारे गये। कहीं जाना हो तो पैदल सफर में सौ मुसीबत, राह में चोर डाकू बटमार।"
बिरजू ने समझाना चाहा, "कहते हैं अंग्रेज के खिलाफ बगावत है। महात्मा गांधी का राज हो रहा है।"
"आप बड़े लोग जो कहें।" इक्केवाला दार्शनिक की तरह बोला, "गानी (गांधी) बाबा तो फकीर महातमा । फकीर साधु कहीं राज करते हैं! सरकार, राज तो तरबार करती है। अब जगह-जगह लाठी- तरबार चलेंगी। जिसके पास तरवार, लूट-पाट करेगा। अंग्रेज की कॉम बादशाह। अंग्रेज का इंसाफ बहुत सज्जा । अंग्रेज के डर से शेर बकरी एक घाट पानी पीते रहे।" बिरजू ने उस समय बहस उचित न समझी।
फेफना से साढ़े तीन मील पर खोरीपाकड़ की बस्ती लाँघकर बिरजू गज्जन से अंग्रेजी में बोला, "तुम तेजी से कटहर नाला के पुल से आगे चौमुहानी तक बढ़कर देखो; कोई रोक- टोक तो नहीं! वर्ना नाला कहीं नीचे जाकर लोचा जाय।"
गज्जन साइकल तेज कर आगे बढ़ गया। इक्केवाले ने सवारियों की देरी से ऊब भाँप कर, उन्हें खुश करने के लिये मरियल घोड़े की पीठ पर दो संटिया लगाकर उसे तेज होने के लिये
ललकारा।
बिरजू ने कमजोर घोड़े के प्रति दया से इलेवाले को टोका, "दादा, "गरीब जानवर बूते भर चल रहा है। अपने को कौन टैम से रेल पकड़ना है।" उसने दूसरी बात शुरू कर दी. "दादा, हम तो आठ महीने बाद पश्चिम से लौट रहे हैं। इधर पानी वानी कैसा बरसा?' खरीफ की फसल की कैसी उम्मीद?"
इक्केवाला घोड़े को सुविधा से चलने का अवसर देकर बरसात और फसल की बात करने लगा। आठ-दस मिनट में गज्जन सड़क के किनारे रुक-रुककर साइकल चलाता दिखायी दिया। बोला, "लाइन क्लियर कम ऑन । "
बलिया की बस्ती के आरम्भ में ही विरजू ने इक्का एक गली में मुड़वा कर रुकवाया। द से बक्स उतारा। उषा भी उतर आयी। बक्स साइकल के कैरियर पर रखकर एक गली में साथ-साथ चलते तीनों ने अगला कार्यक्रम तय कर लिया।
डाल्टनगंज से पहले गज्जन साइकल पर दाहिने हाथ मुड़ गया। विरजू वक्स कंधे पर रखकर उषा के साथ डाल्टनगंज की ओर।
बलिया नगर की बस्ती तब बहुत संक्षिम थी। रात नौ बजे पूरा सन्नाटा। कभी-कभार चौक में नौटंकी जमती तो नगर में नगाड़े की आवाज रात भर गूँजती रहती। आज जैसी हालत न थी कि कोई भी सस्ता ट्रांजिस्टर खरीद कर दस ग्यारह तक सिनेमा के गीतों से दूसरे लोगों की नींद हराम कर दे। शहर में कर्फ्यू न था, परन्तु छः दिन से ऐसा आतंक कि लोग आपस में भी बात करते तो सहमे दबे स्वर में।
चौक के समीप डाल्टनगंज में गली पर खुलते एक मकान की ड्योढ़ी के सामने, बरामदे की चौड़ाई में आमने सामने दो खाटें पड़ी थीं। एक खाट पर गली की ओर मुँह किये मास्टर गोबिन्द सिंह बैठे थे। उनके सामने खाट पर हुड्डा गुड़गुड़ाते मास्टर शुजा अहमदा
गोबिन्द बार, तुमने कल हमें खामुखा रोका। हमें अन्दाज हो गया था, यह गड़बड़ लम्बी चलेगी। आज पूरब-पच्छिम रेल-तार सब खत्म। सुना कि ट्रांसपोर्ट रोकने के लिये लोग जगह-जगह पुल सड़क भी ।"
गली की ओर कदमों की हलकी आहट और मित्र के चौंकने से मास्टर शुजा ने भी उधर देखा। कंधे पर बक्स उठाये एक युवक और उसके साथ सफेद चादर साड़ी में एक युवती बरामदे में आ गये। युवक, मास्टर गोविन्द की ओर झुका, गोड लागला काका ।" मास्टर शुजा को पहचान कर आदाब कहा। मास्टर शुजा ने भी युवक को आशीर्वाद दिया।
"बिरजू !" गोबिन्द सिंह के मुँह से निकला। बेटे को पहचानने में कितनी देर लगती है, परन्तु लड़के के साथ युवती से संकोच के कारण शेष प्रश्न गोबिन्द सिंह के मुँह में रह गया। मास्टर शुजा के लिये बिरजू बेटे जैसा बिरजू के पीछे युवती ठिठक गयीं थी। माथे से
जरा बढ़ा हुआ आँचल भय-संकोच का भाव नहीं, शिक्षिता नागरिक युवती की मुद्रा ।
बिरजू के अनुकरण में युवती ने भी दोनों प्रौढ़ों को मौन अभिवादन के संकेत में एक हाथ माये की ओर उठा दिया। बिरजू अपने काका और मेहमान चाचा को अभिवादन कर बक्स लिये भीतर चला गया। युवती उसके पीछे।
दोनों प्रौड चिन्ता और मीन जिज्ञासा से एक-दूसरे की ओर घूम गये। लड़का इस समय अचानक कैसे? साथ नागरिक जवान औरत! मास्टर का कलेजा विस्मय और चिन्ता से मुँह को आ रहा था। शुजा मित्र की परेशानी में हाथ में थमी गुड़गुड़ी भूल गये। विरजू ने दरवाज़े के भीतर से झाँका, "काका, एक मिनट भीतर आ जाइये। "
शुजा की ओर गहरी साँस से देखकर गोविन्द भीतर चले गये। युवती चादर एक ओर रखकर आँगन में पड़ी खाट पर बैठ गयी थी। उसके सामने, समीप दूसरी बाली खाटा खाटों से दस-बारह कदम पर रसोई के दरवाज़े के समीप हरीकेन लालटेन रखी थी। बिरजू की चाची विस्मय- स्तब्ध मुद्रा में रसोई की दहलीज पर उकडूं बैठी थी।
“मेरे काका ।" बिरजू ने युवती को गोविन्द सिंह का परिचय दिया। युवती आदर में खड़ी हो गयी, "गुड ईवनिंग सर।"
काका को और विस्मया "प्लीज़ मिट डाउन" कहकर युवती के सामने दूसरी खाट पर बैठ गये। बिरजू काका के आदर में उनकी खाट पर पैताने बैठकर बात करने के लिये उनकी ओर झुक गया।
"लखनऊ यूनिवर्सिटी की विद्यार्थी नेता उषा सेठ के बारे में ज़रूर जानते होंगे ।" बिरजू ने बिना भूमिका बात की। उसे मालूम था, काका अखबार लगभग नित्य पड़ते थे। बलिया में समाचार देर से पहुँचते थे। दूसरे नहीं तो तीसरे चौथे दिन खबर पहुँच ही जाती। बिरजू को काका के विचारों पर भरोसा ।
मास्टर गोबिन्द सिंह की वेश-मुद्रा आधुनिकता और फैशन से बेपरवाह। अनुमान कठिन कि जिले के हाईस्कूल में गणित के अध्यापक होंगे। अच्छा मुडौल कदा ऊँची नाक के नीचे लम्बी खिचड़ी मूंछें, जबड़ों की ओर झुकी हुई। नाई नियम से सोम और बृहस्पतिवार सुबह दाड़ी बना जाता, पन्द्रहवें दिन सिर के बाल भी आधा इंच से अधिक बढ़ जाने पर मशीन से छूटवा देते। सिर पर छोटी चोटी थी। तत्कालीन रिवाज की कुछ ऊँची बाड़ की अंडाकार टोपी पहनते थे।
देसी मोटी धोती। पाँव में जाते समय बन्द गले का कोट घुटनों से जरा नीचे तक
जूता या देसी बना पम्प, परन्तु बहुमुखी अध्ययन रुचि के कारण आधुनिकतम विचारों से परिचित तिलक, एनी बेसेंट के गीता भाष्यों से लेकर हिस्ट्री ऑफ सिवलिजेशन और मार्क्सवाद, नाजीज्म फासिज्म और ह्यूमैनिज्म तक के बारे में अध्ययन देश में विभिन्न दलों की और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के प्रति जिज्ञासा। विश्वयुद्ध के समाचार पढ़ते समय वास्तविक स्थिति के अनुमान के लिये नक्शा भी देखते थे। विश्वस्त मित्रों, खासकर मास्टर शुजा अहमद से इन प्रसंगों पर लम्बी चर्चा राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय आन्दोलनों से सहानुभूति, परन्तु प्रकट में या सक्रिय राजनीति से विरक्ति।
मास्टर गोविन्द सिंह बलिया से पूरब बाँसडीह तहसील के बनली गाँव के थे। मास्टर शुजा अहमद बलिया से पश्चिम महेन के। दोनों बलिया के हाईस्कूल में थे। शुजा की आयु
गोबिन्द से तीन बरस अधिक, परन्तु स्कूल में गोबिन्द से एक बरस आगे।
शुजा अहमद को मैट्रिक पास करके उजियार के मेडिकल स्कूल में काम मिल गया था। नित्य अपने गाँव महेन से सात मील उजियार जाते और लौटते। उजियार के जमीन्दार रघुनन्दन उपाध्याय को अपने सात बरस के बेटे को नये ढंग की शिक्षा दिलाने का शौक था। उन्होंने शुजा अहमद से अपने बेटे की ट्यूशन का अनुरोध किया। उस ज़माने में रियाया के लिये जमीन्दार का अनुरोध आज के गवर्नर के हुक्म से अधिक अटल। रघुनन्दन उपाध्याय केवल अच्छे बड़े ज़मीन्दार ही नहीं, पास के गाज़ीपुर जिले में नायब तहसीलदार भी थे।
उजियार के उपाध्याय जी के रोव और प्रभाव के पीछे ज़मीन्दारी और नौकरी के पद से कहीं बड़ी ताकत थी। उजियार का उपाध्याय परिवार शाहाबाद के तिवारी परिवार का समधी था। तिवारियों ने गदर के ज़माने में जान पर जोखिम झेलकर स्थानीय कलक्टर के प्राण बचाये थे। परिणाम में राजभक्ति की सनद प्राप्त, बहुत बड़े जमीन्दारा उस नाते और प्रभाव से रघुनन्दन साधारण शिक्षा पाकर ही नायब तहसीलदार बन गये और बाद में और उन्नति।
रघुनन्दन उपाध्याय जितने क्रूर जमीन्दार, पक्के राजभक्त और करें अफसर थे, कृपालु होने पर उतने ही दयालु और उदार। वे शुजा के अध्यापन कार्य से प्रसन्न उपाध्याय गाँव आये तो शुजा अहमद के विनय और सेवा के पुरस्कार में उनके नित्य सात मील आने-लौटने के कष्ट का उपाय कर दिया। उन्हें उजियार में मकान के लिये पर्याप्त जगह ही नहीं, मकान खड़ा कर सकने की तथा अन्य सुविधायें भी दीं। शुजा अहमद के महेन के पारिवारिक छोटे मकान से अच्छा बड़ा मकान उजियार में बन गया।
उपाध्याय जी अंग्रेजी राजभक्त कट्टर कर्मकाण्डी, परन्तु सुधारों और आधुनिक शिक्षा के प्रोत्साहक उनके प्रोत्साहन से शुजा अहमद उजियार स्कूल में काम करते समय इंटर की तैयारी करने लगे।
शुजा अहमद उजियार में नौकरी के समय अवकाश में बलिया गये थे। वहाँ बाँसडीह से आये पुराने परिचित गोबिन्द सिंह से भेंट हो गयी। गोबिन्द सिंह बाँसडीह के मिडिल स्कूल में मास्टरी कर रहे थे। दोनों में विचार- परामर्श से गोविन्द ने भी इंटर की तैयारी शुरू कर दी। दोनों ने एक साथ इंटर प्राइवेट किया और दो बरस बाद स्कूल से छुट्टी लेकर सन् १९३२-३३ में क्वीन्स कालेज में बी० ए० में सहपाठी बन गये।
उस समय शिक्षित युवक वर्ग में आधुनिकता, राजनैतिक चेतना, समाजवाद-मार्क्सवाद के पक्ष में और संकीर्ण रूढ़िवाद के विरोध में प्रबल लहर उठी थी। शुजा अहमद और गोबिन्द सिंह उन विचारों से प्रभावित हुए। दोनों भौतिकवादी, मन्दिर-मस्जिद, छुआ-छूत से निरपेक्ष हो गये। एक साथ बैठकर ही नहीं, एक पत्तल में खा लेते। शुजा ने बनारस आकर देहाती कुर्ता-धोती के बजाय नागरिक वेश अपना लिया था बंद गले का कुछ लम्बा कोट- • पाजामा, न ढीला न तंग सिर पर काली बनाव की किश्ती टोपी। बाल माथे पर जरा बड़े । सेफ्टीरेजर से नित्य नहीं तो दूसरे दिन जरूर शेव कर लेते। मूँछें होंठों के कोनों तक तराश लेते, वेश- मुद्रा से शिक्षित नागरिक।
शुजा अहमद और गोबिन्द सिंह ने बी० ए० पास किया तब तक रघुनन्दन उपाध्याय डिप्टी कलक्टर बन चुके थे। सरकारी हल्के में उनकी सिफारिश का प्रभावा अपने जिले के
लोगों के प्रति पक्षपात में निस्संकोचा उपाध्याय जी की सहायता से दोनों मित्र बलिया स्कूल में स्थान पा गये। शुजा अहमद अंग्रेजी और इतिहास के अध्यापक, गोबिन्द सिंह गणित के बलिया के सहवास में विचार-साम्य और परस्पर भरोसे का सम्बन्ध बढ़ता गया। प्रति संध्या या दूसरे-तीसरे भेंटवार्ता दोनों के लिये आवश्यक
शुजा अहमद १९३८ में स्कूल के छः सप्ताह के ग्रीष्मावकाश में बनारस और इलाहाबाद गये 'इंडिपेंडेंट इंडिया' साप्ताहिक और रेडिकल कम्युनिस्ट (रायवादी) लोगों से परिचय हो गया। बलिया लौटे तो "इंडिपेंडेंट इंडिया' के चार मास के अंक और रेडिकल कम्युनिस्ट दल का बहुत सा साहित्य लेते आये। १९३७ में स्वायत्त शासन सुधारों के परिणाम में यू०पी० में कांग्रेस सरकार बन गयी थी। लोग पूर्वापेक्षा निधड़क चर्चा करने लगे थे। गोविन्द सिंह शुजा अहमद के इस विचार परिवर्तन में भी सोत्साह सहमत बलिया में दूसरे दस-बारह वकील, डाक्टर, अध्यापक भी इनसे सहमत हो गये। विश्वयुद्ध के समय भारत के लिये उचित नीति के सम्बन्ध में भी वे लोग रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक 'इंडिपेंडेंट इंडिया' साप्ताहिक और रेडिकल कम्युनिस्ट पार्टी का साहित्य बलिया में पहुँचने लगा।
बलिया गवर्नमेन्ट हाईस्कूल के हेडमास्टर सैमुअल पैटर्जी का मास्टर भुजा अहमद के प्रति बहुत कृपाभाव था। शुजी अहमद योग्य, कर्तव्यपरायण अध्यापका इसके अतिरिक्त उन्हें होमियोपैथी का शौक मुफ्त औषध देने से अनुभव और ख्याति भी बड़ गयी। सैमुअल चैटर्जी को शुजा की होमियोपैथी पर शहर के सिविल सर्जन मित्रा से अधिक भरोसा। मास्टर शुजा हेडमास्टर और अन्य अध्यापकों के अतिरिक्त नगर के बहुत से परिवारों के डाक्टर बन गये। जिला स्कूलों के इंस्पेक्टर हलधर साहब तक मास्टर शुजा अहमद को उपचार के लिये बुलवा लेते थे।
शुजा १९४० में पचपन के हो गये थे। चैटर्जी और हलधर दोनों के सद्भाव से उनकी सर्विस की अवधि दो वर्ष बढ़ गयी थी। ११४२ फरवरी से अवकाश प्राप्त थे, परन्तु छः मास में भी उनकी पेंशन के आर्डर न मिल पाये थे। उजियार में निष्क्रियता की ऊब और नगर में मित्रों, खासकर गोविन्द सिंह से मिल आने के लिये जब-तब बलिया आते रहते।
शुजा अहमद की छोटी बेटी की ससुराल बलिया शहर में ही थी। उनका दामाद अब्दुल गफूर बरस भर उनका विद्यार्थी रहा था। गफूर के पिता गल्ले का कारोबार करते थे। गफूर ने अलीगढ़ से बी० ए० एल एल० बी० पास कर १९३७ से बलिया में वकालत आरम्भ कर दी। गफूर विद्यार्थी जीवन से ११४१ तक प्रगतिवादी और राष्ट्रीय विचार का था, शुजा अहमद का अनुयायी अहमद को बेटी, नाती नातिन के अतिरिक्त दामाद के प्रति भी सेह भावा परम्परावादी हिंदुस्तानी हिन्दू हो या मुसलमान बेटी के यहाँ जाना-आना उचित नहीं समझता बेटी के यहाँ ठहरने का सवाल क्या। शुजा अहमद बलिया आने पर और बलिया से चलने से पूर्व भी बेटी के यहाँ कुशल-मंगल पूछने जरूर जाते, परन्तु ठहरते थे मित्र गोबिन्द के यहाँ गोबिन्द उन्हें बलिया में होमियोपैथिक प्रैक्टिस आरम्भ कर देने के लिये उत्साहित करते रहते।
शुजा बलिया चार दिन के लिये आते तो गोबिन्द उन्हें हफ्ता भर रोक लेते। गोबिन्द की पत्नी भी पति का भाव समझकर शुजा को जेठ मानती। उनके आदर में माथे पर आँचल खींच लेती। आरम्भ में अपने खाने-पीने के बर्तनों में मुसलमान को जल या खायका देते
अधर्म की ग्लानि अनुभव हुई थी, परन्तु पति देवोभवा' हिन्दू पत्नी के लिये पति की इच्छा - आदेश, सबसे बड़ा धर्म, शुजा भैया ये भी तो इत्ते भले, सगों से अपने।"
शुजा अहमद दो अगस्त को रेल से सीधे बाँसडीह गये थे। उस दिन उनके सरपुत (साला पुत्र) का खतना था। वहाँ से लौटकर आठ अगस्त संध्या बलिया आ गये। आठ तारीख इंस्पेक्टर आफ स्कूल के दफ्तर में गये। हलधर साहब बनारस गये हुए थे, सोमवार लौटने की आशा थी । शुजा अहमद नौ अगस्त दामाद बेटी, नाती नातिन का हाल-चाल देखने चले गये। वहीं पर उन्होंने बम्बई में कांग्रेस के क्विट इंडिया प्रस्ताव और नेताओं की गिरफ्तारी की बाबत सुना।
शुजा का दामाद गफूर वकील था, तीक्ष्ण बुद्धि, सेक्युलर खयाल और डेमोक्रेसी का समर्थक। गफूर बहुत उत्तेजित था। बोला, "कांग्रेसी अंग्रेजों को जापानी खतरे से धमका कर हिन्दू राज कायम कर लेना चाहते हैं।"
शुजा ने दामाद को समझाना चाहा, "बरखुरदार, आज़ाद हिदुस्तान में न हिन्दू राज, न मुस्लिम सल्तनत । आपस में बुर्दबारी और डेमोक्रेसी के अलावा दूसरा रास्ता नहीं"। " गफूर का नजरिया बदल चुका था, “इन इंडिया डेमोक्रेसी दज़ ए हिपोक्रेसी! मुसलमान और हिन्दू चाहे एक नस्ल से हो, लेकिन मज़हबी एतकाद और इत्तसादी मसायल से दो कौमें बन चुके हैं। तवारीख गवाह है, वजूहात जो भी रहे हों, दोनों नज़दीक आने के बजाय फटते गये हैं। आज हम पाकिस्तान की माँग के लिये मजबूर हैं और उसे लेकर रहेंगे। अम्लियत पर अक्नरियत की हुकूमत को डेमोक्रेसी नहीं कहा जा सकता। डेमोक्रेसी हो सकती है, मुसाबात से कांग्रेस और मुसलमानों को हुकूमत में आबादी की बिना पर नहीं, कीमियत और मजहब की बिना पर बराबर हकूक और हिस्सा होना जरूरी।"
शुजा ने गफर से बहस बेकार समझी। लीग को सरकारी इमदाद पिछले बरस भर में गफूर की हालत बहुत बदल चुकी थी। उसका बेकार बड़ा भाई भी सेना में क्लर्क की नौकरी पा गया था। वकील का पेशा ही दलाली फीस पाये तो जिधर चाहे दलील दे दे। अब्दुल गफूर की उम्र का नया अरजीनवीस तकदीर अहमद भी कट्टर लीगी। अपना कारोबार मिल्लत की बहबूदी के लिये कुर्बान करके चौबीसों घंटे इसी काम में लगकर लीडर बन गया था। मुसलमान अपना अस्तित्व हिन्दुओं से पृथक महसूस और ज़ाहिर करना आवश्यक समझने लगे। ऐसे लोग सरकार के कृपा पात्र, उन्हें परमिट या दूसरी मदद पाने में आसानी।
इससे पूर्व बलिया जिले में हिन्दू-मुस्लिम तनातनी अनजानी बात थी। पूर्वी यू० पी० के देहात में पोशाक या रस्म-रिवाज से हिन्दू-मुसलमान की पहचान ही मुश्किल। सभी की पोशाक कुरता धोती। बुरका केवल बड़े शहरों में आने-जाने वालों ने देखा था। परदा था सिर्फ अमीर लोगों में, मुसलमानों में और हिन्दुओं में भी। एक-दूसरे के काम-काज में दोनों ओर से दोनों तरफ निमंत्रण दिये जाते। रस्मोरिवाज में गाँव के हिन्दुओं और मुसलमानों की मौजूदगी जरूरी होती। सभी त्योहारों पर सहयोग। धर्म-विश्वास का भेद वैयक्तिक या सामाजिक विश्वास की बात थी। बलिया में मुसलमानों की संख्या भी आटे में नमक बराबर अधिकतर मुसलमान लोग पेशों से कारीगर यह सब परम्परा से चला आ रहा था। अब उन्हें समझाया जाता- - हिन्दू-मुसलमान दो कौमें, उनका किस बात में मेल! उनका
साथ क्या? इसलिये मुसलमानों के लिये अपना मुल्क जरूरी, पाकिस्तान! वहाँ नव सरकारी नौकरियाँ मुसलमानों को ही मिलेंगी। सब मुसलमानों की हैसियत अफसरान की होगी। सब कारोबार मुसलमानों के हाथ में होंगे।
नगर में बीस-पच्चीस ऊँची तुर्की टोपियों, काली शेरवानियों और अलीगडी पाजामे दिखायी देने लगे। कुछ मुस्लिम जवान, खासकर संदिग्ध कारोवारों से सम्बद्ध लोग, सीना फुलाकर चलते और धाँस देते: आने दो मौका देख लेंगे सालों को हिन्दुस्तान की हुकूमत अंग्रेज ने मुसलमान से ली है और मुसलमान को ही लौटायेगा। साले दाल पीने वाले बनिये- बक्काल हुकूमत क्या जानें! हम अपने दीनी रिवाज के मुताबिक ईदुज्जुहा पर बढ़िया-बछड़े की कुर्बानी क्यों नहीं दे सकते? देख लेंगे, किसकी हिम्मत है हमें रोकने की और मस्जिदों के सामने बाजा बजाने की ।
मुस्लिम विरोधी हिन्दू भी तुरन्त लीडर बन गये और हिन्दुओं के प्रतिनिधि सरकार के मंजूरे-नजर
हिन्दू भी मुसलमानों की इस हेकड़ी से बिल्कुल बेपरवाह न थे। उन्हें कुछ तो अपने संख्या बल का अहंकार, भरोसा: ये साले झाँट के बाल बराबर अंग्रेजों के गाँडू हमारा क्या उखाड़ लेंगे। पहले विलायती बन्दरों को निकाल लें फिर इन कटुओं को भी देख लेंगे। उत्तेजना, ललकारें, धॉस-धुपट्टी बढ़ती जा रही थी लेकिन सिर्फ बातों में सरकार केवल परस्पर वैमनस्य बढ़ा रही थी। दंगे की अव्यवस्था से सरकारी सम्पत्ति को हानि और बुद्ध प्रयत्न में बाधा की आशंका। सरकार उसके लिये सतर्क। शुजा, गोबिन्द और उन जैसे लोग अक्सर इस बारे में चर्चा करते। दोनों परेशान लग रहा था दोनों पक्षों के कुछ लोग भिड़ जाने के लिये बहाना ढूँज रहे हों। कहीं यह नयी मुसीबत न आ जाये!
हलधर बारह अगस्त को लौटे। वे बनारस में देखी स्थिति से बहुत विचलित दफ्तर में काम के बजाय अफवाहों और खबरों पर अनुमान और चर्चा। हलधर दबे स्वर में शुजा अहमद से उसी प्रसंग पर बात करते रहे। विश्वास दिलाया, स्थिति जरा संभल जाये। आपका काम जल्दी ही करवा देंगे। तेरह की शुजा गोविन्द सिंह की संगति के लिये टिके रहे। चौदह सुबह चलने का विचार था पर गोबिन्द ने एक दिन और ठहरा लिया।
भतीजे बिरजू ने मेहमान युवती का परिचय निधडक बल्कि कुछ गर्व से दिया था। मास्टर गोबिन्द सिंह सुनकर सकते में आ गये। वैयक्तिक भावना या विचार जैसे रहे हों, थे सरकारी नौकर भतीजा इतनी बड़ी बागी को घर ले आया था। भेद खुलने पर पेंशन के किनारे पहुँची नौकरी की बात क्या उम्र भर की जेल, उसके साथ और क्या नहीं!
आँगन में धुंधले प्रकाश ने बात रख ली वर्ना मास्टर के चेहरे पर उड़ती हवाइयों से उनकी पड़बड़ाहट भतीजे और मेहमान से छिपी न रहती। मास्टर ने गले में उमड़ आया आतंक निगल कर पूछा, "आज सुबह से शहर में कोई ट्रेन इधर-उधर गुजरने की आवाज नहीं आयी। आप लोग आये कैसे?"
बलिया शहर में रेलवे लाइन शहर के बीचों-बीच गुजरती है। ट्रेन गुजरने की घद्रघट्टाहट से शहर गूंज जाता है। बहुत से लोग ट्रेनों के आने-जाने से ही समय का अनुमान रखते हैं।
"हम लोग सुबह साढ़े छः बजे बनारस से चले थे।" बिरजू ने संक्षेप में इन्कलाब अभियान के बारे में बताया, "फेफना पहुँचने तक सूर्यास्त फेफना में ट्रेन रुकवा कर हम लोग सड़क के रास्ते आये हैं। "
"इन्हें हाथ-मुँह धोने के लिये जल-बल दिलवाओ। यह लोग सुबह से भूखे हैं।" मास्टर ने रसोई की दहलीज पर बैठी पत्नी के समीप जाकर बताया, "शहर के बड़े घराने की बहू-बेटी है। दोनों के लिये जल्दी से जो हो सके, बना दो।" वे बरामदे की ओर लौट गये।
बिरजू की चाची चौका समेट कर उठी ही थी। भतीजे और मेहमान की थकान और भूख का ख्याल करके फिर तुरन्त चूल्हा जला कर जल्दी से हलवा तैयार कर दिया। दही जमाने के लिये भैंस का दूध का कर ठण्डाने के लिये रखा था। अभी जामन न लगाया था। दोनों को एक-एक कटोरा दूध, खूब शक्कर घोलकर दे दिया। उपा के लिये उतना ही पर्याप्त । घर में पड़ा लौकी का एक टुकड़ा छौंक कर तवे पर ही पूरी तल दी। पूरी का आकार डेढ़ बालिश्त देख लखनऊवासी के लिये अचम्भा
बेटे जैसे भतीजे के अकस्मात आगमन से चाची गद्गद, परन्तु उसके साथ जवान खानदानी नागरिक युवती को देखकर उतनी ही विस्मित और सशंक। दोनों को बैठाकर कलेवा देते समय उपा के लिये अबोध बोली में भतीजे से पूछे बिना न रह सकी, "ये तुम्हारे साथ कौन?"
बिरजू ने बताया, "लखनऊ के बहुत बड़े खानदान की बहु बहुत बड़ी लीडर हुई। मुलक भर में नाम अंग्रेज त इनका नाम से काँपत हैं। इनके मुकाबले चित्तू पांडे कुछउ ना बाडना पुलिस इनका के खोजत बाटे! हुकुम दिहला से सब रेल-लैन देखते-देखत खतम। इनका कहला के देर बाटे, लखनऊ-बनारस के हजारों जवान सीने पर गोली खाने को तैयार झाँसी की रानी का त जानेलू ना अब देखऊ, ए जिला में का होखेला।" और जबर्दस्त चेतावनी, दो-तीन दिन रहेंगी। पड़ोस में किसी से कुछ नहीं कहना। न किसी पड़ोसिन को यहाँ आने देना। पुलिस ने सुन लिया तो घर-धरती सब जब्त उम्र भर की कैद फाँसी। चार दिन में साली अंग्रेजों की पुलिस कहीं इने न मिलेगी तब तक चुप्प
चाची के मन में मेहमान के लिये भय मिश्रित आदर, परन्तु बेटे जैसे भतीजे, पति और घर के प्रति आशंका और आतंक से व्याकुलता।
गोबिन्द बरामदे में लौटे तो उनके मन्थर कदमों से ही उनके चित्त का अनुमाना रहस्य की बात के लिये शुजा के साथ उनकी ही खाट पर सटकर बैठ गये, परन्तु बोल न पाये। “क्या बात?" शुजा ने मित्र की स्तब्धता तोड़ने के लिये दबे स्वर में पूछा। गोविन्द ने साँस के स्वर में संक्षेप में मेहमान का परिचय दे दिया। शुजा ने सम्भले रहने के लिये दोनों बाँहें सीने पर बाँधकर गहरी साँस ली। कई पल मौन रहकर बोले, "क्या नादानी कर रहे हैं ये लोग पिछले तीन बरस में गांधी ने कितने पैंतरे बदले? अब खुदकुशी का जुनून! मुंडचिरे फकीरों का तरीका। एक तरफ क्विट इंडिया की खुली बगावत के सिक्स कमाण्डमेंट के स्लोगन, दूसरी तरफ बहनचोद वायसराय की क्विट इंडिया की लात को हमदर्दी और नेक नीयती से बर्दाश्त करके, उस पर गौर करने के लिये खुशामद का खत बहनचोद वही किस्सा —खोंचते क्यों हों; लड़ेंगे। भौंकते क्यों हो; डर लगता है। जापान ने जिन मुमालिक और बर्मा पर कब्जा किया, उन्हें आजादी देने की
मिसाल इनके सामने है। लड़के ने ये क्या दुविधा पैदा कर दी। करोड़ों लोगों की जिन्दगी और मुल्क का खयाल करें कि बेटे और पनाहगुजी लड़की का !"
गोविन्द भी धीमे बोलने के लिये मजबूर, परन्तु शुजा के सुझाव से क्रोध की फुंकार, "मियाँ साफ कहो, मतलब क्या हम उन्हें पुलिस को सौंप दें। ओभ से बोल न पाये। अन्धेरे में उनकी आँखें क्रोध से लाला
"अमाँ, सुनोगे भी कि बके जाओगे!" शुजा ने बड़े भाई के रिश्ते से डाँटा, "ऐसा हमने कब कहा हमसे ऐसी इन्सानियत से गिरी बात को तवक्को! और उससे फायदा क्या? आखिर हो तो भूमिहार! बाह्मन बन गये तो क्या, अक्ल तो खेतिहर की।" शुजा की गर्दन तन गवी, "अगर दो-चार, दस-पाँच इन्सानों या कुनवों की कुर्बानी से मूल्क बच सकता तो हम सबसे पहले खुद को और तुम्हें भी कुर्बान कर देते। इन दो बच्चों की गिरफ्तारी से क्या फर्क पड़ जायेगा? मादरचोद अंग्रेज ने गांधी और दूसरे लीडरों को गिरफ्तार कर लिया। उसका क्या नतीजा हुआ; ये जो औड़िहार से यहाँ तक डेढ़ सौ आदमी छोड़ आये हैं, जो कुछ कर आये हैं, बिहार में जो हो रहा है. इन बच्चों की गिरफ्तारी से रुक जायेगा। कुछ ऐसा सोचो कि साँप मर जाये और लाठी भी न टूटे।"
"ऐसी बात हो तो बताओ!" गोविन्द शान्त हुए।
"सुनो, वह लेडी तुमसे अंग्रेजी में बोली थी। उसके अन्दाज से जाहिर कि बहुत सोफिस्टिकेटिड मिजाज की है। हम तुम के यहाँ उसका गुजारा हो सकेगा। वहाँ दो-तीन दिन पुलिस से बचकर रहना चाहती है। इस घर में तो थोड़ी से भीतर झांकों तो आँगन और पूरा घर सामने। उसके लिये मुनासिब जगह महादेव बाबू की कोठी पर
गोबिन्द सिंह ने गर्दन हिला दी, “क्या कहते हो भुजा भैया, लेटी को घर रखने में जैसी जोखिम हमें वैसी ही दूसरों को।"
“ॐ हूँ। बात नहीं समझे।" शुजा बोले, "जानते हो, चित्तू पांडे कहाँ दुबके हैं। वायदा किया है सो नाम नहीं बतायेंगे पर हमें खबर सरकारी जिम्मेदार अफसर ने दी है। वहीं से आर्डर सजेशन कहलवा देते हैं। पांडे को घर में ज्यादा खतरा या इस लड़की को लड़की तो जनाना के पर्दे में रह सकती है। कानून की बात कहते हो तो जैसे एक बागी को पनाह दी, वैसे दो को वहाँ लेडी को आराम रहेगा। पहली बात, उनके यहाँ शक ही हो जाये तो पुलिस एकदम हाथ नहीं डाल सकती। बड़े आदमी का सबको लिहाजा किसने उनसे मदद नहीं ली? बहनचोद सरकारी अफसर की तो जात दोगली। ढाई बरस कांग्रेस सरकार रही तो उनके आगे चुल्लू किये फिरते थे। दूसरे दिन उनके यहाँ मिजाज पूछने सलाम करने चले जा रहे हैं। ये साले दुतरफा बनाये रखते हैं। और ताज्जुब नहीं, उन्हें खुद खबर कर दें, आपके यहाँ अफसर की मौजूदगी का शक है, उसे रफूचकर कर दो! फिर जरावे का सवाल उनके यहाँ दो-दो मोटर शंक होते ही घंटे भर में शहर से पचास-साठ मील दूर निकाल दें। ताज्जुब नहीं, पुलिस की ही गाड़ी में इंतजाम हो जाये। खुद उनकी मोटर में जनाना सवारी पर्दे से जा रही हो तो किसकी मजाल की शिनाख्त के लिये तकाजा कर सके।"
हम खुद ऐसी बात किसी से नहीं कह सकते।" गोबिन्द सिंह ने निःश्वास लिया, "दो दिन निभ जायें या जो किस्मत में "
"अम इसे किस्मत ही ।"
भीतर से खटका सुनकर गोबिन्द चुप दरवाज़े से दिखायी दिया बाहर जाती खाट का सिरा, फिर बिरजू कंधे पर एक चादर और तकिया लिये। बिरजू खाट डालकर बैठा ही था कि ट्रेन के बहुत धीमी चाल से शहर में आने की आहट "अब आ पायी है ट्रेन। फेफना में इंतजाम कर दिया था कि चार घंटे से पहले चल न सके! ट्रेन के सामने बैनर लगा है- इन्कलाब स्पेशल।"
बिरजू काका की ओर झुककर बहुत धीमे बोला, "बहिन जी के लिये भीतर बरोठे में चाची के साथ खाट डाल दी है। कोई मसहरी बसहरी हो तो उनके लिये लगा देते।" "बेटे, जानते हो, अपनी उम्र तो ममहरी बिना कट गयी।" बरामदे में पश्चिम धुआँ छोड़ते दो-तीन उपलों की ओर संकेत किया, "ये धूनी ही अपनी ममहरी । "
"सो तो चाची ने भीतर प्रबन्ध कर दिया है। धुएँ की आदत नहीं है, उससे उन्हें खाँसी न आती रहे। खैर कोई बात नहीं। "
पहले गोविन्द की खाट थी। उसके बाद शुजा की विरजू खाट डालते ही लेट गया। "बहुत थके हो?"
"नहीं तो, पर इधर बहुत दौड़-भाग रही। तीन रात से ये ही हाल।" बिरजू ने क्षमा- याचना के स्वर में सफाई दी।
"अच्छा लेट जाओ, एक बात पूछेंगे।" शुजा बिरजू की ओर करवट लेकर साँस के स्वर में बोले, "बेटे, तुम जान पर जोखिम लेकर यह सब कर रहे हो, लेकिन बरखुरदार, तुम्हारी कोशिशों का नतीजा क्या होगा? जापान के लिये रास्ता साफ बल्कि उन्हें दावत।"
"दावत कैसी चाचा!" बिरजू ने भी वैसे ही स्वर में आपत्ति की, "अंग्रेज से आजादी लेने के मतलब जापान की गुलामी करना नहीं है।"
शुजा ने सुनने का संकेत किया, "जापान क्या अपना खून दूसरों को आजादी देने के लिये बहा रहा है? जापान ने जिन मुल्कों पर कब्जा किया— मिसाल के तौर पर बर्मा- वहाँ जापानियों ने रियाया के साथ क्या सलूक किये! उन्हें कैसी आजादी दी! वहाँ से भागकर आये लोगों की हालत देख सकते हो।"
चाचा, वो हालात दूसरे थे।" बिरजू सतर्क होकर बोला, “जापान ने जब यूरोपियन कोलोनीज पर हमला किया, वहाँ की सरकारें हारकर भाग गयीं। मलाया- सिंगापुर में तो ब्रिटिश कमांडर ने खुद अपने सिपाहियों को सरेण्डर का आर्डर दिया तुम्हें अब जापानी कमांडर का आर्डर मानना चाहिये और हुकूमत जापान को सौंप दी। वो सब कुछ जापान की जंगी लूट थी। गांधी जी उसी हालत का इलाज कर रहे हैं। जब जापानी इस मुल्क से अंग्रेज को भगायें तो अंग्रेज के बजाय यहाँ इंडियन नेशनल गवर्नमेंट मौजूद होगी। जल्द से जल्द हमारी नेशनल गवर्नमेंट कायम हो जाना जरूरी।"
शुजा कुछ मिनट चुप रहकर बोले, "बरखुरदार, तुम यूरोपियन कोलोनीज और वर्मा की बात कर रहे हो, लेकिन मंचूरिया, कोरिया, चीन में जापानी किन इंसाफ के लिये लड़ रहे हैं? नाज़ यूरोप के जिन मुमालिक पर काबिज हो गये, सभी जगह उनकी डेमोक्रेटिक सरकारें मौजूद थीं। नाज़ियों- जापानियों का तो अकीदा है कि कमजोर ताकतवर की कुदरती खुराक है। नाज़ियों और जापानियों को हुकूमत का खुदादाद हुक । "
बिरजू की ओर से उत्तर में निद्रा के समश्वास का स्वर । शुजा ने गोबिन्द की तरफ
करवट ले ली, "लगता है लड़का कई रात से सोया नहीं।"
चौथे पहर के आरम्भ का घुप्प अँधेरा। एक जवान दबे पाँव मास्टर गोबिन्द सिंह के बरामदे में आया। एक के बाद दूसरी-तीसरी खाट पर झुका बिरजू को उठाने के लिये उसका कंधा हिलाया। नींद से चौंकने पर बिरजू का हाथ अपने तकिये के नीचे रखी पिस्तौल पर जगाने वाले जवान ने तुरन्त झुककर बिरजू के कान में कहा, "होश करो"
हम गज्जना"
बिरजू के संभल जाने पर गज्जन ने बताया, "जल्दी चलो। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। " "पूरा प्रिकाशन लिया है न?" बिरजू ने आँखें मलते हुए पूछा।
"परफैक्ट!"
"तुम यहाँ लेटी। हम उन्हें भीतर खबर देते हैं।"
बिरजू भीतर गया। बरोठे में चाची की खाट के समीप दूसरी खाट पर उषा बेसुध पड़ी थी। शरीर चादर से आधा उषड़ा हुआ। बिरजू को दुविधा, युवती को कैसे जगाये। उसने चाची का पाँव हिलाकर उन्हें उठाया और उषा को जगाकर तुरन्त चलने का संदेश देकर बाहर आ गया। कुछ मिनट में उषा सफेद चादर साड़ी में दबे पाँव बरामदे में आ गयी।
गज्जन, बिरजू, उपा आहट बचाकर बरामदे से निकले तो शुजा आहट से चौंक गये थे। शुजा ने गोविन्द को कंधा हिलाकर जगाया और बताया, "वह लड़का गज्जन, बिन्दे बजाज का बेटा, आया था। बिरजू और यंग लेडी उसके साथ चले गये। बक्सा वक्सा नहीं ले गये। वह लोग यहाँ रैन बसेरे के लिये नहीं आये हैं। देखें, ये लोग क्या रंग लाते हैं!"
उपा ने जैसे इलाहाबाद भारती भवन' में, बनारस में संध्या खंडहर की गुप्त सभा में जवानों को क्रान्ति में योगदान के लिये ललकारा था, वैसे ही बलिया में भी रात चौथे पहर खपरैल छाये एक बड़े से कमरे में उषा ने गांधी जी के छः आदेशों से विदेशी शासन की श-शक्ति को परास्त कर सकने के उपायों की व्याख्या की, ""जवानो, आपका जिला आन पर जान देने के लिये प्रसिद्ध है। देश के दूसरे भागों के मुकाबले में यहाँ सरकार के आतंक से स्तब्धता देखकर विस्मय होता है। आप बलिया का महत्त्व समझते हैं।
"पूर्व और पश्चिम से क्रान्ति सेनाओं के मिलने की जगह बलिया ही है। देश पर आक्रमण भी इसी रास्ते आ सकता है। बलिया के जवान इन्कलाब स्पेशल से इन्कलाब का संदेश लेकर आये हैं। आपके जवानों ने जान पर खेलकर यह अपूर्व काम किया है। इस काम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आप पर है। बलिया जिले का जन बल, बलिया नगर में ही केन्द्रित नहीं है, लेकिन इस जिले में ब्रिटिश सरकार की ताकत बलिया सदर में ही सीमित है। जिले की दूसरी तहसीलों थानों का प्रबन्ध कर दिया गया है। इन्कलाब स्पेशल के सैनिक बलिया के पश्चिम और उत्तर से जन सेना को लेकर आपकी सहायता के लिये आ रहे हैं। शेष जिलों से बलिया का सम्बन्ध समाप्त है। बलिया के चारों ओर छः-सात मील के घेरे में जनता को मुक्ति संग्राम के लिये लाकर यहाँ अंग्रेजों के मुट्ठी भर सशस्त्र पिट्ट्ओं को निःशस्त्र कर देना आपका काम है। इस काम के लिये उचित निर्देश स्थानीय नायकों को दिये जा चुके हैं। अब आपको एक मिनट न खोकर सब ओर से जन बल को मुक्ति संघर्ष के मोर्चे पर लाने के लिये कूच कर देना चाहिये। बलिया से गुलामी के कलंक के सब चिह्न मिट जाने
चाहिये ।"
इलाहाबाद, बनारस की तरह बलिया में भी विरजू, गज्जन और जगमोहन ने गुप्त सभा के लिये बहुत चौकसी से प्रबन्ध किया था। मास्टर गोबिन्द सुबह स्कूल के लिये चलने से पहले शुजा के साथ गुह-सत्तू ले रहे थे। गोविन्द ने शुजा से एक दिन और रुक जाने का अनुरोध किया। गोविन्द की चिन्ता भाँप ठहरने की अनुमति का संकेत कर शुजा ने कहा, "कहो तो यंग लेडी के ठहरने के बारे में कहीं बात करें।"
रात की बकावट के कारण उपा की नींद उसी समय 'टूटी थी। सुबह कुछ ऐसी आवश्यकताएँ कि उनके बारे में उषा बिरजू की चाची से ही बात करना चाहती थी। उपा की नागरिक हिन्दी चाची के लिए कठिना गोविन्द ने उषा की कठिनाई समझकर बिरजू को उषा की सहायता का सुझाव दिया।
"हम जानते हैं, यहाँ उसकी आदत के मुताबिक सहूलियत न मिल सकेगी, लेकिन भैया, हम खुद इस बारे में किसी से कुछ नहीं कह सकेंगे।"
“अच्छा सोचेंगे।" शुजा अहमद ने आश्वासन दिया।
मास्टर गोविन्द स्कूल पहुंचे तो रोज से दूसरा रंग विद्यार्थी क्लासों में बैठने के बजाय स्कूल के सामने भीड़ बौधे खड़े थे। नारे, 'इन्कलाब जिन्दाबादा भारत माता की जय! अंग्रेज निकल जाओ! सही-गली सरकार को एक धक्का और दो!'
स्कूल की घंटी बजी पर क्लासों में चार चार, पाँच-पाँच विद्यार्थी ही गये। दूसरे विद्यार्थी क्लास में बैठने वालों को धमकी- गाली दे रहे थे। नौ साढ़े नौ तक क्लास रूम बिलकुल खाली। अधिकांश अध्यापक स्कूल के बरामदों में, नगर में बदलती हवा की चर्चा कर रहे थे। हेडमास्टर का आदेश विद्यार्थी पढ़ें न पढ़ें, अध्यापक अनुशासन के अनुसार निश्चित समय तक स्कूल में रहें।
मास्टर गोविन्द सिंह स्कूल से लौट रहे थे तो बाजार की हालत भी बदली हुई। अधिकांश दुकानें बन्द । चौक के समीप टेलर मास्टर यूसुफ की दुकान पर दस-पन्द्रह लोगों की भीड़। कुछ लोग यूसुफ से दुकान बढ़ा देने का आग्रह कर रहे थे। समीप का चिकवा हिदे (हिदायतउल्ला) और दूसरे दो लोग उसे दुकान बढ़ाने से रोक रहे थे। खलीफा यूसुफ की दुकान पर छः मास से उसके बेटे तकदीर अहमद अरजीनवीस ने मुस्लिम लीग का हरे कपड़े पर सफेद आधे चाँद का झंडा भी फहरा दिया था। यूसुफ को झगड़े से परेशानी। उसके कई ग्राहक भड़कने लगे थे, लेकिन बेटे का आग्रह, मिल्लत और मजहब के मुकाबिले नफा- नुकसान का क्या सवाल? लीग का झंडा नहीं झुकेगा।
मास्टर गोविन्द दुकान पर झगड़े से नजर बचाकर निकल जाना चाहते थे। सामने से साइकल पर तकदीर अहमद आ गया। झगड़े की खबर उसे मिल गयी थी। तकदीर ने मास्टर गोविन्द को पुकार लिया, मास्साब, आप गवाह है। दुकान धमकी से बन्द करवाई जा रही है। लोग कत्ल की धमकी दे रहे हैं।"
मास्टर धर्मसंकट में तकदीर गफूर का सहपाठी था। मास्टर नगर में निष्पक्ष समझे जाते थे, तिस पर सरकारी नौकर, लेकिन लीग का झंडा उनकी आँखों को भी चुभता था। बोले, "हमारी तबीयत ठीक नहीं। यह झगड़ा गलत बात।"
तकदीर ने भीड़ बढ़ती देखकर पिता को परामर्श दिया, "दुकान बढ़ा दीजिये। बाकी हम देख लेंगे, यह जुल्म कैसे चलता है!"
मास्टर गोबिन्द सिर झुकाये चले जा रहे थे। पीछे भीड़ में गालियों की ललकारें "सब बहन कटुओं को देख लेंगे। जा साले बुला ला अपने कलट्टर और उसके बाप अंग्रेजों को "।"
बिरजू की चाची ने बताया, "बड़का भइया कह गये, खाने के लिये हमारा इंतजार न करना।" बिरजू और मेहमान को भात खिला दिया था।
उस दिन नगर में अखबार न आया था। उषा समय काटने के लिये मास्टर की पुस्तकों में से एक पुस्तक लेकर पड़ रही थी।
गोविन्द ने भात खाकर सौजन्य के नाते मेहमान से पूछा, "लखनऊ के मुकाबले बलिया तो गाँव। अपनी जरूरत निस्संकोच कह दीजियेगा। हमारी दोनों बेटियाँ अपनी ससुरालों में हैं। हमारे लिये जैसे बिरजू, वैसी आप
लगता है, आप लोगों के आने से शहर की रंगत बदल गयी।" शहर में आया परिवर्तन बताया। बात हिन्दी में आरम्भ की थी, परन्तु हिन्दी से अंग्रेजी मिली हिन्दी में होने लगी। मास्टर की जिज्ञासा पर उषा ने बता दिया, उसके पिता भी अध्यापक हैं, क्रिश्चियन कालेज में लेक्चरार। शेष परिचय भी उषा से आध घंटे बातचीत से मास्टर के मन में उद्या के प्रति आदर और सहानुभूति।
मास्टर शुजा उषा के बारे में केवल अपने और कांग्रेस के भी बहुत विश्वस्त व्यक्ति से ही कह सकते थे। साठ के हो रहे थे। जानते थे, जैसे अब लीग में फसली गाजी होने लगे थे, कांग्रेस में भी खद्दरपोश सियारों की कमी न थी। महादेव सेठ, जमनादास और विशन बाबू से भी ऐसा प्रस्ताव किसी विश्वस्त कांग्रेसी से ही कहलवाना उचित था। साम्प्रदायिक तनातनी के समय हिन्दू-मुसलमान दोनों को एक-दूसरे की नीयत पर कब शक हो जाये, कुछ नहीं कहा जा सकता। शुजा चौथे पहर तक नगर की हालत में परिवर्तन से भी चकित । शुजा सूर्यास्त के समय गली से लौट रहे थे तो पंचम दिखायी दे गया। शुजा को पंचम पर विश्वास पंचम सम्पन्न घराने का लड़का। शुजा ने उसे कुछ दिन 'इंडिपेडेण्ट इंडिया' पढ़ने को दिया था। पंचम को सैद्धान्तिक बहस में रस न था। बनारस के विद्यार्थी जीवन में मार्क्सवाद की ओर कुछ रुझान हो गयी थी। कांग्रेस सोशलिस्ट, बल्कि उग्र कांग्रेसी था। शुजा को अनुमान था, पंचम गिरफ्तारी की आशंका में छिपा होगा।
"यहाँ कैसे फिर रहे हो बाबू!” शुजा ने विस्मय प्रकट किया।
पंचम की बाछे खिल आयी थीं। उत्साह से बोला, "मास्साब, सिचुएशन बदल जाई । काल्हि तक देख लेई । सुन लीहा ना, बलिया तहसील अउर नरही थाना पर कांग्रेस का झंडा लागि गइल बा।"
शुजा ने प्रसन्नता प्रकट की। दबे स्वर में अनुरोध, "सुना है, लखनऊ वाली उपा सेठ बलिया में हैं। उनको ठहरने की मुनासिब जगह नहीं मिल रही।"
"हाँ! हाँ!" पंचम सब जानने के गर्व से बोला, “इन्कलाब स्पेशल फेफना में रोक उषा जी खुद नरही गयीं। थाने पर उन्होंने झंडा फहराया। मास्साब, उनके लिये जगह की क्या कमी? उनके लिये तो सर्किट हौस में इंतजाम चाहिये जहाँ बड़े लोग ठहरते रहे। हमारा मकान तो उनके लायक नहीं। महादेव बाबू से यहाँ बात करें। आपसे किसने कहा ?
"बाबू, ये सवाल मत करो।" शुजा भाँवे उठाकर बोले, "किसी ने न बताने को कहा हो
तो कैसे बता दें! हमारा एतबार है तो बात करके हमें खबर दे सकते हो। "
" अरे मास्साब, आपने क्या कहा! आप जहाँ कहें खबर दे दें। " "तुम तुम्हारे यहाँ रात नौ-दस तक आकर खबर ले लेंगे।"
"जरूर आइये।"
गोबिन्द के यहाँ लौटने से पहले शुजा अपने दामाद के यहाँ गये। नौ तारीख को वहाँ गये थे तो नातिन को गले में तकलीफ, खाँसी और हरारत थी। उसी दिन डाक्टर मजूमदार होमियोपैथ के यहाँ से अपनी समझ से नातिन के लिये तीन दिन की दवा ब्रायनिया ३० दे आये थे। फिर नातिन को देखकर आश्वासन दिया था, उजियार लौटने से पहले देख जायेंगे। गफुर सूर्यास्त के समय अदालत से लौट आया था, लेकिन बहुत चिन्तित। समीप बैठे आदमी से शहर की हालत के बारे में बात कर रहा था। उसने ससुर को सूचना दी : नरही के अलावा दूसरे दिन बैरिया, गड़वार और मनियर थानों पर भी कॉंग्रेस ने झण्डे लगा लिये। लोग कहते हैं, नरही का थानेदार सुन्दरसिंह जाहिरा सरकार का बहुत बफादार बना रहा, छिपे छिपे हिन्दू कांग्रेसियों से साठ-गाँठ बनाये था। गड़वार का थानेदार मुसलमान, आस- पास सब हिन्दू गाँव। हजारों की भीड़ ने घेर लिया तो क्या करता। उसने स्वर दवाया, "बब्बन ने सुना है बिद्दे, कल्लन और बिन्दे के गिरोह मुसलमानों की दुकानें और मकान लूटकर जला देने की तैयारी कर रहे हैं।
गफूर बोला, "बब्बन तो अकसर उड़ाया करता है। फिर भी कांग्रेस के लीडरों को खबर कर देना मुनासिब वे लोग अपने वकार के खयाल से फिरकायाराना झगड़ा नहीं होते देंगे।" शुजा ने दामाद का समर्थन किया। भीतर खबर देकर बेटी और नातिन को देखने चले
गये।
बिरजू की चाची को उषा के प्रति कुछ वैसा ही आदर, आतंक और आशंका भी जैसे बलि चढ़ाने वाले को देवी से, परन्तु उषा मेहमान थी। बिरजू, बिरजू के काका, शुजा भैया सब उसका आदर कर रहे थे। संध्या उसके लिये परांठे, तरकारी बनाये और दही की खूब मोटी मलाई में ढेर-सी चीनी डाल दी।
बिरजू लगभग साढ़े नौ बजे लौटा। उषा को गुप्त सन्देश दिया। शुजा और गोबिन्द बात करते रहे परन्तु बिरजू पेट में आहार पड़ते ही बरामदे में खाट डालकर नींद में बेसुध । शुजा और गोबिन्द बरामदे में चले गये तो उषा कुछ देर ठण्डक के लिये खुले आँगन में लेटी रही। चाची ने आकाश की ओर संकेत कर सावधान किया, "ओसि परत बा, जीव खराब हो जाई।"
उषा उपलों के धुएँ की गंध से दम घोंटे बरामदे में खाट पर लेट गयी। उपलों के धुएँ की गंध की अपेक्षा मच्छर अधिक कष्टदायक |
रात साढ़े ग्यारह बजे गज्जन आया। बिरजू को पहचान कर जगाया। बिरजू ने भीतर जाकर चाची को । उषा गत रात की तरह दोनों के साथ चली गयी। एक मकान में दस- ग्यारह जवान। सब चौकसी पूर्ववत उपा को पहले मालूम था, उस रात दो स्थानों पर गुप्त
सभा में जाना होगा।
सोलह अगस्त रविवारः मास्टर गोबिन्द सिंह को स्कूल जाकर हड़ताली नारे सुनने की जरूरत न थी। शुजा गुड़-स लेकर निकल गये थे। पिछली रात पंचम के यहाँ साडे दम तक प्रतीक्षा करके निष्फल लौटे थे। अब कांग्रेसी बहुत व्यस्त हो गये थे। शुजा का विचार फिर पंचम और नर्मदा प्रसाद के वहाँ जाने का था।
स्कूल में छुट्टी थी। लड़के जगह-जगह जुलूस निकाल रहे थे। रविवार के दिन मुफस्सिल के कस्बों में देहात से लोग सरकारी काम या कचहरी के लिये नहीं आते। बाजार अपेक्षाकृत सूने रहते हैं, परन्तु उस रविवार नगर में सामान्य से अधिक लोग गोल बाँधे देहातों से चले आ रहे थे।
शहर से पुलिस गायब, परन्तु रेल स्टेशन और कचहरी में पुलिस का जबर्दस्त पहरा दस ग्यारह बजे तक शहर लठेत देहातियों से भर गया। आकाफाल नारे, इन्कलाब जिन्दाबाद! महात्मा गांधी की जय! भारत माता की जय झाँसी की रानी जिन्दाबाद! सन् सत्तावन जिन्दाबाद! इस गिरती सरकार को एक धक्का और दो!"
शहर में खबर थी, बलिया से पश्चिम और पूर्व कांग्रेस का राज हो गया सब रेल- स्टेशन जल गये। बलिया स्टेशन का खड़े रह जाना बलिया के उम्र जवानों के विचार में उनकी मर्दानगी पर कलंक दोपहर बाद भीड़ का बड़ा रेला स्टेशन की ओर बड़ा पुलिस और दूसरे अफसरों का साहस बनाये रखने के लिये कलक्टर के हुक्म से डिप्टी कलक्टर वैश वहाँ मौजूद था। उसके हुक्म से भीड़ को पीछे हटकर तितर-बितर हो जाने के लिये कहा गया। भीड़ पीछे हटने के बजाय ऊँचे नारों से आगे बड़ी, इन्कलाब जिन्दाबाद: इस गिरती सरकार को एक धक्का और दो।"
वैश ने भीड़ को डराने के लिये फायर करवाये। भीड़ आगे बढ़ती गयी। उसने भीड़ पर गोली चलवा दी। भीड़ में भगदड़ मच गयी, परन्तु पन्द्रह मिनट में भीड़ का उससे बड़ा रेला आया और ऊँचे नारों से आगे बड़ा। पुलिस इधर-उधर दूबक गयी। डिप्टी कलक्टर वैश भी लापता। भीड़ ने स्टेशन लूट लिया। उसके बाद स्टेशन की होली।
युद्ध के लिये बहुत बड़ी मात्रा में गलता खरीदा जा रहा था। सरकार के दो प्रयोजन। युद्ध में गल्ला खर्च में कहीं अधिक नष्ट होता है और अन्न की महँगाई से युद्ध के लिये सैनिक और युद्ध के कामों के लिये मजदूर मिल सके। अझ की महंगाई के कारण उपद्रव की आशंका के उपाय के लिये नगरों में राशनिंग जारी कर दिया गया था। हर जिले में गल्ले की खरीद और संचय के लिये बड़े-बड़े सरकारी गल्ला-गोदाम बन गये थे। वहाँ से किसानों को बीच के लिये बेहतर किस्म का गल्ला खरीदने की भी सुविधा। चौथे पहर भीड़ ने बलिया के सरकारी गल्ला बीज गोदाम पर हल्ला बोल दिया। लूट के बजाय गोदाम को आग लगा दी। स्टेशन पर गोली चलवाने के बाद वैश लापता हो गया था, परन्तु उत्तेजित भीड़ ने प्रतिकार भावना से संध्या वैश के मकान में और दूसरे चार-पाँच सरकारी दफ्तरों रायबहादुरों, खानबहादुरों के मकानों में आग लगा दी। पुलिस शहर से लापता ।
संध्या तक बांसडीह तहसील के दो और थानों पर कांग्रेसी झंडा फहरा दिये जाने का समाचार। कुछ लोग मजाक कर रहे थे अब तक शेर और बकरी एक पाट पानी पीते थे।
बकरी डर से शेर का जूठा और गंदला पानी पीती थी। अब साला ब्रिटिश लायन बकरी का जूठा पानी पीयेगा। कांग्रेस के जाने-माने नेता अभी अप्रकट थे, परन्तु उत्साही जवानों ने नगर में शान्ति, सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं अपने कंधों पर ले लिया था। जगह-जगह जवानों की टोलियों तैनात कहीं चोरी-चकारी, लूट-पाट या साम्प्रदायिक झगड़ा न होने पाये।
सत्रह अगस्त। मास्टर गोबिन्द जानते थे स्कूल में कुछ काम न होगा, परन्तु अनुशासन के विचार से स्कूल गये। शुजा विलम्ब से निकले बिरजू ने कहा था, वह और यंग लेडी बलिया में तीन दिन रहेंगे। सोचा, शायद आज यह लोग जा रहे हों पर रास्ते सब खत्मा किस सवारी से, किस राह ये लोग जानें, इनका काम जानें! शुजा दामाद के यहाँ हाल- चाल देखने-पूछने चले गये। गफूर दुविधा में था, कचहरी जाये न जाये? इस हालत में अदालत में क्या काम हो सकेगा? वैसे गफूर पूर्वापेक्षा आश्वस्त था। ससुर से कुछ राजनैतिक चर्चा भी हुई शुरू में कांग्रेस का रवैया गैर फिरकाबाराना रहेगा, लेकिन कॉंग्रेस में सब तरह के लोग हैं। पिछले दिनों में मुसलमानों के साथ कोई जोर जब न हुआ था।
हेडमास्टर सेमुअल चैटर्जी प्रकट में शान्त थे। उन्होंने अध्यापकों को राय दी, विद्यार्थियों के अभिभावक उन्हें स्कूल नहीं भेज रहे तो हमारा क्या उत्तरदायित्व! हमें ऊपर से जैसे आर्डर आयेंगे, काम करेंगे। आप लोग नित्य आकर हाजिरी लगवाते रहें। कोई भी सरकार हो, शिक्षा तो आवश्यक
मास्टर गोबिन्द स्कूल के फाटक से निकल रहे थे। उन्हें देखकर चतुर्भुज ने साइकल से उत्तर कर 'पाँव लागिला' कहा। गोबिन्द के अनुमान में चतुर्भुज मफरूर
“आज क्या खबर ?" गोविन्द ने पूछा।
" आपके चरणों की कृपा से किला जीत लिया।" चतुर्भुज ने बताया, "सुना, कलक्टर कचहरी आया है, हिफाजत के लिये छ: बन्दुकची लेकर उसने अपने बाल-बच्चे हिफाजत के लिये पुलिस लाइन भेज दिये। दूसरे अफसरों को भी हुकुम, जो चाहे अपने बाल-बच्चे पुलिस लाइन भेज दें। कलक्टरी के एक आदमी ने बताया, साले की पिलपिला गयी। चौदह अगस्त तार- टेलीफोन सब खत्म हो गये तो उसने दो आदमी अलग-अलग मोटर से बनारस- फैजाबाद कुमुक के लिये भेजे थे। आज सुबह तक भी न कोई जवाब न आदमी लौटे तो साले के हाथ पाँव ठेड।"
चतुर्भुज ने और बताया, "हमने कांग्रेस दफ्तर पर पुलिस का कुफल तोड़कर अपना काम शुरू कर दिया। पन्द्रह-बीस हजार का हुजूम जिला जेल फाटक घेरे है। लोगों की मांग, हमारे नेता छोड़े जायें। कलक्टर की खुद वहाँ जाने की हिम्मत नहीं उसने कहलवाया है, कांग्रेस के नेता चित्तू पांडे, जगन्नाथ, मुरली बाबू, ओंकारानन्द जेल में नहीं हैं। जितने कांग्रेसी जेल में हैं, छोड़ दिये जायेंगे। जरायमपेशा या चोरों डकैतों को छोड़ने से जिले के अमन को अन्देशा, लेकिन लोगों को विश्वास नहीं। वे कहते हैं, सब कैदी छोड़े जायें। अमन के लिये कांग्रेस जिम्मेवार
कचहरी रेल लाइन से एक फर्लांग दूर, लेकिन उधर से अस्पष्ट हल्ले की गूंज से मास्टर गोबिन्द और चतुर्भुज का ध्यान उस ओर गया। चतुर्भुज ने जताया, "लोग कचहरी को घेर रहे थे। जान पड़ता है कचहरी में भी आग लगा दी। "
नगर में सरकार के विरोध में हड़ताल थी, परन्तु हड़ताल का प्रदर्शन मात्र नगर में आतंक न था। दुकानों के पल्ले बन्द थे, परन्तु कुछ इस ढंग से कि जरूरतमंद समझ कर सामान खरीद सकते थे। बहुत-सी दुकानों के बाहर लोग पटरों पर बैठे सुरती फाँकते या बीड़ी-सिगरेट फूंकते बतियाँ रहे थे। मास्टर गोबिन्द खबरों और अफवाहों के रस के लिये जगह-जगह ठुमकते विलम्ब से घर पहुँचे।
मास्टर की अनुपस्थिति में बिरजू की चाची ने बिरजू और मेहमान को भात खिला दिया था। भुजा बाहर गये थे। उपा ने खाने के बाद भीतर खपरैल के बरामदे में रात की अधूरी नींद पूरी की। दिन में मच्छरों का कष्ट न था। नगर में अखवार आ न रहे थे। मास्टर ने भी भोजन के बाद झपकी ली। फिर उठकर पुस्तक लेकर पड़ने लगे। उषा भी उनकी पुस्तकों में से 'इंडियन ह्यूमैनिस्ट' का एक पैम्फलेट पढ़ रही थी।
मास्टर ने उषा को शहर में सुने समाचार बताये। उपा को उत्साहित देखकर दोनों में बात शुरू हो गयी।
गोविन्द चिन्ता से बोले, "समझिए, आपको स्थानीय सफलता हो गयी, लेकिन देश के दूसरे भागों, खासकर सेना की प्रतिक्रिया क्या होगी?"
उस दिशा में चिन्ता करने वाले भी हैं।" उषा को उस पक्ष में भी भरोसा। मास्टर खुलकर बात करने लगे, "सफलता से सभी भारतीय स्वभावतः प्रसन्न और उत्साहित, परन्तु इस पर गौर करना भी जरूरी हमारे पास आर्गेनाइज्ड रजिस्टेंस नहीं होगा तो जापानी फासिस्टों का मुकाबला कैसे करेंगे? वहाँ की पुलिस भारतीय थी। जापानी सेना तोपों और हवाई जहाजों की भाषा में बात करेगी। उसे पूरे देश की बस्ती समाप्त कर देने में भी संकोच न होगा।"
"हम अपने जन बल से लड़ेंगे।
"आपका जन बन्न चीन से अधिक है?"
"आज़ाद होकर हम फासिज्म के समर्थक नहीं जनतंत्र के समर्थक हैं। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारा सहयोग जनतंत्र और समाजवादी पक्ष के साथ सम्भवा" दोनों में तर्क और सम्भावनाओं पर बहसा उसका क्या अंतः
पडोसी खेमसिंह ने दोपहर बाद मास्टर गोविन्द को पुकार कर सूचना दे दी थी-भीड़ ने जेल का फाटक तोड़ दिया। बीस-पच्चीस सिपाहियों की गारद उनके पास पुराने जमाने की बन्दूकें। मुट्ठी भर सिपाही दस हज़ार की भीड़ का मुकाबला क्या करते! जेलर कलक्टर का रख पहचान चुका था। जेल के फाटक टूटे तो कांग्रेस के बड़े लीडर चिनू पांडे, जगन्नाथ, मुरली बाबू, रघुबर उसमें न थे। सौ-सवा सौ कांग्रेसी कैद थे। उन्हें भागने की क्या जरूरत! वे फूल-माला पहन कर जुलूस से नगर प्रवेश की प्रतीक्षा में जेल टूटते ही सबसे पहले भागे जेवकेट, फौजदारी के अपराधी, चोर-डकैत कत्ल के मुजरिम
शुजा सूर्यास्त के बाद लौटे। बरामदे में कोई न था, परन्तु थोड़ी का दरवाजा खुला। समझ गये, गोविन्द भीतर है। विरजू की चाची को पर्दा कर लेने की सूचना देने के लिये गोबिन्द सिंह को पुकारा। गोबिन्द आँगन में खाट पर बैठे थे। उनके सामने उषा; जैसे दोनों की बात चल रही हो। गोविन्द ने शुजा की ओर जिज्ञासा से देखा।
"कलक्टर ने एडमिनिस्ट्रेशन कॉंग्रेस वालों को सरेण्डर कर दिया।" शुजा सूचना देकर
गोबिन्द के बराबर बैठ गये।
"लोग उड़ा रहे हैं या सच?" गोबिन्द ने कुछ विस्मय कुछ अविश्वास से पूछा, जाने की बात तो सुनी है। "
"जेल टूट
"हम गफूर के यहाँ सुनकर आ रहे हैं। वहाँ लोग कांग्रेस की तरफ से बढ़ाकर क्यों कहेंगे। खजाना भी जल गया। " शुजा ने बताया, “सुनते हैं, निगम ने समझाया, ये खजाना किसी शख्स का या अंग्रेजों का नहीं, जिले की पब्लिक का है। इसके लुटने से पब्लिक का नुकसान। सब व्यवस्था गड़बड़ को जायेगी, लेकिन कौन सुनता है।
" निगम ने अक्ल से काम लिया। खतरा समझ लिया था। मौके के लिये तैयार था। खुद बाहर निकल गया। खजाने में आग लगवा दी। नकदी और करेंसी नोटों के नम्बर नोट करवा लिये थे।"
"उसे पब्लिक का खजाना जलवा देने का क्या हक?" उपा ने आपत्ति की। "उसने कांग्रेस को सरेण्डर किया तो खजाना कांग्रेस को सौंपा जाना चाहिये था।"
"उसने ठीक ही किया। " शुजा बोले, "कांग्रेस की तरफ से बजाने का चार्ज या ज़िम्मेदारी लेने गया कौन? लोग खजाने की ज़िम्मेदारी लेने नहीं, लूटने गये थे। जिला के खजाने में ज्यादा नहीं तो पच्चीस-तीस करोड़ के नोट, बल्कि ज्यादा नकदी इतना रुपया लोगों के हाथ पड़ जाता तो तमाम इकॉनमी गड़बड़ा जाती अब भी अफ़वाह है, खजाने के लोगों और कुछ अफसरों ने छोटी रकम के नोट लाखों की तादाद में उड़ा लिये।"
"खजाना जल जाने में किसी भी सरकार का मामूली हर्ज, लुट जाये तो सरकार के सिक्के की साख गयी और फिर खजाने में बन्द नोट महज कागज या निकल-ताम्बा जो सरकार आयेगी, जितने नोट चाहे छाप लेगी। सिक्के डाल लेगी। नोट पब्लिक के हाथ आ जायें तो वह सरकार पर एक बड़ा दावा बन गया।" शुजा उषा को अर्थ व्यवस्था समझाते रहे।
"काका!" पुकार कर बिरजू भीतर आया, "हमारे नेता आये हैं, उषा जी से बात करने।" "कौन?" गोबिन्द आदर से खड़े हो गये। उनके देखादेखी शुजा भी उषा को भी विस्मय।"
"आप बैठिये!" बिरजू बोला, "वैसे कांग्रेस के लीडर नहीं, इस संग्राम के नेता या सेनापति।" बरामदे में जाकर दो पल में लौटा तो उसके साथ दूसरा जवान विरजू ने एक और खाट बरामदे से उठाकर समीप डाल दी।
हरीकेन के मध्यम प्रकाश में उषा को पहचानने में पलांश लगा। जवान के चेहरे पर मुस्कान। उपा की ओर हाथ बढ़ा दिया, "मैनी मैनी कांग्रेचुलेशन्स फॉर योर एक्सेलेट परफॉरमेंस" उषा खिल उठी थी। सरगर्मी से हाथ मिलाया।
रुद्रदत्त पाठक लगभग इलाहाबाद जैसे वेश में केवल सिर पर काली दुपल्ली टोपी, धोती जरा ऊँची कसकर बंधी हुई दाढी-मूँछ कुछ अधिक तराशे हुए, मूँछें उमेठ कर चढ़ाई
हुई।
पाठक ने सूचना दी, "कलक्टर ने कांग्रेस नेताओं को संदेश भिजवाया है, आकर व्यवस्था सम्भाले या व्यवस्था में सहायता दें। बलिया कंम्पलीटली कांकर्ड आप सब लोगों को बधाई।"
पाठक, गोविन्द और शुजा की ओर देखकर अंग्रेजी में बोला, "मुझे बिरजू और उषा जी
से दो मिनट बात करना है। फिर आज्ञा चाहूँगा।"
“आप इन लोगों से बात कीजिये।” गोविन्द सिंह अतिथि को निर्जल-निराहार कैसे लौटने देते। "रूखा सूखा जैसे भी है, स्वीकार कीजिये। हमारा अहोभाग्य आपकी चरण- धूलि हमारे यहाँ पहुँची।"
पाठक ने कलाई पर झुककर समय देखा, "काका जी, अगर एकदम तैयार है, आप भी ले रहे हैं तो आपका प्रसाद सिर माथे तब तक इनसे बात कर लें।""
शुजा और गोबिन्द उठ गये। शुजा खाट बाहर ले गये। गोबिन्द रसोई की ओर बढ़कर चाची से बोले, "बस जो कुछ तैयार है, जल्दी से परस दो। ये ठहर नहीं सकते।"
पाठक ने उषा और बिरजू से संक्षिप्त बात की। दो वाक्यों में साहस और समुचित ढंग से काम की सराहना कर सूचना दी, "मैं तुरन्त बनारस जा रहा हूँ। वहाँ की हालत बहुत संगीन। रास्ते में कई पुल टूटे हैं पर जाना ही है, जैसे भी हो। कुछ न हो तो साइकल तो है ही कभी खुद साइकल पर, नदी-नाले लाँघने में कभी साइकल हमारे कंधे पर सोहाँव में ट्रक मिल सकने की उम्मीद है या किसी से जबरन लेना पड़े, जो भी हो। इंतजार नहीं कर सकता। आप दोनों कल जो भी सवारी मिले, बनारस की ओर चल दें।" रास्ते में सोहाँव, मुहम्मदाबाद गाजीपुर, औविहार में सहायता के लिये पता बता दिये। बोला, "इस तरह सफर में काफी खर्च हो सकता है।" धोती की टेंट से नोट निकाले, "यह रख लीजिये।"
मास्टर गोबिन्द सिंह समय से स्कूल पहुँचे। फाटक से कुछ कदम भीतर गये थे तो स्कूल आरम्भ की घंटी बजी। चपरासी ने स्थिति समझ, बाकायदा लम्बी घंटी बजाना व्यर्थ समझकर घंटे पर मोंगरी से दो-तीन टंकार कर दी। दस-पन्द्रह 'भले' विद्यार्थी बाहर से ही भीतर वीरान देखकर लौट गए। अध्यापक हाजरी लगाकर, हेडमास्टर चैटर्जी को गुडमार्निंग कहने उनके कमरे की ओर जा रहे थे। तब तक स्कूल के सामने हास्पिटल रोड पर दगड दगड़ छोटे नगाड़े जैसी दुग्गी की आवाज आम सरकारी बोली से भिन्न ढंग से मुनादी । मुख्याध्यापक चैटर्जी और सेकंड मास्टर सान्याल के अतिरिक्त दूसरे अध्यापक कौतूहल से फाटक की ओर आ गये।
"बलिया शहर और जिला के खासोआम को इत्तला दी जाती है कि बलिया सदर और जिला में अब कांग्रेसी सरकार कायम है। कांग्रेस का राज जनता का राज है। चित्तू पांडे जिला के कलक्टर हैं। कांग्रेस की अमलदारी में मज़हब में छोटे-बड़े, जात-पाँत के लिहाज के बिना सब इंसानों के हकूक बराबर हैं। हर एक शख्स का फर्ज है कि कानून, अमन कायम रखने और रिवाया के जानोमाल की हिफाजत में सरकार की मदद करे। जिस शख्स को जो शिकायत हो, जिला कांग्रेस के दफ्तर में दायर करे। सब नागरिकों की जिम्मेदारी है कि शहर में शान्ति कायम रहे। आज से कलक्टरी और सरकारी इमारतों पर आजाद हिदुस्तान का कांग्रेसी झंडा फहरायेगा "।"
साइन्स के अध्यापक मास्टर धर्मेन्द्र राय राष्ट्रीय भावना के बारे में सदा से निधड़क| पिछले सप्ताह से उनकी राष्ट्रीयता अधिक उग्र हो गयी थी। सब अध्यापकों को समेट कर फिर हेडमास्टर के कमरे की ओर ले गये। मास्टर राय अध्यापकों के प्रतिनिधि के रूप में हेडमास्टर से बोले, “सर, वी वान्ट टु मेक ए रिक्वेस्ट।"
चटर्जी विनय से स्वयं बाहर आ गये।
मास्टर राय ने दुग्गी की घोषणा की अन्तिम बात बतायी। सभी अध्यापक घोषणा के गवाह राय ने अनुरोध किया, "सर सरकारी आर्डर के अनुसार स्कूल की इमारत पर आज़ाद हिन्दुस्तान का झंडा फहराया जाना चाहिये।"
मास्टर मुर्तजा अहमद की लीग के प्रति सहानुभूति भी छिपी न थी। मुर्तज़ा का चेहरा गम्भीर, परन्तु मौन
"सरकारी आदेशों का पालन जरूर होगा।" चैटर्जी ने विश्वास दिलाया। वे सदा अंग्रेजी
मैं बोलते थे, "" 'अदालत की तरह स्कूल की इमारत पर रोज झंडा लगाने का नियम नहीं है। स्कूल पर खास अवसर पर सरकारी झंडा लगाया जाता है। अब भी लगाया जायेगा। इस बारे में स्कूल इंस्पेक्टर और डायरेक्टर स्वयं आर्डर देंगे। हमें जैसा आदेश होगा, पालन करेंगे।" आगे बात न बढ़ने देने के लिये दो कदम आगे बड़े मुस्करा कर बारी-बारी से सभी अध्यापकों से हाथ मिलाकर बाई बाई कहा। एक बार फिर मुस्कराकर बायीं ओर चले गये। मास्टर लोग उत्साहित थे। हेडमास्टर के चले जाने के बाद भी बरामदे में खड़े पिछले दिन के समाचारों की आलोचना और भावी सम्भावनाओं के विषय में अनुमान करते रहे।
मास्टर गोविन्द सिंह चौक के रास्ते लौटे। नगर का रंग ही दूसरा सब ओर सफेद गांधी टोपी छोटे नगाड़े की सरकारी ढंग की दुग्गी से असंतुष्ट लोग कहीं से बारात के बाजे से बड़ा ढोल लाकर ऊँचे धमाकों से, आकाशभेदी नारों से आज़ादी की मुनादी कर रहे थे। बहुत ऊँचे स्वर में नारे नारों में 'चित्तू पांडे जिन्दाबाद!' भी शामिल। चित्तू पांडे कलक्टर तैनात हो गये थे। कुछ लोग अपने संतोष के लिये घडियाल बजा-बजाकर आज़ादी और कांग्रेस राज की मुनादी कर रहे थे।
गोबिन्द सिंह चौक पहुँचे तो अपूर्व भीड़ जैसे शहर भर में बारात चलने की तैयारी में, पंजाबी देहाती ढंग की बारात कही बात कान न पड़ती। सुना, खेमू सत्तू सतुई वाले ने स्वराज की बधाई में सत्तू गुड़ का सदावर्त बाँटना शुरू किया तो भूपत ने भी सत्तू का सदावर्त लगा दिया। बाते और आगे बड़ी सीतल हलवाई और खिलावन हलवाई आज़ादी की खुशी में स्वराज का प्रसाद, एक-एक पत्ता जलेबी सब लोगों को बाँट रहे थे।
उत्सव का आनन्द केवल मिठाई से पूरा नहीं होता। उत्साही लोगों ने पर्याप्त भाँग जमा कर ली थी। पंसारियों की दुकानों से बादामों के ढेर दूध की बटलोइयाँ- बाल्टियाँ चौक के कुएँ के चारों ओर बीस के लगभग मिलों पर माथे से पसीना पोंछते जवान हुमक-हुमक कर, बारी-बारी से भॉंग पसीने में लगे हुए बादाम दूध में मिली भाँग का भी सदावर्त।
मास्टर गोबिन्द नौ बजे घर पहुंचे। शहर का हाल उषा को सुनाया। उषा नगर की ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति से प्रसन्न देश भर में ऐसे ही परिवर्तन की कल्पना, परन्तु चिन्ता भी। रात पाठक निर्देश दे गया था, आप लोग सुबह ही बनारस के लिये चल दें। बिरजू मोटर के प्रबन्ध का आश्वासन देकर सात बजे ही चला गया था, नौ बजे तक भी लौटा न था।
मास्टर गोबिन्द की आत्मीयता से उषा का संकोच मिट चुका था। कुछ मतभेद के बावजूद वे और शुजा सहायक ही थे। उसने चिन्ता प्रकट की, "अंकल, हम लोगों को तो सुबह ही चल देना था। बिरजू भाई उसी प्रबन्ध के लिये गये थे। अभी तक नहीं लौटे।" गोविन्द भी उसी निस्संकोच आत्मीयता से बोले, "बिटिया, इन बातों को बिरजू ही
जानते हैं। जाने कहाँ किससे बात करने गये हैं। वे ही लौटकर बतायेंगे। "
मास्टर शुजा भी शहर का चक्कर लगा आये थे। गोबिन्द से बोले, "भाई, मौके से शहर में इन्कलाब भी देख लिया। अब आज इजाजत दे दो। घर में जाने क्या हाल है। हम बिटिया- बच्चों को खुदा हाफिज, कह आयें। रेल तो खत्म। फेफना तक इक्का ले लेंगे, फिर जैसा होगा। साँझ तक उजियार पहुँच जायेंगे। "
गोबिन्द का बस चले तो शुजा को घर से जाने ही न दें। बहुत अनुरोध से बोले, "यह कोई समय है सड़क से सफर का! देखते हो, आज धूप कैसी कल सुबह रास्ते के लिये खायका बनवा देंगे। मुँह अँधेरे निकल जाना। धूप में क्यों परेशान होगे। जैसे आज वैसे कल । यहाँ का जलसा भी देख लो।"
“आँगन में खूँटा गाड़ कर हमारे गले में पगहा डालकर बाँध लो !" शुजा ने आत्मीयता की झुंझलाहट दिखायी, "तुम कल और बात बना दोगे!"
कसम है। कल हम नहीं रोकेंगे।" गोविन्द ने विश्वास दिलाया। फिर सहसा याद आया, "स्वराज का प्रसाद जलेबी खावी?"
"अरे हम हलवाइयों के सामने हाथ फैलायें!"
"अमों, हाथ फैलाने को नहीं कह रहे। सत्यनारायण का प्रसाद और मीलाद शरीफ की नुकती के लिये हाथ फैलाना नहीं होता। पवित्र चीजें होती हैं। ये शहर की खुशी में शामिल होना है। तुम हाथ न फैलाना।"
गोबिन्द सिंह और शुजा अहमद को घर से निकले दस मिनट हुए होंगे। कदमों की आहट से उपा की नज़र ड्योढ़ी की ओर उठी बिरजू एक छींक में गरम-गरम, चमकती जलेबी के कई दोने लिये आँगन में आया। उपा को बिरजू का भारी, लेकिन खुश चेहरा और चढ़ी हुई गुलाबी आखें देखकर विस्मय। पूछना ही चाहती थी, हम कब चल रहे हैं?
बिरजू के कदम डगमगाते से लगे । उषा की खाट के समीप टीन की कुर्सी पर खीका रखकर जलेबी का एक दोना उठाया, "ये ले" "लीजिये सुराज का प परसाद!" ज़बान बुधला गयी। बिरजू य साफ-स्पष्ट बोलता था।
उपा विस्मित, भद्र युवक का यह कैसा व्यवहार! "आज सुबह ही चलने का प्रोग्राम था, उसका क्या हुआ? उषा ने कहाई से पूछा।
बिरजू जलेबी का दोना हाथ में लिये बोला, हम त दूसरे न झगड़े में पड़ गये थे।" जवान में अधिक लड़खड़ाहट, "कल तीसरे पहर तक जिला के इगारा थानों में आठ पर कांग्रेसी झण्डा लग गया था। हल्दी थाना पर हमला हुआ था। वहाँ का थानेदार बहुत हांक उसने डटकर मुकाबला किया। भीड़ हार कर लौट आयी। भुवनेस हमसे बोले, हल्दी हमारा गाँव का थाना, उ सार कइसे रह जायी हम ओकर इन्तजाम कइके आते हैं। हम उसका पन्द्रह सैनिक दिये। बोला, बाकी हम देखि लेवि । थानेदार ने बन्दूक चलायी तो सरौ कावर्ड डरकर भाग आये। दो सी आदमी ले के गये। आठ सिपाहियों से डर गये। आज चौक में सुराज का जलसा परसाद बैट रहा था। हम ओकरा परबन्ध में लग गये। अब जाते हैं। फेफना तक सवारी का इन्तजाम हो जाय, फिर आगे देख लेगे।" दो कदम आगे बढ़ आया, "अब चलना ही है। सुराज का परसाद तो लेओ।" जलेबी का दोना उषा को थमाने के
लिये उषा का हाथ पकड़ना चाहा।
" बिहेव !” उषा को बिरजू के व्यवहार से बहुत क्रोधा घृणा से डॉट दिया, "वाट्स दिस! कावर्ड! खतरे में दूसरों को भेजकर जलसा मना रहे थे।"
• बिरजू ने जलेबी का दोना एक तरफ फेंक दिया। आँखें लाल, "ऐसा कहा ! तो हम ही जाते हैं। थाना सर करके ही लौटेंगे।"
उषा देखती रह गयी। बिरजू पाँव पटकता लड़खड़ाता आँगन से चला गया।
उपा क्रोध के उफान से बेबस हो गयी थी। आत्मवश रहने के लिये प्राणायाम में साँस रोककर गर्दन झुका ली।
arat की आवाज सुनकर उसकी ओर देखा। समझ लिया, चाची रसोई में थी। मेहमानों की विदा से पहले खास रसोई बना रही थी। उसने बिरजू और उषा का झगड़ा वहीं से देख लिया था। चाची के शब्द नहीं समझे, परन्तु जलेबियों के दोनों से भरे छींके की ओर संकेत से अभिप्राय का अनुमान करके उत्तर दिया, "बिरजू स्वराज का प्रसाद लाये हैं। " चाची ने फिर फर्श पर फेंकी हुई जलेबियों की ओर संकेत किया। उपा का क्रोध विवशता और संकोच में बदल गया, पराये घर में ऐसी धृष्टता ! नज़र बचाये उत्तर दिया, """हमसे जलेबी खाने को कहा। सुबह से हमारी तबीयत ठीक नहीं। गुस्से में फेंककर चले
गये।"
चाची विस्मित। कल मेहमान आयी, शहरातू जवान औरत लड़के में ऐसे गुस्से मान की कौन बात, परन्तु पूछा, "अब कहवाँ गइल हा ।""
चाची के प्रश्न के अभिप्राय के अनुमान से उत्तर दिया, "कह गये, कुछ ज़रूरी काम है। लीटने का भी इंतजाम करना होगा।
फर्श पर गिरी जलेबियों पर बहुत मक्खियाँ आ गयी थीं। चाची जगह साफ करने के लिये लाडू लेकर आयी तो उषा संकोच से उठ गयी। चाची के नन्न करने पर भी झाड़ू लेकर जगह साफ कर जलेबियाँ कूड़े में डाल दीं। इतना ध्यान बँटने से दूसरा खयाल आया, वो थाने पर झण्डा लगाने चला गया तो लौटेगा कब? हम लोग चलेंगे कैसे? सिर चकरा गया। बरामदे में खाट पर लेटकर चेहरा आँचल से ढंक लिया।
गोबिन्द सिंह और शुजा अहमद शहर घूमकर एक बजे लौटे। चाची ने संक्षेप में उनकी अनुपस्थिति में हुए काण्ड की सूचना पति को दे दी। प्रसाद में आयी जलेबियाँ दिखायीं। शुजा भी सुन रहे थे। ऐसी बात में चाची को उनसे क्या संकोच ।
गोविन्द ने उपा से सहानुभूति में पूछा, “क्यों ऐसी क्या बात हुई? बिरजू कहाँ गये हैं?" उपा को बचपन के संस्कारों से झूठ बोलने में झिझक, परन्तु उस स्थिति में मज़बूरी । क्षमा के स्वर में बोली, "मैंने कोई ऐसी वैसी बात नहीं कही। सुबह चल देना था। ये ही कहा, तुम्हें जलसा मनाना था कि हमारे चलने का प्रबन्ध करना था। हमें उन्नीस को बनारस पहुँचने का निर्देश है।"
शुजा अहमद ने उपा को तसल्ली दी, “बेटी, आशा से बड़ी सफलता अप्रत्याशित बातें। शहर ही उत्साह के उन्माद में आखिर तो लड़का संगत का भी असरा घबराओ मता आने दो, समझायेंगे। उसने जिम्मेदारी ली है तो पूरी क्यों नहीं करेगा।" बिरजू की चाची की ओर देखकर स्थानीय बोली में उसका भी समाधान कर दिया।
चाची ने खुशी के अवसर पर भात के साथ कढ़ी और भुरता तैयार किया था। दोनों मर्दों को खिलाकर चाची ने उषा से खा लेने के लिये अनुरोध किया। उषा के दो बार अनिच्छा प्रकट करने पर चाची ने इस बात की भी शिकायत पति से कर दी।
खाने से इनकार करने पर गोबिन्द सिंह ने उषा को समझाना चाहा। उपा ने कहा, "बिरजू भाई आ जायें "।
“अरे, उसका क्या पता! आज शहर में कोई होश में है। सवारी का प्रबंध करने गया है। कहीं दोस्तों ने दावत में घेर लिया हो। आदमी बेवस भी तो हो जाता है।"
चाची ने उषा के लिये वाली में भात के साथ कढी, भरता परोस दिया था। उपा को उस दिन यो भी भोजन से अरुचि जब से आयी थी, दोपहर में रोज ही खाने को भात मिलता था। उपा छुरी-काँटे चम्मच से खा सकती थी। बचपन से चपाती से तरकारी, दाल हाथ से ही खायी थी. लेकिन चावल सदा चम्मच से ही खाया था। दाल-कड़ी में भात मिलाकर खाते समय स्वाद अच्छा लगने पर भी उँगलियों के सन जाने से मन उचाट होता था। खाया न जा रहा था। कुछ मालूम न हुआ, क्या वा रही थी। चाची की नज़र बचाकर उठी और बाली खाली कर धो दी।
शुजा अहमद और गोविन्द सिंह ने भी एक-एक गिलास भाँग पी थी। जलेबी खायी, फिर डटकर कही भात। दोनों गहरी नींद में सोये तो पाँच से कुछ पूर्व उठे। उनके उठते ही चाची ने विरजू के न लौटने की शिकायत की।
गोबिन्द सिंह शुजा के साथ बिरजू का पता लेने निकल गये। लगभग सात बजे लौटे। दोनों चिन्तित । पता लग गया था, बिरजू कुछ जवानों के साथ दस बजे हल्दी की ओर गया था। उस गिरोह में से कोई भी न लौटा था। गोविन्द ने चिन्ता से कहा, "हल्दी आठ-नौ मील दूर। फिर झगड़े का मामला। अभी दो-तीन घंटे से पहले कुछ कहना कठिन वहाँ जाने क्या हुआ?"
बिरजू की चाची आंखों पर आँचल रखकर सुबकने लगी। उषा मौन, परन्तु चिन्ता से बहुत व्याकुल। गोविन्द भी व्याकुलता में निष्क्रिय न बैठ सके। विरजू का पता लेने फिर वल दिये। शुजा भी सहानुभूति में मित्र के साथ।
मास्टर गोबिन्द सिंह और शुजा अहमद बलभद्र दुबे के यहाँ से लौट रहे थे। भुजा, सरूपचंद की गली के सामने ठिठक गये। बोले, "तुम चलो, हम दो मिनट में सरूपचंद के यहाँ कल सुबह सवारी के लिये बात करके आते हैं।" संरूप का बड़ा लड़का चेतन शुजा का विद्यार्थी रहा था। वैसे भी लाला सरूप मास्टर का बहुत आभारी। वह एक गोपनीय प्रसंग सेठ सरूप का इक्का घोड़ा नगर में मशहूर थे कि डाक गाड़ी के इंजन को मात दे दे। एक बार शुजा ट्रेन से रह गये तो सरूप के इक्के ने बाईस मील का रास्ता दो घंटे से भी कम में तय कर दिया था। अगस्त में पिपराघाट का पुल नहीं रहता, लेकिन इक्का दस मील तो पहुँचा सकता था। शेष रास्ता पैदल तीन-चार घंटे का सरूप के यहाँ शुजा इक्के के लिये जाना चाहते थे।
मास्टर गोविन्द लौटे तो साढ़े आठ हो रहे थे। अँधेरा गहरा गया था। पति के साथ बचवा के न लौटने से बिरजू की चाची के रुके आंसू फिर वह चले। गोविन्द ने समझाया, "फिजूल परेशान मत हो। उसके साथ गये लोगों में कोई भी नहीं लौटा। इन लोगों की
गदहपचीसी की उम्र अब आते ही होंगे।"
गोविन्द उषा की ओर घूम गये, "हम और शुजा यह पता लेने के लिये भी घूमे कि आप बनारस लौटने की जल्दी में हैं, क्या उपाय सम्भव। लोग कह रहे हैं, रेल तो खत्म। लोगों ने सड़क और छोटे-छोटे पुल भी तोड़ दिये। अब तो बैलगाड़ी, इक्का ही सम्भवा जगह-जगह राह में पानी!"
मास्टर गोबिन्द बताने लगे: शहर के कांग्रेसियों को तो बात सुनने की भी फुर्सत नहीं, उन्हें दूसरा नशा या फिक्र किसे कौन ओहदा मिलेगा, कौन क्या बन सकेगा। सभी अपनी देश सेवा और कुर्बानी के मुआवजे की फिक्र में चित्तू कलक्टर बन गये। सभी को फ़िक्र- डिप्टी कलक्टर, तहसीलदार, नायब, इंस्पेक्टर, थानेदार, आनरेरी मैजिस्ट्रेट कुछ तो बन सकें। कुछ तो पुलिस कांस्टेबल या चुंगी की इंस्पेक्टरी ही सही। सब इसी में पागल ।
उषा की और घूमकर बोले, "आपने कहा, आप दोनों का बनारस के लिये चल देना लाज़िम था। वह अहमक नशे में मेरे साँप पर लाठी मारने दल-बल लेकर आठ मील गया है। यहाँ हम लोग परेशान कि आखिर अब तक लौटा क्यों नहीं। "
बाहर से भुजा की पुकार सुनकर गोविन्द ने भीतर बुला लिया। खाट पर पैताने खिसक शुजा के लिये जगह कर दी। शुजा से सरूप के मिलने के बारे में पूछा।
गोबिन्द सिंह की ओर संकेत कर उषा को सुनाने के अभिप्राय से शुजा बोले, "इनसे आपने सुन लिया। लगता है, शहर में किसी का दिमाग ठिकाने रहा ही नहीं "गोविन्द की ओर देखा, "यह बिरजू पालिटीशियन बनते हैं। अहमक को खयाल न आया, जिले के ग्यारह थानों में से आठ ने सरेण्डर कर दिया तो बाकी तीन थाने क्या कर लेंगे! जिला से कलक्टर का जो हुक्म होगा, उसकी उदूली कोई थाना कैसे कर सकता है? बस भाँग की झक, फतह के नशे और चंग पर।"
उषा को लगा, शुजा उसी को सुनाकर कह रहे हैं सब गलती उसी की, उसी की वजह से सब परेशान सुबह बलिया से न चल सकने में उसी की गलती । "सरूप के यहाँ क्या हुआ?" गोविन्द ने फिर पूछा।
शुजा यंग लेडी की उपस्थिति के विचार से मुँह में आयी गाली निगल गये, "पूरा शहर नशे की वजह से धुत्त । सरूप ने कहा है कोशिश तो ज़रूर करेगा, लेकिन उसका साईस बुद्धन सुबह से मुफ्त भाँग और जलेबी के चक्कर में गायब कौन जाने पीकर कहाँ पड़ा है। सुबह तक भी होश में आयेगा या नहीं। भैया, सरूप का इक्का न हो, हम कल जा रहे हैं। चाहे बाईस मील चलना पड़े। पखवाड़ा हो गया घर से निकले। सितारा की माँ की जाने क्या हालत हो! जानते तो हो वह दमा की मरीज
बाहर के दरवाज़े पर दस्तक गोविन्द मास्टर के यहाँ आने की इत्तला देने के लिये दस्तक के तकल्लुफ का रिवाज न था। लोग बाहर से 'मास्साब!' या 'मास्साब गोबिन्द सिंह जी' कहकर पुकार लेते। उस समय दरवाज़ा भी खुला था। आने वाले ने दस्तक दी तो गोबिन्द बरामदे में चले गये।
गोबिन्द के चले जाने पर बात समाप्त हो जाने से आँगन में सन्नाटा। बिरजू की चाची के सुबकने की आवाज और ऊँची सुनाई देने लगी। शुजा भी उठकर बरामदे की और चले गये। उपा की अवस्था पिंजरे में फैंसी, बाहर निकलने के लिये व्याकुल चुहिया जैसी तिस पर
शुजा अंकल ने बिरजू को मूर्खतापूर्ण काम पर भेज देने की ज़िम्मेदारी उसी पर डाल दी थी। उसे कुछ समझ न आ रहा था क्या करे?
उषा चिन्ता में उड्डी हथेली पर टिकाये खाट पर बैठी थी। लग रहा था, कल्प और युग बीत गये। शुजा और गोबिन्द बरामदे से प्राय: पन्द्रह मिनट बाद आँगन में लौटे। कदमों की आहट से उपा की नज़र उनकी ओर उठी।
गोविन्द आस्तीनों और दामन से बार- बार बिलखते बालक की तरह आँखे पोंछ रहे थे। शुजा बायीं बाँह से गोविन्द की पीठ को सहारा दिये थे और दायें हाथ से मित्र की बाँह पकड़े भीतर ला रहे थे। उनकी अपनी आँखों में आँसू चाची ने देखा तो चीख मारकर सिर पीट लिया। जब शब्द असमर्थ हो जाते हैं, वातावरण और मुद्रा मुखर होते हैं। भुजा ने गोविन्द को खाट पर बैठाकर सान्त्वना के कुछ वाक्य कहे।
उपा की ओर देखा, "बेटा, जरा सुनो!" दस कदम बरामदे की ओर ले गये। बोले, "बेटा, सर्वथा अप्रत्याशित घटना से सब योजना गड़बड़ बिरजू शहीद हो गया या खेत रहा, जो समझ लो यहाँ से दस-बारह लड़के गये थे। समीप गाँवों से दो अड़ाई सौ की भीड़ लेकर थाना घेर लिया। थाने वाले दो दिन पहले उससे बड़ी भीड़ को भगा चुके थे। पाँच बन्दुकची सिपाही थाने की छत पर चड़ गये। उन लोगों ने भीड़ के समीप आ जाने पर भाग जाने को धमकाया। भृगु मन्दिर मुहल्ले के पतिराम ने भीड़ को नारा दिया, 'भारत माता की जय!" अंग्रेजी राज मुर्दाबाद और भीड़ के आगे हो गया। भीड़ और आगे बड़ी भीड़ पचास कदम गयी तो पुलिस ने गोली चला दी। पतिराम पहले फायर में गिर गया। बिरजू ने कमर से तमंचा निकाल लिया। तमंचा लिये हाथ उठाकर आगे बढ़ने के लिये ललकारा। पुलिस की गोली के जवाब में उसने भी गोली चलाकर भीह का हौसला बढ़ाया। विरजू थाने से दस कदम पर था। पुलिस ने उसी को निशाना बनाकर गोली चलाई। एक गोली उसके सिर में, दूसरी पेट में लगी। भीड़ के कदम उखड़ गये।
"लोग पतिराम का शरीर यहाँ ले जाये। बिरजू के पहचानने वाले उसका शरीर एक लडिया पर उसके गाँव बनली ले गये। गोविन्द और चाची का एकदम वहाँ जाना जरूरी।"
शुजा ने और कहा, "गोबिन्द की हालत तो तुम देख रही हो। इस समय तुम्हारे लिये सफर नामुमकिन्न। हम कोशिश करते हैं, तुम्हारे लिये यहाँ मुनासिब जगह पर दस-पन्द्रह दिन के लिये प्रबन्ध हो जाये। इस वक्त गोविन्द भाई के साथ हमारा जाना जरूरी। हम जल्द लौट आयेंगे। दूसरा और कोई रास्ता नहीं। "
उपा का सिर चकरा कर शरीर काँप गया। गले में यत्न से आँसू रोककर बोली, “अंकल, मैं गोबिन्द अंकल और यहाँ के लोगों के लिये आफत बन कर आयी। बिरजू मेरे लिये सगे भाई से अधिक थे। अंकल और आंटी से मेरी पूरी सहानुभूति। इस संकट में उनके समीप न रहने का अपराध कर रही हूँ, परन्तु मजबूरी में आप मेरे लिये अपनी बेटी की तरह चिन्ता कर रहे हैं। जानते हैं, घर-बार बच्चे को छोड़कर यहाँ सिर छिपाने नहीं आयी। मुझे उन्नीस अगस्त को बनारस पहुँचने के आर्डर थे। लाचारी में चूक हो गयी। अब आपसे एक ही अनुरोध, मुझे किसी तरह बनारस के रास्ते पर पहुँचा दीजिये। फिर जो हो! यत्र तो अवश्य करना चाहती है। खर्च की परवाह नहीं।"
"अच्छा बेटा, सोचते हैं।" शुजा उठकर गोबिन्द के समीप जा बैठे। गोबिन्द अपने दुख
के बावजूद इस कठिन समस्या और उत्तरदायित्व पर विचार के लिये मजबूर
उषा सहानुभूति में चुपचाप जाकर चाची के समीप गर्दन झुकायें बैठ गयी। बोलने में असमर्थ, परन्तु उस शोक में अन्तरतम से सहयोगी।
शुजा ने आधी रात के लगभग सलाह-मशविरा और सोच-विचार कर फिर उपा को एक और बुलाकर स्थिति स्पष्ट की—
"यहाँ से सड़क के रास्ते बनारस सौ मील। रास्ते में कई पुल तोड़ दिये गये हैं। तुम्हारे लिये सौ मील कों और दूसरी सवारियों पर अकेले जा सकना व्यर्थ कल्पना। तुम्हें मंजूर हो तो हम दोनों की राय हैं, तुम हमारे साथ पश्चिम गंगा किनारे हमारे गाँव चलो। हमारे गाँव से गंगापार बिहार का इलाका सुना है गंगा के उस ओर कलकत्ता- बम्बई, पेशावर तक रेल चल रही है। हम तुम्हें गंगा पार कराकर बनारस या जहाँ के लिये चाहें, रेल में बैठा देंगे। बेटा, इससे अधिक हमारे बस में नहीं।"
उषा ने तुरन्त अनुमति दे दी।
शोक समाचार लाने वाले जवान मास्टर गोबिन्द के तुरन्त बनली गाँव जा सकने के लिये प्रबन्ध में लग गये थे। दस-बारह लोग सम्वेदना में साथ जाने के लिये प्रस्तुत डेढ़-दो मील सड़क के बाद रामपुर गाँव का नाला लाँघकर कच्चा रास्ता उत्साही जवानों ने यात्रा के लिये उचित साधन जुटा लिये थे। वे लोग पहर रात चल देने को तैयार। विचित्र स्थिति कि लोग रात में भी सफर के लिये निश्शंका वर्ना पुलिस का दबदबा और पहरा रहते भी बलिया के देहात में रात में यात्रा दुस्साहस। कांग्रेस राज की डोंडी पिट जाने के बाद से चोरी, लूट-पाट, फौजदारी सहसा बंद
गाँव जाने की सब तैयारी के बावजूद मास्टर गोबिन्द अपने मेहमान शुजा और उनकी बेटी के रवाना हो जाने के बाद ही चल सकते थे। शुजा से परामर्श के बाद से गोविन्द उपा को मास्टर शुजा की बेटी ही कह रहे थे।
सम्वेदना सान्त्वना के लिये कई पड़ोसी आ गये थे। दो पड़ोसिनें भी आधी रात तक ठहर-ठहर कर सुबकती सिसकती चाची के समीप सान्त्वना में आँचल से आँसू पोंछती रहीं। उषा भी उनके समीप गर्दन झुकाये बैठी रहने के लिये मजबूर। आधी रात पड़ोसी चले गये तो चाची और उषा कमर सीधी करने के लिये खाट पर जा लेटीं। उपा सुबह से कुछ खा न सकी थी, परन्तु अब भी भूख नहीं थी। सिरदर्द गहरी नींद में बदल गया ।
अगस्त में, खासतौर पर पूर्व में सूर्योदय जल्दी हो जाता है। उषा की आँख खुली तो सामने खपरैल खाई छत पर सूर्य की किरणें फैल रही थीं। सिरदर्द न था, परन्तु शरीर में टूटन । मास्टर गोबिन्द, चाची और एक नौजवान यात्रा के लिये बाँधाधी कर रहे थे। मास्टर गोबिन्द ने समीप आकर उषा को बताया: शुजा बेटी की ससुराल में ख़ुदा हाफिज़ कहने और सफर के प्रबन्ध के लिये गये थे, आते ही होंगे और कहा, चापाकल (हैण्ड पम्प) से दो बाल्टी पानी भरवा दिया है, चाहो तो नहा-धो लो।
उषा ने सुस्ती दूर करने के लिये आँगन में बनी टटिया की आड़ में पानी से बदन पोंछ लिया। मास्टर ने एक कटोरे में दही-चूड़ा उसके सामने रख दिया, "बेटा, तुमने रात को कुछ नहीं खाया। बाईस मील का सफर है। इस मौसम में पहुँचते साँझ हो जायेगी। पेट में कुछ रहना ठीक है।"
उषा यत्न करने पर भी पूरा कटोरा खा न सकी। अपना बक्सा ठीक कर, साड़ी पर चादर लिये चलने के लिये तैयार बैठी थी। मन बहुत उदास" यहाँ हत्या का पाप निर लेने आयी थी।
मास्टर शुजा आधे घंटे बाद लौटे तो बगल में एक गठरी लिये थे! शुजा ने उषा को संकेत से बुलाकर सामने समीप दूसरी खाट पर बैठाया, "बेटा, हमारा अनुरोध है, अपनी जान की खातिर, कुछ तुम्हारे हित में तुम्हें यहाँ गिने-चुने लोग ही पहचानते हैं, लेकिन शहर में हमें जानने वाले बहुत तुम्हारी पोशाक हिन्दुआना। लोग इसे पर हमारे साथ तुम्हें देखकर हैरान होंगे, शहर में फसाद की आशंका कम, लेकिन चुंगी और कटहर नाला पुल के उस पार कौन जाने क्या हो !"
उपा ने सुना था और शुजा ने संक्षेप में याद दिलायाः शहर और मंडियों में हड़ताल के सवाल पर हिन्दू और मुसलमानों में तनातनी बहुत बढ़ चुकी है। इस वक्त मुसलमान दव गये हैं, लेकिन हिन्दू बदले के मौके की तलाश में यहाँ तक धमकी कि लालमुँह के बन्दरों को समझ लें फिर जिला में एक कटुआ देखने को नहीं मिलेगा। दंगा-फसाद, लूट-पाट शोक- शुगल; पुराने बैर निकालने के बहाने। ये बलिया जिले, यहाँ लोग बात बाद में करते हैं, पहले उठाते हैं लडु!
शुजा ने बताया, "यहाँ देहाती मुसलमान औरतों की पोशाक शुल्ला साड़ी (सलूका- धोती) मात्र, वो तुम्हारे बस की नहीं। शहर में हमारी छोटी बिटिया की ससुराल है। तुम रेल-दो बरस बड़ी होगी. लेकिन कद काठ में तुम्हारा नमुना । हुम तुम्हारे लिये उसके दो कुर्ता-पाजामा और चादर ले आये हैं। तुम कपड़े बदल लो तो वो अन्देशा न रहे। अपना पर्स, सैंडल बक्से में डाल लो। एक बात और, अब सफर में हमें अंकल नहीं पुकारना, अब्बा कहना; चाहे चच्चा कह सकती हो। बेटा, परेशानी तुम्हें ज़रूर होगी, लेकिन मर्द या औरत जो भी सामने आये, घूंघट खींचे रहना वर्ना तुम्हारी अनविधी नाक ही लोगों के लिये अजूबा यहाँ बहू-बेटियाँ भी बड़ी उम्र की औरतों से अदब में घूंघट करती हैं।"
"उषा ने कोई आपत्ति न की। कोठरी में जाकर कपड़े बदल लिये।
शुजा ने समझा दिया, "जरूरत पड़े तो अपना नाम लाला बताना, खाविन्द का नाम करामतउल्ला, हमारी बेटी सितारा की जेठानी। पैदाइश वर्मा, मायका धनबाद।"
लाला सरूपचंद ने अपनी बात रखी। शुजा सब तैयारी करके इक्के की तलाश में निकल रहे थे तब तक सरूपचंद का साईस बुद्धन इक्का ले आया। उषा ने मास्टर गोविन्द सिंह और चाची से विदा ली तो उसकी आंखों में पश्चात्ताप, सम्वेदना और कृतज्ञता के झरने बह रहे थे। घर की ड्योढ़ी में स्वतंत्रता संग्राम में जूझने के लिये साहस से गर्दन उठाये प्रवेश किया था स्वतन्त्रता तो पावी, परन्तु हत्या के अपराध की भावना मन को कचोट रही थी। मास्टर गोबिन्द, शुजा और उषा को विदा करके इक्के पर सम्वेदना में आये लोगों के साथ बनली के लिये चल दिये।
बुद्धन ने खुली सड़क पर घोड़े को चाल दिखाने का अवसर दिया। पौन घंटे में फेफना की बस्ती लाँघकर पिपराघाट पर पहुँचे। जून के अन्तिम सप्ताह में ही घाट का पुल टूट जाता है। इक्का पिपराघाट पहुंचा तो दिन का पहला पहर समाप्त हो रहा था। गनीमत कि
उस दिन घने बादल।
भाग्य की बात, बुद्धन का इक्का तेज़ चलने पर भी कुछ मिनट लेट रहा। इक्का पिपराघाट के किनारे पहुँचने से कुछ पहले दोनों नावें मुसाफिर लेकर छूट चुकी थीं।
दूसरी और से नावों के लौटने और इधर पर्याप्त मुसाफिर हो जाने में अढ़ाई घंटे समय लग गया। उषा थकान से निहाल, माथे से घूंघट खींचे, बक्स पर बैठी प्रतीक्षा कर रही थी। नदी में वर्षा के जल का बहाव तेज था। नाव नदी पार सड़क पर घाट से डेढ़ फर्लांग नीचे जाकर लगी। सड़क तक जाने के लिये नदी की रेती लाँघना जरूरी। शुजा ने बक्स कंधे पर उठा लिया। लाला को पाँव रेती में धँसने से चलना भी दुश्वारा रेत और झाड़ियाँ लाँघकर सड़क तक दो फर्लांग पैदल चलना पड़ा। लाला की साँस फूल गयी। चेहरे पर घूँघट बनाये रखने की मज़बूरी के कारण सॉस में और कष्ट
सड़क पर आध मील चलने के बाद सामने से आती एक लड़िया दिखायी दी। लड़िया चितवडा गाँव मंडी अनाज से जा रही थी लड़िया में काफी जगह शुजा और लाला चितबड़ा गाँव मंडी तक के लिये लड़िया पर बैठ गये।
चितबड़ा गाँव मंडी के स्कूल में शुजा अहमद के पुराने सहयोगी इमामदीन मास्टर थे। उजियार में इमामदीन शुजा के मातहत काम कर चुके थे, शुजा से पायी सहायता के लिये आभारी इमामदीन का मकान अनाज मंडी के पिछवाड़े ही था। मंडी में लड़िया छोड़कर शुजा बक्स कंधे पर उठाये लाला को सौ कदम इमामदीन के यहाँ ले गये। इमामदीन के दरवाजे पर ताला। शुजा वहाँ लाला को कुछ विश्राम देकर आगे सवारी के प्रबन्ध में लिये आये थे। इमामदीन के दरवाज़े पर ताला देख समझ गये, जिलाब्यापी हड़ताल में इमामदीन भी छुट्टी मनाने घर चला गया है। और मुसीबत, इमामदीन के खपरेल के बरामदे में कदम रखते ही जैसे सुबह से दम घोंटे बादल का सब्र टूट गया। मानो आसमान
फट पड़ा।
शुजा ने लाला को विश्राम के लिये बक्स पर बैठ जाने का संकेत किया, "हम पड़ोस में पता लेते हैं, इमामदीन यहाँ है या नहीं। आगे के लिये सवारी का भी पता करें। "
लाला बक्स पर बैठी तो शुजा को लगा, लुढक पड़ेगी। वह जुड़ी से काँप रही थी। झट आगे बढ़कर कंधे को सहारा दिया। दूसरा हाथ लाला की कलाई पर रखा "बेटी, तुम्हें तो जोर का बुखार "कहा क्यों नहीं!"
लाला के लिये बोल सकना कठिन । तब तक टूटहे छाते में सिर छिपाये इमामदीन आ गये। बहुत झुककर आदाब गले मिलकर खैरियत पूछी। घूंघट से चेहरा डंके लाला की तरफ नज़र गयी, "क्या बिटिया को लिवाने शहर गये थे?
शुजा ने बताया, "गये तो पेंशन के झगड़े से थे, लेकिन बिटिया का हाल देखा और ससुराल वालों की बेपरवाही बेचारी बहुत परेशान। दामाद ने भी ये ही बेहतर समझा, गाँव ले जाकर अपना इलाज करें। इसे रास्ते में तेज़ बुखार आ गया हैं।"
इमामदीन ने तुरन्त किवाड़ खोल एक कमरे में खटिया की तरफ इशारा किया, "बेटी को वहाँ लिटा दीजिये। पन्द्रह मिनट में भात हो जायेगा। सुबह की दाल तो है।" बता दिया, बीवी-बच्चे अगस्त शुरू में ही उसकी बीवी की छोटी बहिन की शादी के सिलसिले में जुरिया चले गये थे।
लाला भीतर खाट पर जा लेटी थी। कोठरी के किवाड़ मूंदकर मुँह पर से कपड़ा हटा सकने का अवसरा शुजा किवाड़ों पर दस्तक देकर लाला के कमरे में गये। नज़दीक फर्श पर बैठकर ब्यौरे से तकलीफ के सिस्टम पूछे। अपना टीन का डिब्बा खोलकर आधी टाक भर पानी में एक बूंद दवा खूब हिलाकर लाला को पिला दी, "बेटा, घंटे भर के लिये आँखें मूंद, सब कुछ भूलकर निश्शंक सो जाओ।"
इमामदीन ने अतिथि के स्वागत में नेचा ताजा कर दिया था। दोनों बारी-बारी से नेचे से कश लेते शहर के हालात के बारे में चर्चा करते रहे। लगभग बीस मिनट बहुत ज़ोर से पानी गिरा, फिर साफ हो गया।
शुजा ने अनुरोध किया, "इमाम भाई, घंटे-डेढ़ घंटे में सड़कों से पानी बह जाय तो एक लड़ियाँ उजियार के लिये कर दो। यहाँ उजियार से भी लड़िया आती रहती है। सलाह तो श्री गाँव-गाँव के रास्ते से निकल जाते, पाँच मील बच जाते, लेकिन इस बरसात के बाद सड़क ही ठीक रहेगी। डेढ़-दो घंटे में भी चल देंगे तो अँधेरा गहराने से पहले पहुँच जायेंगे।" “एक शाम तो हमारे यहाँ का रूखा-सूखा कबूल फरमाइये।" इमामदीन ने अनुरोध किया।
शुजा कैसे मान जाते! जवान बीमार औरत को पल-पल बाद मदद की ज़रूरत। जो आराम उसे माँ की मदद से मिलेगा, दूसरा कौन दे सकता है। उन्हें इस वक्त बेटी को घर पहुँचाने की जल्दी है। पाव भर दूध मँगवा कर उबाला लाला को राई जैसी सफेद गोलियाँ और दे दीं। लाला की तबीयत कुछ ठहर गयी थी।
शुजा जानते थे, दस बारह मील इडे पर बैठे इकोले खाते सफर करना लाला के लिये मुश्किल होगा। इसीलिये लड़िया किराये पर लेने का अनुरोध किया था। इमामदीन से माँग कर एक झूल (गद्दा लड़िया में उसके लिये डाल दिया था। ओढ़ने के लिये एक कम्बल भी ।
लड़िया को उजियार पहुँचते घना अँधेरा हो गया। उजियार में भी पानी बरसा था। गाँव की गलियों में कीचड़, गाँव के ऊपर उपलों और ईंधन के चिरांध भरे धुएँ की घटाटोप छतरी शुजा ने अपने मकान की ज्योड़ी के सामने लड़िया रुकवा कर किवाड़ों पर दस्तक दी। उन्हें लाला की चिन्ता के कारण जल्दी। दूसरी बार दस्तक दे रहे थे, क्योड़ी के किवाहों की झिरियों से भीतर से आते प्रकाश की झलके किवाड़ों की सॉकल गिरी तो सामने जवान मर्द। शुजा को विस्मय, उनके घर में केवल उनकी अस्सी लांघे कुबड़ी माँ और उनकी प्रो बीवी ।
किवाड़ खोलने वाले ने आगन्तुक को पहचानने के लिये हरीकेन लालटेन ऊपर उठायी, "आदाब अर्ज अब्बाजान!"
शुजा अहमद की ब्योड़ी के किवाड़ खोले थे, उनके बड़े दामाद गुलाम रसूल ने गुलाम रसूल नौ बरस पूर्व कानूनगो भरती हुआ था, उन्नति पाकर अब नायब तहसीलदार शुजा अहमद ने बलिया की रसड़ा तहसील पर बिना झगडे, खून-खराबे कांग्रेसी झंडा चढ़ जाने का समाचार सुना था, तभी गुलाम रसूल के बारे में खयाल आ रहा था किस हालत में होगा? अब दामाद को देखकर आशंका, क्या जान बचाकर भाग आना पड़ा? गुलाम रसूल फर्ज़शनास, ईमानदार सरकारी अफसर था।
पहला सवाल था, बीमार लाला को लड़िया से उतारकर भीतर पहुँचाने का पिता के साथ अनजानी बीमार औरत को देखकर गुलाम रसूल विस्मित। बलिया में उसकी छोटी साली सितारा थी। उसे पहचानता था। यह औरत साली की उम्र की, लेकिन सितारा न थी । जवान औरत को मदद देने के लिये गुलाम रसूल सान को पुकारने भीतर गया। लाला लड़िया में बारह मील तक झकोलों से बेहाल। शुजा ने बुखार की बेखवरी में उड़ गये लाला के चेहरे पर चादर का पल्ला खींच दिया।
गुलाम रसूल की सामने कुछ मदद की, कुछ खुद शुजा ने लाला को दोनों बाँहों से थामकर भीतर बरामदे में खाट पर लिटा दिया। लाला ने अब स्वयं आँचल चेहरे पर खींच लिया था। भीतर हरीकेन टिमटिमा रही थी। उनकी अपनी बैठक में रात में पढ़ सकने के लिये चिमनीदार किरासिन का लैम्प भी था।
ससुर की जिज्ञासा के समाधान के लिये दामाद ने बताया: सोलह तारीख दोपहर खबर पहुंची कि नरही के धाकड़ थानेदार सुन्दरसिंह ने कांग्रेसियों के आगे हथियार डालकर थाने पर कांग्रेसी झण्डा फहरा दिया। कई हज़ार की भीड़ ने रसड़ा तहसील थाना घेर लिये। थानेदार नबीउल्ला के हाथ-पांव फूल गये। उसने समझदारी से काम लिया। मंडी के कांग्रेसियों के आगे हाथ जोड़ दिये, हम तो पब्लिक के खादिम! आपकी सरकार तो आपका हुकुम बजा लायेंगे! जब पुलिस ही डर गयी तो तहसीलदार हीरा सिंह क्या करता। सच बात कांते- बछे लिये भीड़ का रंग-ढंग देखकर डर किसे न लगता। थानेदार को पहले ही दस्त लग गये। उसने हमसे राय ली हमने कहा, जैसे भी हो लॉ-आर्डर कायम रहना चाहिये। तहसील का खजाना बचाइये और सदर में इत्तला दीजिये। चौकीदार- चपरासी सब खौफ से लापता । भीड़ तो तहसील फूंककर खजाना लूट लेने के लिये बाबली । हमने मंडी के कांग्रेसियों को समझाया, अब यह खजाना आपका खजाना लुट जाने से बाज़ार, कारोबार की हालत क्या होगी? अब अमन, कानून और सरकारी खजाने और सरकारी साख की जिम्मेदारी आप पर है। राधेश्याम दुबे, पुत्तन पांडे, दुलारेलाल ने पब्लिक को समझाया, तहसील पर कांग्रेस का झण्डा तो खजाना कांग्रेस का अब खजाना लूटना देशद्रोह, गांधी जी के हुक्म के खिलाफ तहसीलदार, नायब तहसीलदार, थानेदार सब पब्लिक के नौकर तहसील खजाने पर कांग्रेसी मोहर लगा दी गयी। खजाने की चाबियाँ तहसीलदार के पास रहने दीं।
अठारह की शाम खबर मिली कि सदर में कांग्रेसी राज की मुनादी हो गयी। तहसीलदार ने हमसे कहा, चुपके से गांधी टोपी पहन कर रात में साइकल पर निकल जाओ। सदर की हालत देखकर खबर लाओ या हुक्म लाओ, हम लोगों का क्या फर्ज ?
"हमें चार रोज़ से पेचिश की शिकायत कमबख्त वहाँ डिस्पेंसरी में कोई दवा है ही नहीं। जगधर लाला से अमृतधारा लेने से तबीयत सम्भल रही थी। कल हम रात ग्यारह बजे साइकल पर रसड़ा से चले। छः मील आकर चिलकहर में एक लड़िया मिल गयी। उसी पर साइकल रखकर बैठ गये। लड़िया को पिपराघाट तक आना था। नाव से नदी पार करके फिर साइकल पर जिस्म टूट गया। सोच रहे थे, रात भर आराम करके वापसी में कोई सवारी ले लेंगे। हज़ार शुक्र ख़ुदा का अब्बा जान, आप आ गये। अब पहले आपसे मुनासिव दवा लेना जरूरी। हमें तो आपके ही डाइग्रोज और मैडिसन पर भरोसा। जान है तो जहान
गुलाम रसूल की सास ने खाविन्द को दामाद के साथ बातचीत में व्यस्त देख पति के लिये नेचा ताजा कर उनके सामने रखकर कहा, “बहुत अबेर हो रही है। जाने दिन भर कुछ खाया कि नहीं, हम खिचड़ी चढ़ा देते हैं।" और बरामदे में चूल्हे की ओर चली गयी थी। चूल्हे पर खिचड़ी चढ़ाकर छोटी पीड़ी लेकर मियाँ और दामाद के समीप आ बैठी थी। दामाद ने सास को संक्षेप में जो कुछ बताया था, उससे समाधान न हुआ था। अब ध्यान लगाकर सुन रही थी, लेकिन कठिनाई यह कि दामाद पाँच शब्द भोजपुरी में बोलता तो दो उर्दू में और तीन अंग्रेजी में
" दामाद की बात सुन शुजा ने दामाद के पेट के कष्ट के लक्षण पूछे। सोचकर बोले, “बरखुरदार, तुम्हें पोडोफॉइलम देकर देखते हैं। सुबह तक उसका असर मालूम हो जायेगा। ज़रा लाला को देख लें। बीमार थी, मज़बूरी में लेकर आना पड़ा। सफर में तबीयत ज्यादा खराब हो गयी।"
शुजा ने लाला की खाट के समीप बैठकर उसकी नब्ज़ देखी। फिर दो-चार सवाला दामाद या बीवी से बातचीत के बजाय लालटेन के सामने अपना टीन का डिब्बा खोलकर बैठ गये। बैठक से खाली शीशी लाकर दामाद के लिये दो तोला जल में दो खुराकें तैयार कीं। सरसों के दाने सी सफेद गोलियाँ लाला को निगलवा दीं।
मास्टर शुजा अहमद न किस्सागो थे, न फसानानवीस दामाद और लाला को दवा देते मज़बूरी में किस्सा सोच रहे थे। बात उन्होंने शुरू मे सोच रखी थी। अब उसी को समयानुकुल बढ़ाया। खाट पर बैठते ही बीवी को सुनाकर दामाद से बोले, लाला को तो जानते हो?"
"वो लड़की न, जो अब्दुल गफूर के बड़े भाई करामतउल्ला धनबाद से शादी करके ले आये हैं?"
"हाँ वही " शुजा ने हामी भरी। दामाद के सामने गाली निकल गयी। "नामाकूल नाकारा, हरामजादा एक बीबी बच्चे और खुद का पेट पालने की औकात नहीं दो वेगमें रखने के अरमान। पच्चीस रुपये पर क्लकीं कर रहा था। खैर, इस लड़की के बालदैन उसके पड़ोसी थे। इस लाला की तीन बहनें। बाप इसका सिंधी हो या गुजराती। दो पुश्त से बर्मा में तेल कम्पनी के इंजीनियर की नौकरी में था: इंजीनियर का खानसामा इंजीनियर वर्मा से भागा तो खानसामा के बाल-बच्चों को साथ लेता आया। लड़की का पहला खाविन्द शादी के फौरन बाद वहाँ ही जाता रहा था। करामत ने इससे निकाह कर लिया और बलिया से आया। जानते हो, गफर चलती रकम है। उसने जाने कैसे भाई को फौज में क्लकीं दिलवा दी, वो भी कमसिरिवेट में देखें कितने दिन निवाह पाता है। साठ रुपया माहवार तनख्वाह मुफ्त राशन-वर्दी दोनों बीबियों के लिये तीस रुपया माहवार बजाने से मिलता है। इस गरीब के हाथ एक पैसा नहीं।
"करामत की पहली बीबी से दो बच्चे। उसे ये फूटी आंख नहीं सुहाती। हमसे सितारा ने जो कहा, क्या बतायें। बोली, अब्बा आप इसे ले जाइये। गफूर की भी ये ही राय नहीं तो पहली बीवी किसी रोज इसे खत्म कर देगी। सितारा को तो शक, वो इसे चोरी से कुछ खिला देती है, इसीलिये जो दवा दिलवाते हैं सब बेकार। इसकी मौत का अज़ाब होगा सो
अलग, कहीं खानदान ही न मुसीबत में फँस जाये। उस औरत को समझा सकना किसी के बस का नहीं।
"सितारा ने रो-रोकर कहा अब्बा, अपनी समझ से दवा और खुराक दीजिये । महीने- डेढ़ में सम्भल जाये तो इसके मायके पहुँचा दीजिये। जब बड़े भाई (करामतउल्ला) आयेंगे, वो जानें उनके मामले जानें।"
शुजा ने दामाद पर सुबह तक दवा का असर देखकर अगले दिन दवा बदलना जरुरी न समझा, लेकिन सफर की इजाजत न दी गुलाम रसूल को बहुत फायदा गुलाम रसूल को अपने फर्ज़ में कोताही से कोफ्त, उसे संध्या तक बलिया जाने की जल्दी ।
मास्टर शुजा को चिन्ता, कमज़ोर सेहत में सफर की मेहनत से दामाद की तकलीफ फिर न उभर आये। यों तो बीस तारीख दोपहर से पूर्व दामाद के साथ उपाध्याय जी के यहाँ सलाम और खैरो-आफियत पूछने के लिये पहुंचे थे। उजियार में कोई भी सरकारी अफसर या बड़ा आदमी, हिन्दू या मुसलमान आता तो उपाध्याय का ही मेहमान होता। रिटायर्ड सिटी मजिस्ट्रेट और बड़े जमींदार की प्रतिष्ठा के अतिरिक्त उपाध्याय की अवसर अनुकूल शालीनता और रसूख का भी प्रभाव।
यों तो उजियारे के कौलेश्वरनाथ राय भी अच्छी हैसियत के ज़मींदार और रिटायर्ड जज वे स्वयं को उपाध्याय से बित्ता भर ऊँचा मानते। स्वभाव में कुछ अहंकार और रूखापन । कौलेश्वर भी दबंग राजभक्त, जैसे अंग्रेज अमलदारी उन पर निर्भर करती हो । उनका भी रोब- दाब बहुत लेकिन लोग उनसे गोह लागिला, जयराम जी या सलाम के अवसर की चाह के बजाय रास्ता काटकर निकल जाना पसंद करते।
उस समय शुजा मदद के लिये उपाध्यायजी के यहाँ गये थे। उनका अपना इक्का और अपना रब्बा बैल जुता रथ। शुजा चाहते थे, दामाद को पिपराघाट तक सुविधा से पहुँचने का उपाय हो जाये।
रघुनन्दन उपाध्याय ने मास्टर शुजा और उनके दामाद नायब तहसीलदार को भी बैठक में बुलवा लिया। उपाध्याय का चेहरा, आँखें पूरी मुद्रा गहन चिन्ता की मूर्ति। "सरकार, तबीयत तो ठीक है। हमने बेवक्त आकर आपको तकलीफ दी। " शुजा उपाध्याय को चालीस बरस से मालिक या सरकार ही सम्बोधन करते आये थे।
ने
उपाध्याय ने शुजा और गुलाम रसूल को समीप बैठने का संकेत किया। अति अवसाद में भी आत्मीयता का भाव।
बहुत दुख से साँस लेकर बोले, "ऐसी नालायक औलाद का न होना भला ।" अपनी गहरी चिन्ता बतायी। शुजा कुछ पहले भी सुन चुके थे। उपाध्याय का मँझला बेटा जगन्नाथ और एक पौत्र रवीन्द्र गाँव में थे। वे कांग्रेस का झण्डा उठाये बागियों के नेता बने फिर रहे थे। गड़वार थाने पर हमले में भीड़ के आगे वही दोनों
उपाध्याय ने बेटे और पौत्र दोनों को डाँटा था: यह तुम्हारी क्या हिमाकत! जानते हो, हम रिटायर्ड सरकारी हाकिम तुम्हारे दादा नाना की दो पीढ़ियाँ सरकार का नमक खा रही हैं। हम लोग जो कुछ हैं, सरकारी परवरिश से तुम उसी सरकार के खिलाफ बगावत का जुर्म कर रहे हो। जुर्म ही नहीं नमक हरामी । इन्सानियत से गिरी हरकत यह सब करना है तो हमें तुम्हारी शक्ल देखना नागवार । जगन्नाथ गुस्से में घर छोड़कर भाग
गया। पूरा कांग्रेसी बागी बन गया।
शुजा सहानुभूति में बोले, "मालिक, ये लड़कपन की नादानी है। बजाय यों फटकारने के समझाना चाहिये था। लड़का समझदार है। लोगों का दिमाग ही फिर गया है। हमें तो ताज्जुब इन कांग्रेस लीडरों पर हमेशा समझदारी की पॉलिसी रखते रहे और इतनी कामयाबी हासिल की। वर्ना आज से दस साल पहले के ही हालत याद कीजिये ।"
"हमें भी लोगों की नादानी पर हैरत ।" उपाध्याय बोले, "इस बीस-पच्चीस मील रकवा के दोआब को ही दुनिया समझ लिया। सन् उन्नीस के पंजाब के दंगे के नतीजे भूल गये! तब से आज की स्थिति और साधन में कितना फरक। यह सब कलक्टर की चालाकी है। चार नहीं दस दिन में तो खबर पहुंचेगी। फौज भी कोई चीज होती है। इन्हें मशीनगनों और तोपखानों का कुछ बयाल ही नहीं। किसी छावनी से चार हवाई जहाज़ भेज दिये तो पूरे जिले में इन्सान और हैवान का नामोनिशान न रह जायेगा। सरकार तो 'स्कॉच अर्थ पॉलिसी' के लिये पहले से तैयार "।"
शुजा और गुलाम रसूल ने सबसे पहले उपाध्याय की राय सुनी ऐसी हालत में अपनी जरूरत की बात क्या कहते! उठने के लिये इजाजत ले रहे थे। उपाध्याय ने पान पेश कर पूछ लिया, “आप लोगों ने कैसे तकलीफ की ?"
शुजा ने झिझकते झिझकते बता दिया। उपाध्याय ने गुलाम रसूल की फर्जशनासी की तारीफ की। उसी समय कारिन्दे को बुलाकर हुक्म दे दिया, "रब्बा हो तो बेहतर वर्ना फौरन दक्का जुतवा कर मास्टर साहब के यहाँ भिजवा दिया जाय।"
लाला की जुड़ी इक्कीस की सुबह ही दूर हो गयी थी, लेकिन बुखार उतना ही। वैसी ही बेहोशी । शुजा को अन्देशा लड़की को टाइफाइड तो नहीं है। उस सुबह दवा बदल दी। शुजा की माँ और बीबी परेशान, क्या मुसीबत ले आये। इनकी तो आदत, सड़क किनारे पड़ी मुसीबत को हँसली की तरह गले डाल लें।
शुजा की नयी दवाने असर दिखाया। दूसरे दिन सुबह लाला का बुखार एक सौ तीन डिग्री पर आया था। सिरदर्द में बहुत फरक शाम तक एक सौ दो, लेकिन बरामदे में पड़ी खाट से उठने में असमर्थ होश रहते किसी औरत को आंगन में आते देख चेहरा ढंक लेने की मजबूरी। उजियार हिन्दू गाँव, बस एक दर्जी और स्कूल के दो मास्टर मुसलमान आठ बरस से डाकखाना भी खुल गया था। इन्हीं मास्टरों में से इब्राहीम पोस्ट मास्टर भी। दो घर मेहतरों के। शुजा उजियार के स्थायी निवासी। उनके यहाँ हिन्दू औरतें ही कौन आती थीं। साँझ सकारे पानी के चार-चार घड़े देने के लिये कहारिन और सातवें दिन धोबिन ।
तेईस अगस्त की सुबह लाला का बुखार सौ तक गिर गया। होश- हवास दुरुस्त, परन्तु मन में भारी चिन्ता उन्नीस को बनारस पहुँच न सकी अब क्या उपाय? शरीर से ज्वर की गरमी निकल कर हाथ-पाँव सर्वथा निढाल शुजा के आँगन में ही क्या, पूरे उजियार या जिले में बरसात के अन्त में फसलें पकने पर बेहद मक्खी-मच्छर। शुजा की प्रौड़ा ने एक बीजना लाला को दे दिया था, परन्तु लाला की बाँह बीजना दुलाने में भी असमर्थ, तिस पर बार-बार मुँह पर आँचल रखने की मजबूरी से दम घुटने की यातना।
भुजा दोपहर से पूर्व गांव में घूमने चले गये थे। लौटे तो लाला की खाट के समीप बैठकर उसकी नब्ज देखी, थर्मामीटर लगाया। दवा देते समय धीमे-धीमे अंग्रेजी में बात कर
सुचना दी : गाँव में खबर है कि गंगा के रास्ते जहाजों से बलिया में चार हजार पुलिस, फौज और बहुत से अंग्रेज और नये हिन्दुस्तानी अफसर पहुँच गये हैं। कलक्टर निगम बस्ति । उसकी जगह नया अंग्रेज कलक्टर बुड़ आ गया है। अंग्रेज पुलिस कमान, उसके साथ बनारस कमिश्ररी का नया जालिम कमिश्रर नीदरसोला फैजाबाद से आजमगढ़ जिला होकर सड़क के रास्ते भी गाज़ीपुर तक पंजाबी पलटने आ गयी हैं। जहाँ-जहाँ रेल लाइन उखड़ी है, स्टेशन जले हैं सड़क पुल टूटे हैं, फौज समीप के दोनों ओर गाँवों में आग लगाती जा रही है। लाइन या सड़क पर जिसे देखते हैं, गोली मारकर पेड़ से लटका दिया जाता है। रघुनन्दन उपाध्याय और कौलेश्वर राय गाँव में अपने गिरोह के साथ घूमकर बागियों के नाम-पता लिख रहे हैं।
शुजा के विचार में इस सब फसाद और विध्वंस के लिये जनता की मूर्खता ज़िम्मेदार, परन्तु अब उसके परिणामों से भी बहुत आतंका खयाल आ जाता, इस ज़माने में इन जाहिलों ने फौज की हमदर्दी हासिल किये बिना बगावत के सपने देखे कैसे? बातें करते हैं, रूसी इन्कलाब की।
लाला सुनकर आँखें मूँद मौन लाला को उस दिन पथ्य के लिये पाव भर दूध निगल सकना भी कठिन।
चौथे पहर तक और भयानक खबरें: पुलिस और फौज की गारदें मशीनगनों और तोपों से लैस, नरही, गढ़वार, रसड़ा की तरफ बढ़ रही हैं। जिन इलाकों के थानों पर कांग्रेसी मंडे फहराये गये थे, सब जगह अंग्रेज सरकार के झंडे लग गये थे। उन थानों के इलाकों की बगावत को सज़ा देने के लिये पुलिस फौज गाँवों को लूटकर वहीं आग लगा रही है। बागियों को पेड़ों के तनों से बांधकर उनके सामने उनके घर बार की औरतों को नंगी करके सिपाहियों और मेहतरों, मुसहरों से बेइज्जत करवा रहे थे।
शुजा अजब परेशानी में उनके विचार में जो कुछ हो रहा था, उपा और उसके साथियों की मूर्ख नीति का परिणाम। इन्हें अपना उत्तरदायित्व समझना चाहिये, परन्तु यंग लेडी की बीमारी की हालत में अफवाहों का इशारा मात्र कर सकते थे।
साँझ का अँधेरा गहराते ही मच्छरों का पहला वीभत्स आक्रमण घंटे डेढ़ घंटे में मच्छरों का हल्ला कम हो जाने पर शुजा नींद से पहले लैम्प उजागर करके कुछ पढ़कर और नेचे पर दो चिलम समाप्त करके लैम्प बुझा चुके थे। उनके खरटि शुरू हो रहे थे कि ब्यो के विवाहों पर ज़ोर की दस्तका दिन की भयंकर खबरों के बाद रात में सहसा दस्तक से चिन्ता, मन में बागी मफरूर को शरण देने का चोर। सिरहाने से माचिस की डिबिया लेकर हरीकेन उजागर की ।
शुजा पोड़ी में पहुँचे तो पुराने किवाड़ों की फैल गयी झिरियों से गैस जैसा या बड़ी- बड़ी चोर बत्तियों का तेज प्रकाश छनकर भीतर आ रहा था। शुजा को संदेह, पुलिस फौज कहीं से सुराग पाकर आ पहुँची।
घोड़ी से पहले पल भर ठिठके तुरन्त उलटे पाँव बिना आहट किये, तेज कदमों से भीतर आँगन में लौटे। लाला के सिरहाने झुककर उसके कान में कहा, "शायद पुलिस आयी है। यह हमारा शक है, देखो "" तब तक दूसरी दस्तक और पुकार, "मास्साब!" तुरन्त तेज कदमों से योठी की तरफ बढ़ गये। पुलिस की दस्तक और पुकार की उपेक्षा न की जा
सकती थी।
शुजा से समाचार पाकर उषा शरीर का अनामर्थ्य मूल, तड़प कर खाट पर बैठ गयी। अँगिया से छोटी पिस्तौल निकाल ली। निश्चय, गिरफ्तार न होगी ।
शुजा ने क्योड़ी के किवाड़ खोले तो दो बड़ी चोर बत्तियों की नीची झुकी रोशनी से सबसे पहले पहचाना थानेदार सुन्दरसिंह को पाँच-छः सिपाही बन्दूकों पर संगीने लगाये। शुजा ने समझा, अंत आ गया। तब तक सुन्दरसिंह की बगल में नज़र पड़ गयी गुलाम रसूल परा दामाद के बेहरे पर चिन्ता- आतंक नहीं कुछ अफसराना अधिकार का भाव। कोट- पतलून पहने था तुर्की टोपी लगाये। धाकड़ सुन्दरसिंह विनीत, सेवातत्पर, आज्ञापालक नौकर की तरह गुलाम रसूल ने ससुर को आदाब कर थानेदार की तरफ देखा, "ठीक है ।" कुछ शब्दों में सिपाहियों को ठहराने के लिये निर्देश दिया, सुबह ठीक समय पर तैयार रहने की चेतावनी गुलाम रसूल ने ज्योड़ी के भीतर होकर खुद साँकल बड़ा दी।
उपा आगन्तुक को पहचान कर आवस्त होकर फिर लेट गयी थी। गुलाम रसूल ससुर के साथ मर्दाने आँगन में चला गया। ससुर का समाधान किया कि दवा नियमित ले रहा है. खाना-पीना पथ्य-परहेज से तबीयत ठीक है।
शुजा ने आरम्भ में ही पूछा था, इन लोगों को लेकर कैसे आये? "यहाँ तो सुबह से तरह-तरह की अफवाहें संक्षेप में कुछ एक का जिक्र किया।
बहुत कुछ सही बहुत कुछ मुबालगा।" दामाद ने टाला, "अब्बाजान, यह ख़ुदा का करम कि कलक्टर ने हमें रसता न भेजकर यहाँ ही तैनात कर दिया।" गुलाम रसूल बहुत धीरे बोल रहा था, लेकिन उसकी चिन्ता और उत्तेजना स्पष्ट, "गफूर मियाँ ने खासकर आपके और पूरे कुनबे के साथ बेइन्तहा सितम किया है।"
"क्या मतलब शुजा ने आशंका से पूछा।
“बहुत खतरनाक जालसाजी है। लाला तो बलिया में मौजूद है।" गुलाम रसूल मसूर की तरफ और झुक गया, "आपके साथ जिसे 'लाला' कहकर भेजा है, वो कोई और है। नासिर खाँ साहब के यहाँ और दूसरी जगह जो कुछ सुना, समझ लिया, आपके वहाँ यह फर्जी लाला, मफरूर बहुत खतरनाक लखनऊ यूनिवर्सिटी की क्रिश्चियन वाल्दैन की बेटी, स्टूडेंट लीडर उषा सेठ हैं जिसने खुफिया रेडियो से भी इश्तआल फैलाने की कोशिश की है। पुलिस के पास पूरी इत्तला है कि वो इन्कलाब स्पेशल में फेफना तक आयी थी, पब्लिक में जाहिर नहीं हुई, लेकिन इन फिसादात को आर्गनाइज करने में खुफिया तौर पर इसका अहम हाथ था। बलिया शहर और जिला में इसकी तलाश हो रही है। गिरफ्तारी में मदद के लिये दस हजार का इनाम मुकर्रर ।"
गुलाम रसूल ने बताया, "इसकी गिरफ्तारी के लिये इश्तहार छपवाये जा रहे हैं। इसका हुलिया तमाम जिलों, तहसीलों, थानों में सर्कुलेट कर दिया गया है। बहुत चालाक औरत है। रिवाज़ की आड़ में अपना चेहरा छिपाये रहती है, लेकिन दो दिन हम वहाँ थे तो 'बुखार में बेहोश बाई चांस तीन-चार बार हमारी नज़र इसके उघड़े चेहरे पर पड़ गयी। बीमारी की कमजोरी के बावजूद बिलकुल वही सूरत हुलिया।"
ये
शुजा ने दोनों बाँहें सीने पर बाँध ली जैसे समाचार से स्तब्ध दामाद कहता गया, “सबसे बड़ी पहचान, जिसमें शक की गुंजाइश नहीं, इसकी अनबिंधी नाका हमें तो यकीन
नहीं, हिन्दुस्तान में मुसलमान या हिन्दू खानदान की कोई ऐसी लड़की है, ईसाइयों को छोड़कर, जिसकी नाक बचपन में न बधी गयी हो। न इसके कानों में यू० पी०, बिहार की मुसलमान लड़कियों औरतों की तरह सात-सात बालियों के लिये छेद बदन पर कोई जेवर नहीं। तीन माह से बलिया में थी, कुछ तो यहाँ की बोली समझती बोलती वर्मा से आये सब पूरबी मुसलमान यहाँ की बोली थोड़ी-बहुत बोल समझ लेते हैं।
"हम चाहते तो बलिया में ही पुलिस को खबर दे देते। दस हजार का इनाम एक बात । तहसीलदार तो क्या डिप्टी कलक्टरी तक की उम्मीद का मौका बहैसियत सरकारी अफसर यह हमारा फर्ज भी, लेकिन इस मामले में सबसे पहले मार आती किल्ला पर " शुजा वैसे ही दोनों बाँहें सीने पर बाँधे स्तब्ध, जैसे धोखे से चिन्ता-आशंका की भूलभुलैया में फँस गये हों।
गुलाम रसूल ही बोला, "किल्ला इस वक्त हम पर खुदाबन्द मेहरबान इन्सान की ज़िन्दगी में ऐसा मौका कभी ही आता है। डिप्टी कलक्टर नासिर खाँ बहुत मिल्लतपरवर इन्सान। हम पर उनका भी करम हमसे रसड़ा की रिपोर्ट ऐसी लिखवायी कि वह हमारे ही फेवर में प्रोमोशन तो होगी ही, फिलहाल एस० डी० ओ० की ड्यूटी पर भेजा है। बगावत के मुजरिम मफरूर को गिरफ्तार करना करवाना हमारा फर्ज़ लेकिन सवाल इससे आप पर, सितारा बहिन पर क्या मुसीबत आ जायेगी। हमें फौरन फैसला करना है। अगर देर करते हैं, उलटे हम पर जुर्म आयद होता है, बगावत में शिरकत का और ख़ुदा के रूबरू नमक हराम ।" गुलाम रसूल ससुर के जवाब के लिये मौन
"तुम्हारा या तुम्हारी ज़मीर का क्या फैसला?" दो-तीन पल बाद शुजा अहमद ने पूछा। किल्ला, हमने अर्ज किया, बतौर सरकारी अफसर यह हमारा फर्ज, दूसरी तरफ नमक हरामी का गुनाह और हमारी ज़िन्दगी में एक नादिर मौका भी गफुर क्या चाल चल रहे हैं, हमारी समझ से बाहर उनका कोई उसूल नहीं। पॉलिटिक्स और सोशल लाइफ में मौसम के साथ नया रंग। क्या ताज्जुब बागियों से बड़ी रकम खाकर आपको अजाब में डाल दिया हो। किसी जमाने में उनसे ताल्लुक रखते थे। यह सिर्फ न कानूनन जुर्म, बल्कि पर्सनल सेल्फिशनेस में कुनबे खानदान को दगा फरेब से बेच देना है।"
शुजा कई पल सोचकर बोले। स्वर दया हुआ परन्तु दृढ़, "वरखुर्दार, तुम सरकारी अफसर हो। फर्ज पूरा करो, ख़ुदा के रूबरू सबुकदोश रहोगे। नादिर मौके का भी फायदा उठाओ। तुम्हारा कयास सही, यह लड़की मफरूर बागी उषा सेठ है, लेकिन गफूर या सितारा ने हमें धोखा नहीं दिया। हम इसकी पॉलिटिक्स जान-बूझकर उसे बेटी कहकर, पनाह देकर खुद साथ लाये हैं। गो मुत्तफिक नहीं, लेकिन इसकी सचाई, दिलेरी, कुर्बानी की इज्जत करते हैं, यह बागी है तो हम भी बागी हैं, हर एक खुद्दार हिंदुस्तानी बागी है, फर्क पॉलिसियों का। तुम सरकारपरस्त हमारे फराइज, रास्ते अलग- अलग ।" उत्तेजना से सॉस तेज हो गयी।
साँस के लिये रुककर उसी तरह दबे स्वर में अधिक दृढ़ता से बोले, "तुम फौरन फैसला कर सकते हो। शायद तुम्हारे पास तमंचा पिस्तौल है। इसे खुद गिरफ्तार करना चाहो तो हमें खत्म करके इसे यहाँ से ले जा सकोगे। अगर अपने सिपाहियों को बुलाना चाहते हो तो जा सकते हो। हमारे यहाँ दो टीन किरासिन है। जिसे पनाह दी है, उसे धोखा नहीं देंगे। हम
तुम्हारी पुलिस और सरकार की खम्लत से वाकिफा इस जवान बेटी की बेहुर्मती नहीं होने देंगे। तुम जाओ, हम ड्योढ़ी पर ताला देकर पूरे घर को आग लगा देंगे। हम मुसलमान हैं, लेकिन राजपूती खून। जब हमारे बुजुर्ग जंग में जाते थे उनकी औरतें इज्जत के लिये सैकड़ों की तादाद में जौहर कर लेती थी।" बहुत दबे स्वर में बोलने के बावजूद, उत्तेजना से शुजा की साँस फिर फूल गयी।
ससुर की बात सुनकर गुलाम रसूल स्तब्ध। कई पल सोचकर गर्दन झुका ली, फिर भी मौन। दामाद के सामने बैठे शुजा अहमद भी मौन।
"अब्बाजान, आपने हमें गलत समझा।" गुलाम रसूल ने ससुर के घुटने छूकर मौन तोड़ा, "हकीकत में लाइल्मी में इसे गफूर भाई का फरेब समझकर इतना कह गये। सरकारी नौकरी की हैसियत से हमारा जो फर्ज हो, लेकिन आप हमारे वालिदा कुछ पल रुककर बोला, "सरकारी नौकरी अपनी जगह, इन्सानियत और दूसरे फराइज़ अपनी जगह हमारे लिये सरकार आपके हुक्म से बड़ी नहीं हो सकती। हर फर्ज़ के दो पहलू। हमने सिचुएशन समझ ली। अपने बच्चे की लाइल्मी मुआफ कीजिये। खैर, आप हालात से आगाह हो गये। अब हम जोखिम लेकर भी आपकी मदद के लिये तैयार फिलहाल आप आराम करें। हम इस बारे में सोचकर सुबह अर्ज़ करेंगे।"
शुजा अहमद ने आस्तीन से आँखें पोंछकर दामाद को आशीर्वाद किया, ससुर दामाद आस-पास घाटों पर लेट गये। मालूम नहीं दोनों में से किसे, कब नींद आयी।
"बने मियाँ बन्ने मियाँ!" भीतर के आँगन के दरवाज़े से पुकार सुन शुजा की बिथली नींद खुल गयी। रात चिन्ताओं और कल्पनाओं में ऐसी-वैसी ही नींद आयी थी। याद आया, रात दामाद ने अपनी सास और ददिया सास से कह दिया था, सुबह चिरैया बोलते ही हमें जगा दीजियेगा। बहुत जल्दी जाना ज़रूरी है। उन्होंने दामाद को जगा दिया।
गुलाम रसूल तुरन्त उठ बैठा। चेतन होने के लिये खाट के समीप रखे बधने से जल लेकर मुँह पर छींटे मार लिये। अंगोछे से चेहरा पोंछ कर बिना भूमिका बात आरम्भ की, स्वर रात की तरह रहस्य का, "अब्बाजान, लाला (लाला कहना ही ठीक समझा) आखिर यहाँ कब तक रह सकेंगी! आप इन्हें धनबाद पहुंचाने के लिये लाये हैं। नये एस० पी० ने लखनऊ सी० आई० डी० से रिक्वेस्ट की है कि उसे पहचान सकने वाले पन्द्रह-बीस आदमी, कुछ औरतें भी फौरन भेजी जायें। दोनों तरह के क्रयास है कि उसे बागी लोग जिला से बाहर निकाल ले गये हैं या वह कहीं छिपी है। बहरहाल उसकी तलाश बहुत जोरों से जारी है। नीदरसोल, वुड और नये एस० पी० बेन्सन से कुछ बईद नहीं हुक्म कर दें-शक हो तो शिनाख्त के लिये किसी भी औरत का चेहरा देखा जा सके। नीदरसौल का हुक्म 'जाब्ता नहीं, जूता।' इसकी सबसे बड़ी शिनाख्त अनबिंधी नाका हमें फौरन खटकी, हर किसी को खटकेगी। फिलहाल दो-तीन हफ्ते तो कुछ इनकी सेहत कुछ दूसरे हालात, ये वहाँ से निकल नहीं सकतीं। इसके बाद भी ये जहाँ जायेंगी, यह पहचान साथ रहेगी। इन्होंने घर- बार पर्दे में छिपी रहने के लिये नहीं छोड़ा होगा। अनबिंधी नाक होती है ईसाइनों और पारसिनों की, वह परदा करती नहीं। अनविधी नाक वाली औरत का पर्दा करना ही काफी शक की बिना आप तो बक्तन फक्तन जर्राही भी कर लेते हैं। आप इनके ही हक में इनकी नाक बँधकर कुछ पहना दीजिये हमारी रिक्वेस्ट है, आइन्दा इस बारे में जो करें, हमसे बात
करके करें। यह भी ख़ुदा की मर्जी कि वुड ने हमें बलिया तहसील में ही आरजी एस० डी० आ० लगा दिया।"
गुलाम रसूल बाहर जाने की तैयारी में लग गया।
रघुनन्दन उपाध्याय को रात ही थानेदार ने गुलाम रसूल का सलाम और पयाम पहुँचा दिया, उसके टैम्परेरी एस० डी० ओ० लग जाने की खबर भी गुलाम रसूल पर नासिर खाँ की वजह से कलक्टर और नीदरसोल भी मेहरबान रिटायर्ड जज कौलेश्वर राय के यहाँ भी सलाम, पयाम और सूचना भिजवा दिये थे।
उपाध्याय उम्र में ससुर से बड़े ससुर भी उनकी इज्जत करते थे। गुलाम रसूल पहले उन्हीं के वहाँ गया। सूरज अभी नेजा भर चढ़ा था। उपाध्याय नित्य नैमित्तिक में व्यस्त थे, लेकिन समाचार पाकर तुरन्त बैठक में आ गये। कारिन्दे से चाय नाश्ते के प्रबन्ध के लिये रात को ही कह दिया था।
नरही के ज़मीन्दार कपिलदेव मशहूर दबंग राजभक्ता सप्ताह भर से सहमे हुए थे दंगाई जाने कब हल्ला बोल दें, सब लूटकर आग लगा दें। दो थानेदारों के साथ नये एस० डी० ओ० साहब के आने का समाचार पाकर दौड़े आये थे। उनके साथ ही चौधरी बेनीमाधवा गुलाम रसूल का बहुत स्वागत हुआ। व्यवस्था स्थापना में सब प्रकार की सहायता के लिये प्रस्तुत। कई बागी सरगनों के नाम-पते बताये। गुलाम रसूल ने नरही के समीप पाँच मील सड़क की मरम्मत और रक्षा के लिये चौकसी के आर्डर वेनीमाधव को दे दिये। सरकार की तरफ से अदायगी चौधरी की आमदनी । इस नाजुक स्थिति में वह सब काम बेगार लगाकर करा सकता था। सरकार की मदद से इनकार का मतलब, बगावत बेनीमाधव ने 'रामराज' की पुन: स्थापना के उत्सव के लिये मिठाई बँटवा दी।
सुन्दरसिंह थानेदार ने दहशत का वातावरण बनाने के लिये तेईन अगस्त की सुबह ही सुखपुरा के समीप पुत्तलाल, चंडीलाल और दूसरे छ: आदमियों को भगोड़ा बागी कहकर गोली मार दी थी। उनकी लाशें सड़क किनारे के पेड़ों पर लटकवा दीं। तब से सबकी बोलती बन्द
चन्दन दुबे स्वभाव से शान्त, परन्तु निधड़क था। सुन्दरसिंह के कहने पर भी उसने झूठी गवाही देने से इनकार कर दिया था। दुबे ने बगावत में भाग न लिया था। सुन्दरसिंह को उससे और लखनसिंह से पुरानी नाराज़गी। उन्हें पकड़वा कर हाथ-पैर बंधवा दिये। सब लोगों के सामने दोनों के मुँह में मुसहरों से पेशाब करवा दिये। कई लोगों के साथ ऐसा व्यवहार। चंदन दुबे असमर्थ क्षोभ में खुद फाँसी लगाकर मर गया। अब किसकी सामर्थ्य सरकारी हुक्म से इनकार करे! लोग पुलिस फौज या सरकारी लोगों के आने की खबर पाकर गाँवों से भागकर जंगलों खेतों में जा छिपते। गुलाम रसूल को सुन्दरसिंह को अति से रोकना पड़ा इससे अवाम को ब्रिटिश के इंसाफ पर एतबार न रहेगा।
गुलाम रसूल ने उपाध्याय से एस० डी० ओ० की स्थिति से नहीं, पुराने अभ्यस्त विनय से बात की, "डिप्टी साहब, आप तो ब्रिटिश सरकार के पुराने वफादार अफसर, बल्कि मददगार दोस्त, हमें आपके ही मशविरे से सब करना है। गाज़ीपुर जिले की हद तक सड़क फौरन ठीक होना ज़रूरी ताकि बनारस और पच्छिम से आमदोरफ्त का सिलसिला कायम हो जाये। आप ही तय करें, इस गाँव से कितनी मदद मिल सकेगी। फिलहाल तो
सरकार को आपकी नावों की मदद की जरूरत है। बक्सर में कुमक रुकी हुई है। उसके लिये आप बीस नावें फौरन भिजवाने की मेहरवानी करें।" गुलाम रसूल ने बक्सर के एस० पी० के नाम बलिया के एस० पी० की तरफ से रुका दे दिया।
रघुनन्दन उपाध्याय के चेहरे पर चार दिन पहले की तरह उदासी बोले, "हम तो पीडियो से ब्रिटिश सरकार के बफादार, हमारे खून में सरकार का नमक बक्सर के लिये बीस नहीं, तीस नावें हाज़िरा मिस्टर वुड हमारे पुराने वाकिफ उनसे मिलने आज ही मोटर वोट से दोपहर बलिया जाने का इरादा आपकी तनदेही की तारीफ भी यकीनन करेंगे लेकिन बरखुर्दार," आत्मीयता से हाथ गुलाम रसूल के कंधे पर रख दिया, स्वर रहस्य में बहुत धीमा, "जगन्नाथ और उसके बेटे रवीन्द्र (मझले बेटे और पोते) के बारे में क्या राय देते हो? हमने एक एप्लीकेशन कलस्टर के नाम लिखी है, लेकर खुद जा रहे हैं। बरखुर्दार, तुम भी देख लो; एक के बजाये दो रायें बेहतर।" उपाध्याय ने जनेऊ में बंधी चाबियाँ से आलमारी का ताला खोलकर फाइल निकाल ली। एक कागज़ गुलाम रसूल की तरफ बढ़ा दिया।
दरख्वास्त के पहले पैरे में खानदान द्वारा ब्रिटिश सरकार की सेवाओं की चर्चा। उसके बाद निवेदन कि उनका मंझला बेटा जगन्नाथ और उसका बेटा कुसंगत और नयी उम्र की नासमझी में बागियों के साथ शामिल होकर गैरकानूनी आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। नाबालिग लड़के की ऐसी हरकतों से उनके राजभक्ति की सनद प्राप्त परिवार का सिर नीचा हो रहा है। लड़का इस वक्त लापता है वर्ना ऐसा मौका न आने देते। जगन्नाथ का पूरा हुलिया औसतन ऊँचा कद, खुलता गेहुँआ रंग, सामने के दाँत जरा उभरे हुए सरकार से प्रार्थना कि लड़के को गिरफ्तार करके उनके हवाले किया जाये। इसके बाद वह लड़के की गतिविधि के लिये पूर्णतः उत्तरदायी होंगे।
गुलाम रसूल दरख्वास्त पढ़कर कुछ पल चुप रहकर बोला, "किल्ला, हम आपसे ज्यादा क्या समझ सकते हैं! आप मुनासिब समझें तो इस दरख्वास्त पर तारीख सत्रह अगस्त, उन्नीस सौ बयालीस डालिये। एक दूसरी दर्खास्त मिस्टर वुड के नाम बतौर डी०ओ० लिखिये। बुद्ध से कहियेगा, सत्रह अगस्त, उन्नीस सौ बयालीस यह दर्खास्त लेकर बलिया गये थे, लेकिन कचहरी में आग लग चुकी थी और निगम ने बुज़दिली से सरेण्डर कर दिया था। बतौर गवाही बलिया में वकील अब्दुल गफूर, अर्जीनवीस तकदीर अहमद और पोस्ट आफिस के मुहम्मद इब्राहीम और जमन सिंह के नाम दे दीजिये । वुड आपके पर्सनल वाकिफ नये-नये ए० डी० एम० नासिर खाँ साहब के यहाँ हम देख लेंगे!"
उपाध्याय जी ने गुलाम रसूल की पीठ ठोंकी, "वाह, बरखुर्दार! क्या जबर्दस्त पॉइंट सुझाया है। सात दिन पहले की तारीख बहुत जबर्दस्त पॉइंट रहा। आखिर तो नया खून! इसीलिये जहाँ इन्सान ने पचपन-अट्ठावन पार किये, अंग्रेज उसे पेन्शन दे देते हैं। अंग्रेज बाक़ई दानिशमंद कौमा
"आप दो काफी हमें भी दे दीजिये। हम उस पर नोटिंग करके बलिया के कोतवाल और नरही के थानेदार को बतौर एफ० आई० आर० खुद दे देंगे। हुलिया समेत जिला सुपरिटेण्डेंट के आफिस में दरख्वास्त की नकल भेज दी जाये।
उपाध्याय से विदा लेकर गुलाम रसूल गाँव के दूसरे बड़े ज़मीन्दार रिटायर्ड जिला जज
कौलेश्वर राय की हवेली में पहुँचा। ज़मीन्दार का मैनेजर ड्योढ़ी पर उसकी इंतजार में था। बहुत सत्कार से भीतर ले गया। ज़माने की बात, जब कौलेश्वर राय जिला जज बे, एस० डी० ओ० की हैसियत के अफसरों को बरामदे में बीस मिनट-आध घंटे सुस्ताने का मौका देकर भीतर बुलवाते थे। अब दीवानेखाने में इंतजार में थे। गुलाम रसूल को आदर से बैठाकर फौरन नाश्ता हाज़िर करने का हुक्म
"रायबहादुर साहब, हम तो पहले हजुर के यहाँ ही सलाम के लिये हाज़िर होते।" गुलाम रसूल ने विनय से कहा, "लेकिन खयाल कि आपको सुबह परेशानी न महसूस हो इसलिये पहले उपाध्याय जी के यहाँ चले गये। वह पुराने बयाल के सुबह गंगाइवान के आदी। उनके इसरार से नाश्ता भी लेना पड़ा।" इस पर भी गुलाम रसूल को हलवा, बिस्कुट और चाय लेनी ही पड़ी। रायसाहब को चाय का शौक था। बढ़िया चाय बजाय बलिया के बनारस से मंगाते थे। टीन के डिब्बे में बन्द बिस्कुट भी रखते थे। रिटायर्ड हो जाने पर सरकारी अफसर चाहे जिस पोज़ीशन का हो, दाँत टूटे सॉप की हालता कौलेश्वर राय अब सरकारी अफसरों से सम्पर्क पड़ने पर विनय और आत्मीयता का व्यवहार करते।
गुलाम रसूल ने कौलेश्वर राव के यहाँ भी सरकारी काम के सम्बन्ध में वैसे ही बात की जैसे उपाध्याय के यहाँ की थी। उजियार से लगती सड़क पर तोड़-फोड़ की मरम्मत और इलाके में व्यवस्था के लिये आवश्यक सावधानी की बात।
कौलेश्वर राय ने बहुत धीमे रहस्य के स्वर में बात की, "बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना है। अगर तुरन्त साहस कर सके तो आपका कैरियर बन जायेगा। हमें विश्वस्त खबर मिली है, कल रात नौ-दस बजे चित्तू पांडे उजियार आया है। सिपाही की वर्दी पहने था। उपाध्याय के यहाँ गया था। याद है, कांग्रेस मिनिस्ट्री के जमाने में उपाध्याय के रंग कैसे बदल गये थे। सम्पूर्णानन्द को दावत दी थी। चित्तु इनके कन्टेक्ट मैन बन गये थे।"
गुलाम रसूल की गर्दन तत्परता और साहस से उठ गयी। कुछ पल सोचकर बोला, "हुजूर जज साहब, हमें रात ही खबर मिल गयी होती तो हमने हवेली और घाट घिरवा लिया होता। क्या ताज्जुब रात ही नदी पार करा दिया हो!" फिर सोचकर बोला, “रात नदी में पुलिस मोटर बोट का पैट्रोल था। अभी उजियार या कहीं आस-पास होगा, लेकिन हजुर जज साहब, हमारे पास इस वक्त सिर्फ छः सिपाही । हमने छापा मारा, वह निकल गया तो उल्टे हमारी बदनामी। हम फौरन कुमक के लिये मैसेज भेजते हैं। तीन-चार घंटे लगेंगे। तब तक हम कोटवा नारायणपुर की तरफ होकर फौरन लौटते हैं, लेकिन हम हौसला तभी कर सकते हैं जब आपका हाथ हमारी पीठ पर हो। उपाध्याय बहुत गहरे आदमी हैं। उन पर हाथ डालना जोखिम अपनी सरकारपरस्ती के सुबूत में अपने बागी मझले बेटे और पोते की रिपोर्ट और हलिया खुद पुलिस को भेज दिया है। हमसे एक बाइज्जत सरकार के वफादार की तौहीन के लिये जवाबतलबी हुई तो हम क्या सफाई दे सकेंगे!"
गुलाम रसूल कौलेश्वर राय की तरफ झुक गया, "जज साहब, एक बात और हम फिलहाल आरजी ड्यूटी पर सुना है, वुड गोरखपुर में कलक्टर था तो उपाध्याय वहाँ एक डी० एम० थे। ये वुड की मूँछ के बाल हम नाकामयाब रहे तो यह वुड को हमारे खिलाफ कर देगा। हमारे पास हजुर की कलम से इत्तला हो तो हमें किसी की परवाह नहीं। आपके
मुकाबले उनका क्या वकार!"
कौलेश्वर राय ने गर्दन हिला दी "राइटिंग में देने के झंझट में हम न पड़ेंगे। आपको कैरियर बना सकने का चांस दिया, बाकी आप जानिये।"
कौलेश्वर राय ने गुलाम रसूल से और अधिक रहस्य के स्वर में बात की, "अपने मझले बागी बेटे और पोते की शिकायत उपाध्याय की दुधारी चाल। एक तो सरकारपरस्ती का सुबूत, दूसरे अपने बच्चों की पेशगी जमानत कि गिरफ्तार होने पर सख्त सजा से बचत और उम्मीद कि इनके हवाले कर दिये जायेंगे।"
"हुजूर की पोजीशन दूसरी हजुर का कोई क्या बिगाड़ लेगा!" गुलाम रसूल ने विनय से कहा, "खैर, हम थानेदार से कहकर घाट और हवेली पर नज़रसानी का इंतजाम करके जायेंगे।"
•गुलाम रसूल दोनों जमींदारों और रिटायर्ड अफसरों की आपसी लाग डॉट से परिचिता कौलेश्वर राय से केवल अफवाह के आधार पर सूचना पाकर वह अपने ससुर के पुराने कृपालु मित्र से क्यों वैर लेता! उपाध्याय से सदा सहायता मिली। भविष्य में भी आशा । बिना सुबूत वह उपाध्याय की शिकायत की हिम्मत कर न सकेगा। चित्तू पांडे गिरफ्तार न होकर ही क्या कर लेगा लेकिन उपाध्याय, वुड का पुराना मंजुरे नजरे ।
गुलाम रसूल ज़रूरी सामान लेने के लिये ससुर के मकान की तरफ होकर गया। दामाद के रवाना होने के पाँच-सात मिनट के भीतर शुजा अहमद, उपाध्याय की हवेली पहुँच गये थे।
उपाध्याय ने पिछली साँझ ही अपना मोटर बोट तैयार रखने के लिये कह दिया था। कलक्टर से भेंट करने के लिये ग्यारह के करीब बलिया के लिये रवाना हो गये। उससे पहले बक्सर के लिये आठ-दस नावें छूट चुकी थीं।
शुजा अहमद ने दोपहर से पूर्व ही उषा सेठ के बारे में पायी सूचना और उसकी सुरक्षा
के लिये परामर्श उषा को बता दिया था।
"अंकल, आप और भाई साहब इस बारे में जो तय करें, उसमें मुझे क्या आपत्ति। मैंने समझ लिया, मेरी अब तक की जिंदगी नाबूद ।"
उपा ने कहा था "इस बारे में
परन्तु उससे बड़ा खयाल था, अपनी अनबिंधी नाक के कारण मास्टर शुजा अहमद और उसके परिवार की जानें जोखिम में डालने के अपराध का। उसके अतिरिक्त लखनऊ या परिचित समाज में, ब्रिटिश सत्ता के रहते, लौट सकने की आशा या सम्भावना ही क्या थी?
शुजा अहमद का दृष्टिकोण प्रगतिशील था, परन्तु अनुभव के कारण यथार्थवादी नारी मात्र को प्रकृति से मूर्ख या अविश्वसनीय न मानते थे, परन्तु अनपढ़ और नासमझ श्री वा पुरुष के भरोसे की मूर्खता भी अस्वीकार उषा से परामर्श करने के बाद माँ और पत्नी को बताया, "लाला का बुखार यो न टूटेगा। बुखार नाक के भीतर फोड़े में मवाद की वजह से है। मवाद निकाल देना जरूरी। आज यह काम कर दिया जाय।"
शुजा के पास होमियोपैथिक औषधियों के लिये रेक्टीफाइड स्पिरिट रहती थी। एक तेज़ सुई को खूब उबाल कर तैयार कर लिया। तीसरे पहर लाला की नाक का सवाद
निकालने का आपरेशन कर दिया। सुई से बने छेद में सूत का टुकड़ा रहने दिया। दर्द और रक्तस्त्राव रोकने के लिये दवा दे दी। लाला की नाक तीन दिन सूजी रही। चौथे दिन से सूजन घटने लगी। दसवें दिन सलमा की बचपन की एक सोने की छोटी-सी कील या फुल्ली लाला की नाक के बायें नथुने पर चमकने लगी।
उपा को आईने में अपनी बिंधी नाक देखने की कल्पना से ही घृणा मान चुकी अब वह उषा रही ही नहीं। बस, सरकार से बागी एक स्त्री है जिसे अब कभी पहचाना नहीं जाता। उपा उन्नीस अगस्त की रात उजियार आयी थी। आठ दिन तो बुखार में बीत गये। पाँच-छः दिन बीमारी के कारण खाट से उठने में असमर्थ रही। शरीर हिलने लायक हुआ तो लाला घर पर अपनी सेवा का बोझ न डालने के विचार से, कुछ समय काटने के लिये झाडू- बुहारी और बर्तन साफ करने में हाथ बंटाने लगी, लेकिन अखबार पढ़ने और समाचार जानने के लिये व्याकुलता। उजियार में दो अखबार आते थे— उपाध्याय के यहाँ 'पायोनियर' और कौलेश्वर राय के यहाँ 'स्टेट्समैन' के साप्ताहिक अंक अखबार प्रकाशन के तीसरे चौथे दिन उजियार पहुंचते थे। उसके पाँच-छः दिन बाद शुजा अहमद पढ़ने के लिये माँग लाते। पत्रों के अनुसार सब और अमन कायम हो गया था। सोवियत में नाज़ी सेनाओं की गति मन्द हो जाने का समाचार और अंग्रेजी समाज की बातें।
शुजा राजनैतिक स्थिति के बारे में उषा की उत्सुकता से परिचित थे। इस बीच गुलाम रसूल एक ही बार तीन-चार घंटे के लिये आया था। अभी बलिया तहसील में एस० डी० ओ० की आरजी ब्यूटी पर ही था। अकेले में ससुर से बात कर गया था। शुजा ने आरम्भ में दो-तीन बार जो खबरें या अफवाहें पोस्टमास्टर इब्राहीम, उपाध्याय और कौलेश्वर राय के यहाँ सुनी थीं, उषा को संक्षेप में बतायी थीं। सुनकर उषा का चेहरा लटक जाता "सब किया-कराया समाप्त! अब सरकार की बारी थी। जनता की भावी पीढ़ियों को भी बगावत की बात न सोचने देने की शिक्षा दामाद से सुनकर शुजा ने उपा को बताया था, अंग्रेज दरअसल घबरा गया था। नीदरसोल ने जिले में व्यवस्था कायम कर लेने के बाद गवर्नर को तार से सूचना दी थी, "बलिया रीकांकर्ड!" बात वहाँ तक पहुँच गयी थी।
स्टेशन अभी जले हुए ही थे, परन्तु लाइन और पुलों की मरम्मत में दो सप्ताह भी न लगे थे। लोगों को लाइन पुल तोड़ने की तमीज ही न थी। स्टेशन के एक ओर बीस गज़ लाइन उखाड़ कर संतुष्ट, लेकिन सरकार क्रूरता से बदला ले रही थी। जहाँ जरा भी सरकारी नुकसान हुआ था, उससे दस गुना दंड कर ( प्युनिटिव टैक्स) सरकार वसूल रही थी। टैक्स वसूल करना पुलिस के हाथ में किसी को साहस न था, टैक्स देकर रसीद माँगता रसीद माँगने वालों पर बुरी तरह मार पड़ती। उन्हें बागी कहकर उनके घरों और खड़ी फसलों में आग लगा दी जाती। पुलिस वसूल करती पचास हज़ार, खजाने में पहुँचता बीस हज़ार। कुछ अफसरों ने बात वुड और नीदरसोल के कानों में डाल दी, ये लोग सरकार को बदनाम कर रहे हैं। नीदरसोल का उत्तर था, "बहुत अच्छा है, हिन्दुस्तानी देख लें हिन्दुस्तानी अफसर कैसे होते हैं। स्वराज पाकर यही करेंगे।" नीदरसोल दूसरे-तीसरे हाथी पर बैठे किसी तरफ निकलता तो लोग सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में झुक-झुककर सलाम करते।
सब ओर आतंक की स्तब्धता। जिले से गांधी टोपी गायब लोगों में राजभक्ति और
सरकार के सामने दैन्य दिखाने की होड़। उषा सुनती तो खेद से आँखें मूंद लेती।
उषा स्वयं को समझाती, जो कुछ सफलता असफलता हुई वह मेरा वैयक्तिक मामला न था राष्ट्रीय लक्ष्य से सामूहिक प्रयत्न जिसमें लाखों ने भाग लिया। हजारों ने जानें दीं। उसकी सफलता असफलता भी राष्ट्रीय सफलता-असफलता। मैं दूसरे लाखों के साथ। मैंने यथा आदेश अवसर अनुकूल सामर्थ्य भर प्रयत्न किया। अवसर होने पर फिर सबके साथ, लेकिन इस चूहेदानी से निकल सकने का क्या उपाय? मास्टर साहब बहुत सहायता कर रहे हैं। मेरा यहाँ रहना इनके लिये भी संकट इससे तो बिरजू की तरह जूझकर समाप्त हो जाना बेहतर था। लोग कहते हैं मुसलमानों में राष्ट्रीय चेतना और भावना नहीं होती!
उपा के मस्तिष्क से एक उलझन हटती तो दूसरी आ जाती। बिरजू की हत्या वा मृत्यु का उत्तरदायित्व 'इलाहाबाद में उससे प्रथम परिचय से लेकर उसके हल्दी थाना सर करने के लिये जाते समय के अंतिम शब्द तो हम ही जाते हैं। थाना सर करके ही लौटेंगे। और अंकल भुजा के शब्द मस्तिष्क में कौंध जाते- 'यह विरजू पालिटीशियन बनते हैं। अहमक को ख्याल न आया, जिले के ग्यारह थानों ने सरेण्डर कर दिया तो तीन थानों की क्या वक्त। उन्हें कलक्टर का हुक्म मानना ही होगा।' यह बात अंकल ने बिरजू को नहीं, उसे ही कही थी ! मैंने क्यों कहा कावई। दूसरों को झोंककर खुद जलसा मना रही थी। कहा था तो स्वयं उसके साथ क्यों नहीं गयीं। श्री होने का बहाना! उसके लिये जोखिम झेलने वाले विरजू के चाचा-चाची रोते-बिलखते दिखायी देने लगते।
तेरह सितम्बर अंकल शुजा नाश्ता कर बाहर चले गये थे। दोपहर से कुछ पहले लौट आये। उपा लेटी-बेटी वक्त काटने को 'दीवाने जिगर पढ़ रही थी। कुछ शेर ऐसे आ जाते कि अवसाद और चिन्ताओं के बावजूद उपा कुछ समय के लिये दूसरी रोमांटिक दुनिया की कल्पनाओं में खो जाती।
अंकल की खाँसी सुनकर उषा उठ खड़ी हुई। दुपट्टा ठीक कर लिया।
"बैठो बेटा, बैठो अब तबीयत कैसी है? जरा नव्ज़ देख लें।" शुजा लाला की नब्ज़ देखते समय उसकी खाट के समीप धरती पर उकडूं बैठ जाते थे। जवान औरत, चाहे बेटी ही हो, उसके साथ एक खाट पर न बैठने का संस्कारे लाला की नब्ज़ हाथ में ले ली। वृद्धा माँ काफी दूर खाट पर बीजना दुलाती औषिया रही थी। शुजा की बीवी बावर्चीखाने में थी। मौका देखकर अखबारी कागज में लिपटी गोल-सी चीज उपा की ओर बताकर शुजा ने अंग्रेजी में हिदायत की, "यह रख लो।"
"क्या है अंकल?"
"औरतों के टखने पर पहनने के कड़े।"
"अंकल, इसकी क्या जरूरत?"
'सफर में पहनना ज़रूरी सलमा की चूड़ियों में से हरी काली चूड़ियाँ भी देख लो। माशाअल्ला तेरह दोपहर तक चलने का प्रबन्ध है।" उषा के शरीर में सहसा शक्ति आ गयी। आशा की किरण के अनुमान से उत्साहित ।
चौबीस अगस्त दोपहर से पहले उपाध्याय अपने मोटर बोट में उजियार से बक्सर गये। बलिया में वुड से मिलकर छब्बीस की साँझ को लौट आये थे।
शुजा खबर पाकर सत्ताईस की सुबह सलाम- दुआ के लिये उपाध्याय के यहाँ गये तो
उस वक्त तीन-चार आदमी बैठे थे। उन लोगों के चले जाने के बाद उपाध्याय शुजा को भीतर की गद्दी पर ले गये। शुजा के दोनों हाथ उसने अपने दोनों हाथों में ले लिये, आँखें नम्। बोले, "चौबीस को आपने गुलाम रसूल से मिली खबर हमें वक्त पर पहुँचा दी। उसके लिये हम क्या, हमारा खानदान पीढ़ियों तक आपके खानदान का एहसानमन्द रहेगा।" शब्द इतने ही कहे गये। शुजा ने सब कुछ समझकर जवाब दिया, "यह तो हम पर आपके एहसानों के बोझ में एक जरी था। हम तो आपके खादिम ! "
उपाध्याय ने इतनी कृतज्ञता प्रकट करने पर भी मास्टर शुजा ने कोई रहस्य प्रकट न किया। वे जब-तब सुनते रहते थे कि उपाध्याय जी की बड़ी बिटिया जुलाई में भतीजे के अन्नप्राशन के लिये दानापुर में आयी थी, लेकिन बेटी के लौटने की तारीख टलती ही गयी। उधर से बराबर संदेश आ रहे थे।
तेरह सितम्बर सुबह उपाध्याय ने बताया: विचार है पन्द्रह सितम्बर बेटी को बक्सर से गाड़ी में दानापुर के लिये बैठा दिया जाये। बक्सर में हमें भी कुछ काम है। एक नौकरानी और हरिनन्दन को साथ भेज दें।
शुजा ठीक अवसर समझ बोले, "सितारा की धनबाद वाली जेठानी हमारे यहाँ महीने भर से है। अब उसकी तबीयत ठीक है। उसे भी लौटने की जल्दी। अगर आपको तकलीफ न हो तो बोट के एक कोने में हम भी उसे लेकर बैठ जायें। लड़की को बक्सर से धनबाद के लिये गाड़ी में बैठा दें। यह एक काम हो जाये तो अच्छा।" उपाध्याय को इसमें क्या आपत्ति ! और उपाध्याय के संरक्षण में बलिया पार हो सकने से क्या बेहतर अवसर !
उषा पन्द्रह सितम्बर नौ-दस बजे चलने के लिये तैयार मास्टर शुजा के मकान पर लाला के लिये पालकी पहुँच गयी।
बक्सर घाट पर भी उपाध्याय की लड़की के लिये ही नहीं, शुजा अहमद की बेटी के लिये भी पालकी थी। उपाध्याय जी की बेटी दानापुर के लिये मेल में सवार हो गयी, परन्तु शुजा लाला को रोके रहे। मेल धनबाद रात बेवक्त पहुँचती थी। दो घंटे बाद एक्सप्रेस ठीक सुबह धनबाद पहुंचा देती थी।
मास्टर शुजा के मन में उपा के लिये इतनी चिन्ता और मोह कि उसे जनाना डिब्बे में बैठाकर स्वयं दो डिब्बे दूर मर्दाना डिब्बे में जा बैठे। गाड़ी पूर्व धनबाद की ओर नहीं, पच्छिम जाने वाली सियालदह- लाहौर एक्सप्रेस थी। रात साढ़े दस बजे गाड़ी बनारस के सिक्रोल स्टेशन पर पहुँची।
शुजा गाड़ी से उत्तर गये। स्टेशन पर गोरखपुर जाने वाली गाड़ी का टाइम पूछकर प्लेटफॉर्म पर ही रहे। एक्सप्रेस उषा को लेकर जौनपुर की ओर छूट गयी तो शुजा अपनी छोटी गठरी बगल में दबाये शहर की ओर चल दिये। ख़ुदा का हजार-हज़ार शुक्रिया। कंधे पर ली जिम्मेदारी से सबुकदोश हो गये थे।
बनारस छावनी स्टेशन पर उषा अपनी चादर में लिपटी दुबकी बैठी थी। गाड़ी चली तो खिड़की से आती खुली वायु से साँस लेकर लेट गयी। सूर्योदय हो रहा था। उषा को अनुमान, गाड़ी साढ़े आठ तक लखनऊ चारबाग स्टेशन पर पहुंचेगी। कलेजे में लखनऊ लौटने की धुकधुक के साथ अपनी पुरानी जगह लौट सकने की उमंग। तैंतीस दिन बाद ही
लौट रही थी, परन्तु लगा युग बीत गये हो। उस नगर में जहाँ बीस वर्ष रही थी, उसके प्रेम- प्रणय, कर्तव्य क्षेत्र की स्थली। उसकी एकमात्र सन्तान का आश्रय; उसके माता-पिता, बेथे, भाई की जगह वह कहाँ सिर छिपा सकेगी! केवल एक परिचित मित्र परिवार जिनसे केवल विचार- साम्य की मैत्री।
उपा चारबाग स्टेशन पर सियालदह एक्सप्रेस से उत्तर गयी। बगल में बुगची दवाये, दूसरे हाथ में अलमीनियम का बचना लटकाये थी। बहुत सावधानी से मुसलमान स्त्रियों के रिवाज़ के अनुसार चादर का आँचल बायें से दाहिने ओटे छोटा घूंघट किये थी।
स्टेशन से बाहर जाने वाली भीड़ के पीछे चल दी। उसके साथ ही सफेद बुर्के में एक अन्य मुस्लिम महिला। दोनों गेट पर टिकट देकर अमीनाबाद, चौक पुकारते इक्कों की ओर बड़ रही थीं। उस बुकोश महिला ने पूछ लिया, "आप कहाँ जायेंगी?"
उपा ने उत्तर दिया, "हमें फतेहगंज में कछियारी गली के सिरे पर उतरना है। बुकपोश महिला को फतेहगंज के रास्ते से मौलवीगंज जाना था। महिला ने चार आने में इक्का तय कर लिया। उपा दो आने देकर कठियारी गली उत्तर गयी।
दस्तक सुनकर किवाड़ खोले निगम ने चादर ओड़े बधना लिये मुस्लिम औरत को देखकर निगम हैरान। आगन्तुका निधड़क भीतर चली आयी। उषा को पहचान निगम पुलक उठा। उषा प्रतीक्षा न कर भीतर आँगन में पड़ी खाट पर जा बैठी। रात भर विकट यातना में यात्रा की थकान
दीदी।" निगम ने श्यामा को आवाज़ दी। श्यामा ने पलाश आगन्तुका की ओर देखा और उससे लिपट गयी। आँखों से आँसू वह आये।
पन्द्रह सितम्बर से यूनिवर्सिटी खुल गयी थी, परन्तु श्यामा उस दिन न जा सकी। उपा को बता दिया, पाठक आपकी चिन्ता में बलिया भी हो जाये। सुना है आप जिस मास्टर के यहाँ ठहरी थीं, वह गिरफ्तार हो गया है। पुलिस के कठोर यातना देने पर भी उसने न बताया कि आप उसके मकान से कहाँ गयी। पाठक के तीन-चार दिन में आने की आशा थी। संध्या तक निगम ने अमित से पता लगा दिया। पप्पू प्रसन्न था, उपा के माता-पिता चिन्तित। पुलिस उन्हें जब-तब पूछ-ताछ से परेशान करती रहती थी।
उषा पप्पू को देखने के लिये बेचैन, चाहे दूर से ही। निगम ने पता लेकर बताया, ऐसे यत्र में उषा के पिता-माता पर जोखिम की आशंका। पुलिस लगातार बच्चे पर नज़र रख रही थी. इसी आशा में कि शायद किसी दिन बेटे के माह में ही उषा उनके हाथ पड़ जाये। लखनऊ में उषा के चातुर्य, साहस, सामर्थ्य की कहानियों का अन्त न था।
विल्लाह
तान न सुन ले ॥
वाराणसी में टाउन हाल के सामने, जहाँ अब शरणार्थी बाजार बस गया है। १९४७ से पूर्व विस्तृत मैदान था।