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भाग 5: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023

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रजा की भौवें उठ गयीं, "जब देखो कंधारीबाग गली! मिस पंडित से लग गयी?" "जब देखो तब क्या मौका होने पर सिर्फ इतवार शाम जाता हूँ। उसकी समझ-बूझ अच्छी हैं। समाजवाद में बहुत इंटरेस्ट ले रही है। शी कैन बी ग्रेट हैल्प टु द कॉज । "

"अम कॉज बॉज़ का चूतियापा छोड़ो। अपनी दिलचस्पी की बात करो वह पी० सी० एस० की मंगेतर तुम्हारे फौज को हेल्प करेगी?"

"इन्सान विश्वास और आस्था के लिये क्या नहीं कर सकता! कॉज़ के लिये लोगों ने क्या कुर्बान नहीं किया; बशर्ते विश्वास और आस्था हो। जानते हो, ऐसे इंडियन आई० सी०

भी हैं जो कांग्रेस को मदद दे रहे हैं। कांग्रेस क्या कम्युनिस्टों तक के मददगार शत्रु के किले में अपना विश्वस्त सूत्र होना कितनी बड़ी बात!"

“विश्वास आस्था नहीं ठेंगा!" रजा ने आत्मीयता से डाँटा, “उसे सोशलिज्म की जॉन ऑफ आर्क बनाने के सपनों से अपना दिल बहलाओ।" मुस्कराया, "जानते हैं तेरे दिल की हकीकत लेकिन दिल के बहलाने को अमरू ये खयाल अच्छा है।"

सेठ ने प्रतिवाद किया, "मुझे बेहूदा मज़ाक अच्छा नहीं लगता।" विरोध में मौन छब्बीस जून, रविवार संध्या पंडित के यहाँ से सेठ को उदात्त कर्तव्यभावना के किले की ऊपर की मंजिल से नीचे धकेल दिया गया।

पंडित के यहाँ से लौटकर सेठ अपने क्वार्टर के कमरे में तेज़ सीलिंग फैन के नीचे कुर्सी पर गिर सा गया। उसके रोम-रोम से मिसेज पंडित से पाये अपमान और तिरस्कार की चिनगारियाँ चिटक रही थीं। मैं बिन बुलाये नहीं गया!

उपा को समाजवादी विचारों और लक्ष्य के प्रति दीक्षित करने के प्रयत्न में कर्तव्य के साथ सेठ का निजी संतोष भी ज़रूर था। बातचीत में समझने के लिये तन्मय उषा से उसकी नज़रें मिली रहतीं। उषा की उजली आँखों के झरोखों से उसके मन-मस्तिष्क में अपने प्रति विश्वास, भरोसा और गहरी आत्मीयता देखने का संतोष

सेठ स्वयं को झुठलाता न था। रजा या नरेन्द्र उपा के बारे में जिरह करते तो इन्कार भी न करता वह सिद्धान्त से यथार्थवादी शिक्षा से डाक्टर डाक्टर शरीर के प्राकृतिक गुण- धर्म, प्रवृत्ति और प्रक्रिया कैसे नकार सकता हैं। औचित्य के प्रति उसकी सतर्कता कभी शिथिल न हुई। वह अपने विवेक और संयम में दृढ रहा।

सेठ भौतिकवादी और मार्क्सवादी था परन्तु उसे निष्ठा और साधना के प्रति भी आस्था । गांधीजी की पुस्तक 'सत्य अहिंसा के प्रयोग' उसने बहुत एकाग्रता से पड़ी थी। प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ, वेग आवेग शरीर के गुण-धर्म हैं।

'शायद अपने शरीर के किसी अंग का आपरेशन कर लेना उसके लिये उतना कठिन न होता जितना मिसेज़ पंडित से निरादर पाकर फिर वहाँ जाना।

अमित उस घटना के दस दिन बाद सेठ के यहाँ आया। सेठ ने बिना शिकायत स्वाभाविक ढंग से बात की। अमित ने कोई अन्य चर्चा न कर समाचार दिया जीजी बी० ए० पास हो गयी। तीन नम्बर से फर्स्ट डिवीजन से रह गयी। अब बिना छड़ी के चलती है। यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने का पूरा निश्चय है।

"गुड वेरी गुड!" सेठ प्रसन्न था। अमित ने कंधारीबाग गली आने की न शिकायत की, न आने का अनुरोध ।

रविवार संध्या सेठ को कंधारीबाग गली जाने की याद कचोटती जाती, वहाँ न जा सकने की वेदना का शुला कल्पनाओं से संतोष पाना या बिसूरते रहना सेठ की प्रकृति न थी। उसने रविवार की साँझ के लिये कार्यक्रम बना लिये। नया हैदराबाद में नरेन्द्र के यहाँ, कभी रजा के साथ अमीनाबाद में तिवारी जी के यहाँ या सेवाश्रम

डी० पी० एस० सिन्हा ने कहा था रविवार शाम फुर्सत हो तो आ जाना, आचार्य जी के यहाँ चलेंगे। सेठ आचार्य नरेन्द्रदेव का बहुत आदर करता था। गम्भीर विषयों पर भी आचार्य जी की सरल-सुबोध बातचीत से बहुत संतोष पाता। आकाश में घटाटोप बादल परन्तु बारिश नहीं, जब-तब सुहावनी पढ़वा के झोंकों से हल्की सी फुहारें आकर निकल जाती। भीगकर सराबोर हो जाने की आशंका नहीं। सेठ पौने छः बजे चल दिया।

"संघर्ष' कार्यालय के ऊपर सिन्हा के कमरे का जीना चढ़ते चढ़ते बहस की आवाजे सिन्हा के साथ स्टूडेंट कांग्रेस के जयराम सिंह, एन० डी० अवस्थी, नरेश अस्थाना, अविनाश शर्मा और एक जवान सिन्हा के चेहरे पर परेशानी। सेठ को देखते ही बोला, "सेठ, तुम्हें उस लड़की उपा पर बहुत भरोसा था, पार्टी के लिये बहुत हेल्पफुल कैडर होगी। पूछो इन लोगों से यूनियन के इलेक्शन में वह फेडरेशन में शामिल, उनकी एक्टिव हेल्पर, उनका प्रोपेगेण्डा कर रही है "क्यों कामरेड अवस्थी !”

“सही हैं, “अवस्थी ने स्वीकार किया, “कम्युनिस्ट बहुत शातिर देखा लड़की ब्राइट हैं, रखा ने उसे आते ही पढ़ा लिया। अस्थाना से पूछिये, वह उनकी तरफ से स्टडी सर्किल में बोलती हैं। कम्युनिस्ट की चाल है, जब मीटिंग स्टडी सर्कल करेंगे दो-चार लड़कियाँ जरूर रहेंगी! पाँच आदमी आते हों तो लड़कियों की वजह से दस आयें। दो-चार ने उनकी बातें सुन तो सम्पेबाज बन गये ।

"आप लोग ये देखते हैं!" सिन्हा क्षोभ से बोला "देखकर भी कुछ नहीं सीख सकते। यह है काम करने के तरीके! आपको कौन रोकता हैं। आपमें इनिशियेटिव ही नहीं। उषा को समाजवाद की ओर खींचा सेठ ने वह यूनिवर्सिटी में पहुँचकर फेडरेशन के चंगुल में चली गयी। दोष किसका? हमारी इनफीशेंसी बजह साफ। बताओ सेठ, उपा के यूनिवर्सिटी जाने के बाद तुम उससे कभी मिले? कभी पूछा, क्या पढ़ रही हो, तुम्हारी क्या प्राब्लम्स हैं?"

सेठ ने इनकार में गर्दन हिलायी।

"बस तुमने समझ लिया, महीने डेढ़ महीने में उसे इंडिपेंडेंट थिंकर बना दिया। हर एक वर्कर को सदा विचार, संगति और निर्देश की ज़रूरत रहती है। कम्युनिस्ट ऐसी उपेक्षा नहीं करते। तलवार गड़ी तुमने, सौंप दी कम्युनिस्टों को । अवस्थी कहता है, वह बहुत इंटेलीजेंस और उत्साही है। ऐसी लड़की कितनी सहायक हो सकती है और विरोधी पक्ष में बहुत घातक मेरे भाई, उसकी उपेक्षा मत करो। मिलते-जुलते रहो।"

"इस बार हमारे चांनिज कमजोर हैं।" अस्थाना ने कहा, "कान्सटीट्यूशनली इस बार यूनियन में मुस्लिम स्टूडेंट प्रेसीडेंट की बारी है। हमारे उम्मीदवार जैदी को मुस्लिम स्टूडेंट्स पर प्रभाव नहीं! उसे सिर्फ मुस्लिम वोट मिल सकेंगे। फेडरेशन के उम्मीदवार जमाल नेशुक्रवार संध्या 'संघर्ष' कार्यालय में कांग्रेस समाजवादी कार्यकर्ताओं की गोष्टी या स्टडी सर्कल होता था। आचार्य नरेन्द्रदेव, डाक्टर लोहिया के आने की आशा हो तो पच्चीस-तीस लोग आ जाते। साधारणतः सात-आठ सैद्धान्तिक बातचीत होती, कभी संगठनात्मक समस्याओं पर विचार। डाक्टर अमरनाथ सेठ प्रायः पहुंचता था। उस शुक्रवार पहली मई को अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस कार्यक्रम की समस्या थी कम्युनिस्ट मजदूरों का विश्वास पाने के लिये मई दिवस का उपयोग जोर-शोर से करते थे। मजदूर बस्तियों में जगह-जगह सभाएँ करते, नगर में जुलूस निकालते, मजदूरों की एकमात्र प्रतिनिधि और हितैषी पार्टी होने का दावा परिणाम में रेलवे के दोनों वर्कशाप, कपड़ा मिल, पेपर मिल के मजदूर उनके प्रभाव में थे।

साथी मुकर्जी ने दो वर्ष यब से तालकटोरा कपड़ा मिल मजदूर यूनियन के कुछ लोगों को प्रभावित कर यूनियन पर कब्जा कर लिया था। कपड़ा मिल बहुत बरस पूर्व बन्द हो गयी। उस समय जैसे-तैसे घिसट रही थी। रेलवे कैरेज शाप में भी मुकर्जी का प्रभाव बढ़ रहा था। समाजवादी पार्टी के जरा भी शैथिल्य से कम्युनिस्ट कपड़ा मिल मजदूर यूनियन पर फिर कब्जा कर लेते। मई दिवस पर मिल मजदूरों की सभा होना जरूरी था। मुकर्जी उस सुबह रेलवे कैरेज शाप में सभा कर रहा था। कपड़ा मिल के अधिकांश लोग सआदतगंज में रहते थे। नाथ शास्त्री वहाँ जाने को तैयार था।

"भाई सेठ, पहली मई इतवार है। तुम्हें फुर्सत होगी।" सिन्हा ने सेठ से अनुरोध किया, "मजदूर वर्ग के सम्पर्क में भी आना चाहिये। मोटर साइकल पर कुछ मिनट की बात। नाथ शास्त्री और तुम दोनों मोटर साइकल पर चले जाओ। वहाँ तुम्हारा परिचय हो जाये।" सेठ ने स्वीकार कर लिया।

लौटते समय सेठ को ख्याल आया: पिछले रविवार कंधारीबाग गली गया था। पंडित परिवार की उन्मुक्त आत्मीयता बहुत भली लगी थी। आत्मीयता का व्यवहार वह कोहली परिवार और हरि भैया के सेवाधम में भी पाता था। सभी लोगों व परिवारों का अपना- अपना ढंग होता है। पंडित के यहाँ की शिष्ट आत्मीयता अपने ढंग की। उषा की समाजवाद के प्रति जिज्ञासा। ऐसी शिक्षित सजग, समझदार समर्थ लड़की से सहयोग की संभावना उषा में समाजवाद के लिये सक्रिय सहानुभूति और लगन जगा सकने का उत्साह विदेश और देश की कई क्रान्तिकारी महिलाओं के नाम याद आये अपने ही नगर मैं कामरेड डाक्टर रशीदजहाँ डाक्टर रशीदा अकेली पचास कामरेडों के बराबर रशीदा से मतभेद के बावजूद लक्ष्य के लिये उसकी लगन, सहृदयता और प्रभाव को कौन नहीं मानता था। लेकिन उपा का तो विवाह होने जा रहा है, किसी पी० सी० एस० से मिसेज़ पंडित ने व्याकुलता में सेठ को सब बता दिया था। बहुत परेशान थी, कैसे निबहेगा ! उपा को चोट न लगी होती तो मई में ही विवाह की तारीख थी।

सेठ उस बात को महत्त्व न देना चाहता था। उषा उसे बहुत अच्छी लगी थी। उपा अपने समय कालेज की उर्वशी रही हो ऐसी बात नहीं। ऐसी सुन्दर तो थी रोशनआरा हरवानी, बैरिस्टर बदीउज्जमां हरवानी की बेटी। नाक-नक्श कद और अनुपात ऐसा कि एक बार देखकर न भूले। तिस पर रंग पककर टपकी इंगुरी बुरमानी जैसा। उपा का रंग चिट्टा गोरा-गुलाबी नहीं, उजला गन्दुमी शरीर की गठन नपी-तुली किनारे छूती जवानी। प्यारे नख-लिख के अतिरिक्त माथे पर चैतन्य का उजाला

सेठ हस्पताल के क्वार्टर में रहता था। रसोई और दूसरे काम-काज के लिये घर के पुराने नौकर हरिया का लड़का परसू साथ था। सेठ का होस्टल के समय का अभ्यास कायम था। शनिवार संध्या सेवाश्रम का चहर लगाता, घर जाकर पिता का हाल-चाल देख पूछ कर बुआ के संतोष के लिये उसका बनाया खाता। पिछले चार वर्ष से हरि भैया को कृष्ण मन्दिर की यात्रा न करनी पड़ी थी। लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन के बाद उनका बहरे का रोजगार अच्छा जम गया था। शुद्ध बदर भंडार के लिये झंडेवाले पार्क में दो दर की दुकान किराये पर ले ली थी। कांग्रेस मिनिस्ट्री बन गयी तो नगर में उनका प्रभाव पूर्वापेक्षा चौगुना। लोग सिफारिश के लिये घेरे रहते।

सेठ को अपनी गली सूनी और उदास लगने लगी थी। मास्टर जी सहसा बहुत डल गये थे। उम्र अभी पचास भी नहीं, परन्तु चेहरे पर बुडापा बोलचाल और व्यवहार में बकान और निराशा। सामर्थ्य से अधिक धर्म और चिन्ताओं का बोझा सत्या और दया का विवाह करने में प्राविडेंट फंड से बहुत उधार ले चुके थे। तीसरी बेटी विद्या भी पन्द्रह पूरे कर चुकी थी। सबसे अधिक उन्हें तोड़ दिया था ओमप्रकाश की बेकारी और निरुत्साह ने

ओमप्रकाश ने सन् तैंतीस में बी० ए० पास किया था, बर्ड डिवीजन में कालेज की पड़ाई के अतिरिक्त मास्टर जी की ट्यूशनों में हाथ बंटाता था। आशा थी, लड़का बी० ए० पास कर नौकरी पर लग जायेगा तो पिता का बोझ हल्का होगा। ओमप्रकाश ने नौकरी के लिये कितनी दरखास्तें दीं. सिफारिशों के लिये गिड़गिड़ाया परन्तु कहीं वेकेंसी नहीं। प्रोड़ों को याद होगा, १९२९ से १९३९ तक देश में भयंकर बेरोजगारी और मंदी थी। तब न देश की जनसंख्या इतनी अधिक थी, न शिक्षितों की संख्या तिस पर भी शिक्षितों में भयंकर बेकारी महँगाई तब इतनी न थी पर बेरोज़गारी और मंदी के कारण सस्ते में भी लोग परेशान परन्तु कोई न कहताः रोजी-रोटी दो या गद्दी छोड़ दो। उस समय सरकार का उत्तरदायित्व था, इन्साफ और लोगों के जान-माल की रक्षा। रोजी-रोटी देना ख़ुदा का काम जिसने जो बने कमाये खाये।

ओमप्रकाश जहाँ से भी आशा देखता यब करता। उसे कलख थी वह बड़े आदमी का बेटा-भतीजा होता, उसे तुरंत आराम की अच्छी नौकरी मिल जाती। निरन्तर बेकारी की आत्मग्लानि और शूल। अपनी गन्दी में देखता, नरेन्द्र उससे एक वर्ष पहले बी० ए० पास करके एम० ए० के लिये यूनिवर्सिटी में था। उसे नौकरी की चिन्ता न थी। बड़िया साफ कपड़े, संतुष्ट हँसमुख चेहरा खरं से साइकल पर निकल जाता। अमरनाथ डाक्टर बन रहा था मोटरसाइकल पर आता-जाता। वे सम्पन्न परिवारों के थे इसलिये होनहार, सराहनीय, सबके लाड़ले। शिक्षा उसकी भी उनके बराबर परन्तु गरीब मास्टर का बेटा तरसता, गिड़गिड़ाता फिर रहा था। नरेन्द्र और अमर को उससे मिलकर सहानुभूति पर कुछ कर न सकते, कतरा जाते। उनका कतरा जाना ओमप्रकाश को अहंकार जान पड़ता। उससे और अपमान, क्षोभा

मास्टर जी को भरोसा था, रायसाहब शंकर प्रसाद पर। रायसाहब भी माथुर कायस्थ और आर्यसमाजी कायस्थ भाई की सहायता धर्म समझते थे। शंकर प्रसाद सेक्रेटेरियट में आफिस सुपरिन्टेंडेन्ट थे। मास्टर जी ओमप्रकाश के साथ दो बार स्वयं उनके यहाँ गये। मास्टर जी के गाढ़े के कपड़े देखकर हिन्दुओं की मूर्खता के प्रति रायसाहब का क्षोभ फूट पड़ा, "स्वदेशी को हम भी अच्छा समझते हैं। देश प्रेम हमारे मन में भी हैं, परन्तु सरकार को चिज्ञाने से क्या फायदा?"

मास्टर जी ने हाथ जोड़ दिये, "रायसाहब, हम असमर्थ लोग क्या देश प्रेम करेंगे। हमारे लिये सस्ता मजबूत कपड़ा ही देश प्रेम देश प्रेम लायक होते तो नौकरी के लिये झोली पसारे फिरते?"

रायसाहब ने खिन्नता प्रकट की, "सालो साल स्कूल-कालेजों से सैकड़ों हजारों नौजवान पास करके आ रहे हैं। मुल्क में इतनी बेकारी। हिन्दू कांग्रेस में शामिल होकर सरकार से लड़ेंगे, स्वराज मांगेंगे। सरकार हिन्दुओं को नौकरी क्यों देगी? इधर साल भर में इक्कीस वेकेंसी निकली, पन्द्रह मुसलमानों को दे दी गयी। सरकार उन्हें वफादार समझती हैं, हिन्दुओं को बागी ठीक ही समझती हैं। हिन्दू कहीं सरकार पर बम चलायेंगे, कहीं अफसरों को गोली मारेंगे, कहीं नमक बनाकर लाठी खायेंगे। निरे नमक से पेट भरता हो तो वही बनाओ' 'खानसाहब गुलाम नबी अंसारी हमसे तीन महीने जूनियर था। सेक्रेटरी रॉकवेरी का पी० ए० बना और खुशामद करके डिप्टी असिस्टेंट सेक्रेटरी लग गया। कॉम का तो साला जुलाहा । गुशामद का वैसा हुनर हिन्दू के पास कहाँ हिन्दू तो ऊँच-नीच जाति के गुरूर में मर जायेगा। वह रॉकवेरी के कान भरता है, हिन्दु सब बागी हैं। हम जब नौकरी पर लगे सेक्रेटेरियेट में मुसलमान आटे में नमक बराबर थे, अब मुसलमान ही मुसलमान आ रहे हैं। खेर हमारे बस में जो होगा करेंगे। एक बात से चौकस रहियेगा। अपाइंटमेन्ट से पहले तहकीकात होगी। उम्मीदवार और उसके खानदान का सियासत से किसी तरह का ताल्लुक न होना चाहिये।"

ओमप्रकाश की सहायता के लिये रायसाहब ने उसे अपने तीनों बच्चों की ट्यूशन दे दी थी। उसे रायसाहब से ट्यूशन लेने में संकोच था, परन्तु गरीब की सहायता के लिये दस रुपया मासिक दे देते।

ओमप्रकाश पाँच मास ट्यूशन पढ़ा चुका था। एक दिन रायसाहब ने कहा, आफिस में एक बंडल ब्वाय (फाइल इधर-उधर देने वाले) की वेकेंसी हुई हैं। तुम दफ्तर में आ जाना। तनखाह बीस रुपया मासिक है। देखो, संकोच मत करो। बैठोगे कुर्सी मेज पर ही काम तुमसे बंडल ब्वाय का नहीं करायेंगे। एक बार सरकारी नौकरी पर लग जाओ, लियन बन जायेगा।

ओमप्रकाश का अहंकार टूट चुका था। बी० ए० पास करके बंडल ब्वाय की नौकरी । खून के घूँट भरकर रह गया। परिचितों से टेम्परेरी क्लर्क मिल जाने की बात कहता। रायसाहब ने बचन पूरा किया। ओमप्रकाश नौ मास पश्चात् पचीस मासिक पर जूनियर ग्रेड क्लर्क हो गया। रायसाहब की मदद से साल के अन्त तक एक सीढ़ी और चढ़ गया तीस मासिक मिलने लगा।

ओमप्रकाश की सगाई मास्टर जी अढाई वर्ष पूर्व स्वीकार कर चुके थे। लड़की सोलह पूरे कर चुकी थी। समधी हापुड़ मंडी के रसली ब्रदर्स के दफ्तर में क्लर्क थे। तनखाह के अतिरिक्त कुछ निजी सौदा-सट्टा भी करते रहते। आर्थिक स्थिति अच्छी । दामाद सरकारी नौकरी पर लग गया जानकर अधिक विलम्ब नामंजूरा मास्टरनी को आना, बहू अच्छा दान-दहेज लावेगी। विद्या के व्याह में सहायता मिलेगी। ओमप्रकाश की शादी हो गयी।

ससुराल की स्थिति देखकर ओमप्रकाश की बहू का दिल बैठ गया। माँ बाप ने किस नरक में पटक दिया। जल्दी ही सास को जवाब में उसका बोल पड़ोसियों को सुनाई देने लगा। छोटी ननद के दहेज में उसके जेवर और सामान देने का प्रस्ताव सुनकर वह चीख उठी, फूट गये मेरे करम! खुद तो क्या बनवा कर देंगे, बाप का दिया भी खसोटे ले रहे हैं।"

सास ने बहू के कमीनेपन का विरोध किया "लड़के को पाल-पोसकर बी० ए० तक पूडाने लिखाने में हमारा भी कुछ खर्च हुआ है। उसके ब्याह में भी हमने कम खर्च नहीं किया।"

बहू ने जवाब दिया, “पाल-पोसा, पढ़ाया-लिखाया होगा अपने लड़के को मेरे माँ-बाप ने जो चीजें मुझे दी हैं, वे भी आते ही नोचने-खसोटने को तैयार"" बहू ने अपना दुर्भाग्य रोकर पूरी गली को सुना दिया।

मास्टर जी ने बहुत सहा था परन्तु ऐसा अपमान और मानसिक अशान्ति न सही थी। अन्ततः माँ बहू के कलह से परेशान होकर ओमप्रकाश ने गोलागंज में साढ़े तीन रुपये पर दूसरी जगह ले ली। मास्टरनी बहुत रोधी हमारे पिछले जन्म के करमा मास्टर जी ने प्रभु को याद किया।

ओमप्रकाश बहू के साथ गली से चला गया। धन्नो, पार्वती, सत्या, दया पहले जा चुकी थी। विद्या को भी जाना ही था। नरेन्द्र भी चला गया तो अमर का बोलचाल का साथी गली में कोई न रहा। ओम के जाने से मास्टर जी और नरेन्द्र के चले जाने से कोहली उदास हो गये थे। उसका असर मेठ जी पर भी।

नरेन्द्र के व्यवहार से सेठ जी विशेष चिन्तिता अमर न मानता पर सेठ जी जानते थे। अमर पर लड़कपन से नरेन्द्र का प्रभाव रहा था। लत्ती लट्टू के खेल और कनकैया उन्हाने से लेकर सभी बातों में दो बरस बड़े-छोटे भाइयों की तरह झगडा-मारपीट भी हो जाता फिर भी साथ बना रहता। बैलों की जोड़ी की तरह।

बच्चों और किशारों की नयी पीडी से गली अब भी गूंजती रहती। यही सब खेल और हरकतें जो नरेन्द्र, धन्नो, ओम, अमर, सत्या, जयदेव, दया करते थे। अमर को उनसे क्या लेना था। बस गंगा बुआ पहले जैसी थी। टंडन दादी कुछ और कुबड़ी हो गयी थी। बुआ भतीजे की बहू का मुँह देखने के दिन गिन रही थी। उलाहना देती रहती, "अमर भैये बहू का मुँह देखना हमारी परालब्ध में नहीं बदा । बहु लाओगे पर हमें मनान पहुँचाकर ।" बुआ, तुम बहू का मुँह देखे बिना जा नहीं सकती." अमर कहता, "इसीलिये बहू को अटकाये हैं। तुम सौ बरस की हो जाओ तो हम हवनी जैसी खूब जवर जवान बहू लायेंगे. तुम्हारे हाथ-गोड दबाने के लिये।"

हाय हाय, अम्मू बेटे, हमें सौ बरस तक करोगे राम-राम बेटे, हमने ऐसे कौन पाप किये हैं?

"तुमने पाप नहीं किये। हम अपने पुत्र के जोर से तुम्हें देह सौ बरस तक रखेंगे। अब संजीवनी बूटी की सूई बन गयी। तुमने जरा आँय बॉय की कि झट सूई ठोंक देंगे!" बुआ- भतीजे में ईसी नोक-झोंक चलती रहती। अमर शनिवार साँझ पर जरूर आता

अमर अपनी गली में आया तो पिता कोहली के यहाँ से आ रहे थे। सेठ जी ने बेटे को बैठक में पंखे के नीचे बैठाकर कुशल-मंगल पूछा। अमर ने पिता को चिन्तित देखकर पूछ लिया, बच्चा, क्या बात हैं?"

"चलो जरा वकील भाई को देख लो। उन्हें कल रात से तेज बुखार है। डाक्टर अग्रवाल दो बार आ चुके हैं। तुम भी देख लो।"

अमर उठ गया।

कोहली योडी के दाहिने हाथ खस की टट्टी लगे कमरे में थे। पुष्पा भाभी माथे पर छोटा घूँघट खींचे ससुर के माथे पर बरफ पानी की पट्टी रख रही थी।

"आओ आओ अमर बेटे, तुम्हें भी परेशान किया।" अमर के पेरीपना के उत्तर में बाबू बोले, "सब समझ रहे हैं, कबीरा जात पुकारिया चढ़ि चन्दन की द्वारा हम ऐसी जल्दी जाने वाले नहीं। पोढ़ी काठी है। और कोई चल दे तो क्या टॉंग पकड़कर धर लोगो? डैथ इज द ओनली सर्टेनटी!" अमर को विस्मय न हुआ। कोहली बुखार में अकसर बरने लगते थे।

महेन्द्र पलंग के समीप कुर्सी पर बैठा था। उसने कुर्सी से उठकर के जगह दे दी। अमर कोहली की नब्ज देखने लगा। कोहली बोलते गये, "अच्छा हुआ तुम आ गये। तुम समझदार हो बेटे, नरेन्द्र को तार-बार देकर परेशान करने की जरूरत नहीं। तीन ही रोज पहले शौक से पहाड़ गया है। हमें जाना होगा तो वह रोक लेगा! क्या फायदा " पल भर सोचा, "सुनो बेटे, नरेन्द्र से कहना अपना मन मारकर अपनी समझ के खिलाफ कुछ न करे। बंस अंस की बात फिजूल ओल्ड आर्डर चेंजेस यील्डिंग प्लेस टु न्यू। तुम लोग मानते हो, आल बिलीफ एण्ड नालेज इज एक्शन आफ ब्रेन। कानशसनेम इज सोल। मनुष्य की चेतना ही आत्मा फ्रीडम फ्राम फीलिंग चेतना का अंत!" आँखें मुँद गयीं। कुछ अर्थहीन शब्द तन्द्रा में मौन।

भावो कमरे में आयी, "बहू, पट्टी में रखती हूँ, तुम आराम कर लो। "

बहू के उठने और भावों के बैठने से पलंग कुछ हिल गया। कोहली की पलकें खुल गयीं, "ओह, बहू तुम हो !" आसीस में बाँह उठा दी, "बहू सुनो!” पुष्पा ने सिर ससुर की ओर र झुका दिया, "बहु तुम हमारी तीसरी बेटी, डाटर इन लॉ ऍण्ड डॉटर ट्वाइस डॉटर ब्लेस यूँ ट्वाइस जो तुम्हें सताये घोर पापी।"

बहू आँचल आँखों पर दबाकर सिर झुकाये चली गयी। भावो ने ओंठ दाँत से काटकर गर्दन झुका ली।

कोहली बरते गये, परलोक में दो चुल्लू जल के लिये तरसने का बहुम पितरों के श्राद्ध के नाम पर ब्राह्मणों को डैच ड्यूटी दो ब्राह्मण का पेट प्रलोक माल भेजने की एजेंसी। कभी स्वर्ग पहुंचे माल की रसीद आयी? इतते सभी गये माल लदाय-लदाय, उत्तते कोई न आइया जासों पूछों जाय। ब्राह्मण एजेंट सिर्फ हिन्दू का माल स्वर्ग पहुँचाता है। बाकी दुनिया की आत्मा परलोक में भूखी-प्यासी रहती है। सब जाल बट्टा हा हा हा! ठगनी झमकावे नैना " फिर तन्द्रा का मौन अमर ने कोहली की कलाई धीमे से पलंग पर रख दी।

अमर आहट बचाकर उठा। एक ओर हो महेन्द्र से बात की। अमर ने नुस्खा ध्यान से देखकर टैम्प्रेचर लिया। बुखार फिर दो हो गया था। अमर ने राय दी, “दबा ठीक है। पाँव पर भी पानी की पट्टी रखिये।" कोहली नींद में खर्राटा लेने लगे।

पुष्पा भाभी को कोहली के विशेष आशीर्वाद, भावो के आँसू, श्राद्ध के मिध्या विश्वास पर कोहली के प्रवचन से अमर के मन में खुदबुद हो रही थी। अमर आँगन की ओर गया। "कहो भाभी बहुत थक गयीं?"

भाभी कमर सीधी करने के लिये आँगन में खाट पर लेट गयी थी। हाथ की पंखी से शरीर पर हवा ले रही थी।

"आओ अमर भैये!" भाभी उठकर खाट के सिरहाने हो गयी। पाँव धरती पर भाभी ने पैताने खाली जगह की ओर अमर को बैठने का संकेत किया।

"इतना घबरा क्यों गयीं।" अमर ने बैठकर पूछा, "बाबू तो बुखार में बरते ही हैं। "

मामूली मौसमी बुखार है।"

"हम क्या घबरायें!" भाभी ने लम्बी साँस ली। हाथ की पंखी से स्वयं और अमर को हवा देती बोली, “इन लोगों की समझ कोई बुखार की वर्राहट का मतलब निकाले, जवाब दे तो क्या कहा जाये।"

पुष्पा अमर को नरेन्द्र की तरह ही मानती थी। दोनों देवरों से सहज निस्संकोच व्यवहार भाभी ने बताया, "बाबू सुबह भी बुखार में बर्रा रहे थे हम बहुत संतुष्ट-मुखी जायेंगे। हमें कोई गम नहीं। शरीर छूट गया तो आत्मा की भूख-प्यास कैसी और क्या हविस! तुम जानते हो, बाबू ऐसी बात बिना बुखार के भी कहते हैं। भावो ने ज्यादा समझ लिया। तसल्ली देने लगीं: दिल छोटा न करो। तुम ठीक हो जाओ, हम पोता, गोद ले लेंगे। बाबू भड़क उठे: तुम हमें झूठा समझती हो! हम अन्त समय भी झूठ बोलेंगे! तुम्हारे दिल में वही खटक बनी है। जाने क्या-क्या कह गये। फिर वही बर्रा रहे थे।" पुष्पा फुंकार में कह गयी, "जब देखो हम पर दोष डालती हैं ।"

पुष्पा भाभी की फुंकार का कारण अमर जानता था। महेन्द्र का विवाह कोहली साहब ने जमाने के विचार से अच्छी उम्र में किया था। गौना विवाह साथ विवाह के तीन बरस बाद भी बहू की गोद हरी न हुई। पुष्पा को बच्चे अच्छे लगते हो ऐसी बात न थी। लेखराज के छोटे बच्चे-बच्ची को खूब खिलाती दुलारती थी। बच्चों के गू-मूत से हिचक नहीं। उन दिनों बाजार में बड़े-बड़े विलायती बहुए आते थे। अब जिन्हें प्लास्टिक के खिलौने कहते हैं, तब मसाले या सिलोलाइड के कहलाते थे। जयरानी सन् २९ में आयी थी तो दिल्ली से खूब बड़े-बड़े दो बबु ले आयी थी, कमरे में कार्निस की सजावट के लिये।

पुष्पा सिलाई कसीदा अच्छा जानती थी। दोनों बबुओं के लिये लड़के-लड़कियों जैसे बहुत सुन्दर बचकाने कपड़े, कई-कई जोड़े बना डाले। अदल-बदल कर पहनाती रहती। साल- साल ऐसे चलता रहा।

एक दिन लेखराज की बहू ने सहानुभूति में कह दिया, "बेचारी को सूनी गोद का गम है। ऐसे ही शौक पूरा करे।" पुष्पा झेंप गयी। बबुए आलमारी में बन्द कर दिये।

लेखराज की बहू ने कह दिया था, देखती सभी थीं। बहू की सूनी गोद से भावो स्वयं

बहुत चिन्तित, बहू से गहरी सहानुभूति। अपनी माँ सास से सुने, पहाड़ियों के बताये टोने- टोटके पूजा व्रत- अनुष्ठान बहू से कराने लगी।

पुष्पा पूर्णिमा का व्रत रखकर सत्यनारायण की कथा सुनती। प्रदोष तेरस को व्रत रखकर शिव पूजा के लिए मन्दिर जाती। सन्तान बेटा हो, इस प्रयोजन से बृहस्पतिवार व्रत रखकर केले की पूजा करती और सॉल आलूना बेसन खाती। चन्द्रिका माता घर में थी। प्रत्येक व्रत के पारायण के समय माता का दर्शन करती । यह सब अनुष्ठान वकील साहब के परोक्ष होते।

सन् १९३२ में जयरानी आयी तो बेटी और बहु में मन्त्रणा हुई। जयरानी दिल्ली, लाहौर में नयी बातें सुन सीख गयी थी बोली, “भावो, व्रत-पूजा, टोना-टोटका तुम जो चाहो कराती रहो। भाभी को एक बार डाक्टरनी को जरूर दिखा दो।"

तब कीन मेरी हस्पताल, जो अब कस्तुरबा हस्पताल बन गया, नया-नया खुला था। भाभी को जयरानी हस्पताल की बड़ी डाक्टरनी के बंगले पर ले गयी। सोलह रुपया फीस देकर दिखाया।

मेम डाक्टरनी ने बहुत अच्छी तरह देखा-भाला। राय दी बहू की सेहत सब तरह से ठीक है। बच्चा हो जाना चाहिये।

जयरानी ने डबल तसल्ली के लिये मिशन किन्नर्ड जनाना हस्पताल की बड़ी मेम डाक्टरनी के यहाँ भी पुष्पा को दिखा लिया। किन्नर्ड की डाक्टरनी की राय में भी पुष्पा पूर्ण स्वस्थ सन्तानोत्पत्ति के लिये समर्थ। इस डाक्टरनी ने पूछा, "इसका मर्द तो ठीक है? उसे डाक्टर को दिखाया है?"

पुष्पा अंग्रेजी न जानती थी, अंग्रेजी जयरानी ने भी न पड़ी थी। अब संगत में मतलब भाँप लेती थी। उसने डाक्टरनी का प्रश्न भाभी से अपनी भाषा में पूछा, “डाक्टरनी पूछती है, महेन्द्र तो ठीक है?"

"भले चंगे हैं।" पुष्पा ने झेंप से उत्तर दिया।

"मले चंगे है!" जयरानी ने कुरेदा, "वैसे तो कमजोर नहीं।"

पुष्पा की गर्दन झुक गयी, “सहजोर कमजोर कौन जाने। हमारे जानते ठीक हैं।" जयरानी ने समझाया, इलाज कराना है तो डाक्टरनी से क्या शर्म डाक्टरनी पूछती तुम्हारी तसल्ली होती है

पुष्पा ने झिझक से हामी भरी लेकिन जयरानी के मन में शंका बनी रही।

• जयरानी ने भावो को बताया। भावो से कोहली ने सुना। डाक्टरनी से सलाह लेने के लिये उनका भी समर्थन था। स्थिति कुछ स्पष्ट हो रही थी। अब समस्या का समाधान महेन्द्र के लिये डाक्टर की राय पर निर्भर था।

दूसरे महायुद्ध से पूर्व लखनऊ में एक जर्मन डाक्टर बॉरेल हाज़ का बहुत नाम था। डाक्टर स्त्री-पुरुषों की यौन दुर्बलताओं क्लैब्य, बंध्यापन, नपुंसकता के उपचार का विशेषज्ञ था। कोहली ने डाक्टर से परामर्श लिया।

डाक्टर ने कहा, "केस की परीक्षा और दूसरे टेस्ट किये बिना कुछ नहीं कहा जा सकता। निर्बलता अनेक प्रकार की नारी को संगति संतोष हो जाने पर भी पुरुष में हार्मोन्स की न्यूनता से गर्भ सम्भव न हो। ऐसी न्यूनता का इलाज सम्भव भी है। परीक्षा और टेस्ट के बिना कुछ नहीं कहा जा सकता।"

जैसे पुष्पा की डाक्टरी परीक्षा की बात जयरानी, भावो की मार्फत कोहली तक पहुँची थी, उसी प्रकार जर्मन डाक्टर से परामर्श का सुझाव भावो, जयरानी, पुष्पा की मार्फत महेन्द्र तक पहुँचने का रास्ता हो सकता था। बहू तो सास के हुक्म से ननद के साथ चुपचाप डाक्टरनी के यहाँ चली गयी थी। महेन्द्र को कोई पकड़कर डॉक्टर के यहाँ कैसे ले जाता! उसके आत्म-सम्मान का प्रश्न उससे पूछता कौन? उत्सुकता घर में सबको पखवाड़ा बीत गया। जबरानी ने पुष्पा से बात की, "हमने तुम्हें जर्मन डाक्टर की बात कही थी ?"

पुष्पा ने गर्दन लटकाये पति का उत्तर ननद को बता दिया, हमने तुम्हें डाक्टरनी के यहाँ जाने को नहीं कहा। तुम जानती हो, हम भले चंगे। किस बात के लिये जायें डाक्टर के यहाँ बाल बच्चा हो जाता ठीक था, नहीं हुआ ईश्वर की इच्छा। बाबू भावो को पोते की साध है। बरम दो बरस में नरेन्द्र की बहू आ जायेगी। उनकी साथ पूरी हो जायेगी। तुम्हें किस बात की कलपन!"

"हमें क्या कलपन!” पुष्पा ने कह दिया, "तुम्हें फिक्र नहीं तो हमें क्या फिक्र हो, अपने लोगों से कहो, जो हमें बाँझ बाँझ कह रही हैं। हम खुद डाक्टरनी के यहाँ नहीं गयी। भावो, बीबी जी से पूछो, हमें क्यों ले गयीं?"

"उसकी इच्छा।" जयरानी ने बेबसी प्रकट कर दी।

पुष्पा ननद से छोटी थी। महेन्द्र भी छोटा भाई, परन्तु जयरानी उससे आत्मीयता में

बराबरी का व्यवहार और सब तरह की बात कर लेती।

"बीबी जी. एक बात पूछे?" पुष्पा बोली।

"क्यों नहीं, जो चाहो पूछो। "

पुष्पा झेंप गयी, "नहीं रहने दीजिये, आप नाराज हो जायेंगी।"

"हम तुमसे कभी नाराज हुई? मन में आयी बात पूछोगी क्यों नहीं। हमें भी धुक धुक लगी रहेगी।"

"आप बुरा मान जायेंगी।" पुष्पा ने फिर टाला। ननद से आश्वासन पाकर सकुचाते- सकुचाते कह डाला, "बीबी जी, भावो जी ने कहा और आप हमें कान पकड़कर डॉक्टरनी के यहाँ ले गयीं। अब इन्हें कोई कुछ क्यों नहीं कहता?"

जयरानी दो पल मौन रहकर बोली, "पुष्पा, तुम्हारा सवाल ठीक लेकिन हम सच कह दें तो बुरा मान जायेगी।"

"हम सच का बुरा क्यों मानेंगी बीबी जी!" पुष्पा की गर्दन तन गयी, "न बताओ तो हमारे सर की कसम बीबी जी! हमारी जो गलती है, खोट है, हमारे मुँह पर कहिये।"

"ले सुन ! डाक्टरनी के यहाँ यों ले गयी थी", जयगनी के स्वर में क्रोध, "डाक्टरनी कह देवी तुममे खोट हैं, तुम इस लायक नहीं तो भावो दुनिया-जहान सिर पर उठा लेती- महेन्द्र का दूसरा ब्याह करो, दूसरी बहू लाओ। डाक्टर महेन्द्र में खोट बता दे तो तुम क्या कर लोगी?

पुष्पा की आँखों से बल-बल आँसू मुँह आँचल में छिपा लिया। जयरानी ने पुष्पा को बाँहों में खींच लिया। स्वयं उसके गालों पर आँसुओं की धारा ।

"देख पुष्पी, हम तो यह सब देखकर खुद फेंकी जा रही हैं। तुमने हमारी जवान

खुलवायी। भावो तो पोते-पोती की हविस से पागल। हमें डर था, हमारे जाने के बाद भावो कोई दूसरा तुमार न खड़ा कर दे।"

जयरानी ने सहानुभूति प्रकट की। पुष्पा का मुँह खुला था तो और बोल गयी, "बीबी जी, भावो को जो अरमान हैं, पूरे कर लें हमारी तो सर जायेगी लेकिन अब व्रत-पूजा करने को हमसे कोई न को!"

अमर और भाभी आगे पीछे कमरे में आये। बाबू के हल्के खराटे और समश्वास ने गहरी नींद का अनुमान अमर ने पल भर बाबू की ओर देखकर बहुत धीमे से उनका शरीर हुआ। ताप में न्यूनता लगी।

भाभी के संकेत से महेन्द्र कुर्सी से उठ गया। भाभी पानी की पट्टी रखने के लिये कुर्सी पर बैठ गयी। अमर ने महेन्द्र के कान में फुसफुसाया, “अब बुखार उतर रहा हैं। अब ठण्डी पट्टी सिर्फ सिर पर रखिये। बुखार बढ़ने लगे तो पाँव पर भी रखियेगा । "

भो उठकर अमर के समीप आ गयी, "बेटे, रात यहीं रह जाओ। डाक्टर बुलाने की जरूरत हो जाये तो बहुत बेकली लगती है।"

"चिन्ता न कीजिये। नीचे आँगन में ही लेदूंगा।" अमर ने आश्वासन दे दिया, "नत्थू जब चाहे पुकार ले।"

अमर भाभी की बात दुलख न सकता था।

हरिया ने आँगन में गहरा छिड़काव कर दिया। अमर के लिये पलंग बिछाकर टेबल फैन लगा दिया था। इस सुविधा में भी अमर को नींद न आ रही थी। वह बाबू, भावो, महेन्द्र और पुष्पा को सगे-सम्बन्धियों से ज्यादा मानता था। विवाह के लिये असहमत होकर नरेन्द्र घर से अलग रहने लगा तो उनकी अशान्ति और बढ़ गयी थी। नरेन्द्र की विवाह से अनिच्छा से भी अमर सहमत।

नरेन्द्र कहता विवाह जीवन की पूर्णता के लिये आजीवन प्रेम का संबंध नहीं मजबूरी है। युवक-युवती की भेंट में प्राकृतिक उद्वेग से सन्तान का बोझ आ पड़ना शेष जीवन उस बोझ को निबाहने की मजबूरी हमारी बिरादरी समाज में पत्नी प्रेम नहीं विवशता में स्वामी भक्ति निवाहती है। वह प्रमाण में सम्बन्धियों, पड़ोसियों और परिचितों के अनेक उदाहरण बता देता । ऐसे बन्धन से आजीवन कलपन सहेड लेने से लाभ?

कोहली परिवार के प्रसंग से अमर को रजा की बात याद आ गयी। रजा को एम० एस० करने की धुन। पछता रहा था; निकाह क्यों कर बैठा। एम० एम० की तैयारी करे या बीबी को सन्तुष्ट? अमर और नरेन्द्र जानते थे, रजा ने इतनी जल्दी शादी शौक से नहीं, डाक्टरी तालीम का खर्च पा सकने के लिये, अनिच्छा और मजबूरी में मंजूर की थी, लेकिन निकाह के बाद बीवी से पहली संगति में ही बात कुछ और।

निकाह के समय रजा की दुल्हन पर नयी फूटी जवानी लचीला, लुनाई से दमकता बदन सुडौल कसे, चिकने कोमल, उभार। चेहरा नमकीन खुलता साँवला। कटहल के कोये जैसी बड़ी-बड़ी आँखों में चंचल काली पुतलियों तीखा नाक-नक्शा रोम-रोम में चटकती चुम्बक बिजली।

ती की माँ तराई के कसाब की बेटी थी। मियाँ शमसुद्दीन की उस पर नजर पड़ी तो रीझ गया। कसाब को रकम देकर उसकी बेटी से निकाह कर लिया। मियों ने नयी बीवी को दो साल हलद्वानी में मकान लेकर रखा। फिर लखनऊ ले आये। गेती ने माँ की काठी और नाव - नक्शा पाये, उस पर शहर के नाज अन्दाज की पान

शमसुद्दीन ने दहेज में मकान का वायदा किया था। निकाह के बाद दुल्हन रस्मी तौर पर रज़ा के घर गयी। वहाँ जगह की बहुत किल्लत। तीसरे दिन रजा दुल्हन को लेकर वजीरगंज की गली में गेती की माँ के मकान में चला गया। वह दुल्हन के चुम्बक से बेसब्र चाहे कि दूसरे लोगों को भगा दे। वही हाल गेती का, आँखों और हाव-भाव में निरन्तर उन्मादा ती मौका बना ले। ऐसे मामले में औरत की सूझ तेजा ती 'हाय अल्लाह' कराह कर उसके आवेग को और लहूकाये इन्सान हो या जिन हड्डी हड्डी पूर कर दी। कामकेलि के बीसियों पैंतरे।

निकाह के समय छुट्टी के तीन सप्ताह शेष थे। छुट्टियों की समाप्ति पर रजा को होस्टल लौटने की मजबूरी छः दिन व्याकुल प्रतीक्षा, रात ससुराल में बिता सके। छः दिन कभी ही कट पाते। कभी दोपहर बाद कभी दोपहर से पहले ही किसी से साइकल मांगकर जरूरी काम कह वजीरगंज हो आता।

कोई ज्वार सदा चढ़ाव पर नहीं रह सकता। पाँच मास अति, फिर भाटे का आरम्भः दिसम्बर में परीक्षा सिर पर रजा भविष्य की चिन्ता से परीक्षा की उपेक्षा न कर सकता था। दिन में वजीरगंज जाने की बात क्या शनिवार रात भी वह चौक दरवाजे पर नानबाई के वहाँ पेट भरकर पड़ने के लिये रात होस्टल में ही रह जाता। वह सब पुस्तकें खरीदन पाया था। सहपाठियों के साथ पड़ता या उनसे पुस्तक माँगकर रात में पड़ता ।

निराशा से गेती का मुँह फूल जाता यहाँ नहीं आया तो कहीं और गया। मेडिकल कालेज की मर्दमार मिसिया नमों की शहर में ख्याति थी, दिन दोपहर में मर्दों की कमर में बाँह डालकर खींच ले जायें। जवान शौहर के सातवीं रात भी घर न आने की और क्या वजह समझती। डाक्टरी की जानमार पढ़ाई की उसे क्या कल्पना? मर्दों के बारे में ऐसा ही देखा-सुना था इसीलिये उन्हें चार औरत जायजा अब्बा बहुत दीनदार, उनकी पहली बीवी मर चुकी थी। दो निकाही बीवियों, उसके अलावा अफवाहें। सौतेली माँ से बड़ा भाई सुबहान अल्ला! गेती की माँ आशंका में बेटी को सौतेले भाई के सामने न होने देती थी।

गेती. उसकी माँ और पड़ोसिनों में बातचीत के लिए वही मजमून इस उस घर खानदान के राज, मदों औरतों के ऐसे-वैसे ताल्लुकात, पीरों-फकीरों की करामात के किस्से, रसोई-सालन, शादी-गमी के जिला सवा साल बीतते गेती के पहला लड़का |

रजा फाइनल परीक्षा में सर्जरी में फर्स्ट आया था। प्रिंसिपल सर्जन मॉर्गन और फार्माकोलोजी के प्रोफेसर हामिद और पैथोलोजी के प्रोफेसर जायसवाल उस पर मेहरबान उसे परीक्षा बाद कालिज हस्पताल में बरस भर के लिये एवजी पर जगह।

एम० बी० बी० एम० हो जाने के बाद रजा को वजीरगंज की गली में दरवाजे पर टाट का पर्दा लटके मकान से ग्लानि होती दहलीज में कदम रखते ही रसोई, सालन, ईंधन के धुएँ की गंध से मिली पसीने और दूसरी गलीज बू घर में सिर्फ बच्चों की तबीयत या दूसरी किल्लतों का जिक्र। पड़ोसियों की बदतमीजियों और गेती की सौतेली माँ के कमीने व्यवहार और गेती के अब्बा की बेइंसाफी की शिकायतें उस घर के लिये क्या-क्या जाता हैं. इस घर की किसी को फिक्र नहीं। शरभ में सब बीवियों का हक बराबर बताया है।

रजा बच्चों को गोद लेता तो मैले गिलगिले गंधाते जान पड़ते। उसे बच्चों की हालत पर तरस आता और अपने असामर्थ्य से ग्लानि। खुद गेती की पोशाक, उसका तौर-तरीका और उबा देने वाली बातें।

रज़ा अपनी जिन्दगी का ढंग बदलना चाहता था। पहली जरूरत थी, बीवी को वजीरगंज की गली के मकान से निकालकर खुली दुनिया में लाना। रजा को कालेज हस्पताल में दो कमरे का क्वार्टर मिल गया था। रजा ने गेती को समझाने के लिये उसके सामने पर्दे से मुक्त संसार के लुभावने चित्र पेश किये। बताया, "मर्द-औरत की सोहबत के कई पहलू हैं। हम साथ-साथ दुनिया को देखें, तुम्हें दुनिया के मामलात के बारे में बतायें। बहुत बड़ी और ऊंची हैसियत के रईस खानदानी मुसलमान, हाईकोर्ट के चीफ जज ज़हीर साहब, जिन्ना साहब, लियाकत अली, आसफ अली की बेगमात बिना बुरके जलसों- मजलिसों में आती जाती हैं। क्या वे लोग शरअ नहीं जानते? हम यह मकान किराये पर दे दें। अम्मीजान यहाँ ही रहना चाहें तो उनकी मर्जी। हम तुम कालिज के क्वार्टर में रहें ।" गेती ने पति की सलाह माँ को बतायी। माँ ने दामाद को फटकार दिया, "हमारी बेटी हरगिज बेपर्दा नहीं हो सकती। हम जान दे देंगे लेकिन बेगैरती बर्दाश्त नहीं करेंगे। हमने तो गेती के अब्बा से पहले कह दिया था, देखभाल कर रिश्ता करें। ओछे लोगों से हमारी नहीं निवहेगी। जिस हाथ से लुकमा पायें उसी को नोचें! अभी से हमें धकिया देने के मनसूबे। खुद को मालिक समझकर किस गुमान में हैं!"

रज़ा ने शुरू से ही महसूस किया, गेती का व्यवहार आम बीवियों की तरह आश्रित या अधीन का न था। वह राय दे सकता था, निर्णय उसकी सास और बीवी का होता। उसकी हैसियत मेहमान या आश्रित की शमसुद्दीन ने दामाद को दहेज में डाक्टरी तालीम के लिये तीन साल का खर्च दो हजार रुपये और पुख्ता मकान तकरीबन पाँच हजार रुपये कीमत का वायदा किया था। व्यवसायी ससुर ने दहेज देने में भी व्यवसायी मुझ से काम लिया। उदार दहेज के एवज में बेटी के नाम पन्द्रह हजार का मेहर लिखवा लिया था।

गेती की माँ बेटी सहित जिस मकान में थीं, वह गेती की शादी से पहले ही गेती की माँ, बेटी और बेटी की भावी औलाद के नाम रजिस्ट्री था। यह सावधानी गेती के सौतेले भाइयों से आशंका में थी ।

रज़ा के ब्याह के बाद उसके पिता और बड़े भाई का तकाजा था, उनके बेटे को दहेज में मिले मकान की रजिस्ट्री उसके नाम हो जाये। शमसुद्दीन की राय में वह फिजूल खर्च और झट उसने समझाया, मकान जिस शक्स की बीवी और औलाद के नाम हैं, हकीकत में उसी की मिल्कीयता रजा को इस बारे में झगड़ा करने से ग्लानि। उसे पछतावा डाक्टरी तालीम के लोभ में जिन्दगी बेच बैठा। नरेन्द्र और अमर को नसीहत करता: चाहे जैसा गलत काम या गुनाह हो जाये, मुआविजा देकर निजात मिल सकती है, लेकिन गलत शादी और उसके नतीजे से निजात नामुमकिन दो बच्चे न हो गये होते, हम मेहर का कर्ज जिन्दगी भर किश्तें देकर चुका देते, लेकिन नादानी की करतूत इन बच्चों से हमारी रूह कैसे सुर्ख हो सकती है।

रजा से सहानुभूति में नरेन्द्र उसी पर खीझ उठा: अक्त तो तुम्हें आयी, लेकिन ससुर की बेटी का खाविन्द की जरूरत के लिये विक जाने के बाद खुद की ज़िन्दा दफनाकर रूह को सुरु करने की फिर

नरेन्द्र के लिये सम्बन्ध के सन्देश आते ही रहते थे। भावो बेटे के ब्याह के लिये व्यग्रता में दो बार लड़कियाँ पसन्द कर लड़की वालों को आशा दिला चुकी थी। इस बार भी बेटे की विवाह से अनिच्छा और बाबू की बेटे को समझाने की अनिच्छा से भावो बौखलाहट में बेटे और बेटे के बाप से लड़ बैठी, "ब्याह के नाम पर जती वन जहान में अपना और घर का मुँह काला करवायेगा।"

बाबू ने पत्नी की असंतुलित स्थिति का विचार कर, उसका विस्फोट अनसुना कर दिया। नरेन्द्र उतना सहिष्णु न था, उसने बक दिया, "बहुत अरमान है वह लाने का मास्टरनी बहू लाकर तर गयी, तुम भी वैसे ही तर जाओगी। मेरी वजह से घर की मुंह काला होता है तो मैं ही घर से मुँह काला कर लूँगा।"

नरेन्द्र के व्याह के मामले में पुष्पा की महानुभूति सास से वह देवर को हैंसी उपालम्भ से अपनी संगति के लिये देवरानी से आने के लिये समझाती रहती।

पुष्पा के शील और सौहार्द के कारण नरेन्द्र भाभी को बहुत मानता था, उसके सन्तोष प्रसन्नता के लिये बहुत कुछ करने को तैयार परन्तु उस समय चीन में बौखला गया, "तुम ब्याह करके बहुत सन्तोष पा रही हो। वैसा ही दूसरों के लिये चाहती हो। दूसरों की कलेपन से तुम्हें क्या सन्तोष होगा?"

"नरेन्द्र को छोटा भाई मानकर पुष्पा उसे बहुत तरह दे जाती थी, परन्तु पति से असन्तोष के कटाक्ष पर वह विफर उठी, "तुमने मेरा कौन असन्तोष या कलेपना देखा ! कान छुआ जो तुमसे कभी कुछ कहूँ।"

भावों से नरेन्द्र की बकझक के दस-बारह दिन नरेन्द्र ने घर में जिक्र किया: पी-एच० डी के लिये थीसिस अगस्त तक पूरा कर देना जरूरी है। उसने तीन मास के लिये यूनिवर्सिटी के समीप नया हैदराबाद में एक सहयोगी के साथ रहने का प्रबन्ध कर लिया है। लायब्रेरी के समीप रहेगा और एकान्त भी थीसिस अगस्त में पेश हो गया और अगले मार्च में उसे पी-एच० डी० मिल जाने की घोषणा भी हो गयी. परन्तु नरेन्द्र घर न लौटा। घर से सम्बन्ध बनाये रखने के नाते आठवें दसवें घर हो जाता।

नरेन्द्र के चले जाने से घर में उदासी छा गयी। कोहली के घर के निरुत्साह की छाया सेठ जी पर भी अमर न मानता था, परन्तु सेठ जी जानते थे, अमर पर बचपन से नरेन्द्र का प्रभाव था। उन्हें आशंका, अमर भी नरेन्द्र के रास्ते जायेगा। चिन्ता दवा लेती क्या भाग्य में निरबंसिया होना बदा है। मन बहुत व्याकुल हो जाता तो ईशा के यहाँ चले जाते। ईसा से बात करते रतनी के बेटे-बेटियों को दुलरा देते। दो-एक बार ईशा के कान में फुसफुसा दिया, "अगर रतनी की जगह लड़का होता?"

ईशा ने नजर बचाकर कह दिया, "अल्लाह ने जो बेहतर समझा।"

अमर दुविधा में। विचारों से वह नरेन्द्र से सहमत परन्तु बाबू, भावो, पुष्पा भाभी से सगे सम्बन्धियों जैसे मोह की सहानुभूति। नरेन्द्र को समझाने का यन करता, "तुम पर विवाह के लिये जोर डालना अन्याय परन्तु बाबू, भावो भाभी के सन्तोष के लिये सहिष्णुता से घर में ही रहना, उनसे असहयोग के बजाय उन्हें समझाना उचित।" नरेन्द्र को मात्र भावुकता के लिये क्लेश देते और पाते रहना नामंजूर अमर की नींद सूर्योदय के बाद विलम्ब से टूटी। हरिया ने बताया, कुछ देर पहले नत्थू सन्देश दे गया था, जरा बाबू को देख लें।

महेन्द्र ने बताया: रात बाबू को नींद ठीक आयी। बुखार सौ डिग्री तक रहा। इस समय एक डिग्री बढ़ गया है।

अमर ने आश्वासन दिया: चिन्ता न करें, बुखार शनैः शनैः ठीक हो जायेगा। दवाई जारी रखें। अब पानी पट्टी की जरूरत नहीं।

भावो ने फिर अनुरोध कर दिया, "बेटे आज इतवार है। यहाँ ही रह जाओ। तुम्हारे रहने से हमें तसल्ली रहेगी।"

अमर संध्या पाँच बजे मेडिकल कालेज के कार्टर में लौटा तो फिर वही चिन्ता' उपा पंडित पुस्तकों के लिये प्रतीक्षा में होगी। उसे निरुत्साह करना ठीक नहीं। धूप कुछ और ल जाये तो पुस्तकें पहुँचा दें। यह भी खयाल, ऐसे समय वहाँ जाने से उन्हें असुविधा न हो। उन लोगों के यहाँ का तरीका मालूम न था। अन्ततः निश्चय कर लिया, गली से अमित को पुकारकर पुस्तकें दे देगा। इससे उन्हें क्या परेशानी हो सकती है। पुस्तकें देकर हीवेट रोड पर नाथ शास्त्री के यहाँ चला जायेगा।

रविवार संध्या कंधारीबाग गली से लौटकर अमर उषा के बारे में सोचता रहता: ऐसी युवती पार्टी के लिये कितनी सहायक हो सकती है। पार्टी की क्षमता उसके कार्यकर्ताओं की योग्यता और लगन पर निर्भर उषा का विचार यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने का। वह स्वयं उपा और हमारी पार्टी के लिये हितकर।

 उषा के प्रति अमर की भावना के लिये बहिन शब्द उपयुक्त न था। इस देश समाज में बहिन शब्द का अर्थ कुछ नहीं और बहुत गहरा भी। हमारे यहाँ लगभग समवयस्क सभी परिचित, अपरिचित स्त्रियाँ बहिन पुकारी जाती हैं। गांधीजी के अनुसार वेश्याएं भी पतित बहिनें। बहिन शब्द के दूसरे अर्थ का प्रतीक राखी, संरक्षक का पूर्ण दायित्व अमर की कल्पना में ऐसी बहिन थी गौरी— निरीह, दीन, रक्षणीया। उपा के लिये अमर की कल्पना योग्य, समर्थ सहयोगी, सहधर्मी कामरेड की थी।

मई दूसरे सप्ताह के रविवार संध्या अमर के लिये उपा के यहाँ जाना आवश्यक काम बन गया। उषा के यहाँ घंटा-डेढ़ घंटा बैठकर लक्ष्य का महत्त्व समझाने, उसके लिये प्रयत्न में परस्पर विश्वास और सहयोग की एक और मंजिल चढ़ जाने का संतोष लेकर लौटता।

जून का दूसरा रविवार था। रजा को जुलाई से फिर कालिज में अस्थायी लेक्चरार की जगह की आशा हो गयी थी। इसके लिये वह प्रोफेसर हामिद और जायसवाल का आभारी। कुछ हामिद साहब की मुसाहिबी में कुछ अपनी ज्ञानवृद्धि के लिये, लेबोरेटरी में तीन-चार घंटे परीक्षणों में सहायता देता एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण चल रहा था, इसलिये रविवार को भी लेबोरेटरी आया था। लौटते समय सेठ के क्वार्टर में चला गया। रजा ने सेठ को भी चाय पीना सिखा दिया था। चाय के सही स्वाद के लिये चीनी की चायदानी और प्याले मी ला दिये थे। अकसर संध्या चाय वहाँ ही लेता।

 रजा ने प्याले में चाय डालते डालते अमर से अनुरोध किया, “अमा, आज सिनेमा चलो बहुत ऊब मालूम हो रही हैं।"

"पहले शो में नहीं जा सकता। एक किताब देने के लिये कंधारीबाग गली जाना है।"

गहरा दाँव खेला है। उसने ऐलान कर दिया: आई एम नॉट ए मुस्लिम कैण्डीडेट, आई एम ए स्टूडेंट कैण्डीडेटा हिन्दू बहुत सिम्पल सब हिन्दू बोट समेट लेगा, कुछ मुस्लिम वोट भी ले मरेगा।"

"उन्हें दाँव चलने दो।" जयराम ने आश्वासन दिया, "हमने लीगी शमसुल से नारा लगवा दिया तो मुस्लिम वोट फॉर काफिर।"

बहुत गलत बात!" सेठ ने आपत्ति की, "यह तो साम्प्रदायिकता की आग भड़काना

सिन्हा ने सुनने का संकेत किया परन्तु अस्थाना ने टोक दिया, "ये ही बात कल उपा पंडित ने मीटिंग में कही। चेतन और सरकार नारे लगा रहे थे डोण्ट वोट फॉर हिन्दू एण्ड मुस्लिम वोट फॉर स्टूडेंट

"हमने कहा, यह धोखा है। पहले कम्युनल कानून बदलवाओ। जब कानून हिन्दू और मुसलमान मानता हैं, उन्हें अलग वोट देता है इस बात को नजरअन्दाज कैसे किया जाये!

उषा पंडित खड़ी हो गई विदेशी सरकार कम्युनलिज्म भड़काना चाहती है तो हम उसे क्यों मानें? हिन्दू, मुस्लिम, क्रिश्चियन स्टूडेंट की कोई अलग समस्या नहीं हैं। साम्राज्यवाद हमें सामुदायिक राजनीति का जहर पिला रहा है।"

"चुनाव में कम्युनिस्टों को हराने के लिये अपने लक्ष्यों का विरोध करना आत्मघाती राजनीति होगी।" सेठ ने चेतावनी दी।

"फिरकापरस्ती हैं, यह हम भी जानते हैं, " सिन्हा ने छीन से स्वीकारा, "लेकिन यूनियन कम्युनिस्टों के हाथ में दे देना भी आत्महत्या। हम साम्प्रदायिकता का प्रचार नहीं करते, लेकिन लीग की फिरकापरस्ती कम्युनिस्टों के धोखे का पर्दाफाश करे तो उसका फायदा उठाना भी नीति है।"

सेठ विस्मय से देखता रह गया।

जयराम सिंह का स्वर रहस्य से नीचा हो गया, “कल और परसों दो दिन बीच में बाकी । परसों सुबह से सब एजीटेशन समाप्त, दोपहर बाद वोटिंग सुना है, फेडरेशन ने जमाल के स्टेटमेंट के पोस्टर छपवाये हैं— आई एम नॉट मुस्लिम कॅण्डीडेट! पोस्टर हमारे हाथ आ जाये, फिर देखिये तमाशा" जयराम सिंह मुस्कराया, "उसके बाद आपको कुछ करने की जरूरत नहीं।"

“क्या तमाशा? कोई चमत्कार कर दोगे?" सिन्हा ने पूछा।

"चमत्कार ही समझ लीजिये।" सिंह मुस्कराता रहा।

"कुछ बताओ तो।"

"अभी न पूछिए। कम्युनिस्टों ने सूंघ लिया तो कोई मार्ग निकाल लें। परसों शाम खुद मालूम हो जायेगा।"

"हमें चमत्कारों का भरोसा नहीं." सिन्हा ने सिर हिलाया, "प्लीज सेठ, तुम उस लड़की को आज ही समझाओ। इस समय प्रत्येक व्यक्ति की सहायता, एक-एक वोट मूल्यवान। इलेक्शन में कम्युनिस्टों की जीत से हमारी प्रेस्टीज को बहुत धक्का लगेगा।"

जयराम सिंह और दूसरे साथी उठ गये तो सिन्हा ने अनुरोध किया, "कामरेड सेठ,

आचार्यजी सुबह फैजाबाद चले गये। तुम सबसे पहले उस लड़की को समझाओ, वह भयंकर भूल कर रही हैं।"

सेठ तत्पर सैनिक की तरह तुरन्त चल दिया। जीना उतरते-उतरते दृढ निश्चय से सोचा अपनी इच्छा से या किसी भावुकता से नहीं जा रहा हूँ। पार्टी की हानि की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हीवेट रोड पर 'संघर्ष' कार्यालय से हुसेनगंज और कैंट रोड की खुली चौड़ी सड़क से कंधारीबाग गली तक रास्ता ही कितना मोटर साइकल पर तीन मिनट का भी नहीं। सेठ सोच सकने से पहले ही गली में घूम गया। साइकल को स्टैंड पर खड़ा कर रहा था, बैठक के दरवाज़े पर पड़ी चिक उठ गयी। चिक के पीछे उपा, चेहरा आँखें उल्लास से दीप्त!

"प्लीज़!" उषा मार्ग देने के लिये एक ओर गयी।

"सुना है, तुम यूनिवर्सिटी यूनियन के चुनाव में भाग ले रही हो। उसी संबंध में कुछ कहना है। अधिक समय न लूंगा। उस दिन मिसेज़ पंडित का व्यवहार बहुत अप्रत्याशित और विचित्र था।" सेठ उत्तेजना वश में रखने और संक्षेप के विचार से रुक-रुककर बोल रहा था: "मेरे व्यवहार या इरादे में ऐसी क्या बात दिखायी दी? वैसी गलतफहमी का कोई कारण न था । विस्मय हैं, तुमने अपने माता-पिता की गलतफहमी दूर करने की चिन्ता न की या अपने भविष्य के सम्बन्ध में दूरदर्शिता के विचार से मौन रहना उचित समझा!" सेठ के शब्द सबल धनुष से छूटे पैने बाणों की तरह उषा के हृदय पर गहते जा रहे थे। उषा दाँत पीसे सुन रही थी।

“मुझे तुम्हारी सरलता, समझ और साहस पर भरोसा था। यदि वैसी स्थिति आ गयी थी, मुझे स्पष्ट-साफ कह देना चाहिये था। लेकिन ऐसे सन्देह का आधार क्या था? जानता था. तुम पी० सी० एस० आफिसर की मंगेतर हो। समाजवाद के प्रति तुम्हारी जिज्ञासा और उत्साह देखा। उस लक्ष्य से सहानुभूति के कारण तुम्हें सहायता देने का यत्न किया। सेठ एक सॉस में सब कह गया। प्रतिशोध के संतोष से मस्तिष्क को कुछ राहत, "मेरे आने का प्रयोजन स्टूडेंट्स यूनियन के चुनावों के सम्बन्ध में है। सुनकर विस्मय हुआ, तुम फेडरेशन को सहयोग और सहायता दे रही हो। कम्युनिस्टों की नीति और व्यवहार के बारे में हम लोग कई बार बात कर चुके हैं।

" समाजवाद का लक्ष्य ठीक है, परन्तु समाजवाद के नाम पर इस देश की राष्ट्रीय मुक्ति को गौण मानकर अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रान्ति के स्वप्न दिखाना देश की जनता को पथभ्रष्ट करना है। यह देश परवश और निर्बल रहकर अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रान्ति में सहायता दे सकेगा या स्वतंत्र और सबल होकर। कम्युनिस्ट तो सोवियत को अपनी समाजवादी मातृभूमि कहते हैं। सर्वहारा की कोई भूमि या मातृभूमि नहीं। जमाल हैदरी कम्युनिस्ट उम्मीदवार का यह कहना कि वह मुस्लिम कैंडीडेट नहीं हैं, वह मुसलमान के नाम पर वोट नहीं चाहता, स्टूडेंट्स को उदार नारों से बहकाना है। यूनिवर्सिटी के रिकार्ड में वह मुस्लिम है तो मुसलमान कैसे नहीं। अभिप्राय, हिन्दु स्टूडेंट्स से अपील है कि वह कम्युनल नहीं। मुसलमान स्टूडेंट्स जानते हैं, वह मुस्लिम है। प्रकट में यह साम्प्रदायिकता का विरोध है। वास्तव में साम्प्रदायिकता के विरोध की आड़ में यूनियन पर कब्जा करने का प्रयत्न साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष करना हैं तो स्पष्ट तरीके से कीजिये। आशा है, तुम

देश के लिये हानिकारक शक्ति को बढ़ाने में सहयोग देने के पूर्व खूब सोच-समझ लोगी। मुझे यही कहना था।"

सेठ ने उषा की ओर नज़र उठायी परन्तु नज़र न मिला सका। उपा का चेहरा क्षोभ से श्यामल आँखों में खून उतरा हुआ।

सेठ उठ गया, "कड़ी बात के लिये खेद हैं। ''गुडनाइट!" नजर झुकाये चिक उठाकर गली में उतर गया।

उषा अवश, निश्चला हृदय चिल्ला रहा था यह सब गलता मेरी नहीं सुनोगे! सेठ गली में उतर गया तो उस ठेस से आँसुओं का बाँध टूट गया। आँसू टप टप नहीं, सोतों की तरह फूट पड़े। दोनों हाथों में आँचल समेटकर चेहरे पर दबा लिया।

गिरजा से लौटते समय मिसेज चौहान पंडित दम्पति से सड़क के फुटपाथ की दुरवस्था की शिकायत करती आ रही थी। उसके आठ-दस कदम पीछे पद्मा सहानन्द रीटा वेवे के साथ थे। अपनी गली से पच्चीस-तीस कदम पर थे आहिस्ता चलती मोटर साइकल की धक-धक मोटर साइकल गली से निकलकर विपरीत दिशा, हुसैनगंज की ओर घूम गयी। सवार सफेद कमीज़ -पतलून पहने जवान। गली के ठीक सामने, सड़क के दूसरी और बिजली के खम्भे से गली में दूर तक रोशनी मिसेज़ चौहान की भाँवें ध्यान से देखने के लिये सिकुड़ी, ये वही डाक्टर लौंडा नहीं?"

मिसेज पंडित मौन परन्तु दिल में क्रोध का भभूका। क्या बीच में भी आता रहा? दाँत पीस लिये। मिसेज़ चौहान गली के नुक्कड़ पर 'गुडनाइट' कहकर अपने दरवाजे में हो गयी। पंडित की बैठक की चिक से रोशनी छन रही थी। किवाड़ खुले थे।

पंडित ने बिना पुकारे चिक उठाकर बैठक में कदम रखा। उषा सोफा पर दोनों हाथों से चेहरे पर आँचल दवाये थी। आहट न सुन सकी।

"उषा, क्या हुआ, क्या बात हैं?" पिता ने पुकारा।

उषा हडबड़ा कर उठी। उठते उठते आँखें चेहरा पोंछ रही थी। पिता के पीछे-पीछे माँ बैठक में आ गयी। उपा का आँसुओं से भीगा आँचल देखकर क्रोध की ज्वाला। "ये आने वाले को रो रही है?"

उषा ने आँचल चेहरे से हटाया। आँखें माँ की आँखों से अधिक लाल, "रो रही है अपनी जान को।” बोल उठी जैसे डैडी को देखा नहीं, "तुमने क्यों उसकी इंसल्ट की इतने एहसानों का यह बदला! क्या जवाब देती उसको

अमित का चिक से झाँकता विस्मित चेहरा उपा का स्वर और तेज़, “क्या देखा तुमने? क्या किया, क्या कहा उसने? अमित तो साथ रहा, पूछो उससे!"

"देखने को क्या रह गया।" माँ का स्वर क्रोध से ऊँचा ।

"साइलेंस प्लीज़!" पण्डित का स्वर हुक्म का था। पत्नी को क्रोध से भीतर के दरवाज़े

की ओर घुमा दिया, "प्लीज गोइन।"

बताइये, क्या देखा?" उषा ने चुनौती दी।

"साइलेंस उषा पंडित उपा की ओर घूम गये। स्वर उसी प्रकार कड़ा।

"प्लीज डैडी," उषा के आँसू बलबल, "आई मस्ट तो मुझ पर तोहमत क्यों

लगायी?"

"साइलेंस प्लीज़!” पंडित का स्वर दृढ़, "जो कहना है, मुझे कहो। अभी बरामदे में जाओ या ऊपर अपने कमरे में। "

माँ भीतर के कमरे में पलंग पर आँचल में मुँह छिपाकर सुबकने लगी। उपा बरामदे में खाने की मेज़ पर दोनों हाथों से आँचल में चेहरा छिपाये फफकती रही। पद्मा की पलके भीग गयीं। सदानन्द चकित ।

"अमित प्लीज़, पंडित ने पुकारा, "तुम पद्मा सदानन्द को गंज तक घुमा लाओ।" लड़के की जेब में एक रुपया डाल दिया, "तुम लोग विमटो या आइसक्रीम ले लेना।"

मिसेज़ पंडित दुख या आँसुओं का आवेग वश न कर पाती तो गुसलखाने में चली जातीं। शरीर और दिमाग की नमक शान्त करने के लिये बहुत देर तक शरीर पर पानी उड़ेलती रहती । दिमाग ठंडा करने के लिये सिर धो लेती। माँ के बाद लड़की गुसलखाने में उषा ने माँ की कई दूसरी आदतों के साथ क्रोध और आवेश दमन करने का यह तरीका भी सीखा

था।

उषा नहाकर निकली तो बच्चे घूमकर लौट आये थे।

रोज़ी ने पुकारा, "अब खाना खा लो, आ जाओ सब!"

पंडित, अमित, पद्मा, सद्र आ गये रोजी ने पद्मा को पुकारा, "जा भैण नू बुला। सद तू माँ नृ बुला।"

"जीजी नहीं खायेगी, भूख नहीं हैं।" पद्मा ने बहिन का उत्तर सुना दिया।

"मम्मी का जी अच्छा नहीं मम्मी नहीं खायेगी।" सदानन्द ने माँ की ओर से बताया। "भूख कैसे नहीं हैं?" रोज़ी बड़बड़ाने लगी, "पहले क्यों नहीं कहा। इतना सब मैं अपने पेट पर बाँध लूँ। बरसात के दिन, सब रोटी तरकारी खराब जायेगी। मुफ्त आता है! रुपये का सोलह सेर गेहूँ उस पर ये बर्बादी पहले होश नहीं था अब रोना पीटना मचा रहे हैं। " "बेवे, कोई बात नहीं। हम सुबह बासी खा लेंगे।”

"तुम क्यों खाओगे बासी! मैं मर गयी हैं!" बेबे और झुंझलायी।

पंडित ने गर्दन झुकाकर आँखें मूँद ग्रेस (प्रार्थना) बोली बच्चों का साथ देने के लिये ज़बर्दस्ती कुछ कौर खा लिये।

खाकर अमित बरामदे में खादें लगाने लगा। पंडित भीतर पत्नी को दबे स्वर में समझा "खाना नहीं तो दूध मँगवा लो। एक गोली एस्प्रीन ले लो।"


पंडित ने अपने जब से पत्री को गुस्सा नहीं निकालने दिया था। पत्नी ने बदला लिया, उस लाड़ली को खिलाओ पहले और सिर चढ़ाओ दिमाग जिगर में गरमी बढ़कर बुखार उखार हो जायेगा। मुसीबत तो मेरी होगी। सिर सही का दिमाग फिर गया है। बेहया नाक कटायेगी और मुँह पर बोलेगी। बेटी को आलिम बना रहे हैं। हम माँ के सामने ऐसे जवान चलाते, पापा ने ओखली में कूट दिया होता। कहती है, क्या देखा ! सब शरम- लिहाज घोलकर पी गयी। हमने समझा था, वह पीछे पड़ा है। यहाँ चोर से गठरी उतावली, आंसुओं के जोहड़ बन गये। क्या पता पीछे आता ही रहा हो। ऐ रब्ब, हमारे गुनाह 

बख्श ।"

पद्मा और सदानन्द पंखे के सामने खर्राटी खाटों पर ही सो गये थे। पंडित ने अमित से अनुरोध किया, "बेटे, पद्मा को ऊपर पहुँचा दो। बहिन से पूछो, थोड़ा बहुत खा ले। खाने को मन नहीं तो बोड़ा दूध ले लेः पूछ लेना, सिरदर्द तो नहीं।""

"अमित नींद के नशे में लड़खड़ाती पद्मा को बाँह से पकड़े ऊपर ले गया। आहट सुनकर उषा ने पलकों के कोने से देखा। अमित उसके पलंग की पाटी पर बैठ गया। बहुत धीम बोला, "जीजी, डाक्टर सेठ आया था क्या बात हुई

उषा ने सरककर भाई के लिये जगह कर दी। अमित की तरह रहस्य के स्वर में बोली, "यूनियन के इलेक्शन के बारे में आया था। उस साँझ मम्मी के व्यवहार से दुखी था। तुमने भी देखा था, मम्मी का व्यवहार अपमानजनक नहीं था?"

"निश्चय अपमानजनक था।" अमित ने स्वीकारा।

"मम्मी का दिमाग जाने क्यों फिर गया है।"

"ये ही गली की औरतों की बकवास इन लोगों की कल्पना में केवल एक बात गर्द औरत में बस गलत बात की कल्पना!"

"तुम तो जानते हो, हम लोग क्या बात करते थे। कह रहा था, अगर मम्मी-डैडी को किसी कारण सन्देह हुआ था तो उन्हें तुमसे मुझसे पूछना चाहिये था। मम्मी-डैडी क्या मुझ पर भी एतबार नहीं करते!"

"निश्चय उन्हें पूछना चाहिये था। एक बार मैंने मम्मी से कहा था, आप डाक्टर से खामुखा नाराज़ हो गयीं। डाँट दिया चुप रहो। ये बात तुम नहीं समझते। भोले लोगों को ठगने के लिये शैतान हमेशा साथ रूप में आता है। मम्मी नाराज हैं। ईडी ऐसे नहीं हैं। " “अब तो बात साफ करनी होगी।" उपा ने गहरी साँस ली। हम बेटी से ज़रूर बात करेंगे। चुप रहना ठीक नहीं।"

"यू आर राइटा जीजी, अब चलकर कुछ खा लो। कहो तो यहाँ ला दें? ईडी ने कहा है, खाना न हो तो दूध ला दें।"

"हमारा मन नहीं हैं।"

"तुम कुछ नहीं लोगी तो मम्मी भी नहीं लेंगी। बीमार हो जायेंगी।"

"हम नहीं जानते, " उषा झुंझलायी, "पहले दूसरों को ऊटपटांग तोहमत लगायेंगी, फिर कहेंगी हम नहीं खाते। हम तो चाहते हैं, मर जाये जहर खा लें।" उषा की पलकें फिर भीग गयीं।

“ओफ, जीजी क्या औरताना बातें।" अमित ने कहा, "दूध ले आयें, सिरदर्द हो तो गोली मी ले आयें। "

"नहीं, हम नहीं निगल पायेंगे।" उषा ने गर्दन हिलायी, "तुम मम्मी से कह दो, हमने

दूध ले लिया। तुम उन्हें पिला दो।"

"हम झूठ नहीं बोलेंगे। तुम दूध पी लो।"

"जब तक इंसल्ट का फैसला नहीं होगा, हम कुछ नहीं लेंगे। हमें मत कहो। " "जीजी, ये कोई तरीका नहीं।"

"मीत इस समय हमसे बोला नहीं जा रहा। हमें रहने दो।"

अमित ने दो मिनट ठहरकर पूछा, "जीजी, डाक्टर कोई किताब लाया?"

उषा कुछ गयी, यहाँ ज्ञान पर बनी हैं, इस गधे को किताब की पड़ी हैं। इनकार से सिर हिला दिया।

बेबे, पंडित मिसेज़ पंडित से भी कुछ पहले उठकर अँगीठी सुलगा देती। तब शहर में रसोई के लिए, कोयला जलाने का रिवाज़ न चला था। न इतने कोल डिपो थे। सॉफ्ट कोक सेस कमेटी कोयले के सस्ते ईंधन होने का प्रचार कर रही थी। कमेटी के आदमी घर घर जाकर कोयला जलाने की अंगीठी बनाना सिखाते, स्वयं बना देते कोयले का भाव ढाई- तीन आने मन पंडित ने कोयले के उपयोग का सुझाव दिया तो मिसेज़ पंडित और बेबे ने अफवाहों के कारण आपत्ति की कोयले की आँच पर खाना बेस्वाद हो जाता हैं, ताकत सब जल जाती हैं। फिर मान गयी।

पंडित नींद खुलते ही ठंडे बासी जल का गिलास गटक लेते। घर में उठते ही चाय की तलब केवल बेबे को बेबे ने अँगीठी में लौ निकलते ही पानी की केटली चढ़ा दी थी। मिसेज़ पंडित की आँख खुली तो समीप जाकर पूछा, "पानी तैयार है। रात कुछ खाया नहीं। एक प्याला चाय बना दूँ?"

मिसेज़ पंडित को चाय माफिक आती थी। रोज़ी ने चाय का मग सामने किया तो बोली, "बेबे, वो सिरमड़ी भी तो रात भूखी मर गयी थी। पहले उसे दे आ।" "क्या मालूम नींद खुली कि नहीं?""

"उठ गयी होगी। कौन जाने मरी रात सो भी पायी कि नहीं। एक ज़हर फुकी हैं।" "तू क्या कम हैं!" बेबे ने लाड़ का गुस्सा दिखाया, "अभी उसके लिये ले जाती है। " वेबै तेज़ गरम चाय का मग लेकर ऊपर आयी तो उपा की पलकें मंदी थीं। माथे पर रोज़ी के हाथ के स्पर्श से आँखे खुल गयीं। "बल्लो, तेरे लिये चाय लायी। देख कितनी

गरम।"

आँख खुलते ही उपा को रात की स्थिति याद आ गयी। शरीर में निर्बलता ने चाय की उपेक्षा न की। दोनों हथेलियों की टेक से शरीर को पीछे खिसकाकर पलंग के सिरहाने अधबैठी हो गयी। चाय ले ली। अवसाद और निर्बलता से मौन ।

बेबे पाँव नीचे लटकाकर पलंग पर बैठ गयी थी. “एक ही रात में चेहरा पीपल के सूखे पत्ते की तरह पीला । " बेबे ने हाथ उपा के उठे हुए घुटने पर रख दिया। लाह का स्वर पंजाबी में बोली, "बल्लो, तू इतनी सियाणी बाप के बराबर पढ़ गयी। कल साँझ तेरी मत्त क्यों मारी गयी?"

"मेरी मत्त मारी गयी।" उषा के क्षीण स्वर में विस्मय और विरोध |

"मम्मी घर में भले लोगों की बेइज्जती करके मेरी नाक कटावे, मत्त मेरी मारी गयी!" "अब तू इतनी नादान हो गयी," बेबे का स्वर लाड़ का परन्तु बात बसूले की तरह छीलती, "नहीं जानती गली में लोगों ने क्या-क्या बका? माँ एक बार अपने पर कलंक अनसुना कर दे, बेटी पर बात नहीं सह सकती। रब्ब करे तू जल्दी माँ बने तो तुझे माँ के "बेबे तेरे पाँव हुए, बस कर!" उपा ने वेवे के घुटने पर हाथ रख दिया, “मुझे शादी की जरूरत नहीं

"जरूरत नहीं 'बेबे चुप नहीं हुई, "जरूरत नहीं तो उसके सामने बैठ के रोयी क्यों? घड़ा भर आँसू बहा दिये!"

"बेबे, तेरी कसम हैं मुझे, " उषा ने वेदे के कंधे पर हाथ रख दिया, "उसके सामने मेरा एक ऑसू गिरा हो! तुम लोगों ने मुझे इतनी बेहया मान लिया! उसने तो कहा उसका कोई बुरा बर्ताव किसी ने देखा तो उसके मुँह पर कहे। मम्मी-डैडी के बुलाने से आता था। कोई भैलाई करने आये और मेरे माँ-बाप उसकी बेइज्जती करें तो मुझे शर्म नहीं आयेगी

“धीये, मैं भी तो देखती रही।" बेबे ने कहा, "तेरे माँ-बाप पागल नहीं हैं। बुलाया था. तो हुआ एक बार दो बार आ गये। ये कौन भलमनसाहत कि रोज-रोज टब्बर गिरजा जाये और वह आ बैठे।"

हाय बेथे, तुम ऐसी तोमतें लगाती हो!" उपा की बर्दाश्त समाप्त, "मुझे तुम्हारी कसम, तुम कहो तो बाईबिल उठाकर कह दूँ। बस कल शाम अमित नहीं था। मुझे भी उम्मीद नहीं थी कि वह आयेगा वर्मा किस दिन अकेले में बात की। अमित हमेशा साथ रहा। उससे क्यों नहीं पूछती हम लोग क्या बातें करते थे।"

बेबे ने सिर हिला दिया, "धीये, छोड़ उन जगहों को तेरे उसके बात करने से क्या होता है। सब 'उसकी कुदरत और 'उसका' जलाल है। वो जब चाहेगा, आयेगा और सबको बराबर कर देगा।" उपा के गालों पर प्यार किया, "तू घबरा नहीं तेरे माँ-बाप फिक्र में हैं। सब जगह चिट्ठी लिखी हैं।"

"बेबे, मुझे कोई घबराहट नहीं।" उषा हार मान गयी, "मुझे शादी की जरूरत नहीं है। मुझे अपनी पढ़ाई करनी है। तुम समझा दो उन लोगों को मैं डैडी से खुद कह लूंगी।"

उपा जीना उतरते-उतरते ठिठक गयी। देवे कह रही थी लड़का उसके दिमाग में चढ़ गया है। उसे बिलकुल नहीं जाने देना। तू लाहौर जेठानी को लिखा उन लोगों के लम्बे हाथा अकल करो "बीस की हो गयी।

उपा ने दम रोके सुन लिया। अनुमान, बेबे माँ के प्रश्नों का उत्तर दे रही थी। बेबे पर भी गुस्सा हाय बुढ़िया कितनी फरेबी!

पिछली साँझ से बेचैनी के कारण उपा का सिर भारी-भारी, बदन में टूटना सेठ की बातों से भी दुविधा "चुनाव में किस पक्ष का साथ देना ठीक है। कम से कम गलत पक्ष की सहायता देना गलत। "यूनिवर्सिटी जाने को मन न हुआ।

एक के करीब पद्मा, सद्द, अमित सब आ गये। उपा को खाने के लिये पुकारा गया। नीचे आ गयी। चाहती भी थी, डैडी ने बात हो जाये।

यूनिवर्सिटी नहीं गयी?

ईडी, परसों यूनियन का इलेक्शन है। आज और कल क्लास नहीं होगी।" उपा ने बताया, "चुनाव में स्टूडेंट कांग्रेस और स्टूडेंट फेडरेशन में विकट संघर्ष है। रखा जो शनिवार मुझे छोड़ गयी उसकी वजह से फेडरेशन का साथ दे रही थी। कल डाक्टर सेठ बताने आया था, फेडरेशन वास्तव में कम्युनिस्ट संगठन है। इस मामले में सोच-समझकर भाग लेना चाहिये। मैं इस झगड़े में पड़ना नहीं चाहती।"

“ठीक है, " पंडित ने अनुमोदन किया. "तुम्हें अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान देना चाहिये। पालिटिक्स समझना ठीक है लेकिन स्टूडेंट्स का उसमें उलझ जाना ठीक नहीं।"

खाने के बाद उपा आठ-दस मिनट बैठक में डैडी के समीप रही। सेठ के आने का जिक इसीलिये किया था कि प्रसंग शुरू हो जाये और वह सफाई दे सके। पंडित सुबह के अखवार

पर नजर डालते रहे। उषा ने मीन तोड़ा, "आप इस समय विश्राम करेंगे?" "इच्छा तो है कुछ देर लेट लिया जाये।"

उपा अवसर न देखकर ऊपर चली गयी।

माँ-बेटी में मनमुटाव का मौन अगले दिन भी कायम रहा। माँ को जो कहना था, उसकी ओर देखे पुकारे बिना कह दिया। उषा का गुस्सा उससे अधिक उसे कुछ कहना ही न था । सब कुछ निवाह रही थी, परन्तु विरक्ति और उदासी से डैडी सामने आये तो हँसे बोले जरूर पर काम की बात नहीं। ऐसे दिखा रहे थे, कुछ हुआ ही नहीं। अन्ततः उपा के लिये असह्य हो गया। विरोध के उफान को कब तक दबाये रहती। न पढ़ सकना, न कुछ सोचना सम्भव फैसला जरूरी था। निश्चय कर लिया, संध्या डैडी से ज़रूर बात करेगी।

उषा सूर्यास्त से कुछ पूर्व नीचे उतरी। डैडी नहा धोकर, कपड़े बदलकर एक पाँव कुर्सी पर टिकाये पैंट पर साइकल का क्लिप लगा रहे थे। खुद ही बोले, "हैलो उपी, अभी तक पढ़ रही थी। देखो, हवा कितनी प्यारी है।"

"डैडी कहीं जा रहे हैं?"

हाँ फुर्सत है। सोचा कहीं धूम आयें डेढ़-दो घंटे।" हंस दिये, "अगर झा मिल गये, आज वियर लेंगे। इस साल कोई मौका ही नहीं बना।"

"कुछ बात करना चाहती थी।" उपा झिझक निगल गयी।

"जरूर" पंडित ने साइकल क्लिप जेब में रख लिया, "आँगन में बैठें या बैठक में?" एक ही बात बैठक में बेहतर, वहाँ पंखा है। "

"डैडी, रविवार आपके चर्च से लौटने पर खामुखा गलतफहमी हो गयी।" उपा के दो दिन से उदास पीले चेहरे पर आवेश की लाली आ गयी।

डैडी ने उसे अनदेखा कर पूछा, "क्या गलतफहमी?"

"बेबे ने बताया, मम्मी और आपने समझा कि में डाक्टर सेठ के सामने रो रही थी। हैरान हैं, मुझसे ऐसी मूर्खता या फूहड़पन की शंका।” उषा ने कंठ का अवरोध निगला, "डैडी, मैंने कल ज़िक्र किया था डाक्टर सेठ इतने दिन बाद इलेक्शन के सम्बन्ध में सोच- समझकर भाग लेने के लिये चेतावनी देने आये थे।" डैडी सहानुभूति से सुनने के संकेत से हुंकारा भर रहे थे। उषा कहती गयी. "मम्मी को यदि कोई आपत्ति थी, आगन्तुक का अपमान करने के बजाय मुझसे और अमित से अपना समाधान कर लेतीं। मुझे तो मम्मी की नाराज़गी का कारण मालूम न था। क्या जवाब देती। इसमें मेरा भी अपमान हुआ। उत्तर देने में असमर्थ बोल ही न सकी। डाक्टर उठकर चला गया तो अपनी बेबसी और अपमान की खिन्नता के आँसू आ गये। तब मैं अकेली थी।" उषा ने संतोष अनुभव किया, बात ठीक ढंग से कह दी। डैडी का मन साफ हो जाना चाहिये।

“बेटी, सामने बैठकर रोने की कल्पना किसी ने नहीं की। बेबे बेचारी के कहने का ढंग है। तुम समझदार हो। बेवे की बात से क्या नाराज़गी? डाक्टर सेठ के पिछली बार आने पर तुम्हारी माँ आवेश में उससे ठीक से नहीं बोल पायी। उसके लिये मुझे खेद है। तब मौका न था, लेकिन अवसर हो तो तुम्हारी माँ की ओर से मैं डाक्टर से क्षमा माँग लेने को तैयार

हूँ।"

"डैडी डाक्टर सेठ ने ऐसा बिल्कुल नहीं कहा न कोई ऐसा संकेत किया। आपसे ऐसी

बात कह सकते हैं?" उपा डाक्टर की तरफदारी में कह गयी।

"जानता हूँ मेठ बहुत सज्जन-सौम्य युवक है। मैं अपने घर या परिवार की भूल स्वीकार कर रहा है। सेठ के अभद्र व्यवहार की शिकायत किसी को नहीं तुम्हारी माँ की तो चिन्ता गली में उठे अपवाद की है। माँ उसकी उपेक्षा कैसे करे? अपवाद उठने क्यों दिया जाये।" ईडी, आप तो जाहिल बहमी लोगों की आलोचना की परवाह नहीं करते थे।" उषा तड़प उठी।

"बेटी, गली में सभी लोग जाहिल और बहमी नहीं हैं। डैडी धैर्य से बोले, "यदि उसका यहाँ आना किसी दृष्टि से उपयोगी या हितकर होता तो एक बात थी। विपरीत इसके वह तुम्हारे लिये अहितकर और अनेक उलझनों का कारण हो गया।"

"डैडी, उलझन क्या? कोई उलझन नहीं। सेठ के आने से मुझे सामयिक समस्याओं और राजनीति को समझने में बहुत सहायता मिली है।” उषा ने डैडी का स्पष्ट विरोध देखकर भी मोर्चा नहीं छोड़ा।

"बेटी, तुम्हें उलझन का कारण नहीं दीखता क्योंकि तुमने माँ की बात पर ध्यान नहीं दिया, उनकी बात अनसुनी कर दी। लेकिन हम लोग देख रहे थे। हमें तो आशा थी, और कुछ नहीं तो तुम माँ की बात का ही ख्याल करोगी। तुम चाहती तो सरलता से उसके अधिक न आने का उपाय कर देती।"

बेटी का चेहरा उतर गया देखकर पंडित ने स्वर जरा नरम किया, "यह कोई गलत बात नहीं है कि समस्याओं पर बातचीत के लिये सेठ की संगति तुम्हें सन्तोष देती है परन्तु न वह व्यावहारिक है, न तुम्हारे लिये हितकर तुम्हारी माँ की विव्हलता और व्याकुलता का कारण यही चिन्ता थी।"

उपा ने पूर्व सोची भूमिका से बात आरम्भ की थी, परन्तु उसकी सोची हुई सफाई और तर्कों का अवसर ही न आया। डैडी ने बिना आवेश के सब दोष उसी पर डाल दिया। शिष्ट परन्तु स्पष्ट शब्दों में उस पर मेठ से उलझ जाने का आरोप शब्द ऐसे कि आपति और विरोध की गुंजाइश नहीं। मन की शिकायत मन में ही जुटी रह गयी।

बृहस्पतिवार उषा ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी पहुंची। आर्ट ब्लाक की ओर से विद्यार्थियों का जुलूस साइन्स ब्लाक की ओर बढ़ रहा था। सामने दो विद्यार्थी दो बाँसों के बीच तना लाल कपड़े का बैनर उठाये। लाल बैनर पर बड़े-बड़े सफेद अक्षरों में 'स्टूडेंट फेडरेशन"। अनुमान हो गया, फेडरेशन जीत गयी। जुलूस के आगे वहीदा, जैन, खन्ना, सरकार, मिश्रा बाँहे उठा-उठाकर नारे लगातीं:

इन्कलाब जिंदाबाद! साम्राज्यवाद का नाश हो! डाउन डाउन विद कम्युनलिज्म्! वर्कर्स आफ द वर्ल्ड यूनाइटा स्टुडेंट फेडरेशन जिन्दाबाद! उनके पीछे दूसरे कामरेडों के बीच जमाल फूलों के हार बाँह पर लिये, छोटा लाल झण्डा उठाये। उनके पीछे नारों में सहयोग देते सैकड़ों स्टूडेंट भीड़ के पीछे चेतन और रवा, हबीबा, ललिता आपस में बात करते ॥

रखा ने उपा को साथ चलने का इशारा किया। उपा ने अपने पाँव की ओर संकेत कर दिया, खड़ी रही। जुलूस आगे बढ़ गया। उषा गर्ल्स कामन रूम की ओर जा रही थी।

"हलो उषा जी।" उषा ने बायें देखा, अविनाश शर्मा उसकी ओर आ रहा था। गुड

मार्निंग" उपाठिठक गयी।

अविनाश को सिन्हा के यहाँ सेठ के प्रभाव से उषा की कांग्रेस सोशलिस्टों के प्रति सहानुभूति का अनुमान हो गया था। पिछले तीन दिन उपा को फेडरेशन के पक्ष में सहायता देते न देखकर स्थिति समझ गया।

“कम्युनिस्टों का दांव चल गया, भारी बहुमत से जीत गये।" अविनाश के स्वर में निरुत्साह।

"हूँ?" उषा के स्वर में जिज्ञासा।

"उस धूर्त जयराम ने और बेड़ा गर्क किया!" अविनाश के स्वर में क्षोभ, "बड़ा करिश्मा दिखाने की ताल ठोंक रहा था। दिखा दिया करिश्मा!"

"हूँ?" उषा को और जिज्ञासा।

"उसके खयाल से बड़ा मास्टर दाँव!" अविनाश बोला, "पहले लीग वालों से नारे लगवाये: नो मुस्लिम वोट फॉर काफिर फिर वाइस चांसलर के यहाँ लीग के लोगों से वैधानिक आपत्ति उठवा दी। अपने खयाल में बहुत बड़ा कानूनी दाँव मारा - यह टर्न यूनियन में मुस्लिम प्रेसीडेंट की है। मुसलमान होने से इनकार करने वाले को उम्मीदवारी का हक नहीं। जमाल का नाम रद्द किया जाना चाहिये।"

"हूँ!" उपा की आँखें उत्सुकता से बड़ी ।

"कम्युनिस्ट चोर को मोर। जमाल नॉन कम्युनल बना सीना ठोंकता रहा। चेतन, तिवारी और उन्हें पट्टी पढ़ाने वाला डाक्टर कोहली वाइस चांसलर के पास जा पहुँचे जमाल जन्म से मुस्लिम उसके सब सर्टीफिकेट और डिग्री डाकुमेण्ट पर मुसलमान दर्ज, उसके मुसलमान होने का कानूनी सबूत वह कम्युनलिज्म का विरोध करने के लिये मुस्लिम होने का फायदा नहीं उठाना चाहता। वह अयोग्यता नहीं मानी जा सकती।

"वाइस चांसलर ने लीग का आवदेन नामंजूर कर दिया। सब हिन्दू स्टूडेंट्स की हमदर्दी जमाल के साथ हमारे दो-चार सौ वोट थे, वो भी गये। इस धूर्त ने बंटाधार कर दिया। कम्युनिस्टों का पैंतरा देखो, शहादत ले ली और फतह भी।"

उपा चुप रही।

चुनाव के बाद यूनिवर्सिटी में राजनैतिक बवंडर बैठ गया। स्टूडेंट्स कांग्रेस में अविनाश, श्रीवास्तव और कपिला के सिवा दूसरे लोग सो गये। फेडरेशन वाले भी कुछ दिन के लिये शिथिला अलबत्ता उनके स्टडी सर्कल चालू रहे हरीश तिवारी, चेतन और रवा ने उपा को दो बार साथ लेना चाहा। उसे निरुत्साह देखकर उपेक्षा कर गये।

सितम्बर के दूसरे सप्ताह चित्रा का विवाह था। उषा सप्ताह भर पहले उसके यहाँ आ- जा रही थी। विवाह से पहले दिन दोपहर से संध्या तक चित्रा के यहाँ रही। विवाह के लग्न आधी रात में थे। विदाई का मुहूर्त सुबह सूर्योदय से पूर्व उषा डैडी से अनुमति लेकर पूरी रात वहाँ रही। चित्रा लाहौर जा रही थी। व्याह-गौना साथ-साथ नवम्बर के अन्त तक लीटने की आशा थी। चित्रा और उपा दोनों को बिदाई का दुख। समारोह में मन रहने से उषा का मन बहल गया। प्रकट में उसका व्यवहार सामान्य हो गया, परन्तु पूर्वपक्षा गम्भीर अमित से झगड़े में चीखना, मॉ देवे से लाड़ में किलकारियाँ कुछ नहीं।

उषा ने निश्चय कर लिया: माता-पिता और उसके विचारों में अन्तर के कारण साथ

निर्वाह कठिन । सितम्बर पहले सप्ताह में बीस पूरे कर लिये थे। अपने लिये स्वयं जिम्मेदार | अपना मार्ग स्वयं बनाना जरूरी। रना अपने निर्णय से चलती है। उसके डैडी वास्तव में उदार विचार के हैं। मैं अपना हित-अहित नहीं जानती क्योंकि इनकी आश्रित हैं। वूमेन्स एटर्नल स्लेवरी! आना-जाना भी समस्या।

चित्रा के यहाँ पैदल गयी थी। कोठी के पिछवाड़े बगीचे में साथ-साथ घूमते समय चित्रा ने कहा था: अब तुम्हारी चाल में फरक नहीं लगता। पाँच-सात दिन पहले कपूर ने भी कहा था। उपा ने डाक्टर चौहान से राय ली। डाक्टर ने उसका चलना गौर से देखकर अनुमति दे दी।

समाजवाद और कम्युनिज्म के प्रति अमित की जिज्ञासा और उत्साह बढ़ता जा रहा था। सेठ ने उसका परिचय नाथ शास्त्री से भी करा दिया था। रजा की मार्फत उसका परिचय अन्य कम्युनिस्टों - एस. एन. तिवारी, चेतन आदि से भी हो गया। उसे साहसी और तीक्ष्ण बुद्धि समझकर कामरेड उसका उत्साह बढ़ाते रहते। सदा कोई न कोई पुस्तक, पैम्फलेट, पत्रिका उसके हाथ में गैरकानूनी पैम्फलेट भी पंडित लड़के की इस प्रवृत्ति से घबराते समझाते, “बेटे, तुम जो भी जानना समझना चाहते हो, जानो समझो पर याद रखो तुम्हारा कर्तव्य अपने कोर्स की पढ़ाई है। बोर्ड की परीक्षा है। डिवीज़न बहुत महत्त्वपूर्ण होगा।"

अमित विश्वास दिलाता, "डैडी, कोर्स की उपेक्षा में कभी नहीं करता। आप टेस्ट में देख लीजियेगा ।" पंडित फिज़िक्स केमिस्ट्री के अध्यापकों से जब-तब पूछ लेते थे। उत्तर से संतोष मिलता। बेटे पर नाराज़ होने के बजाय उसके सामर्थ्य और योग्यता के लिये गर्व अनुभव होता।

अक्टूबर का मध्य था। अमित ने छोटी-सी पुस्तक रोल आफ सोशल डेमोक्रेट्स' उपा को पड़ने को दी। पुस्तक एम० एन तिवारी से लाया था। पुस्तक का अभिप्राय था, सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक रेवोल्यूशन भ्रामक नारा है। शताब्दी के आरम्भ से उदाहरण दिये थे सोशलिस्ट डेमोक्रेट्स ने सदा समाजवादी क्रान्ति को पथभ्रष्ट करने का यत्न किया। उनका लक्ष्य पूँजीवादी व्यवस्था को क्रान्ति द्वारा आमूल उखाड़ना नहीं, बल्कि पूंजीवाद की रक्षा के लिये उस व्यवस्था में उत्पन्न अन्तर्विरोधों को सुलझाकर पूँजीवाद की रक्षा करना है। समाजवादी क्रान्ति केवल सर्वहारा मज़दूर किसानों और सैनिकों के प्रयत्न से डिक्टेटरशिप आफ द प्रोलीटेरियेट (मज़दूर वर्ग के अधिनायकत्व) द्वारा हो सकती है।

अमित ने उपा से बहस की: कांग्रेस समाजवादियों को भारतीय पूँजीपतियों द्वारा नियंत्रित कांग्रेस के माध्यम से क्रान्ति की आशा, सोशल डेमोक्रेट्स के समाजवादी क्रान्ति के स्वप्नों का भारतीय संस्करण है। बताया उसने तिवारी जी और डाक्टर रजा से इस विषय में बात की है। उनका दृष्टिकोण सेठ से अधिक स्पष्ट है। उपा ने कांग्रेस समाजवादी कार्यक्रम का समर्थन किया, परन्तु अनेक शंकायें स्वीकार करनी पड़ीं।

कहा।

"इस विषय में डाक्टर सेट क्या कहते हैं, उनकी भी बात सुननी चाहिये।" उपा ने

अमित सेठ से बात कर चुका था। उसका समाधान न हुआ था। बोला: "यहाँ तो आयेंगे नहीं। कैसे बात करोगी? मेडिकल कालेज जाना तुम्हारे लिये बहुत कठिन वहाँ चलोगी?"

वह समाजवादी क्रान्ति के लिये गुप्त प्रयत्नों में सहयोग देने का उत्साह अनुभव करने लगा था। क्रान्ति से सम्बद्ध प्रश्न को समझने के लिये बहिन को सहायता देने को उत्सुका उषा से परिवार की नाराज़गी में उसकी सहानुभूति बहिन के प्रति ।

"देखा जायेगा।" उपा चुप रह गयी।

पंडित मास में एक बार स्वयं अपनी साइकल साफ करके तेल ग्रीज़ देकर चुस्त कर लेते थे। अमित चाव से डैडी को सहयोग देता था। उषा के अनुरोध पर बहिन की साइकल खूब साफ करके तेल ग्रीज से टिचन कर दी, ताकि खूब हल्की चल सके। उषा ने छः मास बाद साइकल पर चढ़ने का इरादा किया तो मन में धड़कन सम्भाल पायेगी ! यों उसे साइकल का खूब अभ्यास था। हाथ छोड़कर भी चला लेती, छोटे-छोटे चक्कर में चलाना, अंग्रेजी के आठ का अंक बनाना वगैरह। पहले आँगन में आजमा लेना चाहा।

"मीतू, तुम नज़दीक रहो। डगमगाऊँ तो सम्भाल लेना।" मीतू समीप था। उषा साइकूल के पटल पर पाँव रख गद्दी पर बैठ गयी। उसे लगा, साइकल चलाना उसने कभी छोड़ा ही न था। डंडी की बात याद आयी साइकल चलाना और तैरना एक बार आ जाय तो शरीर के लिये स्वाभाविक क्रिया बन जाती है। साइकल पर यूनिवर्सिटी जाते मन-मन मुस्करा रही थी: मेरे लैंगड़ाने पर चुटकी लेने, लंगडी पंडिताइन पुकारने वाले मूर्ख अब क्या कहेंगे मन में पुलक। साइकल पर नहीं हवा पर सवार

अक्टूबर का तीसरा शनिवार था। उपा साढ़े दस बजे यूनिवर्सिटी के लिये चल रही थी। मिसेज़ सिंह आ गयीं, "उपी डियर, कितने दिन हो गये ब्रिज नहीं जमा। चार तक ज़रूर लौट आना। आज हमारे यहाँ रहा।" मुस्करायी, "तेरे मन की चीज खिलाऊँगी - हिरन के सींख कवाब!"

"हाय आंटी, हिरन कहाँ से आया?" उपा ने उत्सुकता दिखायी, "कहो, हम और जल्दी आ जायें। आज हम सवा बजे फ्री।"

उपा तीन बजे तक लौट आयी। शनिवार क्रिश्चियन कालेज भी आधा दिन लगता था। पंडित आ चुके थे।

उषा यूनिवर्सिटी से लौटकर कुछ देर ऊपर कमरे में लेटी तो झपकी आ गयी। मम्मी की पुकार से नींद खुली। पड़ोसियों के यहाँ जाने से पहले मुँह धो लिया। साही बदलने की ज़रूरत न समझी। माँ ने टोका, "जरा कंधी तो कर ले ये बुरी आदत; जो साड़ी पहन के बाहर गये, वही पहन के लेट गये। कितने बल पड़ गये!"

सामने आंटी के यहाँ जाने के लिये गाड़ी बदलूं?"

"साफ-सुथरा रहने में क्या हर्ज है। अपनी पोजीशन का ख्याल रखा करो, यूनिवर्सिटी में पड़ती हो।"

बक्से पर रखी थी— चंदेरी की बहुत हल्की गुलाबी जमीन की साड़ी, दूर-दूर लाल बूटियाँ बढ़िया किनारा। जबलपुर से मौसी ने माँ के लिये भेजी थी। रोज़-रोज़ पहनने की चीज नहीं। उपा का क्या; मन आ जाये तो रोज़ कालेज में पहनकर उड़ा दे

"मम्मी ये साड़ी सिंह आंटी के यहाँ जाने के लिये!"

"इसमें क्या खास। पहले पहन तो चुकी हो। हाथ में यही आ गयी। तुम पर फबती है, पहन लो। सिल्क पहनने का तो अभी मौसम नहीं।"

मम्मी की बातों से उषा ने पूछ लिया, "मम्मी, वहाँ कौन-कौन आ रहे हैं?".

"हम क्या जाने! चौहान मिसेज चौहान होंगे ही, यूसुफ तो अभी कचहरी से न आये होंगे। सिंह के मेहमान आये हुए हैं बरेली से।"

उषा ने साड़ी के अनुरूप कभी भी सावधानी से की। मम्मी की ओर ध्यान गया। मम्मी ब्रिज खेलती नहीं थीं। ऐसे अवसर पर सिंह के यहाँ जाती भी न थीं। वे भी तैयार हुई थीं। काफी अच्छी साड़ी पहनी।

सिंह के बैठक में पहुँचकर उपा को आयोजन के प्रयोजन का आभास हो गया। सिंह ने मेहमानों का परिचय कराया। मिस्टर सिंह के बड़े साले का छोटा बेटा के० एस० टोबी और उसकी भाभी बरेली से गोरखपुर जा रहे थे। सिंह मिसेज़ सिंह के अनुरोध पर दो दिन लखनऊ में ठहर गये थे। के० एस० टीवी रेलवे में असिस्टेंट डिवीजनल इंजीनियर था। टोबी का बड़ा भाई गोरखपुर में गुड्स आफिस में असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट था। सिंह ने परिचय ब्योरे से दिया टोबी ने ईछापुर से डिप्लोमा लिया था। तीन साल पहले सर्विस शुरू की श्री पच्चीस इब्बीस की उम्र पौने दो सौ पा रहा था। शीघ्र उन्नति की आशा योग्य जवान और प्रभावशाली सम्बन्ध-सम्पर्क।

ब्रिज के पहले राउण्ड में मिसेज़ सिंह, उषा, पंडित और टोवी बैठे। पार्टनर्स के लिये कट किया तो मिसेज सिंह और टोबी, पंडित और उपा। काल मिसेज सिंह की रही। सिंह पत्नी के समीप बैठे टोबी का शेष परिचय देते रहे इसे लड़कपन से स्पोर्ट्स का शौक निशाना अचूक भागते हिरन के सिर में बुलेट बैठा दे। डी० टी० एस० साहब शिकार पर जायें तो टोबी को छुट्टी दिलाकर जरूर साथ ले जाते हैं। पिछली बार तो साहब को चीते ने धर लिया होता, टोबी के औसान और निशाना चीता जम्प कर चुका था, इसने उसके सिर में गोली दाग दी। चीता साहब के पैरों पर गिरा पर हिल न सका।

• टोबी का व्यक्तित्व स्वयं मुखर अच्छा कद, भरा बदन, खुलता साँवला चेहरा घने काले बाल बहुत करीने से घंटे। बीच में पैनी माँगा खूब पुष्ट कंधे चौड़ा सीना। पेट को सीने से आगे न बढ़ने देने के यत्न में धंसी हुई पेटी। कमीज की आस्तीने कोहनी पर सिमटी हुई। कसरती, खूब पुष्ट बाँहें।

हाथ मिसेज़ सिंह खेल रही थीं। टोबी इमी था। वह सिंह को दूसरी बार चीता मारने का एडवेंचर सुनाने लगा, “मचान पर से शिकार का क्या मज़ा "

सिंह को अचानक याद आ गया, "टोबी के दो शौक-एक हटिंग, दूसरा रीडिंग माई गॉड, बरेली स्टेशन पर व्हीलर के स्टाल का न कोई मैगज़ीन छोड़े न किताब। रेलवे क्लब का लाइब्रेरियन है।"

रबर खत्म होते माढ़े पाँच से अधिक हो गये। सिंह ने पद्मा को पुकारा, "बेटी, चौहान अंकिल-आंटी को कहो, हम लोग चाय के लिये इंतजार कर रहे हैं।"

ब्रिज और चाय पार्टी का प्रयोजन भोंपकर उषा का मन हो रहा था, उठकर चली जाये। रबर खत्म हो गया था। चाय पर आयी थी, चाय पिये बिना जाने की बात कैसे करती। "हल्लो" की हुंकार से चौहान दम्पति ने प्रवेश किया। उनके साथ रीटा। टीवी का परिचय चौहान दम्पति के लिये दोहराया गया।

उपा दो सैंडविच और दो कबाब खाकर तृप्त हो गयी। सिंह आटी ने उसे ज़बरन एक

और कबाब खिलाया। उषा चाय के बाद एकदम कैसे चली जाती। दूसरा रबर शुरू हो गया। उषा ने तुरन्त कह दिया, "इस बार हम देखेंगे, हमें पत्ते न दीजिये।" चौहान चाय लेकर चले गये। उनके पेशेंट्स का टाइम था। मिसेज़ चौहान को ब्रिज से वास्ता नहीं। बैठकर क्या करतीं। आयोजन का परिणाम उन्हें बताया ही जाना था।

अब खेल जम रहा था। उषा ने मिसेज़ सिंह के कान की ओर झुककर ज़रूरी काम से घर लौटने की अनुमति चाही। मिसेज़ सिंह ने असंतोष से पण्डित की ओर देखा, "ये देखो! उषी, अभी तुम खेली ही क्या हमने तो आठ तक का प्रोग्राम बनाया है। खाना भी सबका यहाँ।"

""आंटी बहुत मज़बूरी है।” उषा को कैसे बोलना पड़ा, "कल मुझे डाक्टर अस्थाना को उनके पिछले नौ लेवर्स का ब्रीफ देना है। ढाई महीने के नोट्स देखने होंगे। हमारे मार्क्स उन्हीं के हाथ में हैं।"

पण्डित बेटी का भाव समझकर बोले, “ऐसी मजबूरी है तो क्या कहें।"

उषा चलने लगी तो टोबी खड़ा हो गया, "ग्रेट प्लेज़र टु मीट यू होप दु सी अगेन ऑन रिटर्न जर्नी बाई बाई, सो लांग।"

"बाई बाई।" उषा गर्दन के संकेत से विनय प्रकट कर दौड़ गयी।

मंगलवार उपा यूनिवर्सिटी से चार बजे लौट रही थी। मिसेज़ सिंह की नज़र पड़ गयी। पुकार लिया, "उषा, सुनो तो!"

उपा साइकल सिंह के मकान की दीवार से टिकाकर भीतर चली गयी। मिसेज़ सिंह ने एकाध बात इधर-उधर की करके पूछा, उस दिन जल्दी चली गयी। स्वाट डू यू थिंक अबाउट टोवी?"

उषा जानती थी, यह प्रश्न आयेगा । "आंटी, तुम्हारा मतलब वो "शिकारी इंजीनियर ! उषा ने दोनों हाथों की मुट्ठियाँ कंधों के बराबर उठाकर कसरती बदन का संकेत किया, "नाइस फैलो एण्टरटेनिंग।"

उषा का टीवी को केवल कसरती, शिकारी और हंसोड़ समझना मिसेज़ सिंह को उत्साहवर्धक न लगा। फिर भी बोली, “सुनो, तुम्हारी मम्मी-डैडी को तो बहुत जँचा। शुक्र की शाम गोरखपुर से लौट रहा है। शनीचर रहेगा। तुम्हारी राय हो तो बात चलायें। वह तुम्हारी बहुत तारीफ कर रहा था।"

"जांटी मेरी क्या तारीफ! वह अपने ढंग का भला आदमी । मम्मी की बात आप छोड़िये। मेरा पक्का इरादा है।" जानती थी, बात मम्मी डैडी तक पहुँचेगी, उसका फायदा उठाने के लिये बोली, “एम० ए० फाइनल के बाद जॉब, तब दूसरी बात, बल्कि आंटी चाहती हूँ, अभी से कहीं जॉब मिल जाये, एम० ए० तो प्राइवेट भी हो सकता है।" ""तुम नौकरी करोगी?" मिसेज़ सिंह उम्र में मिसेज़ पंडित से कुछ ही कम लेकिन जिन्दादिल, जवान लड़के-लड़कियों से बराबरी से बात और माजक कर लेती।

"आंटी, सोलह वरस हो जायेंगे पढ़ते-पढ़ते एम० ए० फाइनल तक " उषा ने जैसे मन खोल दिया, "माँ-बाप का इतना खून-पसीना इसीलिये बहाया है कि किसी भागवान के घर जाकर जद्दन और बेबे का काम सम्भालू? आंटी, सच बात यह कि वाइफ चाहे लाट गवर्नर की हो, रहेगी मोहताज़ आज़ादी और इज्जत अपने पाँव खड़े इन्सान की।" खूब साफ

और जोर लगाकर कहा ताकि बात डैडी मम्मी तक ज़रूर पहुँच जाये।

चाय पार्टी में टोबी से भेंट की प्रतिक्रिया मिसेज़ पण्डित और पण्डित को मिसेज़ सिंह से मालूम हो गयी। पण्डित को उपा के स्वभाव से इस विषय में अनुमान था। मम्मी इतनी जल्दी आशा न छोड़ देना चाहती थी। उषा की नौकरी करने की उत्सुकता के सम्बन्ध में भी उन्हें पता लग गया। पागल है मिसेज़ पण्डित ने कह दिया। पंडित सोचते रहे। स्पष्ट था, नौकरी की इच्छा का कारण, खासकर एम० ए० से पूर्व ही, लड़की के मन में सेठ प्रसंग से सम्बद्ध क्रोध उषा का व्यवहार साधारणत: सामान्य हो गया था, परन्तु कभी किसी बात से मन का खोयापन, उदासी, गुस्सा भड़ककर झलक जाते थे। आशा थी, शनैः शनैः ठीक हो जायेगी।

पंडित अवसर की प्रतीक्षा में थे। उनकी नजर में एक बहुत योग्य क्रिश्चियन जवान था, नौ बरस पूर्व उनका विद्यार्थी। एम० एस-सी० करके मैट्रियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया, देहरादून में काम कर रहा था। बहुत सोम्य, अध्ययनशील कभी-कभी उससे पत्राचार भी हो जाता। क्रिसमस के अवकाश में उसके लखनऊ आने की संभावना थी। मिसेज़ पण्डित ने वर की चिन्ता में फिर एक-एक पत्र आगरा, लाहौर, जबलपुर लिख दिया।

अक्टूबर के अंतिम दिना सुहावना मौसम स्कूल दस बजे के हो जाते तो पंडित परिवार में शाम को चाय का महत्व वह जाता। स्कूल-कालेज से लौटकर बच्चों और पंडित को भी साढ़े चार बजे भूख मालूम होती खाने के लिये कोई हल्की चीज, कभी तले हुए आलू, कभी घी में आटा भूनकर चीनी मिला दी जाती या हलवा कभी दाल सेव या बाजारू समोसे। अकसर दो-दो स्लाइस डबलरोटी मक्खना

अमित ने कालेज से लौटते ही उषा से मिसकोट की। दोनों चुप रहे। शनिवार था। पंडित चाय पीकर कचेहरी रोड पर झा के यहाँ संगीत की बैठक के लिये चले गये। छः बजे अमित ने बताया, "मम्मी, हीवेट रोड पर आचार्य नरेन्द्रदेव का लेक्चर है। हम और जीजी सुनने जा रहे हैं।" दोनों पैदल निकल गये।

व्याख्यान 'संघर्ष' कार्यालय में था। पत्रों में ब्रिटेन, फ्रांस और नाजी जर्मनी में म्यूनिख संधि के समाचार से देश के राजनीतिक क्षेत्र में बहुत सनसनी थी। व्याख्यान का विषय था: साम्राज्यवाद और पूँजीवाद का आक्रामक रूप फासिज्मा उषा को आचार्य जी को देखने- सुनने की उत्सुकता थी। अमित की बात से कुछ और भी आशा। अमित उपा पहुंचे तो सब लोग आ चुके थे। अच्छा बड़ा कमरा सब लोग फर्शी दरी पर बैठे थे। तीस पैंतीस श्रोता। सामने दीवार के साथ बिक्री गद्दी पर आचार्य जी घुटने तोड़े बैठे थे। उपा पहचानती न थी । अमित जानता था, आचार्य जी के एक ओर डी० पी० एस० सिन्हा, दूसरी ओर प्रसिद्ध रईस कामरेड महमूद जफर उनके सामने श्रोताओं में सबसे आगे डाक्टर रशीदजहाँ और एक अन्य महिला

उषा ने सभा में संकोच अनुभव किया। उससे पहले केवल तीन लड़कियों या महिलायें थीं। कपिला दुबे को उषा ने पहचान लिया। चेतन, अविनाश और अवस्थी को भी पहचाना। महिलाओं को सुविधा के लिये वक्ता के समीप सामने स्थान दिया गया था। आचार्य जी ने वार्ता शुरू करने से पहले पूछा, "आपकी क्या राय है, बातचीत अंग्रेजी में हो या हिदुस्तानी

में

"अंग्रेजी में बेहतर।" सिन्हा और महमूद की राय थी।

"हिन्दी में हिन्दी में!" कई आवाजें उठ गयीं।

"हिन्दी में इस मजमून को समझना आम लोगों के लिये मुश्किल होगा।" महमूद मुस्कराये।

"आम लोग हिन्दी ही चाहते हैं,” आचार्य जी ने मुस्कराकर श्रोताओं की ओर संकेत किया, "कोशिश करूँगा, मुश्किल महसूस न हो।"

उपा के लिये ऐसी बात हिन्दी में सुनने का पहला अवसर आई० टी० और यूनिवर्सिटी में हिन्दी में व्याख्यान की कल्पना न थीं। उषा को विस्मय आचार्य जी सहज सरलता से बोल रहे थे। उसे भी समझने में दुविधा न हुई। आचार्य जी का अभिप्राय था: ब्रिटेन और फ्रांस की साम्राज्यशाही शक्तियाँ इस संधि से नाज़ियों को सोवियत के विरुद्ध अभियान के लिये शक्ति संचय का अवसर और प्रोत्साहन दे रही हैं, परन्तु यह भी सम्भव है कि पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के अन्तर्विरोधों से यह संधि पुरानी साम्राज्यशाही और नये उठते साम्राज्यकामी नाज़ियों में युद्ध की भूमिका बन गये। नाजी जर्मनी में सभी समाजवादी और मजदूर संगठनों की समाप्ति संसार भर के समाजवादियों के लिये एक चेतावनी है।

उषा को डाक्टर सेठ सामने दाहिने बैठा दिखायी दिया। सिहरन उत्सुकता, नज़रें मिल जायें। आँखों आँखों में नमस्ते । संतोष नाराज नहीं है।

भाषण के पश्चात कुछ प्रश्नोत्तर लोग खड़े हो गये। अमित किसी से बात में उलझ गया था। सेठ उषा की ओर आ गया, "टॉक कैसा लगा?"

"बहुत अच्छा!"

"मेरा खयाल है, इस प्रकार की सामाजिक चर्चा सुनना लाभदायक होगा। " "जरूर आपसे कुछ कहना था।"

"कहो।" और समीप

"उसमें समय लगेगा।"

"मैं आ सकता है।"

"नो तो," उषा ने कहा, “स्वयं कोशिश करूंगी।"

अमित आ गया। "डाक्टर साहब, मैं जीजी को ले आया।"

"तुम बहुत भले भाई।" सेठ सराहना से मुस्कराया।

स्वयं कोशिश करूंगी- उपा ने कह दिया था, परन्तु मेडिकल कालेज चले जाना सरल

न था। तीसरे सप्ताह अमित कालेज से लौटकर ऊपर उषा पद्मा के कमरे में चला गया। वह डाक्टर सेठ के यहाँ होकर आया था, बोला- “पूछ रहे थे, तुमने मिलने के लिये कहा था, क्या बात थी। मैंने बता दिया “रोल आफ सोशल डेमोक्रेट्स' वाले पैम्फलेट के सम्बन्ध में बात करना चाहती है। शुक्रवार को 'संघर्ष' आफिस में जाते हैं। बात करना चाहो तो चली चलो आज स्टडी सर्किल भी है।"

उषा के मन में सेठ से भेंट की व्याकुलता बढ़ गयी डाक्टर प्रतीक्षा में है। खुद ही कहा और जा न सकी। 'संघर्ष' आफिस में कैसे बात हो सकेगी। टाल दिया, "मीतू इस समय नहीं।"

जुलाई, १९३८ के आरम्भ में डाक्टर रज़ा अहमद को प्रिंसिपल, डाक्टर हामिद और

डाक्टर जायसवाल की कृपा से लेक्चररशिप मिल गयी। एम० एम० के लिये उसका साइनोप्निस भी मंजूर हो गया। अड़ाई नौ मासिक की नौकरी और अस्पताल में कार्टर पाकर पाँव मजबूत हो गये। चेहरे और स्वर से निराशा का दैन्य जाता रहा। उसने गेती और सास से दृढ़ता से बात की, "हमें नौकरी की वजह से कालेज के इार्टर में रहना जरूरी है। गेती और आप हमारे साथ रह सकती हैं। जगह पर्देदार है, इस मकान से बेहतर आप न चाहें, गेती चल सकती है। दोनों इसी मकान में रहना चाहें, तो भी हमें नौकरी की वजह से वहीं रहने की मजबूरी। हमने जो बनेगा खर्च के लिये यहाँ भी देते रहेंगे!"

सास को ऐसी बेगैरती असा येती ने भी मुँह फुला लिया। रजा सप्ताह बाद हाल-चाल पूछने आया। बीवी और सास के मुंह फूले थे। बच्चों को प्यार कर लौट गया। तीन सप्ताह ऐसे ही चला।

रज़ा अगस्त के पहले सप्ताह वजीरगंज मकान पर गया। बीवी और सास की ओर से असहयोग। बच्चों को दुलराया और पचहत्तर रुपये आँगन में पड़ी खाट पर छोड़ गया। महीना भर पर न गया। सितम्बर के पहले सप्ताह गया तो गेती उसे देख फूट-फूट कर रो दी, हाय अब्बा ने हमें किस कुएं में डाल दिया। तुम्हें गली कोठों की खाक फोंकनी थी तो हमारी ज़िन्दगी क्यों बर्बाद की?" आँसू भरी लाल आँखों से घूरकर बोली, "इस तरह सताना है तो हमें जिवह क्यों नहीं कर देते। ये शरीफों के तरीके नहीं हैं।"

खानदानी शरीफ बीवी का फर्ज शौहर की राय माने। तुम हमारे साथ चलो। खुद देख लो, हम क्या, कैसी खाक फाँकते हैं? गेती को माँ की मंशा के खिलाफ कदम उठाना नामंजूर रजा पचहत्तर रुपये उसके सामने रखकर लौट गया। महीना भर मकान न गया। सितम्बर के पहले सप्ताह रजा के आने पर देती की ओर से और उग्र विरोध प्रदर्शन पहले से ज्यादा रोना और कोसना। पति से दो मास की विदाई की तड़प का क्रोध, परन्तु माँ के विरुद्ध क्या कर सकती थी। अक्टूबर के आरम्भ में रजा को मियों शमसुद्दीन का पैगाम मिला। रज़ा मिलने गया। डाक्टरी पास करके अडाई सौ मासिक तनखाह लेने पर ससुर की नजर में रज़ा बहुत ऊँचा उठ गया था। इसके अतिरिक्त शमसुद्दीन के दूसरे दामाद बड़ी बेगम के वाविन्द फजल अहमद ने ससुर को रजा के पक्ष में समझाया। फजल अहमद वकालत जमाने के यव में था, विचारों से आधुनिक प्रगतिशील तीन-चार बार भेंट से ही फजल और रजा में पटरी बैठ गयी। रजा ने विनय से विश्वास दिलाया उसका कार्टर पर्देदार मकान है। साथ के कार्टर में बरस भर पहले तक डाक्टर अब्दुर्रहमान रहते थे। वे भी पर्दे के पाबन्द है। नौकरी और आइंदा तरही दोनों के लिये उसका कार्टर में रहना लाज़मी । शमसुद्दीन ने बेटी को हस्पताल के डार्टर में वाविन्द के साथ रहने की राय दी: मां क्या करती।

डाक्टर रजा को कालेज के कार्टर में तीन मास अकेले रहने में कोई परेशानी न हुई। उसके कार्टर के सामने बायें हाथ डाक्टर सेठ का कार्टर सेठ के यहाँ खाना बनाने के लिये नौकर सेठ का कार्टर रजा के लिये अपना। तीन मास दोनों का नाश्ता-खाना साझे में था। रजा यदि परेशानी महसूस करता तो यही कि तीन मास सुबह-शाम का भोजन निरामिष, बिना प्याज-लहसुन। वह सेठ को 'सभ्य' बनाने की कोशिश में था। सेठ ने प्रगतिशील साथियों की संगति में अंडा आमलेट खाना स्वीकार कर लिया था, लेकिन भोजन में मांन

की बोटी मुँह में लेना उसके बस में न था।

गेती के लिये मेडिकल कालेज का क्वार्टर नयी दुनिया। सुबह आठ से एक या सवा बजे तक बच्ची और नौकर छोकरे कमाल के सिवा अकेली । कोई पड़ोसिन सहेली कुछ नहीं । वजीरगंज की गली के मकान में पैदा हुई थी। उसी मकान में जवान हो गयी।

उसने सैकड़ों मर्द भी देखे थे, लेकिन अब्बा, अपने शादीशुदा भाई जो अब कानपुर में था, हवेली में दुसरे सौतेले भाइयों, हवेली के दो-चार नौकरों के अलावा मर्दों को पर्दै- चिलमन के पीछे से या किसी ओट से देखा था। क्वार्टर में आकर अजीब स्थिति।

ती को संक्षिप्त सामान के साथ रज़ा इतवार के चौथे पहर तांगे पर कालेज क्वार्टर में ले आया था। गेती बुरके में थी। तांगे के अगाड़ी पिछाड़ी चादरें बाँधकर पर्दा कर दिया गया था। ताँगा गली से चला तो गेती माँ के विछोह और घर छोड़ने के गम में सुबक रही थी। शुरू में मालूम हुआ, तोंगा गली से निकलकर दाहिने हाथ मुद्रा। उसके बाद कुछ मालूम न हो सका, तांगा किन रास्तों सड़कों पर हिचकोले-झकोले खाता मेडिकल कालेज पहुंचा। तोंगे से बुरके में उतरकर गेती ने छोटा सा बरामदा देखा। भीतर कमरे से लगा दूसरा कमरा और पक्की ईंट की चारदीवारी से घिरे मकान के आँगन से बड़े आँगन में रसोई। ईंट के फर्श का आँगन कुछ मालूम न हो सका अपनी गली से किस तरफ कितनी दूर पहुँच गयी थी पास-पड़ोस में क्या है? माँ ने गेती के साढ़े तीन बरस के बेटे को अकेले के खयाल से अपने साथ रख लिया था। पौने दो साल की बेटी नादिरा साथ आयी थी। माँ ने बेटी की मदद के लिये एक गरीब पड़ोसी के सात बरस के बेटे कमाल को नौकर के तौर पर साथ कर दिया था।

सुबह रज़ा के कालेज जाने पर गेती अकेली क्या करे? किससे बोले बतियाये? पढ़ने या सीने-पिरोने की आदत नहीं। सामने के कमरे, बैठक में आकर चिक के पीछे खड़ी हो गयी। बिलकुल चिक से लगकर कौतूहल से दायें-बायें जहाँ तक नज़र गयी, देखने की कोशिश। जानती थी, कमरे में चिक की ओट खड़े-बैठे आदमी को बाहर से नहीं देखा जा सकता। दरवाज़े के सामने चारदीवारी से घिरे साथ लगते दो कार्टरों के आँगन सामने बायीं तरफ क्वार्टर के बरामदे में एक फटफटिया। उस बरामदे में भी दरवाज़े पर चिक सुबह एक जवान रजा की तरह घुटनों तक सफेद डाक्टरी कोट- पतलून पहने हाथ में रबड़ की नली लगा आला झुलाते बायीं तरफ चला गया था। खुद उसके मकान के दाहिने भी सामने जैसा बरामदा उधर देखा, वहाँ से भी एक जवान वैसा ही लम्बा सफेद कोट पहने हाथ में वैसे ही रबड़ की नली का आला लिये बायीं तरफ चला गया। अनुमान, यहाँ सब लोग उसके खाविन्द की तरह डाक्टर हैं। सामने क्वार्टरों के आगतों की दीवार नज़र रोके थी। चिक की ओट से बायें दायें साठ-सत्तर कदम आगे दिखायी न दे सकता। गेती हैरान, कहाँ आ मरी हालाँकि अपने मकान से बाहर की दुनिया इतनी भी दिखायी न देती थी लेकिन गली- पड़ोस की बाबत सब मालूम था। नयी जगह अजीब लग रहा था।

गेती ने देखा दायें हाथ पड़ोस के क्वार्टर से एक जवान औरत निकली, गेती की उम्र की या बरस दो बरस बड़ी भरा-भरा बदन। हल्की नीलगू हवाई मलमल की फूली फूली साड़ी। गोरा चिट्टा चेहरा गोरी तो होगी पर पाउडर से झका बड़े बनाव के बाल अच्छा बहा जूड़ा।" "बेहया का आधा सिर उघड़ा मरी के गोरे चिट्टे माथे पर ताजे लहू की बड़ी

बूँद सी सुर्ख बिन्दी, दप-दपः पाँव में चट्टियाँ। एडी छूती साड़ी, बदन पर साड़ी जैसी ही हल्की नीलगू चुस्त कुर्ती या ब्लाउजा आधी आस्तीने, कोहनी से ऊपर नीचे बाँह नंगी । कलाई पर चूड़ियाँ हाथ में बड़ा बटुआ। गेली समझ गयी-मरी बेहवा हिन्दनी! ये लोग पर्दा नहीं करतीं। कैसी निधड़क चली जा रही है, कबूतरी की तरह सीना उभारे। उसकी उँगली पकड़े खिलौने सी खूबसूरत बनी।

पड़ोसिन की बच्ची गेती की नादिरा के बराबर बच्ची खूब गोरी-गोरी, फूले-फूले गाल, गुलगुली बाँहें और टाँगें। घुंघराले महरे कत्थई सुनहरे बालों पर लाल रिबन की गाँठ फूल की तरह। बदन पर घुटनों तक फूली फूली फ्राक कुकुरमुत्ते की छतरी जंगी। पाँव में सफेद मोजे छोटे-छोटे खिलाने से काले बुट ठुमक ठुमक चल रही थी।

मरने दो इत बेगैरत हिन्दनियों को! गेती ने सोचा: तवायफों की तरह सरेबाजार अपने दुख का मुजरा कर रही है। लेकिन कलेजे में झूल गड़ा-पड़ोसी है। हाथ, हमारी नादिरा बाहर बैलेगी तो इसकी बेटी के मुकाबले कैसी लगेगी। तुरन्त किवाहों पर सॉकल चट्टा भीतर गयी। नादिरा सिर्फ अंगला पहने आंगन में चीथड़े की गुड़िया को नल के नीचे नहलाते खुद भीगकर सराबोर माँ ने चलने से पहले बच्ची की कधी-चोटी कर दी थी, सिर पर चिपके बाल। चार अंगुल की चोटी, पिल्ले की दुम जैसी। गेती साबुन लेकर बच्ची को आँगन में नल के नीचे नहलाने लगी। डेरों साबुन लगाया, बच्ची को गोरी बना देने के लिये इतना रगड़कर मला कि बच्ची रो-रोकर बेहाल। बदन पोंछा, सिर साबुन से धोया था। चमेली के तेल का हाथ लगा दिया। कंधी की तो बाल फूले नहीं बैठ गये। समझ में आया तेल न लगाये तो बाल फुलेंगे। बच्ची का सिर फिर धोया। बड़ी परेशान हो गयी। पाउडर गेती के पास भी। बच्ची को खूब पाउडर लगाया। सबसे अच्छे कपड़े निकालकर पहनाये। बलिया कपड़े थे. गोटा किनारी लगा केले के रेशम का गुलाबी अंगला वैसा ही गोटा- किनारी लगा गरारा बक्से में दबे कपड़ों में सिलवटें कपड़े जरूर कीमती बड़िया थे पर पड़ोसिन की बच्ची के कपड़ों की बात नहीं वह बिलकुल विलायती गुड़िया लग रही थी। गेती का मन संतुष्ट न हुआ। चूल्हे पर रंधने के लिये दाल चड़ा दी। आटा मॉड़कर रख दिया। फिर अकेलापन काटने के लिये चिक के पीछे बड़ी थी।

डेढ़ बजे के करीब रजा आया। गेती ने उसे खाना देकर पड़ोसिन हिन्दनी के बेपर्दा तौर- तरीके और अकेली घूमने की आलोचना करके कहा, "ऐसे पड़ोस से हमें क्या लेना-देना, लेकिन उसकी बच्ची के कपड़े बहुत प्यारे लगे। बच्चे तो मान नहीं सकते। नादिरा उसके साथ खेलेगी तो कैसी लगेगी? इसके लिये वैसे जोड़े बनवा दो।"

"जरू!" रजा ने उत्साह से कहा।

रज़ा तीन बजे लेबोरेटरी चला गया। गेती ने कुछ देर अपकी ली फिर बैठक में चिक के पीछे बैठ बाहर आँकने लगी करती क्या? अच्छी मुसीबत में आ गयी थी। दिन इन चला था। रजा बाबीं तरफ से आता नजर आया। फटफटिया वाले बरामदे में जाकर उसने पुकारा और चिक उठाकर भीतर चला गया। गेती को चिन्ता उस घर में औरतें नहीं होंगी? उसकी नजर उधर ही रही। कुछ मिनट में रजा निकलकर अपने मकान की तरफ आ रहा था। नजर उसकी दाहिने हाथ बरामदे की तरफ अपने बरामदे से आगे बढ़ गया। लाड़ में पड़ोसी की बच्ची को पुकारने का स्वर। गेती समझी नहीं, सिर्फ 'रानी' समझ में आया। गेती

ने कौतूहल में अंगुल भर चिक उठाकर दाहिने देखा। रजा पड़ोसिन बच्ची को गोद में लिये लाइ मै दुलराता चला आ रहा था। बच्ची के कपड़े सुबह जैसे ही थे, लेकिन रंग दूसरा । घुंघराले बाल बिखरे हुए पाँव नंगे।

"मद्दो रानी, ये तुम्हारी चाची।" रजा ने गेती की ओर इशारा किया। बच्ची को गोद में लिये बैठ गया, "नादिरा को लाओ। दोनों को सहेली बना दें।"

गेती ने बच्ची को दोपहर में सुलाते वक्त कपड़े उतार दिये थे। कपड़े पहनाकर लायी। दोनों बच्चियों में बहुत फर्क लग रहा था। एक खिले फूल जैसी, दूसरी नीचे गिरकर धूल में सने फूल सी।" ऐसे कपड़े चाहती हो न?" गेती से पूछा।" बच्चों के लिये कपड़े ढंग के होने ही चाहिये। हम मिसेज़ मिश्रा से कह देंगे। बता देंगी। कहाँ से बनवाती हैं। उनके साथ सवारी पर चली जाना। चार-छः जोड़े बनवा लो।"

"ये ही सिखाने को हमें यहाँ लाये हो?" गेती के माथे पर तेवरा" हम लोगों के वहाँ पर घर का कपड़ा लत्ता हमेशा मर्द लाते रहे। न लाकर देना हो मत लाओ। लड़की ऐसे ही रह जायेगी। हमें बर्दाश्त नहीं होगा, वजीरगंज लौट जायेंगे।

दूसरे दिन सुबह रजा नाश्ता कर कालेज चला गया। गेती घर के भीतर रख सम्भाल में लगी थी। बैठक के किवाड़ों पर खट-खट सुनकर पुकारा, "कमाल, देखो कौन आया है?" कमाल ने बताया-पड़ोस की मेम साहब आपको पूछ रही हैं। गेती को घबराहट "हाथ उसके सामने कैसी लगूंगी? "वहीं कुर्सी पर बैठाओ, "गेती ने कहा। कुर्ते का दामन खींचकर सल्वट सीधे किये, दुपट्टा सिर पर लेकर बैठक में आयी।

पड़ोसिन पिछले दिन की तरह बनी-ठनी साड़ी का रंग बजाय नीलगू के गहरा कत्थई, ऊपर सफेद चारखाना।

“मिसेज़ डाक्टर मिश्रा ने सलाम किया, "सोचा, पड़ोसिन से मुलाकात कर लें। आपके मियाँ हमें भाभी पुकारते हैं। आप अभी कल तशरीफ लायी हैं। हम यहाँ दो बरस से हैं। हमारे लायक कोई मदद हो तो फार्माइयेगा। "

“शुक्रिया।"

मिसेज़ मिश्रा ने अखबार में लिपटा पैकेट खोल दिया। बचकाने कपड़े के दो जोड़े थे। "रजा भाई कह रहे थे, आप बच्ची के लिये हमारी मद्दी जैसे कपड़े बनवाना चाहती हैं। हम लालबाग जा रही हैं। वहीं दर्जी है। यहाँ फाटक पर ताँगा मिल जाता है। आप खुद चलती तो अपनी पसन्द का कपड़ा-रंग-डिजाइन पसन्द कर लेतीं। यों आप कहें, हम बनवा देंगे। इनमें से कौन पसन्द है आपको?"

"दोनों ही अच्छे हैं।" गेती ने कपड़ों पर नजर डाली। "आप ही इनायत फर्माइये। आपके मुकाबले हमारी पसन्द क्या हम तो कभी बाजार गयी नहीं। हम लोगों में रिवाज नहीं।" "कितने जोड़े बनवा दें?"

“दो जोड़े बनवा दीजिये। "एक इस मेल, एक ऐसा।"

"दो जोड़े!" मिसेज़ मिश्रा की भाँव उठ गयीं, "दो से क्या होगा? बच्ची है। इसे साफ रखना चाहेंगी तो दिन में चार बार तो बदलेंगी।"

गेती झेंप गयी, "चार बनवा दीजिये।" खुद को छोटा न दिखाना चाहती थी। "जैसी आपकी तबीयत, "मिसेज़ मिश्रा ने मंजूर कर लिया।” आप भी कभी हमारी

तरफ तशरीफ लाइये। पड़ोसियों में मेल-जोल अच्छा रहता है। "

"जरूर हाजिर होंगे।"

गेली की तनहाई की मुश्किल का खयाल रजा को था। घर पर गेती की तालीम के बारे मैं भी मालूम। निकाह के सात मास बाद रज़ा को रोती की समझ का दायरा बढ़ाने का खयाल आया था। पढ़ने का शौक पैदा करने के लिये उलफतराय और रतनलाल के कुछ दिलचस्प अफसाने और नावेल, रिसाले नकूश, हुमायूँ नया जमाना वगैरह गेती के लिये लाने लगा। गेती की माँ और वालिद को अला-बला फहेश किताबें औरतों को पढ़ाना पसन्द न था। उन्होंने एक-दो बार टोका। फिर शौहर की मर्जी देखकर चुप रह गये। रज़ा भी समझ गया, गेती को पड़ने का शौक खुद ही न था। वह चाहती थी सहेलियों से बतरस। गेती को कार्टर में लाने के बाद उसके लिये किताबें लाया। उर्दू अखबार भी लाता। गेती का मन पढ़ने में न लगता।

रजा पढ़ाने या बातचीत के अलावा गेती का खयाल बदलने के लिये उसकी वाकफियत का दायरा भी बढ़ाना चाहता था। घर से बाहर निकलने का सुझाव देने का वक्त अभी न

आया था।

गेली को कार्टर में आये दूसरा महीना हुआ था। शाम लेबोरेटरी से लौटते समय रजा की नजर क्वीन मेरी की तरफ से आती डाक्टर कमरुन्निसा पर पड़ गयी।

डाक्टर कमरुन्निसा रजा से दो बरस सीनियर थी। पैथालाजी के प्रोफेसर सैयद हामिद अली, एफ० आर०सी० पी० की बेटी बहुत संजीदा, समझदार लेकिन पकी, बल्कि बहुत लगन की कम्युनिस्ट गाइनाकोलोजी में एम० डी० कर रही थी। मेडिकल कालेज के कामरेड उसे आपा पुकारते थे।

"हलो हलो" के बाद कमर ने शिकायत की, "सुना है, बीवी को ले आये। हमसे इंट्रोड्यूस भी नहीं कराया?"

"अभी आइये आपा । " रजा तो खुद चाहता था, गेती को समझाने के लिये कमर से बेहतर मिसाल क्या हो सकती थी। रज़ा से बात करती कमरुन्निसा साथ हो गयी।

गेली चिक के पीछे से झाँक रही थी। शौहर को एक बेपर्दा अजनबी औरत के साथ हंसते-बोलते आते देख दिल जल गया। गुस्से में भीतर चली गयी। उसकी साड़ी मसली हुई थी। तुरन्त साड़ी बदली। माथे पर कंधी ठीक की। मियों की आवाज सुनी, "आप तशरीफ रखिये।"

"जरा बाहर आइये। कमरुन्निसा आपा आयी हैं।"

गेती ने साड़ी का आँचल करीने से करते हुए नजदीक आकर पूछा, "कौन?" बैठक में आओ, खुद देख लो।" रजा कुछ झिझकती हुई गेती को ले आया। कमर के सलाम के जवाब में गेती ने आदाब अर्ज किया। औरत थी, लेकिन डाक्टरों जैसा कोटा समझ लिया, डाक्टरनी!

"कमरुत्रिया आपा है। हमसे बड़ी डाक्टर आपके वालिद प्रोफेसर सैयद हामिदअली साहब हम पर मेहरबान हैं। हमें उनका बहुत सहारा" रजा मुस्कराया "तुम्हें किसी रोज़ इनकी मदद की जरूरत पड़ सकती है।"

"ज़रूर!" कमर हँसी, "मुबारक मौका जल्द आये।"

" लिल्लाह !" रजा झिझका, “आपा, इतनी जल्दी नहीं। आपकी दुआ से एक जोड़ा बेटा- बेटी हैं। बहुत काफी।"

चश्मेबद्दूर! बच्चे गिने नहीं जाते।" कमर गेती की तरफ देख मुस्करायी, क्यों दुल्हन, बच्चे कहाँ छिपा रखे हैं? नजर भीतर दरवाज़े की तरफ गयी, "आहा आप हैं!" नादिरा भीतर के दरवाज़े से झाँक रही थी। कमर ने लपककर उसे गोद ले लिया।

" तमाम धूल से भरी है।" रजा ने टोका, "आपका एप्रन मैला हो जायेगा। इन्हें सफाई का कायदा सीखने में कुछ वक्त लगेगा।" हँसा, "हम लोग आहिस्ता-आहिस्ता तहजीब सीखेंगे।"

"कुछ मैला नहीं होगा।" कमर ने बच्ची को प्यार कर फर्श पर खड़ा कर दिया, "बिटिया उँगलियाँ मुँह में नहीं डालते।" कमर ने बच्ची के मुँह से उँगलियों हटा दीं। बच्ची माँ के घुटनों से जा लिपटी ।

नादिरा को गोद में लेने से कोट मेला हो जाने का खयाल और कमर का बच्ची को मुँह में उँगली डालने से टोकना गेती को अच्छा नहीं लगा।

"बहुत गरमी मालूम हो रही है।" कमर एप्रन कोट के बटन खोलती हुई खड़ी हो गयी, "हम भीतर जाकर एप्रन उतार लें।

"आपा, आपका अपना घर है।" रजा ने गेती की तरफ देखा, "जाओ शायद पानी- बानी की जरूरत हो : साबुन-तोलिया दे दो।"

ती भीतर ले गयी। कमर ने एप्रन कोट उतारकर बाँह पर ले लिया। आँचल कंधों पर फैला लिया। सिर न ढँका हल्के बादामी रंग के महीन कपड़े की साड़ी, वैसा ही आधी आस्तीन का चुस्त ब्लाउजा गेती ने देखा, पूरी भरी जवान औरत । जरा ढँका हुआ रंग सादगी से पीछे सीधी कधी बिना माँगा अच्छा बहा जुड़ा। बदन अनव्याही सा एप्रन उतारकर कमर बैठक में आ गयी, बोली, "दुल्हन, रजा हमें आपा कहते हैं। तुम भी वही कहोगी। हम तुम्हें क्या पुकारें? रजा छोटे हैं, तुम और छोटी दुल्हन ही कहें या तुम्हारा नाम पुकारे?"

"इनका नाम गेती आरा है।" रजा ने बताया ।

"बहुत प्यारा नाम है "धरती की तरह बसीह दिल, बुर्दवार (सहिष्णु)।"

"हम तो ऐसा ही चाहेंगे," रज़ा गेती की तरफ देख मुस्कराया।" आपा, एक प्याला चाय हो जाय।"

"नहीं नहीं!" पहले रोज़ ही दुलहन को तकलीफ नहीं देंगे। हम एक गिलास पानी ले लेंगी।

"आपा, वक्त तो चाय का है, लेकिन हम खुद इसरार न करेंगे। अभी आपके मसरफ की चाय से बना नहीं पायेंगी। कायदे के बर्तन भी नहीं ला पाये।"

रजा की यह अकिंचनता गेती को अपना अपमान लगी।

"नहीं, ऐसी क्या बात" कमर ने बात टाली, "दरअसल अभी डाक्टर अग्रवाल के यहाँ चाय लेकर आ रहे हैं। हमें प्यास मालूम हो रही है।"

ती एक गिलास पानी ले आयी। कमर ने पानी पिया। पन्द्रह मिनट बैठी। रजा से अंग्रेजी में बात करती रही। पान लेकर उठ गयी, "अच्छा गेती आरा हम फिर आयेंगे। चाय

भी पियेंगे। खुदा हाफ़िज़ "

कमरुन्निसा को सौ कदम चौराहे तक पहुँचाकर रजा लौटा। गेती भरी बैठी थी, "वे तुम्हारी कौन इतनी मिजाज वाली हैं कि बच्ची के बदन से उनका कपड़ा मैला हो जायेगा? बच्ची ने मुँह में उँगली ले ली तो दूसरों के बच्चों को टोकने वाली ये कौन?

“उन्होंने कोई गलत बात नहीं कही। अपनेपन में नसीहत ही की। "

"आयीं बड़ी नसीहत करने वाली! खुद बेहिजाब । मुसलमानों में शरीफ खानदानों की बहु-बेटियाँ लोगों के यहाँ ऐसे धोती-साड़ी में नंगी चली जाती हैं?"

"नंगी के क्या माइने?" रजा ने कड़े स्वर में पूछा।

"नंगी नहीं तो क्या? सिर मुँह उघाड़े सड़क से आपके साथ नहीं आयी? यहाँ आकर रहा-सहा कपडा उतार डाला। आपके सामने बैठ गयी कोहनियों से मूसल जैसी नंगी बाँहें सीना दिखाने के लिये कुर्ती इतनी नीची जैसे शौहर के साथ तखलिये में हो। हम शर्म के मारे नजर झुकाये।"

"बस अब चुप हो जाओ? रज़ा का स्वर और कड़ा।

"क्यों हो जाये चुपर उसकी खुशामद में हमारी हतक की!" गेती ने दो बूँद आँसू टपका दिये।

"क्या हतक हो गयी तुम्हारी?"

"हतक कैसे नहीं हुई? आखिर ये कौन शाही महलात से आ रही हैं कि इनके लायक चाय हम नहीं बना सकते? क्या करता है इनका शौहरत

"बताया तो इस कालेज के बहुत बड़े डाक्टर की बेटी हैं। खुद बड़ी डाक्टर शादी नहीं की।"

"ए हैं, शादी नहीं की? ये अट्ठाईस तीस की औरत अछूती कुंआरी हैं। इन तवायफों को रोज नया मर्द "

रज़ा के दाहिने हाथ का थप्पड़ गेती की बायीं गाल पर इस जोर से पड़ा कि चेहरा घूम गया और गेती फर्श पर बैठकर लुक गयी। कुछ पल तो स्तब्ध मुँह से आवाज न निकल सकी। फिर फूट-फूटकर रो पड़ी। रजा उसे बाँह से खींच भीतर ले गया। पलंग पर डाल दिया।

नादिरा रोने लगी।" बच्ची को बाहर ले जाओ" कमाल को हुक्म दिया। भीतर कमरे के किवाड़ मूँद दिये। खुद पंखे के नीचे बैठकर सिगरेट लगा ली।

रजा सिगरेट खत्म करके घर से निकल गया। पाँच का समय चाय की इच्छा थी। शाम की चाय जब-तब सेठ के यहाँ ले लेता था। सेठ के यहाँ चला गया। उदासी बँटाने के लिये घर के झगड़े का जिक्र कर दिया। सेठ ने सहानुभूति प्रकट की, "तुमने जिन्दगी भर की मुसीबत सहेड ली। नरेन्द्र की फैमिली उसे इसी मुसीबत में फँसाने के लिये बेताब। वही हाल हमारे फादर का।"

"कहीं चलकर गम गलत किया जाये।" रजा ने इच्छा प्रकट की, "नरेन्द्र या तिवारी होता तो आज बियर पीते । तुम हो खूसट। चलो, सिनेमा चलो।"

सेठ को सिनेमा का भी शौक नहीं, "आठ बजे वार्ड में राउण्ड के लिये जाना हैं। दूसरे शो मैं चल सकते हैं।"

ऐसी तैसी दूसरे शो की 'प्रिंस' में अंग्रेजी पिक्चर देखेंगे छः से आठ तक राउण्ड आठ नहीं, नौ बजे हो जायेगा। कौन सीरियस केस हैं?"

सेठ ने रज़ा की उदासी के खयाल से मंजूर कर लिया।

रज़ा नौ तक लौटा। गेती पलंग पर उसी तरह पड़ी थी। कदमों की आहट पाकर सिसकियाँ शुरू वी भूखी सो गयी थी। कमाल भी ऊँघ रहा था। शाम के खाने की तैयारी के कोई चिह्न नहीं।

रजा ने पल भर सोचकर कमाल को जगाया। कटोरदान और एक गिलास साथ ले लिया। हस्पताल के बाहर शाहमीना के मजार से गोल दरवाज़े के बीच नानवाइयों और हलवाइयों की दुकानें तब भी थीं। गोल दरवाज़े पर सब कुछ मिल सकता था। रजा ने गिलास में बच्ची के लिए दूध और बिस्कुट ले लिये। कटोरदान में गरमागरम रोटी सालन भरवा लिया।

घर लौटकर बच्ची को विस्कुट खिलाकर दूध पिला दिया कमाल को खाना दे दिया। गेती को सुनाकर कमाल से कहा, "एक प्लेट में रोटी-सालन दूसरी प्लेट से ढंककर उनके सिरहाने कुर्सी पर रख दो। हमारे लिये बैठक में दे दो।" सिसकियों की आवाजें आती रहीं। उसने बैठक से भीतर का दरवाजा बन्द कर लिया।

दूसरे दिन सुबह उठकर बिना आहट विवाह दबाकर भीतर नजर डाली। गेती नींद में थी। बच्ची भी सात के बाद फिर बिना आहर झाँका ती उठकर बच्ची का मुँह धो रही थी। उसके सिरहाने रखा खाना अछूता नाश्ता तैयारी के कोई लच्छन नहीं।

रज़ा अपने निश्चय पर दृढ़। कपड़े बदलकर कमाल को पुकार कर बाहर सड़क की दुकानों तक चला गया। एक बड़ी डबलरोटी, मक्खन की टिकिया, गाढ़े मीठे दूध का डिब्बा और बच्ची के लिये गरम उबला दूध ले आया। बच्ची को नाश्ता दिया। बच्ची से लान से बोला जैसे कुछ नहीं हुआ। कमाल को पुकारा- "ये तुम्हारे लिये, ये भीतर दे दो।" खुद नाश्ता कर कालेज चला गया।

रज़ा एक बजे क्वार्टर में लौटा। बैठक की सॉकल कमाल ने खोली ।" खाना बना हैं?" रज़ा ने धीमे से पूछ लिया। कमाल ने गर्दन के संकेत से हामी भरी। रज़ा मुँह-हाथ धोने गुसलखाने में गया। गेती बोली नहीं। बैठक में लौटकर रजा ने पुकारा, "कमाल, खाना बना हो तो लाओ।"

रज़ा खा चुका तो पुकारा, "कमाल तश्तरियाँ ले जाओ।" उस सायं और रात भी पति- पत्नी में मौन विरोध और असहयोग। रज़ा सुबह नाश्ते के बाद कालेज जा रहा था। कमाल पान ले आया। किवाड़ के पीछे से रो-रोकर बैठे गले की आवाज, "अपने मालिक से कह दो, हम वजीरगंज जा रहे हैं। सवारी मँगवा दें।"

रज़ा ने कमाल को उत्तर दिया, "कह दो, हमें दोपहर तक फुर्सत नहीं हैं। " दोपहर भी असहयोग । खाना उसके लिये बैठक में आ गया। उसने निश्चय कर लिया या तो सुधरेगी या माँ के यहाँ रहेगी। चिन्ता-बच्चों का क्या होगा "खैर, देखा जायेगा।

पाँच बजे लौटा तो फिर बैठक की सॉकल कमाल ने खोली सेठ के यहाँ चाय पीकर अखबार ले लिया था। कमाल को पुकार कर नादिरा को बुलवा लिया। बच्ची बहुत प्यारा तुतलाती थी। तोते की तरह वही शब्द बार-बार रज़ा अखबार पर नजर लगाये उसे जवाब दे रहा था। कुछ मिनट बाद कमाल तामचीनी के प्याले में चाय ले आया। रजा को इच्छा न थी, लेकिन सुलह के पैगाम का निरादर न करने के लिए अखबार देखता घूँट भरने लगा। नेपथ्य से गेती की आवाज, “कमाल, पूछो साँश हो रही हैं। वजीरगंज जाने के लिए सवारी कब आयेगी?

रज़ा ने कड़ा जवाब दिया, “कमाल, कह दो गली तक हम पहुँचा देंगे, लेकिन फिर बुलाने लिवाने कोई नहीं जायेगा।"

नेपथ्य निरुत्तरः

रजा ने आधे घंटे चालीस मिनट बाद कमाल को पुकारा, "नादिरा के कपड़े बदलवा दो। इसे बाहर मंदो के साथ खेलने के लिए ले जाओ।" स्वयं बाहर निकल गया।

रजा नौ तक लौटा। इस वक्त अकसर आँगन में बैठकर खाने के पहले बीवी से दो-चार बात करता था। अब बोलचाल बन्दा मेज पर बत्ती जलाकर किताब कागज उलटने पलटने लगा। कमाल ने आकर खाने के लिये कहा। खाट के सामने तिपाई थी। रज़ा खाट पर बैठ गया। कमाल ने तिपाई पर खाना रख दिया। गेती न सामने आयी न बोली। रज़ा खा चुका तो पान भी कमाल ने पेश किया। रज़ा फिर कुछ देर के लिये घूमने चला गया। साढ़े नौ के बाद लौटा। पिछली दो रातों की तरह अपने लिये बाट बैठक में डाल ली। पड़ने के लिये मेज के साथ बैठ गया। ध्यान किताब में लग गया।

रज़ा को पड़ते-पढ़ते कान के पास सिसकियों का अनुमान कनखी से देखा, उसकी बायीं तरफ मेज पर गोश्त तरकारी काटने की बड़ी छुरी थी। घूमकर देखा, नीचे फर्श पर बैठी गेवी, दुपट्टे से लिपटे सिर, मुँह घुटनों पर दवायें सुबक रही थी।

"क्या है?"

गेती और जोर से सुबकी। रजा ने हाथ उसके सिर पर रखा, "बोलो क्या बात है?" गेती ने फफककर सिर फर्श पर दे मारा। रज़ा की दृढ़ता टूट गयी। कुर्सी से उठकर गेती को बाँह से खींचा, "यहाँ आकर बताओ।" खाट पर बैठ गया। गेती ने खाट के समीप फर्श पर बैठकर सिर रज़ा के घुटनों पर रख दिया। गेती रोती रही।

रजा ने पूछा, "आखिर कुछ बोलेगी?"

"हमें जिबह कर दो!"

क्या मतलब?

"हमें जिवह कर दो!" तीनों बार वही लफ्जा "हम क्या जल्लाद है?

"और क्या हो?" गेती ने सिसकियों से कहा, "हमें मार तो सकते हो; ये नहीं कह सकते कि यहाँ से नहीं जा सकती। कह दिया-चली जाओ! कोई बुलाने-लिवाने नहीं जायेगा। कल क्यों नहीं कर देते। डाक्टरों को तो बहुत जहर मालूम होते हैं, ला दो, आपके सामने खा लें।"

रज़ा और गेती में सुलह हो गयी। रजा को लगा, घटना का प्रभाव गेली के व्यवहार पर अच्छा पड़ा, पूर्वपिक्षा संतुष्ट प्रसन्ना उसे रजा बेहतर मर्द लगने लगा था।

महीने भर बाद रजा ने प्रस्ताव किया रात दस बजे के बाद कालेज हस्पताल में सड़कें सूनी हो जाती हैं। तुम्हें खुली हवा में घुमा लाया करें, लेकिन बुरका पहनोगी तो हम साथ

न चलेंगे: हमें खुद को अहमक बनाना नामंजूर गेली मान गयी।

रात दस बजे सड़कें सूनी हो जातीं। गेती साड़ी बाँध कभी गरारे कुर्ते-दुपट्टे में रजा के साथ पैथालोजी ब्लाक कन्वोकेशन हाल एडमिनिस्ट्रेशन ब्लाक वगैरह की तरफ घूम आती। गेती के मन में हस्पताल की मिसिया नर्सों को देखने का बहुत कौतूहल था। आखिर सड़क पर दिखायी दे गयी। "हाय ऐसी हसीन तो क्या है, रंग जरूर अंडे सा भभूका सफेद है। ऐसी नंगी-तरंगी पोशाक, घुटनों तक परिया। बहिं, गर्दन, चेहरा सब उघडा इन्हें कोफ्त नहीं होती? सुना है, जवान नंगे मर्दों से भी नहीं डरतीं।"

"तुम्हारा बेटा मर्द नहीं हैं? उसे नहीं नहलाती धुलाती हो?"

"हाय, तो बच्चा और जवान मर्द एक बात हो गये? मदों का कुछ ठिकाना? कटाक्ष किया, "कब ताव आ जाये।"

"यों बीमारों का सारा बदन पोंछती हैं, जरूरत पर विस्तर में पाखाना - पेशाब करवा देती हैं, लेकिन जरा आँ-बॉय हाथ चलाये तो झापह भी लगा दें। देखी नहीं कैसी बाँहें- हाथ हैं।"


रज़ा शौक से चाय का खूबसूरत सेट ले आया था। गेती को कायदे से चाय बनाना सिखा दिया। रज़ा सेठ के यहाँ हमेशा चाय पीता रहा था। मिश्रा के यहाँ भी मद्दो के जन्मदिन पर चुका था। चाहता था. लोगों को अपने यहाँ भी पिलाये। गेती चाय बनाकर बैठक में भिजवा सकती थी, लेकिन चाय के वक्त सेठ या मिश्रा के सामने मुँह उघाड़े बैठना उसके बस का न था। खयाल से ही हाथ-पाँव कोंपने लगते। रज़ा के सामने मजबूरी जाहिर की, "ये हमारे बस का नहीं। हमारे चेहरे पर नकाब न हो, कोई मर्द हमारी तरफ देखे तो चेहरे पर चिन सी फुटने लगती हैं"। "

"जिन मर्दो को तुम चिक या किवाट की ओट से देखती हो उनके भी चिनगें फूटती होंगी?"

उन्हें क्या मालूम कि किसी ने उन्हें देखा।"

"तुम्हें भी कोई चोरी-छिपे देखा करे तो क्या एतराज?"

"कैसे देख ले?" गेली ने अंगूठा दिखा दिया "हम ऐसी बेखबर नहीं रहतीं। फिर मर्दों की खाल भी सख्त उन पर नजर का असर न होता होगा। तुम्हारे कहने से हम खुले मुँह तुम्हारे दोस्तों के सामने बैठ जायें और ये हमारी कमाल जाकर अम्मी को कह दे

गेती बहुत सहने लगी थी फिर भी दिसम्बर के शुरू में उसने एक साँझ रजा को घर लौटते वक्त चिक की आड़ से मिसेज़ मिश्रा से बहुत हँस-हँसकर बोलते देख लिया।

रजा अकेला था। गेती दोनों के लिये चाय ले आयी। बोली, "हमारी बात पर नाराज नहीं होना । आपसे कुछ छिपाकर रखें तो हम गुनहगार हमें आप पर यकीन है लेकिन दूसरी औरतें आपसे हंसती-बोलती हैं तो हमारे कलेजे पर छुरी चल जाती है।"

"हम पर यकीन है तो बेफिक्र रहो।" रजा ने टाल दिया, "तुम सबके हिजाब के लिये जिम्मेदार नहीं हो।"

नवम्बर आधा बीत चुका था। रज़ा साढ़े चार के करीब लेबोरेटरी से लौट रहा था। सेठ के क्वार्टर के बरामदे में मोटर साइकल के समीप खम्बे से टिकी जनाना साइकल देखकर

अनुमान —— अमित! अमित बहिन की साइकल पर आता था। पुकार लिया "हेलो सेठ, अमित पंडित आये हैं?"

"कम इन!" सेठ के उत्तर के साथ ही रजा ने बैठक की चिक उठाकर भीतर कदम रखा। सकपका गया। सेठ के सामने कुर्सी पर जवान लड़की लड़की की आँखें झुकी, घुटनों पर रखी नोटबुक और किताब को दोनों हाथों से दबाये। चेहरा गुलाबी, अप्रत्याशित के आ जाने से झेंप या बातचीत में भावोद्रेक के कारण सेठ के चेहरे और आँखों में भी वैसी ही उत्तेजना।

"आई एम सॉरी!” रज़ा संकोच से पीछे हट गया, “हमने समझा, अमित आये हैं। कम इन कम इन ऐसी कोई बात नहीं।" सेठ बोला, "अमित की बहिन, मिस उपा पंडिता"

रजा ने उपा की ओर गर्दन के संकेत से अभिवादन कर दिया, "हम वो ही चले आये। कोई काम नहीं है, फिर आ जायेंगे।" तुरन्त बाहर निकल गया।

अजीब शख्स! रजा ने सोचा: लड़की झेंप रही है, ये पाँगा कहे जा रहा है कम इन कम इन! अपनी सफाई देने के लिये कि उसे झिझक की कोई वजह नहीं। रजा ने उषा को पहचान लिया था: वार्ड में पंडित साहब से समवेदना सेवा की बात करने गया, तब देखा था। एक बार और सेठ के साथ हालचाल पूछने कंधारीबाग गली भी चला गया था। ये ब्रह्मचारी तो सोशलिज्म ही पढ़ाता होगा। लगता है, लॉडिया की तबीयत आ गयी। हिम्मत देखो, यहाँ तक चली आयी। कह रहा था, लड़की की किसी पी० सी० एस० से मँगनी हो चुकी है।

रजा अपनी बैठक में गेती के साथ चाय पी रहा था। सेठ सामने हसन जहीर की तरफ जाता दिखायी दिया। जहीर ने साइकल लेकर लौट गया। उठकर चिक की आज से देखा- सेठ उषा के साथ जा रहा था। पट्टा छुपा रुस्तम है। रोमांस करता रहा हमसे छुपाकर लौटने दो!

सेठ को लौटने में देर न लगी। साइकल ज़हीर के यहाँ देकर उसने रज़ा के बरामदे की तरफ पुकार लिया, "रजा भाई।" रजा के मन में भी खुदबुद सेठ के साथ उसके यहां चला

गया।

"अमर तुम अजीब अहमक हो!" रजा ने डाँटा, "वह बैठी थी तो क्यों कहा, कम इन? हम अमित के स्थान में चले गये थे।"

"तो क्या हुआ।"

"वो तो एक्साइटिड थी. अॅप गयी।"

"हाँ एक्साइटिड तो थी। बहुत परेशानी है। तुम राय दो हो सके तो मदद करो। वह पार्टी के काम में इंट्रेस्ट लेना चाहती है।"

"वो तुम पहले भी बता चुके। तुम उसके यहाँ जाते थे। तुम्हारे लिये मोटर साइकल पर वहाँ हो आना मामूली बाता उस गरीब को इतनी दूर साइकल पर बुलाया।"

"बुलाया नहीं मगर हमारा वहाँ जाना ठीक नहीं। वो फिर बतायेंगे। सोशलिज्म की बॉरो स्टडी करना चाहती है। कॉज के लिये काम करने का इरादा भी है। उसके पेरेन्ट्स अड़चन डाल रहे हैं।"

"तुम्हें क्या उम्मीद थी? तुमने बताया था किसी पी० सी० एस० अफसर की मंगेतर है। टॉग में चोट की वजह से शादी पोस्टपोन हो गयी। हमने कहा था, इम्पीरियलिस्ट सरकार के अफसर की बीवी को सोशलिज्म से क्या वास्ता रह सकेगा। तुम्हें उम्मीद थी, सोशलिज्म की लगन में सब हालात का मुकाबला कर लेगी। खाविन्द तो जो करेगा, यहाँ पेरेन्ट्स को ही एतराज है!"

"अब सिचुएशन बदल गयी है। वो सगाई कैंसल हो गयी। जानते हो, सरकारी अफसर किस किमाश के लोग होते हैं। उन्हें तो खेलने के लिये गुड़िया चाहिये। टाँग में फ्रेक्चर से लँगड़ी हो जाने का अंदेशा हो गया तो सगाई कैंसल कर दी। उसने यूनिवर्सिटी में एम० ए० ज्वाइन कर लिया है।"

"यह जिक्र तुमने पहले नहीं किया।"

"हमें खुद मालूम न था। सगाई कैंसल होने की बात उसने अभी बतायी।"

रजा ने कुछ पल सेठ की ओर देखकर पूछा, "यूनिवर्सिटी जाती है। वहाँ मार्टिज्म- सोशलिज्म स्टडी करने में उस पर कौन रुकावट? पेरेन्ट्स साथ तो जाते नहीं।"

"अपने हालात और मुश्किलात के बारे में वो बेहतर जानती है। कहती है, घर पर रहकर इस किस्म की स्टडी करना या ऐसे काम में हिस्सा लेना मुमकिन नहीं। इन शॉर्ट चाहती है उसे किसी स्कूल में काम मिल जाय; इंडिपेंडेंट होकर एम० ए० प्राइवेट कर ले और मन माफिक स्टडी करे ऐसे काम में हिस्सा ले।"

रज़ा मौन एकटक सेठ की ओर देखता रहा। सेठ ने कहा, "लड़कियों के स्कूलों की बाबत हमें कुछ मालूम नहीं तुम्हारे कोई वाकिफ कुछ मदद कर सकेंगे?"

"लड़कियों के स्कूलों की बाबत हमें ही क्या मालूम? हमारा कौन ऐसा वाकिफ वाल में तो कोई नहीं। अलबत्ता तुम्हारे हरि भैया, उनका कौन वाकिफ नहीं?" रजा ने कुर्सी पर करवट ली, "यार बात हमारी समझ में नहीं आयी तुम उसे नौकरी तलाश कर दो तो उसके पेरेन्ट्स शादी से पहले उसे घर से जाने की या अकेली रहने की इजाज़त दे देंगे? "उसका तो वही इरादा है।"

"यार अमर, मामला हमारी समझ में नहीं आया।" कई पल सोचकर रजा ने कहा, “साइकल पर यूनिवर्सिटी जाती है। तुमसे मिलने यहाँ तक आ सकती है। इसमें पेरेन्ट्स को एतराज नहीं? तुम हमसे पहेलियाँ बुझा रहे हो। पूरी बात क्यों नहीं बताते?"

सेठ ने मिसेज़ पंडित के व्यवहार के कारण उनके यहाँ न जाने, 'संघर्ष' कार्यालय में उपा से भेंट और उसके आने का ब्यौरा बता दिया।

"उसकी परेशानी एक ही है, " रजा ने कहा, "तुमसे मिल सकने में दिछत। " "फिज़ूल शक" सेठ ने आपत्ति की, "वह ऐसे खयाल की नहीं है।"

बहुत सवाल-जवाब के बाद रजा ने पूछा, "ईमानदारी से कहो, लड़की तुम्हें पसन्द नहीं?"

"जरूर है; कामरेड के तौर पर।"

• " लिल्लाह । तो प्यार दुश्मन से करोगे? खूब पनी लिखी, तुम्हारे खयाल में जहीन; हसीन तो है ही । भरोसे लायक कामरेड तुम्हारे इश्क में बेचैन !"

"तुम जानते हो वो मेरा रास्ता नहीं। उसके अलावा सोशल अड़चनें।"

"वही तो इश्क को पैनानेवाली बात और इश्क की परखा"

"मदद कर सकते हो तो करो "बको मत!" सेठ उठ गया।

सेठ ने अपने परिचितों में हरि भैया, तिवारी जी, श्रीवास्तव साहब के यहाँ दौड़-धूप की, उषा को किसी स्कूल में जगह मिल जाये। जवान, कुंवारी लड़की को नौकरी देने की सिफारिश करने से पूर्व लोगों ने इतने सवाल पूछे कि सेठ ने उसे दुस्साध्य समझ लिया। सेठ को उपाय सुझाउपा यूनिवर्सिटी के गर्ल्स होस्टल में रह जाये।

अमर साँझ नया हैदराबाद में नरेन्द्र के यहाँ पहुँचा। अनुरोध किया, "मालूम कर दो. कैलाश होस्टल में दाखिले के क्या नियम हैं, कितना खर्च आयेगा। वहाँ हमारा कोई परिचय नहीं।"

"तुम्हें गर्ल्स होस्टल में किसे दाखिल कराना? नरेन्द्र मुस्कराया, "बहिन तुम्हारी है नहीं, बेटी हुई नहीं। कोई छोकरी भगाने का हौसला है?

"वो तुम्हारी लाइन वैसा मौका आयेगा तो मदद के लिये तुमसे कहेंगे।"

"क्या करोगे पता लेकर? कैलाश होस्टल में सिर्फ यूनिवर्सिटी गर्ल्स स्टूडेन्ट को जगह मिल सकती है।"

"यूनिवर्सिटी स्टुडेन्ट है।"

"किस क्लास में?"

"एम० ए०।"

"अरे बेवकूफ, एम० ए० की स्टूडेन्ट खुद जाकर पता नहीं ले सकती? बेटे, लड़की भगाने के लिये पहले अम्ल चाहिये, हिम्मत बाद में। "

"कह दिया, भगाने का मौका आयेगा तो तुम्हारी मदद लेंगे। खैर बात तुम्हारी ठीक है। जब बात हुई, हमें कैलाश होस्टल का खयाल न था। उसका झुकाव सोशलिज्म की ओर है। उसके परिवार को पसन्द नहीं। वह तो जॉब चाहती है। हमने सोचा, होस्टल में रह जाये। वहाँ की बाबत मालूम हो जाये तो उसे मुझाव दे सकेंगे।"

"तुम नहीं बताओगे, हम बता दे

"बताओ?"

"उषा पण्डित स्टूडेन्ट एम० ए० प्रीवियस इंगलिश

कहो हाँ। "

"मही है पर इसमें कौन रहस्य। तुमने यूनिवर्सिटी पालिटिक्स में रुचि रखने वालों से सुन लिया होगा।"

“कांग्रेजुलेशन्स? लौंडिया दोस्त जोर की फँसाई, ए बना ईमान की बात उसे देखकर तबीयत अपनी भी आ गयी थी। उसका माथा और नज़रें 'लेकिन अब लक्ष्मण रेखा। हम तो जेठ होंगे।"

क्या बकबक? तुम्हारी तबीयत तो हर लड़ेंगे-बाड़ी पर मायला", “गलत बात! जाने क्यों बढ़िया लड़कियों को गधे पसन्द आ जाते हैं!"

“सही कहा!" अमर ने स्वीकारा, "सुना है एक बढ़िया लड़की रजा सामन्त उसे एक गधा पसन्द आ गया। अपनी गाड़ी में लिये फिरती है।"

"हाथ मिला पडे!" नरेन्द्र ने हाथ बढ़ाया, "तुम्हें बात करनी आ गयी। यह चुगली उपा पण्डित ने लगायी ?"

"हरगिज़ नहीं। यह अफवाह पूरे शहर में। "

रखा समझदार सेफ कम्पनी है।"

"उसके पास कौन सेफ्टी लॉक है; तुम भी तो मास्टर की! खैर छोड़ो, होस्टल के बारे में कब तक पता ले लोगे?"

उषा को वहाँ ले जाकर बात न करा दें?"

"नहीं, उसे मैं बता दूंगा।"

"साले, लड़की से दो बात भी नहीं करने देगा; इतनी ईर्ष्या? अबे, हमसे भी घूँघट करवायेगा?"

शुक्रवार को उपा को दो बजे फुर्सत हो गयी पर घर न लौट सकती थी। सेठ ने साइकल पर उतनी दूर जाने के लिये मना करके कहा था: साडे तीन से कुछ पहले यूनियन हाल रेस्तोरों में आ जायेगा। जो सूचना होगी, बता देगा। उषा लाइब्रेरी में बैठी रही। साढ़े तीन से कुछ पहले रेस्तोरों चली गयी। रेस्तोरों में ज़ोर की झड़प एक ओर अवस्थी, द्विवेदी और कपिला, दूसरी ओर निज़ामी, सरकार और जमाल स्पेन के एंटी-फासिस्ट मोर्चे पर सोवियत सहायता देने में क्यों झिझक रहा है? मेज़ों पर पड़ते घूमों-थापकियों से चाय- कॉफी कप से सॉसर में सॉसर से मेजों पर छत के नीचे सिगरेट के धुएँ का हल्का बादल। उपा दस मिनट बैठी होगी कि मोटर साइकल की परिचित धक-धक उठकर बाहर जाने को थी, सेठ भीतर आ गया।

"हलो सेठ!" "हलो अमर?" कितनी ही आवाजें सेठ भी बैठ गया। उषा से नज़र मिल गयी पर बहस में उलझ गया। सोशलिस्टों कम्युनिस्टों की बहस में समय का क्या सवाल। सेठ बहस में उत्तेजित हो गया। बीस मिनट, तीस मिनटा उषा परेशाना उसे घर लौटना जरूरी। चित्रा चार दिन पूर्व लाहौर से आयी थी। उसे रविवार दोपहर मेल से लौटना था। उसने कहा था: साने चार-पाँच के बीच आयेगी, शापिंग के लिये साथ ले जायेगी। उषा उठकर बाहर आ गयी पाँच मिनट प्रतीक्षा की। सेठ न निकला।

दूसरे दिन उपा मेडिकल कालेज चली गयी। सेठ का दरवाजा खुला था, सेठ प्रतीक्षा में। उषा पहली बार की तरह संकोच में सिमटी आतंकित न थी। सेठ ने बता दिया, "जॉब मिलना बहुत कठिन | लोग तो इतने सवाल पूछते हैं लड़की के परिवार, मायके ससुराल की पूरी जन्म पत्रिका ! नौकरी की ज़रूरत क्यों? 'परिवार की अनुमति है? जैसे लड़की परिवारों की सम्पत्ति मात्र, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं । सामन्तवादी पूंजीवादी समाज की दासता की मान्यतायें। जॉब और एम० ए० की तैयारी साथ-साथ कठिन । ""होस्टल में रह जाओ।"

"यह न हो सकेगा। डैडी पर इतना बोझ!" उषा ने इनकार किया।

"उसकी चिन्ता न करो। पता ले लिया, खर्च ज्यादा नहीं। डैडी पर बोझ डालने की जरूरत नहीं। यह हम पर छोड़ो।"

"यह कैसे हो सकता है।" उषा को संकोच

"आपस में इतना परायापन ठीक नहीं।"

उपा गहूद, नज़र न उठा सकी। डैडी कैसे मानेंगे?"

"यह तुम्हारे सोचने की बात, परन्तु मजबूरी के सामने झुकते ही जायें तो मजबूरी बिलकुल कुचल देगी।"

"देख लेंगे। जब तक निबहता है।" उपा और कृतज्ञा

सेठ उषा को पहुंचाने के लिये साथ साइकल पर गया। उषा लौटी तो मन पुलकित, भरोसा पा जाने का संतोष। सेठ ने उसे पार्क रोड पहुंचा दिया। माँ से कह गयी थी: चित्रा के यहाँ जायेगी, शायद देर हो जाये।

तीन-चार दिन से जाड़े के बादल घुट रहे थे। रात अच्छा बरस गया। रविवार सुबह उजली धूप परन्तु खूब ठिठुरन । चित्रा को दोपहर बाद मेल से लाहौर लौटना था। साडे आठ उपा साइकल पर उसके यहाँ चली गयी। मम्मी से कह दिया: ग्यारह तक लौटेगी। नौ बजे पंडित संडे स्कूल के लिये चले गये। साढ़े नौ बजे मिसेज़ चौहान आयीं। मिसेज़ पंडित को बैठक में बुला लिया, "उषा कहाँ है?"

"बैठिये। पार्क रोड पर अपनी कश्मीरन सहेली के यहाँ गयी है। "स्वों?"

"पार्क रोड पर गयी है, ठीक मालूम? मिसेज चौहान महाप्राण महिला, फुसफुसाकर बोलती तो बगल के कमरे तक आवाज जाती, “मिसेज़ पंडित, हमने तुम्हें उस डाक्टर लडि से शुरू में आगाह किया था। बाद है, उस रोज़ हम लोग चर्च से लौट रहे थे तो उसकी फटफटिया गली से निकली थी। "हमेशा तुम्हारी गैरहाजिरी में लड़की का तो दिमाग चल गया लगता है। तुम समझो साइकल पर यूनिवर्सिटी गयी, क्या मालूम कहाँ गयी। चन्द्रा कल रात होस्टल से देर से आयी। तब हमारे यहाँ लोग बैठे थे, फिर पानी आ गया वर्ना हम तभी आते।"

"क्या बात है?" मिसेज़ पंडित की धड़कन बढ़ गयी।

"बात क्या," स्वर कुछ दबाया, "चन्द्रा ने कल साँझ उपा को मेडिकल कालेज में देखा। उस डाक्टर के साथ दोनों माइकलों पर ऐसा पढ़ना-लिखना गया भाड़ में! बेहतर यह कि लड़की को कुछ रोज के लिये ताऊ के यहाँ लाहौर या मौसी के यहाँ जबलपुर भेज दो। बात फैल गयी तो लड़की के लिये इंतज़ाम मुश्किल हो जायेगा। मिसेज़ चौहान पड़ोस और मज़हबी बिरादरी की सहानुभूति में बहुत कुछ ऊँच-नीच समझाकर चली गयी।

अमित ने सुन लिया था। उसके विचार से जीजी सैद्धान्तिक प्रश्नों के बारे में डाक्टर सेठ से बात करने गयी तो क्या जुल्म किया। उसे चन्द्रा पर गुस्सा: पुरानी चुगलखोर फ्लर्ट? जैसी खुद, वैसी दूसरों को समझेगी? अमित ने सोचा, माँ को ढंग से समझा देना बेहतर

माँ का क्रोध उफान पर लड़के को बुरी तरह डाँटा कि वह सहम गया। बेवे रविवार के दिन बिरयानी बना रही थी, पूछ लिया, "कुडिये विरवानी में क्या-क्या डालू?" "मेरा सिर काटकर डाल दे।"

“पड़ोसिनों से लड़े गुस्सा मुझ परा अब मेरा यहाँ का अन्न पानी खत्मा" बेबे गोश्त काटने का दाब लेकर अंगीठी सुलगाने के लिये ईंधन काटने लगी।


मिसेज़ पंडित क्षोभ में कमरे से बैठक में बैठक से बरामदे में, फिर बैठक में श्री, ग्यारह बजे लौट आयेगी टाइमपीस पर नज़र ग्यारह में कुछ मिनट! आँगन के किवाड़ों पर दस्तक की आहट सुनकर मिसेज़ पंडित आँगन में जाने के लिये

मुड़ गयीं।

बेबे ने दाव और ईंधन का चैला छोड़कर सॉकल खोल दी। उपा साइकल आँगन में ठेलकर दीवार के सहारे टिका रही थी।

कहाँ गयी थी तुम?" मम्मी ने बरामदे से पुकारा, क्रुध्द गरज में तिरस्कार की फुंकार। "तुम्हें नहीं मालूम कहाँ गयी थी?" उपा ने विस्मय से अपमान का विरोध किया। "सब मालूम हो गया! कल साँझ चित्रा का नाम लेकर मुँह काला कराने नहीं गयी थी? जानती हूँ तू ऐसे नाक कटायेगी। फर्श पर पड़े दाब की ओर संकेत किया, "मन में आता है तेरा सिर फोड़ देती अपना भी

उपा के एड़ी से चोटी तक ज्वाला निकल गयी। लपक कर फर्श पर पड़ा दाब उठा लिया, "मैं खुद " दाव दोनों हाथों से अपने सिर पर उठाया।

बेबे चीखकर उसके हाथ पकड़ने के लिये झपटी । उपा के हाथ हिल गये फिर भी दाव खोपड़ी के पिछले हिस्से पर पड़ गया। उषा ने द्वारा चोट के लिये दाब फिर सिर पर उठाया।

अमित बेवे की चीख से उठ गया था। उपा के हाथ ऊपर ही पकड़ लिये, दाव छीनकर फर्श पर फेंक दिया। उपा के बाल, कंधे सब खून से तर

अवसर की बात, उसी समय मिसेज़ सिंह के यहाँ से जद्दन कुछ पूछने माँगने बैठक की राह आ गयी। उसने बेबे और मिसेज़ पंडित की चीखें भी सुनीं। उसकी पलकें और ओठ खुले रह गये। अमित ने खून रोकने के लिये उषा के घाव अपने हाथ से दबा दिया था। जद्दन को भीतर आने से रोक दिया। "मम्मी, कोई कपड़े का टुकड़ा दो "वेबे, जल्दी बर्तन में ठंडा पानी ।"

तभी पंडित संडे स्कूल से लौटे।

डैडी आप जीजी को पकड़िये। शायद चोट गहरी है।" अमित ने पिता के प्रश्न के उत्तर से बताया, "मम्मी से कहा-सुनी में उत्तेजित हो गयी। मैं चौहान अंकल को बुला लूँ। वे ठीक से ड्रेस करके पट्टी बाँध देंगे।" जल्दी में खून सने हाथ धोये बिना दौड़ गया।

डाक्टर चौहान घर पर न थे अमित ने चन्द्रा को सहायता के लिये कहा। चन्द्रा डिस्पेंसरी से स्पिरिट, दवा और रुई लेकर साथ हो ली। मिसेज़ चौहान ने भी सुन लिया था, पीछे-पीछे वह भी।

घाव मामूली है पर टांके लग जाने चाहिये। अभी पट्टी बाँध देते हैं। हस्पताल ले चलो, सेप्टिक की आशंका न रहे।" चन्द्रा पट्टी बाँधकर बोली, “इसकी साडी बदलवा कर ले आइये। गाडी घर पर है। मैं गाड़ी निकालती हूँ।"

"मुझे कहीं नहीं जाना।" उपा पहली बार बोली ।

"तुमसे कौन पूछ रहा है? जो कहा जाये करो। साड़ी बदल लो वर्ना ऐसे ही हस्पताल चलो।" पंडित का कड़ा आदेश

जहन से समाचार पाकर मिसेज़ सिंह दौड़ी आयी। मिसेज चौहान मिसेज़ पंडित की बेवकूफी के लिये झुंझला रही थी, हमारा यह मतलब थोड़े ही था कि तुम गुस्से से

पागल हो जाओ।"

अमित ने जद्दन को भीतर आने के लिये मना कर दिया था। वह अपमान से पाँव पटकती लौट गयी। बेबे और उषा की माँ की चीखें उसने सुनी थीं, उषा के कंधे पर बहुत खून भी देखा। इतनी बड़ी बात सिंह के घर तक, बीस कदम कैसे पेट में दबाये रहती! दायें हाथ गली में चालीस कदम पर खाट पर बैठी धूप सेंकती जेन पर उसकी नज़र गयी। तुरन्त पुकार उठी, "अरे खून होइ गवा पंडित के घर मी! भैया लौंडिया के छुरा मार दिहिस कि जाने का। तमाम घनी खून।"

जेन तड़पकर उठी। पीटर की बहु मरियम को पुकार कर बताया शकूर, याकूब के घर में खबर दो छ-सात औरतें पंडित के मकान के सामने आ गयीं।

मिसेज़ चौहान को औरतों के कौतूहल पर गुस्सा "क्या देखने आयी हो? तमाशा है यहाँ? जाओ अपना काम देखो! यहाँ कुछ नहीं हुआ।" वह इतने धीमे बोली कि चार और पड़ोसी सुनकर बाहर आ गये।

उपा के सिर पर चन्द्रा ने पट्टी बाँध दी। उसे एक और से अमित, दूसरी और से पिता सहारा देकर गली के सिरे पर मोटर तक ले जा रहे थे। उपा का सिर चोट की पीड़ा और स्पिरिट की चरचराहट से घूम रहा था, तिस पर गली के तमाशाइयों की भीड़। उषा संकोच से मरी जा रही थी। अगर जानती, गली में यह हाल होगा तो बाहर न निकलती।

चन्द्रा अपनी गाड़ी में पंडित और अमित के साथ उया को लेकर हस्पताल के एमर्जेन्सी रूम में पहुंची। ड्यूटी डाक्टर मौजूद न था। चन्द्रा महीना पहले वहाँ ड्यूटी कर चुकी थी। वार्ड बॉय को ड्यूटी डाक्टर को जल्दी बुलाने के लिये कहकर उषा को आपरेशन टेबल पर लिटा दिया।

वार्ड बाँच ने संकेत कर बताया: ड्यूटी का डाक्टर और नर्स पीछे के कमरे में गप्प लगा रहे हैं। चन्द्रा ने अधिकार से कहा, "जाओ, बोलो अर्जेन्ट केस है। हमारा नाम लेना।"

आठ-दस मिनट हो गये। चन्द्रा को पड़ोसी के सामने हेडी खल रही थी। वार्ड बॉय को डॉटा "सुनते नहीं तुम हमारा नाम लो बोलो, ये ड्यूटी टाइम है।"

वार्ड बॉय फिर अनिच्छा से उठकर पिछवाड़े गया। दो मिनट बाद लौटा, "बोल दिया आ रहे हैं।"

पड़ोसी के सामने अकिंचन न बनने के लिये उषा की पट्टी खोल दी। कोने में स्टोव पर उबलती रुई में से टुकड़ा लेकर घाव साफ करने लगी। विलम्ब से चन्द्रा चित्र गयी थी। अमित की ओर देखा, "यह जोशी बहुत लचर आदमी है। देखो, नर्स को लिये कॉफी पी रहे हैं। डाक्टर सेठ का क्वार्टर मालूम है? उसे बुला लाओ।"

अमित तुरन्त चला गया। लगभग दौड़ता।

चन्द्रा घाव को साफ करते हुए पंडित के सामने क्षोभ प्रकट कर रही थी, देखिये ये

है ड्यूटी का तरीका बेशर्म कहीं के! पेशेन्ट की परवाह नहीं। नर्स को लिये खिलवाड़ कर रहे हैं ।"

"क्या है?" डाक्टर जोशी और नर्स कमरे में आ गये। डाक्टर का स्वर कड़ा था। चन्द्रा ने अनुमान कर लिया, जोशी ने उसकी बात सुन ली। जोशी से उसकी पहले भी कुछ तनातनी । पिछले साल दोनों क्लासफेलो थे। चन्द्रा बेचारी फेल हो गयी थी।

चन्द्रा मुस्करायी, “डाक्टर जोशी, ये हमारी पड़ोसिन हैं। इसे सिर पर चोट लग गयी। अपनी गाड़ी में लेकर आयी हैं।"

जोशी ने घाव पर रखी गई हटाकर ज़ख्म को ध्यान से देखा, "ये तो तेज औजार का घाव है! चोट कैसे लगी? ये तो पुलिस केस है। पहले रिपोर्ट लिखाओ।" "चोट हमारे सामने नहीं लगी। पड़ोसी हैं। हमें सहायता के लिये बुलाया था। वहाँ पट्टी बाँधकर यहाँ ले आये। हमें नहीं मालूम।" चन्द्रा ने किनारा कर लिया।

"तो फिर किसे मालूम है?" जोशी ने पंडित की ओर देखा।

"डाक्टर, यह मेरी बेटी है।" पंडित विवशता में विनय से बोले, "बोट अकस्मात लग गयी। किसी ने मारा नहीं मिस चन्द्रा को हमने सहायता के लिये बुलाया था।"

"यह बताइये चोट लगी कैसे?" डाक्टर ने रुखाई से पूछा। पंडित के विनय से बोलने की परवाह न की । "साफ पुलिस केस है "।"

"क्या बात है जोशी?"

जोशी ने मुस्कराकर आगन्तुक डाक्टर को आदाब अर्ज किया।

"आदाब अर्ज मास्टर साहब, मैं रजा है आपका शागिर्द मिस पंडित को चोट कैसे लग गयी?" डाक्टर रजा वाश बेसिन पर हाथ धोने लगा।

"डाक्टर जोशी, मास्टर साहब को नहीं पहचानते? हमारे मेहरबान उस्ताद, इनकी जो खिदमत हो सके।

चन्द्रा चुपचाप कमरे से खिसक गयी। जोशी ने वार्ड बॉय को पुकारा, “आपको पंडित और अमित की ओर संकेत किया, "बाहर बैठने के लिये कुर्सी दो।"

रज़ा ने घाव देखा। सलाह दी, “एक टाँका लगा देना ठीक रहेगा। ईथर लगा दिया है?" 

नर्स उपा का टेम्परेचर ले रही थी। अमित से सुनी परिस्थिति के विचार से रजा उपा की ओर झुक गया, "तुरन्त घर लौट जाना चाहती हैं?"

उषा ने पहचान लिया था, "नो" जवाब दिया।

"इन्हें बुखार है। मेरा खयाल है, अभी घर न जायें। यूनिवर्सिटी स्टूडेन्ट हैं फीमेल वार्ड का साइड रूम खाली है। वहीं बेड दे दिया जाये।" रजा ने जोशी को परामर्श दिया।

रजा पंडित की ओर बढ़ आया, "मास्टर साहब, मिस पंडित को बुखार है। अभी वार्ड में रहने दें। पाव सीरियस नहीं है। बुखार दर्द और घबराहट से हो गया मालुम देता है। इंजेक्शन दे दिये हैं। रिएक्शन की आशंका तो नहीं, फिर भी बेहतर है चौबीस घंटे यहाँ रह जाये । उषा को उसी कमरे में पहुँचा दिया गया, जहाँ आठ मास पूर्व ग्यारह दिन रही थी।

डाक्टर जोशी के व्यवहार से अपमान अनुभव कर चन्द्रा तुरन्त लौट गयी थी। पण्डित और अमित इक्के पर एक बजे घर पहुँचे।

गली के लोगों को संतोष इतनी मामूली बात से कैसे हो जाता! जद्दन, जेन, पीटर, मेरी ने सम्मिलित अनुमान से सब समझ लिया: बाप ने सड़क पर लौंडिया को यार के साथ साइकल पर देख लिया। जबर्दस्ती घर लौटाया। लौंडिया सामने बकने लगी। जाने भाई ने गुस्से में दाव मार दिया कि लौंडिया ने खुद सिर फोड़ लिया।

जे ने कहा, "उत होने का रहा। लौंडिया का जबर जवान लुगाई कहो, एओका मिस बाबा बनाय है। उ गरमाई कलोर अस पगाही तोडाय रही।" जैन ने सब बात किम ग्रोव को बता दी।

पंडित और अमित चौहान के यहाँ से अपने घर आ रहे थे। दूसरी दिशा में गली के घुमाव पर किम कुछ मर्द औरतों के सामने अपनी झूलती खाल नसें फूली, कोहनी के गुट्टे उभारे बाँहों की ताकत दिखाने के लिये मुट्ठियाँ कसे पौरुष की भावभंगी से ललकार रहा. था, "बधिया इन हीट, बुल माँगटा अमारा पास लाओ।" जेन और मेरी आँचल ओठों में दबाये हंस रही थीं। अमित का चेहरा तमतमा गया। पंडित लड़के को बाँह से पकड़ मकान में ले गये। न सुनना ही बेहतर था। किम तुरन्त कह देता अम अपना बाट बोला। लड़के, पत्नी, बेटी के अपवाद की चिन्ता न होती तो लाठी लेकर किम को ढेर कर देते।

मिसेज पण्डित और रोज़ी की आँखें रो-रोकर लाला अमित ने आश्वासन दिया: पाव मामूली है। डाक्टर ने टीका लगा दिया है। दर्द और घबराहट से कुछ बुखार आ गया है। डाक्टर कहता है, रात या कल सुबह तक ठीक हो जायेगी। कल सुबह या दोपहर ले आयेंगे। एमर्जेन्सी रूम में परेशानी के कारण अमित चन्द्रा के सुझाव से डाक्टर सेठ को बुलाने दौड़ गया था। सेठ के बरामदे में मोटर साइकल न थी। दाहिने हाथ ज़रा आगे डाक्टर रजा धूप में दो बच्चियों से खेल रहा था। अमित ने उसे बहिन की चोट लग जाने की बात और एमर्जेन्सी रूम में हो रही कठिनाई बतायी। रजा तुरन्त अमित के साथ लम्बे कदमों से एमर्जेन्सी रूम की ओर चल दिया। उषा को वार्ड में पहुँचाकर लौटा तो कान सेठ की मोटर- साइकल की आहट की प्रतीक्षा में थे।

डाक्टर अमर दो बजे लौटा। रजा ने उसे पुकारकर स्थिति बता दी। अमर उसी समय उपा को देखने चला गया। अब संकोच के लिये क्या अवसर था। उषा ने सब स्पष्ट बता दिया और अपना निश्चय भी।

क्वार्टर से लौटकर अमर ने रजा को अपने यहाँ बुला लिया। घर लौटने से उषा की अनिच्छा के कारण, परिस्थितियों सब कुछ बता दिया । गर्ल्स होस्टल में प्रबन्ध होने में कुछ समय लगे या कोई अड़चन आ जाये तो उचित और सम्भव क्या होगा?

रजा दायें बायें दीवारों, फर्श और छत की ओर नज़र घुमा घुमा सोचकर बोला, "उसे घर लौट जाने के लिये समझाओ। घर में न रह सके तो बाद में छोड़ दे। अब न लौटी तो उम्र भर न लौट सकेगी। इस समय वह बहुत उत्तेजित है, उसे फिर समझाना। "

अमर मौन सोचता रहा। संध्या पाँच बजे फिर उषा से बात की उषा ने स्पष्ट कह दिया: पर लौटना असम्भवः

अमर वार्ड से लौटकर रज़ा के यहाँ चला गया। बताया किसी हालत में घर लौटने को तैयार नहीं कहती है लौटने के बजाय नदी में कूद जाना बेहतर मैंने सहायता का आश्वासन दिया है।

"तुम क्या सहायता कर सकते हो?"

"जो भी बन पड़े। होस्टल, पढ़ाई का खर्च।"

"ऐसी सहायता देने का तुम्हें क्या हक?"

"इन्सानी हक, कामरेड की सहायता का हक।"

रज़ा ने सिर हिला दिया, "समाज और संसार इन्सानी हकूक को नहीं मानता, सामाजिक और कानूनी हक्क को मानता है।"

"नॉनसेन्स! हम उन अन्यायों और गलत रूड़ियों के सामने झुकते जायें? उनका विरोध हमारा कर्तव्य।"

"तुम कर्तव्य के लिये लड़ो। उस लड़ाई में लड़की की जिन्दगी क्यों कुचल जाये। हम अपनी समझ से तुम्हारे और लड़की के हित में व्यावहारिक बात कह रहे हैं।"

"कैलाश होस्टल में इन्तजाम होने तक दो-तीन दिन तुम्हारे यहाँ नहीं रह सकती?” रज़ा ने विचार के लिये आँखें सिकोड़ ठोड़ी पर हाथ फेरा "गेती की नेचर तुम जानते हो। तुम्हें कमरुन्निसा का किस्सा मालूम रोज़ रोज़ की फजीहत क्या बतायें। कमरा पिछले जुम्मे की साँझ एक पार्टी सर्कुलर देने हमारे यहाँ ही आ गयी। उसके कदम रखते ही हमने गेती को पुकार लिया। हम लोग बात करने लगे। बात अंग्रेजी में हो रही थी, जरा आहिस्ता । कमरुन्निसा की तो आदत, बात करती मुस्कराती रहती है। गेती बैठक में तो न आयी, किवाड़ की आड़ में खड़ी सुनती रही। आठ-दस मिनट हो गये। हमने उठकर झाँका, किवाड़ के पीछे थी।

"उस वक्त तो हम क्या कहते खून का घूंट पी गये। पूछा इनके लिये एक प्याला चाय नहीं भिजवाया?

""पानी उबलने रखा, अभी लाते हैं—बोली। चाय लेकर खुद नहीं आयी, नौकर के हाथ भेज दी। हमने आपा से मुआफी माँगी भीतर बच्ची के कपड़े धो रही हैं। कपड़े छिंटा गये हैं। ऐसी हालत में झेंप रही हैं। कपड़े बदलने में वक्त लगेगा "। कमरुन्निसा बहुत दरियादिल, बोली- कोई बात नहीं गिरस्थ में ऐसे ही चलता है। गेती को हमारा सलाम प्यार देना चली गयी।

"हमें बहुत गुस्सा आ गया था। भीतर जाकर पूछा- यह क्या हरकत थी तुम्हारी: किवाड़ की आड़ से कनसुइयाँ ले रही थी। क्या शक है तुमको? हम उसे आपा पुकारते है। 'आँसू बहा दिये हमने देखा, आपसे अकेले में मुस्करा रही है। दोनों अंग्रेजी में बोल रहे कि हम न समझें। हमारा दिल जल गया। हमें यह सब बर्दाश्त नहीं होता। हम क्या करें! हमने तो कभी किसी गैर मर्द से हँसने-बोलने की तमन्ना नहीं की आप क्यों गैर औरतों से हँसे बोलें बताओ इसका क्या इलाज़!"

रज़ा ने विवशता प्रकट की, "हम मिस पंडित को बहिन की इज़्ज़त से रखने को तैयार हैं। किसी दूसरे की परवाह नहीं, लेकिन घर में उस हरामजादी ने गरीब की तौहीन की तो हमारी बर्दाश्त के बाहर हो जायेगा।"

"जाने दो।" सेठ बोला, "हमारे पास दो कमरे हैं। हम अपने रिश्तेदार या मेहमान को रखें तो किसी को एतराज़ "

"बोह मुनासिब नहीं होगा।" रज़ा फिर कुछ सोचकर बोला, "तुम्हें फुर्सत है। इतवार है, वार्ड में जाना नहीं। यह मामला संगीन, जिम्मेदारी का है। हम दो मिनट में कपड़े बदल लें। नरेन्द्र के यहाँ चलो। दो के बजाये तीन आदमियों की समझ बेहतर। "

नरेन्द्र मकान पर था। जाहे की शाम मित्रों के आ जाने से खुश।" क्या लोगे? कॉफी

बनवायें?"

"जो चाहे बनवाओ।" रजा ने कहा, "इस समय बहुत गम्भीर विचार की जरूरत है। स्थिति यह है उषा के घर में कहा-सुनी से चोट खाकर हस्पताल में होने की स्थिति बता दी। अमर को चुप रहने का संकेत कर बताया गया। उपा के यहाँ अमर के प्रति रविवार जाने की बात परिवार के एतराज़ पर उषा के स्वयं हस्पताल मिलने चले आने की बात उसी बात पर घर में झगड़े से उषा के चोट खा जाने और किसी भी हालत में घर न लौटने का निश्चय।

नरेन्द्र गम्भीर हो गया, "तुम उसे घर लौटने के लिये समझाओ।"

अमर ने विश्वास दिलाया, समझाया है। यह उसके आत्म-सम्मान का प्रनः फिर जैसी स्थिति में गली से आयी, असम्भवः कैलाश होस्टल में हो पाये तो सबसे बेहतर"

"वहाँ नहीं हो सकेगा। वहाँ प्रवेश के लिये लड़कियों के संरक्षक या अभिभावक की स्वीकृति चाहिये। पंडित को यह स्वीकार होगा?"

वह कहती है, मेरा कोई संरक्षक-अभिभावक नहीं, बालिग है। सही है, बीस की हो गयी।"

"स्टूपिड समाज की नजर मे लड़की और स्त्री कभी बालिग नहीं होती। प्रवेश तुम्हारे- उसके निर्णय से नहीं, होस्टल वार्डन के निर्णय से होगा। वह कभी नहीं मानेगी। कहेंगी. यह दूसरी लड़कियों के लिये बुरा उदाहरण होगा।"

पोर अन्याय"

"जाहिल आदमी!" नरेन्द्र ने नौवें सिकोड़ीं, "तुम्हें अन्याय के विरुद्ध आन्दोलन करना है। या लड़की के लिये तुरन्त जगह का प्रबन्ध?"

"घर वह नहीं लौटेगी।" अमर ने कहा, "कहती है, चाहे नदी में कूद जाये ।" "हम उसे बहिन की तरह जितना वक्त जरूरी हो रखने को तैयार" रजा ने बेबसी जाहिर की, "लेकिन गेती की नेचर तुम दोनों को मालूम। अमर उसे अपने यहाँ रखने को तैयार।"

"पागल है।" नरेन्द्र ने टोका, कहोगे लड़की बालिग है, लेकिन उसकी बदनामी का खयाल करो। फर्ज़ करो, परिवार या उसकी बिरादरी पुलिस में रिपोर्ट कर दे। पुलिन तहकीकात तो करेगी। उसके लिये तुम दोनों को कोतवाली ले जाये। बाद में जो हो, लेकिन उससे परेशानी और बदनामी तो होगी। वही सवाल यहाँ तुम्हें इस जिम्मेदारी से तो संतोष भी बहुत अनुभव हो सकता है, लेकिन सवाल तुम्हें यह जिम्मेदारी लेने का हक क्या?"

“यह बात हम इसे सुना चुके। यह इन्सानी हक और फर्ज की धमकी देता है। इन्सानी हक की लड़ाई में लड़की की जिन्दगी बर्बाद करेगा।"

"इन्सानियत कोई चीज़ ही नहीं?" अमर उत्तेजित, "हमेशा सिर झुकाते जायें।" “इन्सानियत का फैसला अकेले हम-तुम ही नहीं कर सकते। वह फैसला बहुमत करेगा।" नरेन्द्र ने सुनने का संकेत किया, "लड़की की जिम्मेदारी लेने या उसकी सहायता का जो हक फौरन मिल सकता है, वह क्यों नहीं लेते।"

“देवर यू आरा" रजा ने साथ दिया, "यही हमने कहा।"

"कौन हक?" अमर ने पूछा "साफ कहो। "

"सन करो।" नरेन्द्र बोला, "तुमने पहली बार मिस पंडित के बारे में बात की थी तो मज़ाक किया था। इस समय मजाक नहीं है, मिन पंडित निश्चय तुम्हें बहुत पसन्द आ गयी।"

"मैंने स्वीकारा था, बतौर कामरेड।" अमर ने टोका, "उसी खयाल से उसकी सहायता की इच्छा।

"सुन लो।" नरेन्द्र ने हाथ उठाया, "तुम्हारा कहना एक बात हम तथ्य देख रहे हैं। परिवार की इच्छा के विरुद्ध उसका तुम्हारे यहाँ साइकल पर आना, घर के झगड़े का ब्यौरा तुम्हें बता देना, अपनी ज़िम्मेदारी तुम्हें सौंप देना, तुम पर माँ-बाप से अधिक भरोसा | स्पष्ट लड़की को तुमसे अनुराग अनुराग तुम्हें नी ।"

"मैंने इन दोनों को एक साथ देखा है।" रजा बोला, "दोनों की मुद्रा और भाव उग्र आकर्षण के पिछले मई-जून में हर इतवार हजरत कंधारीबाग गली उह जाते। अब पूरी ज़िम्मेदारी लेने को बेताब ये कामरेडी रिश्ते से बहुत ज्यादा मियाँ, हम भी उस हालत से गुज़रे हुए।" अमर की पीठ पर थपकी दी।

"तुम दोनों महाज्ञानी!" अमर के स्वर में विरोध, "तुम मनगढ़ंत तथ्यों की बात कर रहे हो, उसके शब्द ही तुम्हें बता दें।"

नरेन्द्र ने उत्सुकता प्रकट की, "बताओ!"

उषा का कहना है, उसके माता-पिता उस पर व्यर्थ तोहमत लगा रहे हैं कि वह मुझसे इन्वॉल्व हो गयी। वह मुझे गाइड, फ्रैंड और सहायक मानती है; इन्वॉल्वमेंट की बात झूठा आरोप अब बात साफ?"

“लिल्लाह ! " रजा ने हाथ माथे पर मारा।

नरेन्द्र भी झल्लाया, "तुम चाहते हो लड़की तुम्हारे पाँव पकड़ ले मुझे स्वीकार करो, शरण दो! फ्रैंड, सहायक स्वीकार कर लेने के बाद रह क्या गया? इन्वॉल्वड नहीं है इसका मतलब उसे विश्वास है उसका आकर्षण धिवला नहीं, गम्भीर सोद्देश्य जीवन का साथ खेर, तुमने क्या कहा?"

"वैसी कोई बात नहीं। बस इतना कहा, मेरा भरोसा करती हो तो पूरी सहायता करूँगा।"

"ओह माई गॉड!" रज़ा ने परेशानी में सिर हिलाया, "यह अपनी जिद्द की वजह से समझकर भी मानना नहीं चाहता। इसका विश्वास लड़कियों से प्यार गुनाह कैसे मान ले इसे लड़की से प्यार है। "

"यह तुम्हारा पूर्वाग्रह है!" अमर ने विरोध किया।

"यह तो मानोगे," रजा ने वर्जनी उठायी. "डाक्टर अपना सही डाइग्नोसिस खुद नहीं कर सकता। तुम लव में हो या नहीं इसका निर्णय हम दोनों पर रहने दो।" “मुझे रोग है ही नहीं, निदान क्या करोगे।" अमर ने मुस्कराकर बात काटनी चाही।' "तुम प्रेम को रोग माने बैठे हो, ये ही पूर्वाग्रह। "

"प्रेम को रोग नहीं मानता, लेकिन मेरा इरादा नहीं। "

"प्रेम वा विवाह न करना भी कोई लक्ष्य या कर्तव्य हो सकता है! नकारात्मक लक्ष्य या कर्तव्य?" नरेन्द्र झुंझलाया, "नारी आकर्षण में अंधा न हो जाये यह सही पर आकर्षण को सदा अस्वीकार करना भी अस्वाभाविक बल्कि पाखंड ईमानदारी से व्यावहारिक बात करो। ऐसी वेतन, शिक्षित, तुम्हारे लक्ष्य उद्देश्य से सहमत, आकर्षक लड़की तुम्हारे कर्तव्य के मार्ग में बाधक होगी या महायक सेठ निरूत्तर

"उसने हमारी तरफ नज़र की होती हम निहाल हो जाते।” नरेन्द्र मुस्कराया "किस्मत बेचारी की। किस उल्लू पर रीजी! उससे तुम्हारा जिक्र आया तो हमने उसे तभी चेतावनी दे दी थी- किन स्टुपिड आइडियलिस्ट से भिड़ गयी। नहीं सुना उसने क्या करें!"

"तुम्हारे जैसे लेडी किलर को धत्ता बता दिया तो जरूर समझदारा" सेठ गम्भीर हो गया, "मजाक छोड़ो। लड़की की ज़िन्दगी का सवाल है। उसने कह दिया है, घर नहीं लौटेगी, चाहे नदी में कूदना पड़े। क्या उपाय सम्भव है?

नरेन्द्र भी गम्भीर हो गया, "रजा, मेरा खयाल है लड़की अभी बहुत उत्तेजित और क्षुब्ध है। उसने जो भी कहा हो, उसे शान्त होकर सोचने के लिये कुछ और समय दो पर न लौटना बहुत जोखिम का कदम, पूरी जिन्दगी के लिये। उसे कल दोपहर के बजाये परसों दोपहर तक वार्ड में टिककर सोचने का अवसर दो।"

"यह तो हो जायेगा." रजा ने स्वीकारा, "आर० एम० ओ० मिश्रा है। उसके बाद? "वह अगर चारों सिरे नहीं लौटती तो फिर अमर तुरन्त उसका उत्तरदायित्व लेने का अधिकार प्राप्त करे।"

यानी?" रजा ने पूछा। अमर की नजरों में भी पन्ना

“यानी स्वाः उत्तरदायित्व का अधिकार होगा उसे पत्नी बनाकर पंडित परिवार और उनकी बिरादरी की ओर से विरोध हो सके, उससे पहले आर्यसमाज मन्दिर में विवाह हो जाये।"

"यह कैसे हो जायेगा?" अमर ने पूछा।

"आया ब्रह्मचारी रास्ते पर आखिर सच बोला।" रजा मुस्कराया।

नरेन्द्र ने फिर सुनने का संकेत किया, “अब ईमानदारी से एक बार फिर उसे घर लौटने के लिये समझाओ। नहीं मानती तो उसे स्पष्ट बता दो तुम उसका उत्तरदायित्व लेने या उसकी सहायता कर सकने का सामाजिक और कानूनी अधिकार कैसे पा सकते हो। उनका उत्तर स्पष्ट शब्दों में होना चाहिये।" "नरेन्द्र ने तर्जनी दिखायी "वह हाँ करती है तो हम लड़ लेंगे। तुम दोनों बालिग। तुम्हें स्वेच्छा से सिविल मैरेज़ का कानूनी अधिकार। "

"क्या बात है!" रजा हंसा, "लड़की स्वेच्छा से होस्टल में नहीं रह सकती, शादी कर सकती है!"

"तुम इसे और भडकाओ!" नरेन्द्र ने डॉटा अमर की ओर देखा, उषा स्वीकार कर लेती है तो फिर उसके ठहरने का प्रबन्ध करना होगा। शादी-बेटा, तुम कितने ही कलपो उसमें कुछ समय लगेगा। सिविल मेरेज़ के लिये महीने का नोटिस जरूरी, आर्यसमाज में तुरन्त हो सकती है।"


“जगह ऐसी चाहिये जहाँ बाइज्जत हमदर्दी के मलूक का यकीन हो।" रजा ने चेतावनी दी। 

“जरूर!" नरेन्द्र ने माना, "और ऐसी जगह जहाँ पुलिस सीधे हाथ न डाल सके। अगर हरि भैया को मामले की नैतिकता और कानूनी स्थिति पर विश्वास हो जाये तो चच्चा (अमर के पिता) और अमर के लिये गर्दन कटा देंगे। हम उन्हें पटा लेंगे।"

पंडित संध्या चर्च से लौटकर उषा के लिये खाना लेकर आये। उपा खाना खा रही थी। पंडित ने विस्मय प्रकट किया, "हम कुछ देर से पहुँचे। खाना हस्पताल से आया है?" "डाक्टर ने भिजवा दिया," उषा ने नज़र झुकाये उत्तर दिया। उपा खूब उबली मुरादाबादी थाली कटोरियों में खा रही थी। पंडित ने दूसरी बार विस्मय प्रकट किया, "यह खाना डाक्टर रजा के यहाँ से आया?"

"डाक्टर सेठ आये थे। उपा नजर झुकाये रही। पिता के प्रश्न पर बता दिया: सिर की चोट में दर्द न थी। चार्ट में संध्या का टैम्प्रेचर निन्यानबे था।

पंडित जरूरत का कुछ सामान, बदलने के लिये कपड़े और फल- बिस्कुट लेते आये थे। "सुबह अमित के हाथ चाय भेज देंगे।" पंडित ने कहा।

"क्या ज़रूरत है! इतनी दूर दौड़ेगा।" उषा अब भी नजरें बचाये थी। "हम सवा बजे तक आयेंगे तब तक तुम्हे छुट्टी मिल जायेगी?"

उपा मौन पण्डित पाँच-सात मिनट बैठकर चले गये।

साढ़े आठ से उषा सेठ की प्रतीक्षा में निश्चय, चाहे जो हो घर नहीं लौटेगी। डैडी कल

सवा बजे आयेंगे, उन्हें क्या जवाब देगी? चिन्ता से शरीर रोमांचित ।

सुबह माथे पर स्पर्श से नींद खुली नर्स ने टेम्प्रेचर और नब्ज़ देखी टेम्प्रेचर सत्तानवे । उषा को कमजोरी जान पड़ रही थी। साढ़े सात तक अमित चाय और दो उबले अंडे लेकर आ गया। उपा के लिये ऊनी शाल भी लाया। अमित ने स्नेह से हाल-चाल पूछा। पढ़ने के लिये पिछले दिन रविवार के 'पायनियर' का पत्रिका अंश ले आया था। उषा का मन बात करने को न हो रहा था। सेठ आये तो पता लगे। सवा बजे से पहले निर्णय आवश्यक। घर नही लौट सकती। कुछ भी सहने के लिये प्रस्तुत।

सुबह डाक्टर सेठ वार्ड मे आठ बजे से पहले आ गया। ब्यौरे से हाल-चाल पूछा, नब्ज देखी। टेम्प्रेचर देखा। बताया: मानसिक उलझन के कारण थकावट और कमजोरी है। चिन्ता की बात नहीं।

"घर लौटने के विषय में सोचा?"

“घर नहीं लौटूंगी।" उषा की नज़रें झुकी रहीं।

“तुम्हारे साहस और निश्चय के लिये तुम्हारा आदर करता हूँ।" ""अमर का स्वर गहरा गया, "जानता हूँ तुम अपनी योग्यता और सामर्थ्य से क्या कर सकती हो। स्वतन्त्रता चाहने वाले के लिये सामन्तवादी पूँजीवादी विकृतियों हर कदम पर अड़चन यह विकृत समाज पूछता है, मुझे तुम्हें सहायता देने का, तुम्हारी चिन्ता का क्या हकर इस समाज की नज़र में इन्सानी हक कोई चीज़ नहीं।" नरेन्द्र और रजा से किये परामर्श के आधार पर बता दिया, "परस्पर चिन्ता, उत्तरदायित्व और सहायता का सामाजिक और कानूनी हक पा लेने का केवल एक उपाय हम परस्पर वैसा अधिकार पा सकते हैं या नहीं, यह तुम्हारे निर्णय पर निर्भरा "

अमर ने बात आरम्भ की तो उषा नजरें मिलाये सुन रही थी। अमर की बात और

उसका स्वर गहरे होते जा रहे थे। उपा की गर्दन झुक गयी, मौन सिर पर पट्टी के कारण माथा, कनपटियों, गाल ढके चेहरे का जितना अंश प्रकट, उसका पीलापन दूर होकर उस पर रक्त के आवेग की रंगत आ गयी।

"विश्वास रखो, जो वचन या आश्वासन तुम्हें दिया है, उससे पीछे नहीं हहुँगा । तुरन्त निर्णय लेने या बताने की मजबूरी नहीं है। शान्ति से सोच सकती हो। चाहोगी तो डाक्टर से कहकर कल भी डिस्चार्ज रोका जा सकता है। दोपहर बाद फिर आऊंगा। तुम्हारे निर्णय के अनुकूल अगले कदम उठाये जा सकेंगे।"

सेठ के जाने के बाद उपा वैसे ही निअल बैठी रही। कुछ देर बाद चित्त लेट कम्बल ओड ऑंखें मूंद ली। कैसी स्थिति बन गयी। सेठ की सहृदयता, सद्भावना, मैत्री, भरोसे का विश्वास था परन्तु ऐसी कल्पना नहीं। सेठ के प्रति विश्वास, आदर, भरोसा उमग कर अनुराग की बाढ़। उपा बही जा रही थी उल्लास के मधुर उन्माद में विभोर ।

उषा सोच रही थी। मन आँखें खोलने को न था। एक चिन्ता दूर हो गयी थी। दोपहर में ईडी के लिये उत्तर था डाक्टर कल देखकर बतायेंगे। सेठ के वाक्ये बार बार कानों में गूंज रहे थे।

पण्डित एक बजकर दस मिनट पर आ गये, "बेटी छुट्टी मिल गयी? हम तोंगा ले आये

"डाक्टर ने कल देखकर बताने के लिये कहा है।" पलकें झुकी रहीं।

"बराओ नहीं! जो डाक्टर कहे, ठीक साँझ अमित देखने आयेगा। खाने के लिये जो कहो भिजवा दें।"

उषा ने इनकार में गर्दन हिला दी। पंडित दस मिनट ठहर कर चले गये।

उषा के कान आहट में थे। सेठ दो के बाद आया। उपा पलंग पर सिमिटकर बैठ गयी।

नज़र झुकी। सेठ सामने स्टूल पर बैठा।

"तबीयत ठीक है?

"बिल्कुल ठीक है।"

"उस विषय में कुछ सोचा? और सोचना चाहो, संध्या फिर आ सकता हूँ।" "घर नहीं लौटूंगी।"

"दूसरी समस्या पर भी सोचा?"

शुकी गर्दन कुछ और झुक गयी। गले का अवरोध निगला पर बोल न सकी।

सेठ ने प्रश्न दोहराया, “तुम्हें स्वीकार है?"

उषा ने स्वीकृति में गर्दन झुकायी।

"मजबूरी न समझना।"

इनकार का संकेत

“जानता हूँ तुम्हारे योग्य नहीं है परन्तु मेरा सौभाग्य है।"

उषा की गर्दन झुकी रही।

"मेरी तरफ देखा?" सेठ का स्वर और भी गहरा ।

उषा ने गर्दन उठायी। आँखें तरल और गुलाबी चेहरा लाल आँखें मिलाने में झिझक

उन आँखों में सीधे देखकर कितनी बार बहसी हंसी थी, मान से बोली थी। एक क्षण में क्या

हो गया! सेठ की आँखें भी गुलाबी, जैसे दोनों दूसरे के अन्तरतम तक देख रहे थे।

"इसी के अनुसार योजना बनायी जाये।"

उषा ने संकेत से स्वीकारा।

संध्या पाँच के लगभग अमित आया समीप स्टूल पर बैठकर हाल-चाल पूछा उपा "हूँ हूँ" से उत्तर देती रही?

"जीजी, इतनी उदास और निराश मत हो।" अमित ने सहानुभूति से सांत्वना दी, "हमें कई तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा।"

उषा की पलकें भीग गयीं।

अमित और समीप झुक गया, "जीजी इतनी दुखी मत हो ।"

"नहीं मीतू दुखी नहीं ।" गहरे उच्छवास से भाई के गले में बाँहें डाल दीं।

चन्द्रा सोमवार सुबह होस्टल लौट गयी। नौ बजे क्लास में जाते समय उषा को देखती गयी। उपा कम्बल ओले चित्त लेटी, आँखें मूंदे थी। माथे पर चन्द्रा का हाथ लगने से पलकें उघाड़ी, मौना चन्द्रा को देख प्रसन्न न हुई ।।

चन्द्रा चार्ट देख मुस्करायी, "बुखार नहीं है। दर्द नहीं है तो आज घर लौट सकती हो। नींद आ रही है सो जाओ, फिर आऊँगी।"

मंगलवार को चन्द्रा को अनुमान, उपा घर लौट गयी। उसे देखने न गयी। ग्यारह बजे के करीब सहपाठियों के साथ दूसरी मंजिल पर डाक्टर नरूला के पीछे-पीछे वार्ड में जा रही थी। उसकी नज़र नीचे सड़क पर पडी डाक्टर सेठ उषा को ताँगे पर बैठा रहा था। तीसरा व्यक्ति पंडित या अमित नहीं, कोई अपरिचित खद्दर की सफेद गांधी टोपी, कुर्ता-धोती, ऊनी सदरी पहने, पक्की उम्र कहाँ जा रही है। चन्द्रा तड़प उठी।

चन्द्रा विवश उस समय क्लास के राउण्ड से खिसक जाना बहुत कठिन। वार्ड में डाक्टर नरूला ने उससे सवाल पूछ लिया था। उत्तर से डाक्टर नाराज, अभी एक साल और इसी क्लास में चन्द्रा पिछले साल फेल हो गयी थी।" तब से डाक्टर की नजर बार-बार उसी की ओर चन्द्रा इतनी उत्तेजित कि डाक्टर के शब्द समझ में न आ रहे थे। तिस पर आशंका, डाक्टर और सवाल न पूछ ले। नरूला नाराज़ हो जाये तो पीछे पड़ जाता था। नरूला ने छोड़ा साढ़े बारह बजे

चन्द्रा को पड़ोस और बिरादरी के प्रति कर्तव्य का ध्यान दोपहर को खाने के लिये होस्टल जाने के बजाय हस्पताल के फाटक की ओर ले गयी। सामने इक्का दिखायी दिया, उसी पर बैठ गयी।

चन्द्रा से स्थिति जानकर डाक्टर चौहान चिन्तितः एक बज रहा है। पंडित को उम्मीद, उषा को आज डिस्चार्ज मिल जायेगा। वह कालेज से हस्पताल चला गया होगा। वह लौटे तो सोचेंगे। मिसेज़ चौहान इतनी शिथिल न थीं। चन्द्रा के साथ तुरन्त पंडित के यहाँ गयी। मिसेज़ पंडित को समाचार दिया, "बहन, तुम पर तो भारी मुसीबत आ गयी ।" मिसेज़ पंडित चिन्ता में सिर पकड़कर बैठ गयी। पति या लड़का घर पर कोई नहीं। पंडित कालेज से हस्पताल जा चुके होंगे। हे ईश्वर तू ही रक्षक हमारे गुनाहों को मानसिक आघात से सिर में दर्द घुटने लड़खड़ा गये। खड़े रहना कठिन । बैठक के किवाड़ खोलकर सोफा पर बैठ गयी। नज़र चिक से गली में। "हस्पताल पहुँचे होंगे तो पता लग गया होगा।

डेढ़ घंटे बाद मिसेज़ चौहान पूछने आयी, पंडित लौटे कि नहीं। मिसेज़ पंडित का सिर इनकार में हिला, आँखें लाल खुश्क सवा तीन बजे मिसेज़ चौहान मिरोज़ सिंह के साथ आयी। मिसेज़ पंडित वैसे ही सोफा पर प्रतीक्षा में निश्चल मीना दोनों पड़ोसिने चिन्ता से व्याकुल' 'ईश्वर और उसका पुत्र ही रक्षक हैं, उन्हीं का भरोसा । इस गली पर क्या मुसीबत आ रही है। मिसेज़ पंडित को लग रहा था. मूर्च्छा घिरी आ रही है।

मंगलवार भी पंडित ने दोपहर बाद कालेज से छुट्टी ले ली थी। चौथे पीरियड की घंटी पर क्लास समाप्त करके निकले। दरवाज़े के सामने बरामदे में खड़े अपरिचित व्यक्ति ने नमस्कार में हाथ जोड़ दिये, बन्दे मातरम्। मिस्टर धर्मानन्द पंडित आप ही है पंडित ने नमस्कार स्वीकार किया, "धर्मानन्द पंडित हूँ। फर्माइये!" पंडित के पीछे क्लास से विद्यार्थियों का रेला चला आ रहा था।

" आपके लिये संदेश है। एक मिनट उधर आकर सुन लीजिये।" सज्जन पंडित के साथ आये और चलते हुए बोले, "आपने पहचाना नहीं। मेरा नाम हरिकृष्ण। अकसर लोग हरि भैया पुकारते हैं। दो बरस पहले आपके मकान पर गया था, डाक्टर चौहान के साथ।" पंडित ठीक से पहचान नहीं पाये। "कहिये, मेरे योग्य सेवा ?"

हरि भैया ने सदरी की जेब से एक लिफाफा निकालकर पंडित की ओर बना दिया,

"बेटी का पत्र है।"

"आप हस्पताल से आ रहे हैं?" पंडित ने लिफाफा फाड़ते हुए पूछा । "अभी अपने मकान से आ रहा है।"

पत्र अंग्रेजी में था, संक्षिप्स पंडित ने बेटी का हस्ताक्षर पहचाना।

"प्रिय पिता जी बहुत खेद से सूचना दे रही हूँ। कुछ मास से घर की परिस्थितियों, वातावरण और परसों की घटना के पश्चात् मेरे लिये घर में रह सकता या घर और गली में लौट सकना सम्भव नहीं रहा। यह कदम मैंने पूरी जानकारी में, केवल मात्र अपनी इच्छा से, अपनी जिम्मेदारी पर उठाया है। अनुरोध है, आप मुझे घर लौटाने का प्रयत्न बिलकुल न करें दुख मुझे भी है, परन्तु विवश हूँ। आपको यह कष्ट देने के लिये और अपनी सभी भूलों के लिये आपसे माँ से और बेबे से क्षमा चाहती हूँ। भाइयों और बहन को प्यार।

पंडित का शरीर सनसना गया। पथरायी नज़र में प्रश्न

क्षमा प्रार्थी बेटी, उषा"

"बेटी मेरे मकान पर है।" हरि भैया का स्वर सहानुभूति और सांत्वना का, "आपकी चिन्ता समझ रहा है। आपको अधिक परेशानी न हो, इसलिये सूचना देने स्वयं आ गया। आप बेटी को घर लौटने के लिये समझायें। वह जब तक मेरे यहाँ रहना चाहे, जैसे मेरी दूसरी बेटियां, वह भी रह सकती है।"

" आपके यहाँ कैसे पहुंची?" पंडित ने पूछा, "आपसे पहले परिचय था?"

"पहले परिचय न था" हरि भैया बोले, "डाक्टर अमरनाथ सेठ हमारे कृपालु मित्र सेठ रतनलाल का बेटा है। हम उसे छोटे भाई या बेटे की तरह मानते हैं उसने समाचार दिया,

बेटी किसी भी हालत में घर लौटने के लिये तैयार नहीं है। सेठ बेटी को हस्पताल में अपने क्वार्टर में जगह देने के लिये तैयार नहीं था। वह हमने उचित न समझा। सेठ के पिता पुराने खयाल के हैं। वहाँ बेटी के साथ कैसा व्यवहार हो। परिस्थिति अधिक विकट न हो जाये, इसलिये हम हस्पताल जाकर उसे ले आये।” हरि भैया दोनों हथेलियाँ फैलाकर बात कर रहे थे, जैसे कुछ छिपा नहीं रहे, “आप चलिये, बेटी को समझाइये। हम स्वयं आये कि आपको मकान पर ले चलें। "

पंडित के मन में बेटी के व्यवहार के लिये उग्र क्षोभा उतना ही क्रोध बेटी को हस्पताल से चले जाने में सहायता देने वाले पर परन्तु बेटी के विषय में सूचना देने वाले, उसे समझाने का अनुरोध करने वाले पर क्या क्रोध दिखाते कहना पड़ा, “आपकी कृपा और सहानुभूति के लिये आभारी हूँ। आपके साथ चलता हूँ। "पंडित ने अपनी साइकल ले ली। कालेज के बाहर किराये का इक्का हरि भैया की प्रतीक्षा में था।

क्रिश्चियन कालेज से सिटी स्टेशन, रेलवे पुल के नीचे से आगामीर- ज्योडी कैनिंग रोड पर कुछ दूर राजाबाज़ार की ओर। पंडित को इक्के के मरियल घोड़े की चाल पर खीझ आ रही थी। इसे के पीछे-पीछे चलने के लिये विवश मन में बेटी की मूर्खता और उच्छृंखलता के लिये क्रोध का उवाल। इक्का कैनिंग रोड से एक कच्ची गली में उतर गया। धोबियों- घोसियों के जैसे कच्चे घर और झोपड़ियों एक चारदीवारी में लगे दरवाजे के सामने इक्का रुका। हरि भैया उत्तर पड़े।

हरि भैया की दस्तक से किवाड़ खुले। एक स्त्री अपरिचित को देख मुँह फेरकर पीछे हट गयी। नमस्कार या स्वागत किये बिना बायें कमरों के सामने बने ओटे के पीछे हो गयी।

"बेटी, तुम्हारे पिता जी आये हैं।" हरि भैया ने सूचना के लिये पुकारा। आँगन में चटक धूप धूप में खाट पर बिस्तर। पुकार सुनकर खाट पर लेटी युवती उठ बैठी। पाँव खाट से नीचे धरती पर रख लिये पंडित ने सिर पर पट्टी बंधी उषा को देखा।

हरि भैया ने कमरे के दरवाजे के समीप पड़ी, लोहे की सस्ती कुर्सी खाट के समीप रख दी। पंडित साहब, आप बेटी से बात कीजिये। हम उधर हैं। सेवा की आवश्यकता हो, हमें पुकार लीजियेगा । कुछ जल-वल?" हाथ जोड़कर पूछ लिया।

"धन्यवाद, अभी इच्छा नहीं है।"

उषा को मालूम था, हरि भैया डैडी को सूचना देने गये हैं। डैडी के आने पर हरि भैया के यहाँ स्वेच्छा से आने और घर लौटने के बारे में अपना निर्णय स्वयं बताना होगा। शेष उत्तरदायित्व सेठ और हरि भैया का ऊखली में सिर दे चुकी थी, प्रतीक्षा में बी "अब जो, जैसी चोट आये; जो होना है, हो जाये।

पंडित कुर्सी खाट के समीप खींचकर बैठ गये। मन का क्रोध और आवेश वश कर यथासम्भव स्वाभाविक और स्नेह के स्वर में पूछा, "तबीयत कैसी है? सिर में दर्द या कोई और असुविधा?"

उषा ने गर्दन हिला 'न' का संकेत किया।

"बेटी, यहाँ कैसे आ गयी? तुम्हें मालूम था, हम लेने आयेंगे।"

उषा गर्दन झुकाये मौन

पंडित गले का अवरोध निगल कर बोले, "बेटी जो अप्रिय घट गया, उसे भूल जाओ।

अपनी या दूसरों की भूल से हुई बातों को गाँठ में बाँध लेना मूर्खता। क्रोध और उत्तेजना में हुआ व्यवहार भुला देना चाहिये। जो हो गया, हो गया। अपने घर चलो। विश्वास रखो तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।"

उपा ने इन्कार में सिर हिला दिया।

पंडित दो पल सोचकर फिर बोले, बेटी, कोध में पागलपन उचित नहीं। बौखलाहट में हुई भूल का उपाय सावधानी से करना चाहिये। उत्तेजना से स्थिति अधिक बिगड़ती है। ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिये जिसे लौटाने में झिझक हो। अभी कुछ नहीं बिगड़ा, घर चलो यह स्थिति खिंचती नहीं चाहिये। तुम सुशिक्षित समझदार हो। बेटी को माँ और माँ को बेटी क्या क्षमा नहीं कर सकती। तुम्हारे लिये यहाँ ही सवारी ले आयें वा सौ कदम सड़क पर चल सकोगी?"

उषा ने स्पष्ट इन्कार में गर्दन हिला दी।

पंडित कई पल मौन रहे। जेब से उषा का पत्र निकालकर फिर पढ़ा। बोले, घर की परिस्थितियों और वातावरण से क्षुब्ध होने में तुम्हारा व्यवहार भी कारण था। उससे परेशानी केवल तुम्हें नहीं, सभी को हुई है। ऐसी स्थिति में मों का बौखला जाना स्वाभाविक था। सब दोष माँ का ही नहीं था। खैर, जाने दो उस बात को भूल जाओ। हम सवारी ले आते हैं।"

उपा की गर्दन फिर स्पष्ट इन्कार में हिली।

“बेटी, तुम समझदार हो। इस समय उत्तेजना में तुम ठीक सोचने में असमर्थ हो। हमारी बात मानो। शाबाश उठी।"

उपा की ओर से पुन: इरा

पंडित का स्वर कुछ कड़ा हो गया, "घर कब तक लौटने का विचार

उपा ने कोई उत्तर न दिया।

पर न लौटने का निश्चय कर लिया?"

उषा ने संकेत से स्वीकारा।

पंडित को पराये मकान में बैठकर बेटी से बात करने में असुविधा अनुभव हो रही थी। लग रहा था. बहुत देर से बैठे हैं परन्तु हुआ था, आधा घंटा ही। उपा के मौन और जिद्द से अपमान की ग्लानि। एक बार फिर दूई निश्चय से, बत्मल स्वर में समझाया, "बेटी ऐसी अजनबी जगह में, मानसिक तनाव और उत्तेजना में ठीक निर्णय नहीं लिया जा सकता। अपने घर चलो। विश्वास रखो, जो हो गया उसकी कोई अप्रिय चर्चा न होगी। तुम शान्त चित्त से, सोच-समझकर जो निर्णय करोगी, वह तुम्हारे और घर भर के लिये भी कल्याणकारी होगा। अब उठो

उषा ने इनकार में सिर हिला दिया।

पंडित ने दाँत भींच लिये, परन्तु समझाने के नरम स्वर में बोले, "बेटी, घर लौटने में जितना अटकोगी स्थिति उतनी ही अप्रिय होती जायेगी। हम सवारी से आते हैं। " उपा ने फिर इकार में सिर हिलाया।

पंडित ने गहरा श्वास लिया, "तुम और सोच लो, हम डेड-दो घंटे तक सवारी लेकर आयेंगे। "संकेत से उषा इनकार में सिर हिला चुप रही।

पंडित उठ गये। बायें हाथ ओटे की ओर पुकारा, “श्रीमान जी ।"

हरि भैया ओटे से इस ओर आ गये।

"इस समय चल रहा हूँ। आपको असुविधा न हो तो डेढ़-दो घंटे तक फिर आ सकता

पंडित जी यह आपका मकान है। जब सुविधा हो दस बार सौ बार स्वागत। हम भी दुकान जा रहे हैं। जब सेवा की आवश्यकता हो हमें दुकान से बुला सकते हैं झंडेवाले पार्क में दुकान का पता बता दिया।

पंडित डेढ़-दो घंटे के लिये तीन मील दूर कंधारीबाग गली तक क्या जाते? अकेले जाने पर उषा को साथ न लाने के लिये क्या सफाई देते! लड़की घर नहीं लोटती तो वह स्थिति आयेगी ही, अब नहीं दो घंटे बाद ईश्वर लड़की को सुमति दे । आगामीर की ड्योड़ी से सिटी स्टेशन, जगत नारायण रोड पर गये। कालेज न जाना चाहते थे। निष्प्रयोजन कहाँ जायें? गोमती की ओर चल दिये। रेजीडेंसी पर नजर पड़ी। उसी ओर मुड़ गये। उन दिनों रेजीडेंसी पर चौबीस घंटे ब्रिटिश साम्राज्य की पताका फहराती थी। १८५७ के विद्रोह में अंग्रेजों की विजय इस स्थान पर डटे रहने से ही हुई थी। इस स्थान का सम्मान वायसराय और गवर्नर के महलों से अधिक था। यहाँ का बगीचा सदा हरा-भरा फूलों से सजा बजा

रखा जाता।

पंडित एकान्त की इच्छा से बगीचे के निराले भाग में बरगद के पेड़ के नीचे बेंच पर बैठ गये। साइकल बेंच से टिका दी। मन में उषा के व्यवहार के लिये क्रोध और बेटी के संकट में पड़ जाने की चिन्ता ! उद्वेग में मूर्खता कर रही है, बाद में पछतायेगी जरूर हस्पताल से उस घर में सेठ की योजना से ही गयी है। यह महाशय विनय से निश्छल सहायता के लिये तत्परता दिखा रहे हैं। जवान परायी लड़की को अपने घर में ले क्यों गये? उसका उत्तरदायित्व नहीं समझते। जवान वयस्क लड़की, उसे थप्पड़ मारकर बाँह से पकड़कर घर ले जा नहीं सकते। उससे उसकी और अपनी फजीहत पुलिस को रिपोर्ट करने से नगर भर में थू-थू लड़की बालिग है। सिवा समझाते खुशामद के उपाय क्या? बेटी को एक दिन घर से जाना ही था, पर यह जाना हमारे लिये कितना अपमानजनक और उसके जीवन की बर्बादी

पंडित को याद आया उषा की नौकरी कर अपने पाँव खड़े हो, एम० ए० प्राइवेट करने की इच्छा का कारण ये ही था। इस झुकाब ने मन घर से उचाट कर दिया। ऐसे कारण और अवसर की प्रतीक्षा में थी। अब सेठ उसकी नजर में अधिक विश्वसनीय और भरोसे का और हम शत्रु। हम व्याकुल हैं कि स्वयं को बर्बाद कर रही है। उसके कल्याण के लिये हम आज भी सब कुछ करने सहने को प्रस्तुत परन्तु उसे हम पर विश्वास नहीं। मूल कारण, पंत परिवार का छला लड़की का मन भटक गया। उसे रास्ता दिखाना कठिन इसान की जिन्दगी क्या होती है! याद आ गया धर्मशास्त्र में ग्रेजुएट बनने के बाद जब धर्म प्रचार के कार्य के बजाय स्कूल मास्टरी कर ली थी, पिता और भाई कितने खिन्न और निराश हुए थे। क्या नयी पीढ़ी सदा निर्मोही और अकृतज्ञ होती है या उसकी दृष्टि भिन्न हमें सर्व स्वीकार, लड़की की जिन्दगी बर्बाद न हो। उसे निश्चित बर्बादी के रास्ते पर बढ़ने की जिद्द

पंडित चार बजे सेवाश्रम लौटे।

पिता के आने पर उषा फिर उठकर पाँव धरती पर रखकर बैठ गयी थी। उसकी बाट पर अब भी धूप थी। दिसम्बर में दोपहर बाद चार बजे धूप की प्रखरता समाप्त, उसका

स्पर्श सुहावना।

"कहो बेटी तबीयत ठीक है? पंडित ने बैठने से पहले पूछा, "सवारी ले आयें इनकार का स्पष्ट संकेत

पंडित कुर्सी पर बैठ गये। क्षोभ वश कर फिर समझाने लगे। कोई नया तर्क या नयी बात न थी। वही बातें दूसरे शब्दों में अधिक नरम लहजे में तुम्हारे हित के विचार से तुमसे अनुरोध नहीं प्रार्थना कर रहे हैं। उत्तेजना और विक्षेप से संकट में मत दो। घर चली चलो। दो-दिन चार दिन में स्थिर चित्त से निर्णय करो। पूरा वत्ज करेंगे कि जो तुम चाहोगी वही किया जाये। पंडित घड़ी देखकर तीस मिनट तक समझाते रहे। उपा की ओर से हर बार इनकारा

पंडित उठने से पहले अंतिम बार उपा से अनुरोध कर रहे थे। एक विद्यार्थी लड़का बाहर से आया। लड़के के चेहरे पर विस्मय का भाव, उसने गर्दन झुकाकर अभिवादन किया। कुछ पहचाना सा चेहरा लड़का ओटे के पीछे चला गया। तुरन्त फिर आया। एक गिलाम जल और कटोरी में पान का बीड़ा पंडित की ओर बढ़ा दिया। पंडित ने विद्यार्थी को पहचान लिया, "तुम टेंथ में हो ना"

यस सर, माई नेम इज सत्यभूषण" "हरिकृष्ण साहब के बेटे?"

यस सर"

पंडित ने आधा गिलास जल पीकर फर्श पर रख दिया। पान का अभ्यास न था परन्तु पान अस्वीकार करने से निरादर समझा जाने की आशंका धन्यवाद कहकर पान ले लिया। पंडित ने उपा से पूछा, "बेटी, शान्ति से सोचना चाहो तो दो-चार घंटे में फिर आयें। उषा का स्पष्ट इनकारा

पंडित अपनी साइकल लेकर सेवाश्रम से निकले तो शरीर निस्सत्व कच्ची गली में साइकल को सौ कदम धकेलते हुए कैनिंग रोड की ओर जा रहे थे। सड़क से कुछ कदम इधर गली में घूमती मोटर साइकल रुक गयी। डाक्टर सेठ के चेहरे पर संकोच और झिझक पंडित को संकेत से नमस्कार किया।

सेठ को पहचानकर पंडित खड़े हो गये। समीप होकर बोले, “उपा को यहाँ लाना उचित न था।"

"क्षमा चाहता हूँ।" सेठ ने अंग्रेजी में ही उत्तर दिया, "अपनी इच्छा से नहीं, नितान्त मजबूरी में हरि भैया से उसे यहाँ स्थान देने का अनुरोध किया। आप उपा से स्वयं पूछ सकते हैं।"

"उसे घर लौटने के लिए नहीं समझा सकते थे?"

"बहुत समझाया। उसे हस्पताल से दोपहर ही छुट्टी मिल सकती थी। उसे समझा सकने और सोचने का अवसर देने के लिये चौबीस घंटे और रोका।" "हमारी प्रतीक्षा करनी चाहिये थी।"

"उसे मंजूर न था। घर लौटने के बजाय नदी में कूद पड़ने की जिद्द आप उससे और बात कर लें। मैं कुछ देर बाद आ सकता हूँ।"

पंडित पल भर सोचकर बोले, "बहुत एहसान मानूँगा, उसे फिर भरसक यब से घर लौटने के लिये समझाओ।"

सेठ को स्वीकार करना पड़ा, "जरूर कहूंगा।"

पंडित लौटते समय मंडेवाला पार्क में हरि भैया की दुकान पर गया, "हम कल सुबह फिर बेटी को समझाने का यत्न करना चाहते हैं।"

"अवश्य आइये।"

सकल लगभग नौ बजे आयेंगे।"

"बहुत ठीक। उस समय हम घर पर रहेंगे।" हरि भैया दुकान से बाहर आ गये। पंडित से सहानुभूति में बात करते कुछ दूर साथ गये, "आपकी परेशानी हम समझते हैं। हमसे जो कुछ सहायता सम्भव हो, प्रस्तुत हैं। ठीक समझें तो बेटी की माता या दूसरा कोई आदमी जो उसे समझा सके, वह भी आ सकता है।"

पंडित को विश्वास हो गया हरि भैया चाहते हैं, लड़की अपने घर लौट जाये। नेकनीयत से ही उषा को अपने घर ले आये, तुरन्त सूचना देने भी पहुँचे। सेठ के ढंग में भी धोखा न लगा। परन्तु चिन्ता, उपा को हो क्या गया? उस पर सेठ का प्रभाव है। यदि सेठ सच बोल रहा है, उसे फिर घर लौटने के लिये समझाये तो मान भी सकती है। गली में पड़ोसियों को क्या सफाई देंगे। कह दें अभी उसका हस्पताल में रहना ठीक है ।

गली के समीप पहुँच रहे थे, उषा की साइकल पर अमित गली से निकलकर विपरीत दिशा में मुड़ता दिखायी दिया। लड़के को पुकार लिया। अमित रुककर पीछे धूमा। लड़के का चेहरा उड़ा हुआ।

"डैडी, आप हस्पताल से आ रहे हैं?" अमित ने पूछा।

पंडित ने लड़के को साथ चलने का संकेत किया। अमित ने बता दियाः चन्द्रा हस्पताल से आयी थी। सब लोग बहुत चिन्तित हैं। चौहान दम्पति सिंह दम्पति सब उन्हीं के यहाँ थे। पंडित अपनी साइकल बेटे को सहेजकर बैठक में चले गये।

• मिसेज पंडित सोफा पर बैठी थीं। चेहरा चिन्ता से बहुत भारी, आँखें लाल। उसके समीप नीचे फर्शी दरी पर बेवे, आँखें रोने से सूजी हुई।

"बराओ नहीं, लड़की ठीक है।" पंडित एक ही वाक्य बोल पाये।

चौहान आगे बढ़ आये, उनके पीछे मिसेज़ चौहान, सिंह दम्पति, "लड़की कहाँ है?" पंडित ने सबको भीतर चलने का संकेत किया। सबको सुनाकर पत्नी को बताया, "लड़की विश्वस्त, जिम्मेदार सपरिवार में है। हम स्कूल से एक बजे वहीं गये थे, उषा के साथ थे। अभी आ रहे हैं। कांग्रेस वाले हरि भैया को आप जानते हैं?"

"हम ऐसा क्या जानते हैं।"

"मैं जानता हूँ।" पंडित ने विश्वास से कहा ।

"वह यहाँ क्यों नहीं आयी?" मिसेज़ सिंह ने चिन्ता प्रकट की।

"यह लड़की की गलती, पंडित ने स्वीकारा "क्रोध, उत्तेजना की बौखलाहट

गलतफहमी में उसे डॉटा गया। वह बौखला गयी। हस्पताल जा रही थी तो पूरी गली

तमाशा बनाकर खड़ी हो गयी। अब उसे लौटने में संकोच, झिझक "

"इसमें ऐसी क्या झिझक अब और झिझक होगी।" मिसेज़ सिंह ने शंका की, "लड़की वहाँ पहुँची कैसे? जरूर डाक्टर लड़के की साँठ गाँठ"

पंडित झिझककर बोले, "हरिकृष्ण जी को डाक्टर सेठ ने खबर दी, लड़की घर लौटने में झिलक रही है।"

"उन्हें खबर देने का क्या मतलब वह कौन होते हैं? लड़की के रिश्तेदार हैं या हमारी सोसाइटी-बिरादरी के हैं। उसे खबर यहाँ, आपको देना चाहिये था।"

"हमें तो खबर हरिकृष्ण ने दी। लड़की को भी समझाया।" पंडित ने बताया। "जवान लड़की का रात पराये घर में रहना ठीक नहीं।" मिसेज़ सिंह ने चेतावनी दी। "हमने बहुत कोशिश की। अभी दिमाग बेकाबू। उसे शान्त होने के लिये समय देना चाहिये। हम सुबह फिर जायेंगे।"

पहोसियों को सन्तोष न हुआ। लड़की का बाप ही कुछ करने को तैयार न था। मुद्दई की सुस्ती में गवाहों की चुस्ती क्या करती?

पिता के जाने के बाद उपा निढाल आँखें मूँद लेट गयी, फिर किवाड़ खुलने की आहटा" वन्दे मातरम् भाभी!"

उषा ने अमर का स्वर पहचाना। उठकर बैठ गयी। अमर उसकी ओर आ गया, "कैसी तबीयत है, कुछ खाया?"

उषा का मन खाने को न था। भाभी ने आग्रह से दो संतरे खिला दिये थे।

फादर आये थे, क्या बात हुई

उपा का उत्तर सुनकर अमर ने बताया, "हम आ रहे थे, गली के मोड़ पर सामना हो गया। तुम्हारे बारे में बात हुई: तुम्हारे घर न लौटने से बहुत चिन्तित खित्र। मुझे कहा, एक बार और समझाओ। कैसे इनकार करता इसलिये ये कह रहा हूँ खूब अच्छी तरह शान्त चित्त से सोच लो। परिवार की परेशानी और दूसरी बातें। बाद में पछतावा अनुभव न हो। अब भी लौट सकती हो।"

अमर को देखकर उपा का तनाव दूर हो गया था, लेकिन लौटने का सुझाव सुन अमर की आँखों में सीधे देखा, स्वर धीमा पर कहा, "कभी एक बात कहते है, कभी दूसरी लगता है मैं आपके गले आ पड़ी हैं। मौत से नहीं डरती। अभी जा सकती हूँ।"

सेठ का चेहरा गम्भीर, "माई डियर कामरेड, गलत मत समझो आपस में हमारा जो वचन हो गया, अटूट किसी कारण या मजबूरी में तुम अभी घर लौट जाओ तो भी हमारा विवाह होगा ही। पंडित साहब ने अनुरोध किया, मैंने स्वीकारा- एक बार और समझाऊँगा इसलिये कहना जरूरी था। घर लौटने का मतलब हमारा सम्बन्ध टूटना नहीं

है। "

"प्लीज "घर की बात खत्म।"

"बिल्कुल खत्म।" अमर मुस्कराया, "गुस्सा थूक दो।"

धूप औगन पिछली दीवार से भी चली गयी। "यहाँ ठंड हो रही है, भीतर आ जाओ।" "अभी ठंड नहीं मालूम हो रही।"

गया।

"हम जरा भाभी जीजी से हाल-चाल पूछ लें।" सेठ हरि भैया के कमरे की ओर मुड़

सेठ के पीछे-पीछे गौरी आ गयी थी। आँगन में सेठ को सिर पर पट्टी बंधी अपरिचित नवयुवती से बात करते देखकर भाभी से पूछा, "यह कौन है ?"

गौरी सुबह नार्मल स्कूल जाकर साढ़े चार-पाँच तक लौटती थी। भाभी ने बताया, "अमर लाला के मास्टर की बिटिया है। सिर में बहुत चोट आ गयी है। हस्पताल में थी । जाने क्यों माँ-बाप से झगड़ पड़ी, अभी घर नहीं लौटना चाहती। तुम्हारे भैया हस्पताल से ले आये। बहुत पढ़ी-लिखी बताते हैं। बाप मिलने आये थे। अंग्रेजी में बात कर रही थी। इसके बाप भूषण के मास्टर हैं।"

गौरी सेठ की ओर घूम गयी, “भैया, इन्हें जानते हो! भाभी कहती हैं, बहुत पढ़ी-लिखी हैं।"

"जानता हूँ।" अमर ने गौरी की जिज्ञासा का समाधान किया, "यूनिवर्सिटी में एम० ए. में पड़ती है, बहुत समझदार, सजी, साहसी पढ़ाई पूरी हो जाये तब न व्याह करे। राजनीति और समाजवाद समझती है। उसी में सहयोग देना चाहती है। परिवार के लोग लड़कियों के लिये ऐसी बात पसन्द नहीं करते। उसी बात पर घर में कहा-सुनी हो गयी। चोट अपने ही हाथ से लग गयी। अभी घर नहीं जाना चाहती। कुछ दिन रहेगी।"

"हमारे सिर आँखों पर!" गौरी बोली, "हमें तो चेहरे-मोहरे से ही खानदानी लगी। हम इनसे कुछ सीखें-समझेंगी।" गौरी को अमर पर पूरा विश्वास । सहानुभूति में उपा की सहायता के लिये उत्सुक ।

पंडित अगले दिन नौ से पहले सेवाश्रम आये उषा आँगन में खाट पर धूप में बैठी थी। कंधों पर शाला हरि भैया घर में थे। पंडित ने बेटी को फिर स्नेह से समझदारी और दूरदर्शिता का उपदेश दिया। उसके प्रति पूर्ण ससम्मान वत्सल व्यवहार का आश्वासन देकर घर चलने का अनुरोध किया।

उपा सिर झुकाये मौन सुनकर इनकार में गर्दन हिला दी।

पंडित उठते हुए बोले, "बेटी, हम फिर अनुरोध करेंगे, बौखलाहट छोड़ विचार करो । तुम शान्ति से सोचो। हम फिर आयेंगे।"

पंडित आँगन से साइकल लेकर निकले तो हरि भैया उनके साथ हो लिये कुछ कदम चलकर पूछा, "पैदल चलने से आपको विलम्ब होगा?"

"अभी काफी समय है।" पंडित ने उत्तर दिया, "कहिये!"

हरि भैया ने विस्तार से बात की। अभिप्राय था: बेटी घर लौट जाये तो आगे की बात आपके हाथ यहाँ है तो हमारी भी जिम्मेदारी समाज का जैसा नियम, लड़की-खी के लिये उसका ठौर जरूरी। विवाह की उम्र विवाह उसका आप करते ही, हम नहीं चाहते कोई बात आपकी बेखबरी में हो। सबसे पहले जानने का हक आपका, जो हो आपके आशीर्वाद से हो। कुछ ठिठककर, "अमर और बेटी का विचार विवाह कर लेने का है। खयाल हो सकता है, उन लोगों ने इसी विचार से यह लीला रची है। हम ऐसा नहीं मानते। अमर को लड़कपन से जानते हैं। वह झूठ नहीं बोलता । अमर का इरादा विवाह करने का न था।

उसका विचार देश सेवा में जीवन लगाने का था। बेटी से बात करके लगा, उसका भी ऐसा ही विचार है। वे लोग सहयोगी सहायक बनना चाहते हैं, तो यह हमारे विचार से बहुत अच्छी बात पूरे जीवन का सहयोग और बेटी की सुरक्षा-सम्मान के लिये भी उचित । हमने अमर से खुद कहा— लड़की के घर न लौटने की इच्छा में सहायता दे रहे हो, उसकी जिन्दगी की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। हमें लुका-छिपी, झूठ नापसन्द, इसलिये आपको बता देना उचित समझा। वह भी सोचा कि दोनों का लक्ष्य- विचार एक तो सहयोगी साथी बन परस्पर सहायक बन सकते हैं। हमने खुद कहा-लड़की की घर न लौटने की इच्छा में सहायता दे रहे हो, यह मामूली जिम्मेदारी नहीं उसकी जिन्दगी की जिम्मेदारी ले रहे हो तो उन्होंने व्याह की बात कर ली। अगर बेटी घर जाती है तो बात आपके हाथ में। हमारे यहाँ जो हो, पहले आपका विचार जान लेना जरूरी है। हमें लुका-छिपी, झूठ पसन्द नहीं।

पंडित ने स्पष्ट कहा हिन्दू व्यक्ति उदार सदाशय हो सकता है, परन्तु हिन्दू समाज नहीं। उस समाज में ईसाई या भिन्न बिरादरी की लड़की बहू बनकर सम्मान का स्थान नहीं पा सकती। यह हिन्दू समाज के संस्कारों के विरुद्धा

हरि भैया ने माना बहुत हिन्दू वैसे परन्तु सब हिन्दू वैसे नहीं। आप हमारे यहाँ का व्यवहार देखिये। हम तो अल्ला-ईश्वर एक मानने वाले मनुष्य मात्र को एक जाति। आपको ऐसे लाखों हिन्दू मिलेंगे। अमर को हम सब आगा-पीछा सोच लेने की चेतावनी दे चुके कि तुम्हारे पिता परिवार पुराने खयाल के वह आपकी बेटी के प्रति कर्तव्य से करीब लाख की जायदाद को लात मार देने को तैयार उसे जायदाद का लोभ है नहीं। डाक्टर है, अपनी मेहनत की कमाई पर निर्भर करने का निश्चय

अमर पर हरि भैया का विश्वास का खण्डन पंडित ने आवश्यक न समझा। बेटी के मूल भावावेश के विषय में जानते थे बेटी के भविष्य के लिये घोर चिन्ता। हरि भैया से सहायता के लिये प्रश्न किया, "सामाजिक परिस्थितियों के विचार से भिन्न सम्प्रदाय के लड़के-लड़कियों में ऐसा सम्बन्ध कैसे उचित हो सकता है?"

"पंडित जी, आप विद्वान हैं। हम अपना विचार आप पर नहीं लाद सकते। इस विषय में निर्णय का पहला अधिकार आपका। इसलिये आपसे कहा, बेटी को समझा-बुझाकर ले जायें। हम भी जरूर समझायेंगे। हमारे यहाँ रहेगी तो हम जो कुछ बेटी के लिये ठीक मानेंगे, वही इनके लिये। लड़का सदाचारी, विश्वासपात्र, भरोने का है तो बालिग बेटी की इच्छा को स्वीकार करेंगे।"

“एक समाज के लोगों के लिये आपका विचार संगत है परन्तु भित्र मान्यताओं और संस्कारों के समाजों में यह बात इतनी सीधी नहीं।" पंडित बोले, "यह प्रश्न केवल व्यक्तियों का नहीं क्योंकि व्यक्ति समाज से पृथक रह नहीं सकता।

"भाई साहब, आप दोनों को हित-कामना से समझाइये। व्यक्ति अपने समाज के जल की मछली होते हैं। उस जल से निकलकर उनका जीवन स्वाभाविक सुखी नहीं हो सकता। " पंडित ने अपनी आकुलता प्रकट की।

पंडित जी आप विद्वान हैं, हम अपड" हरि भैया ने हाथ जोड़ दिये, "गुस्ताखी क्षमा कीजिये। हम सोचते हैं, एक दिन आपके दादा या पिता ने अपने विवेक के बल पर साहस

का कदम उठाया होगा। आज भी वैसा हो सकता है।"

"लड़की नरक में लौटना चाहती है यह विवेक नहीं आवेश में पंडित कह गये। पंडित का मन मस्तिष्क बहुत व्याकुला विद्यार्थियों को ढंग से पढ़ाना कठिन था। निरन्तर चिन्ता – जैसे भी हो लड़की को घर ले जा सकें, कम से कम सेवाश्रम या सेठ के प्रभाव और पहुँच से दूर कर लेना आवश्यक, वर्ना लड़की की जिन्दगी बर्बाद हो जायेगी। चार बजे छुट्टी के बाद पत्नी की राय और डाक्टर चौहान से परामर्श के लिये घर लौट आये। डाक्टर चौहान सूझ-बूझ के आदमी थे उनका परिचय और लिहाज भी व्यापक

पंडित ने पत्नी से आध घंटे तक एकान्त में बात की बेटी को घर लौटाने के लिये माँ को सभी कुछ मंजूर डाक्टर चौहान ने भी पंडित की योजना का समर्थन किया। साथ चलने और यथाशक्ति सहायता का आश्वासन बेटी को बदनामी की आँच से बचाने के लिये डाक्टर से और पत्नी से बेटी और सेठ की परस्पर विवाह की इच्छा का जिक्र न किया। पंडित रेलवे टाइम टेबल लेकर पन्ने पलटते रहे। डाक्टर चौहान को दो मरीजों की प्रतीक्षा थी। उसके बाद सात बजे साथ चलने के लिये कह दिया था।

पंडित ने छोटे सूटकेस में अपने लिये चार कमीज, एक कुर्ता-पाजामा, उषा के लिये आवश्यक कपड़े और जो कुछ पत्नी ने रखने को दिया रख लिया। दो खूब मोटे कम्बल, चादर, छोटे तकिये। कालेज के प्रिंसिपल के नाम एक आवेदन, अप्रत्याशित अत्यावश्यक कार्य के लिये शनिवार तक चार दिन के अवकाश के लिये लिखकर जेब में रख लिया। अमित को बुलाकर समझाया, "बेटे, हम सात बजे डाक्टर चौहान के साथ जा रहे हैं। हम रात न लौटें तो डाक्टर चौहान के परामर्श से काम करना शायद हमें उषा के साथ तीन- चार दिन के लिये बाहर जाना जरूरी हो।"

डेडी, कहाँ जाने का विचार है।" अमित ने चिन्ता से पूछा। "बेटा, डाक्टर चौहान से मालूम हो जायेगा । " "आपके साथ जाकर जीजी से बात कर सकता हूँ?" "बेटे, तुम अभी प्रतीक्षा करो। फिर बतायेंगे।"

सात बजे अमित ने यात्रा के लिये आवश्यक सामान डाक्टर चौहान की गाड़ी में पहुँचा दिया। चौहान सवा सात तक चल पाये। पहले अमीनाबाद से झंडेवाला पार्क गये। गाड़ी "शुद्ध खद्दर भंडार' के सामने रोकी, पंडित ने दुकान में जाकर सेवाश्रम जा सकने के लिये अनुमति माँगी।

हरि भैया बात करते बाहर आ गये, "हमारी आवश्यकता हो तो साथ चलें। बेटी से आपका अकेले बात करना ही बेहतर। "

उस जमाने में बाज़ार दुकानें संध्या आठ बजे बन्द हो जाने का नियम न था । यूँ कहिये, बाजार रौनक पर संध्या आठ बजे से आते। बजाजे, सरफि, मनियारी, हलवाई और सभी दुकानें रात साढ़े ग्यारह बारह तक जगमगाती रहतीं। शुरफा और बड़े लोगों के बाजार का वही समय था। बाज़ार कर्मचारियों पर उस अति को रोकने के लिये दुकानों के खोलने- बनाने के समय की पाबन्दी का कानून बनाये जाने पर दुकान मालिकों ने सरकार के जुल्म से बहुत असंतोष भी अनुभव किया था "सब रोजगार चौपट हो जायेगा। हरि भैया उतनी देर से नहीं, दस बजे तक दुकान बढ़ा देते। बोले, "कोई जरूरत हो तो अपने विद्यार्थी

सत्यभूषण को पुकार लीजियेगा या गीता को।"

डाक्टर चौहान ने गाड़ी कैनिंग रोड पर कच्ची गली के सिरे पर खड़ी की। सत्यभूषण को पुकारने से किवाड़ खुल गये। सत्यभूषण ने अध्यापक का स्वागत कर उन्हें आँगन से कमरे के दरवाजे तक पहुंचा दिया। कमरे में बिना शेड बिजली का बल्बा खाट पर उपा के साथ एक और जवान खीं बैठी थी। उपा से बातचीत करती सलाइयों पर ऊन की बिनाई सीख रही थी। पंडित के आने पर युवती धोती के आँचल से सिर ढॉक कमरे से बाहर चली गयी। पंडित ने कुशल मंगल और सिर के जख्म के बारे में पूछा।

उषा ने गर्दन के संकेत से स्वीकार किया, सब ठीक था।

“बेटी, अब तो तुम्हारा मन शान्त स्थिर हो गया। हम तुम्हे लेने आये हैं!" उषा ने इन्कार का संकेत किया।

पंडित अपना क्लेश-क्षोभ छिपाकर बोले, "तुम्हें अपने घर-गली में लौटने से संकोच अनुभव हो रहा है, लेकिन तुम्हारा अपने घर या निकट सम्बन्धियों से दूर रहना भी सामाजिक औचित्य के अनुकूल नहीं है। जब तक मन का क्षोभ संकोच शान्त नहीं होता, तुम घर के बजाये लाहौर में अपने ताऊ के यहाँ वा आगरा में अपने मामा के यहाँ या जबलपुर में मौसी के यहाँ-जहाँ मन चाहे चली चलो। वहाँ महीना डेढ़ महीना रह सकती हो। जब चाहोगी लौट सकती हो या हम जाकर ले आयेंगे। पिछले वर्ष तुम कह रही थी. इतने समय से कहीं नहीं गये। लाहौर और जबलपुर तुम्हें पसन्द है। डाक्टर चौहान की गाड़ी सड़क पर है। गाड़ी में तुम्हारे लिये आवश्यक कपड़े, सफर के लिये कम्बल सब कुछ है। हम साथ चलेंगे। घर वा गली में न जाना चाहो हम सीधे स्टेशन जा सकते हैं। आठ बजने को हैं। पौने दस और सवा दस के बीच तीनों जगह के लिये ट्रेन मिल सकती है। कहाँ चलना चाहोगी?"

उषा ने इन्कार में गर्दन हिला दी।

"बेटी, वहाँ जाने में कोई संकोच या कुंठा का कारण नहीं माँ से कहा-सुनी या किसी अप्रिय प्रसंग की चर्चा की जरूरत नहीं। हम तुम्हें स्वयं ले जा रहे हैं।"

उषा से इन्कार का संकेत पाकर भी पंडित ने धैर्य से समझाया, "बेटा, आवेश से हठ

उचित नहीं। शान्ति से सोचो, हमें इन अपरिचित लोगों पर बोझ डालने का क्या अधिकार

है? तुम सदा यहाँ ही रहोगी?

उपा ने इन्कार का संकेत किया।

“आखिर तुम्हारा विचार क्या है?" दो बार पूछने पर भी उषा मीन।

"अब पड़ने का विचार नहीं?"

उषा ने हाथ हिला दिया नहीं मालूम।

"नौकरी करने का विचार है?"

उषा ने संकेत से स्वीकार किया।

"यहाँ नहीं रहोगी तो कहाँ रहोगी?"

"नहीं जानती।" हाथ से संकेत

"तुम कुछ भी नहीं जानती और इतनी जोखिम के कदम उठा रही हो। "

उषा निश्चल मौन

"इतनी बड़ी जोखिम किस प्रयोजन से?"

उषा निरुत्तर

• पंडित का क्षोभ अवश हो रहा था। दो मिनट तक सोचकर पूछ लिया, "तुम डाक्टर सेठ से विवाह करना चाहती हो?"

उषा निश्चल मौन

कुछ पल बाद पंडित ने प्रश्न दोहराया, "तुम दोनों ने विवाह का निश्चय कर लिया है?" उषा ने हामी में गर्दन झुकायी।

"तुम भावावेश में जो कदम उठाने के लिये तैयार हो गयी उसकी व्यावहारिक परिणति के विषय में भी सोचा है? जीवन केवल स्वप्र और कल्पना नहीं है। विवाह या गृहस्थ केवल दो व्यक्तियों का सम्बन्ध नहीं होता। तुम्हें रहना तो समाज में ही होगा। तुम्हारी आत्म- सम्मान की धारणा घर और गली में लौटने के मार्ग में बाधक है। हिन्दू समाज में तुम्हारा क्या स्थान होगा?" पंडित के स्वर में आर्द्रता । "हिन्दू समाज तुमसे घृणित और अस्पृश्य की तरह व्यवहार करेगा, तब क्या होगा?"

उषा की गर्दन एक ओर हो गयी। एक दीर्घ निश्वास। मौनः

"हिन्दुओं में जो उदार और सुधारक होने का दावा करते हैं, किसी मुसलमान वा क्रिश्चियन को परिवार में लेने से पूर्व उसे शुद्धि से कनवर्ट करना जरूरी समझते हैं यानी ईसाई परिवार की सन्तान अपवित्र, घृणित, अशुद्ध है। तुम्हें कनवर्ट या शुद्ध होना स्वीकार होगा? तुम हिन्दू साम्प्रदायिक विश्वास को अधिक तर्कसंगत उदार समझती हो?"

उषा ने स्पष्ट इनकार में सिर हिलाया।

"तो विवाह करके कहाँ जाओगी?"

उषा मौन, निरुत्तर।

पंडित दो मिनट गर्दन झुकाये सोचकर बोले, "बेटी, तुम इतनी सजग, समझदार होकर इस समय आवेश में आँख मूंदकर अजानी खाई में कूदने का आग्रह क्यों कर रही हो? घर या अपने सम्बन्धियों के यहाँ चलने के लिये जो शर्त चाहो बताओ।"

उषा निरुत्तर।

"कोई तो शर्त होगी?"

उषा ने सिर हिला दिया— कोई नहीं।

पंडित ने फिर भी समझाया, "बेटी, तुम मेरे परामर्श को चाहे अनुरोध समझो चाहे आजा, चाहे प्रार्थना, यहाँ से चली चलो।"

उषा से इनकार ही पाकर पंडित उठते उठले आई परन्तु संयत स्वर में बोले, "बेटी जा रहा हूँ परन्तु आशा नहीं छोडूंगा। जब भी तुम्हारा आवेश शान्त हो जाये सत्यभूषण या हरिकृष्ण जी से संदेश भिजवा सकती हो। परमेश्वर से प्रार्थना है, तुम्हें सुमति, शान्ति और कल्याण का मार्ग दिखाये।"

पंडित के कमरे से जाने के कुछ पल बाद गौरी ने झाँका उषा सिर दोनों हाथों में पकड़े निश्चल बैठी थी। गौरी समीप आयी। उषा से उत्तर न पाकर लौट गयी।

कंधारीबाग गली में पंडित का जितना आदर था उससे कई गुना क्षोभ उनके विरुद्ध

उमड़ पड़ा। किमग्रोव का पंडित से स्वाभाविक विरोध किम को विश्वास था, सब लोग उसके यूरोपियन रक्त का आदर करते थे। डाक्टर चौहान और वकील यूसुफ उसके मुँह न लगते थे। लेकिन किम के 'हलो!" का जवाब मुस्कराकर देते। किम की धारणा बन गयी थी, पंडित उसे घृणा से अनदेखा कर देता है। किम इस कल्पना से क्षुब्ध वॉन और फास्टर परिवारों, मिस जून को पंडित परिवार से वैयक्तिक विरोध न था। पंडित के यहाँ हिन्दू- मुसलमानों का अकसर आना-बैठना, खासतौर पर देशी ढंग का गाना-बजाना उन्हें नापसन्द था। बुड़िया जैन की न किसी से दोस्ती न दुश्मनी। उसे लड़कियों की ढिठाई और उच्छृंखलता से चिड़ थी, चाहे चन्द्रा, लूसी, शेरी हो या उपा

पंडित परिवार का विशेष मेल-जोल चौहान, सिंह और थोड़ा बहुत यूसुफ और मास्टर याकूब परिवारों से था। गली में आदर उनका सभी करते थे, खासकर मिस जून, याकूब, हैरन, विलियमा उनकी विद्वत्ता की प्रतिष्ठा थी। साल में एक-दो बार गिरजा में बोलते। बच्चों का संडे स्कूल भी कराते।

पंडित की बेटी के हस्पताल से गायब हो जाने पर संकट में चौहान और यूसुफ सब तरह की सहायता के लिये प्रस्तुत थे। धर्म और क्रिश्चियन बिरादरी की प्रतिष्ठा का प्रश्न लड़की बालिग थी और खूब पत्री-लिखी। इस कानूनी कठिनाई से भी सब परिचित, लेकिन बहुत कुछ सम्भव था। ईसाई लड़की के साथ ऐसी उच्छृंखलता करने वाले को शिक्षा देना तो जरूरी था ही पड़ोसियों और ईसाई बिरादरी को शिकायत पंडित तो ऐसे बेफ्रिक हैं कि लड़की रिश्तेदारों के वहाँ गयी हो या ससुराल

उषा के घर से जाने के आठ-दस दिन बाद वकील यूसुफ ने डाक्टर और मिसेज़ चौहान के सम्मुख वित्रता प्रकट की। वकील शाम हाईकोर्ट से लोंगे पर लौट रहे थे। एक मोटर उनकी बगल से गुजरी। सामने स्टियर पर जवान के साथ उषा पीछे दूसरा जवाना

वीरेन्द्रसिंह ने भी उषा को हजरतगंज में डाक्टर सेठ के पीछे मोटर साइकल पर देखने का जिक्र किया। अब पंडित परिवार के प्रति सहानुभूति से बात को दवाये रखने से क्या लाभ था। सभी लोग नाराज़, अपनी ईसाई बिरादरी की जवान लड़की को माँ-बाप के देखते हिन्दू जवान भगा ले गया। माँ-बाप के कानों पर जू न रेंगी। माँ-बाप से लोग सहानुभूति दिखाते या उनके नाम पर थूकते ।

मिस जून प्राइमरी स्कूल की मुख्याध्यापिका थी। सहजन की मुखी फली सी सिकुड़ी, सुखी, काली सदा सफेद झक साड़ी में चेहरा दुबला-काला, जैसे चुना पुते खम्भे पर कौवा बैठा हो। अपनी स्थिति के विचार से प्रायः अलग-अलग रहती, मितभाषी केवल जरूरत की बात करती। पंडित और सिंह के बेढंगे गाने-बजाने के कुप्रभाव की आशंका से मिस जून ने ठोक दिया था।

मिस जून म्यूजिक का आदर करती थी, लेकिन तानपूरा, तबला, सारंगी के साथ गाना उनके मत से प्रॉस्टीट्यूट लोगों का म्यूज़िक, खासकर पक्के राम और मीरा-सूर के गीत उनके विश्वास में अनक्रिश्चियन (अधार्मिक), असभ्य, अधीला सिंह के यहाँ ग्रामोफोन था और ऐसे गीत गानों के बहुत से रिकार्ड थे। पंडित का तानपूरा हारमोनियम लेकर घंटों सुर अलापते रहना, उनके यहाँ हिन्दू-मुसलमानों का आना मिस जून की नजर में आपत्तिजनक।

सिंह ने कह दिया, "यह तो डिवोशनल सांग है। गाने सुनने वाले की अपनी भावना से

भगवान के प्रति श्रद्धा के उद्वार। "

• मिस जून अपनी पोजीशन के कारण साहब लोगों की बोली बोलती थी हम तुमको बोला, हम ऐसा नहीं माँगता, पंडित, सिंह, चौहान का खयाल कि पक्के गीतों के बोल मिस जून क्या समझेगी? लेकिन मिस जून का जन्म आगरा के पड़ोसी गाँव में हुआ था। वो जन्म की बोली ब्रजभाषा के तरज़ मुहावरे से परिचित ।

"नॉनसेन्स!" मिस जून क्रोध में बौखला गयी, "लागे तोरे नयनवा के बान साँवरिया; श्याम हमारी बहियाँ गहो ना, हमते कछु और कहो ना - यह डिवोशनल सांग है!" आवेश में साहबी बोली का नियम भूल शुद्ध ब्रज में बोली, "यह डिवोशनल सांग तो छिनरा क्या होगा मोस्ट अलगर एण्ड डिंबाँच!" उसके बाद वे चुप हो गयीं।

लेकिन एम० ए० में पढ़ती जवान ईसाई लड़की को हिन्दू जवान बहकाकर भगा ले गया तो वह चुप न रह सकी: लड़की की समझ और पढ़ाई क्या करे? सुशिक्षित क्रिश्चियन परिवार में भी लड़की को बचपन से अनक्रिश्चियन गीतों से वासना और लम्पटता के संस्कार दिये तो परिणाम और क्या होता? लोग लम्पटता और विलास को डिवोशन मानें तो क्या आशा हो सकती है? भगवान इन्हें सद्बुद्धि दे।

चौहान, सिंह, हैरन और यूसुफ परिवारों को शिकायत लड़की के लच्छन छः महीने से देख रहे थे। लड़की को उसके मामा मौसी के यहाँ या दूसरी जगह भेज दिया होता। लड़की को समझा न सकते थे तो लड़की से लड़के को ईसाई कनवर्ट हो जाने के लिये जोर डलवाते । लड़की बेधर्म न होती और अपने धर्म का समाज बढ़ता।

पंडित क्या उत्तर देते, परन्तु इतना कह दिया, "विवाह या किसी भी प्रलोभन से ईसाई धर्म स्वीकार करने वाला सच्चा ईसाई नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति ईसाई समाज के लिये कलंक होगा। पूरी गली ने पंडित परिवार से असहयोग कर दिया।

पंडित का अधिकांश दिन गली से बाहर गुजर जाता, शेष समय पुस्तक पढ़ने में गुजार देते, परन्तु मिसेज़ और बेबे का बुरा हाल घर में समवेदना प्रकट कर धैर्य बँधाने वाला कोई नहीं। आपस में भी न बोलना चाहतीं। बेटी का चला जाना, तिस पर पड़ोसियों से अपमान, लांछना।

अमितानन्द सदा हँसता चहकता रहता था। उसे भी सन्नाटा मार गया। पूरा परिवार स्तब्ध, अपने अस्तित्व से लज्जित माँन। बिना आहट अपना-अपना काम कर लेते। पंडित के लिये बच्चों की उदासी असह्य पद्मा और सदानन्द दूसरे बच्चों की संगति के लिये तरसते रहते। पड़ोसी बच्चे अपने माँ-बाप की नाराज़गी के डर से कतरा जाते। पंडित के हृदय शूल बिंध जाता "ये लोग मानवमात्र के अपराध अपने सिर लेने वाले दयालु ईसू के अनुयायी हैं!

मैं

उषा ने पिता के साथ आगरा, जबलपुर या लाहौर जाने से भी इनकार कर दिया था। अब पंडित को सेवाश्रम जाना सह्य न था। आखिर विवशता स्वीकार कर ली— सेठ के सम्मोहन से कुछ भी सोचने में असमर्थ है।

पंडित चाहते थे, गली से बहुत दूर गोमती पार चले जायें। इतनी दूर कि उन्हें गली के अस्तित्व का और गली को उनके अस्तित्व का भास न हो सके। गली से बहुत दूर जाने में आशंका। पद्मा और सदानन्द लालबाग स्कूल में पढ़ते थे। बच्चों को स्कूल दूर हो जाने की

असुविधा।

पंडित के सहयोगी, क्रिश्चियन कालेज में फारसी के अध्यापक महबूब हसन बहूदी ने सूचना दी। वहदी के पड़ोस वालाकदर पर पथरी हाते में एक मकान दस-पन्द्रह दिन पूर्व खाली हो गया था। पंडित को बहदी की संगति पसंद थी। मिलनसार और गम्भीर साहित्यिक रुचि, आधुनिक ज्ञान हाते में चार मकान कुछ बड़े थे। दो में हिन्दू परिवार, एक में स्वयं वहदी, चौथे में अब पंडित शेष छोटे मकानों में कारीगर दस्तकार या छोटी नौकरीपेशा हिन्दू-मुसलमान। मकान में जगह कंधारीबाग गली वाले मकान से अधिक परन्तु बनावट पढ़ेदार चार कमरे और सामने दीवार से घिरा छोटा आंगना पंडित और अमित के लिये कालेज कुछ नज़दीक हो गया। बच्चों के लिये भी स्कूल विशेष दूर नहीं। क्रिसमस की छुट्टियों में पंडित ने नये मकान की सफाई-पुताई कराकर जगह बदल ली। पंडित के गली छोड़ने पर केवल मिस्टर सिंह और मास्टर याकूब ने उदासी प्रकट की, मिसेज़ सिंह ने नहीं।

समाचार से नगर के पूरे ईसाई समाज में सनसनी फैल गयी। क्रिश्चियन स्कूल-कालेज में अधिकांश अध्यापक ईसाई कालेज के प्रबन्धकों से भी असंतोष की आशा। पंडित को अंग्रेज प्रिंसिपल मिस्टर बार्नेट का सन्देश दफ्तर में भेंट के लिये मिला।

पंडित ने स्थिति स्पष्ट कर दी: यूनिवर्सिटी के वातावरण में नये विचारों का प्रभाव। विचार साम्य से उत्पन्न, उम्र के आवेश का आकर्षण लड़की बालिग है। पूरे यत्र से समझाने के बाद वे विवश

मिस्टर बार्नेट ने क्षोभ के बजाय सहानुभूति प्रकट की यौवन के आरम्भिक उन्मेष में विद्रोही विचारों का सम्मोहना अल्हड़ उम्र का उन्मादक आकर्षण सभी दुर्दम ऐसे वैचारिक विद्रोह की समस्या किस देश में नहीं? बताया स्वयं उनका बड़ा लड़का कम्युनिस्ट है। यह विज्ञान की शिक्षा को उच्छृंखल दृष्टिकोण से देखने का परिणाम इसका उपाय दमन नहीं विश्वासपरक तर्क की प्रेरणा ही कर सकती है।

रतनलाल सेठ बैठक में मसनद पर हुझा गुडगुड़ाते मास्टर जी के साथ बतिया रहे थे। "बन्दे मातरम्!" क्योड़ी से हरि भैया के आगमन की घोषणा।

"आओ, आओ भैये" सेठ जी ने सस्नेह स्वागत किया।

"काका पैरीपैना।" हरि भैया सेठ जी के प्रति आदर आत्मीयता में उन्हें खत्रियों की बोली में अभिवादन करते थे। घुटने छूकर मुस्कराये, "शुभ समाचार",

"जियो भैये। तुम्हारा दर्शन शुभ, तुम्हारे बोल शुभ कहो।" सेठ जी प्रसन्न, गद्गद हरि भैया ने अमर के सद्गुणों की सराहना कर कहा, “काका जी, व्याह अमर भैये का होना चाहिये, परन्तु समान गुण-धर्म लड़की से। तभी बेटे-बहू का जीवन सन्तुष्ट सफल हो सकेगा और आपको हमको संतोष अमर तो अभी मानते न थे, परन्तु भगवान की इच्छा, अवसर बना दिया।"

सेठ की बाछें खिल गयीं, "भैये, किनकी लड़की, कहाँ से संदेश?"

हरि भैया ने क्रिश्चियन कालेज के सम्मानित विद्वान प्रोफेसर धर्मानन्द पंडित की प्रशंसा की। पंडित जी की विदुषी सुलक्षणा रूपवती बेटी यूनिवर्सिटी में पन्द्रहवी जमात में पड़ती

יין

पंडित तो ब्राह्मण हुए! " सेठ जी ने टोका। चेहरे पर मुस्कान के बजाय विस्मय।

"हमारा अमर क्या कम ब्राह्मण!" मास्टर जी चुनौती से बोले, "ब्राह्मण का कर्म करे सो ब्राह्मण सेठ जी, पुराने संस्कार छोड़िये।

"क्या कह रहे हो?" सेठ जी और विस्मित।

"सुन लीजिये!" हरि भैया का स्वर शान्त, "कर्म और खानदान से ब्राह्मण परन्तु धर्मानन्द पंडित ईसाई हैं।"

"क्या?" सेठ जी का गला आवेश से अवरुद्ध, तेवर और गहरे ।

"सुन लीजिये।" हरि भैया ने हाथ सेठ जी के पाँवों पर रख दिये, “इसमें कसूर अपराध समझें तो हमारा। जो तय किया, आपको काका और अमर को छोटा भाई मानकर हमारी समझ में अमर के लायक कोई लड़की तो बस यह हम सुनी नहीं, खुद देखी-परखी कह रहे हैं। आपसे लुका-छिपी नहीं लड़की कई दिन से हमारे घर पर है। "

ओभ से सेठ जी की गर्दन घूम गयी।

"सुनिये काका जी!" हरि भैया बोले, "अमर व्याह करेंगे तो उसी लड़की से साफ बात कि दोनों में कील करार हो गये। अमर कौल से फिरने वाले नहीं। फिर जायें तो आपके बेटे नहीं, हमारे भाई नहीं।"

सेठ जी ने क्रोध की फुंकार से मुँह फेर लिया।

में पढ़ती

"उस लड़की से अच्छी निरभिमान, सेवाव्रती बहू दूसरी मुश्किल एम० ए० है।" अनुमोदन की आशा से मास्टर जी की ओर देखा, "भूषण की माँ को बर्तन माँजते देखे तो कहती है, यह हमें करने दो। आँगन बुहारती गौरी के हाथ से झाड़ू ले ले - जीजी, यह हम करेंगे।"

"वाह वाह!" सराहना में मास्टर जी की बाहें फैल गयीं, "यह है असली मुलक्षणा आर्य कन्या के लक्षण, ऊँचे खानदान की बहू होने योग्य ईसाई क्रिश्चियन क्या; ब्राह्मण का खून। हवन पर बैठकर गायत्री मंत्र का आचमन किया और शुद्ध हो गयी। "

"नहीं नहीं, यह कुछ नहीं ।" सेठ जी ने इनकार में हाथ मिलाया, “भैये, हम नहीं जानते थे, हमारी कुल की नाव में तुम्हीं छेद करने का जतन करोगे।"

"काका जी," हरि भैया ने फिर सेठ जी के पाँव पर हाथ रख दिया, "हम आपके हमारा कुसूर देखें तो जूता मार सकते हैं। हम सिर बचाने के लिये हाथ उठायें तो गांधी के चेले. हरिकृष्ण नहीं। पर काका जी, जूता सहकर भी कहेंगे अपनी समझ से आपके अमर के हित और सत्य न्याय की बात"

"यह कौन सत्य - न्याय कि तुम किसी के कुल बस में कलंक लगा दो! अमर से कह दो साफ, हमारे जीते जी यह नहीं होने का यह करना है तो पहले हमें भैंसाकुण्ड (मरघट) पहुँचा दे। ईसाइन ब्याह कर बेजात हो जायेगा तो हमारी मिट्टी को हाथ नहीं लगा सकता।" सेठ जी क्रोध से धुंधला गये।

हरि भैया ने माथा सेठ जी के गाँव से छुआ दिया, "काका जी, अमर निर्दोष है, सच्चा है। उसे आशीर्वाद दीजिये।"

"हमने कह दिया"।" सेठ जी बोल न पाये, मुँह फेर लिया।

हरि भैया ने सिविल मैरेज कानून के बारे में प्रामाणिक जानकारी के लिये वकील कोहली से राय ली थी। कोहली को सब स्थिति बताकर सहायता के लिये अनुरोध भी किया। सेठ जी पर कोहली का प्रभाव जानते थे। कोहली से उदार विचार की आशा । कोहली ने परामर्श दिया था, "पहले तुम बात करो, देखो क्या कहते हैं। हमें बता देना।" कोहली साँझ सेठ जी के यहाँ पहुँचे तो हरिया को पुकार लिया, “चिलम तो जमाओ महबूब के खमीरे की।"

रतनलाल भाई, तुम फिजूल उदाना" कोहली ने सीधे प्रसंग उठा लिया "हमने हरिकृष्ण और मास्टर से सब सुन लिया। हम लोग अपने बेटों-बेटियों के खयाल और पसन्द अपने जमाने से नहीं तौल सकते। हमारे तुम्हारे व्याह हुए तो गठरी-सी बँधी बहू से गठजोड़ा [ गया था। हमारे लड़के ऐसी बात कैसे मान लेंगे।

"रतनलाल भाई, आपकी बात में बहस नहीं चलती। कहो हम दस दलील दे दें, अमर ठीक कर रहा है। हम तुम जात-बिरादरी का मुंह देखें कि अपने लड़कों का भला और सुख- संतोष देखें सोचो आज से तीस बरस पहले की बातें कौन जाने बीस बरस बाद क्या होगा?" स्वर जरा दबा लिया, "तुमसे जिक्र नहीं किया, डेढ बरस पहले हम और नरेन्द्र की माँ हफ्ते भर को दिल्ली गये थे ना हमारी मीरा है। पाँच बरस पहले, अभी पढ़ रही थी तो दिल्ली में ही एक वैरिस्टर सरीन हैं. उन्होंने नीरा को अपने बेटे के लिये माँग लिया। दोनों घरों का मिलना-जुलना था। जया ने मीरा से बात की। उसने माँ को साफ कह दिया, हम सरीनों के पर शादी नहीं करेंगे करेंगे तो बता दिया-दिल्ली के माथुर हैं, उनका लड़का कालेज में प्रोफेसर है।

“सरीन को देखो। बैरिस्टर हैं पर झगड़ने लगे, यह कैसे हो सकता है। इसमें हमारी हेठी है। हम दामाद देवराज की तारीफ करेंगे। उसने साफ कह दिया, आपके कहने से हमने हाँ कर ली थी। तब लड़की छोटी थी। अब लड़की कानूनन बालिग उसका मन नहीं तो हम ज़बर्दस्ती नहीं कर सकते। हमारा फर्ज बेटियों बेटों को अपना रास्ता ढूँढने लायक बना देना है। रतनलाल भाई, अब वह जमाना नहीं रहा। हों, अभी नौ-दस महीने पहले गोविन्द अरोड़ा का लड़का है न गोपाल, एम० ए० पास; कांग्रेस-बांग्रेस का काम भी करता है। उसने बी० ए० पास ब्राह्मण लड़की से शादी कर ली। अरोड़े और ब्राह्मण दोनों नाराज: हम बिरादरी से छेक देंगे रोटी-बेटी, हुक्का-पानी बन्द कर देंगे। गणेशगंज वाले ब्राह्मण तिवारी जी खड़े हो गये कौन है बिरादरी से छेकने वाला! सब हिन्दू एका हम उनके यहाँ खायेंगे। जिसमें दम हो, हमें छेके बिरादरी से ""

कोहली ने दो साँझ समझाया। सेठ जी को धर्म और बिरादरी की परम्परा का उल्लंघन किसी तरह स्वीकार न था। कोहली तीसरे दिन आये तो स्वर दबाकर बोले, "हम तुम इस उम्र के थे तब की याद करो। तुम्हारी हम, हमारी तुम कुछ तो जानते ही हैं। घरों में बहुएं, बाल-बच्चे पर उससे क्या मन भर जाता था? तुम व्याह कर दोगे यह एक बात पर जहाँ इन्सान का दिल लग गया, उसे भूल जायेगा? एक घरवाली एक माणूका वे जमाने लद गये रतन भाई बेहतर जहाँ दिल रम गया वही घरवाली हो।"

सेठ जी और क्षुब्ध, "वकील भाई, बहकी-बहकी बातें मत करो। कायदा यही कि इश्क- तफरीह अपनी जगह, घर-गिरस्थी अपनी जगह इश्क-तफरीह की खातिर कोई अपना बंस

बोर देगा!"

रतन भाई यही तो समझ का फर्क !" कोहली ने आग्रह किया, "जिसे तुम तफरीह कहो, हमारे लड़के उसे पवित्र प्रेम, ईमानदारी और फर्ज़ कहने लगे।"

"अमों, उस बात में क्या पवित्र?" सेठ जी भड़के, "पवित्र तो कुल गोत्र की व्याही बहू जिससे अपना वारिस, नामलेवा पैदा हो। "

कोहली ने अंतिम बाण छोड़ा, "रतन भाई, देख लो, नरेन्द्र इसी बात पर चिड़कर घर से अलग रहने लगा। तुम अंग्रेजों के शहनशाह एडवर्ड का किस्सा भूल गये? दो ही साल पहले की तो बात इतनी बड़ी सल्तनत कि सूरज न लाँघ सके। औरत को दिये कॉल की खातिर सल्तनत पर लात मार दी। भैया, यह जमाना दूसरा " कोहली की अन्तिम बात सेठ जी को गहरी लग गयी।

हरिकृष्ण भैया के सुझाव पर छः दिन अमर घर न गया। इस बीच हरि भैया और कोहली सेठ जी से बात कर चुके थे। सेठ जी का क्षोभ कुछ पराजय, कुछ निराशा में छितरा गया था। दो दिन से सोच रहे थे हमारा क्या; पके फल, कब टपक पढ़ें। हमारे बाद क्या होगा? अमर हमारे आँख मूँद बाद कुछ करता, हमें क्या पता चलता, हम क्या कर लेते? अपनी इज्ज़त सम्भालना उसका काम भगवान जिसे जैसी समझ दें। हरिकृष्ण और कोहली कहते हैं, हम गलती पर वह ठीक सेठ जी को सबसे अधिक परास्त कर दिया पुरानी याद ने ऐसे मामले में आदमी की जिद्द बुरी होती है। भतीजे हीरालाल किसनलाल कमीने थे। नखास वाला मकान ईशा के लिये रजिस्ट्री कराने पर उन्होंने वाला किया तो हमने भी घर कारोबार का बँटवारा करके दम लिया। उस वक्त बड़े भैया रहते हमारे उस काम पर एतराज करते तो हम जरूर अड़ गये होते- हमारा हिस्सा बाँट दो। वह तो ईशा औरत दूसरे किस्म की है। कहीं उसने जिद्द पकड़ी होती, मुसलमान हो जाओ! कौन जानता है, क्या हो जाता

आजकल के लड़के अमर, नरेन्दर तो यों भी रुपये-पैसे, जगह-जायदाद से वैरागी । लड़की को लेकर चल दे। डाक्टर को दो-ढाई सौ की नौकरी जहाँ जायेगा मिल जायेगी। हमारा क्या होगा? कँपकँपी आ गयी। फिर चिन्ता, इस आँगन, रसोई चौके में किरस्तान लड़की! गंगा क्या करेगी और हम क्या करेंगे? हे भगवान, ऐसे हो कि लड़के के मन की हो जाये और हमारी जिन्दगी में हमारी बात भी रह जाये जवानी में सभी करते हैं। हम उसे कब टोक रहे हैं। जो चाहे करे, बस किरस्तान से ब्याह न करे। ब्याह होता रहेगा। हम सब भुगत लेंगे।

सेठ जी हफ्ता भर बहुत व्याकुल रहे। कोहली, हरिकृष्ण, मास्टर जी, जिनसे आन्तरिकता थी, जो रहस्य जानते थे, सब उलटी बात कह रहे थे। सेठ जी को अडिग विश्वास: इन लोगों की मानें तो समाज संसार थू-थू करेंगे। बदनामी तो फूस की आग की तरह फैलती है। उपाय अपनी सूझ-समझ से करना जरूरी। शनिवार साँझ बेटे की प्रतीक्षा में बैठक में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे।

अमर शनिवार को आया। हुक्का गुड़गुड़ाते पिता का चिन्ता से पीला उतरा चेहरा देखकर अमर का मन दुखी।

सेठ जी ने आशीर्वाद देकर हाल-चाल पूछा। स्वर लहजे में नाराजगी का लेश नहीं। याद दिलाया, "कालेज में काम का तुम्हारा समय समाप्त हो रहा है। प्रैक्टिस के लिये जगह- दुकान कब देखोगे? उसमें समय लगेगा।"

अमर ने संकोच से बताया: नौकरी के लिये दरखास्त दे दी है। जहाँ भेजा जायेगा, जाना होगा।

अमर के पोलिटिकल कामरेड चाहते थे, अमर लखनऊ में रहे, लेकिन अब उषा के कारण अमर को पृथक घर बनाना जरूरी। शहर में सरकारी नौकरी मिल सकना बहुत- बहुत कठिन योजना थी, उषा विवाह के बाद गर्ल्स होस्टल में रहकर एम० ए० की पढ़ाई पूरी करेगी। वह नौकरी पर चला जायेगा।

"हमने कह दिया था, नौकरी नहीं करनी प्रैक्टिस करोगे।" सेठ जी का स्वर आई, "सोचो बेटे, हम पका फल तुम नौकरी पर जाने कहाँ हो, हम टपक पड़े ।"

"चना, ऐसा क्यों कहते हैं।" अमर संकोच से बोला, "चच्चा. हम घर पर तो रह नहीं पायेंगे। हरि भैया ने "

बेटे को असुविधा से बचाने के लिये सेठ जी ने टोका, "हम जानते हैं, प्रैक्टिस इस गली- मकान में नहीं हो सकेगी। तुम हस्पताल वाली सड़क पर या जहाँ तुम्हें जैचे, जगह ले लो। डाक्टरी के लिये बैठक हो और दो कमरे उठने-बैठने को आराम-कुर्सत से रहो, काम करो।' चा, नौसिखियों की प्रैक्टिस जमने में बरसों लग जाते हैं। बीसियों पुराने डाक्टर मक्खी मार रहे हैं। दुकान-मकान का किराया भी नहीं निकलेगा।"

"ऐसे दिल छोटा नहीं करते।" सेठ जी ने समझाया, "रोज़गारों में बीमियों मस्त्री मारते हैं और मुझ और हिम्मत वाले चल निकलते हैं। दुकान-मकान के किराये की तुम्हें अभी से क्यों फिका नौकरी में देव-दो सौ ही तो पाओगे।" सेठ जी ने सदरी के भीतर की जेब से नोटों की गड्डी निकाल ताश की गड्डी की तरह अमर के सामने पटक दी, "उठाओ और रखो, अपनी मनमाफिक जगह का इंतज़ाम कर लो।"

अमर इसके लिये तैयार होकर न आया था, "चचा, इतना हम क्या करेंगे? जरूरत पर लेते ही रहते हैं।" मनपसन्द की गड्डी पर धप्प से अनुमान, पाँच के सी नोट भी हो सकते हैं। "रखो जेब में!" सेठ जी ने लाई से आदेश दिया, "ऐसे बैरागिया बने मत घूमा करो। डाक्टर हो। भले आदमी की जेब में सौ-पचास रहना चाहिये।"

हरि भैया से मालूम था, उषा से उसके विवाह में पिता को घोर आपत्ति है। पिता से रुपया लेकर उनकी इच्छा के विरुद्ध काम में व्यय करना अमर के विचार में अनैतिक । झिझक से बोला, "हरि भैया ने आपको बताया होगा, हम एक लड़की से अदालती ब्याह "1"

सेठ जी ने बेटे को सुनने का संकेत किया, "फिजूल के चक्कर में मत पड़ो। बेफिक्र आराम से जैसे चाहो रहो और प्रैक्टिस जमाने का खयाल करो। व्याह-व्याह कहीं इतनी जल्दी में होते हैं। वह अपने वक्त पर होता रहेगा।"

पिता का संकेत समझ अमर का चेहरा गम्भीर, तुरन्त कह दिया, "चच्चा, हम तो निश्चय कर चुके"

"अच्छा-अच्छा, यह जेब में तो रखो।" सेठ जी ने बात समाप्त कर दी, “भीतर चलो,

गंगा बाट देख रही है।"

•अगले शनिवार सॉझ अमर का मन घर जाने को न था। न जाता तो हरिया खैर-ख़बर के लिये दौड़ा आता।

सेठ जी प्रतीक्षा में बैठे थे। कुशल-मंगल के बाद पूछ लिया, "बेटे, कोई जगह जँची ?" "बच्चा, अभी तो कोई जगह नहीं दिखायी दी।" अमर ने नज़र बचाये कह दिया, "चलिये, कुछ खा लें। भूख मालूम हो रही है। नौ बजे एक जगह जाना है।" अमर जल्दी भागना चाहता था।

अब्दुल लतीफ दसवें पन्द्रहवें आकर खैरोआफियत पूछ जाता। सेठ जी स्वयं भी दूसरे- तीसरे हफ्ते रतनी और बच्चों के मोह में हालचाल पूछने खिंचे चले जाते।

खास जाते समय बच्चों के लिये रामआसरे की दुकान से ताज़ी महकती मिठाई का छींका या मौसमी फल ले जाते और इंशा के लिये गिलौरीदान में पत्त के यहाँ से मौसम अनुकूल केवड़े गुलाब में पगे कत्थे की, शाही किमाम लगी गिलोरियाँ भरवा ले जाते। ईशा के यहाँ सेठ जी का नेचा अब भी बरकरार था। रतनी चच्चा और अम्मी के लिये तुरन्त अपने हाथ से नेचे ताज़ा करके चिलमों में बढ़िया खमीरा सुलगा देती। सेठ जी बच्चों को मिठाई और जेब खर्च देकर बगल के आँगन के कमरे में मसनद पर ईशा के कंधे से कंधा सदाये बैठ जाना चाहते। उसके हाथ प्यार से मचलने लगते।

ईशा सेठ जी का हाथ अपने हाथ में काबू किये प्यार से घुड़की देती, “हाय अल्ला, कुछ तो शर्म करिये। हम लोग नाती-पोते वाले हुए। अब उनका वक्त हमारी तसल्ली उनकी ख़ुशी में।" ईशा का चेहरा दुबला जाने से आँखें और बड़ी जान पड़तीं। आँखों में सेठ जी के सामीप्य से मादक चितवन आ जाती।

सेठ जी निराशा का विश्वास लेते, "तो हमारी ज़िन्दगी खत्म। हम चलती फिरती

लाश।"

ईशा विव्हलता से उनका हाथ उठाकर चूम लेती या क्षण भर को अपना सिर उनकी बाँह से टिका देती, "मालिक, ऐसा नहीं कहते। हम तो आपकी खुशी पर कुर्बान हम भी तो जिन्दा इन्सान हैं। " आँखें नम हो जातीं।

गरमी के मौसम में सेठ जी बेला मोगरे के गजरे ले जाना न भूलते। आँगन में तकियेदार मोठे एक-दूसरे से सटाये, नेचे गुडगुडाते, घंटे-डेड घंटे एक-दूसरे की आँखों में देखते- मुस्कराते, प्यार के उन्माद में पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिये दबी जबान में कहने लायक बातों की खुसर-पुसर। ईशा के यहाँ डेड-दो घंटे बैठकर सेठ जी की पखवाड़े महीने की ऊब और थकावट दूर हो जाती। रतनी जानती थी, चच्चा हो जाते हैं तो अम्मी की तबीयत हफ्ता- दस दिन बेहतर रहती है। अम्मी को उदास देखकर खुद भी उदास। लतीफ से ज़िक्र कर देती, "चच्चा, बहुत रोज से नहीं आये आप ही उधर हो आइयेगा।" अभिप्राय चला को नखास की याद दिला देना होता।

लतीफ जनवरी के आरम्भ में आया तो सेठ जी के चेहरे और स्वर की दुर्बलता से चकित। पूछ लिया, "किल्ला, दुश्मनों की तबीयत तो ठीक है?"

"ठीक है बरखुरदार।" सेठ जी ने टाला। रतनी और बच्चों का हाल पूछते रहे।

लतीफ बैठक से लौट रहा था, गली में हरिया को देखकर पूछ लिया "महतो, मालिक

कुछ ढीले लगे। कुछ मांदगी वांदगी रही है क्या!"

हरिया लतीफ से बतियाता उसे सीधी गली में तबेले की ओर ले गया।

सेठ जी, मास्टर जी, कोहली, हरिकृष्ण भैया का विचार था किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, जैसा समय आयेगा देख लिया जायेगा, परन्तु रहस्य और गंध छिपते नहीं। गली में कई अफवाहें चल रही थीं। कोई कहता, अस्पताल की गोरी मिसिया है; कोई कहता, देसी मेम है: कोई कहता किरस्तानी है। हरिया और गुन्ने ने जो-जो सुना था, मालिक की चिन्ता - सहानुभूति में अब्दुल लतीफ को बता दिया।

ईशा ने सुना तो बहुत चिन्तित। सेठ जी की परेशानी का कारण ठीक न मालूम होने से और व्याकुल दामाद से कहा, "कल ही हमारा सलाम कहना, यहाँ तशरीफ लाने की जहमत गवारा करें ।"

ईशा, अब्दुल लतीफ और रतनी में तय हुआ: अमर भाई से बात करना बेहतर। वे दूसरे खयाल के हैं। सही बात बता देंगे या इनकार कर देंगे। अन्दाज़ हो जायेगा, आपका किला से कुछ कहना मुनासिब है या नहीं।

बरस भर पूर्व पिता के साथ लतीफ के यहाँ जाने के बाद से अमर उधर कई बार हो आया था। लतीफ दोनों ईदों पर ईद मिलने आया और अमर को खाला का सन्देश दे गया। अमर भी ईद मुबारक कहने गया। इस मौके पर खाला और आपा ने उसे खाना भी खिलाया।

ईशा ने कहा, "बेटे, हमें सही बात बता दो, माजरा क्या है?"

अमर कुछ झिझका लेकिन वाला ने जैसे पलंग पर बगल में बैठाकर सिर चूमकर, उसे अपनी शीर्ण बाँह की कीली में लेकर बात की, अमर बह गया, "मौसी, वचा को अपने खयाल हमारे दूसरे हम और वो लड़की बिरादरी और मज़हब की दीवारों को नहीं मानते। हमारा ख़ुदा और मज़हब सञ्ज्चाई और इन्सानी इन्साफ और इन्सानी बरावरी।" मन में दवा क्रोध भड़क उठावा की मंशा कि हम उससे तफरीह बेशक करें, शादी नहीं करे। हमसे ऐसे धोखे, जुल्म और गुनाह की उम्मीद "

अमर को बिदा देने के लिये ईशा ने उसे सीने से लगाकर सिर चूम लिया, “बेटे, अपने कौल पर कायम रहो। खुदा तुम्हारा मददगार।"

सन्देश पाकर सेठ जी खास गये। विस्मय और दुख से ईशा की आँखें उबल पड़ीं। उसने रतनी और बच्चों को दूसरी तरफ रहने को कहकर साफ बात की, "गलत जिद्द में खुद को घुला रहे हैं और जायज राह पर चलते बेटे को गुनाह जुल्म के लिये मज़बूर कर रहे हैं।" सेठ जी को भी क्रोध आ गया, "हम अपना कुल खानदान बोर दें। ऐसी हरकत करेगा तो हम विरासत से फरागती दे देंगे। बेटे के रहते निरबंसिया, नाबूद हो जायेंगे।"

ईशा दबी नहीं, "मालिक जो चाहते हैं, हमें सब मालूम नाबूद निरबंसिया कैसे हो जायेंगे? आपके बेटे की औलाद किसका वंस होगी? कोई जाने न जाने, अल्लाह जानता है. कि यहाँ भी आपकी औलाद रतनी की जगह लड़का हुआ होता तो? अब हम कह दें, रतनी पेट में थी तो ऐसे खयाल से रूह काँप जाती थी। आपने फर्ज निवाहा लेकिन हमारा हक या दावा क्या था? आपसे कभी कहा नहीं। इसी खयाल में हमने पहला गिरा दिया था पर रतनी की बार अम्मा ने ऐसी कड़ी निगाह रखी और हमारे मन में भी ऐसा मोह आ

गया ।" आँखें पोंछ लीं, “अपने बेटे से भी ऐसा जुल्म करवाना चाहते हैं? सोचिये, लड़की भी कैसी, आपके बेटे की खातिर घर-बार को लात मारकर जोगन बन गयी।"

सेठ जी निरूत्तर होकर और कुछ, "कर लेने दो कमबख्त को अपने मन की! उससे पहले हमारे लिये नदी है।"

"बस मालिक !" ईशा ने सेठ जी का हाथ पकड़ लिया। तर्जनी उठाकर चेतावनी, "मालिक, यह धमकी हमें न देना। जानते हैं, हम कैसे ज़िन्दगी कर रही हैं। यहाँ नदी तक जाने की भी जरूरत नहीं, अफीम हमारे पास है। दुनिया नहीं जानती आप जानते हैं। और ख़ुदा जानता है, बेटे पर हमारा भी हक हमारी सौत के पेट से है तो हमारा भी है। आप बेटे पर जुल्म करें तो माँ कैसे चुप रहे और सुन लीजिये, जिसे बीवी कबूल किया है, हकीकत और ख़ुदा की नज़र में आपकी हमारी बहू। हम जानते हैं, हमने जिन्दगी कैसे काटी। हम पर जो गुजरी, बर्दाश्त कर ली। अपनी बहू पर जुल्म नहीं होने देंगे।"

जनवरी के दूसरे शनिवार अमर संध्या घर आया। पिता को 'पैरपेना' कर समीप बैठकर हाल-चाल पूछा। हरिया को पुकार लिया, “बुआ से पूछो व्यालू के लिये आयें।" चाहता था, पिता से कुछ अप्रिय चर्चा होने से पूर्व लौट जाये।

"कोई जगह दुकान-मकान के लिये देखी?" सेठ जी ने पूछ लिया।

अमर की नज़र झुक गयी। मसनद पर उँगली से अदृश्य आकृतियाँ बनाते हुए बोला, हरि भैया ने बताया कि वो आपको पसन्द नहीं।"

सेठ जी विवशता में झल्ला उठे, "हरि भैया फिजूल ऊल-जलूल बकते हैं। हमारा जो कुछ है क्या तुम्हारा नहीं है?" भीतर की जेब से चाभी का गुच्छा निकाल अमर के सामने पटक दिया, "इसे हम कब तक सम्भाले रहेंगे। हम कलेजे पर घर कर ले जायेंगे! तुम जानो तुम्हारा काम जाने। हमें अपना पुराना तरीका पसन्द है। तुम्हें नहीं पसन्द, जो करना है करो। तुम्हारा मन करें, अदालत में नहीं ससुर मसजिद गिरजे में ब्याह करो। हम बारात शादी में शामिल नहीं होंगे। बहू तो बहू। जहान बिरादरी जो कहेंगे सुनेंगे। कह देंगे, हमारा जमाना निकल गया। अब हमारा वक्त भगवान को याद करने का। ये सुन लो, हम और गंगा ईसाई की बेटी के हाथ का नहीं खा सकते। हम और गंगा यहीं रहेंगे। बहू दूसरे मकान में रहेगी। अपने मकानों में कोई पसन्द हो तो खाली करा लो नहीं अपनी पसन्द का किराये पर ले लो।'

सेठ जी का स्वर समझाने का हो गया, "हमने कहा था डाक्टरी के लिये गोलागंज और क्लब के बीच की जगह अच्छी रहेगी। हस्पताल की सड़क है। मरीजों के आने-जाने का रास्ता। वहाँ एक बॅगलियानुमा मकान महीनों से खाली है; पीली पुताई है, छत पर खपरैल। हमारे अन्दाज़ में जगह काफी है। किराया भी ज्यादा नहीं होगा। हमने पता लिया है. मकान मालिक बुलन्दबाग में फाटक हशमत खाँ की बगल पटिया में रहता है। तुम्हें झिझक हो तो हम बात कर लें।"

• सबसे बड़ी अड़चन सुलझ जाने से अमर बहुत उत्साहित। दूसरे दिन संध्या बुलन्दवाग में किशन परसाद सक्सेना, रिटायर्ड पेशकार के मकान पर पहुँचा सक्सेना अपने मकान के सामने गली में मोड़े पर बैठे थे। समीप दूसरे मोड़े पर बैठे व्यक्ति को कानूनी पेंच समझाने में व्यस्त।

साँझ की सर्दी में शरीर पर गहरी कत्थई रंग उड़ी ऊनी शेरवानी कालर से तीन इंच नीचे तक चिकनी मैल की चमका शेरवानी कंधों पर छन चुकी थी, कोहनियों पर पैबन्द सिर पर काली ऊनी किश्तीनुमा टोपी। टोपी की बाड़ पर आधी ऊँचाई तक चिकनाई की

चमका

सेठ की मोटर साइकल देखकर सक्सेना स्वागत में खड़े हो गये। सेठ के आदाब अर्ज करने से पहले ही गर्दन झुकाकर लखनौआ अन्दाज से आदाब किया "जनाव का इस्म मुबारिक खाकसार के लायक खिदमत इर्शाद फर्माइये।"

सेठ ने अपना परिचय दिया, "खादिम को अमरनाथ सेठ कहते हैं। मेडिकल कालेज हस्पताल में काम कर रहा हूँ।"

तेरह-चौदह बरस का एक लड़का तार ऐंठाकर बनाई दीन की कुर्सी ले आया। लड़के ने बहुत सलीके से सलाम किया।

“ज़हेकिस्मत।” सक्सेना ने गर्दन झुकाकार आदाव का संकेत किया, "न्याज़ के मौके से अज़हद खुशी हुई।"

दिया।

पूछा।

"बेटे, डाक्टर साहब को पान पेश करो।" सक्सेना ने टीन की कुर्सी लाने वाले को आदेश

"हास्पिटल रोड पर खपरैल की छत का बंगलानुमा मकान आपका ही है?" सेठ ने

"आपका कयास दुरस्त है। बंगला आपका ही है।" सक्सेना ने स्वीकारा।

सेठ ने अपना प्रयोजन बता दिया, "वह मकान खाली है। मुझे किराये पर मकान की जरूरत है।"

क्या फर्माया साहबजादे!" सक्सेना के माथे पर शिकन, स्वर में विनय के बजाये क्षोभ, "हमारी जायदाद किराये पर लेंगे? आप फर्मा क्या रहे हैं। जनाब, आप किससे बात कर रहे हैं। किस बत्तमीज़ ने आपसे कहा, हम अपना बंगला किराये पर देंगे! शुरफा का गुफ्तगू का यह तरीका है।"

सेठ सकते में क्षमा माँगी, "बेअदबी के लिये मुआफी चाहता हूँ। सुना था, मकान अरसे से खाली है। मकान किराये पर लगता रहा है।"

"किस जाहिल ने ऐसी गुस्ताखी की।" सक्सेना और नाराज़।

सेठ ने फिर मुआफी मांगी, “रिहाइश की जगह के लिये परेशानी में मुझसे ऐसी गुस्ताखी हो गयी।" वह लौटने के लिये उठ खड़ा हुआ।

"बैठिये, बैठिये साहबजादे ! जरा इस्तकबाल से काम लीजिये।" सक्सेना का स्वर बदल गया, "जनाब का दौलतखाना किस शहर में?"

सेठ फिर बैठ गया। संकोच से बताया, "रिहाइश लखनऊ की है। मकान राजाबाज़ार छोटी गली में है। वालिद रतनलाल सेठ सर्राफ हैं।"

सक्सेना ने समीप बैठे व्यक्ति की ओर देखा, "बल्लाह! देखिये क्या जमाना आ गया! लखनऊ के रईसजादों के तर्जे गुफ्तगू का यह हाल सब नामुराद अंग्रेजी तालीम के असर कि शुरफा भी अपनी तहजीब भूल गये।" सेठ की ओर घूम गये, "साहबजादे, यो फर्माइ

कि आपको रिहाइश की जगह की ज़रूरत है। हमारी जगह आपको जरूरत में काम आ सके, यह हमारी खुशकिस्मत साहबजादे, गुफ्तगू का एक नलीका होता है। हमारा बॅगला है तो आपका ही है आपकी ज़रूरत पूरी हो, यह हमारे लिये खुशी का मौका।"

सेठ ने रईसी के पाखंड पर दांत पीस लिये, परन्तु धन्यवाद दिया, "आपकी इनायत के लिये मशकूर हूँ, लेकिन "।"

"साहबजादे," सक्सेना ने टोक दिया, "उस फिक्र की ज़रूरत नहीं। डाक्टर के मतलब के लिये उससे बेहतर जगह नहीं हो सकती।"

समीप बैठे व्यक्ति ने समर्थन किया, "डाक्टर साहब, सक्सेना साहब को ऐसी बातों की क्या परवाह। आप समझते हैं, रस्म के तौर पर मुंशी जी के कारिन्दे को कुछ माहवारी बखशीश दे दीजियेगा।"

"अन्दाज़ हो जाना बेहतर है।" सेठ ने कहा।

"ऐसी मामूली बात का क्या जिक्र। तीन महीने पहले तक वहाँ पी० डब्ल्यू० डी० के साहब रहते थे। हमने रसूख था। ये ही बीसेक रुपया महीना दे जाते थे। ये देखिये कि बंगला सरे राह पर लंबे सड़क सामने जगह, पीछे पर्देदार आँगन आला अफसरान या डाक्टर- वकीलों के लायक जगह।"

रुपया सेठ जी के जेब में था। दस दस के दो नोटों को पुड़िया की शक्ल में मोड़कर बहुत विनय और झिझक से सक्सेना साहब की ओर बढ़ा दिया, "किल्ला ये रख लेने की जहमत गवारा करें।"

"साहबजादे, इस परेशानी की क्या जरूरत।" सक्सेना साहब ने अनिच्छा से हाथ बढ़ाकर नोटों की तरफ नजर डाले बिना उन्हें शेरवानी की जेब में रख लिया।

• अमर की पूरी योजना और कार्यक्रम बदल गये। उस सप्ताह उसे कालेज से छुट्टी हो गयी। मकान को ठीक कराने में लग गया। सिविल मैरेज की तारीख में केवल बारह दिन। जल्दी-जल्दी मकान की मरम्मता जरूरी सामान किराये पर उषा दस ग्यारह के करीब सेवाश्रम से इक्के पर यूनिवर्सिटी चली जाती। ढाई-तीन तक यूनियन हाल आ जाती। सेठ उसे मोटर साइकल पर मकान के प्रबन्ध के लिये हास्पिटल रोड पर ले जाता। दोनों उत्साह से अपना घोंसला बना रहे थे। तीन-चार घंटे दोनों वहीं रहते। एक कमरा सेठ की प्रैक्टिस के लिये। बीच में बड़ा कमरा बैठका फर्श पर नारियल का मैटिंग सोफा कुर्सियाँ साबुत बेंत के बने, सस्ते परन्तु टिकाऊ। बगल के कमरे में पलंग उषा की राय से रसोई गुसलखाने के लिये जरूरी सामान अब वे कंधारीबाग गली में सैद्धान्तिक बहस करने वाले गुरु-शिष्य कामरेड नहीं, प्रणय बंधन की रात्रि की प्रतीक्षा में आकुल प्रणयी सेठ के स्पर्श से उषा का रोम-रोम झनझनाकर अवश सहारे की व्याकुलता से आतुर। सेठ को भावातिरेक और उन्माद का आवेशा उसकी संयम की सतर्कता जाग उठती। सेठ के संयम के लिये सराहना से उपा को उसके प्रति और आदर

वकील कोहली सेठ जी को इतनी बार समझाकर भी उनका विचार बदलने में असफल रहे। विवाह की तारीख में दो दिन का अन्तर रह गया तो उन्होंने सेठ जी से स्पष्ट कह दिया, "नाराज़ नहीं होना। हमारी राय में अमर बेटा सही काम कर रहा है। हमें बहू पसन्द हम तो शादी में जरूर शरीक होंगे।"

मास्टर जी समाज-सुधारक। उनका शिष्य हिन्दू समाज सुधार का इतना बड़ा काम कर रहा था। प्रसन्नता से उनकी बाछे खिली थीं। सेठ जी ने ओमप्रकाश के व्याह में बहू को आशीर्वाद में दो तोले की मटरमाला दी थी। सत्या और विद्या के दहेज के लिये कानों के झूमके । मास्टर जी भी सामर्थ्य के अनुसार अमर की बहू के लिये आशीर्वाद स्वरूप आधे तोले सोने की अंगूठी खरीद ली। सेठ जी के कान में चुपके से बता दिया, "वकील साहब ने बहु के लिये पाँच तोने के कंगन बनवाये हैं। नरेन्द्र ने सोने की घड़ी खरीदी है।"

“भाई, हमें कुछ बताने की ज़रूरत नहीं।" सेठ जी ने बेटे के प्रति सब लोगों की सराहना वात्सल्य को निश्वास से दबाकर परेशानी प्रकट की, "हमसे वह सब नहीं देखा जायेगा। हमारे क्या-क्या अरमान थे कि राजाबाजार के रस्तोगी लाला भी याद रखेंगे। यह कोई शादी है कि बिरादरी-रिश्ते के तीन-चार आदमी भी इकट्ठे न हों। न बारात, न ज्योनार नगली बाजार में पत्ता भी खटका बस, दस्तखत की शादी। जैसे तमस्सुक लिखा

गया।"

भावो और पुष्पा ने उपा के बारे में सब सुन लिया था। नरेन्द्र की इच्छा जानकर दोनों में मंत्रणा हुई। दोनों ने सेठ जी के यहाँ जाकर गंगा से बात की, "बीबी जी, हम तो सेवाश्रम में अमर की शादी में जायेंगे। वह देखना चाहो तो चली चलो। नरेन्द्र उसे जानते हैं।

किरस्तान कुछ नहीं, ऊँचे ब्राह्माणों की बेटी है। लौटकर नहा लेंगे। अब होगी तो अपनी बहू ब्याह के वक्त कुछ न होगा तो बुद्धी- बुधी लगेगी, एक जोड़ी खंडुवे से क्या होता है। भैया जी (सेठ जी) खफा न हो तो ब्याह के बरुत माथे, गले, हाथ-पाँव में पहनाने के लिये अपने यहाँ से कुछ लेती जायें।"

गंगा बैठक के दरवाजे में जाकर गिड़गिड़ायी, "भैया, महिन्दर की माँ और पुष्पा, मास्टरनी सब अमरू की बहू को देखने जा रही है। हम भी देख आयें

हमसे क्या पूछना। हमने किसी को टोका है।"

गंगा ने और साहस किया, "भैया, वह लोग कहती हैं, वह व्याह के वक्त बिना ज़ेवर के बुच्ची बुच्ची लगेगी। ब्याह के वक्त पहनाने को अपने यहां से ले जा रही हैं। कहायगी तो अपनी बहू कहो तो कोई छोटी-मोटी चीज़ दे आयें।"

सेठ जी ने सदरी की जेब से चाबी लेकर आलमारी खोली और तिजोरी की चाबी गंगा

के सामने फेंक दी "सब उसका ढंग से करता तो क्या नहीं करते।"

गंगा चाबी हाथ में लेकर फिर गिड़गिड़ाबी, “भैया, बता दो क्या ले जाये?"

सेठ जी बौखला गये, "हम बता दें। हम जेवर पहनते हैं कि पहनाते हैं। समझ में नहीं आता तो महेन्दिर की माँ और बहू से पूछ लो ।"

गंगा, भावो और पुष्पा ने तिजोरी खोली। सेठ जी की पहली पत्नी के और अमर की माँ के ढेरों गहने। पुष्पा ने चन्द्रिका, जड़ाऊ कर्णफूल, सतलड़ा हार और पाँव के लिये बिये, पायल पायजेब चुन लिये।

उषा के विवाह के अवसर के लिये हरि भैया गहरे लाल रंग की शुद्ध रेशम की भारी साड़ी लाये थे। हरि भैया की पत्नी ने पिछली रात उषा के हाथ-पाँवों पर मेहंदी रचा दी श्री पुष्पा उसे गंगा बुआ के लावे भारी जड़ाऊ जेवर पहनाने लगी। उपा ने ऐसे भारी

जेवरों की कुछ झलक चित्रा की शादी में देखी थी। उन्हें अपने शरीर पर पहनने के विचार सेझिझक

पुष्पा ने सेवाश्रम आते ही उसे गले लगा लिया था। उपा ने कातरता से कहा, "भाभी जी, हमने जेवर कभी नहीं पहने। इतने बोझ से हमारे तो हाथ-पाँव नहीं हिल पायेंगे।" पुष्पा ने लाड़ से चुप करा दिया, "हमारी बहू हो। हम बड़ी हैं, हमारा कहा करना होगा।" उपा को सब कुछ पहनना पड़ा भारी लाल साड़ी, उस पर लाल शाल, इतने जेवर; छोटे कमरे में औरतों से घिरी जनवरी की शाम को भी वह पसीना-पसीना हो रही थी। उस समय एक और झंझट समस्या थी, उषा को सहारा देकर मैजिस्ट्रेट के सामने कौन ले जायेगा। अमर की राय, वाजपेयी की बेटी सरला और गौरी मैजिस्ट्रेट के सामने ले जायें। गौरी ने एकान्त में अमर के सामने हाथ जोड़ दिये, "भैया, हमसे न कहिये।" अभिप्राय था, विवाह के शुभ मुहूर्त में विधवा का सामने आना अशुभ होगा।

अमर का आग्रह, "फिजूल बात न करो। तुम उसे नहीं लाओगी तो व्याह नहीं होगा।" विवाह के पश्चात हरि भैया ने उषा को बेटी की तरह विदा किया। नरेन्द्र दोनों को हास्पिटल रोड के मकान में अपनी गाड़ी में ले गया। नरेन्द्र और रज़ा को यह भी खयाल कि उषा विवाह के बाद सूने घर में जाकर उदासी न अनुभव करे। नरेन्द्र ने कुछ समय पूर्व पुष्पा, गौरी, सरला, मास्टरनी को उपा के स्वागत के लिये हास्पिटल रोड पहुँचा दिया था। पुष्पा ने रीति अनुकूल ब्योड़ी पर तेल चुआ कर बहू को स्वागत से आलिंगन में लेकर प्रवेश

कराया।

पंडित और बच्चों को नये पड़ोस में रम जाने में अधिक समय न लगा। मिसेज़ पंडित नयी जगह में आकर न घर से बाहर निकलती, न किसी से बोलचाला घर में भी कभी ही बोलती। बेटी के सिर पर चोट खा जाने के दिन से हँसना-मुस्कराना तो क्या, ऊँचे स्वर में बोली भी न थी। वही हाल बेबे का घर में खाने-पहरने का पुराना ढर्रा चलने लगा था पर हँसी - कहकहे, बहस, चीख-चिल्लाहट गायब।

जनवरी का अंतिम रविवार कही सर्दी थी। पंडित नाश्ते से पूर्व धूप में मोढ़े पर बैठे 'पायनियर' देख रहे थे। अमित पत्र का रविवारीय अंक लेकर समीप दूसरे मोड़े पर था। पंडित अखवार देखकर उठने को थे

पड़ोसी बहदी साहब के छोटे बेटे नईम ने आदाब अर्ज़ किया। हाथ में दूसरा अखबार लिये था, "वालिद साहब ने आदाब अर्ज कहा है। आपने अखबार देख लिया हो तो इस अखवार पर नज़र डाल लें। अपना अखबार कुछ देर के लिये दे दें।" पिछले वर्ष से लखनऊ में अंग्रेजी का दूसरा दैनिक 'नेशनल हेरल्ड' भी प्रकाशित होने लगा था। पंडित 'पायनियर' ही ले रहे थे। बहदी 'नेशनल हेरल्ड' लेते। पड़ोसी आपस में बदलकर दोनों अखबार देख लेते। दोनों पत्रों के दृष्टिकोण में और समाचारों में भी कुछ अन्तर रहता।

पंडित ने 'पायनियर' देकर 'नेशनल हेरल्ड' ले लिया। मुखपृष्ठ पर नजर डालकर पन्ना पलटा। दूसरे पृष्ठ पर निरे विज्ञापन नोटिस तीसरा पृष्ठ स्थानीय चर्चा का पृष्ठ के ऊपर बीचोंबीचे एक फोटो चित्र के शीर्षक से पंडित रोमांचित और स्तब्ध पल में सम्भल कर गले में उमड़ आया उद्वेग निगल कर चित्र ध्यान से देखा और समाचार पढ़ा।

श्रीनारायण तिवारी प्रसिद्ध कट्टर कम्युनिस्ट सबको बेलाग खरी-खरी सुना देने वाले। उनकी एक दर की छोटी सी दुकान नगर का पोलिटिकल यूज एक्सचेंज अमीनाबाद नगर का केन्द्र और तिवारी जी की दुकान अमीनाबाद के केन्द्र में तिवारी जी को दुकान की चिन्ता के लिये कम ही फुर्सता घर में आटा-दाल जुटे न जुटे, पार्टी के काम की उपेक्षा न कर सकते थे। मजबूरी में दुकान पर बैठती तिवारी जी की पवी। उस ज़माने में सम्भ्रान्त महिला का दुकान पर बैठने का साहस अकल्पनीय परन्तु तिवारी तो हर बात में क्रान्तिकारी।

तिवारिन शरीर से भारी-भरकम छोटी दुकान में उनके बैठ सकने के लिये दुकान के सामने का एक-तिहाई हिस्सा दरकार खरी, बेलाग बोलचाल में तिवारी जी से सवाई। तिवारिन नगर अम्मा उनसे दस-पन्द्रह बरस बड़े लोगों की 'जीजी'।

तिवारी जी की दुकान कम्युनिस्टों और कांग्रेस सोशलिस्टों का ही अड्डा नहीं, कट्टर गांधीवादी और कांग्रेसी नेता रफी अहमद किदवाई और चन्द्रभान गुप्त, पत्रों के सम्पादक और संवाददाता सभी तिवारी जी की दुकान के आगे रखी टीन की चार कुर्मियों पर बैठे दिखाई दे जाते। कुछ लोग गोल बाँधे खड़े रहते। कोई राजनैतिक व्यक्ति अमीनाबाद से गुजरे और तिवारी जी की दुकान पर खबर पूछे वा अम्मा से नोक-झोक किये बिना निकल जाये, यह नामुमकिन। अमीनाबाद के लखपति सर्राफों और बजाजों से ज्यादा दबदबा

अम्मा का

नगर के जाने-माने राजनैतिक अड्डे के साथ-साथ तिवारी जी की दुकान कम्युनिस्टों के गैर-कानूनी साहित्य और गुप्त संदेशों के वितरण का भी अड्डा ।

अमित को सबसे अधिक विश्वास था, कामरेड नारायण तिवारी पर तिवारी तपे हुए मज़दूर नेता। उद्देश्य के लिये रेलवे की अच्छी नौकरी छोड़ आये थे। डाक्टर रजा, कोहली और पाठक की तरह तर्क के पेचीदा व्यूह न बांधते थे। साफ-सीधी बात: सब जमीन किसानों की, सब मिल-कारखाने मजदूरों के। जो खटे वही धरती और व्यवसाय का मालिका मार्ग सशस्त्र क्रान्ति।

अमित तिवारी जी की दुकान पर 'न्यू एज' का अंक लौटाने के लिये गया था।

"आओ कामरेड!" तिवारी ने अमित को समीप बैठा लिया। जेब से छपा कार्ड निकाल कर अमित को दिखाया। विवाह निमंत्रण का कार्ड "तुम कंधारी बाग गली में रहते हो?" "अब नहीं।"

"इन्हें जानते हो?

अमित की नज़र शुक गयी। चेहरे पर क्लेशा चुप

क्यों, क्या बात" तिवारी के स्वर में सहानुभूति।

अमित मौना तिवारी भाँप गये, "बोले, तुम्हें अपने बहिन-बहनोई के लिए गर्व होना

चाहिये कि सचाई और साहस से क्रान्तिकारी कदम उठा रहे हैं। तुम्हें उन्हें मॉरल सपोर्ट देने के लिये आगे बढ़ना चाहिये। यह तुम्हारा क्रान्तिकारी और इन्सानी फर्ज़ी हम जा रहे हैं। तुम हमारे साथ चलोगे?"

"हमें इन्वीटेशन नहीं है।"

"क्या 52" तिवारी के माथे पर विस्मय के तेवर, "तुम आदमी हो या पाजामा तुम्हें अपनी बहिन की शादी के लिये इन्वीटेशन चाहिये? तुम्हारी बहादुर बहिन छिपकर भाग

नहीं रही। यह व्याह डंके की चोट पर हो रहा है। हरिकृष्ण तुम्हारे यहाँ सूचना देने गये थे। उन्हें क्या मालूम तुम लोगों ने मकान बदल लिया।"

अखवार में चित्र और समाचार से पंडित बहुत विचलित हो गये। कई मिनट माचे को हथेली की टेक दिये नज़र शून्य में लगाये सोचते रहे। लड़की को लौटा सकने की चिन्ता समाप्त, एक तरह प्रसंग ही समाप्त

पंडित अखबार लेकर भीतर के आँगन में चले गये।

"जरा सुनो!" पंडित ने पत्नी को पुकारा। अखबार में चित्र सामने कर दिया। पत्नी ने नज़र गाकर ध्यान से देखा। पहचाना। उपा के माथे पर चन्द्रिका, गले-कानों में ज़ेवर चित्र के ऊपर शब्द आदर्श विवाह

मिसेज़ पंडित ने फफक कर दोनों हाथ सिर पर मार लिये। पंडित ने पत्नी की पीठ पर हाथ रखा, "इससे क्या फायदा? जो होना था, हो गया ।" जेब से रूमाल निकालकर पत्री के आँसू पोंछे। रूमाल कितने आँसू सोखता? पत्नी ने कुछ मिनट में गज़ भर आँचल भिगो दिया। तब भी सुबक रही थी।

"पूरी बात पढ़ लो सब मालूम हो जायेगा । "

पंडित ने पढ़कर सुनायाः विवाह में राज्य के मंत्री रफी अहमद किदवाई साहब, बहुत बड़े नेता आचार्य नरेन्द्रदेव, सक्सेना साहब और गुप्त जी भी शामिल हुए थे। अन्य कई प्रतिष्ठित नागरिक नेताओं ने वर-वधू के संकीर्ण साम्प्रदायिकता से मुक्त होकर, मानव सेवा की उदात्त भावना से परस्पर सहयोग के लिये विवाह की उन्मुक्त प्रशंसा की थी। चित्र में सेठ उषा के साथ आचार्य जी और रफी साहब भी।

बेबे आँगन में थी। कमरे से मिसेज़ पंडित की सिसकी सुनी तो घबराकर पुकारा, "क्या हो गया? कौन नयी मुसीबत।"

"बेबे, दो मिनट ठहरो, फिक्र की बात नहीं। अभी बताते हैं। "

स्वर दबाकर पत्नी से बोले, "लड़की के व्यवहार से लोगों को बहुत चोट लगी, मकान तक बदल लेना पड़ा। लड़की ने बिरादरी समाज की रीति विरुद्ध व्यवहार किया परन्तु उसे अनैतिक वा अनाचार नहीं कह सकते। रफी साहब ने आचार्य जी ने अखबार ने उसकी बहुत प्रशंसा की है।"

"क्या प्रशंसा ! 'अपना मजहब छोड़ दिया तो रह क्या गया!" पढ़ी ने विरोध किया। "मज़हब छोड़ दिया !" पंडित के स्वर में विस्मय, "तुमने ध्यान से नहीं सुना। मज़हब दोनों में से किसी ने नहीं छोड़ा बदला "।" पत्नी को सिविल मैरेज कानून समझाया।

"यह सब कुछ नहीं ।" पत्नी ने सिर हिला दिया, "हिन्दू के साथ चली गयी, शादी कर ली तो मजहब क्या रहा । हमें तो ईश्वर बुला ले"। ऐ ख़ुदा, हमारे गुनाहों को माफ

कर 1

"प्रार्थना ऐसे नहीं करते।" पंडित ने तर्जनी उठायी, "प्रार्थना के शब्द हैं- जिस तरह हमने अपने अपराधियों को क्षमा किया है वैसे ही हमारे अपराधों को क्षमा कर। "तुम पहले बेटी को क्षमा करोगी तभी ईश्वर तुम्हें क्षमा करेगा।"

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रचनाएँ
मेरी,तेरी, उसकी बातें
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गद्रष्टा, क्रांतिकारी और सक्रिय सामाजिक चेतना से संपन्न कथाकार यशपाल की कृतियाँ राजनितिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक हैं | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान और स्वातंत्रयोत्तर भारत की दशा-दिशा पर उन्होंने अपनी कथा-रचनाओं में जो लिखा, उसकी महत्ता दस्तावेज के रूप में भी है और मार्गदर्शक वैचारिक के रूप में भी | 'मेरी तेरी उसकी बात' की पृष्ठभूमि में 1942 का भारत छोडो आन्दोलन है, लेकिन सिर्फ घटनाओं का वर्णन नहीं | एक दृष्टिसंपन्न रचनाकार की हैसियत से यशपाल ने उसमे खासतौर पर यह रेखांकित किया है कि क्रांति का अभिप्राय सिर्फ शासकों का बदल जाना नहीं, समाज और उसके दृष्टिकोण का आमूल परिवर्तन है | स्त्री के प्रति प्रगतिशील और आधुनिक नजरिया उनके अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास के भी प्रमुख स्वरों में एक है |
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भाग 1 : मेरी तेरी उसकी बात

1 सितम्बर 2023
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बात पिछली पीढ़ी की है। डाक्टर अमरनाथ सेठ की फाइनल परीक्षा थी। रतनलाल सेठ को पुत्र के परामर्श और सहायता की जरूरत पड़ गयी। पिता ने झिझकते सकुचाते अनुरोध किया, "बेटे, जानते हैं, तुम्हारा इम्तहान है। पर ज

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भाग 2 : मेरी तेरी उसकी बातें

5 सितम्बर 2023
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गंगा बुआ को मास्टर जी की नोक-झोक से चिह्न उस पर लांछन कि उसे बच्चे के लिये उचित भोजन की समझ नहीं। गंगा मास्टर मास्टरनी से उलझ पड़ी, नयी-नयी बातें हमारे यहाँ बड़े-बड़ों के जमाने से ऐसा ही होता आया है।

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भाग 3: मेरी तेरी उसकी बातें

6 सितम्बर 2023
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छोटे मालिक का हुक्म पाकर गुन्ने ने घुँघरू अमचूर के घोल में डाल दिये। सुबह इक्के को धोया पहियों, राम साज पर तेल-पानी का हाथ लगाकर चमकाया। गद्दी तकिये के गिलाफ बदल दिये। अमर संध्या पाँच के लगभग पहुँचा।

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भाग 4 : मेरी तेरी उसकी बातें

6 सितम्बर 2023
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 सन् १९३८ अप्रैल का पहला सप्ताह धूप में तेजी आ गयी थी। कंधारी बाग गली में दोपहर में सन्नाटा हो जाता। रेलवे वर्कशाप और कारखानों में काम करने वाले तथा अध्यापक सुबह छः- साने छः बजे निकल जाते। बाबू सा

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भाग 5: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023
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रजा की भौवें उठ गयीं, "जब देखो कंधारीबाग गली! मिस पंडित से लग गयी?" "जब देखो तब क्या मौका होने पर सिर्फ इतवार शाम जाता हूँ। उसकी समझ-बूझ अच्छी हैं। समाजवाद में बहुत इंटरेस्ट ले रही है। शी कैन बी ग्रेट

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भाग 6: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023
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पिता ने उपा को चेतावनी दी थी: तुम घृणा और तिरस्कार की खाई में कूदकर आत्महनन कर रही हो। डाक्टर सेठ कितना ही ईमानदार, उदार हो परन्तु हिन्दू हिन्दू सम्प्रदाय का मूल ही शेष सब समाजों सम्प्रदायों से घृणा औ

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भाग 8: मेरी तेरी उसकी बातें

8 सितम्बर 2023
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बार रूम के बरामदे में वकील कोहली कुर्सी पर बैठे समीप खड़े महेन्द्र को मुकदमे के बारे में समझा रहे थे। बजरी पर कार के पहियों की सरसराहट से नजर उठी। कचहरी में नरेन्द्र का आना अप्रत्याशित! बेटे का चेहरा

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भाग 7: मेरी तेरी उसकी बातें

8 सितम्बर 2023
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 गांधी जी और नेताओं की गिरफ्तारियों के विरोध में जनता का आक्रोश और क्षोभ काली आँधी की तरह उठा। सरकारी सत्ता के पूर्ण ध्वंस का प्रयत्न उसके बाद सरकार की ओर से प्रतिहिंसा में निरंकुश दमन के दावानल क

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