shabd-logo

भाग 2 : मेरी तेरी उसकी बातें

5 सितम्बर 2023

19 बार देखा गया 19

गंगा बुआ को मास्टर जी की नोक-झोक से चिह्न उस पर लांछन कि उसे बच्चे के लिये उचित भोजन की समझ नहीं। गंगा मास्टर मास्टरनी से उलझ पड़ी, नयी-नयी बातें हमारे यहाँ बड़े-बड़ों के जमाने से ऐसा ही होता आया है। ""दुनिया जहान के बच्चे जलेबी-मिठाई खाते हैं। बच्चा क्या घोड़ा है जो मिठाई न खाकर रातिब खायेगा! बच्चे का मन होगा सो ही तो खायेगा।" बलदेव टंडन की माँ बहु सेठों के दूसरे आँगन से, खन्ना परिवार से, गली की सभी खियाँ मास्टरनी पर बिगड़ीः पछाहीं लोगों की बातें। इन लोगों का क्यान मन्दिर न देव-दर्शन! सुबह मुँह अँधेरे से रात पड़े तक चूल्हा ही चूल्हा । दोनों जून कच्ची रसोई, न चौका न छूत-पात का विचार। जिन कपड़ों में खायें उन्हीं में सोयें। वकील कोहली ने मास्टर जी का समर्थन किया। अमर को सुबह दूध या दही दिया जाने लगा। महीने भर में अमर के चेहरे पर रौनक आ गयी। कोहनियों के यहाँ भी सुबह नाश्ते का ढंग बदल गया। शेष गली अपनी परम्परा पर रही।

मास्टर जी बच्चों को पुस्तक ज्ञान ही नहीं, सत्य ज्ञान देना चाहते थे। बच्चों को समझाते ईश्वर या भगवान मन्दिर मस्जिद या मूर्ति में नहीं रहते। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान है। कब्र मसान मडैया, देवी-देवता, पीपल, सॉप बन्दर की पूजा मूर्खता और अन्धविश्वास है। ऊँची-नीची जात, छुआ-छूत सब धम सब मनुष्य ईश्वर की सन्तान और समान हैं। बच्चों को सच बोलने, बलवान, निर्भय बनने और ब्रह्मचर्य का उपदेश देते। बच्चे

सच बोलने, निर्लोभ होने, बलवान बनने का उपदेश समझते। ब्रह्मचर्य न समझ पाते। मास्टर जी बताते लड़के-लड़कियों को आपस में छूना नहीं चाहिये। लड़कों को कसकर लंगोट बाँधना चाहिये। बच्चों को संध्या, गायत्री मंत्र और शिक्षाप्रद दोहे-चौपाइयों याद कराते।

वकील कोहली को अध्यात्म और परलोक की खास चिन्ता न थी। वे समाज सुधार के समर्थक और देश की परिस्थितियों से सजग थे। वे भी मास्टर जी का आदर करते। कोहली के छोटे बेटे और अमर को मास्टर जी के निरीक्षण में रखने के लिये ओम के साथ जुबली स्कूल में भरती करा दिया गया।

जब मास्टर मथुरा प्रसाद छोटी गली में आये, देश के इतिहास में बहुत उथल-पुथल का समय था। पहले विश्वयुद्ध के समय भी देश के नेता और कांग्रेस विदेशी सरकार से प्रार्थना कर रहे थे : कठोर कानूनों को कुछ उदार बनाया जाये, कानून बनाने में देश के प्रतिनिधियों की राय सुनी जाये, सरकारी नौकरियों में देश के लोग भी स्थान पायें। युद्ध के समय मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी और नरमदली राजनैतिक नेता जनता को विश्वास दिला रहे थे सरकार को युद्ध संकट में जन-धन की अधिक से अधिक सहायता देकर हम सरकार का विश्वास और कृतज्ञता प्राप्त कर सकेंगे। सरकार से उदार नीति और सहृदय व्यवहार के अधिकारी हो सकेंगे। उस समय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में राजभक्ति के प्रदर्शन के लिये यूनियन जैक (ब्रिटिश साम्राज्य का झण्डा फहराया जाता और ब्रिटिश सम्राट की दीर्घायु के लिये प्रार्थना की जाती थी। कांग्रेस के नेताओं ने सरकार को प्रजा से यथाशक्ति सहायता दिलवायी। युद्ध विरोध और अहिंसा के दूत महात्मा गांधी ने युद्ध में अंग्रेज सरकार की सहायतार्थं सिर कटाने के लिये इतने अधिक जवान भरती करवाये कि सरकार ने उनकी सेवा के पुरस्कार में उन्हें राजभक्ति का सबसे बड़ा सम्मान कैसरे हिन्द' पदक प्रदान किया।

देश में एक और ब्रिटिश सरकार के न्याय और कृपा पर भरोसा रखने वाले नेताओं और कांग्रेस का वैधानिक और शान्तिपूर्ण उपायों से शासन नीति में उदारता और शासन कार्य में सहयोग के अवसर की माँग का आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी ओर गुप्त क्रान्तिकारी संगठन सशस्त्र विद्रोह द्वारा विदेशी सरकार से मुक्ति के लिये प्रयत्न कर रहे थे। युद्ध के समय कांग्रेस और गांधी जी जब सरकार को देश के जन-धन की भरपूर सहायता दिला रहे थे, तब क्रान्तिकारी विदेशी शासकों को आतंकित करने और उनके मार्ग में बाधायें डालने के लिये बड़े-बड़े अंग्रेज अफसरों का वध कर रहे थे। दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंका जा चुका था। युद्ध के समय उत्तर प्रदेश और पंजाब की छावनियों में सेनाओं में विद्रोह फैलाने के यत्र किये गये। पंजाब के क्रान्तिकारी सशस्त्र विद्रोह के लिये शस्त्रों से भरा जापानी जहाज कोमागाटा मारू कलकत्ता तक ले आये। ब्रिटिश सरकार वैधानिक उपायों से शासन में उदारता और सुधार की माँगों की अपेक्षा सशस्त्र विद्रोह के प्रयत्नों से अधिक परेशान थी। युद्ध समाप्त होते ही सरकार ने सशस्त्र विद्रोह के प्रयत्नों को कुचल सकने के लिये कठोर कानून बना देना आवश्यक समझा।

विदेशी सरकार ने १९१९ के आरम्भ में क्रान्ति के गुप्त प्रयवों को कुचलने के लिये कठोर कानून 'रौलेट एक्ट' जारी किया। इस कानून के अनुसार विरोधी या विद्रोही प्रयत्नों का दमन करने के लिये पुलिस अफसरों के अधिकार बहुत बड़ा दिये गये। अपनी राजभक्ति से सरकार की कृतज्ञता और कृपा की आशा करने वाले कांग्रेसी और अन्य नेता निराश हो गये। सद्भावना और प्रेम से सरकार का हृदय परिवर्तन कर सकने की महात्मा गांधी की आशा ध्वस्त हो गयी। देश के राजनैतिक क्षेत्रों में हाहाकार मच गया। निराशा और असन्तोष प्रकट करने के लिये गांधी जी और अनेक नेताओं ने सरकारी सम्मान और पदवियाँ वापस कर दीं। गांधी जी और कांग्रेस ने इस काले कानून के विरोध में देशव्यापी हड़ताल और प्रदर्शन का आदेश दिया।

काले कानून के विरुद्ध देशव्यापी हड़तालें और प्रदर्शन हुए। अनेक स्थानों पर रेल की पटरियाँ उखाड़ दी गयीं, रेल स्टेशन और डाकखाने जला दिये गये। प्रायः सभी बड़े नगरों कलकत्ता, दिल्ली बम्बई में अनेक लोग विरोध प्रदर्शन में पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे। पंजाब में हड़तालें और प्रदर्शन अधिक उग्र हुए। लाहौर, गुजरांवाला, अमृतसर, शेखपुरा, लायलपुर में सरकारी इमारतों को नुकसान हुआ। कहीं-कहीं अंग्रेज पीट दिये गये। अमृतसर में दो अंग्रेज मारे गये। अंग्रेज सरकार ने विरोध प्रदर्शन का भयंकर बदला लिया। गुजरांवाला नगर पर हवाई जहाजों से बम बरसाये गये, मशीनगनों से अन्धाधुन्ध गोलियों की बौछारें। अमृतसर के प्रसिद्ध जालियांवाला बाग कांड में सैकड़ों जानें गयीं। इसके बाद फौजी अदालतों से सजाओं का दौर चला। अमृतसर नगर में ही पचास से अधिक लोग फाँसी पर लटका दिये गये। कई नगरों में बाज़ारों में चौरस्तों पर फॉंसियाँ खड़ी कर दी गयीं।

पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी और ट्रक की पराजय के साथ टर्की में खिलाफत का भी अन्त हो गया। भारत के मुसलमानों का विश्वास था खिलाफत को अंग्रेजों ने समाप्त किया है। हिंदुस्तान के मुसलमानों ने खिलाफत पार्टी बनाकर टर्की में पुनः खिलाफत कायम करने का आन्दोलन आरम्भ कर दिया। कांग्रेस का लक्ष्य ब्रिटेन के दमन से मुक्ति, खिलाफत का लक्ष्य टर्की में खिलाफत की स्थापना। दोनों ब्रिटेन विरोधी। इस आधार पर कांग्रेस और खिलाफत का संयुक्त मोर्चा बना। भारत माता की जय' और 'खिलाफत जिन्दाबाद' के नारे साथ- साथ विचित्र आन्दोलन साम्प्रदायिक भावना और उत्तेजना से राजनीतिक लक्ष्यों के लिए संघर्ष नगरों में विरोध प्रदर्शन के लिये जुलूस निकलते: 'नहीं रहेगी, नहीं रहेगी, सरकार ज़ालिम नहीं रहेगी।' सब सम्प्रदायों के लोग मिलकर नारे लगातेः बन्दे मातरम् भारत माता की जय! अल्लाहो अकबर खिलाफत जिन्दाबाद! सत्तमिरी अकाल ! हिन्दू जनता का संघर्ष भारत माता की मुक्ति के लिये, मुसलमानों का खिलाफत के लिये और सिक्खों का अपने पन्थ के लिये गांधी जी और कांग्रेसी नेताओं को विश्वास जनता में एकता हो गयी, जनता एक प्राण होकर एक मोर्चे पर जूझ रही है।

उस समय देश में साक्षरता दो तीन प्रतिशत भी न थी। सर्वसाधारण जनता कुछ न जानती थी: रौलेट एक्ट या काला कानून क्या है कांग्रेस और सरकार में क्या झगड़ा है? उन्हें विश्वास: गांधी जी सन्त महात्मा देवी पुरुष हैं। अंग्रेज सरकार विदेशी और अधर्मी है। इस देश पर जब से राज कर रही है। सन्त गांधी सरकार के पाप के विरुद्ध लड़ रहे हैं। अधर्मी सरकार गांधी जी को जेल में बन्द कर देती है। गांधी जब चाहते हैं, जनता को दर्शन देने के लिये जेल की दीवारों और लोहे के जंगलों के बाहर आ जाते हैं। गांधी जी के एक ही समय में दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता में उपदेश देने की, आकाश मार्ग से यात्रा की, गांधी जी के इशारे से नीम और बबूल पर कपास पैदा हो जाने की, उनके संकेत से रोगी चंगे हो जाने की कहानियाँ प्रचलित हो गयीं। गांधी जी के आदेश पर लोग सब कुछ करने को तैयार आम जनता के लिये गांधी जी राजनैतिक नेता नहीं, संत थे।

कांग्रेस और खिलाफत के संयुक्त संघर्ष का एकाधिपति निर्देशक और शास्ता (डिक्टेटर) गांधी जी को स्वीकार किया गया। गांधी जी ने एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्ति की घोषणा कर दी। गांधी जी की दो शर्तें थी पहली शर्त-कांग्रेस के एक करोड़ मेम्बर बनाये जायें। दूसरी शर्त स्वराज्य कोष में एक करोड़ रुपया जमा किया जाये। जनता ने दोनों शर्तें शीघ्र पूरी कर दीं। स्वराज्य प्राप्ति के लिये संघर्ष का कार्यक्रम था— सरकार से असहयोग और सत्याग्रह से कानून भंग।

गांधी जी के संचालन में कांग्रेस और खिलाफत ने आदेश दिया: सरकार से असहयोग किया जाये। अदालतों, सरकारी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया जाये। सरकारी नौकरियाँ छोड़ दी जायें। सरकार पुलिस फौज की नौकरी हराम है। देश के अनेक चोटी के वकीलों पं० मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, भूलाभाई देसाई, राजगोपालाचार्य, डा० किचलू, डा० आलम ने वकालतें छोड़ दीं, अनेक साधारण स्थिति के वकीलों ने भी। कुछ ऊँचे पद के सरकारी नोकरों ने और हजारों मामूली लोगों ने सरकारी नौकरियाँ छोड़ दीं। लाखों विद्यार्थी स्कूल कालेज छोड़ सक्रिय आन्दोलन में कूद पड़े। छोटी गली के वकील कोहली दुविधा में रहे थे, जल्दी न करना चाहते थे। मास्टर मथुराप्रसाद सरकारी नौकरी से ग्लानि अनुभव कर रहे थे, परन्तु अन्य अवलम्व न होने से विवा

सत्याग्रह था विदेशी माल और शराब के बहिष्कार के लिये प्रयोजन था विदेशी माल, खास तौर पर विदेशी कपड़े की खपत रोककर ब्रिटेन पर आर्थिक दबाव डालना, शराब की बिक्री रोककर सरकार को शराब के कर की हानि पहुँचाना। जनता में विदेशी कपड़े से घृणा फैलाने के लिये सार्वजनिक स्थानों में विदेशी कपड़े की होली जलाना। विदेशी कपड़े की बिक्री को रोकने के लिये कांग्रेस और खिलाफत के स्वयंसेवक बजाजों की दुकानों के सामने धरना देकर विनयपूर्वक दुकानदारों को विदेशी माल न बेचने और ग्राहकों को विदेशी माल न खरीदने के लिये समझाते। ग्राहकों के न मानने पर स्वयंसेवक उनका रास्ता रोकने के लिये दुकानों के सामने लेट जाते।

गांधी जी का आदेश था: सत्याग्रही स्वयंसेवक केवल विनय और सहिष्णुता से सत्याग्रह द्वारा ही दुकानदारों और ग्राहकों का हृदय परिवर्तन करके विदेशी कपड़े और शराब की बिक्री को रोकें। परन्तु कुछ ग्राहक, खास तौर पर पुलिस द्वारा सिखाकर भेजे लोग दुकानों के सामने लेटे सत्याग्रही स्वयंसेवकों को लांघकर या उनके शरीरों पर पाँव रखकर दुकान तक पहुँच जाने का पराक्रम दिखाने को तैयार हो जाते। स्वयंसेवक सत्याग्रह की ऐसी अवज्ञा कैसे सह लेते! सत्याग्रह का प्रयोजन आवारा लोगों के पाँव तले रौंदे जाना नहीं, विदेशी माल और शराब की बिक्री को रोकना था। सत्याग्रह के ऐसे पराजय का जनता पर क्या प्रभाव पड़ता! दुकानों के सामने लेटे हुए सत्याग्रही स्वयंसेवक अपने शरीर को लांघकर या रौंदकर जाने वालों के घुटनों पिण्डलियों से लिपट जाते। उनके विरुद्ध बल प्रयोग न कर प्रेम से उनकी पिण्डलियों के रोयें नोच-नोचकर उन्हें बिलखते-बिलबिलाते लौटा देते। सत्याग्रह या धरना कांग्रेस के अहिंसात्मक आन्दोलन की विद्या और देन थी। कालान्तर में सत्याग्रह या धरना की इस विद्या ने ही मजदूरों के हाथ पड़कर 'घेराओ' आन्दोलन का रूप ले लिया।

सरकार ने घोषणा की विदेशी कपड़ा और शराब बेचने वाले व्यापारियों के स्वतन्त्रता से व्यवसाय कर सकने के नागरिक अधिकार की रक्षा सरकार का कर्तव्य है। सत्याग्रह द्वारा व्यापारियों को परेशान करने वाले स्वयंसेवकों को पुलिस मार-पीटकर भगा देने का यत्न करती। सत्याग्रही न मार से भागते, न पुलिस पर हाथ उठाते; निश्चल बैठकर निर्विरोध मार सह लेते। स्वयंसेवकों के सिर फट जाते, खून बह जाता। पुलिस स्वयंसेवकों को घसीट कर दूर फेंक देती। उनके शरीर छिल जाते। स्वयंसेवक लौटकर फिर दुकानों के सामने लेट जाते। पुलिस उन्हें हथकड़ियाँ पहनाकर जेल ले जाती। जनता में विदेशी माल और शराब के व्यापारियों के प्रति घृणा और क्षोभ फैल जाता, सत्याग्रही स्वयंसेवकों के प्रति सराहना और सहानुभूति। गांधी जी द्वारा निर्देशित सरकार से निशख लड़ाई की नीति ही अहिंसात्मक संघर्ष का मार्ग थी।

सेठ जी सौन्दर्यप्रिय, रसिक व्यक्ति थे, अच्छा खाने-पहनने के शौकीन असहयोग आन्दोलन से पहले तनजेब पर चिकन का काम किये कुर्ता-टोपी और विलायती महीन धोती पहनते थे। पाँव में कामदार हल्का नागरा जूता या वार्निशदार पम्प शु उत्सव, महफिल के मौकों पर तनजेब या दूसरे कीमती कपड़े की कलिया अचकन और चिकने लडे का चुनीदार पायजामा विलायती कपड़े का बायकाट होने पर विलायती कपड़े से मन फिर गया। महीन गाड़ा या देशी मिलों का अच्छा कपड़ा उपयोग करने लगे। वकील कोहली ने भी काले विक्रोना की शेरवानी के बजाय देशी कपड़े की काली शेरवानी और किश्तीनुमा टोपी बनवा ली।

मालदार लोग शान्ति और रक्षा चाहते हैं। व्यवस्था, शान्ति और जान-माल की रक्षक सरकार के पक्ष में रहते हैं। इस वर्ग के अधिकांश नागरिक सरकार विरोधी आन्दोलन से दूर रहते परन्तु विदेशी सरकार के प्रति घृणा, क्षोभ और देश की स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष से सहानुभूति उनके मन में भी थी। ऐसे लोग सरकारी नाराजगी की आशंका से प्रत्यक्ष में आन्दोलन से विमुख, परोक्ष में आन्दोलन को सहायता देते रहते। कांग्रेस की रसीद लेकर चन्दा या धन की सहायता देना निरापद न था। पुलिस जब-तब कांग्रेस दफ्तर पर छापा मारकर सब रजिस्टर कागजात उठा ले जाती। कांग्रेस के लिये धन की सहायता, रसीद या अन्य प्रमाण विना केवल विश्वस्त व्यक्ति ही एकत्र कर सकते थे। छोटी गली, खासकर सेठ के सम्पर्क में ऐसे व्यक्ति थे हरि भैया ।

हरि भैया हरिकृष्ण गर्ग पर सेठ जी को भरोसा और बेह था। हरि भैया के परिवार का मकान फतेहगंज में था। पहले सत्याग्रह आन्दोलन के समय ( १९२० में) उन्नीस-बीस के थे। तब से निरन्तर कांग्रेस के कार्यकर्ता। हरिकृष्ण मैट्रिक पास थे। तब उनकी बिरादरी- समाज में स्कूली शिक्षा के लिये आकर्षण न था। परिवार का कारोबार बजाजे और छोटे- मोटे लेन-देन का था। हरिकृष्ण ने विदेशी कपड़े के विरुद्ध धरने में भाग लिया तो सबसे पहले स्वयंसेवकों के साथ अपनी दुकान पर धरना देकर विदेशी कपड़ा मोहरबन्द करवा दिया। सत्याग्रह में जेल भी गये। नवयुवक ही नहीं, नेता भी उनका भरोसा और आदर करते। जेल से लौटने के बाद हरिकृष्ण गर्ग हरि भैया हो गये।

विदेशी माल मोहरबन्द किये जाने की व्याख्या भी जरूरी है। विदेशी कपड़े और शराब की दुकानों पर सत्याग्रही स्वयंसेवकों के धरना देने से व्यापारियों को नुकसान तो जरूर होता, परन्तु सर्वसाधारण भारतीय शराब को त्याज्य और शराब के व्यापार को निन्दनीय समझते थे। पैसा कमाने के लिये दूसरों को बरबाद करने वालों से क्या सहानुभूति ! विदेशी कपड़े के व्यापारियों की स्थिति भिन्न थी। विदेशी कपड़े की होली भी आन्दोलन का अंग यह होली त्याग और आत्मशुद्धि के यज्ञ की प्रतीक थी। ऐसी होली में बड़े-बड़े बजाजों से अपना हजारों-लाखों का माल जला देने की आशा व्यावहारिक बात न होती। ऐसे यज्ञ के अनुष्ठान प्रदर्शन के लिये भले घरों से घिसे हीजे दो-चार कपड़े माँग लिये जाते। यह सच कि कुछ सच्चे और भावुक लोगों ने अपने घरों का सैकड़ों-हजारों का विलायती कपड़ा ऐसी होलियों में फेंक दिया परन्तु व्यापारियों से ऐसी आशा न की जा सकती थी। ऐसे आग्रह से कांग्रेस के प्रति भयंकर असंतोष खड़ा हो जाता। आन्दोलन जारी रख सकने के लिये व्यापारियों की सहानुभूति मुख्य सहारा थी ।

बजाजे का कारोवार अधिकांश में खत्री, वैश्य, जैन और रस्तोगी वैष्णव-प्रकृति बिरादरियों के हाथों में था। उन्हें अपनी दुकानों पर सत्याग्रह के प्रसंग में मार-पीट, धर- पकड़, नारेबाजी और हुल्लड़ से घबराहट होती। वे लोग घर फूंककर देशभक्ति न कर सकते थे, परन्तु नगर भर से बैर और बुक्का-फज़ीहत भी न चाहते थे। आन्दोलनों के समय कांग्रेस के प्रतिष्ठित कार्यकर्ताओं और बजाजे के प्रतिनिधियों में व्यावहारिक समझौता हो जाता- विदेशी कपड़ा थोक फरोशों से और विलायत से न मँगाया जाये। जो विदेशी कपड़ा बजाजों के गोदामों और दुकानों पर मौजूद है, उसे आन्दोलन की सरगर्मी के समय न बेचा जाये। साँप की बाम्बी बुँद जाये तो उस पर लाठी पीटने की जरूरत!

इतना महत्वपूर्ण निर्णय केवल बातचीत के विश्वास पर नहीं छोड़ा जा सकता था। कांग्रेस के उत्तरदायी कार्यकर्ता और बाज़ार के प्रतिनिधि बजाजों के गोदामों पर जाते । उनके सामने विलायती माल गाँठों में बाँध दिया जाता। गाँठों पर नगर कांग्रेस कमेटी की मोहरें लगा दी जाती। संदेह होने पर कांग्रेसी कार्यकर्ता और बाज़ार के प्रतिनिधि इन गाँठों और मोहरों का निरीक्षण कर सकते थे। मोहर टूटी होने पर कांग्रेस अपराधी से जुर्माना वसूल कर लेती। अमीनाबाद, फतेहगंज, नख्यासे और चौक के बाज़ारों में सेठ जी जाने- माने व्यक्ति थे। मोहरबन्दी के काम में सेठ जी का भी सहयोग लिया जाता था। अमर लड़कपन से ही कांग्रेस के प्रति पिता की सहानुभूति और सहायता का रहस्य जानता था। वह देश के काम के प्रति लगाव और उस काम में पिता के सहयोग के लिये गर्व अनुभव करता। उसी भावना से हरि भैया का आदर करता।

वर्ष भर में स्वराज की आशा की उत्तेजना से आन्दोलन बढ़ता जा रहा था; पढ़े-लिखे लोगों से नगरों के मजदूरों में, नगरों से गाँवों में निशस्त्र जनता और पुलिस से संघर्ष बढ़ने लगे। मजदूर और ग्रामीण जनता शत्रु को शत्रु आन्दोलन को सरकार से लड़ाई और आजादी का मार्ग विदेशी सरकार को गिरा देना समझती थी। आजादी का युद्ध प्रेम से जीतने, शत्रु का हृदय प्रेम से परिवर्तन करने की सूक्ष्मता जनता की समझ से दूर थी। कई

स्थानों पर, बम्बई, शोलापुर, चौरीचौरा में पुलिस और जनता में भयंकर संघर्ष हो गये।

पुलिस ने जनता पर गोलियाँ चलायीं। जन-समूहों ने लाठी और पत्थर के जोर से पुलिस के थाने चौकियाँ फूंककर स्थानीय राज कायम कर लिये। जनता के हिंसा मार्ग पर भटक जाने से गांधी जी को बहुत निराशा हुई। उन्होंने अपनी भूल के पाश्चात्ताप में आन्दोलन स्थगित कर दिया और कांग्रेस जन को चर्खा यज्ञ से आत्मशुद्धि का उपदेश देने लगे।

मास्टर मथुराप्रसाद जीविका के लिये सरकारी स्कूल में नौकरी करते थे परन्तु उनका विश्वास था: विदेशी शासन द्वारा शिक्षा का प्रयोजन अपने गुलाम तैयार करना है। सरकारी स्कूलों की पढ़ाई बच्चों को अपने देश के गौरव, सभ्यता के सच्चे इतिहास से बेखवर रखकर स्वार्थी, कायर और चरित्रहीन बना देती है। नरेन्द्रनाथ, ओमप्रकाश और अमरनाथ अपनी पाठ्य पुस्तकों में 'अंग्रेजी राज के वरदान के पाठ पढ़ते अंग्रेजी राज से पहले इस देश में राजाओं, रजवाड़ों और नवाबों की आपसी लड़ाइयों से लूट-पाट और खून-खराबी मची रहती थी। देश में यात्रा के लिये न अच्छी सड़कें थीं, न सवारियों मिलती थीं। डाक- तार की सुविधा न थी। यात्रा में जान-माल के लिये चोर डाकुओं और बटमारों का खतरा रहता था। प्रजा हर साल तरह-तरह की बीमारियों से लाखों की संख्या में मर जाती थी। प्रजा के लिये शिक्षा और औषध - चिकित्या का कोई प्रबन्ध न था। पुराने विचार के लोग बेटियों को जन्मते ही मार डालते थे। जवान थियों के विधवा हो जाने पर उनके हाथ-पाँव बाँधकर पति के साथ जिन्दा जला दिया जाता था। अंग्रेज सरकार ने देश में सड़क बनाई, रेल-तार डाक जारी किये। आजकल सब जगह पुलिस की चौकसी और सुरक्षा का प्रबन्ध है। कोई बुडिया भी रात विरात हाथों में सोना उछालती जहाँ चाहे जा सकती है।

"अंग्रेज सरकार ने जगह-जगह स्कूल, अस्पताल बनाये, न्याय के लिये अदालतें बनवायीं। अब कोई बेटियों की हत्या नहीं कर सकता, विधवाओं को सती नहीं कर सकता। ब्रिटिश शासन ने इस देश को शान्ति, सुरक्षा, न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य दिये। अंग्रेज सरकार के न्याय से शेर-बकरी एक घाट पानी पीते हैं। भगवान ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मेरी को स्वास्थ्य और दीर्घायु प्रदान करे।

बच्चे पाठ्य-पुस्तकों में अंग्रेजी राज के वरदान' पढ़ते परन्तु आस-पास देखतेः सब लोग अंग्रेजों से भय और घृणा करते हैं। अंग्रेजों या गोरों को देखकर स्त्रियों और बच्चों की विपी बँध जाती, जवान बजे सहम जाते। अंग्रेजों की पीठ पीछे उन्हें गाली देते: हरामी, बन्दर अंग्रेजों को सबसे भ्रष्ट और नापाक कहते ये गाय-मुजर सब खाते हैं। भंगी चमार के हाथ का भी खाते हैं। नहाते नहीं, आवदस्त नहीं लेते। इनके यहाँ माँ-बेटी, बहन, बीवी बहु के लिये कोई लिहाज शरम नहीं होती। गोरे स्त्रियों को पकड़ लेते हैं। बच्चों का कलेजा निकाल कर खा जाते हैं।

उन दिनों स्कूलों के लड़के सुनते-देखते कि गली बाजारों में विलायती कपड़े की होली जनायी जाती है। गाड़े के कपड़े टोपी पहनने वाले लोग जुलूसों में चलकर अंग्रेज और पुलिस को जालिम कहते हैं। ऐसे लोगों को पुलिस मारती है और जेल में बन्द कर देती है। जुलूस निकालने और जेल जाने वाले लोग बहादुर होते हैं।

मास्टर जी घर पर बच्चों को समझाते बहर-गाड़ा पहनने वाले और कांग्रेसी अपने देश में अपना राज चाहते हैं। प्राचीन युग में भारत संसार का सबसे विद्वान और धनी देश था।

इस देश में निरक्षर और पापी नहीं होते थे। यहाँ दूध और घी की नदियाँ बहती थीं, सोना बरसता था। विदेशों के लोग यहाँ शिक्षा के लिये आते थे। हमारे राजा चन्द्रगुप्त ने यूनान के संसार विजयी राजा सिकन्दर को हराकर भगा दिया था। लोग अशिक्षा और अन्धविश्वास से मूर्ति पूजा करने लगे। जात-पात, आपस में छुआ-छूत मानने लगे। देश कुसंस्कारों, और फूट से निर्बल हो गया। पहले मुसलमानों ने देश की फूट से लाभ उठाकर यहाँ राज किया, फिर अंग्रेजों ने। अंग्रेजों ने यहाँ के मूर्ख, चरित्रहीन, विलासी राजाओं और नवाबों आपस में लड़ा लड़ाकर धोखे से अपना राज कायम कर लिया। अंग्रेजों ने हमारे कारीगरों के हाथों के अंगूठे काटकर देश का कौशल समाप्त कर दिया और अपने देश का माल बेचने लगे। अंग्रेज इस देश का अन्न-धन लूटकर ले जा रहे हैं इसलिए यह देश गरीब हो गया। जो लोग स्वार्थ के लिये देश के विरुद्ध अंग्रेजों के साथ हैं, वे नीच हैं। महर्षि दयानन्द ने कहा है, विदेशी राज स्वराज से कभी अच्छा नहीं हो सकता। तिलक, महात्मा गांधी, लाजपत राय, मालवीय जी और शौकत अली मुहम्मदअली हमारे नेता हैं। हमें विलायती चीजें और कपड़ा नहीं खरीदना चाहिये, गाढ़ा और खद्दर पहनना चाहिये। लड़के-लड़कियों को सदाचार, ब्रह्मचर्य और परिश्रम से शिक्षा पाना चाहिये। अपने देश की सेवा सबसे बड़ा धर्म है।

मास्टर जी यह बातें ऐसी मुद्रा और स्वर में कहते कि बालकों के मन में अंग्रेज और अंग्रेजी शासन के प्रति गहरी घृणा और क्रोध जम जाता। आयु के साथ मास्टर जी के विचारों और प्रभाव के प्रति अमर का दृष्टिकोण बहुत कुछ बदल गया, परन्तु उनके सम्पर्क के प्रभाव कायम रहे। वह आठवीं में था। जाने का आरम्भ प्रातः बैठक के साथ के कमरे में स्कूल का काम कर रहा था। हाजत के लिये ड्योढ़ी की ओर गया था। लौटते हुए उसने सेठ जी की पुकार सुनी, "हरिया 'हरिया!"

"क्या है चन्ना?" अमर ने बैठक में झका

"कुछ नहीं बेटे।" सेठ जी ने हाथ में थमे अवध अखबार से नजर उठायी। "हरिया से कहो, अखबार मास्टर जी को दे आये।"

"क्या ख़बर है चञ्चा?" अमर ने पूछ लिया।

अमर की आयु के लड़के प्रायः अखबार नहीं पढ़ते थे। खास खबर होती तो अमर पढ़ लेता था।

"लाओ, हम दे आयें।"

" बेटे तुम अपना काम करो, जाड़े में कहाँ जाओगे।" सेठ जी का स्वर उदास था। "चचा जाड़ा कहाँ है।"

अमर मास्टर जी के लिये बहुत कुछ करने को तैयार। मास्टर जी के मकान तक दस कदम जाते-जाते अमर ने पहले पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में शीर्षक पढ़ लिया।

"नमस्ते, मास्टर जी काकोरी डकैती के चार मुजरिमों को फाँसी हो गयी।" अखवार मास्टर जी की ओर बढ़ाकर अमर ने फॉसी पाने वाले मुजरिमों के नाम भी पढ़ दिये, "रामप्रसाद बिस्मिल, रोशनसिंह, अशफाकउल्ला, राजेन्द्र लहड़ी।"

मास्टर जी ट्यूशन के लिये घर पर आने वाले दो विद्यार्थियों को पड़ा रहे थे। अखबार हाथ में लेकर मौन रह गये। "इस वक्त हम और नहीं बता पायेंगे। बाकी कला" मास्टर जी ने विद्यार्थियों की ओर देखा। विद्यार्थी पुस्तक कापी समेट कर चले गये।

मास्टर जी की उदासी देखकर अमर ने पूछ लिया, "यह बहुत बहादुर डाकू वे सुल्ताना डाकू से भी बहादुर?" उन दिनों सुल्ताना डाकू का बहुत नाम था। सुल्ताना का किस्सा बाजार में बिकता था।

बेटे, डाकू नहीं, ये लोग भारत माता के सपूत थे। "मास्टर जी ने बताया, "इन लोगों ने प्रजा को नहीं लूटा, चलती गाड़ी रोककर सरकारी खजाना लूटा स्वार्थ के लिये नहीं, देश सेवा के कार्य के लिये। यह लोग क्रान्तिकारी थे, देश की आजादी के लिये सरकार पर बम- पिस्तौल से हमला करने वाले क्रान्तिकारी। सरकार ने इन शूरवीरों पर डकैती कत्ल का इलजाम लगाकर इन्हें फाँसी की सजा दे दी। इनके दूसरे साथियों को काला पानी उम्र कैद। अमर आँखें फैलाये उत्सुकता से सून रहा था।

मास्टर जी का स्वर गहरा गया, "जज ने इन लोगों को फाँसी और काले पानी की सजा का हुक्म सुनाया तो इन शूरवीरों ने ललकारा: बन्दे मातरम्! भारत माता की जय! ऐसे बहुत से क्रान्तिकारी वीर हँसते-हँसते फाँसी चढ़ गये। इन शूरवीरों के नाम अमर रहेंगे, जैसे महाराणा प्रताप, शिवाजी, बन्दा बैरागी, हकीकत राय, गुरु गोविन्दसिंह के बेटों के नाम । झण्डे दुनिया में उनके गहेंगे शीश जिनके धर्म पर चढ़ेंगे।" मास्टर जी की आंखें गयीं। अमर को रोमांचा अपलक सुन रहा था।

मास्टर जी कहते गये, "इन वीरों को हथकड़ियाँ बेडियाँ पहना कर अदालत में लाया जाता था। ये ललकारते आते सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखता है जोर कितना बाजुये कातिल में है। यह लोग देश के लिये सिर देने वाले नरसिंह थे। हम तो कीड़े-मकोड़े हैं।" मास्टर जी ने नेत्र मूंदकर शहीदों की स्मृति में प्रणाम कर दिया। अमर ने उनका अनुकरण किया।

मास्टर जी अखबार हाथ में लिये अमर के साथ सेठ जी की बैठक में आ गये। काकोरी डकैती का मुकदमा लखनऊ में हुआ था। नगर में मुकदमे की चर्चा रहती थी। मास्टर जी और सेठ जी मुकदमे के प्रसंग याद करते रहे अमर समीप बैठा उत्सुकता से सुन रहा था। मास्टर जी की छोटी बेटी दया आ गयी, "माता जी बुला रही है। खाना तैयार हो गया।"

"बेटी, कह दो आज हमारा मन नहीं, न खायेंगे। तुम लोग खा लो।"

मास्टर जी ने सेठ जी की ओर देखा, "हम किस लायक है। पेट के लिये विदेशी सरकार की गुलामी कर रहे हैं। जुबान भी नहीं हिला सकते। मन दुखी है तो शहीदों के आदर में एक जून उपवास ही कर लें। ईश्वर से प्रार्थना है, देश के नौजवान इन शहीदों की तरह वीर, साहसी बनें।"

सेठ जी ने गहरे विश्वास से समर्थन किया, “हाँ, हम लोग उपवास के अलावा और क्या कर सकते हैं? हम भी उपासे रहेंगे।"

है।"

तभी रसोई से बुआ की पुकार, "अमरू, आ जाओ चौके में चचा से कहो, सब तैयार

"हम भी उपवास करेंगे। अमर ने सेठ जी की ओर देखा।

नहीं बेटे, बच्चे उपवास नहीं करते।" सेठ जी ने अमर की पीठ पर हाथ रखा, "शाबाश जाओ, बुआ पुकार रही हैं। "

अमर ने इनकार में सिर हिला दिया।

"अच्छा, कोई बात नहीं।" मास्टर जी ने अमर का पक्ष लिया, "लड़के की भावना का आदूर करना चाहिये।" सेठ जी की ओर देखा, "आधी छूट्टी में दौड़कर आयेगा जायेगा। देखो बेटे, " मास्टर जी ने अमर को चेतावनी दी "स्कूल में यह बात किसी से नहीं कहना।"

""अबेर हो रही है, अमरू जल्दी आओ।" बुआ ने झल्लाकर पुकारा।

"हम कुछ न खायेंगे," अमर ने ऊँचे स्वर में उत्तर दिया, "आज हमारा व्रत है। " "चल जल्दी!" बुआ ने डॉटा "आया बड़ा बरत वाला' 'बच्चों का कैसा बरत?" अमर अब चौदह का था। उतना अल्हड़ नहीं कि सरकार विरोधी रहस्य औरतों को बता देता । ऊँचे स्वर में बोला, "कह दिया हमारा व्रत है। बुआ तुम नहीं समझोगी यह बात।"

"देखो, देखो इस लड़के को!"  बुआ और झल्लाई।

सेठ जी ने बीच-बचाव कर बहन को समझाया, "अभी रहने दो। दोपहर में आकर दूध पी जायेगा।"

अमर दूध पीने नहीं आया।

मास्टर जी स्कूल में आठवीं कक्षा तक पढ़ाते थे। अमर कक्षा नौ में पहुँचकर उनके निर्देशन की सीमा से आगे निकल गया। नरेन्द्र मैट्रिक पास कर कालेज के पहले वर्ष में पहुँच गया था। मास्टर जी तब भी इन लड़कों का ध्यान रखते। अमर के प्रति उनका स्नेह वात्सल्य अधिक था। कभी ओमप्रकाश ईर्ष्या भी अनुभव करने लगता। मास्टर जी अपने पुत्र की अपेक्षा अमर से अधिक स्नेह तो क्या कर सकते थे पर ओम के व्यवहार में प्राय: अपूर्ण तृष्णा, स्वार्थ और दब्बूपन अनुभव कर खयाल आता: उनके पुत्र का स्वभाव भी अमर की तरह सन्तुष्ट, निर्भय हो सकता। एक ही संस्था में शिक्षा, एक सी ही संगति पाने वाले किशोरों में ऐसा अन्तर मास्टर जी के विचार में पूर्वजन्म के कर्म या संस्कारों का फल था या स्वयं उनका अपना ही दोष। बारह वर्षों में मास्टर जी का वेतन नियमानुसार चवालीस रुपया मासिक हो गया था। ईश्वर की कृपा से इस बीच चार सन्तानें और आ गयी थीं। मास्टर जी आवश्यकता के कारण सन्ध्या प्रातः ट्यूशने करते। निरन्तर थकावट, चिन्ता और कृच्छ्रता की असुविधा। मास्टर जी ईश्वरेच्छा या कर्मफल से सन्तुष्ट रहने के लिये ईश्वर को पूर्वापेक्षा अधिक याद करते। नरेन्द्र और अमर की तुलना में ओमप्रकाश अपनी गरीबी का असामर्थ्य अनुभव करता। ईश्वरेच्छा का विश्वास उसे सन्तुष्ट न कर सकता।

अमर अब कक्षा नौ में था। फिर वही जाड़े के दिन हरिया ने उसे सुबह जगाकर रोशनी के लिये पलंग के समीप स्टूल पर लैम्प रख दिया। अमर पलंग पर लिहाफ में दुबका स्कूल का काम करने के लिये तैयार हो रहा था। गली में अखवार वाला मुँह अँधेरे आता था। सेठ जी अवध अखवार लेते थे, कोहली आई० डी० टी० दैनिक (इण्डियन डेली टेलीग्राफ)। अखबार वाला ग्राहक खींचने के लिये ऊँची पुकार से विशेष समाचार का संकेत देता जाता। कभी-कभी गरम खबर होने पर ठाकुर साहबसिंह और रामसहाय भी अखबार ले लेते।

'शेरे पंजाब लाला लाजपतराय का इन्तकाल !' अखबार वाले की ऊँची आवाज। "हरिया," अमर ने पुकारा, "अखबार हमें दे दो।

सेठ जी प्रातः मास्टर जी के साथ भ्रमण व्यायाम के लिये गोमती की ओर जाते थे। अमर ने कुछ दिन पूर्व नगर में साइमन कमीशन के प्रति विरोध प्रदर्शन की चर्चा में शेरे पंजाब लाजपतराय को पुलिस की लाठी से चोट लगने के विषय में सुना था। लाला लाजपतराय देश के बहुत बड़े सम्मानित नेता। इतने बड़े नेता के साथ ऐसे व्यवहार से कोहली, सेठ जी, मास्टर जी सबको बहुत दुख हुआ था। साहबसिंह ने सरकार और पुलिस को बहुत गाली दी थी।

अमर ने समाचार एक साँस में पड़ लिया। मन पर चोट अनुभव की अखबार एक और रखकर स्कूल का काम करने लगा। गली में सेठ जी और मास्टर जी के सैर से लौटने की आहट पाकर अमर लिहाफ छोड़ अखबार लेकर बैठक में आ गया।

सेठ जी के साथ मास्टर जी बैठक में आ गये। लौटते हुए उन लोगों ने अखबार वालों की पुकारें सुन ली थीं।

“क्या खबर है?" सेठ जी ने अमर की ओर देखा।

अमर ने दोनों के समीप बैठकर पूरा समाचार पलकर सुना दिया शेरे पंजाब आयु के कारण निर्बलता और शिथिल स्वास्थ्य की चिन्ता न कर साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन का नेतृत्व करने गये थे। स्वयंसेवक लाला जी को धूप से बचाने के लिए उन पर छाता उठाये थे। लोगों का ख्याल था, अंग्रेज पुलिस अफसर ने नेता को चुनकर खास तौर से उन पर बेटन का वार किया था। लाला जी के कन्धे, सीने और पीठ पर लाठी की चोटों के निशान बन गये थे। लाला जी की चोटों की परीक्षा करने और इलाज करने वाले डाक्टरों का खयाल है, लालाजी की सेहत पर इन चोटों का गहरा असर पड़ा। शोक समाचार से सेठ जी और मास्टर जी मौन रह गये।

समाचार की सनसनी से साहबसिंह भी ब्योरा जानने की उत्सुकता में आ गया था, बोला, "हाँ हाँ, लीडर पहचान कर मारा। यहाँ भी साइमन के खिलाफ जुलूस में मालों ने नेहरू जी, सन्त जी, सक्सेना साहब को चुन-चुनकर लाठियाँ मारी। अंग्रेज बंद के तुख्म हैं। जान-बूझकर हमारे लीडरों की तौहीन करते हैं" "इन्हें भी कोई समझेगा।" उसने क्षोभ भरी साँस ली।

“वन्दे मातरम्!" इयोद्री से हरि भैया की पुकार सुनायी दी। अमर ड्योढ़ी की ओर बड़ गया।

"वन्दे मातरम्! आइये हरि भैया!"

हरि भैया और साहसी देशभक्त लोग उन दिनों आपस में 'वन्दे मातरम्' अभिवादन करते थे।

हरि भैया के चेहरे पर शोक की छाया बाँह पर बड़े-बड़े इश्तहार लिये थे। हरि भैया ने बैठक में आकर सेठ जी के प्रति आदर में उनके चरण छूकर अभिवादन किया।

"आओ आओ हरि भैया, मुद्दतों में दर्शन हुए।" सेठ जी ने हरि भैया के स्वागत में उनके आने पर शोक के बावजूद प्रसन्नता प्रकट की। उन्हें मसनद पर अपने समीप बैठने का संकेत किया। हरि भैया विनय में मसनद पर किनारे ही बैठने लगे।

"अरे अरे, वहाँ नहीं, यहाँ आइये। सेठ जी ने हरि भैया से अपने समीप तकिये के साथ बैठने का अनुरोध किया। सेठ जी के दो बार अनुरोध पर हरि भैया तकियों के समीप हो

गये। मसनद पर गावतकियों के साथ स्थान अधिक सम्मानित माना जाता था। "बहुत कृपा की दर्शन देकर घर में बाल-बजे प्रसन्न हैं?"

“काका, आपकी कृपा और भगवान की दया से सब ठीक। आपके यहाँ सब ठीक है?" बहुत दिन से आने-आने को कह रहे थे। आप तो जानते हैं कांग्रेस के काम का तो अन्त नहीं। आज सोचा, सुबह ही आपके दर्शन का सौभाग्य हो जाये। " हरि भैया ने पुनः आदर भाव से हाथ जोड़ दिये।

"बहुत कृपा की। हम भी आपके यहां नहीं जा पाये, परन्तु आपकी व्यस्तता में कौन जाने आप कब कहाँ सेठ जी हँस दिये, "इस समय कैसे कष्ट किया?"

बस ऐसे ही दर्शन के लिये चले आये। अरसा हो गया दर्शन किये।" हरि भैया गांधीवादी सरलता के बावजूद, आने का प्रयोजन तुरन्त कहकर लखनऊ के शील का उल्लंघन न कर सकते थे।

हरि भैया ने बाँह पर सम्भाले इश्तहार एक और रख दिये थे। अमर के लिये इश्तहारों के प्रति उत्सुकता का दमन कठिना

"भैया जी, हम देख लें क्या है?" उसने इश्तहारों की ओर संकेत किया।

"हाँ हाँ भैये, अवश्य देखो।"

अमर ने एक इश्तहार उठाकर देखा। इश्तहार के चारों ओर शोक सूचक काली गोट । इश्तहार शेरे पंजाब की मृत्यु की सूचना का था। जनता से शोक प्रदर्शन के लिये हड़ताल, संध्या शोक जुलूस और सभा में सहयोग की अपील अमर ने इश्तहार को उघाड़ कर प्रयोजन के प्रसंग का अवसर बना दिया।

“काका, हमें अभी बहुत जगह जाना है।" हरि भैया ने सेठ जी से करबद्ध निवेदन किया, "आपसे तो हड़ताल में सहायता के लिये कहने की जरूरत नहीं। एक मिनट के लिये वकील साहब के यहाँ चलने का कष्ट कीजिये। "

सेठ जी और मास्टर जी हरि भैया के साथ कोहली साहब के यहाँ गये। अमर साथ था। वकील कोहली के यहाँ भी हरि भैया ने लखनऊ के तत्कालीन शील के अनुसार दो मिनट केवल दर्शन के प्रयोजन से ही आने की बात की। कोहली अखबार देख चुके थे। “भाई अंग्रेज सरकार के जुल्म की तो हद हो गयी!" कोहली ने क्षोभ से स्वयं आरम्भ कर दिया।

हरि भैया को भी काम निबटाने की चिन्ता बोले:

"वकील साहब, हमें अभी बहुत जगह जाना है। पहले आपकी सेवा में आये हैं। इस अवसर पर पूरी हड़ताल होनी चाहिए। देश कॉम की इज्जत आप ही लोगों के हाथ है। अमीनाबाद, कैसरबाग, मोलवीगंज, फतेहगंज का तिवारी जी, टण्डन जी, यूनस साहब और खलीक साहब ने जिम्मा लिया है। रकाबगंज से चौक तक काका, जयदेव बाबू और आप लोगों पर निर्भर है। जयदेव बाबू के यहाँ हम नहीं जा सके। हुक्म हो तो जायें या आप सम्भाल लेंगे ""

सेठ जी और कोहली ने हरि भैया को आश्वासन दिया, "हम जयदेव बाबू से मिल लेंगे। रकाबगंज से चौक तक हड़ताल के लिए कह सुन लेंगे।"

"यूनिवर्सिटी में पूरी हड़ताल रहेगी। क्रिश्चियन कालेज और कालीचरण स्कूलों में भी। "

हरि भैया ने मास्टर जी की ओर देखा।

"हमारे यहाँ क्या।" मास्टर जी ने गहरी साँस ली, आँखें सजल

"नहीं नहीं, मास्टर जी को इस झंझट में न खीचिये। सरकारी स्कूल है।" सेठ जी बोले, "छोटे-छोटे बच्चे हैं, इतना परिवार सब इनकी नौकरी पर ।"

"लानत है इस नौकरी पर!" मास्टर जी ने गहरी साँस ली, "पड़ायेंगे तो क्या, हाजरी दे आयेंगे। हम लोग तो दुःख शोक में मन मारकर उपवास भर कर सकते हैं।"

कचहरी में क्या उम्मीद है?" हरि भैया ने कोहली की ओर देखा।

"क्या कह सकते हैं!" कोहली ने गहरी साँस ली, "सब तरह के लोग हैं। आज भद्दरी के मामले की तारीख है। वर्ना हम न जाते, खैर, वहाँ जाकर देखेंगे।"

हरि भैया के साथ सेठ जी मास्टर जी और अमर भी लौट आया। अमर ने शोक विज्ञापन का एक कागज ले लिया।

"यह इश्तहार स्कूल नहीं ले जाना।" मास्टर जी ने चेतावनी दी।

"हमारे स्कूल में भी हड़ताल होनी चाहिये।" अमर बोला।

"तुम्हें इस झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं।" सेठ जी ने समझाया। हरि भैया ने उनका समर्थन किया।

"यूनिवर्सिटी में हड़ताल हो रही है, क्रिश्चियन कालेज में, कालीचरण स्कूल में " "वहाँ की बात अलग" सेठ जी के माथे पर चिन्ता की लकीरें बन गयीं। गवर्नमेंट स्कूल की बात दूसरी तुम्हें नक्कू नहीं बनना। जैसा मास्टर जी कहें वैसा करो।"

"देखो बेटे, " हरि भैया ने अमर के कधे पर हाथ रखा, "गांधी जी कहते हैं, हम सब को अपनी स्थिति में अनुशासन मानना चाहिये। सत्याग्रही जेल में हो तो उसे जेल का अनुशासन मानना चाहिये, समझे!" हरि भैया ने पंजा उठाकर गांधी जी के वचन की मोहर लगा दी। अमर कुछकर मौन रह गया।

सेठ जी कन्धे पर शाल डाल, हाथ में छड़ी लेकर समीप बाजार में हडताल के लिये बात करने चले तो अमर को फिर चेतावनी दी, “बेटे, तुम मास्टर जी के साथ स्कूल जाना।"

मास्टर जी को पुकार कर, अमर को साथ ले जाने का अनुरोध कर दिया। अमर और भी कुद्र गया खुद हड़ताल करवाने जा रहे और हमें मना कर रहे हैं!

मास्टर जी स्कुल के लिये चले तो ओमप्रकाश साथ था। उन्होंने अमर को भी पुकार लिया। सड़क पर आकर अमर को राजाबाज़ार की हालत देखने की उत्सुकता हुई, परन्तु मास्टर जी की अवज्ञा न कर सका। स्कूल के फाटक के समीप दीवार पर शोक सूचना का बड़ा इश्तहार चिपका था, लेकिन उसे फाड़ दिया गया था। फाटक के बाहर पन्द्रह-बीस लड़के काला झण्डा लिये नारे लगा रहे थे, 'हड़ताल है। शेरे पंजाब जिन्दाबाद। जालिम सरकार मुर्दाबाद।' लड़के क्रिश्चियन कॉलेज और कालीचरण स्कूल के थे। फाटक के बाहर पुलिस के दो सिपाही मौजूद थे। स्कूल के दो चपरासी गैर लड़कों को रोककर अपने स्कूल के लड़कों को भीतर ले रहे थे। अमर ने देखा स्कूल फाटक से चालीस-पचास कदम इधर दसवीं के विद्यार्थी अहमद रजा और हरसहाये खड़े थे। अमर से नजर मिलने पर उन्होंने भीतर न जाने का इशारा कर दिया।

फाटक पर नारे लगाने वाले लड़कों की भीड़ से आँखें बचाने के लिये मास्टर जी ने गर्दन

झुका ली। सिर झुकाये फाटक के भीतर चले गये। ओमप्रकाश उनके पीछे-पीछे अमर ठिठका, रज़ा और हरसहाय की ओर बढ़ गया। स्कूल टाइम की घण्टी बजी चपरासियों ने फाटक बन्द कर लिया।

"चलो शहर में हड़ताल देखें।" रजा ने कहा।

"अमां, चौपटिया चलें। आज मुर्गों का दंगल है।" हरसहाय ने बताया, "हम तो उधर जा रहे हैं।" वह आगामीर की ड्योढ़ी की ओर चल दिया, रजा और अमर रकाबगंज की ओर। लगभग बन्द किसी दुकान के पल्ले खुले या अधखुले दिखायी दे जाते तो कुछ लोग हाथ जोड़कर या धमकी से दुकानकार को देश के शोक में साथ न देने के लिये लानत देने लगते। दुकान के किवाह हुँद जाते बन्द उजड़े बाज़ारों में पुलिस के दो-दो लठैत सिपाही शिथिल कदमों से लठियाँ टेकते या घसीटते शान्ति रक्षा के लिये गश्त कर रहे थे। चौराहों पर चार-छ: सिपाही बन्दूकें दीवार से टिकाये, आराम से खड़े हथेली पर सुरती मलते, बीड़ियाँ फेंकते दिखायी दे जाते। सिपाही सब हिन्दुस्तानी खास-खास जगह गोरे सार्जेन्ट, पेटी में पिस्तौल लगाये, बेंत लिये। कभी पुलिस का कोई अंग्रेज अफसर नजरसानी के लिये मोटर साइकल पर गुजरता तो आराम से खड़े सिपाही चुस्ती से तन कर सैल्यूट दे देते। फिर वही शैथिल्य ।

"साला अंग्रेज हिदुस्तानी को हिंदुस्तानी से ही जूते लगवाता है।" रजा का स्वर खिन्न था।

रज़ा और अमर बन्द सूने बाज़ारों से गुजरते अमीनाबाद से कैसरबाग लालबाग के रास्ते हजरतगंज चले गये। हड़ताल लालबाग तक थी, हजरतगंज में नहीं। उन दिनों हजरतगंज में आजकल की तरह भीड़-भट्टक्का न होता था। दुकानों के सामने फुटपाथ पर दुकानें न थीं। आम हिन्दुस्तानी उधर नहीं जाते थे। संध्या समय भी कम ही लोग दिखायी देते। गंज में जितनी दुकानें हैं, तब इससे चौथाई थीं। गंज का रूप दूसरा था। बिलायती कम्पनियों वाइट वे, आर्मी एण्ड नेवी स्टोर, स्पेंसर की बड़ी बड़ी दुकानें यूरोपियनों की मसरफ की चीजें बेचने वाली ग्राहकों की संख्या कम कुछेक छोटी दुकानें हिन्दुस्तानियों की। तब लखनऊ छावनी में कई गोरी पल्टने रहती थीं। सैकड़ों अंग्रेज अफसरा नगर और सेक्रेटेरियेट में भी बड़े अफसर सब अंग्रेज यूरोपियन कम्पनियों के दफ्तरों दुकानों में यूरोपियन कार्यकर्ता। हजरतगंज में अधिकांश युरोपियन स्त्री-पुरुष या यूरोपियन पोशाक पहने लोग दिखायी देते। उनके अतिरिक्त यूरोपियनों के देसी नौकर-चाकर, बैरे- खानसामे, साईस ड्राइवर लालबाग- हजरतगंज के क्षेत्र में जहाँ आज छः-सात सिनेमा हैं, तब एक सिनेमा था- प्रिन्स टिकट खिड़की पर कभी भीड़ न होती।

हजरतगंज में सब दुकानें खुली थीं। नगर के शोक और हड़ताल का यहाँ कोई असर नहीं। रजा ने गाली दी, इन मादर बन्दरों के लिये क्या हड़ताल ! हड़ताल तो तब जब इन कमबख्तों को खाने-पीने को न मिले। लोगों को इतनी समझ आ जाती तो अंग्रेज मुल्क से कभी के भाग गये होते।"

रज़ा और अमर बात करते माल रोड से छावनी की तरफ चले गये। रज़ा ने बताया, "हमारे मामू कहते हैं, अंग्रेज उस रोज़ भागेगा जब हिन्दुस्तानी मजदूरों और फौजों में बेदारी हो जायेगी। हड़ताल तब मानें जब मुल्क भर में रेल डाक तारे बन्द हो जायें फौजें पब्लिक से मिल जायें।

हमारे मामू बरसों से इसी काम में हैं। तब से जब कांग्रेस- खिलाफत ने कहा था सब लोग स्कूल-कालेज छोड़ दो। सरकारी नौकरी छोड़ दो। पुलिस अदालत- फौज की नौकरी हराम है। सब लोग सरकार से अदम-तआवुन (असहयोग) कर दें। एक बरन में स्वराज हो जायेगा। बहुत लोगों ने स्कूल-कालेज, सरकारी नौकरियों छोड़ी। कुछ दिनों में कांग्रेस-खिलाफत ठंडे पड़ गये। लोग माफी माँगकर फिर नौकरियों पर, स्कूल- कालेजों में चले गये। साले थूका हुआ चाट गये। हमारे मामू अलीगढ़ कालेज में थे। कालेज छोड़ खिलाफत का काम करने लगे। फिर कालेज न गये। बड़े कट्टर मुसलमान, कसम ले ली दारुलहर्ब (मुस्लिम विरोधी सरकार मुल्क में नहीं रहेंगे। जिन्दगी खिलाफत के लिये कुर्बान कर देंगे। टर्की जाकर खिलाफत के लिये शहीद हो जायेंगे। खिलाफत की बाबत मालूम है। तुम्हें?" रजा ने पूछा।

"कांग्रेस और खिलाफत दोनों स्वराज के लिये लड़ रहे थे।" अमर ने बताया।

"नहीं यार" रजा हँस दिया, "बहुत से हिन्दुओं और नादान मुसलमानों का भी खयाल है. खिलाफत का मतलब अंग्रेजों की मुखालफत दरअसल बात दूसरी । तुर्की के बादशाहों को खलीफा कहते थे। दुनिया भर के मुसलमान उन्हें अपना बादशाह मानते थे। खलीफाओं के राज में तुर्किस्तान में रिआया पर मुल्ला और अमीर उमरा का बहुत जुल्म था, जैसे अपने मुल्क के राजा-नवाबों की हुकूमत में अपने हरम में सौ-सौ दो-दो सौ औरतें, सैकड़ों गुलाम रखते। निहायत बदइन्तज़ामी बेइन्साफी रिआया से चाहे जैसी बेगार लेते, जिसे चाहें जबर्दस्ती फौज में भरती कर लेते। बड़े जंग में तुर्की अंग्रेजों के खिलाफ जर्मनी के साथ था। जंग में जर्मनी और तुर्की हार रहे थे। तुर्किस्तान रूस के नज़दीक है। वहाँ के रौशन खयाल लोगों का हौसला रूस के इन्कलाब से बढ़ा। प्रजा ने खलीफा के खिलाफ बगावत कर दी। अंग्रेजों ने उस बगावत में अपना फायदा देखा। अंग्रेजों ने बगावत में मदद दी। तुर्की के तरक्कीपसन्द लोगों ने कमालपाशा को लीडर बनाकर जम्हूरियत कायम कर ली। हिंदुस्तान के मुसलमान न जानें न समझें। ये कहें: खलीफा तो पैगम्बर के वारिस, खिलाफत खत्म तो इस्लाम खत्म खलीफा की मदद के लिये खिलाफत पार्टी बना ली। यहाँ गांधी, कांग्रेस, मुसलमान सब कहते: अंग्रेजों ने जुल्म करके खलीफा से हुकूमत छीन ली है। तुर्की में फिर खिलाफत कायम होनी चाहिये।

"हिंदुस्तान से हजारों मुसलमान, कोई हज के बहाने, कोई अफगानिस्तान की राह, जान हथेली पर रखकर खलीफा की मदद में लड़ने के लिये चल दिये।" रजा ने गाली दी, खुद तो अंग्रेजों के गुलाम, तुर्की में खिलाफत कायम करेंगे। खिलाफत पार्टी यहाँ कुछ कर नहीं सकी। चन्दा जमा करके तुर्किस्तान के जंग में जख्मी और परेशान लोगों की मदद के लिये वालंटियर भेजे। हमारे मामू भी उसी धकापेल में तुर्की चले गये। दिल में खयाल कि खलीफा की मदद के लिये जिहाद में लड़ेंगे। तुर्की ने हिन्दुस्तान के मुसलमानों को फटकारा: हमारी मदद के लिये इतनी दूर आये हो, पहले अपने घर में चिराग जलाओ। पहले अपने मुल्क में अंग्रेजों से निपटो। इस्लाम मुल्लाओं और अमीरों का जुल्मो जब बर्दाश्त करने में नहीं है, मसाबात (समता) और इन्साफ में है। ख़ुदा के हुक्म से न कोई मालिक है, न गुलाम । सब इन्सान बराबर हैं। कमालपाशा ने सब जालिम मुल्लाओं और अमीरों को दुरे (कोडे) मार-मार कर मजदूर-किसान बना दिया। बहन ने बहुत हलवे पराठे खा लिये, अब

दुरमट लेकर जन्नत की सड़क कूटो बेकार पड़े मजारों-मस्जिदों में मदरसे अस्पताल बना दिये। औरतों को बुरके की जिल्लत से बरी कर दिया। कोई साला एक से ज्यादा बीवी नहीं रख सकता। यहाँ साले अंग्रेज दुनिया भर की जहालत के मुहाफिज (रक्षक)। मुल्ले-ड जितना लोगों को आपस में लड़ायें, सुअर- गाय, मस्जिद-मंदिर के नाम पर फसाद खड़ा करें, सरकार उन्हें इनाम देगी। कहेंगे, यह मजहबी आजादी है। हमारे मामू कहते हैं ख़ुदा और दूसरे एतकाद (विश्वास) सब लाइल्मी और बहम (अज्ञान और अंधविश्वास) है। असली मज़हब इंसानियत है।"

रज़ा और अमर बातचीत करते छावनी में तोपखाना बाज़ार तक चले गये। छावनी में शहर से बहुत बेहतर सड़कें, सब तरफ सफाई सड़क के दोनों तरफ बंगलों में करीने से लगे बगीचे फूलों से भरे सजे। अंग्रेजों के बच्चे औरतें फूलों की पंखुड़ियों से बने गुड्डे-गुड़िया जैसे दमकते-महकते। हर बंगले पर दस-बारह नौकर-नौकरानी। वहाँ भी हड़ताल का कोई चिह्न प्रभाव नहीं। किसी को खबर या चिन्ता नहीं देश का बहुत बड़ा नेता अंग्रेजी सरकार की पुलिस की लाठियों से मर गया, पूरा देश शोक में है। रजा ने सुथरी, बढ़िया- सड़कों और सजे बजे बंगलों की ओर संकेत किया, “हम लोग गंदगी और सड़ांध के दोज़ख में रहते हैं और हमें लूटकर खाने वाले बहन के इस जन्नत में गोरे सिपाहियों के बैरके देखो, हमारे सिपाहियों से कितनी बेहतर, उन्हें कितनी बेहतर वर्दी गोरों को हिन्दुस्तानी सिपाहियों से तिगुनी तनखाह !" तीसरे पहर वे लोग शहर की ओर लौट पड़े।

शोक जुलूस अमीनुद्दौला पार्क से चल चुका था। सबसे आगे ऊँचे बाँसों पर बँधा शेरे पंजाब लाला लाजपतराय का बहुत बड़ा चित्र बहुत से काले झण्डे उसके बाद महिलाओं का दल। अधिकांश स्त्रियाँ दूधिया सफेद खन्दर की साड़ियाँ पहने। कांग्रेस के जुलूसों के आगे चलने वाली महिलाओं की टोली बहुत आकर्षक और प्रभावशाली थी। यह महिलायें नगर के गली-मुहल्लों से बाहर न निकल सकने वाली स्त्रियों जैसी मैली-मसली धोतियों में सिमटी, घूँघट में गर्दनें झुकाये, भीरु, असहाय, मर्दों की नजरों से सिकुड़ती, परन्तु चोरी से उन्हें देखने के लिये आतुर न होतीं। इन स्त्रियों की गर्दने निर्भय उठी हुई चेहरों पर सम्मान के अधिकार का विश्वास, अपने सुदर्शन व्यक्तित्व और वस्त्र-भूषा का गर्व। कुछ के चेहरे पर चश्मे भले लगते। कुछ आँचल से सिर ढंके रखना भी जरूरी न समझतीं। मिसेज़ पैटर्जी के घने घुंघराले केश और मिसेज बाजपेयी के गोरे माथे पर लाल बिन्दी बहुत प्यारी लगती। मिसेज़ बक्षी के स्वस्थ गोरे गुलाबी चेहरे पर बहुत रोब दाब इन महिलाओं की तुलना में अमर को अपनी गली की खियाँ गन्दी गिजगिजी लगतीं। जुलूस के अगल-बगल पुलिस की कुछ टुकड़ियों चुपचाप चल रही थीं।

जुलूस पहुँचने से पहले ही चौक मण्डी का मैदान श्रोताओं से भर गया था। तब आज- कल की तरह लाउडस्पीकर न थे कि मंच से दो-ढाई सौ गज दूर तक लोग व्याख्यान, कविता सुविधा से सुन सकते। पहले आने वाले लोग वक्ताओं के मंच के समीप बैठना चाहते। शेष भीड़ बैठे हुए श्रोताओं को घेरकर खड़ी हो जाती। सभा की व्यवस्था करने वाले लोग हाथ जोड़-जोड़कर खड़े लोगों से अनुरोध करते, "साहेबान, सज्जनों, आप कृपा करके बैठ जाइये ताकि आपके पीछे बैठने वाले लोगों को भी देखने-सुनने का मौका रहे।" गोल बाँधे भीड़ कुछ पीछे हट जाती। कुछ और लोग बैठ जाते। इस प्रकार भीड़ को बैठाने का क्रम चलता रहता।

शान्ति-रक्षा की सावधानी के लिये पुलिस चौक मण्डी मैदान के चारों ओर पहले से तैनात थी। शाहमीना रोड और गोल दरवाजे से खास की सड़क पर लठैत पुलिस की कुछ टुकड़ियाँ खड़ी थीं। खुली जगह में कुछ घुड़सवार पुलिस दो कोनों पर कुछ बन्दुकची सिपाही। कई हिंदुस्तानी सब-इन्स्पेक्टर कुछ गोरे सार्जेन्ट चुस्त वर्दी में कन्धे से तमंचे लटकाये। एक जगह तीन अंग्रेज पुलिस अफसर हाथों में बेटन लिये इधर-उधर नजर दौड़ा रहे थे। अमर, रजा की नज़रें बार-बार उनकी ओर चली जाती।

वक्ताओं ने शेरे पंजाब की देश सेवा का वर्णन किया। श्रीवास्तव जी ने साइमन कमीशन के सम्बन्ध में याद दिलाया, यह कमीशन ब्रिटिश सरकार का धोखा है। कमीशन हिंदुस्तान की हालत और समस्या पर गौर करने के लिये नियत किया गया और उसमें एक भी हिंदुस्तानी नहीं। पूरे देश ने इस कमीशन का विरोध किया आपके नगर में पंडित नेहरू, गोविन्दवल्लभ पन्त, सक्सेना साहब ने इस कमीशन के विरोध में लाठियाँ बर्दाश्त की। शेरे पंजाब भी अपनी आयु और खराब सेहत की परवाह न कर अन्यायी कमीशन के विरोध के मोर्चे पर सबसे आगे रहे। हम जानते हैं, पुलिस ने खास हुक्म से चुन-चुनकर हमारे नेताओं पर वार किये हैं। लेकिन इससे न हमारे नेता हरे, न जनता को डराया जा सका। शेरे पंजाब ने सरकार की लाठियाँ पीठ पर नहीं, सीना तानकर नहीं। मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

"हमारा बुजुर्ग शेर नेता हमारी जनता को आज़ादी की अहिंसात्मक जंग का रास्ता बता गया है। शेरे पंजाब जानते थे, उन्हें चुनकर वार किये गये थे। इसलिये शेरे पंजाब ने उसी शाम, लाठियों की चोट से तकलीफ के बावजूद, आम जलसे में सरकार को चैलेन्ज दे दिया था। शेरे पंजाब का आखिरी एलान था ब्रिटिश सरकार याद रखे, उसकी पुलिस ने मुझ पर लाठियों के जो बार किये हैं, उनसे इस देश में ब्रिटिश सल्तनत की ताबूत में आखिरी कीलें गाड़ी गयी हैं। फिर तालियाँ। "शेरे पंजाब ने अंग्रेज सरकार को समझा देने के लिये अपनी बात अंग्रेजी में दोहरा दी थी।"

श्रीवास्तव जी सड़क पर खड़े अंग्रेज अफसरों की ओर घूम गये, “शेरे पंजाब ने सरकार को कहा था I declare that the blows struck at me will be the last nails in the coffin of the British rule in India."

भीड़ के बहुत से लोगों, अमर, रजा की नज़रें पुलिस और अफसरों की ओर घूम गयीं। हिन्दुस्तानी सिपाहियों और अफसरों के चेहरे भाव -शून्य, अविचलिता अंग्रेज अफसरों के चेहरों पर मुस्कराहट आ गयी।

अमर को वह मुस्कराहट बहुत अपमानजनक लगी। हरामी मुस्करा रहे हैं।" उसने रजा की ओर देखा।

माले समझते हैं, बोबी धमकी है!" रजा के स्वर में क्रोध था।

श्रीवास्तव जी उत्तेजना में बोलते गये, “सज्जनों, शेरे पंजाब के इस चैलेन्ज का मतलब बहुत साफ है। उन्होंने अपने सीने पर पुलिस की लाठियाँ बर्दाश्त करके हमारी आज़ादी की जंग का आखिरी दौर शुरू कर दिया है। अब हमारी जनता ज़ालिमों की लाठियाँ ही नहीं, बदूकों की गोलियाँ, फाँसी और सभी जुल्मों को बर्दाश्त करके उस वक्त तक आगे बढ़ती

जायेगी जब तक हम इस देश से अपनी गुलामी और विदेशी हुकूमत का जनाज़ा नहीं निकाल देते।" मैदान फिर तालियों से गूंज उठा। "वन्दे मातरम् भारत माता की जय। अल्ला हो अकबर शेरे पंजाब जिन्दाबाद !"

श्रीवास्तव जी का चेहरा आवेश से तमतमा गया, स्वर और ऊँचा, "शेरे पंजाब की शहादत की याद में हम सब हिंदुस्तानी यह प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने शहीदों के नक्शे- कदम पर चलते हुए आज़ादी की कीमत अपने सिरों से चुकायेंगे।" पूरा मैदान फिर तालियों से गूंज उठा। श्रीवास्तव जी ने बाँह उठाकर एलान किया, "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।" भीड़ ने फिर तालियों से बक्ता का समर्थन किया। अमर का शरीर आवेश से कंटकिता चौक से लौटते समय अमर ने रजा से कहा, "हम लोगों को भी कुछ करना चाहिये। हरि भैया से कहकर कांग्रेस में शामिल हो जायें।"

"कांग्रेस में क्या करेंगे? साइमन के खिलाफ जुलूस निकला था तब से क्या हुआ? कांग्रेस वाले कहेंगे तकली से सूत कातो. खद्दर पहनी पक्के दीनदार हिंदू-मुसलमान बनो, नमाज- रोज़े के पाबन्द रहो। इत्तहाद करो। उससे अंग्रेज चला जायेगा?

लाला लाजपतराय की शहादत पर शोक हड़ताल और सभा के पूरे मास बाद। जाड़ा अच्छा पड़ने लगा था, लखनऊ की बोल-चाल में दो लिहाफ का जाही। तब सम्पन्न लोगों के यहाँ लखनवी कायदे से महीन कपड़े के लिहाफों में पाव भर रुई भरी जाती थी। ज्यों-ज्यों जाहा बहुता लिहाफों की तादाद दो-तीन, चार-पाँच बढ़ती जाती। जाड़ों की सुबह, अमर नींद टूटने पर लिहाफ में दुबका पड़ रहा था।

"अवध अखबार "आई० डी० टी०1" गली से अखबार वाले की आवाज, “पुलिस कप्तान के कत्ल का राज शेरे पंजाब पर हमले का बदला ! पुलिस कप्तान को गोली इन्कलाबियों ने मारी इन्कलाबियों का एलान पहिये।"

अमर झटके से उठ बैठा, "हरिया, हमें अखबार दो!"

अमर को याद आया पिछले रोज़ लाहौर में अंग्रेज पुलिस कप्तान पुलिस के दफ्तर में गोली से मार दिया गया था। उस समाचार पर उसने विशेष ध्यान न दिया था, परन्तु लाला लाजपतराय पर हमले के बदले की बात से वह फड़क उठा।

पहले दिन समाचार था: लाहौर के टिब्बा फरीद पुलिस दफ्तर से रवाना होते वक्त पुलिस कप्तान साण्डर्स को हमलावरों ने पिस्तौल से गोली मारकर कत्ल कर दिया। हमलावर दो से ज्यादा थे। सार्जेण्ट फर्म और हवलदार चन्दनसिंह ने बहादुरी से हमलावरों को पकड़ने के लिये उनका पीछा किया। सार्जेण्ट फर्ने ठोकर खाकर गिर पड़ा। चन्दनसिंह हमलावरों की गोली का शिकार हो गया। लाहौर पुलिस कप्तान साण्डर्स पर हमले के राज की तहकीकात और हमलावरों की गिरफ्तारी के लिये बहुत सरगर्मी से कोशिश कर रही है। पुलिस कप्तान साण्डर्स के वध का रहस्य और इस काण्ड के लिये उत्तरदायी लोगों का भेद घटना की रात लाहौर में जगह-जगह चिपकाये गये नोटिस से मिला। मूल नोटिस अंग्रेजी में था। अवध अखबार ने नोटिस का अनुवाद दिया था।

अमर ने समाचार और नोटिस दो बार पड़े। सेठ जी और मास्टर जी प्रातः भ्रमण से लौटे न थे। अमर का मन समाचार सबको सुनाने के लिये उमग रहा था। खयाल आया उन

लोगों के लौटने से पहले ठाकुर साहबसिंह को सुना आये। अखवार लेकर गली में निकला। सेठ जी और मास्टर जी लौटते दिखायी दे गये। अमर अखवार दिखाकर बोला, “क्रान्तिकारियों ने शेरे पंजाब की हत्या का बदला ले लिया।"

सेठ जी ने आतंक से ओठों पर उँगली रखकर चुप का संकेत किया, "ऐसी बात गली में चिल्ला कर नहीं कहते।" अखवार मास्टर जी ने ले लिया। वे भी सेठ जी की बैठक में आ गये। सेठ जी ने अमर से ताकीद की, "बेटे, सोच-समझकर बोलना चाहिये। लोगों को सुनाने से क्या फायदा! उस रामसहाय का क्या एतवा

मास्टर जी के पश्चिम मकान में रामसहाय फोटोग्राफर था। रामसहाय का आगामीर की ड्योड़ी की पुलिस चौकी में आना-जाना था। पुलिस को किसी दुर्घटना या दूसरे अवसर पर फोटो खिंचवाने की जरूरत होती तो उसे ही बुलाते। रामसहाय को कांग्रेस से शिकायत थी: लौंडों को भड़का कर दंगा कराते हैं। सब रोजगार चौपट कर दिया। लोगों को सन्देह था, रामसहाय पुलिस को खुफिया रिपोर्ट देता है।

अमर ने समाचार पढ़कर सुनाया। सेठ जी और मास्टर जी के चेहरों पर संतोष और उल्लास चमक आया।

"पूरी बात नोटिस में है।" अमर ने कहा।

"हाँ बेटे, नोटिस पड़ो" अमर नोटिस पड़ने लगा:

जे० पी० साण्डर्स की मृत्यु से लाला लाजपतराय की हत्या का बदला ले लिया गया। यह सोचकर बहुत दुख होता है कि जे० पी० साण्डर्स जैसे मामूली पुलिस अफसर के कमीने हाथों देश की बत्तीस करोड़ जनता द्वारा सम्मानित एक नेता पर हमला करके उनके प्राण ले लिये गये। राष्ट्र का यह अपमान हिंदुस्तानी नवयुवकों और मर्दों को चुनौती था।"

"हाँ भाई, चुनौती तो था।" मास्टर जी ने दबे स्वर में स्वीकारा। उनका उल्लास फूटा पड़ रहा था, "हमें तो कल ही सन्देह हुआ था पर हमने कहा नहीं। बंगाल में क्रान्तिकारी पहले भी ऐसा बदला ले चुके हैं। हाँ बेटे, आगे पड़ो।"

“क्रान्तिकारियों की निन्दा और अपमान कौन करता है?" अमर ने मास्टर जी की ओर ून जय नहीं गया। वे अपने राष्ट्र के सम्मान के लिये प्राणों की बाजी लगा सकते हैं। लेकिन देश के जिन नवयुवकों ने वह प्रमाण दिया है, हमारे देश के नेता उनकी निन्दा और अपमान करते हैं।"

“क्रान्तिकारियों की निन्दा और अपमान कौन करता है?" अमर ने मास्टर जी की ओरदेखा।

"पहले नोटिस पढ़ लो।" मास्टर जी बोले।

"अत्याचारी सरकार सावधान!"

"इस देश की दलित और पीडित जनता की भावनाओं को ठेस मत लगाओ। अपनी शैतानी हरकतें बन्द करो! हमें हथियार न रखने देने के तुम्हारे सब कानूनों और चौकसी के बावजूद इस देश की जनता के हाथों में पिस्तौल और रिवाल्वर आते ही रहेंगे। यह हथियार सशस्त्र क्रान्ति के लिये पर्याप्त न हो परन्तु राष्ट्रीय अपमान का बदला लेते रहने के लिये काफी रहेंगे। हमारे अपने लोग हमारी निन्दा और अपमान न करें। विदेशी सरकार हमारा चाहे जितना दमन कर ले, हम अपने राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा करने और विदेशी

अत्याचारियों को सबक सिखाने के लिये सदा तत्पर रहेंगे। हम सब विरोध और दमन के बावजूद क्रान्ति की पुकार को बुलन्द रखेंगे और फाँसी के तख्ते से भी पुकारेंगे — इन्कलाब जिन्दाबाद!

"हमें एक आदमी की हत्या करने के लिये खेद है परन्तु यह आदमी उस निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था जिसे समाप्त कर देना आवश्यक है। इस आदमी का वध हिन्दुस्तान में ब्रिटिश शासन के कारिन्दे के रूप में किया गया है। यह सरकार संसार की सबसे अत्याचारी सरकार है। मनुष्य का रक्त बहाने के लिये हमें खेद है परन्तु क्रान्ति की वेदी पर रक्त बहाना अनिवार्य हो जाता है। हमारा लक्ष्य ऐसी क्रान्ति है जो मनुष्य के शोषण का अन्त कर देगी। इन्कलाब जिन्दाबाद!"

ह० बलराज सेनापति, पंजाब हिदुस्तानी समाजवादी प्रजातन्त्र सेना "मामूली लियाकत के आदमी का लिखा नहीं है।" मास्टर जी की आँखों में सराहना, "कैसी साफ, सही बात कही है" "वाह वाह! यह तो अनुवाद है। अंग्रेजी में बात और साफ होगी।"

"लीडरों पर लाठी यहाँ भी चली।" सेठ जी स्वर दबाकर बोले, "भई, बंगाली और पंजाबी में बहुत अक्ल और हौसला होता है। बेचारे कांग्रेस वाले शराब और विलायती कपड़े की दुकानों पर धरना दें तो पुलिस उन्हें पीट-पीट कर जेल भेज दे। कोई पूछे, भले आदमी, हिन्दुस्तानी अपने भाई से कहता है- तुम शराब मत पियो, विलायती कपड़ा मत पहनो! यह भाई-भाई के बीच की बात अंग्रेज और पुलिस इसमें क्यों पड़े सत्याग्रहियों पर लाठी चलाने का ऐसा जवाब मिलता तो देखते कितने माई के लाल पुलिस वाले उन्हें मारने पकड़ने आते। ये ही लोग ठीक करेंगे इन बदमाशों को।"

अमर ने फिर पूछ लिया, "नेता क्रान्तिकारियों की निन्दा और अपमान क्यों करते हैं? मास्टर जी झिझक से बोले, "महात्मा गांधी हिंसा की निन्दा करते हैं। उनका मार्ग दूसरा है। वैसे यह नीति भी है। जानते हैं, हजारों आदमी तो ऐसा साहस कर नहीं सकेंगे। जो जितना कर सके।"

"लड़के पढ़ने के लिये आये होंगे।" मास्टर जी उठकर अपने मकान में चले गये। सेठ जी एक गिलास गरम दूध लेकर बही-खाता देखने लगे। अमर नरेन्द्र के यहाँ चला गया, वह नोटिस अंग्रेजी में पढ़ना चाहता था।

कोहली साहब और महेन्द्र किसी मुवक्किल से उलझे हुए थे। अखबार पड़ चुके थे। अखवार नरेन्द्र के पास था। अमर नरेन्द्र के कमरे में चला गया। अमर को नोटिस में अंग्रेजी के तीन शब्द समझ में न आये। नरेन्द्र कैनिंग कालेज में फर्स्ट इयर में था। उसने अमर को पूरा नोटिस अच्छी तरह समझा दिया और पूछा, "तुम रेवोल्यूशनरी बनोगे?" "तुम बताओ, तुम बनोगे?" अमर ने पूछा।

नरेन्द्र हँसा, “लल्लू, यह काम बड़े जोखिम का है। इसमें कांग्रेसियों की तरह छः महीने की जेल नहीं, फॉसी होती है। खून का बदला खून है। हम हेल्प कर सकते हैं।" "हम तैयार हैं, " अमर ने कह दिया, "पार्टी का पता बताओ।"

"हमें खुद नहीं मालूम। पता मालूम होना आसान भी नहीं। वर्ना पुलिस को पहले मालूम हो जाये।"

अमर चुप रहा।

“अमर स्कूल चलते हो?" ओमप्रकाश ने गली से पुकारा।

अमर के साथ सेठ जी भी गली में आ गये, वे गोदाम की ओर जा रहे थे। कोहली अदालत के लिये चल रहे थे।

"कहो रतन भाई, अखबार पढ़ा कैसा जवाब दिया!" कोहली ने स्वर दबाकर पूछा। "हाँ भैया, पड़ा।" सेठ जी धीमे से बोले, "बहुत माकूल जवाब दिया। " स्कूल में लड़के भी प्रसन्न थे। कोई-कोई हाथ की मुट्ठी से तर्जनी बढ़ाकर, छिगुनी हिलाकर मुँह से 'ट्ठा' शब्द कर हँस देते। सब समझ रहे थे, तमंचा चलाने का संकेत है। आधी छुट्टी में अमर ने एकान्त में रज़ा से बात की, "इन्क्लाबियों का नोटिस पढ़ा वह अखवार से नोटिस काटकर ले आया था। रजा ने नोटिस देख लिया था। अमर ने याद दिलाया, "उस दिन जलसे में श्रीवास्तव जी ने शेरे पंजाब का एलान बताया था "मुझे जो लाठियाँ मारी गयीं ब्रिटिश सल्तनत के ताबूत में कीलें बनेंगी। तब साले गोरे हँस रहे थे. अब हँसें!"

"रियाया के पास हथियार होते, लोगों में एका होता तो कोई न हँसता । वैसे मौके पर गदर हो गया होता।" रजा ने समर्थन किया।

अमर ने पूछा, "गांधी जी और दूसरे लीडर इन्कलाबियों के खिलाफ क्यों हैं? उनकी निन्दा क्यों करते हैं? रजा एक जमात आगे था, अमर उसे समझदार मानता था।

"डरते हैं "अंग्रेजों से और क्या!" रजा ने घृणा प्रकट की, "हमारे मामू कहते हैं: कांग्रेसी अंग्रेजों से आजादी का सवाल करते ही नहीं, अपनी वफादारी और खिदमत का इनाम माँगते हैं। ये इन्कलाबियों का साथ दें तो अंग्रेज इन्हें भी बागी करार दे दें। इन्कलाब तो जंग और जान की बाज़ी का रास्ता है, सौदेबाजी का नहीं। नोटिस में साफ कहा है।"

मास्टर जी और रजा के जवाब से अमर का समाधान न हुआ। दो-चार दिन बाद हरि भैया से भेंट हो गयी। उनसे जिज्ञासा की। हरि भैया केवल कांग्रेस की नीति के कारण नहीं, विश्वास से गांधीवादी थे। उन्होंने अमर को अहिंसा का व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष समझाया: गांधी जी क्रान्तिकारियों की निन्दा और अपमान नहीं करते, उन्हें वीर और आत्मबलिदान करने वाला मानते हैं, परन्तु राह भटके समझते हैं। यह सही है कि क्रान्तिकारी अपने उद्देश्य के लिये प्राणों की बाज़ी लगा देते हैं। उनकी वीरता में सन्देह नहीं। परन्तु इस निशस्त्र देश में कितने लोगों के पास बंदूक पिस्तौलें हैं। कितने लोग क्रान्तिकारियों की तरह साहस से जान की बाजी लगा सकेंगे। अहिंसा की शक्ति से लाखों- करोड़ों जनता संघर्ष में भाग ले सकेगी। शस्त्र हाथ में लेकर शत्रु का सामना करना वीरता है, परन्तु निशस्त्र रहकर भी निर्भय शस्त्रों का मुकाबला कर सकना उससे बड़ी वीरता है। महात्मा गांधी कहते हैं: शस्त्र और शारीरिक बल से हम शत्रु को दबा सकते हैं जीत नहीं सकते। कल वह शक्ति इकट्ठी करके फिर हमसे लड़ेगा। न हमें शान्ति मिलेगी न उसे हम शत्रु को मारने के बजाय बैर का कारण दूर कर दें तो शत्रु शत्रु नहीं रहेगा। यही असली जीत है। दोनों की जीत, शत्रु की भी हमारी भी।"

"शत्रुता का कारण हम कैसे दूर कर सकते हैं?" अमर ने पूछा, "अंग्रेजों ने हमारा देश

हमसे छीना है, हम अपना देश चाहते हैं। हम गिड़गिड़ाकर माँगते रहेंगे तो वे दे देंगे?" "जरूर दे देंगे। " हरि भैया ने विश्वास से कहा, "यदि हममें उनका हृदय परिवर्तन करने का आत्मबल होगा!"

"कैसे दे देंगे?" अमर ने शंका की, "दे देना होता तो इतनी दूर आकर यहाँ जमते ही क्यों उनके यहाँ कुछ पैदा नहीं होता। सब यहाँ से ले जाते हैं।"

"ठीक है." हरि भैया ने समझाया, "परन्तु यदि हम उनका हृदय परिवर्तन कर लेंगे तो वे स्वार्थी नहीं रहेंगे। गांधी जी कहते हैं, सब लोग जान की बाजी लगाने का साहस नहीं कर सकते। इसलिये हमें अहिंसा के मार्ग पर चलना है।"

अमर ने फिर शंका की, "सब लोग महात्मा भी तो नहीं बन सकते। आप तो अंग्रेजों को मी महात्मा बनाना चाहते हैं।"

हरि भैया ने मुस्कराकर अमर की पीठ ठोकी, "भैये ठीक कहते हो। गांधी जी यही कहते हैं। तुम गांधी जी की पुस्तकें पढ़ो, सोचोगे तो समझोगे गांधी जी ठीक कहते हैं।" अमर दुविधा में रहा।

मार्च में परीक्षा आरम्भ हो गयी। रज़ा मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था, अमर कक्षा नौ की। आठ अप्रैल को अमर दोपहर बाद का पर्चा करके स्कूल से निकला। अपने सहपाठी से प्रश्नों के उत्तर मिलाता सिटी स्टेशन के सामने दही बड़े वाले की दुकान की ओर जा रहा था। "ताजी खबर! इन्कलावियों ने दिल्ली असेम्बली में बम फेंका इन्कलाबियों का एलान!'* आई० डी० टी० का विशेषांक निकला था। अमर पर्चा खरीद कर सड़क पर खड़ा पढ़ने लगा। समाचार से सहपाठी को भी क्लिक, "शाब्बास! साले गोरों की में डंडा कर दिया।"

बम फेंकने का वर्णन संक्षिप्त परन्तु क्रान्तिकारियों ने बम फेंककर जो घोषणा पत्र बाँटा था वह विस्तृत था। अमर पूरा पर्चा दोनों ओर से पड़ गया। कई शब्द या बातें समझ न सका। जितना समझा, उसी से शरीर रोमांचित था। इस घोषणा में भी साइमन कमीशन का विरोध था। लाला लाजपतराय की हत्या के बदले की बात थी। इस घोषणा में हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना के सेनापति बलराज के हस्ताक्षर थे। लाहौर में साण्डर्स वध के समय जो नोटिस लगाया गया था उस पर भी इसी सेनापति के हस्ताक्षर थे। अमर समझ गया, हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना देश की स्वतन्त्रता के लिये इन्कलाब करने वाली बहुत बड़ी पार्टी है। वह घर न लौटा। बारुदखाना की ओर चल दिया।

रजा का मकान पुराने ढंग का था। तंग ड्योढ़ी में दरवाजे के सामने छोटी पतली दीवार का ओटा मकान में शिकमी किरायेदार परिवार भी था। ड्योढ़ी के दोनों ओर कोठरियाँ । दोनों परिवारों के मर्द दिन में बाहर रहते। रजा के पिता हकीम रसूल अहमद शेख का मतव गोलागंज बाजार में था। किरायेदार खलीफा (दर्जी) नसीर बेग की दुकान नजीराबाद बाज़ार में। दिन में परिवारों की बेगमात और बहू-बेटियों कोठरियों में भी उठती बैठती, इसलिये योड़ी के किवाह बन्द रहते और टाट का पर्दा पड़ा रहता। अमर रजा के यहाँ जाता तो बाहर से ही पुकारता ।

रजा गली में आकर अमर को ड्योढ़ी के साथ की कोठरी में लिवा ले जाता। उससे पहले औरतें पर्दे में हो जातीं।

रजा के मकान की ड्योढ़ी के सामने गली में एक व्यक्ति कमीज-पायजामा पहने मोड़े पर बैठा था। समीप दूसरा मोड़ा। अमर ने उस व्यक्ति को रजा का या किरायेदारों का मेहमान अनुमान कर आदाब अर्ज कह रज़ा के लिये पूछा।

""तशरीफ रखिये," व्यक्ति ने अमर को दूसरे मोड़े की तरफ इशारा किया, "रजा दो- चार मिनट में आते हैं। आपकी तारीफ?"

“खाकसार को अमरनाथ कहते हैं। रजा साहब का दोस्त हूँ। हम दोनों जुबली स्कूल के तालिबेइल्म हैं।" अमर ने लखनौवा अन्दाज में उत्तर दिया।

अमर के जवाब देते-देते रज़ा आ गया। रजा ने मेहमान के हाथ में बीड़ी का बण्डल और माचिस देकर अमर को बताया, "हमारे मामू जान हैं।" अमर की ओर इशारा किया. "इनका तआरुफ तो हो गया। आपके बारे में इनसे पहले भी जिक्र हो चुका है।" संकेत कि आदमी भरोसे का है।

रज़ा के मामू के बारे में अमर ने बहुत कुछ सुना था। उन्हें सामने देख उत्सुकता मह आयी' "यह आदमी संसार में कितनी दूर तक देख-सुन आया है। आज अच्छे अवसर से आया।

रज़ा एक और मोठा लाकर समीप बैठ गया, "आज कौन पर्चा था? कैसा रहा?" " आपकी दुआ से अच्छा हो गया, आई० डी० टी० का पर्चा निकला है। आप लोगों ने देखा?" अमर ने पर्चा मामू की तरफ बढ़ा दिया। नज़र मामू के चेहरे पर पर्चे के शीर्षक से मामू की आँखें विस्मय से फैल गयीं। रजा भी पर्चा पढ़ सकने के लिए मामू की तरफ झुक गया। मामू पर्चा पढ़ने में सुलगायी बीड़ी भूल गये।

“हम पूरा नहीं समझ पाये है। हमें भी बताइये।" अमर उत्सुकता वश में न कर पा रहा था।

मामू के चेहरे पर उत्साह की झलक, "बहुत बड़ा काम किया जवानों ने बहुत बड़ा काम! बहुत सही बात कही है। यह लोग इन्कलाब का रास्ता पहचानते हैं। इन्कलाबी ताकत मज़दूर ही हैं। सरमायादारी के हामी कांग्रेसी इस हकीकत को नज़रन्दाज किये हैं। इस मौके पर मुल्क के मज़दूर आर्गेनाइज होते, सब रेलों, तार डाक कारखानों में हड़ताल हो जाती, हिन्दुस्तानी फौजों में बेदारी होती तो मुल्क में इन्कलाब हो सकता था ।"

असेम्बली में बम फेंककर खुद को गिरफ्तार करवा देने वाले क्रान्तिकारियों के नाम थे -भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त । सरकार देश में राजनीतिक आन्दोलनों और मजदूर आन्दोलनों का दमन कर सकने के लिये दो नये कानून 'सार्वजनिक सुरक्षा कानून' और 'उद्योग विवाद कानून' बनाना चाहती थी। असेम्बली में सभी भारतीय मेम्बरों ने उन कानूनों का विरोध किया। कानून पास न हो सके। उस दिन असेम्बली में बायसराय के विशेषाधिकार से इन कानूनों के जारी किये जाने की घोषणा की गयी थी। क्रान्तिकारियों ने सरकार के इस अत्याचार के विरोध में असेम्बली में बम फेंका था। क्रान्तिकारियों ने घोषणा में बम फेंकने का कारण बताया था 'बहरे लोगों को सुनाने के लिये बहुत ऊँचे शब्दों की आवश्यकता होती है। ब्रिटिश सरकार हमारी गुलामी की जंजीरों को मजबूत

करने के लिये नये दमनकारी कानून सार्वजनिक सुरक्षा कानून और उद्योग विवाद कानून जारी कर रही है। यह जालिम कानून असेम्बली में विरोधी बहुमत के कारण पास न हो सके परन्तु वायसराय आज अपने विशेषाधिकार से इन कानूनों को लागू कर रहा है। देश के नेता अंग्रेजों से झूठी आशाओं के चश्मे उतार कर देखें, उनके वैधानिक और शान्तिपूर्ण आन्दोलन कितने व्यर्थ हैं। दमन और गुलामी से मुक्ति का केवल एक रास्ता है-जन- संघर्ष!'

मामू ने अमर और रज़ा को समझाया, "सार्वजनिक सुरक्षा कानून का मतलब है विदेशी शासन करने के लिये पुलिस को विशेष अधिकारा साले सार्वजनिक दमन को सार्वजनिक सुरक्षा कहते हैं। औद्योगिक विवाद कानून का मतलब है—पूँजीपतियों और पूँजीवाद के विरुद्ध मजदूर संगठनों और मज़दूर आन्दोलनों को पैदा होते ही कुचल सकता। अंग्रेज सरकार ने समझ लिया है, उन्हें खतरा कांग्रेस के अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण सत्याग्रह के कानूनी आन्दोलनों के ड्रामे से नहीं है, संगठित मज़दूरों की ताकत और अवाम के आन्दोलन से है। हिन्दुस्तान का सरमायादार पूँजीपति वर्ग अंग्रेजों के पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को खत्म नहीं करना चाहता, उसमें अपने लिये भी खासा हिस्सा चाहता है। उसे खत्म करेंगे मजदूर, गरीब नौकरीपेशा, बेजमीन किसान क्योंकि पूँजीवाद और साम्राज्यवाद में उनकी जिन्दगी नामुमकिन होती जा रही है। उनके हिस्से में है सिर्फ गुलामी, भूख और जिल्लत।" मामू ने ध्यान दिलाया, “क्रान्तिकारियों ने बम फेंककर नारे लगाये इन्कलाब जिन्दाबाद! दुनिया भर के मज़दूर एक हो! साम्राज्यवाद का नाश हो! उन्होंने जाहिर कर दिया कि इन्कलाबी ताकत सिर्फ मजदूर हैं। दुनिया भर के मज़दूरों की लड़ाई दुनिया भर के साम्राज्यवाद से है। ये ही कम्यूनिज्म है। दुनिया के प्रोलिटेरियट की एकता और दुनिया पर प्रोलिटेरियट की हुकूमत कम्यूनिज्म है। ये ही दुनिया में दलितों की राहत का रास्ता है "। " मामू दोनों लड़कों को बहुत देर तक रूस में समाजवादी क्रान्ति के बारे में, उसके संसारव्यापी लक्ष्यों के बारे में समझाते रहे। अमर घर लौटा तो बहुत उत्साहित था, जैसे कर्तव्य का मार्ग पहचान गया हो।

उस संध्या वकील कोहली के यहाँ भी असेम्बली में बम विस्फोट के समय क्रान्तिकारियों द्वारा फेंके पर्चे के सम्बन्ध में बहुत देर चर्चा होती रही। उनका विचार: सार्वजनिक सुरक्षा कानून दूसरी बार रौलट एक्ट ही है। औद्योगिक विवाद कानून उससे अधिक दमनकारी रौलेट एक्ट के विरुद्ध कांग्रेस के दस बरस के आन्दोलन का क्या लाभ हुआ? यह आन्दोलन तो कोल्हू का चक्कर "वैधानिक उपायों से विधान से लड़ना खुद कैट्राडिक्शन ।

बड़े लाट की कौन्सिल में बम! कल्पनातीत घटना से पूरे शहर में सनसनी फैल गयी थी। छोटे बच्चे पटाखे छोड़कर या 'ट्ठा ट्ठा' चिल्लाकर बम फेंकने का नाटक करने लगे। बिना कुछ समझे ललकारते रहते: 'इन्कलाब जिन्दावाद! भगतसिंह दत्त जिन्दाबाद! बुजुर्ग उन्हें टोकते रहते: ‘खबरदार! खबरदार! चुप रहो! पुलिस वाले सुन लेंगे।' कुछ दिन बाद भगतसिंह दत्त के चित्र अखबारों में छपे। बहुत से नौजवान भगतसिंह के चित्र की नकल में हैट पहनना चाहते।

असेम्बली में बम विस्फोट की घटना को सप्ताह बीता था। नरेन्द्र अमर के यहाँ आया।

नरेन्द्र ने उसे यंग इण्डिया साप्ताहिक पत्र में असेम्बली बम विस्फोट के सम्बन्ध में गांधी जी का वक्तव्य दिखाया। गांधी जी ने बम फेंकने वाले जवानों की दमनकारी कानूनों के विरोध की भावना से सहानुभूति प्रकट की थी परन्तु उनके कार्य के लिये खेद और असन्तोष प्रकट किया: ""हिंसा का मार्ग आत्मोत्थान और वीरता से स्वतन्त्रता का मार्ग नहीं है। हिंसा द्वारा शत्रु की हिंसा के विरोध से हिंसा समाप्त नहीं हो सकती। यह शान्ति का मार्ग नहीं है। आग से आग नहीं बुझ सकती। हिंसा पर विजय का मार्ग अहिंसा व्रत से स्वयं कष्ट सहकर शत्रु का हृदय परिवर्तन करना है।"

नरेन्द्र ने गांधी जी के वक्तव्य के प्रति क्षोभ प्रकट किया, "देश के अपमान और अत्याचार के विरोध में साहन से आत्मबलिदान करने वालों के कार्य को हिंसा कहना बहुत अन्याय है।" नरेन्द्र ने क्रान्तिकारियों की घोषणा आई० डी० टी० से काटकर रख ली थी। घोषणा अमर के सामने पड़कर कहा, "क्रांतिकारियों ने ठीक कहा है: कांग्रेस का आन्दोलन विफल रहा है। हजारों आदमियों ने सत्याग्रह में लाठियों झेलीं, जेल गये। सरकार का हृदय परिवर्तन न हुआ। क्या लाभ हुआ दस वर्ष तक आन्दोलन से? कौन्सिल के मेम्बर नेताओं की कमाई यही रही कि उन्होंने दमनकारी कानून कौन्सिल में पास नहीं होने दिये। वायसराय ने स्पेशल आर्डर से उन्हें जारी कर दिया। हो गयी इनकी टॉय-टॉय फिस्सा जनता को मालूम भी न हुआ था कि कॉन्सिल में कानूनों का विरोध हुआ था। अब तो दुनिया जान गयी सरकार क्या जुल्म कर रही है। गांधी जी कम से कम चुप ही रहे। क्रान्तिकारी इनकी पार्टी के मेम्बर नहीं। गांधी जी को उनके काम से मतलब! यह सिर्फ अंग्रेजों की खुशामद अंग्रेजों को दिखाना चाहते हैं-हम तुम्हारे जूते खाकर भी तुम्हारे सामने हाथ जोड़ते हैं। हम पर रहम करो।" नरेन्द्र की आलोचना से अमर पूर्णतः सहमत और कान्तिकारियों की निन्दा से बहुत क्षुब्ध था।

अमर तीन-चार दिन बाद रजा, नरेन्द्र को साथ ले हरि भैया से बात करने के लिये कांग्रेस दफ्तर गया। हरि भैया प्रतिदिन दो घण्टे तकली या चर्खा काते थे। तकली कातते- कावते अमर और रजा की बात सुनी। अमर और रजा ने गांधी जी के वक्तव्य के प्रति अपना ओभ व्यक्त, कर असन्तोष प्रकट किया। हरि भैया ने उनका विरोध शान्ति मे सुना। विस्तार से अहिंसा की शक्ति की व्याख्या की। लड़के शंकायें करते रहे। हरि भैया तकली का नियमित कार्य पूरा कर बोले, "चलो. तुम्हें शास्त्री जी से मिलायें। तुम लोगों को उनकी बात जॅचेगी। शास्त्री कांग्रेसी हैं, समाजवादी भी। कई विषयों में हमारा उनका मतभेद है परन्तु वे विद्वान सत्पुरुष हैं।"

नाथ शास्त्री ने बहुत धैर्य से गांधी जी और कांग्रेस के विरुद्ध नरेन्द्र- रजा अमर का क्षोभ सुना। शाखी ऍ-ऍ करते, रुकते, जरा बनारसी लटके से बोलते थे, गांधी जी हिंसा वा बल प्रयोग की निन्दा जरूर करेंगे। अहिंसा गांधी जी के लिये नीति नहीं, धर्म विश्वास है, परन्तु जनता क्रान्तिकारियों का आदर करती है कांग्रेस में सब तरह के लोग है न!

हिंदुस्तानी जमींदार और पूँजीपति भी अपने ऊपर अंग्रेजों की हुकूमत क्यों चाहेंगे? वे लोग राज अपने हाथ में लेने के लिये आजादी की लड़ाई में मदद क्यों नहीं करेंगे? पहला सवाल विदेशी गुलामी से मुक्ति का फिर जनता बहुमत से जैसा राज चाहेगी, वैसे होगा। कांग्रेस का कार्यक्रम तो उसके मेम्बरों या प्रतिनिधियों के बहुमत से तय होता है। कांग्रेस के लाखों मेम्बर क्या पूँजीपति हैं?

जनता में जागृति होगी तो लोग क्रान्तिकारी और समाजवादी कार्यक्रम का ही साथ देंगे। कांग्रेस स्वयं क्रान्तिकारी संगठन बन जायेगा। हमें हिंसा-अहिंसा की परवाह नहीं परन्तु हथियार हैं कहाँ ? भगतसिंह दत्त ने अपनी कुर्बानी से दमन के विरोध की घोषणा की। लोगों ने छिप छिपकर उनकी तारीफ भी की लेकिन किसी शहर में लोगों को साहस हुआ कि उनकी सराहना में जलसा करके जवानों को उस रास्ते पर चलने को कहते? लाला लाजपतराय की शहादत पर सब शहरों में जुलुस सभायें हुई। देखना है, हम जनता को साथ लेकर कैसे, कहाँ तक चल सकते हैं। जानते हो, रूस में भी पहले क्रान्तिकारी लोग जार पर बम फेंकने की कोशिशों में फाँसियों पर चढ़ते रहे। उससे क्रान्ति न हो सकी। लेनिन ने उन्हें समझाया: जब तक जनता को साथ लेकर नहीं चलते, कुर्बानियाँ फिजूल होंगी। रूस में जब मजदूर लोग और सेनायें क्रान्ति में साथ देने को तैयार हो गये तभी न क्रांति हो सकी। जो देश के लिये कुर्बान होने को तैयार हैं वो एक-दो अंग्रेजों को मारकर फाँसी पर चढ़ जायें उससे कहीं बेहतर कि अपनी तरह सोचने वाले हजार-दो हजार आदमी तैयार करें।

"हम गांधी जी के कार्यक्रम को फाइनल नहीं मानते, लेकिन देखो, गांधी जी आन्दोलन चलाते हैं तो देश भर में चालीस-पचास हजार आदमी पुलिस की मार झेलने जेल जाने को तैयार हो जाता है। यह गांधी जी और कांग्रेस की सेना है। हम क्रांति और समाजवाद चाहते हैं; बोलो हमारी सेना कहाँ है? बिना सेना लड़ाई हो कैसे सकेगी? पहले अपने विचारों के प्रचार से अपनी सेना तैयार करना जरूरी है। हम कांग्रेस के आधे जगे लोगों को पूरा जगाकर अपनी सेना बना सकते हैं।"

परीक्षा के बाद अमर और रजा को फुर्सत थी। वे शास्त्री के यहाँ प्रायः जाने लगे। शास्त्री उन्हें नौजवान भारत सभा की छोटी-छोटी पुस्तकें देते 'हिन्दुस्तानी नौजवानों से दो बातें', 'क्रान्ति का मार्ग', 'आजादी की रूपरेखा', 'साम्यवाद का बिगुल', 'मजदूरों का शोषण', 'असहयोग आन्दोलन की असफलता।' पुस्तकें कुछ हिन्दी-उर्दू में, कुछ अंग्रेजी में। शास्त्री ने चेतावनी दी पुस्तकें केवल विश्वासपात्र लोगों को पढ़ने के लिये देनी चाहिये। ऐसी और पुस्तकें मँगवा सकने के लिये कुछ पैसा भी जमा करना जरूरी। अमर इन पुस्तकों को बहुत ध्यान से पड़ता । अपरिचित शब्द डिक्शनरी में देख लेता, जरूरत होती तो नरेन्द्र से पूछ लेता। पुस्तकें नरेन्द्र को भी देता ।

छोटी गली में अमर के लगभग समवयस्क कई लड़के-लड़कियाँ थे। उनके लिये पाठ्य- पुस्तकें पढ़ पाना ही कठिन, दूसरी पुस्तकें क्या पढ़ते! कुछ को कहानी- उपन्यास में चाव था, परन्तु राजनीतिक पुस्तकों में नहीं। सेठ जी के यहाँ अपनी पन्द्रह-बीस पुस्तकें थीं- रामायण, भागवत, प्रेमसागर, चन्द्रकान्ता सन्तति के सब भाग, राधेश्याम कथा वाचक की संगति रामायण कुछ पुस्तकें मास्टर जी की राय से आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव में खरीद लेते। मास्टर जी के यहाँ भी लगभग इतना ही संग्रह — वैदिक धर्म की पुस्तकें, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेद, भाष्य भूमिका और महापुरुषों की जीवनियाँ आदि। सबसे अधिक पुस्तकें थी कोहनियों के यहाँ कुछ धार्मिक पुस्तकै परन्तु ढेरों उपन्यास-भूतनाथ, मनोरंजन पुस्तक माला, जासूसी उपन्यास मालायें, लन्दन रहस्य, पेरिस रहस्य ।

गली-मुहल्ले की स्त्रियों-लड़कियों में तब पढ़ने-लिखने का चलन न था। पुरानी धारणा से स्त्रियों-लड़कियों को पढ़ना-लिखना सिखाना न केवल अनावश्यक बल्कि उनके चरित्र के लिये आशंका जनक माना जाता था। कोहली पढ़-लिखकर वकील बने तो उनके विचार बदल गये। बेटियाँ ससुराल जाकर अपने कुशल-क्षेम का समाचार देने लायक तो हों। उन्होंने अपनी बेटियों भतीजियों को पड़ना-लिखना सिखाने की व्यवस्था घर पर की थी। इस प्रयत्न में बेटियों की माँ भावो ने भी पड़ना-लिखना सीख लिया था। इस शिक्षा का स्तर पढ़ने-लिखने, योग-ऋण, गुणा-भाग तक था। कोहलियों के आँगन की कन्या पाठशाला उनकी बेटियों के ससुराल चले जाने पर समाप्त हो गयी थी। मास्टर जी बी शिक्षा के समर्थक थे। उनके सामने मत्या और छोटी बेटी को पढ़ाने की समस्या। मुहल्ले के पूर्व में अमीनाबाद-गणेशगंज और पश्चिम में चौक के कश्मीरी मुहल्ले के समीप कोई कन्या पाठशाला न थी। मास्टर जी के उत्साह और वकील साहब की सहायता से कोहली के आँगन में फिर कन्या पाठशाला आरम्भ हो गयी थी। अस्तु, गली में पड़-लिख सकने वाली खियाँ- लड़कियों नरेन्द्र की माँ, महेन्द्र की बहु, सत्या, दया और बलदेव टंडन की बेटी मनोरमा । चरित्र और ब्रह्मचर्य के विचार से मास्टर जी किशोरों और विद्यार्थियों का उपन्यास पड़ना उचित न समझते थे। मास्टर जी किशोरों और विद्यार्थियों के लिये चाट-खटाई-मिर्च खाना, सिर के केश आगे-पीछे बड़े-छोटे कटाकर संवारना, ताश-कोही खेलना, नौटंकी- मुजरा देखना, गजल- रसिया गाना सुनना कुछ भी उचित न समझते थे। मुहल्ले और नगर दूसरे लड़के-लड़कियों जो कुछ स्वाभाविक तौर पर निस्संकोच करते, मास्टर जी के बच्चों और शिष्यों के लिये अनुचित चरित्र और ब्रह्मचर्य विरुद्ध ओमप्रकाश और सत्या कहाँ तक मन मारते! जो कुछ पड़ोसी लड़के-लड़कियाँ करते, वे भी करते परन्तु पिता की नजर बचाकर माँ देखकर अनदेखा कर जाती।

ओमप्रकाश और सत्या को उपन्यासों का शौक था। घर में उपन्यास न थे। उपन्यास घर पर पड़ने से भी मास्टर जी की नाराजगी की आशंकार गली के लड़कों में नरेन्द्र सबसे ऊँची कक्षा में था। उस वर्ष वह इष्टर के दूसरे वर्ष में, ओम ग्यारहवीं में, अमर दसवीं में था। नरेन्द्र के मकान में उठने-बैठने की पर्याप्त जगह थी। उसकी माँ भावो स्वभाव से उदार ओम कुछ पूछने नरेन्द्र के यहाँ चला जाता और वहां बैठकर उपन्यास पड़ता रहता। कभी कहानी छोड़ न पाता तो घर ले आता और पाठ्य पुस्तक की जिल्द में रखकर पढ़ लेता। सत्या, कोहलियों के आँगन की शिक्षा बारह की उम्र तक पूर्ण कर घर बैठ गयी थी। मैट्रिक कन्या पाठशाला बहुत दूर अमीनाबाद में लड़की अकेली इतनी दूर कैसे जाती! पड़ोस के दस-पाँच लड़कियाँ जाने वाली होतीं तो ठेले-वेले का प्रबन्ध हो सकता परन्तु दूसरा कोई परिवार इसके लिये तैयार न था। मास्टर जी निरुपाय थे।

उस बरस सत्या पन्द्रह पूरे कर चुकी थी। उसका विवाह निश्चित हो चुका था, बीच में चार मास का समय। अपने दहेज की तैयारी में माँ को सहायता दे रही थी। धोतियाँ, सलूकों पर बेने, बिस्तर की चादरों और तकियों के खिलाफों पर ॐ नमस्ते, स्वागतम्, वेलकम और फूल-पत्ती का कसीदा करती रहती। क्रोशिये का काम भी सीखती मास्टरनी इस कला में दक्ष न थी। कुछ पूछना होता तो कभी गली में दूसरी खियों से पूछ लेती। कसीदे का काम सबसे अच्छा जानती की कोहली की बहू, महेन्द्र की बौहटी (पत्नी) प्रेमा सत्या दोपहर में कसीदा- सिलाई या धोने के लिए कुछ कपड़े लेकर कोहलियों के यहाँ

सुविधा से नल पर धो सकने के लिये चली जाती। गली के अधिकांश मकानों में कहार पानी भरते थे। तब तक छोटी गली में बिजली और नल कोहलियों और सेठ जी के यहाँ ही लग पाये थे।

कमेटी ने कैनिंग स्ट्रीट से सीधी गली में, छोटी गली के सामने बिजली की बत्ती और फिर पानी का नल भी लगा दिये थे। अमर को याद रहा उसके और नरेन्द्र के घर बिजली और नल लगे तो गली में कितनी आलोचना हुई थी। छोटी गली में सभी परिवार द्विज. उच्चवर्ण हिन्दू उस जमाने में अधिकांश हिन्दू डाक्टरी दवा से इस कारण परहेज करते थे। कि डाक्टरी दवाखानों (कैमिस्ट शाप) में दवा नल के पानी से तैयार की जाती है। हिन्दुओं की इस आशंका के समाधान के लिये अमीनाबाद, कैसरबाग में कैमिस्टों की दुकानों के दरवाज़ों पर और भीतर कूप जल भरे, लाल अंगोछों से डॅके पीतल के बड़े-बड़े गगरे और कंडाल सजे रहते थे।

सामान्यतः हिन्दू मात्र नल के पानी की छूत मानते थे। तब गली-मुहल्लों में हिन्दुओं के यहाँ कन्धे पर लाल अंगोछा रखे कहार ताम्बे, लोहे, पीतल की गागरों से और मुसलमान परिवारों में कमर पर हरा नीला अंगोछा बाँधे भिश्ती चमड़े की मशकों से पानी पहुंचाते थे। रेलवे स्टेशनों पर हिन्दू पानी और मुस्लिम पानी अलग-अलग होता। उसी तरह खाने- पीने की दूसरी चीजों की भी हिन्दू-मुसलमान दुकानें पृथक-पृथक अंग्रेज सरकार जनता की साम्प्रदायिक भावना के प्रति विशेष कृपालु थी।

नल विरोध में अगुआ थे सेठ जी के सरीक टंडनों, खन्नों और अग्रवालों के घर सरीकों के समर्थक उन लोगों को आपत्ति थी: नल में चमड़ा लगी टोंटी से पानी पिया तो मशक का पानी पिया मशक का पानी पिया तो मुसलमान का पानी पिया। ऐसा भ्रष्टाचार छोटी जात के लोग भी नहीं कर सकते। आज नल का पानी पिया तो कल सब अलाय बलाय स्वायें पियेंगे। ऐसे लोगों से हुक्का-पानी कौन रखेगा!

गली में वकील कोहली और उनका बेटा महेन्द्र सबसे विद्वान थे, उसके बाद मास्टर जी का नम्बर कोहली ने धमका दिया। टोंटी में चमड़ा नहीं लगता, रबर लगता है। रबर पेड़ का दूध रबर की क्या छत। नल तो बहता पानी, नदी। नदी को क्या छूत ! नदी में कुछ भी गिर पड़ जाये नदी सदा पवित्र नदी में डुबकी लगाने वाला पवित्र हो जाये। जल तो देवता, वरुण देवता। देवता कैसे अपवित्र हो सकता है? गली से निकल कर देखो, सर मिश्रा, सर वाजपेयी, दुबे जी की हवेलियों - बंगलों में नल लगे हैं या नहीं!

सरकारी स्कूल में नल था। लड़कों को घर्र-घर्र जोर से गिरता पानी अच्छा लगता था। कोहली का परामर्श सेठ जी मान गये। कोहली और सेठ जी के यहाँ नल लग गये परन्तु उनके घर में कहार कुएँ से भी जल लाते रहे। गंगा बुआ को नल के जल से बहुत झिझक आरम्भ में सेठ जी नल के नीचे नहा लेते परन्तु पीते कूप जल ही ।

कोहली और सेठ जी के यहाँ नल लगे थे अप्रैल के अन्त में सेठ जी और अमर धोती वा अंगोछा कमर पर बांधे नल के नीचे नहाते तो बहुत देर तक जल की धार के नीचे बैठे रहते। सेठ जी ऊँचे बोलकर सुनाते जाते, 'भई नहाना तो नल से कोई एक गागर से नहायेगा, कोई दो से नहा लेगा। यहाँ मसुरी सौ गागर बदन पर वहा लो। सिर पर जल की धार ऐसे जोर से पड़ती है कि तालू दरक जाये। धन्न हो बिस्वनाथ बाबा जटा पर गंगा मैया की धार सहते हैं।

उनकी कृपा से हम भी गोमती मैया का आशीर्वाद पा लेते हैं।"सेठ जी नल के नीचे नहाते-नहाते 'जै विस्वनाथ बाबा! जै गंगे जमना गोदावरी' बोलते जाते । तब नल बहुत कम थे, इसलिये पानी का दबाव बहुत जबर छः मास बरस भर तक सेठ जी नल के नीचे नहा लेते और फिर 'जै गंगे' पुकार कर कूप जल का छींटा शरीर पर लेकर शुद्ध हो जाते।

सेठ जी का टोना गंगा बुआ को भी समझ में आ गया। वे भी सब देवी-देवता स्मरण करतीं, 'जै गंगे मैया' पुकारती, धोती पहने नल के नीचे बैठ जातीं। नहाकर धोती बदलने से पहले 'जै गंगे' पुकार कर कूप जल का छींटा शरीर पर ले लेतीं। मास्टर जी ठकुराइन, रामसहाय शर्मा की घरवाली दोपहर मर्दों के चले जाने पर कोहलियों या सेठ जी के आँगन में खुले पानी में नहाना-धोना कर लेतीं।

मई-जून में छोटी गली का ईंट का फर्श बहुत तप जाता। गली से धूप निकल जाती तो सेठ जी का नौकर हरिया कहार अपनी योड़ी से बीस हाथ इधर, बीस हाथ उधर तक दस- पन्द्रह गागर नल से भर-भर कर गहरा छिड़काव कर देता। छिड़काव करते-करते ललकार से गंगा मैया की जै, गोमती मैया की जै, बजरंग बली की जै' पुकारता जाता। कोहली के यहाँ से मृत्यु कहार भी अपनी ड्योढ़ी के सामने तरावट कर देता। उनकी ड्योढी छोटी गली का अंत थी। ठंडक के लिये औरतें अपनी ज्योड़ियों में आ बैठतीं। नतीजा यह कि दो बरस बाद रामसहाय शर्मा फोटोग्राफर ने अपने यहाँ नल लगवाया तो देखा देखी अग्रवालों ने भी हिम्मत कर ली। गली से नल की रोक उठ गयी परन्तु खनानियाँ रसोई के लिये कुएँ का जल मँगवाती रहीं। नल के पानी में रंग-गंध तो होती नहीं। कुएँ से एक गागर आ जाने से पर्दा बना रहता।

मास्टर जी गली में आये तो ओम छः का, सत्या चार और अमर पाँच बरस के थे। दीपचंद और नरेन्द्र लगभग सात के नरेन्द्र की सरीक भानजी और मनोरमा, दया बहुत छोटी। ठाकुर साहबसिंह की बेटियाँ नौ और चार बरस की। जयदेव खन्ना का बेटा देव भी चार बरस का गली के बच्चे अपनी-अपनी आयु के खेल-रेल रेल, घरोंदे, आँख-मिचौनी, लट्टू, टीलो खेलते रहते। आपस में छीन-झपट, मार-पीट, कुट्टी- आडी चलती रहती। कोई बच्चे कुर्ता-चट्टी, कोई केवल चड्डी, कोई केवल झगला पहने रहते। उस उम्र में लड़कों- लड़कियों में खास भेद लड़कों के सिर पर शिखा और लड़कियों की गंधी हुई चुटिया के अतिरिक्त कपड़ों में भी नहीं रहता। बच्चों में लिंग भेद की चेतना नहीं होती। अमर-सत्या ऐसे ही बहुत दिन साथ खेले और लड़े थे। बुआ गंगा प्रायः पकवान वकवान बनाती रहती। सेठ जी सन्ध्या चौक के बड़े शिवाले जाते तो मिठाई ले आते। सब बच्चों को बुलाकर पकवान या प्रसाद दिया जाता। गली के दूसरे घरों में भी ऐसा ही होता। अमर को सत्या से धक्का लग जाता या जाती तो उसे मुँह चिड़ा देता, कभी मार बैठता। अमर को सत्या की काजल पुती मिचमिची ऑंखें, रेंट लटकी नाक, खुश्क सॉवला चेहरा, कसकर बँधी बकरी की दुम जैसी उठी चुटिया अच्छे न लगते थे।

तब एक मामूली घटना हो गयी। बड़ों को याद न रही हो। बच्चों के मस्तिष्क पर अवचेतना में कुछ प्रभाव छोड़ गयी हो तो दूसरी बाता महेन्द्र तब मैट्रिक में था। वह कहीं से एक विलायती पिल्ली ले आया। घर में कुत्ता रखने का विचार माँ को अच्छा न लगा। आँगन के दूसरी ओर सम्बन्धियों ने भी ऐसी गन्दगी पर आपत्ति की परन्तु महेन्द्र और बच्चों ने जिद्द पकड़ ली। पिल्ली को रहने दिया गया। मास में कुतिया का कत्बई सुनहरा, मुलायम लम्बा लहरदार रोयाँ, झबरी पूँछ, धरती को छूते कान बहुत सुन्दर लगने लगे। कुर्तिया समझदार और चौकस थी। कुतिया का नाम सुन्दरी पड़ गया।

गली में जब-तब मामूली देसी लेंडी कुत्ते आते रहते थे। मौसम में सावधानी आवश्यक हो गयी। वकील साहब और भावो नहीं चाहते थे कि कुतिया मामूली गन्दे कुत्तों से बच्चे दे। कुतिया को लगातार ड्योड़ी में बाँधकर रखा जाता। घर का कहार नत्थू गली में आवारा कुत्तों को देखता तो उन्हें खेद देता। बच्चों के लिये भी गली में आये कुत्तों को रोड़े मारकर भगा देना मनोरंजन था। एक दिन सुबह ही न जाने कैसे सब सावधानी-चौकसी के बावजूद एक कुत्ता योड़ी तक आ पहुँचा। सुन्दरी कुत्ते को देखकर जोर से भौंकी। नरेन्द्र ने ऊपर से देखा धड़धड़ाता सीडी उत्तर आया। कुत्ते को मार-मारकर गली से बाहर कैनिंग स्ट्रीट तक पहुँचा कर लौटा। गली के बच्चे भी उसके साथ गये।

“ताई, कुत्ता फिल आ गया नलेन्दल भैया, कुत्ता आ गया!" कुछ ही देर बाद हरदेव ने चिल्लाकर सूचना दी। नरेन्द्र फिर लकड़ी लेकर सीढ़ियों धड़धड़ाता उत्तरा। इस बार सुन्दरी ने भौंककर शोर न किया था। बात आगे बढ़ चुकी थी। नरेन्द्र कुत्ते को दोनों हाथों से लाठी मारने को था।

"ना ना भैये। ऐसे में नहीं मारते, रहने दो।" हरदेव की दादी ने मना किया। वह अपनी ऊपर की खिड़की से देख रही थीं। नरेन्द्र की माँ आँगन से आ गयी। उसने भी कुत्ते को मारने से बरजा, "ना बेटे, मत मारो। अब रहने दो। तुम जाओ।"

दूसरे सब बच्चे इकट्ठे हो गये थे। कुत्ते कुतिया का व्यवहार कौतुक से देख रहे थे। "भाग जाओ! अपने-अपने घर में खेलो, जाओ!" भावो ने बच्चों को समझाया। वह भीतर चली गयी। दूसरी स्त्रियों अपने दरवाज़ों से देखकर हँस रही थी और बच्चों से भाग जाने के लिये कह रही थीं। बच्चे हैरान" "हमें भाग जाने को कहकर खुद देख-हँस रही हैं। "ये बच्चे देंगे!" बच्चों की टोली में धन्नो बोली। वह बच्चों में सबसे बड़ी, नौ बरस की। बच्चों का कौतूहल जागा ।

धन भरोसे से बोली, "ऐसा ही होता है।" बच्चे उत्सुकता से धन्नो के साथ उसके आँगन में चले गये। धनो ने प्रत्यक्ष उदाहरण के खेल से समझाया। जैसे प्रायः गुड़िया का व्याह रचाती थी। उदाहरण के लिये पात्र चुने गये अमर और सत्या।

उस शिक्षा प्रसंग पर मास्टरनी की नजर पड़ गयी। क्या गन्दी बातें कर रहे हो भागो यहाँ से!" उसने बच्चों को डाँट फटकार कर भगा दिया। अनुमान किया: छोटे बच्चों को सिखा बता रही थी। लड़की की ऐसी कुप्रवृत्ति के लिए उसने धन्नो की माँ को उलाहना दिया। दोनों में झॉय झॉय हो गयी। तभी मास्टर जी बाहर से लौटे। उन्होंने कलह का कारण पूछा।

छोटी लड़की दया तब चार की हो गयी थी। पटर-पटर बोल पड़ी। नित्य सच बोलने का उपदेश सुनती थी। वह भी खेल की दर्शक थी। "पिता जी धन्नो ने "।" माँ के बरजते- रोकते भी उसने सत्य भाषण के श्रेय के लिये जो देखा था, पूरा बता दिया।

मास्टर जी को बहुत क्रोध आ गया। सत्या को चाँटे लग गये। अमर को बुलाकर कान पकड़वा कर पश्चात्ताप करवाया, "यह बहुत बुरी हरकत है, अब्रह्मचर्य।" अमर और सत्या से कभी वैसा न करने की प्रतिज्ञा करवाई।

गली के बच्चे सुध सम्भालने लगे तो उनके कपड़ों में भेद हो गया। कपड़ों में भेद के साथ लड़का-लड़की होने की चेतना मास्टर जी इसी आयु से लड़के-लड़कियों को ब्रह्मचर्य के विचार से अलग-अलग रहने, स्पर्श और सामीप्य से बचने और सब लड़कियों को बहिन और सब लड़कों को भाई समझने का उपदेश देते। अमर को अब सत्या उतनी घिनौनी न लगती। केश कराकर चुटिया में बँधे रहते थे। नाक और आँखें धुलीं पुछीं। कमर में गाँठ से बंधी धोती कन्धे पर अटकी रहती। घिनौनी नहीं लगती थी परन्तु उससे अमर को कुछ मतलब भी न था।

कक्षा नौ पास करते-करते गली के दूसरे लड़कों की तरह अमर का सिर पिता के कन्धों से उठ गया। लड़कियों के कद अपनी माताओं के बराबर शरीर भर जाने की लाज के बोझ से उछल-कूद समाप्त, बाल मन्थर हो गयी। बाल बहुत सम्भाल कर बाँधती पीठ पर चोटी कमर को छूती । धोती से सिर हेंककर कन्धे आँचल में लपेटे रहती। ओह बँक लेने पर भी सीने और कुल्हों पर आ गये उभार छिप न पाते। सत्या की आँखें फैलकर बड़ी हो गयीं, नाक भी बुरी न लगती । गाल भर कर साँवले चेहरे पर चिकनाई और लुनाई की प्यारी छवि आ गयी।

गंगा बुआ सत्या को अब भी बुला लेती। केवल पकवान या प्रसाद की चुटकी देने के लिये नहीं, बड़ियाँ तोड़ने, पापड़ बेलने, किसी अचार की तैयारी में मसाले बीनने या दूसरी सहायता के लिए। बुआ की अपनी नजर गड़बड़ा जाने से ऐसी सहायता की जरूरत रहती। मास्टर जी के यहाँ अमर का आना-जाना रहता। कोहलियों के यहाँ भी सत्या अक्सर मिल जाती। कभी ताश की बैठक में या किसी दूसरे प्रसंग में।

अमर अब पहले की तरह सत्या को सत्तो या चिढ़ाने के लिए सत्तू न पुकारता । सत्या वा सत्या बहिन बुलाता। सत्या उसे अमरू या अमर नहीं, अमर भाई कहती। एक-दूसरे को मुँह चिढ़ा देने, हाथापाई, धौल धप्प की बात दूर। आपस में झगड़े के बजाय लिहाज समीप से गुजरते तो स्पर्श बचाने के लिये या शील से जगह देकर अमर को स्पर्श से अनुचित सिहरन की कल्पना। बातचीत, ताश के खेल में या दूसरे अवसर पर सामीप्य, बतरस या वाक कलह का विनोद सन्तोष देता। आठ-नौ बरस पूर्व बिना जाने समझे बिना इच्छा या अनुभूति के हुई घटना अमर भूल न गया था। वह याद बहुत धुंधली घटना की अपेक्षा अधभूले स्वप्न की स्मृति जैसी अमर उस याद से सकुचा जाता "सत्या को याद होगा न हो तो अच्छा!

परीक्षा के बाद अमर को जुलाई के पहले सप्ताह तक फुर्सत । वह नाथ शास्त्री से पुस्तकें ले आता गली में केवल नरेन्द्र वैसी पुस्तकें पड़कर बातचीत कर सकता था। पढ़ने को तो भावो (नरेन्द्र की माँ), पुष्पा भाभी भी ठाली बैठी कभी-कभार उन्हें पड़ लेती। कहने से सत्या भी पढ़ लेती। भावो भाभी को उन पुस्तकों में रस न आता। बहुत कुछ समझ न पाती, जो समझ पातीं, उनके विचार में व्यर्थ लड़ाई-झगड़े की बात सत्या पढ़ती तो नरेन्द्र या अमर को समझाना पड़ताः सर्वहारा, साम्राज्यवाद, वर्ग संघर्ष क्या होता है? जाने कितना समझती पर जिज्ञासा से आँखें फैलाये सुनती तो भली लगती ।

मई का आरम्भ स्कूलों में गरमी की छुट्टियाँ नाथ शास्त्री से अमर एक पुस्तक लाया था 'बेस्ट आफ गॉड' दोपहर बैठक में पंखे के नीचे मसनद पर लेटा पुस्तक पढ़ रहा था। पुस्तक में उठायी गयी शंकाओं से मस्तिष्क बहुत उत्तेजित।

गली के मर्द सब दुकानों पर या दफ्तरों में दोपहर में स्त्रियों बच्चों को भयंकर धूप और लू में बाहर न निकलने देने के लिए घरों के दरवाज़े बन्द कर लेतीं। स्वयं दिवानिद्रा लेतीं या घर का छोटा-मोटा काम देखतीं।

अमर पुस्तक नरेन्द्र को दिखाने की उत्सुकता दमन न कर सका, उठ गया। उसने कोहलियों की ड्योढ़ी का किवाड़ ठेला। उनका नौकर नत्थू कहार ड्योढ़ी की ठण्डक में चटाई पर पड़ा था। नत्थू ने निन्दीयाई पलकें झपका कर पहचाना। पलकें फिर मूंद लीं। गली के लड़के-लड़कियों का एक-दूसरे के यहाँ आना जाना चलता ही था।

अमर ने ड्योढ़ी की बगल बैठके में झाँका बैठक ठण्डी रहती थी। नरेन्द्र दोपहर में प्रायः वहाँ बैठता। बैठक के विवाह खुले पर नरेन्द्र न था। दूसरी ओर कमरे में नरेन्द्र की माँ और भाभी पुष्पा बिजली के पंखे के नीचे पसरी हुई थीं। अमर का अनुमान नरेन्द्र ऊपर अपने कमरे में है।

आहट से दूसरों की नींद खराब न करने के लिये अमर पंजों के बल जीना चढ़ गया। कमरे के किवाड़ उनके हुए थे।

"सो रहे हो?" अमर ने धीमी पुकार से विवाह ठेले। प्रत्यक्ष के आघात से गिरते-गिरते पीछे हटा, जैसे किवाड़ों ने बिजली के धक्के से पीछे फेंक दिया।

आवाज से चौंककर सत्या और नरेन्द्र अलग हो गये। सत्या फर्श पर उकडूं बैठ गयी, सिर लज्जा से घुटनों में गड़ा लिया। नरेन्द्र पाँव फर्श पर रखे तख्त पर बैठा रहा। चेहरा चोरी करते पकड़े जाने से फक अमर ने एक ही पलक में देख लिया थाः सत्या नरेन्द्र के आलिंगन में, दोनों के मुख साथ

अमर ग्लानि और लज्जा से गर्दन झुकाये उलटे पाँव ज़ीना उतर गया। अपनी बैठक में लौटकर जूते उतारे बिना, घुटने मोड़े पाँव मसनद से नीचे किये बैठ गया। कल्पनातीत देखने के आघात से मुद्रा मस्तिष्क क्रोध से खौल कर पसीना-पसीना।

अमर पाँव पर स्पर्श से चौका। सत्या ने उकडूं बैठकर पाँव पकड़ लिये, चेहरा घुटनों में छिपाये रही। अमर ने सत्या के हाथ अपने पाँव से हटा दिये। सत्या के गालों पर आँसुओं की मोटी-मोटी धारें। सत्या हाथ जोड़े आँसुओं का घूँट निगल कर साँस से बोली, “भैया, अमा कर दो। किसी से मत कहना मैं क्या करती। तुम जो चाहो कर लो।" बल-बल आँसू । अमर ने गर्दन झुकाये मौना सत्या ने अमर के पाँव फिर पकड़ लिये। अमर ने पाँव खींच लिये, “जाओ, नहीं कहेंगे।"

सत्या तुरन्त उठकर आँसू पोंछती दबे पाँव ड्योढ़ी में चली गयी। पल भर में आँगन से सत्या की आवाज, "बुआ जी हम जरा नल से सिर पर पानी डाल लें। गरमी से सिर फट रहा है।" स्वर बिल्कुल सामान्य स्वस्थ बुआ आँगन के बरामदे में महरी की मदद से गेहूँ पछोर रही थी।

"गोमती मैया बह रही है, मन चाहे नहा लो। यहाँ क्या जल शुद्ध जायेगा! इतनी गरमी मैं

तुम माँ श्री दोपहर में यहाँ ही आ जाया करो। "

सत्या ने खूब छींटे मार-मार कर मुँह धोया। सिर पर पानी डाला। धोती के आँचल से मुँह पोंछती बरामदे में चली गयी, बुआ जी, तुम क्यों ऑंखें फोड़ रही हो। लाओ हम छोर दें।" सत्या का बोल ऐसा कि कुछ असाधारण न हुआ हो।

नरेन्द्र के यहाँ से लौटकर अमर का ध्यान पुस्तक में क्या लगता। मन में ग्लानि और क्रोध उबल रहा था कितने पतित और व्यभिचारी अपना दहेज बना रही है! पन्द्रह दिन में व्याह के लिये गाँव जायेगी। कैसा अनाचा! अभी कैसे बल-बल आँसू बहा रही थी, हिचकी के मारे बोल बन्दा पल भर में 'बुआ सिर पर पानी डाल लें, सिर फट रहा है कितनी मक्कार फरेबी ! तुम जो चाहो कर लो क्या मतलब? मुझे भी वैसा समझती है। इस लांघन की कल्पना से और अधिक क्रोध।

अमर जानता था, सब लोग सचरित्र नहीं होते। गली में सब लड़के-लड़कियाँ भले न थे। बहुत बार कुचेष्टाएँ देखी थीं। फिर भी नरेन्द्र और सत्या को अपना साथी समझता था।

अमर को अप्रैल की घटना याद आ गयी। नरेन्द्र ने अपनी भाभी की छोटी बहिन बसंती से छेड़खानी की थी। सोचा: ऐसे आदमी देश और क्रान्ति के लिये क्या कर सकेंगे? साहस से यंत्रणा और मृत्यु का सामना कैसे कर सकेंगे। ऐसे लोगों से सम्पर्क व्यर्थ। इस क्षोन में पुस्तक क्या पड़ता। लेटकर आँखें मूंद लीं।

अमर की झपकी टूटी, सूर्यास्त से कुछ पूर्व उठकर मुँह-हाथ धोये। ख्याल आया: रजा या सहपाठी रघुनाथ के यहाँ हो आये। चलने को था, नरेन्द्र आ गया। "क्या कर रहे हो?" स्वर में प

“कुछ नहीं।" अमर ने नज़र बचा ली। चाहता था, कह दे मुझे तुमसे कोई मतलब नहीं. गेट आउट।

“चलो विक्टोरिया पार्क की ओर घूम आयें। गोल दरवाज़े पर चाँदीराम के यहाँ ठंडाई लेंगे।" नरेन्द्र का अनुरोधा

अमर समझा, बात करना चाहता है। दुत्कार न सका। उस पर नरेन्द्र का ऐसा दबदवा था। अनमने साथ हो लिया।

"मुझे बहुत खेद है, " नरेन्द्र ने संकोच से कहा। घुमा-फिरा कर कही बात का

अभिप्राय बात उतनी ही थी जो तुमने देखी। उसके लिये खेद और पश्चात्ताप चुप रहने से बात समाप्त हो जायेगी. कुछ बिगड़ेगा नहीं। कहने से मेरी बदनामी परन्तु लड़की कहीं की न रहेगी। किसी का कुछ भला न होगा गलती मुझसे जरूर हुई, परन्तु गलती मेरी ही न थी। मजाक-मजाक में हो गया। उसने इतना उकसा दिया ।

अमर ने खिन्नता में कुछ न पूछा। सोचता जरूर रहा। घटना यो थी कोहलियों का परिवार बैट चुका था परन्तु सरीकों में विरोध- वैमनस्य नहीं। खूब बड़ा साँझा आँगन, पारिवारिक कार्यों, पर्व-त्योहार, सुख-दुख में दोनों परिवारों में सहयोग सहायता।

नरेन्द्र के चचेरे भाई हेमराज की सबसे छोटी कुमारी साली वसंती जब तब चौक से हफ्ते- पखवाड़े के लिये बहिन के यहाँ आ जाती। सत्या की समवयस्क, बहुत चिलबिल्ली। दोनों परिवारों में उम्र से नरेन्द्र ही उसके जोड़ का। दोनों में कुछ ज्यादा ही दिल्लगी। ताश-

तिपत्ती खेलते समय फड़ से नरेन्द्र के पैसे झपट लेती। दोनों में छीन झपट हो जाती। समीप से आते-जाते नरेन्द्र को मुँह चिडा दे, कभी सिर पर हल्की टीप देकर भाग जाये। कभी मुलायम तिनके से नरेन्द्र या किसी दूसरे को पीछे से कान में गुदगुदा दे। कभी इससे अधिक भी। नरेन्द्र ऐसे अवसर के लिये उत्सुक, नहले पर दहला देता। बसंती की बहिन, बहिन की जेठानी और अन्य बड़ी-बूड़ियाँ कई बार टोक चुकी थीं, परन्तु बसंती पर कोई असर नहीं।

उस बार बसंती कुछ ज्यादा शरारत पर। नरेन्द्र की मों से कैची या कुछ माँगने आयी। नरेन्द्र आँगन की ओर बरामदे में मोढ़े पर बैठा कुछ पढ़ रहा था। बसंती आहट दबाये उसके पीछे गयी। हाथ में पकड़ी किनारी की छोर से उसकी गर्दन के पीछे गुदगुदा दिया। इससे पहले कि भाग जाये, नरेन्द्र का बायां हाथ घप्प से उसके सीने पर

बसंती की बहन की जेठानी ने ऊपर छज्जे से देख लिया था। गरज उठी, "ये क्या छिनरा मचा रखा है। क्या भड़की लगी है लॉडिया को इसी उमर में।" क्रोध में बड़बड़ाती गयी।

"क्या है, क्या है?" दूसरी औरतें निकल आयीं। जेठानी ने जो देखा था, साफ-साफ कह दिया। नरेन्द्र और उसकी माँ को भी फटकारा, बहन-बेटियों से छेड़खानी ये सरीफजादों के ढंग!" स्त्रियों में देर तक झाँय झाँव बात इतनी बढ़ी कि बसंती की बहिन ने उसे अगले दिन चोक लौटा दिया।

घटना के समय सत्या कोहलियों के यहाँ थी। देख कुछ न सकी थी। भीतर पुष्पा भाभी सेकसीदे के टीके सीख रही थी। पुष्पा ने कह दिया था, "कम दोनों में से कोई भी नहीं!" सत्या को बहुत कौतूहल क्या शरारत की होगी? नरेन्द्र से उसकी बचपन से बोल-चाला अब नरेन्द्र की आंखों की चंचलता वह भी देखती थी। थोड़ी-बहुत हँसी चुहल किसे नहीं अच्छी लगती!

हफ्ते तक अवसर बन गया। अकेले में सत्या ने नरेन्द्र से पूछ लिया, "बसंती को क्या किया था?" नरेन्द्र ने उसकी आँखों में घूर कर देखा। सत्या के शरीर में सिहरन, उस नजर की याद मन को गुदगुदा देती। नरेन्द्र भी सत्या की आँखों में आँखें गड़ाने लगा। दोनों अवसर की चाह में।

चार-पाँच दिन बाद फिर मौका। सत्या ने मुस्कान से आँखें मटका पूछ लिया, "बताया नहीं, बसंती को क्या कहा?"

दोनों बिल्कुल समीप थे। प्रश्न से उत्तेजित नरेन्द्र का हाथ लपका और सत्या का उभरा हुआ आँचल मसक कर कहा, "थे।"

सत्या तड़प से सिकुड़कर दो कदम पीछे छिटक गयी। चेहरा तमतमा गया, आँखें गुलाबी भाग गयी। अन्य लोगों के सामने उसकी बोल चाल, व्यवहार सामान्य दूसरों से परोक्ष नज़रें मिलते ही सत्या की आँखें चेहरा गुलाबी, धीमे से फुसफुसा देती, "बड़े वैसे ""!" कदम बार-बार कोहनियों के यहाँ जाने के लिये व्याकुल

पाँच-सात दिन बाद दोपहर में सत्या कसीदे के लिये कपड़े पर पुष्पा भाभी से नमूना बनवा रही थी। पेंसिल घिस गयी थी। कपड़े पर निशान न आ रहा था। भाभी ने नरेन्द्र से दूसरी पेंसिल लाने के लिये कहा। सत्या पल भर झिझकी पर ऊपर चली गयी। नरेन्द्र पेंसिल यों ही कैसे दे देता, पेंसिल के लिये चुहल के दाम सत्या को आधा मिनट ही लगा होगा।

जीने से ऐसे धड़धड़ाती आयी कि पुष्पा को डाँटना पड़ा।

उस अभागी दोपहर नरेन्द्र को पुस्तक दिखाने के लिये अमर के जाने से कुछ ही मिनट पूर्व सत्या वहाँ भाभी के पास गयी थी। बैठक का दरवाजा खुला था, वहाँ नरेन्द्र। आँखें चार होने पर नरेन्द्र ने उसे संकेत से बुलाया। सत्या मुस्कान से पलक झपकाकर दूसरी ओर के कमरे में चली गयी। वहाँ भाभी भावो दोनों खटोलियों पर दिवा-निद्रा में बेसुध सत्या एक मिनट बैठी। फिर बैठक में झाँका।

“एक जरूरी बात है। जरा ऊपर आकर सुन लो।” नरेन्द्र सत्या से कह खुद जीना गया।

सत्या फिर भाभी के कमरे में जा बैठी पर रह न सकी, सोचा: बस दूर से बात सुनकर आ जायेगी। नरेन्द्र तख्त पर बैठा था। सत्या आशंका में बात दूर से सुनना चाहती थी। दो कदम के अन्तर पर ठिठक गयी, परन्तु नरेन्द्र ने हाथ बढ़ाकर उसे खींच लिया। उसे समीप बैठाकर बाँहों में जकड़कर मुँह छुआया था कि किवाड़ ठेलने की आहट

"सो रहे हो?" अमर ने दरवाजा ठेलते ही देखा कि सत्या नरेन्द्र की बाँहों में।

नरेन्द्र से सम्पर्क न रखने का विचार अमर निवाह न सका। कुछ ऐसे प्रसंग थे जिनके सम्बन्ध में उससे बात न कर पाता तो रजा, रघुनाथ या नाथ शास्त्री के यहाँ जाता। उस वर्ष दिसम्बर में समाचार आया कि वायसराय लार्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन कोल्हापुर से दिल्ली लौट रही थी। पौ फटने से पहले का अँधेरा नयी दिल्ली स्टेशन से चार-पाँच मील इधर स्पेशल के नीचे भयंकर विस्फोट ट्रेन को बहुत नुकसान दो कम्पार्टमेंट उड़ गये। वायसराय पीछे के कम्पार्टमेंट में था, बाल-बाल बच गया। पुलिस सिर-तोड़ खोज के बावजूद न किसी को गिरफ्तार कर सकी, न योजना का रहस्य जान सकी। देश भर में उत्साह की लहर

• स्पेशल ट्रेन के नीचे बम विस्फोट हुआ २३ दिसम्बर सुबह । २४ दिसम्बर लाहौर में कांग्रेस अधिवेशन का आरम्भा गांधी जी ने पहला प्रस्ताव रखा दुर्घटना से बच जाने के लिये वायसराय को बधाई का और विस्फोट के लिये जिम्मेवार लोगों की निन्दा का। सार्वजनिक अधिवेशन में गांधी जी के प्रभाव प्रतिष्ठा के बावजूद बहुत लोगों ने प्रस्ताव का विरोध किया। बहुत यत्र से बहुत कम बहुमत से प्रस्ताव पास हो सका। इस समाचार का प्रभाव लखनऊ में कैसे न पड़ता। अगले सप्ताह 'यंग इंडिया' में गांधी जी का लेख 'कल्ट आफ द बम'। इसमें क्रान्तिकारियों के व्यवहार की निर्मम आलोचना। नरेन्द्र, अमर, रजा और साथियों का गांधी जी और कांग्रेस पर बहुत क्रोध नरेन्द्र बात तर्कपूर्ण प्रभावशाली ढंग से कह सकता था।

जनवरी का पहला सप्ताह । नरेन्द्र संध्या यूनिवर्सिटी से कुछ विलम्ब से लौटा। अमर को योड़ी पर पुकार लिया, “आओ कुछ दिखायें।" अमर कौतूहल में साथ हो लिया। नरेन्द्र ने ऊपर जाकर अमर को अंग्रेजी में छपा एक बड़ा कागज दिखाया, 'फिलासफी आफ द बम'। बताया: कान्तिकारियों ने गांधी जी के लेख 'कल्ट आफ द दम' का उत्तर दिया है। नरेन्द्र ने समझा-समझा कर बहुत स्पष्टता से पढ़कर सुनाया, ठीक से समझाने के लिये नरेन्द्र

यूनिवर्सिटी में भी कागज को दो बार पढ़ चुका था। उसका स्वर उत्साह से गद्गद गांधी को मुंहतोड़ जवाब। इनके तर्क और युक्तियाँ गांधी की युक्तियों और तर्कों से प्रबल, जमने वाले अमर की प्रसन्नता का अंत नहीं।

गली में आहट से दोनों ने झाँक कर देखा: बाबू (वकील कोहली) लौट रहे थे। कांग्रेस में क्रान्तिकारियों की निन्दा के लिये गांधी जी के प्रस्ताव और कल्ट आफ द बम' लेख से बाबू भी बहुत खिन्न हुए थे। उन्होंने कहा था, "कांग्रेस को क्रान्तिकारियों की भावना से सहानुभूति परन्तु उस भावना से किये काम से विरोध! इस कलाबाजी की क्या जरूरत! उनका आपका रास्ता अलग-अलग आपको उनकी निन्दा से क्या मतलब! सराहना उचित नहीं समझते, चुप रह जाओ।"

"पर्चा बाबू को दिखायें?" नरेन्द्र ने कहा । "जरूर जरूर" अमर को भी उत्साह।

दोनों एक साँस में जीने से नीचे बैठक में।

कोहली पर्चे का शीर्षक देखकर ही गम्भीर कुर्सी पर बैठकर ध्यान से पढ़ने लगे। नरेन्द्र का बड़ा भाई महेन्द्र भी साथ था। कुर्सी के समीप खड़ा वह भी पढ़ने लगा। "यह कहाँ पाया?" बाबू के स्वर में आतंक

"यूनिवर्सिटी में कई जगह चिपके हुए थे, जगह-जगह पड़े थे।"

"इसमें जो कुछ कहा गया, तर्कसंगत प्रभावशाली लग सकता है, ठीक मालूम हो सकता है परन्तु ऐसा पर्चा रखना संगीन जुर्म जिसके पास ऐसा पर्चा बरामद हो, उसे उम्र कैद हो सकती है। पुलिस कितना परेशान करेगी, वह अलग पढ़ लिया था तो साथ नहीं लाना चाहिये था।"

महेन्द्र ने भी पिता का अनुमोदन किया। उस समय वह पिता के जूनियर के रूप में प्रैक्टिस कर रहा था।

बाबू पर्चा हाथ में लिये आँगन में चले गये। जेब से माचिस लेकर पर्चा अपने हाथों जला दिया । राख एक पेड़ की जड़ में डाल दी। नत्थू से मिट्टी गुड़वा कर उस पर जल डलवा दिया। बैठक में लौटकर नरेन्द्र और अमर को समझाया, "तुम दोनों विद्यार्थी हो, उम्र से नावालिग। क्रान्तिकारियों की बातें तुम्हें तर्कपूर्ण और साहसपूर्ण लगती हैं, लेकिन गांधी जी और कांग्रेस नेता भी कायर, नादान या सरकारी पिट्ठू नहीं है। तुम पढ़ो, सोचो, तुलनात्मक अध्ययन करो लेकिन तुम्हें ऐसी कोई हरकत नहीं करनी चाहिये जिससे तुम और तुम्हारे अभिभावक संकट में फंस जायें। "

"आप ठीक कह रहे हैं।" नरेन्द्र ने अनिच्छा से स्वीकारा। "तुम्हारा क्या विचार?" बाबू ने अमर की ओर देखा। "आप सही कह रहे हैं। "

"तुम दोनों समझदार नौजवान हो। हमें विश्वास, तुम सदा सच बोलते हो। ईमानदारी से वचन दो कि अपनी शिक्षा समाप्त कर लेने तक हमारे परामर्श का पालन करोगे।" दोनों को स्वीकार करना पड़ा।

बाबू के दफ्तर से निकलकर नरेन्द्र ने अमर से कहा, "चलो जरा घूम आयें।" कैनिंग स्ट्रीट पर पहुँच कर नरेन्द्र का क्षोभ फूट पड़ा, पिता हैं तो इनका हुक्म देश के प्रति कर्तव्य से भी बड़ा हो गया। भगतसिंह के साहस की बहुत प्रशंसा; अपने बेटों से वैसी बात की कल्पना से ही हौल उठने लगा है। झूठा वचन लेकर संतुष्ट हैं तो रहें। "

दोनों ने निश्चय कर लिया आइन्दा ऐसी बातें बड़े-बड़ों को बताने की जरूरत नहीं। बुट्टों से क्या आशा!

हरि भैया की आयु गृहस्थ की परन्तु खः- सात बरस से वानप्रस्थी थे। वन अर्थात् कांग्रेस आश्रम (दफ्तर) में रहते थे। कारण, पुलिस उनकी टोह में थी। अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेस कार्यकर्ताओं और संगठन के अधिकारियों पर भी कड़ी नजर रखी जाती वे कहाँ कब किससे मिलते हैं. कौन उनसे मिलता है, कौन लोग कांग्रेस को धन की या दूसरी गुप्त सहायता देते हैं। पुलिस के कुछ गुमचर- जिन्हें पहचानने में कठिनाई न होती- उनके मकान के इधर-उधर गली में मंडराते रहते। उनके परिवार की दुकान पर भी नजर रखी जाती। पुलिस की ऐसी चोकसी हरि भैया के भाइयों के लिये परेशानी बन जाती। दुकान के सामने पुलिस की लगातार उपस्थिति व्यवसाय में बाधक होती। पुलिस को देख ग्राहक बिदक जाते।

हरि भैया इस स्थिति से बहुत कुण्ठा अनुभव करते। देश सेवा का व्रत छोड़ न सकते थे। अपने भाइयों की नाराजगी से भी दुख-ग्लानि । विवाह जमाने के रिवाज से कम उम्र विद्यार्थी अवस्था में हो गया था। कांग्रेस का काम आरम्भ करने पर गांधी जी के उपदेश से संयम निबाहने के लिये गौना टालते रहे परन्तु उनके ससुराल वाले कब तक टालने देते। लड़की जवान हो गयी थी। गौना लाना पड़ा। जवानी का उफान, जवानी उमड़ती बहू। नित्य का संगा वह तप व्रत के लिये ससुराल न आयी थी।

हरि भैया गांधी जी के उपदेशानुसार पत्नी को बहिन मानना चाहते थे, परन्तु बहू की गोद हरी हो गयी। पहले बेटा और ढाई बरस बाद एक बेटी परिवार के व्यवसाय में सहयोग देने के लिये हरि भैया को देश के काम से फुर्सत न थी। मन में संकोच कि वे उनकी पत्नी और दो संतानें भाइयों पर बोझ हैं। समस्या का उपाय सुझा, कांग्रेस के वैतनिक सेवक बन जाएँ। कांग्रेस आश्रम (दफ्तर) में रहे। परिवार पर उनका बोझ ही न कम रहेगा, असंयम की आशंका से भी मुक्ति। घर से दूर रहने से घर-दुकान पर पुलिस की चौकसी का संकट भी टलेगा।

देश-कार्य के लिये अपना पूरा समय देने वाले वैतनिक कांग्रेस कार्यकर्ता आई० एन० एस० (इंडियन नेशनल सर्विस) कहलाते थे, जैसे अंग्रेज सरकार के अफसर आई० सी० एस० (इंडियन सिविल सर्विस) और पी० सी० एस० (प्राविंशियल सिविल सर्विस)। दोनों में बहुत अन्तर अंग्रेज सरकार की नौकरी का प्रयोजन वैयक्तिक स्वार्थ से आर्थिक लाभ था। कांग्रेस की सेवा देश का कार्य कर सकने की निस्वार्थ कर्तव्य भावना। जिस योग्यता और कार्य के लिये सरकारी अफसर दो सौ पाँच सौ हजार रुपया पाते, वैतनिक कांग्रेस कार्यकर्ता पचीस-पचास या सौ रुपया ऐसे व्यक्ति भी थे जो सफल वकालत या अच्छी तनखाह की नौकरी छोड़कर कांग्रेस का काम कर रहे थे। सब लोग सम्पन्न परिवारों के न थे, न उनकी आय के अन्य स्रोता ऐसे लोग कांग्रेस से वेतन स्वीकार करने में संकोच अनुभव न करें इसलिये कुछ सम्पन्न और सम्मानित कांग्रेस नेता भी वेतन ले रहे थे। पं० जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के मुख्य मंत्री के पद पर एक सौ रुपया मासिक वेतन पाते थे। नेहरू अपना वेतन कांग्रेस को दान कर देते परन्तु थे वैतनिक कार्यकर्ता। प्रदेश कांग्रेस के

प्रधान सक्सेना साहब अच्छी चलती वकालत छोड़कर कांग्रेस का कार्य कर रहे थे। वे साठ रुपया मासिक पाते थे। कुछ अन्य कार्यकर्ता पचास, चालीस, तीस, पचीस, बीस- उनके कार्य और आवश्यकतानुसार हरि भैया ने केवल बीस लेना स्वीकार किया। सस्ता जमाना था। चार-छ: आने में दोनों समय का भोजन हो जाता। खादी के कुर्ता-धोती स्वयं धो लेते, बसेरा कांग्रेस आश्रम में कभी दो-ढाई मास में पत्नी-बच्चों का हालचाल पूछ आते। किसी पर्वकाज में दो दिन घर में रह जाते तो उतने समय का वेतन न लेते।

कांग्रेस के प्रति जनता की सराहना सहानुभूति आन्दोलन और संघर्ष की गति के अनुकूल चलती थी। जब आन्दोलन और संघर्ष उग्र रहते, सहायता उदारता से मिलती। आन्दोलन शिथिल हो जाने पर सहायकों का उत्साह भी मन्द हो जाता। कांग्रेस कार्यकर्ताओं की संघर्ष की प्रवृत्ति और शक्ति सरकार से संघर्ष में व्यय न होने पर परस्पर स्पर्धा और उतरा चढ़ी में फूटने लगती। तब कांग्रेस कार्यकर्ताओं में स्पर्धा विधानसभा- लोकसभा के चुनाव टिकट या अन्य पदों के लिये नहीं, जोखिम सह कर जन सम्मान और गौरव के स्थान के लिये होती थी।

सन् १९२८ से कांग्रेस उम्र और उग्रतर नीति के प्रस्ताव पास किये जा रही थी। गांधी जी सरकार को सूचना दिये बिना असावधानी में उस पर चोट करना सत्य-अहिंसा की नीति के विरुद्ध समझते थे। प्रस्ताव पास होने के बाद सरकार को सावधान करने के लिये गांधी जी और वायसराय में पत्र-व्यवहार होता। पत्र-व्यवहार से उत्पन्न स्थिति में नया प्रस्ताव पास किया जाता और फिर बायसराय से पत्र व्यवहार, १९३० जनवरी में कांग्रेस ने सरकार की अपमानजनक उपेक्षा से खिन्न होकर पूर्ण स्वतन्त्रता के लक्ष्य का प्रस्ताव पास कर दिया। गांधी जी ने सूचनार्थ वायसराय को पत्र लिख दिया: फरवरी से कांग्रेस आमरण संघर्ष आरम्भ करने के लिये बाध्य हो गयी है, दोष आपकी सरकार का है।

गांधी जी ने जनता को भी सूचना दे दी, 'हमारे संविनय अहिंसात्मक सत्याग्रह संघर्ष का यह अंतिम धावा है। संघर्ष नमक कानून की सविनय अवज्ञा अर्थात् लाइसेंस बिना लिये और बिना कर दिये नमक बनाने के सत्याग्रह से आरम्भ होगा, परन्तु इस संघर्ष का अंत गुलामी से पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त करने पर ही होगा। इस सत्याग्रह संघर्ष में भाग लेने वाले सभी प्रकार की यातना और अत्याचार सहने और प्राणों तथा सर्वस्व बलिदान के लिये प्रस्तुत होकर आगे बढ़ें। सत्याग्रह का आरम्भ में करूंगा। मेरे गिरफ्तार हो जाने या मर जाने पर जनता संघर्ष को स्वयं चलायेगी ।"

तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन बहुत दूरदर्शी थे। वायसराय ने आपत्ति की: कांग्रेस स्थिति को गलत पेश कर रही है। गांधी जी ने इस आरोप का उत्तर देना आवश्यक समझा और आन्दोलन मार्च तक स्थगित हो गया। फिर गांधी जी और वायसराय में पत्र-व्यवहार सरकार ने गांधी जी और कांग्रेस के शान्तिपूर्ण समझौते के सभी सुझाव ठुकरा दिये।

जनता और सरकार पर प्रकट करने के लिये कि संघर्ष आमरण है, गांधी जी ने अपना साबरमती आश्रम सरकार को भेंट कर दिया। सरकार ने गांधी जी की भेंट स्वीकार न की। गांधी जी ने सरकार की अस्वीकृति की चिन्ता न कर आश्रम त्याग दिया। नमक सत्याग्रह दो सौ मील पैदल चलकर 'दांडी' में आरम्भ करने का निश्चय किया गया था। सत्याग्रही सैनिक सब शंका और तर्क छोड़कर गांधी जी के आदेश से अहिंसा समर में सर्वस्व बलिदान के लिये तत्पर हो गये।

हरि भैया तीसरे पहर कांग्रेस दफ्तर लौटे। जीना चढ़ते ऊपर भयंकर कलह कोलाहल से चौंके। वे ऊपर पहुँचे तो बात माँ-बहन की गालियों तक पहुँच चुकी थी। एक और शर्मा दूसरी ओर कांग्रेस दफ्तर के एकाउन्टेंट जगतपति हरि भैया चकित शर्मा और जगतपति मैं साधारणत: अच्छी खनती थी। ऐसा विकट झगड़ा कैसे?

श्रीधर शर्मा चालीस रुपया मासिक पर कांग्रेस का वैतनिक कार्यकर्ता था। शर्मा घर में अनिवार्य आवश्यकता से पचास रुपये पेशगी माँग रहा था। उसने हरि भैया को देखकर दुहाई दी, "किसी को नशे पानी और रंडीबाजी के लिये जब चाहे जितना मिल जाये; हमें ऐसी मुसीबत में पचास उधार नहीं मिल सकते। हमें तिजोरी खोलकर दिखा रहे हैं। दाई से पेट छिपायेंगे! परसों चाँदीराम पुतलाल के यहाँ से बारह सौ आया, वह कहाँ गवा जगतपति पूरी शक्ति से विरोध कर रहा था, परन्तु शर्मा की आवाज अच्छे लाउडस्पीकर के बराबर हमारी मार्फत तो बात हुई।" शर्मा ने ललकारा, "हरि भैया हमारे साथ चलें, दो और भले आदमी चलें। चांदीराम पुत्तूलाल के यहाँ गाँठ पर मोहर आपके सामने लगी थी। गाँठ पर मोहर जरूर है। बीस-बाईस हजार के माल की गाँठ दो मन थी, अब तौल में पच्चीस सेर निकल आये तो हम किसी के पेशाब से मुँह मुँहवा दें। मोहर तो इनकी तिजोरी में रहती है। रिश्वत लेकर चाहे जिसका माल निकलवा दें और फिर मोहर लगा दें। ये फैसला पब्लिक के सामने होगा।"

जगतपति लाचार होकर बोला, “इन्होंने पुतलाल से बात करवाने का त्रिवेदी जी से पचास रुपया तय किया था। पचास ले चुके, अभी और माँगते हैं। अपने बेटे के सिर पर हाथ रखकर कसम उठा लें नहीं लिया पचास रुपया! हमें त्रिवेदी जी और धीवास्तव साहब का जो हुक्म हुआ, किया। उन लोगों के सामने बात हो जाये। नशा पानी- रंडीबाजी करते होंगे ये खुद। हमने तो कल दो माह के लटके बिल चुकाये हैं, सब कार्यकर्ताओं का वेतन दिया है। हरि भैया खुद जानते हैं। हमें किसी का डर नहीं है।" जगतपति ने चाबी हरि भैया के सामने फेंक दी, "जो चाहे हिसाब सम्भाले। हमें जिस तिस से गाली फजीहत मंजूर नहीं है।"

हरि भैया ने कुछ कार्यकर्ताओं के अनाचार और हिसाब में धांधली की अफवाहें सुनी थीं पर जिम्मेवार आदमियों की ऐसी हरकतों का आभास न था। वे उस समय दुख ने मौन रह गये। स्वयं इधर-उधर जाँच की। उन्हें प्रमाण मिल गये कि पिछले चार मास में मोहरबंद गाँठों से विलायती माल निकालने का अवसर देकर साढ़े तीन हजार रुपया लिया जा चुका था। दफ्तर में लगातार जरुरी खर्च के लिये दिकत रही। दो हजार के लगभग रकम गुप्त दान में दिखायी गयी थी, शेष का कुछ पता न था। कार्यकर्ताओं को वेतन बजाजों से ली रिश्वतों से दिया गया था, जानकर हरि भैया को बहुत ग्लानि हुई। खुद भी रिश्वत में आया रुपया ले रहे थे। वे सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह के नाम पर ऐसा अनाचार सहने के लिये तैयार न थे। हरि भैया ने नगर के प्रमुख कांग्रेस नेताओं के यहाँ जाकर अनुरोध किया: बजाजों से रिश्वत लेकर विलायती माल मोहर मुक्त करवाने के मामले की जाँच प्रादेशिक कार्यालय द्वारा करवायी जाये। बजाजों से इस प्रकार ली गयी सम्पूर्ण राशि दान खाते में दर्ज की जाये। दफ्तर से ऐसा रुपया जिन लोगों ने लिया है, वे लौटा दें। वह रकम प्रादेशिक कोष में जमा की जाये। दोषी व्यक्ति कांग्रेस की सदस्यता से वंचित किये जायें।

श्रीवास्तव जी ने ऐसे झगड़े के लिये बहुत खेद प्रकट किया परन्तु प्रादेशिक दफ्तर द्वारा तहकीकात असंगत और कांग्रेस संगठन के लिये घातक बतायी, "इस समय हम लोग सत्याग्रह संग्राम की तैयारी करें या इन झगड़ों में पहें? तुम तहकीकात की बात उठाओगे, सरकार के पिट्ठू अखबार इन अफवाहों को बढ़ा-चढ़ाकर कांग्रेस के मुख पर कालिख पोतने को दौड़ पड़ेंगे। हमें तुम्हें जनता को मुँह दिखाना मुश्किल हो जायेगा। कौन जानता है, किस क्षण गांधी जी गिरफ्तार कर लिये जायें और हमें सत्याग्रह के मैदान में कूदना पड़े ।" त्रिवेदी जी ने समझाया, "तुमने इधर-उधर से जो सुन लिया, सब सच है इसका क्या प्रमाण? सम्भव है एक-दो आदमियों ने गलती की हो। उसके लिये पूरी कांग्रेस को कलंक लगा दोगे ! व्यावहारिक बात करो। कार्यकर्ताओं ने वेतन में जो पायी उसके लिये वे कैसे उत्तरदायी हैं। जो रकम कार्यकर्ताओं के सफर, भंडारे, दफ्तर के किराये में दी गयी उसे कौन भरेगा? खर्च तो कांग्रेस के राजनैतिक काम पर किया गया। हमें इसके उसके निजी आचार की जाँच कराने से क्या मतलब 'कोई खटाई मिर्च खाता है या गुड़-दही, कितने लोटे पानी से खान करता है, पान में तम्बाकू लेता है या नहीं, इससे हमें क्या प्रयोजन। हमारे लिए महत्व इस बात का है कि स्वराज्य के लिये संघर्ष में किसी कार्यकर्ता का काम कैसा है। आन्दोलन और देश के कार्य के लिये वह उपयोगी है या हानिकारक सत्य-अहिंसा की नीति सरकार से राजनीतिक संघर्ष में कांग्रेस का शस्त्र है। तुम सत्य-अहिंसा से कांग्रेस पर ही चोट करना चाहते हो। गांधी जी की बात छोड़ो। गांधी जी संत हैं। सत्य-अहिंसा गांधी जी के लिये स्वयं धार्मिक और नैतिक लक्ष्य है। हम राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। हमारे लिए सत्य अहिंसा राजनीतिक कार्यक्रम और समर नीति है। दो-चार दिन में हम आमरण संघर्ष में कूद रहे हैं, ऐसे समय कांग्रेस की टांग खींचना तुम सत्य-अहिंसा बताते हो!"

हरि भैया को सहानुभूति और सहायता का आश्वासन मिला केवल गुप्ता जी से । गुप्ता जी संगठन में चल रही धांधली से खिन्न थे परन्तु इस समय वह बात उठाना गुप्ता जी को भी नामंजूर, न वे हरि भैया के तरीके से सहमत। उन्होंने समझाया, “कांग्रेस का सिरदर्द दूर करने का उपाय कांग्रेस का सिर काट देना नहीं है। तुम मामले में प्रमाण जुटाओ। पदाधिकारियों के चुनाव के समय यह सवाल उठाकर ऐसे बेईमान लोगों को निकाल फेंका जाय।"

हरि भैया ने सहयोगी कार्यकर्ताओं को बुलाकर कहा, "हम गांधी जी के शिष्य हैं। सत्य- अहिंसा हमारी शक्ति है। हम सत्य अहिंसा की शक्ति खो देंगे तो सत्याग्रह कैसे कर सकेंगे। गांधी जी का उपदेश है: पाप छिपाने से बढ़ता और प्रबल होता है। कांग्रेस को बेईमानी का दीमक लग गया है। सबसे पहले उसका उपाय होना चाहिये। आत्मिक बल और नैतिक साहस खोकर असत्य के पाँव पर खड़ी कांग्रेस हिंसा और अन्याय के विरुद्ध सत्य का आग्रह कैसे कर सकेगी।"

हरि भैया ने जाँच द्वारा न्याय की माँग और अनाचार के विरोध के लिये कांग्रेस दफ्तर में अनशन आरम्भ कर दिया। घोषणा कर दी यदि बहत्तर घण्टे तक प्रादेशिक कांग्रेस के प्रधान उन्हें प्रादेशिक दफ्तर द्वारा जांच का आश्वासन न देंगे तो वे अपने निवेदन की सूचना तार द्वारा दांडी में गांधी जी को भेजकर गांधी जी का उत्तर पाने तक अनशन करते रहेंगे।

हरि भैया कांग्रेस दफ्तर में झण्डेवाला पार्क की ओर बरामदे में चटाई बिछाकर अनशन के लिये बैठ गये। समीप पानी की सुराही - गिलास और 'गांधी विचार दोहन', 'गांधी वचनामृत', 'सत्य-अहिंसा के प्रयोग आदि पुस्तकें रख लीं। अनशन के समय बोलने के धम से बचने के लिये अपना वक्तव्य लिखकर समीप रख लिया। कोई समझाने के लिये आता तो मौन रहते। अपना वक्तव्य दिखा देते।

हरि भैया प्रदेश कांग्रेस के डिक्टेटर सक्सेना साहब के यहाँ धाँधली के सम्बन्ध में जाँच और अनाचार के प्रतिशोध के लिये निवेदन और अनशन के विचार की सूचना दे आये थे। दफ्तर के चारों ओर जीने में सतर्क स्वयंसेवक तैनात कर दिये गये। सक्सेना साहब का आदेश था: किसी भी अपरिचित व्यक्ति या पत्र संवाददाता को ऊपर न जाने दिया जाये। संध्या सक्सेना साहब स्वयं दफ्तर में आये। उन्होंने संक्षिप्त स्पष्ट बात की, “देखो भाई, तुम्हारी शिकायत से हमें चिन्ता है और तुम्हारी भावना से पूरी सहानुभूति है। कांग्रेस से अनाचार दूर करने के लिये जो उचित आवश्यक और सम्भव होगा, किया जायेगा परन्तु परिस्थिति और परिणाम पर विचार करके। तुम कांग्रेस के जिम्मेदार सदस्य और कार्यकर्ता हो। तुम्हें कांग्रेस संगठन का अनुशासन मानना चाहिये। कांग्रेस सदस्यों ने संगठन के अनुशासन और निर्देशन के लिये जिन्हें चुना है, तुम्हें उन पर भरोसा करना चाहिये, उनका आदेश मानना चाहिये। अनुशासन भंग करना अपराध है। कांग्रेस के सभी कार्यकर्ता संगठन को अपने विचार और निर्णय के अनुसार चलाना चाहेंगे तो अनुशासन कैसे रहेगा। कांग्रेस के प्रधान और मंत्री का परामर्श और आदेश न सुनकर अनशन करना अनुचित अहम्मन्यता और अनुशासन की अवज्ञा है। "

हरि बाबू को बोलना पड़ा, "हम अनशन किसी अभिमान से नहीं कर रहे हैं। हम तो कांग्रेस में अनाचार देखकर दुखी हैं। कांग्रेस सदस्य और कार्यकर्ता होने के नाते स्वयं को भी उसके लिये दोषी मानते हैं। हम गांधी जी के उपदेश और आचरण के अनुसार स्वयं अपने अन्तःकरण की शुद्धि और नैतिक बल के लिये और अपने सहयोगियों के अन्तःकरण की शुद्धि और नैतिक बल के लिये अनशन कर रहे हैं। हम अभिमान से किसी पर जोर-जन के प्रयोजन से अनशन नहीं कर रहे।"

"अभिमान नहीं तो और क्या है।" सक्सेना साहब ने डॉटा "तुम समझते हो, गांधी जी के अनशन से देश भर में तहलका मच जाता है, गवर्नमेंट तक उनकी उपेक्षा नहीं कर सकती; तुम्हारे अनशन से भी हम सब तुम्हारा हुक्म मानने के लिये मजबूर हो जायेंगे। सब लोगों का अनशन गांधी जी के अनशन की तरह प्रभावशाली नहीं हो सकता। पहले गांधी जी बन जाओ, फिर अपने अनशन के प्रभाव की आशा करना। गांधी जी पहले महात्मा बने, जननायक बने तब अपने अनशन के प्रभाव की आशा की, उससे पहले नहीं। तुम्हें भी वही करना चाहिये। पहले अनुशासन निबाहने का तप पूर्ण करो फिर अपने अनशन के प्रभाव की आशा करो। "

सक्सेना साहब बोले, "तुम अनशन करो या न करो, हम दूसरे प्रयोजन से आये हैं। आज तीन तारीख हो गयी। तार आया है: गांधी जी दांडी पहुँच गये। वे कल प्रातः सत्याग्रह करेंगे। गांधी जी के गिरफ्तार होने का समाचार मिलते ही देश भर में नमक सत्याग्रह हरि भैया मौन रहे।

आरम्भ किया जाने का आदेश है। गांधी जी की गिरफ्तारी का समाचार संध्या आ जाये, कल आ जाये, परसों या नरसों आये। लखनऊ में सत्याग्रह आरम्भ करने के सम्मान के लिये बहुत लोग आतुर हैं। हम यह सम्मान पहले दिन तीन व्यक्तियों को देना चाहते हैं मिसेज़ चैटर्जी, स्वामी रामानन्द और हरिकृष्ण गर्ग को तुम यह आदेश मानोगे या नहीं?"

हटे।"

हरि भैया की गर्दन उठ गयी, "हम कभी सत्याग्रह और आदेश पालन से पीछे नहीं

"तो फिर यह अनशन समाप्त करो और सत्याग्रह के लिये तैयार हो जाओ।" .."हमने जो प्रण किया है उसे नहीं छोड़ेंगे। सत्याग्रह का अवसर आयेगा तो पीछे नहीं रहेंगे।"

सक्सेना साहब और विवाद व्यर्थ समझ उठ गये।

५ मई प्रातः दस बजे हरि भैया को सक्सेना साहब का संदेश मिला: गांधी जी रात को एक बजकर पांच मिनट पर गिरफ्तार हो गये। आप संध्या चार बजे चौक में काली जी के मन्दिर के सामने नमक सत्याग्रह करेंगे। हरि भैया को अन्न ग्रहण किये पचास घंटे हो गये थे। सहयोगियों ने अनुरोध किया: सत्याग्रह से पूर्व दूध या हल्का आहार ले लें। उन्होंने स्वीकार न किया। सत्याग्रह के लिये तैयार हो गये। बता दिया, हवालात या जेल में उनके लिये कौन कौन पुस्तकें भेज दी जायें।

तीसरे पहर हरि भैया को सवारी पर सत्याग्रह के लिये चौक के समीप काली मन्दिर में पहुँचाया गया। फोटोग्राफर का प्रबन्ध था। मिसेज़ बक्षी ने उनके माथे पर विजय तिलक लगाया। गले में फूलों के हार पहनाये गये, जैसे बलि के बकरे को मन्दिर की ओर ले जाते समय फूल-माला पहनायी जाती है।

सत्याग्रह आन्दोलन में कोई बात गुप्त रखना अनैतिक समझा जाता था। पुलिस काली मन्दिर के समीप नमक सत्याग्रह के लिये नियत स्थान पर मौजूद थी। कुछ कल्लर मिट्टी पहले बटोर कर तैयार थी। उसमें कुछ नमक भी डाल लिया गया था। हरि भैया ने दो तोला नमक बनाने का अनुष्ठान पूरा किया और जय-जयकार के बीच गिरफ्तार हो गये। इसी प्रकार गूंगे नवाब पार्क में स्वामी रामानन्द और गोमती तट पर मिसेज़ चटर्जी ने मालायें पहन स्वयं गिरफ्तारी का वरण किया।

हरि भैया संध्या तक जेल हवालात पहुँच गये। जेल पहुँचकर वे धर्म संकट में थे। उनका अनशन पुलिस और सरकार के विरुद्ध न था। जेल में अनशन जारी रखकर पुलिस और सरकार की मार्फत कांग्रेस संगठन में अनैतिकता की शिकायत गांधी जी तक पहुँचाने का यत्न करना कांग्रेस को धक्का पहुँचाना होता। गांधी जी भी इसे उचित न समझते। गांधी जी का उपदेश था: जेल में जेल का अनुशासन माना जाये। हरि भैया को अनशन स्थगित कर देना पड़ा। नमक कानून भंग करने के अपराध के लिये उन्हें छः मास कारावास का दण्ड मिला।

हरि भैया को आत्मशुद्धि के लिये अपना अनशन निष्फल स्थगित कर देना पड़ा, इसके लिये वे जेल में बहुत कुण्ठा अनुभव कर रहे थे। कांग्रेस संगठन और देश सेवा के अति व्यस्त जीवन में हरि भैया को चुप बैठे सोचते रहने का अवसर न था। जेल में सोचना ही सोचना था। हरि भैया लक्ष्य पूरा किये बिना अनशन तोड़ देने की विवशता में आत्मशुद्धि के प्रयोजन से आत्मालोचना में लगे रहते। उनका विवेक उन्हें निरन्तर कोंचता रहता अजाने में और विवशता में वे रिश्वत पाप के पैसे से निर्वाह करते रहे, इसीलिये उनकी प्रेरणा में वह बल न हो सका जैसे सच्चे सत्याग्रही की प्रेरणा में होना चाहिये। देश सेवा का कर्तव्य निवाहने की उमंग में, स्वावलम्बन का कर्तव्य भूल गये। स्वावलम्बन का कर्तव्य भूलकर अन्य कर्तव्यों के प्रति भी अन्धे हो गये।

हरि भैया को कल्पना में अपनी पत्नी और बेटे-बेटी के अनाथों जैसे मुरझाये चेहरे और दया के लिए गुहारती कातर आँखें दिखायी देती रहतीं। स्वयं परिवार के लिये कुछ न करने के कारण उनकी पत्नी और बच्चे पराश्रित और उपेक्षित उनके भाइयों भावजों की कृपा पर पल रहे थे।

हरि भैया के पिता दस वर्ष पूर्व स्वर्गवासी हो गये थे। हरिकृष्ण और उनकी दो बहिनें दूसरी पत्नी की संतान थे। तीन वर्ष पूर्व उनकी माता का भी देहान्त हो गया तो हरि भैया के पत्नी-बच्चों की अवस्था अधिक करुण हो गयी। वे देश सेवा का व्रत छोड़ न सकते थे। इसीलिए घर की स्थिति देखकर भी अनदेखी कर देने के लिये विवश अब आत्मालोचना और पश्चात्ताप की भावना में पत्नी और बच्चों की कातर पुकार उन्हें आत्म-ग्लानि में डुबो रही थी।

हरि भैया को जेल में छः मास न रहना पड़ा। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने भारत में शासन सुधार की समस्या पर विचार के लिये एक गोल मेज कांफ्रेंस का निश्चय किया। इस कांफ्रेंस मैं भारत के सबसे बड़े राजनीतिक दल, कांग्रेस का सहयोग पाने के लिये नमक सत्याग्रह में दण्डित लोगों की सजाएँ क्षमा कर दी गयीं। हरि भैया जेल से साढ़े तीन मास बाद लौट आये।

जेल से मुक्ति पाकर हरि भैया पूर्ववत कांग्रेस दफ्तर नहीं, अपने घर गये। जेल में किये निश्चय के अनुसार भाइयों के सम्मुख अपने राजनीतिक कार्य के कारण परिवार की हुई असुविधा के लिये खेद प्रकट किया और अपनी जीविका की उपेक्षा करने और पत्नी-बच्चों को भाइयों पर बोझ बनाने के लिये पश्चात्ताप देश और कांग्रेस का काम छोड़ देना उन्हें मंजूर न था। परिवार के व्यवसाय, मशीनी कपड़े और लेन-देन के रोज़गार में वे सिद्धान्त के कारण सहयोग न दे सकते थे। स्वयं पर सरकारी कोषदृष्टि से भाइयों को परेशान न करना चाहते थे। उनका परिवार से पृथक रहकर अपनी जीविका का उपाय करना स्वयं उनके और भाइयों के भी हित में था। हरि भैया न परिवार के व्यवसाय में भाग चाहते थे, न पारिवारिक मकान में हिस्सा। भाइयों ने अपनी न्याय बुद्धि और पाँच पंचों की राय से पारिवारिक व्यवसाय और सम्पत्ति से जितना भाग देना स्वीकार किया, हरि भैया ने संतोष कर लिया।

हरि भैया ने वज़ीरगंज मुहल्ले में तीन रुपया मासिक पर जगह ले ली। कांग्रेस दफ्तर में अपना नया पता दे दिया उनके योग्य जो सेवा हो, जब उनकी आवश्यकता हो, उन्हें सूचना दे दी जाये। समाह भर में हरि भैया दोनों कंधों पर खद्दर की दो-दो, तीन-तीन श्रीतियों डाले, बगल में खद्दर का थान सम्भाले और हाथ में गज़ लिये गली बाजारों में 'शुद्ध खद्दर की फेरी लगाने लगे। नगर में कम गली-मुहल्ले थे जहाँ हरि भैया का आदर-परिचय

न हो । शुद्ध खद्दर और सही दाम के बारे में हरि भैया से विश्वस्त कौन हो सकता था। दोपहर से पूर्व और बाद दो दिशा में फेरियाँ करते। जितना कपड़ा लेकर चलते, लौटते समय हाथ में गज ही रहता।

कांग्रेस दफ्तर में हरि भैया के अनशन की घटना और घटना के कारण की चर्चा कांग्रेस की प्रतिष्ठा के विचार से यथासम्भव दवा दी गयी थी, लेकिन कोई भी बात बिलकुल नहीं दब सकती। बात छोटी गली में भी पहुँच गयी थी। मास्टर जी, कोहली, सेठ जी, नरेन्द्र, अमर पहले भी उनका आदर करते थे, अब और अधिक करने लगे। हरि भैया कांग्रेस के वैतनिक कार्यकर्ता न रहे तो कांग्रेस क्षेत्र में उनका आदर प्रभाव पूर्वापेक्षा वढ़ गया। सभी निर्णयों में उनकी राय की चिन्ता होती सक्सेना साहब, श्रीवास्तव जी, गुप्ता जी भी उन्हें हरिकृष्ण नहीं, हरि भाई या भैया सम्बोधन करने लगे।

अमर ने वज़ीरगंज में हरि भैया का घर देखा था। जब-तब उनके यहाँ हो आता। अमर से सेठ जी ने सुना हरि भैया की पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। सस्ती जगह तंग और अस्वास्थ्यकर थी। रसोई बनाते समय कोठरियों में धुओं भर जाता। बच्चे और मों खाँसते रहते। हरि भैया ने जल्दी में सस्ती जगह ले ली थी परन्तु संतुष्ट न थे। सेठ जी उनकी अवस्था से चिन्तित।

ज़मीन और मकानों का व्यापार सेठ जी का अपना क्षेत्र था। पिछले छः बरस में केनिंग रोड पर सीधी गली से पश्चिम लगभग दो सौ कदम तक पक्के मकान बन गये थे। उसके आगे तब भी धोबियों, घोसियों की झोपड़ियों या कच्ची बस्ती थी। झोपड़ियों और कच्चे मकानों के बीच कच्चा रास्ता या की गली थी। इस की गली में सड़क से दो ढाई सौ कदम पर धोबियों के तीन घर थे। दो साल पहले भारी वर्षा में धोबियों के घर गिर गये। पिछले सालों में समीप और मकान बन जाने से परती जगह में कपड़े सुखा सकने की सुविधा न रही थी। धोबी वहाँ पर फिर से मकान न बनाकर कुतुबपुरवा की ओर खुली जगह में चले गये। इस जगह पर सेठ जी की नज़र थी। वे मालिक जमीन को भी जानते थे।

सरकार और कांग्रेस के प्रतिनिधि गांधी जी में राउन्ड टेबुल कांफ्रेंस के विषय में बातचीत चल रही थी। नौ-दस मास से आन्दोलन स्थगित था। हरि भैया खद्दर की फेरी से संतुष्ट थे। एक दिन सेठ जी ने कच्ची गली की जगह उन्हें दिखायी, "चार सौ गज का टुकड़ा है। समय आने पर इसका दाम काफी बढ़ जायेगा। हमारे पास तुम्हारा तीन हजार है।" हरि भैया ने भाइयों से पृथक होकर इतनी रकम सेठ जी के यहाँ आई समय के लिये रख दी थी। सेठ जी का सुझाव था अपने भट्टे से ईंटें गिरवा कर दो-तीन कोठरियाँ बनवा दी जायें।

"खुली जगह में सुविधा रहेगी। संकोच मत करो। तीन रुपया किराया देते हो, इतने में जमीन के दाम का ब्याज हो जायेगा। चाहे जब तक रहो। समझ में आये, धीरे-धीरे जगह का दाम चुका देना नहीं तो जगह हमारी।"

हरि भैया की अनुमति से दो मास में पक्की ईंट और गारे की चुनाई और चूने की टीप से दो कोठरियों का मकान बन गया। आँगन कच्ची दीवार से घेर लिया गया। सेठ जी ने पानी का नल लगवा दिया। हरि बाबू ने मकान का नाम रखा 'सेवाश्रम' सेवाश्रम छोटी गली के समीप था और उठने-बैठने के लिये खुला आँगन अमर का वहाँ आना-बैठना बढ़ गया। हरि भैया की पत्नी को अमर भाभी कहता और वे उसे लाला पुकारती अमर प्रायः संध्या आता।

भाभी रसोई में होती तो अमर छोटा मोडा रसोई से दरवाजे के समीप रखकर बतियाने के लिये बैठ जाता। भाभी आँगन में खाट पर बैठी हो तो खाट की पाटी में बैठ जाता। हरि भैया की पत्नी को पति की कोई सराहना आलोचना करनी हो या सेठ जी से हरि भैया पर कुछ दबाव डलवाना हो तो अमर ही था।

एक संध्या अमर आकर भाभी के पास बैठा ही था कि उसकी नज़र रसोई की ओर चली गयी।

रसोई के सामने चटाई पर खद्दर की सफेद धोती पहने, बड़ी उम्र की दुबली सी लड़की बाली में आलू काट रही थी। अमर की आवाज़ से चौंककर लड़की ने हाथ की छरी थाली में रखकर माथे से आँचल खींचकर घूंघट कर लिया। घूमकर पीठ अमर की ओर कर ली। अमर ने एक ही नज़र में देख लिया: लड़की के रूखे केश छोटी जुडिया में बंधे। चेहरा दुर्बल, खा, पीला-साँवला उदास आँखें चेहरा दुबला होने से बड़ी-बड़ी लग रही थीं। दीन कातर भाव न हाथों में चूड़ियाँ, न नाक-कान में ज़ेवर।

अमर ने अनुमान किया हरि भैया की बहिन, जिसे रायबरेली से लिवा लाने के लिये कह रहे थे।

भाभी दबे स्वर में बताने लगी, "हमारी छोटी ननद है। रायबरेली से आयी है। गौरी नाम है। अभागिन गोने में गयी तो पन्द्रह बरस की थी। बरस भर में लड़की हो गयी। बेचारी डेड बरस में विधवा हे भगवान्, ननदोई की मौत भी कैसी कहते हैं, ननदोई कुछ आवारा-सवारा आदमी था। मेले -तमाशे का बहुत चाव काम-धाम से मतलब नहीं। बहुत भीड़ में रेल पर चड़ा था तो गाड़ी में घुस नहीं सका। गाड़ी का इण्डा पकड़े लटका-लटका जा रहा था। टाकगाड़ी से हाथ छूट गया। गिरा तो सिर फट गया; कैसे बचता! बेचारी के भाग। इसकी सास कहे डायन है, आयी तो महीने भर में ससुर को खा गयी। डायन के पेट से डायन हुई। वह छः महीने में बाप को खा गयी। सच तो यह है कि इसके जेठ की तीन बेटियाँ पहले से कलेजे पर धरी हैं। बेटियाँ तो तुम जानो हम लोगों में घर-बार बिकवा देती हैं। ससुराल में बेचारी की बहुत दुर्गता घर भर की झाड़ू-बुहारे, कुएँ से पानी खींचे, उपले थापे, आँगन लीपे, चौका बर्तन, घटना कूटना सब ये करें। ऊपर से गाली-गुफ्तार डायन हैं, ससुर को खा गयी, मर्द को खा गयी। पेट भरने को जो रूखा-सूखा बच रहे। तन ढॉपने को सास, जेठानी की उतरना बेचारी कई संदेश भिजवा चुकी थी। हमारे जेठ कान में तेल डाले बैठे रहे पर इनकी तो माँ जाई बहिन है। जेठ हमारी पहली सास से हैं। हमारी नाम से ये और दो बेटियाँ। ये बेचारी छोटी। ये तो कब से चाहते थे, बुला लें। इनके हाथ में तो था नहीं। लाला, किस्मत तो कोई बदल नहीं सकता। यहाँ बेचारी रूखी-सूखी खाकर चैन से भगवान का नाम तो लेगी।

आठ-दस दिन बाद अमर फिर आया। भाभी और गौरी रसोई के सामने चटाई पर बैठी थीं। अमर को देखकर गौरी ने संस्कारवश शील के विचार से सिमट कर माथे पर घूँघट खींच लिया। उठकर भीतर जाने लगी।

भाभी ने ट्रोक दिया, "लाला तो तुम्हारे भाई हैं। तुम्हारे भैया भाई मानते हैं तो तुम्हारे भी। सच यह कि भाइयों से ज्यादा। अपने खून के रिश्ते के भाइयों को हम लोगों की क्या परवाह। इनके काका हमें बेटे-बहू मानते हैं। उन्हीं का सबसे बड़ा सहारा 'इनका' तो एक कदम घर में एक जेल में जाने कब पुकार आ जाये और यह कह दें: वन्दे मातरम्! जा रहे हैं। कृशन मन्दिर। हमारे ये ही अपने हैं। रिश्ते के भाइयों को क्या चिन्ता।"

गौरी को पहली बार देखने से अमर को लगा था जैसे पंख टूट जाने से उड़ने में असमर्थ, भय से काँपती गोरैया चारों ओर से झपटते कौओं के भय से छिपने की जगह चाहती हो। लड़की के चेहरे और व्यवहार में मूर्तिमान दैन्य, कातरता, निराशा अमर का मन करुणा से उमड़ आया। गौरी के विषय में भाभी से जो सुना, उसकी भावना का समर्थन हुआ— अंध- संस्कारों और रूद्धि से विवश, सामाजिक अत्याचार की शिकार, निरीह असहाय

गौरी के प्रति अमर के मन में सहानुभूति और सहायता की कर्तव्य बुद्धि जागने का कारण था। उस साल अमर इण्टर के दूसरे वर्ष में था और नरेन्द्र बी० ए० के दूसरे वर्ष में गरमी की लम्बी छुट्टी में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पुस्तकें पढ़ने और चर्चा के लिये पर्याप्त समय नरेन्द्र यूनिवर्सिटी पुस्तकालय से एक पुस्तक 'परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य का उद्भव ले आया था। पुस्तक दोनों ने पड़ी। दोनों में विचार-विमर्श हुआ विचारों की स्वतंत्रता या मानसिक स्वतंत्रता राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक स्वतंत्रता का मूल है। मानव समाज की किसी श्रेणी, अंग या वर्ग का शोषण कर सकने के लिये उसे पराधीन या दास बनाये रखना आवश्यक होता है। मनुष्यों को पराधीन और दास बनाये रखने के लिये सैनिक, राजनीतिक और आर्थिक साधनों की अपेक्षा विश्वासों का बंधन या मानसिक गुलामी अधिक उपयोगी और कारगर होती है। दासों और नौकरों के लिये दासता को उनका भाग्य, कर्तव्य और गुण मानना धर्म बताया जाता है। इसी तरह पुरुष निजी स्वार्थ और सेवा के प्रयोजन से खियों को पशुओं की तरह अपनी सम्पत्ति बनाये रखने के लिये स्त्रियों को उपदेश देते आये हैं कि ईश्वर ने नारी को पुरुष की सम्पत्ति बनाया है। स्त्री का सबसे बड़ा धर्म पति को संतुष्ट रखना और पति की आज्ञा का पालन है। स्त्री चतुर या योग्य होने पर भी अपनी बुद्धि और शक्ति का उपयोग अपनी दासता का बंधन तोड़ने के लिये न कर सके। गौरी की अवस्था और उसके शिक्षा पाने के यत्र के लिये अमर के मन में गहरी सहानुभूति उमड़ आयी। उसके लिये दूसरी-तीसरी कक्षा की पुस्तकें लाकर दे दीं। अमर को स्वयं इण्टर की परीक्षा की चिन्ता सेवाश्रम आठवें दसवें ही जा पाता जाता तो भाभी से गौरी की शिक्षा की प्रगति के विषय में पूछ लेता।

दिसम्बर अन्तिम सप्ताह अमर सेवाश्रम गया। गौरी हरीकेन (लालटेन) समीप रखे पुस्तक से कापी पर लिख रही थी। अमर ने देखा पाँचवीं कक्षा की पुस्तका

भाभी ने बताया ब्याह हुआ तो चौथी किताब तक पढ़ चुकी थी। फिर से कोशिश की तो पड़ा याद आने लगा। याददाश्त अच्छी है। जल्दी पढ़ लेगी। तब तक हरि भैया आ गये। उन्होंने बताया: गौरी को ससुराल से बुला लेने का प्रयोजन है कि कुछ पढ़-लिखकर अपने पाँव खड़ी हो सके। अभी उम्र ही क्या है बेचारी की सामने पहाड़ सी जिन्दगी कौन जानता है, भगवान की इच्छा क्या है, कब कैसा समय आता है। वर्ना इसका भविष्य क्या है? पढ़-लिखकर कुछ अपने लिये करने लायक हो सकेगी।

३ जनवरी १९३२। रात दस बजे रहे थे। अमर परीक्षा की तैयारी के लिये पढ़ रहा था। दरवाज़े में आहट सुनकर उसने घूमकर देखा: हरि भैया ।

"आइये आइये।" अमर उठकर उनकी ओर बड़ गया। विस्मित था, हरि भैया 'वन्दे मातरम्' की ललकार के बिना, गुप-चुप कैसे भीतर आ गये। दवे स्वर से बोल रहे थे। "काका कहाँ है?" हरि भैया फुसफुसाये।

"जीम कर बाहर गये थे। शायद अमीनाबाद गये हों, या चौका बैठिये आते ही होंगे।" "नहीं अमर, हम बैठ न पायेंगे।" हरि भैया ने शाल के नीचे कुर्ती की भीतरी जेब से कागजों का पुलिन्दा निकाला। बहुत दबे स्वर में बोले, "ये रख लो। तैंतीस सौ है। दो बिल्टियाँ हैं, आदमपुर और टांडा के माल की। बैंक से बत्तीस सौ इस में छूटेंगी। उम्मीद है, हम आज रात गिरफ्तार हो जायेंगे। माल छूड़वा कर कहीं रखवा दें। क्या मालूम कितनी सज़ा-तीन मास या तीन साल माल के बीजक साथ हैं। बीस सैकड़ा पर माल आया है। नाडा निकालकर सत्रह समझो। माल कोई भी व्यापारी ले लेगा। गांधी भण्डार के प्रभास भाई ले लेंगे। कोई चिन्ता नहीं। साल ट्रेड साल के लिये भी बन्द हो गये तो तुम्हारी भाभी- भतीजे भूखों नहीं मरेंगे।" अमर का कलेजा मुँह को आ रहा था।

हरि भैया को याद आ गया. "हों परमों में मास्टर जी ने गौरी बहिन के लिये ट्यूटर लगवा दिया है। तुम इस महीने के पाँच दिलाकर रोक देना। हम नहीं हैं तो खर्च बढ़ाना ठीक नहीं। वैसे तुम देखते ही रहोगे। लौटेंगे तो देखा जायेगा। भगवान की इच्छा।"

अंग्रेजी शासन में कुछ ऐसे भी हिन्दुस्तानी अफसर थे जो जीविका के लिये सरकारी नौकरी कर रहे थे, परन्तु उन्हें देश और कांग्रेस से सहानुभूति थी। पुलिस और सी० आई० डी० में भी ऐसे लोग थे। कांग्रेस के नेताओं के यहां तलाशी जब्ती या गिरफ्तारी के हुक्म की सूचना कुछ समय पूर्व पहुँच जाती है। हरि भैया के सौजन्य के कारण अनेक लोगों को उनसे सहानुभूति मी० आई० डी० इंस्पेक्टर सिराजुद्दीन ने हरि भैया को सूचना भिजवा दी भी उनके नाम वारंट मिल गया है। आज रात तैयार रहें। कांग्रेसी नेताओं और सत्याग्रह- मार्गियों को ऐसी सूचना मिल जाने से उनके गिरफ्तारी से बचने के लिये भाग जाने की आशंका न थी। हाँ, गिरफ्तारी से पूर्व आवश्यक प्रबन्ध का अवसर मिल जाता था। समाचार मिलने पर कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार करना चाहती है, कांग्रेसी स्वयं कोतवाली पहुँच जाने में अपना नैतिक कर्तव्य और प्रतिष्ठा मानते थे।

सूचना से हरि भैया को कुछ विस्मय न हुआ। लन्दन में राउण्ड टेबल कांफ्रेंस सर्वचा असफल रही थी। भारत सरकार को गांधी जी के लौटते ही विकट और व्यापक आन्दोलन की आशंका। अब वायसराय लार्ड विलिंग्डन थे, पुचकारने बहलाने के बजाय कठोर नीति पर भरोसा करने वाले। गांधी जी ३१ दिसम्बर को प्रातः बम्बई पहुंचे। उन्होंने सरकार को चेतावनी दे दी: सरकार के समझौता भंग करने तथा अन्यायपूर्ण दमन के विरोध में कांग्रेस को आन्दोलन आरम्भ कर देना पड़ेगा। सरकार उन्हें गिरफ्तार कर सकती है। उनकी अनुपस्थिति में जो कुछ होगा, उसके लिए सरकार उत्तरदायी होगी। अखबारों में समाचार आ चुके थे।

हरि भैया के जाने के आधे घण्टे बाद सेठ जी लौटे। अमर ने पिता को सब स्थिति बताकर रुपया और बैंक के कागज सौंप दिये। सेठ जी ने गहरा साँस लिया, "इनका तो एक पाँव हमेशा जेल में तीन बच्चे हैं, बच्चों की मां है, बेवा बहिन भांजी सब भगवान भरोसे। इन्हें फिक्र देश की संन्यासी है।"

सेठ जी ने हरिया को पुकारा, जाड़ा बहुत है, कम्बल ओड लो। तुरन्त नब्बन घोसी के यहाँ जाओ।" नब्बन यानी गुलाम नवी घोसी का घर ठीक सेवाश्रम के सामने था। सेठ जी के यहाँ दूध नब्वन के यहाँ से आता था। नब्बन को सेठ जी का सहारा। सेठ जी ने समझाया, "नेब्बन से कहना, रात चौकस रहे सामने मकान पर नज़र रखे। पुलिस उन्हें ले जाये तो ख्याल रखे, बच्चे परेशान न हों। तुम भी सुबह जाकर पूछ आना।"

हरि भैया के लौट जाने के बाद अमर का ध्यान पढ़ाई में न जम सका। बार-बार ध्यान आ जाता आदमी एक बार तो खतरा झेल ले मर जाये या जी जाये। यह पूरी जिन्दगी का खतरा ! देश के प्रति कर्तव्य इनके लिये अपने पत्नी-बच्चों से भी बड़ा है कितनी दृढता है। आत्मबलिदान के लिये तैयार इनकी जिन्दगी ही कुर्बानी ।

हरिया तड़के ही नव्वन के यहाँ जाकर समाचार ले आया। पुलिस सुबह पाँच बजे हरि भैया को गिरफ्तार कर ले गयी थी। सरकार ने निश्चय किया था: बम्बई में गांधी जी तथा अन्य कांग्रेस नेताओं को ४ जनवरी को प्रातः गिरफ्तार कर लिया जाये। देश के अन्य प्रदेशों में उससे पूर्व ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के लिये आदेश दे दिये गये थे। सुबह सेठ जी मास्टर जी के साथ गोमती भ्रमण के लिये नहीं गये। चौक में अपनी दुकान पर गये। जौहर सेठ जी का पुराना कारिन्दा था, उम्र अट्ठावन-साठ की। उसका बेटा मुक्ख् भी दुकान पर लग गया था। जोहर मकानों की किराया वसूली और उगाही करता था। सेठ जी ने जौहर को हुक्म दिया रात सेवाश्रम में सोये। सुबह साँझ बहू जी से पूछकर सौदा सुलफ ला दे। कोई बात हो तो उन्हें खबर कर दे।

सुबह खूब जाड़ा था और पढ़ाई का काम भी परन्तु अमर कालेज जाने से पहले पाँच मिनट के लिये सेवाश्रम गया। भाभी और गौरी गुमसुम थीं आँखें गुलाबी, पलकें सूजी हुई । “भाभी, भैया बहुत बड़ा कर्तव्य निभा रहे हैं। मैं रोज साँझ को आऊँगा । अमेर का गला भर आया।

भाभी ने ही सांत्वना दी, "लाला कोई नयी बात है। चौथी बार जेल गये हैं। जैसे सहते आये हैं, अब भी सहेंगे। ये जो ठीक समझते हैं, करते हैं। हम उनके पीछे हैं। काका और तुम हमारे लिये बेगाने नहीं।"

अमर चार-पाँच दिन संध्या सेवाश्रम जाता रहा। भाभी ने स्वयं कहा, "लाला तुम्हारा इम्तहान है। तुम पढ़ाई में हर्जा नहीं करो। जौहर दादा हैं। जरूरत होगी, हम उनसे कहलवा देंगे।"

अप्रैल के दूसरे सप्ताह अमर की परीक्षा समाप्त हो गयी। अँधेरा होने से पहले ही सेवाश्रम चला गया। अमर की आवाज सुन भूषण की छोटी बहिन शांता ने किवाड़ों की साँकल खोली। आँगन में खटिया पर भूषण और गौरी बैठे थे, गौरी के हाथ में कापी और कलम थी। "ये क्या भूषण मास्टर बन गया?" अमर ने पूछा। ने

उत्तर दिया भूषण ने, "चाचा जी बड़ा कठिन सवाल है, व्यापार गणित का हमसे नहीं हो रहा।"

अमर बोला, "वाह भई वाह, गुरू गुड़ ही रहा, चेला शहर हो गया।"

"हाँ, बुआ तो छठी की किताब और हिसाब पढ़ती हैं, अंग्रेजी भी हम चौथी में हैं।"

भूषण ने बुआ से सीखने की सफाई दे दी।

तब तो बुआ साल-दो साल में हमें भी पड़ायेंगी।" अमर सराहना में बोला। गौरी ने हंसी छिपा लेने के लिये गर्दन झुका ली।

परीक्षा में अमर का प्रेक्टिकल और पेपर भी खूब अच्छे हुए थे। पास हो जाने का विश्वास था। अब ढाई-तीन मास की लम्बी छुट्टी। उसके बाद मेडिकल कालेज में प्रवेश, जीवन में एक नये अध्याय की उमंगा रजा पिछले वर्ष मेडिकल में दाखिल हो गया था। नरेन्द्र ने बी० ए० की परीक्षा दी थी। उसे अर्थशास्त्र में रुचि थी। प्रो० मुकर्जी की उस पर कृपादृष्टि उसका निश्चय अर्थशास्त्र में एम० ए० करने का था। यूनिवर्सिटी में विद्यार्थियों ने प्रो० मुकर्जी के निर्देशन में अर्थशास्त्र के विभिन्न पक्षों, मार्क्सवाद आदि के विवेचन के लिये एक अध्ययन गोष्टी आरम्भ की थी। नरेन्द्र ने अमर को आश्वासन दिया था. छुट्टियों के बाद गोष्ठी में उसे और रजा को ले जायेगा। अमर छुट्टियों की समाप्ति पर नये जीवन के स्वप्न देख रहा था।

सेठ जी कुछ और ही चाहते थे। उनका पहला विवाह सोलह वर्ष की उम्र में हुआ था। अठारह तक गौना आ गया था। उस युग में अठारह की आयु यौवन का उत्कर्ष समझा जाता था। अमर जवान हो रहा था। रूद दो बरस पहले ही पिता के बराबर, अब उनसे उँगली भर सिर निकाल रहा था। गले का कौआ फूट चुका था। रेख फूट आई थी बरस भर पहले ही। लड़कियों वालों के संदेशे तो जाने कब से आ रहे थे। लड़का मास्टर जी के उपदेशों के प्रभाव से मानने को तैयार न था। सेठ जी के व्याह के समय उनकी अनुमति किसी ने न ली थी। तब यह ख्याल ही न होता था कि कोई लड़का सगाई व्याह पर आपत्ति करेगा। अमर सगाई के नाम पर भिना जाता, मास्टर जी और कोहली भी जल्दी न करने की राय दे देते "लड़के को पढ़ लेने दीजिये, उसके लिये लड़कियों का काल न होगा। अमर अठारह का हो गया था। सेठ जी के विचार में तो विवाह की ठीक उम्र यही थी। आखिर मर्द कब जवान होता है।

मास्टर जी कहे जा रहे थे, "अभी उसकी पाँच बरस की पड़ाई शेष है। शास्त्र अनुसार विवाह योग्य आयु चौबीस होती है।" कोहली की भी राय थी: जल्दी क्या है? जमाना बदल रहा है। उन्होंने महेन्द्र का व्याह इक्कीस की आयु में किया था। कोहली का विचार नरेन्द्र का ब्याह एम० ए० के बाद करने का था।

सेठ जी सोचतेः नये नज़रिये से इन लोगों का कहना ठीक है। उन लोगों के घर भरे-पूरे हैं। हमारे यहाँ इतने बड़े आँगन में ऐसा सुना कि कौआ भी नहीं बैठता। हमारा दिन बाहर कट जाता है। गंगा बेचारी, उसका भी क्या ठिकाना। लड़का कहता है, डाक्टरी पड़ेगा तो कालेज में रहेगा। बहू आ जाती तो आँगन बन जाता। आँगन में उसके चलने-बोलने की आहट रहती। बेटे के विवाह की जितनी चाह सेठ जी को थी, उससे योद्री गंगा को ।

अमर पन्द्रह-सोलह का था तो अपनी सगाई विवाह की बात का विरोध मास्टर जी से पाये आदर्श रूप में करता था। सगाई विवाह के विषय में उसकी अपनी कोई राय न थी। अब उसका विरोध वास्तविक था। विवाह या विवाहित जीवन कैसे होना चाहिये, इसकी कल्पना कुछ पढ़ने और कुछ साथियों ने बात बहस में बन चुकी थी। पत्री की कल्पना वह विचारों और कर्मक्षेत्र की अभिन्न संगिनी और सहयोगिनी के रूप में करता, उसकी

कल्पनानुसार ऐसी संगिनी का शिक्षित, सुन्दर सुघड़, उदार विचार, साहसी, कर्मठ होना आवश्यक था। विवाह के लिये पहली शर्त प्रगतिशील आदर्शों के अनुसार, युवक-युवती में प्रेम आकर्षण, एक-दूसरे को संगी-साथी के रूप में अत्यावश्यक अपरिहार्य समझना । विवाह के लिये लड़की के चुनाव को वह बीजगणित का प्रश्न मानने के लिये तैयार न था लड़की + अच्छी जाति गोत्र अच्छा स्वास्थ+अच्छा रूप-रंग + अच्छा दहेज अच्छा व्याह ।

सेठ जी और गंगा के विचार से बनारस और इलाहाबाद से आये दोनों रिश्ते बहुत अच्छे थे। क्या करते, लड़का जिद्द बाँधे था और सब उसकी सी ही कह रहे थे। जमाने का फेर लौंडों की बात ठीक मानी जाये, बूढ़े नासमझ हो गये।

मार्च में खबर आ गयी थी कि कोहली साहब की बेटी जयरानी बेटी-बेटे के साथ मई में खरबूजे और आम के शौक के लिये लखनऊ आयेंगी। जयरानी कोहली साहब की पहली संतान, बहुत लाड़ली। दिल्ली के प्रभावशाली चोपड़ा परिवार की बहू उसका पति देवराज चोपड़ा रेलवे में असिस्टेंट डिवीजनल इंजीनियर योग्यता और अवसर से जल्दी तरक्की पा गया था। उस जमाने में छः- सात सौ का मतलब, आजकल के छः सात हजार रहने के लिये रेलवे का खूब बड़ा बंगला, दो चपरासी, चार खलासी सफर के लिये पूरे परिवार के लिये फर्स्ट क्लास का पास स्थिति संगति का तकाजा और तबीयत से आधुनिक रहन-सहन पसन्द जयरानी ससुराल की परिस्थितियों अनुकूल ढल गयी थी। उसका मायके आना छोटी गली में विशेष घटना होती।

विवाह के बाद जयरानी पहली बार सन् १९१८ के अन्त में आयी थी सोग के लिये। इनफ्लुएंजा की महामारी में महेन्द्र से छोटा भाई जाता रहा था पर उसके आने पर दोनों कोहली परिवारों और गली में कई विवाद उठ गये। उसने दिल्ली में महीन धोती के नीचे पायजामें के ढंग का घुटनों तक लम्बा द्रराज पहनना शुरू कर दिया था। गली की विस्मयाहत स्त्रियों-लड़कियों ने हाथ ओठों पर रख लिये, "देवा रे हिन्दू खत्री बनियों के घर में जनाना पायजामा पहरें !"

भावो ने समझाया, "बेटी, जैसा देश वैसा भेस लोगों की बातें सुनने से क्या फायदा!" जयरानी लाड़ली थी और मुँहजोर भी बोल पड़ी, "बकते हैं तो बका करें। हमसे निरी धोती में नंगे नहीं रहा जाता। जिन्हें टोंगे दिखानी हैं धोती की ओट क्यों करें, यों ही कुलाचे भरें!"

आखिर भावो को बेटी का समर्थन करना पड़ा, "धोती के नीचे दराज से बदन न दीखे तो बेशर्मी क्या! नयी बात है तो हुआ करे। पर्देदारी बुरी चीज़ नहीं।"

"अनी मेमों के फैशन करें और कहें पर्देदारी!" खन्नों की डोकर ने विरोध किया, "ऐसी पर्देवाली होतीं तो यों मुँह मत्था उपाहे गली बाजार डोलतीं! सील पर्दा तो आँखों का, मुँह- मत्वे का मुँह उघाड़े जिस तिस से आँखें मिलाती फिरें तो पर्दा कैसा?"

"दादी, तुम यूँ ही कहो," जयरानी बोल पड़ी, "मन्दिर जाओ तो आँखें मुँह मत्था टाँक लीजो, बाकी को हवा लगने दो।"

कम उम्रवालियों ने क्लिक कर आँचल मुँह पर रख लिये।

"चुप्प! बक-बक मत करो,” भावो ने जयरानी को डाँटा, “चाची, तुम ठीक कह रही

हो। पर्दा तो आँख का सील का है पर बदन उघड़ा रहे तो भी कराहत लगती है, नहीं क्या?"

“तू गली की थी है, तुझे क्या कहें। " खन्नों की डोकर ने जयरानी को उत्तर दिया, "हमें क्या हवा लगायेगी बेटी, तुझे नई हवा लगी है जो हवा से बातें करे। अब तेरी उमर सम्भर कर बोलने की है, जवान धी-पूत वाली हुई।"

आखिर हाईकोर्ट बोला। टंडन दादी गली के विवाद में बोलती तो वकील साहब कह देते: हाईकोर्ट का फैसला आ गया। टंडन दादी की ऊँची आवाज, "नी बेबात की झोय झॉय। सब ज़माने की बातें जो मान लो सोई पर्दा अब तो धोती पर चादर कर ली, पर्दा हो गया। तू ही बता महेन्द्र की माँ, तुम व्याह के आई तो गली-मुहल्ले में किस घर की बहू लहंगा-चादर के बिना गली में निकलती थी।"

""सच कहा बड़ी चाची!" जयरानी की माँ ने दादी को पटाने के लिये स्वीकारा, "बड़ी चाची, तब तो लहेंगे भारी चादर की बात क्या कहीं रिश्ते संग सियापे में जाना हो तो पर्देदार डोली में जाते थे या इक्के पर चादर का पर्दा किया जाता और बड़ी चाची, लहेंगा भी पहले दस गज़ का, फिर आठ का, फिर पछाहीं पाँच गज़ी लहँगा आ गया। बड़ी चाची, अब ये मरी ऐसी महीन धोती चली है कि धोती के साथ कुछ रहे तभी ठीका"

दादी ने अस्वीकृति में हाथ हिला दिया, "कौन कहे ऐसी महीन धोती पहरो! और फिर क्या पहले धोती के नीचे कमर पर दो गज़ कपड़े का अचला नहीं लगा लेती थी। ऐसी पजमियाँ का तो अपने लोगों में चलन कभी नहीं सुना।"

जयरानी जब भी मायके आती किसी न किसी छोटी-मोटी परम्परा के उल्लंघन पर विवाद हो जाता। अमर को साबुन, चीनी मिट्टी और काँच के बर्तनों के सम्बन्ध में हुए विवाद याद थे।

उस बार बहन जयरानी के आने के समय की खास बात अमर की स्मृति में रही मीरा, जयरानी की बेटी । मीरा उससे पूर्व भी माँ के साथ आ चुकी थी। तब की अमर को विशेष याद न थी। इस बार मीरा सत्या की छोटी बहन दया के बराबर थी परन्तु कितनी भिन्न । खूब गोरी, चंचल, बहुत प्यारी विलायती गुड़िया जैसी पटर-पटर अंग्रेजी बोलती मीरा का बोलना देख-सुनकर अमर को विस्मय। अमर आठवीं की परीक्षा दे चुका था। स्कूल में तीन बरस से अंग्रेजी पढ़ रहा था परन्तु मीरा की बात पूरी न समझ पाता उसकी तरह तेजी से अंग्रेजी बोलने, अंग्रेजी में लड़ लेने की बात दूर।

१९३२ में जयरानी, मीरा और दोनों बेटों जयन्त और देवेन्द्र के साथ आयी। इस बार भी उसने एक परम्परा तोड़ी। इससे पूर्व मायके आती थी तो घर से बाहर चौक या अमीनाबाद की ओर सम्बन्ध या मेल-जोल में जाते समय धोती पर चादर ओढ़कर सिर पर माथे तक चल कर लेती थी। इस बार नरेन्द्र उसे स्टेशन से ताँगे पर लेकर आया तो कौतूहल में गली की स्त्रियों-लड़कियाँ खिड़कियों दरवाज़ों पर आ गयी थीं। विस्मय से औरतों के ओठ साँस में अवरोध से खुले रह गये। पड़ोसिनों की नजरें मिलीं तो वितृष्णा की हंसी से ओंठ घृणा से सिकुड़ गये। जबरानी साड़ी पर चादर न ओढ़े थी। साड़ी बम्बइया ढंग से उल्टै हाथ से दोहरा फेर देकर आधे सिर पर अटकी हुई। कहने को तो पल्ले से बदन डका पर ऐसा ढकना कि और उभर आये। किसनलाल के बड़े बेटे की बहू, खन्ना की बहू की ओर देख

मुस्करायी, "हमें तो लगा मुजरा - उजरा होगा "। "

जयरानी का बिना चादर ओड़े साड़ी का ढंग अमर को अच्छा लगा। कांग्रेस के जुलूसों में आगे चलने वाली अभिजात प्रतिष्ठित महिलाओं जैसा।

लड़की मीरा कुंआरी थी पर उस समय के विचार से पूरी जवाना कसे हुए सलूके में भरा उठता बदन कमर से घुटनों तक कुकुरमुत्ते जैसी घघरिया उठते-बैठते स्कर्ट से सफेद जाँघियाँ झलक जाता। पीठ पर कमर को छूती दो लम्बी चोटियों उस समय कोहलियों के यहाँ उतनी कुर्सियाँ न थीं। दरी चटाई या तख्त पर बैठने का ही चलन था। उठते-बैठते स्कर्ट से जवान दोहती की जाँचें दिखना भावो को अच्छा न लगता। उसने मीरा को टोका, "मुन्नी, पहरावा रहन-सहन के ढंग से होता है। यहाँ स्कर्ट का चलन नहीं है धोती बाँधा करें।" मीरा को साड़ी बाँधने का बड़ा शौक माँ के पेटीकोट और साड़ी पहरने लगी। कंधे से आँचल का फेंटा पतली कमर पर पेटी की तरह कस लेती। ऊपर-नीचे के भराव और पुष्ट जान पड़ते। अपने शरीर के सौष्ठव के गर्व में अकड अकड़ कर चलती।

अमर नरेन्द्र की बहिन जयरानी से मिलने आया तो मीरा को देख चकित कितनी बड़ी हो गयी थी, उसके कंधे तका गोरा चेहरा, गालों पर लाली की झलक, भूरी कौड़ियों सी किरणें फेंकती उजली आँखें नरेन्द्र ने पुराना परिचय याद दिलाया। विनय की अदा में कंधे मटका कर किलक से बोली, "हाउ डू यू हू! नाईस टू सी यू।"

थैंक यू, आइ एम आल राइट" अमर क्रिश्चियन कॉलेज से इंटर पास कर अंग्रेजी बोलना सीख गया था, "हाऊ आर यू?"

"फाइन, बैंक यू!" मीरा की गर्दन की लचक, भँवों और पलकों की थिरकन ने साथ दिया। अमर को गली में या इधर-उधर लड़कियाँ दिखायी देती रहती थीं। मीरा जैसी लड़की नहीं। गली-मुहल्ले की लड़कियों में मीरा ऐसी लगी, जैसे गिजाई, गुबरैले, सूँडी और दूसरे पतंगों के बीच रंगीन तितली आ जाये। मीरा यात्रा की बातें बताने लगी। अमर उसकी इंगलिश में बोल चाल, भाव-भंगिमा से मुखर शैली को सराहना से सुनता देखता रहा। संध्या वह फिर नरेन्द्र से मिलने चला गया। मीरा अपने स्कूल के स्पोर्ट्स के विषय में बता रही थी। उसे बेडमिंटन में और रेस में इनाम मिला था। दोनों कप नानके में दिखाने के लिये साथ लायी थी।

गली के रिश्ते और वकील कोहली से अंतरंग मंत्री के नाते जयरानी सेठ जी की भी बेटी। उसे गोद में और कंधे पर बैठाकर खिलाया था। 'जयी' पुकारते थे। सुन लिया था: बेटी और दोहती दोहते खरबूज़े और आमों के शौक के लिये आये हैं। सेठ जी को फल-सब्जी का शौक और परख भी। उस दिन सुबह चौक मंडी से झल्ली भर खरबूजे और लखनौआ ककड़ियाँ ले आये। ससुराल से आयी बेटी और बच्चों के लिये भिजवा दिये। कुछ मास्टर जी के यहाँ सेवाश्रम का भी ध्यान रहता था।

अमर जयरानी बहिन से पूछने चला गयाः खरबूजे कैसे लगे, फिर मीरा से बातचीत खरबूजे खाकर हाथ धोते-धोते मीरा को याद आ गया कैरम बोर्ड साथ लायी थी। कैरम शुरू हो गया। मीरा, नरेन्द्र, जयन्त और अमर दोपहर तक गोटें खटखटाते रहे। संध्या चार बजे अमर फिर कोहलियों के यहाँ ताथ जम गई थी। मीरा, भाभी पुष्पा, नरेन्द्र और जयरानी। जयरानी ने अमर को पुकार लिया, "भैये, मेरे पत्ते तुम ले लो। किसी से दो बातें तो करूँ। इन लोगों को तो बस हर समय यही भूत सवार है। "

नरेन्द्र ने बहिन जयरानी, मीरा, जयन्त, देवेन्द्र और पुष्पा भाभी को सैर के लिये हजरतगंज ले जाने का आश्वासन दिया था। अमर से भी अनुरोध किया, “आओ, चलो घूम आयें। कपड़े बदल लो।"

छोटी गली और पड़ोस में महेन्द्र, नरेन्द्र और अमर ही पैंट पहनते थे। पैंट महेन्द्र ने शुरू की थी। सन् १९२८ में दिल्ली गया था। जीजा ने सूट सिला दिया था. बी० ए० पास कर लेने के इनाम में वकालत पढ़ने लगा तो कालेज जाते समय पहन लेता। अब कचहरी काले कोट और सफेद पेंट में जाता, सर्दियों में सूट में नरेन्द्र ने इण्टर में पढ़ते समय ही पैंट सिला ली। पिछले जाड़ों में नरेन्द्र ने ऊनी सूट मिलाया तो सेठ जी से सिफारिश की, "काका जी, अमर को भी मिला दीजिये। डाक्टर बनेगा। इसे कपड़े पहनना तो आना चाहिये।"

सेठ जी ने तुरन्त अनुमति दे दी, "ठीक है बेटे, अमरू को साथ ले जाओ। पसंद का कपड़ा लेकर सिलवा लो। देसी मिल का हो तो अच्छा है।" सेठ जी और कोहली विलायती कपड़ा न खरीदने का प्रण लिये हुए थे। अमर को पहले झिझक मालूम हुई, फिर पेंट में चुस्ती अनुभव की मार्च में परीक्षा से पहले उसने सफेद सूती पैंट भी सिला ली। तब गली में और आस-पास के लोग पैंट को कुछ अचम्भे से देखते थे। उनके विचार से पैंट उपहासास्पद और असुविधा की पोशाक थी, आदमी घुटने मोड़कर या आलथी पालथी से न बैठ सके कैसे कसे कसे फिरते हैं। गरमी नहीं लगती होगी!

नरेन्द्र ने कहा था: कपड़े बदल लो। मतलब था— साफ कमीज़ पैंट कभी दोनों हज़रतगंज जाते तो पैंट पहन कर जाते थे। पिछले बरस से अमर की रेख फूट आयी थी। चेहरे पर रोयें की कलींस आ जाती। नरेन्द्र की देखा देखी सेफ्टीरेज़र ले आया था। उसने सुना था: चेहरे पर उस्तरा ज्यादा लगने से दाढ़ी जल्दी बढ़ती है, इसलिये कभी डेढ़-दो सप्ताह बाद कलीस साफ कर लेता। ख्याल आ गया: उन लोगों की संगति में हजरतगंज जाना है। आईना देखकर चेहरे पर उस्तरा फेर लिया। मूंछों की रेख सीधी कर ली, सिर पर कंघी। उस संध्या जयरानी, पुष्पा भाभी, मीरा, नरेन्द्र, अमर, जयन्त हज़रतगंज घूम आये। नरेन्द्र के विचार में दिल्ली के लोगों के घूमने लायक बाज़ार लखनऊ में हजरतगंज ही था। छोटी गली क्या इस ओर पूरे पुराने शहर में परम्परा समर्थक लोगों की राय हज़रतगंज के बारे में अच्छी न थी। जरूरी काम बिना उधर न जाते। भले घर की बहू- बेटियों के वहाँ जाने का सवाल ही न था। नौजवानों का भी हजरतगंज घूमना वांछनीय न समझा जाता। लोग जानते थे, हज़रतगंज में मेमें और क्रिस्टान छोकरियाँ उषा मुंह-सिर, नंगी बाँहें तोंगे घूमती-फिरती हैं। देसी मेम साहब लोग भी खुले सिर-मुँह और ऊँची एड़ी के जुते पहने आती जाती हैं। मर्द और जनाना सड़क पर बाँह में बाँह डाले, औरतों को बगल में लिये घूमते हैं। बायस्कोप में नंगी मेम पुतलियाँ नाचती हैं और हवाघर (क्लब) में मर्द- औरत शराब पीकर एक साथ नाचते हैं। देसी लोग वहाँ उघाड़े मुँह औरतों को देखने और तमाशबीनी के लिये जाते हैं परन्तु कोहलियों को कुछ कहने का लाभ न था। बेटी दिल्ली में क्या ब्याह दी, आधे क्रिस्टान हो गये थे। पछाहीं लोग आचार-विचार का ख्याल नहीं करते।

जयरानी सेठ जी को काका-ताऊ पुकारती मानती थी। उसे अमर की माँ अमरो कीभी याद थी।

उसके ब्याह के समय अमर चार बरस का था। अमर को गोद खिला चुकी थी। अब अमर देखने में खूब अच्छा निकल आया। अच्छा स्वस्थ डील, खुला गन्दमी रंग, बोलचाल अच्छी बेटे जैसा छोटा भाई। वत्सलता से बोलती। मीरा को भी अमर अच्छा लगा। अमर को इण्टर के परिणाम की प्रतीक्षा में अवकाश नरेन्द्र से पुस्तकों और विचार- विनिमय की बात उन दिनों न हो पाती। विनोद की कमी न थी। दिन भर कोई खेल कैरम, ताश, ब्रेक एण्ड लैडर, ड्राफ्ट या बैंक मीरा अवकाश में मनोरंजन के लिये कितने ही खेल साथ लायी थी। बचपन से कान्वेंट में पड़ी। हरदम मुंह से अंग्रेजी निकालती। आँगन के दोनों परिवारों में नानियों भाभियों अंग्रेजी क्या जानें, इसलिये ज्यादा बोलचाल महेन्द्र मामा, नरेन्द्र, अमर और जयन्त से महेन्द्र उनकी संगति के लिये बहुत बड़ा नरेन्द्र भी पाँच बरस बड़ा। लेखराम का लड़का हरिश्चन्द्र मीरा का समवयस्क और अमर सबसे समीपी थे। मीरा को अमर पसंद। कैरम, ताश व अन्य खेलों में कुछ दिल्लगी, हुज्जत- मजाक, छीन झपट न हुई तो रस क्या! ऐसे अवसर पर अमर न होता तो नरेन्द्र या माँ से अनुरोध करती, "प्लीज कॉल अमर भैया । "

सप्ताह दस दिन में मीरा सबसे निस्संकोच हो गयी। कभी खेल-खिलवाड़ हुज्जत में छोटी-मोटी हाथापाई तक पहुँच जाती मीरा धक्का दे देती या कुछ और शरारत। अमर बदला लेने को होता तो जोर से चिल्ला देती, "बीऽजीऽऽ! या भाऽबो जी, ऽ देखो अमर भैया"" मीरा से हारकर अमर का मन रस विभोर हो जाता।

माँ और नानी टोकती रहतीं, "नी मीरा बहुत हुहूदंग अच्छा नहीं होता। ये भले घर की लड़कियों के तरीके नहीं है। लड़के-लड़कियों हाथापाई नहीं करते खबरदार! नहीं मानेगी तो दूंगी लप्पड़ ।" मीरा अनसुना कर जाती। दूसरी ओर बड़ी नानी को ऐसे छिछोरेपन पर गुस्सा आ जाता। हेमराज की बहू कहती, पढ़ाने लिखाने का यही फायदा है तो बाबा हमारी बेटियाँ अनपढ़ भली । बेचारी बसंती के नाम से इतना हुल्लड़ हो गया। अब क्या नहीं हो रहा! बेशर्मी की एक हद होती है।" हेमराज की बहू की बात एक तरह से ठीक श्री बसती जैसा कुछ चहल-मजाक, छेड़छाड़ करती थी, मीरा उससे कम न करती। अन्तर् इतना ही था- बसंती करती चुपके से, लोगों की नजर बचाकर मीरा वही सब करती खुले आम, निस्संकोच निधड़क खूब अट्टहास और किलकारियाँ अमर अक्सर उनके यहाँ बना रहता, शेष समय उधर जाने का ध्यान बहिन जयरानी और मीरा के आने के बाद मई में अमर एक बार भी सेवाश्रम न जा सका। सेवाश्रम को भूल गया ऐसी बात नहीं। ध्यान तो आया पर जयरानी बहिन और मीरा के यहाँ जाने से फुर्सत मिलती तो जा पाता। मन में आश्वासन था जौहर तो वहीं रहते हैं। बच्चा को सब खबर मिलती रहती है। गौरी को पढ़ाने के लिये मास्टर लगा है। कल सही।

१९३२ के मई-जून अमर के लिये बहुत शुभ रहे। इतना खेल दिल्लगी और जून के दूसरे सप्ताह इण्टर का रिजल्ट निकला तो सैकंड डिवीजन में खूब अच्छे नम्बरों से पासा सेठ जी बेटे की सफलता से गद्गद नगर में उस समय दो भट्टे वालों ने ट्रक ले लिये थे। सेठ जी को चिन्ता अब्दुल लतीफे भैंसा ठेलों पर ईंट सप्लाई करेगा तो उन लोगों के मुकाबले कैसे टिक पायेगा! तब शहर में फ्रेंच मोटरकार कम्पनी का बहुत रोज़गार था। सेठ जी ट्रक के बारे में पूछताछ के लिये हजरतगंज गये थे। अवसर की बात, फ्रेंच मोटरकार कम्पनी में लाटरी पड़ रही थी। इनाम में एक आस्टिन गाडी थी, और एक बी० एम० ए० की मोटर- साइकल सेठ जी ने अपने और अमर के नाम से टिकट खरीद लिये। भाग्य का खेल, अमर का टिकट दूसरे इनाम का निकल आया बी० एम० ए० मोटरसाइकला सन् १३० तक नरेन्द्र यूनिवर्सिटी पैदल जाता था।

 उस ज़माने में विद्यार्थियों वा कर्मचारियों का सुबह-शाम स्कूल-कालेज, दफ्तर या कारखाने तक डेड-दो मील पैदल जाना लौटना व्यर्थ टाँगें तोड़ना, जूते घिसाना या समय का अपव्यय न समझा जाता था। तब सवारी दूर जाने के लिये या विशेष कारण से ही ली जाती थी। नये जमाने में बसें दस पैसे में लोगों को तीन मिनट में मील भर ले जाने लगीं तो पैदल चलना समय और शक्ति का अपव्यय जान पड़ने लगा। नरेन्द्र को बाइसिकल का शौक चड़ा। कोहली साहब और नरेन्द्र की माँ में बेटे-बेटियों की इच्छाओं का दमन कर सकने लायक दृढता न थी। नरेन्द्र के लिये बाइसिकल खरीद दी गयी। तब नरेन्द्र की चमचमाती साइकल दिल्ल- दिल्ल घंटी बजाती गली में गुजरती तो लोगों की आँखें फटी रह जातीं। साइकल पर लौटते समय सीधी गली से छोटी गली में से मुड़कर घर तक सौ कदम अन्तर नरेन्द्र साइकल के पैडल रोक लेता। साइकल पहले भरे जोर से किर-किर्र करती फिसलती ज्योडी तक पहुँच जाती । खियाँ खिड़की-दरवाजों से चमत्कार देखती रह जाती।

"बच्चा, हम भी साइकल लेंगे।"

"न बेटे!" सेठ जी के स्वर में आतंक "जरूरत हो, तुम्हारे लिये इक्का है। साइकल बहुत खतरनाक चीज नरेन्द्र ने ले ली. हमारा तो दिल धड़कता रहता है देखकरा सवारी क्या साली चर्बी है। सड़क रास्ते पर जरूरत पड़ जाये तो चखीं से उतरे बिना रुक न सके। रुको तो दायें गिरो या बायें। अपने पैरों के जोर से कदम-कदम न चले चर्बी को धकेलते गये। सवारी क्या, नटों का खेल है। किसी दूसरी सवारी से टक्कर-अक्का हो जाये रास्ते पर पिच जैसे मेडकी पर बैल घोड़े का तुम पड़ जाये। बेटे, तुम्हें ऐसा शौक हो तो दो-चार बरस ठहरो, डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करके तुम चाहे मोटर गाड़ी से लेना। अब तो बहुत मोटरें आ रही है। बीस-बाईस सौ की बात दो-चार बरस में और सस्ती हो जायेंगी। एक जमाना था, जंग से पहले पूरे लखनऊ में दो मोटरें एक लाट साहब की और एक डाक्टर होदेदार की। अब तो शहर छावनी में डेढ़ सौ से कम न होंगी। आठ-दम वकीलों के पास है, डाक्टरों के पास हैं। अपने राजा बाज़ार में भी दो मोटरें आ गयीं। चौक में इत्र की कोठी वालों के यहाँ, खुनखुन जी के यहाँ तो तीन साल से है।"

अमर ने मन मार लिया। पिता से साइकल के लिये जिद्ध न की परन्तु साइकल चलाना सीखने का लोभ संवरण न कर सका। नरेन्द्र से साइकल चलाना सीख लिया था, अच्छी तरहा नरेन्द्र यूनिवर्सिटी से पाँच बजे लौट आता अमर शौक के लिए साइकल माँगकर बाहर की सड़कों पर दौड़ लगा आता। रविवार के दिन खास तौर पर लौटते समय गर्व से एक हाथ से साइकल के हैंडल को सहारा दिये रहता या दोनों हाथ सीधे छोड़े रहता। नेठ जी यह नटों के करतब देखते तो कलेजा धक-धक करने लगता, बेटे सम्भल कर इस चर्खी का कोई भरोसा नहीं!"

परन्तु जब भाग्य ने खुद सेठ जी के लाटरी के शौक ने साइकल के बजाय मोटर साइकल अमर की झोली में डाल दी तो वह उसे कैसे छोड़ देता! अपना इनाम लेने पिता के साथ  फ्रेंच मोटरकार कम्पनी गया तो वहीं मैकेनिक से साइकल के मोटर कंट्रोल समझ लिये। उसके साथ खुली सड़कों पर दो घंटे तक अभ्यास करता रहा। पाँव से साइकल चला सकने वाले के लिये खुद चलने वाली मोटर साइकल चलाना क्या कठिन, केवल उसकी चाबियों का परिचय चाहिये - चालू करने की चावी, चाल बढ़ाने घटाने की चाबी, इंजन रोकने की और ब्रेक गली में लौटा तो मोटर साइकल पर मोटर साइकल की भारी धड धड़ से गली गूँज उठी। गली की स्त्रियों के लिये चमत्कार! जैसे लोहे का दैत्य नकेल से विवश होकर छटपटा रहा हो।

"छोटे मालिक मोटर गाड़ी का बचवा ले आयेन" मुन्ने साईस का सराहना पूर्ण उद्गार फूट पड़ा।

सरीकों और दूसरे दो-एक लोगों के सिर मोटर साइकल की भयंकर भट्ट-भड़ से फटने लगे। उन लोगों ने ऊँची आवाज में आपत्ति की भले लोगों के बाल-बच्चों के रहने की जगह मैं यह सब नहीं चलेगा ।

मोटर साइकल को गली में रख सकने के प्रश्न पर झगड़ा न बढ़ा। मोटर साइकल, पाँव- साइकल नहीं होती कि कभी सवार साइकल पर, कभी साइकल सवार पर मकान की योनी की कुर्सी ऊँची हो या रिहाईश दूसरी मंजिल पर हो तो साइकल को बीच के डंडे से कंधे पर उठाकर थोड़ी लंघा लें या जीने पर चढ़ा लें साढ़े तीन घोड़े ताकत की ढाई-तीन मन वजन की मोटर साइकल को घर के तबेले और साईस की चौकसी में रखा गया।

अगले दिन नरेन्द्र ने भी मोटर साइकल चलाना सीख लिया। एक और मनोरंजन बन गया। सुबह या शाम मोटर साइकल पर शहर और छावनी की सैर मीरा को कौन रोक सकता था। गनीमत कि उसने मोटर साइकल चलाना सीखने की जिद्द नहीं पकड़ी। साइकल वह चला लेती थी। दिल्ली कान्वेंट में उसकी क्लास की दो लड़कियाँ साइकल पर आती थीं। कान्वेंट के भीतर साइकल दौड़ा-दौड़ाकर सहेलियों ने भी सीख ली। कभी अमर मीरा को पीछे बैठाये सैर करा रहा है, कभी नरेन्द्र। कभी तीनों एक साथ मोटर साइकल पर ऐसे अविचार से विस्मित गली वाले भुनभुना कर मौन रह जाते ।

मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिये टेस्ट छः जुलाई से था। अमर को दो घंटे के लिये कैसरबाग, ट्यूटर वर्मा की क्लास में जाना ही पड़ता। घर पर भी कुछ पढ़ना-दोहराना डायग्राम बनाना जरूरी था। दिन में कोहलियों के यहाँ से बुलावा आने पर अमर रुक न पाता। रात देर तक पढ़ लेना मंजूर मीरा से खेल-खिलवाड़, बतरस और संगीत का आकर्षण अदम्य था। मीरा की संगति के दिन ही कितने रह गये थे। दो जुलाई को बहिन जयरानी, मीरा, जयन्त, राजू दिल्ली लौट रहे थे। उनके जाने की तैयारी शुरू हो गयी थी। चिकन की साड़ियाँ और जो कुछ उन्हें ले जाना था, समेटा बाँधा जा रहा था। मीरा चली जायेगी, यह विचार अमर को अच्छा न लगता।

अमर ताश की बैठक से उठ गया। ट्यूशन के लिये कैसरबाग जाना था। गली में निकलते ही टण्डन दादी का प्रचंड स्वर सुनायी दिया, यह क्या परलय की बातें सेठों और अरोड़ों में क्या मेल? व्याह-शादी तो जात-बिरादरी में भला न जाने कैसा जमाना आ रहा है न जात का ख्याल न गोत्र का

सब जानते थे जात - गोत्र के नियमों और परम्परा की प्रामाणिकता के प्रश्नों पर टण्डन दादी बिरादरी की स्वयंभू हाईकोर्ट थीं। जिज्ञासा, सम्मति, परामर्श के लिये कोई प्रार्थना करे न करे, दादी गलत बात देख-सुनकर टोके बिना न रह सकतीं।

अमर को विस्मय हुआ, दूसरी ओर से उत्तर दे रही थी गंगा बुआ और दीपचंद की तायी। सरीकों में मतैक्य के अवसर कम आते थे। बीच-बीच में मास्टरनी और साहबसिंह की घरवाली के स्वर भी सुनाई दे जाते। अमर जल्दी में था। विवाद समझ पाने की चिन्ता न कर कैमिस्ट्री, फिजिक्स की पुस्तकें लेकर कैंसरबाग चला गया। इतना समझ गया: विवाद सेठों और चोपड़ों में विवाह सम्बन्ध के औचित्य पर था। चोपड़ा तो मीरा है क्या बात उठी होगी?

लौटकर नाश्ता खाते समय बुआ से पूछ लिया, "साँझ टंडन दादी से क्या झगड़ा हो रहा था?

“कुछ नहीं भैये।" बुआ झिझक से बोली, "ये लुगाइयाँ जाने कहाँ से कैसे बात उड़ा दें। मास्टरनी बोली ठकुराइन कहती है, राधाकिसन की जोड़ी है, देखकर आँखें मिराती हैं। दिल्ली वालों के जाने से पहले बात पक्की हो जाये। हमने कहा, हम लोग खत्री वे लोग अरोहे, ठाकुर कायस्थ वह सब क्या समझें पर इस जमाने की बात हम नहीं कह सकते। हमसे तो किसी ने कुछ कहा नहीं, भैया जानें। और बेटे, वे लोग अंग्रेजी रंग-ढंग वाले वैसी लड़की घर चौका क्या सम्भालेगी। हमने कहा, रिश्ता तो लड़की वालों की तरफ से आता है

इन लोगों को इतनी फिक्र क्यों है!" अमर ने बेपरवाही दिखायी। इससे पूर्व ऐसे प्रसंग पर अमर बहुत झुंझलाता था। मीरा के सम्बन्ध में बात से झुंझलाहट नहीं कुछ गुदगुदी मी अनुभव की। सोचा: अभी पाँच साल तो डाक्टरी की पढ़ाई जिन्दगी में बहुत कुछ और भी है। 'बात चलेगी तो देखा जायेगा।

गंगा बुआ नहीं चाहती थी कि गली में उनके घर के रिश्ते के बारे में झंझट हो, चुप रहीं। परन्तु टंडन दादी ने दूसरे दिन फिर बात उठा दी।

जयरानी को वह चर्चा अप्रिय चाहती थी, बात दब जाये। उसे बोलना पड़ा तो बात दो शब्दों में निबटा दी, लोगों के आँखें नहीं है कि दिमाग फिर गये हैं। सेठ जी हमारे ताऊ । हमने नरेन्द्र और अमर में कभी फरक माना है। बचपन के मुंहबोले भाई-बहिन। मीरा के लिये बरस भर पहले दिल्ली में बात पकी हो चुकी

अमर को लगा, कौर उसके मुँह की तरफ बड़ाकर पीछे खींच लिया गया। स्वयं उसने कोई इच्छा वा आशा न की थी, फिर भी निराशा जैसा धक्का, कुछ अपमान सा। मन खिन्न हो गया। ऐसी बात उठाने की क्या जरूरत थी।

जयरानी के प्रति आदर और पड़ोस के सौजन्य से अमर उन लोगों को गाड़ी चढ़ाने नरेन्द्र के साथ स्टेशन गया। मीरा उन्मुक्त उच्छवास से बोल रही थी, दिन नहीं चाहता दिल्ली लौटने को। अभी सप्ताह भर और एन्जॉय कर सकते थे ।" नरेन्द्र-अमर को छुट्टी में दिल्ली आने का निमंत्रण और पत्राचार के लिये आग्रह

मीरा के चले जाने से अमर को खाली खाली सा लगा। कुछ परिताप भी छुट्टियों में अध्ययन के लिये जितना कार्यक्रम बनाया था, कुछ भी न हुआ। नाथ शास्त्री के यहाँ से दो

पुस्तकें लाया था। मीरा के आने से पहले एक पढ़ ली थी। उसके आने के बाद दूसरी को छू न सका। "" मूर्खता में कितना समय बर्बाद हो गया ऐसी बातों से लाभ? कुछ करना है तो मन वचन कर्म के संयम बिना कुछ सम्भव नहीं।

मेडिकल कालेज की प्रवेश परीक्षा के बाद साँझ अमर सेवाश्रम गया। हरि भैया के समाचार के बारे में उत्सुकता थी। सब बच्चों ने वन्दे मातरम् कह अमर चाचा का स्वागत किया।

भाभी ने परीक्षा परिणाम के विषय में पूछा। अमर के इतने दिन दिखाई न देने पर उपालम्भ।

"भाभी, कुछ मेहमान आ गये थे।" अमर ने क्षमा माँगी।

भाभी ने कहा, "काका तो सब खैर-खबर लेते रहे। जौहर दादा यहीं रहते हैं। लाला, तुम आ जाते हो तो घर के आदमी को देख लेने की तसल्ली हो जाती है"

"बहुत दिन में आये भैया!" गौरी पहली बार अमर से बोली। अमर को लगा, गौरी बदल गयी थी। चेहरे पर दस मास पूर्व जैसा रूखा पीलापन न था, अब भी पतली परन्तु दुर्बलता से सूखी नहीं बाहें गोल हो गयी थीं। साँवला चेहरा पूरा भरा न होने पर भी स्वस्थ स्त्रिग्ध। सीधी पैनी माँग खद्दर की सफेद धोती, परन्तु सुबह पहरावा चेहरा त्रस्त कातर नहीं, सन्तुष्ट शान्त भाभी ने बताया, "जेल से लिखा है, कोई तकलीफ नहीं है। दिन भर पढ़ते हैं। गौरी को लिखा है, पढ़-लिखकर अपनी जिन्दगी बनानी है। भूषण के चाचा खयाल रखते होंगे।" "पढ़ाई ठीक चल रही है?" अमर ने पूछा।

"आधी-आधी रात तक लालटेन लिये बैठी रहती है।" भाभी ने बताया, "मास्टर का पढ़ाया याद करती है। फिर इनकी किताबों में से कोई किताब उठाकर पढ़ने लगती है। " तीनों बच्चे अमर को घेरकर बोले जा रहे थे, "चाचा जी! चाचा जी! चाचा जी !" "अब्बी, मामा जी कहो!" गौरी ने बेटी को समझाया।

"चाचा जी मामा जी एक ही बात है," भाभी बोली, "बच्चों के लिये क्या फरक!” "फर्क कैसे नहीं?" अमर ने गौरी की ओर देखा, "जीजी की विटिया को भी अपनी बना लोगी!”

"इनकी पहले है।" गौरी बोली।

"अब्बी अब्बी इसका पूरा नाम क्या है?" अमर ने पूछा ।

"भैया ने भी पूछा था। नाम बेचारी का रखा किसने?" गौरी ने बताया, "यहाँ बजे

अब्बी अब्बी कहने लगे तो वही सब पुकारने लगे। भैया इसका नाम अभया रख गये।"

"अभया!"

"अभया से अच्छा आभा नहीं?"

"है तो "क्यों भाभी?" गौरी ने पूछा।

"तुम्हारा नाम आभा ।" अमर ने बच्ची का चेहरा दोनों हाथों में लेकर उसे बताया। बच्ची हँस दी।

गौरी को बहुत अच्छा लगा।

सेवाश्रम से लौटते समय अमर की कल्पना में मीरा आ गयी सुन्दर वर्ण आकृति, मँजी बोलचाल, हँसी-किल्लोल, उल्लास से खिला चेहरा। सुबह की कोमल धूप में इस फूल से उस फूल पर उड़ती-मँडराती थिरकती तितली की तरह चंचल । वह चित्र उलटने पर दूसरी ओर साँवले चिकने पत्थर की मूर्ति, दुर्भाग्य की स्वीकृति में झुकी गर्दन, सहिष्णुता से स्थिर आँखें, सौम्य मुद्रा गौरी अमर ने कल्पना में फिर पक्षा पलट कर मीरा का चित्र देखा। कौतुक, विनोद और उल्लास उसका जीवन उसे क्या अभाव! कठिनाई, दुख-दर्द से अपरिचित और निश्शंका उसे जरूरत है खिलवाड़ के लिये साथियों की चित्र का पना उलटने पर गौरी का चित्र सब अन्याय यातना सहकर, बिना शिकायत फिर धैर्य से परिश्रम के लिये प्रस्तुता इसका जीवन है, दूसरों की सेवा सहायता लायक बन सकना। इसके लिये कुछ भी कर सकूँ तो सार्थक हरि भैया देश के लिये जेल में पड़े हैं। इन लोगों की खबर न ली। गौरी को जो भी सहायता सम्भव हो।

मध्य जुलाई से अमर मेडिकल कालेज जाने लगा। सुबह नौ बजे जाता, संध्या पाँच तक लौटता। पहले दूसरे वर्षों में विद्यार्थियों का होस्टल में रहना अनिवार्य नहीं। सेठ जी का आग्रह था, जब तक घर पर रहकर पढ़ाई हो सके बेटा होस्टल में क्यों जाये। राजाबाज़ार से मेडिकल कालेज कितनी दूर अमर के पास मोटर साइकल सप्ताह में एक बार साँझ सेवाश्रम जरूर हो आता।

अगस्त का अंतिम सप्ताह था। अमर प्रातः जल्दी कालेज चला गया। उस दिन डाक्टर बोस खुद निसेक्शन का डिमांस्ट्रेशन देने वाले थे। संध्या पाँच बजे लौटा तो बुआ ने कटोरी में मठरी और दूध का गिलास देकर बताया, "सुबह तुम गये तभी गौरी भूपन आये थे।" "किसलिये?"

"अपने भाइयों के यहाँ राखी बाँधने रकाबगंज जा रही थी। पहले यहाँ आयी।" अमर नाश्ता खाकर सेवाश्रम की ओर चल पड़ा।

"लाला, तुम्हें अब फुर्सत मिली?" भाभी ने उलाहना दिया, "बीबी बेचारी सुबह से निर्जल- निराहार बैठी है।"

"क्यों क्या हुआ?" अमर ने विस्मय से गौरी की ओर देखा।

"नहीं भाभी, कुछ नहीं

गौरी के बजते-बजते भाभी कह गयी। "उसकी बिटिया के मामा बने हो तो वह राखी नहीं बाँधेगी? सुबह-सुबह तुम्हारे यहाँ गयी थी, तुम कालेज चले गये। नहीं जानते, राखी जूठे मुँह नहीं बाँधी जाती।"

"भाभी कोई बात नहीं।" गौरी ने बात समाप्त करनी चाही। भीतर जाकर थाली में अक्षत रोली और राखी ले आयी।

अमर ने शेप से कहा, "पहली बार राखी बंधवा रहा हूँ। बहिन की ही नहीं।" "अब तो है!" भाभी ने याद दिलाया।

अमर की माँ जायी बहिन न थी। सरीके में चचेरी बहनें थीं तो उम्र में उससे बहुत बड़ी, सब ससुरालों में। राखी बाँधने वाली बहिन न थी। जानता था, बहिन राखी बाँधती है तो भाई बहन को धन्यवाद, आशीर्वाद या दक्षिणा स्वरूप कुछ भेंट देता है। सेवाश्रम आते समय यह ध्यान न था। जेब में हाथ डाला, केवल कुछ ने पैसे

"अभी जाया ।" वह दरवाजे की ओर लपका।

"नहीं-नहीं, कोई बात नहीं "भाभी और गौरी एक साथ बोलीं। वे भाँप गयी थीं। अमर गली में निकल गया। तेज कदमों से घर की ओर जाते मन गदगद था गौरी जीजी मुझे इतना मानती है।

अमर ने लौटकर गौरी के सामने पाँच का नोट रख दिया। गौरी इनकार में गर्दन हिलाकर पीछे हट गयी, "नहीं, ये कोई बात है। सगुन चार आने, आठ आने का होता है क्या बात हुई।" उसने भाभी की ओर देखकर दुहाई दी।

बीवी ठीक कह रही हैं। लाला ये बहुत है।" गौरी की ओर देखा, "चलो तुम्हारे भैया का मन है तो एक रुपया ले लो।"

"बस हो गया।" अमर ने भी गर्दन हिला दी।

गौरी ने नोट नहीं छुआ विरोध में घुटने पर टिकाये मौन बैठी रही।

"अच्छा, बीबी तुम ही मान जाओ भाई की भेंट का निरादर नहीं करते।" भाभी ने समझाया, "अब जल तो पियो, सुबह से मुँह जूठा नहीं किया।"

गौरी ने विवशता में हाथ बढ़ाकर नोट उठाया। मौन, गर्दन झुकाकर नोट माथे से छुआ लिया। कोठरी में चली गयी।

अमर ने कल्पना में देखा, कोठरी में जाकर गौरी आँचल से आँखें पोंछ रही है। गौरी ने नोट मजबूरी में लिया था। उसे विवश करने के लिये अमर ने संकोच अनुभव किया। पैसे के प्रति गौरी की बेपरवाही से मत सराहना, सहानुभूति, आदर और स्नेह से उमग आया। निश्चय कर लिया- भविष्य में रक्षाबंधन और भाई दूज का दिन न भूलेगा।

गांधी जी और कांग्रेस के प्रमुख नेता और कार्यकर्ता सत्रह मास से जेल में थे। अनुशासित और व्यवस्थित अहिंसात्मक सत्याग्रह की सम्भावना न थी। सरकारी दमन से क्षुब्ध जनता विरोध प्रकट किये बिना भी न रह सकती थी। कहीं रेल, तार, डाक व्यवस्था को हानि पहुँचा दी जाती, कहीं कुछ और हो जाता। गांधी जी को जेल में यह सब समाचार मिल रहे थे। वे जनता में हिंसा की ओर प्रवृत्ति से चिंतित। गांधी जी ने गम्भीर मनन और ईश्वर प्रेरणा से अपनी और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की आत्मा की शुद्धि और हरिजन कार्य को प्रोत्साहन देने के लिये ४ मई, १९३३ से इक्कीस दिन के अनशन व्रत का निश्चय कर लिया और अपने निश्चय की सूचना पत्र द्वारा सरकार को दे दी।

सरकार ने गांधी जी के अनशन व्रत की सूचना का पत्र और इस सम्बन्ध में अपना आदेश अखबारों में प्रकाशित करवा दिये मिस्टर गांधी का प्रस्तावित अनशन सरकार की नीति और व्यवहार के विरोध में नहीं है। इस अनशन से सरकार का कोई सम्पर्क नहीं है। मिस्टर गांधी को अनशन की अवस्था में जेल में रखने का उत्तरदायित्व सरकार नहीं लेना चाहती। इसलिये मिस्टर गांधी जेल से मुक्त कर दिये गये।

गांधी जी ने जेल से मुक्त होकर तुरन्त कांग्रेस कार्यकारिणी समिति तथा कांग्रेसजनों से अनुरोध किया: मेरी जेल से रिहाई मुझे सत्य का अन्वेषण करने के लिये प्रेरित कर रही है। अन्य कांग्रेसी सहयोगियों से भी मेरा अनुरोध है कि वे सत्य के अन्वेषण का प्रयत्न करें। अपनी सम्पूर्ण शक्ति केवल हरिजन आन्दोलन में लगा दें। दुख है कि इस समय कांग्रेस आन्दोलन जहाँ-तहाँ गुप्त रूप से चल रहा है और उसमें हिंसा का उपयोग हो रहा है। गुप्त और हिंसात्मक कार्य कायरता है। मेरी प्रार्थना है, छ: सप्ताह के लिये सम्पूर्ण आन्दोलन स्थगित कर दिया जाये। मैं कांग्रेस और सरकार में समझौते का प्रयत्न करना चाहता हूँ। गांधी जी ने सरकार से भी अनुरोध किया कि कांग्रेस आन्दोलन में भाग लेने वाले सभी लोगों को रिहा कर दिया जाये।

सरकार ने छ: सप्ताह के लिये आन्दोलन स्थगित करने की शर्त पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को रिहा करने से इनकार कर दिया। सरकार चाहती थी, कांग्रेस अपना आन्दोलन पूर्णतः समाप्त करके पराजय स्वीकार करे। गांधी जी का अनशन विश्वव्यापी चिन्ता के वातावरण मैं सकुशल पूर्ण हो गया। अनशन की समाप्ति पर गांधी जी ने कांग्रेसजनों से अनुरोध किया कि आन्दोलन को पुन: छ: सप्ताह के लिये स्थगित रखकर स्थिति पर शान्ति से विचार और सत्य के अन्वेषण के लिये मनन करें।

आन्दोलन पुनः छः सप्ताह के लिये स्थगित हो जाने पर भी सरकार ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को जेल से मुक्त करना स्वीकार न किया। सरकार का निश्चय थाः गांधी जी और कांग्रेस अपना आन्दोलन पूर्णतः समाप्त कर पराजय स्वीकार करें तभी समझौते की बात हो सकेगी।

कांग्रेस के उग्रपंथी, खासकर समाजवादी और पूर्ण क्रान्ति के समर्थक लोग भी बहुत असंतुष्ट और क्षुब्ध हो रहे थे। उनका तकाजा था आन्दोलन स्वराज्य के लिये 'आमरण संघर्ष के अंतिम मोर्चे की प्रतिज्ञा से आरम्भ किया गया था। आन्दोलन के लक्ष्य प्राप्त किये बिना स्थगित नहीं होना चाहिये।

नेता जी सुभाषचन्द्र बोस और बिठ्ठल भाई पटेल उस समय चिकित्सा के लिये देश से दूर वियेना में थे। इन दोनों नेताओं ने गांधी जी के निर्णय और आदेश के विरुद्ध संयुक्त वक्तव्य दिया: गांधी जी का यह कदम पराजय की स्वीकृति है। हमारा स्पष्ट मत है कि गांधी जी का राजनीतिक नेतृत्व असफल रहा है। अब कांग्रेस की नीति और कार्यक्रम में परिवर्तन आवश्यक हो गया है। यदि कांग्रेस समय पर ऐसा नहीं करती तो देश में दूसरा राजनीतिक दल बनाना आवश्यक हो जायेगा।

एक ओर विदेशी सरकार का कठोर दमन का निश्चय और व्यवहार, दूसरी ओर कांग्रेस का उग्रपंथी असंतुष्ट जनमत। गांधी जी इस परिस्थिति में अविचलित धैर्य से सत्य-अहिंसा के मार्ग की खोज में थे। उनके विचार में वह समय सत्याग्रह संघर्ष को वेग देने के लिये अनुकूल न था। कांग्रेसजनों का बड़ा भाग दमन के विरोध अपने लक्ष्य के लिये संघर्ष में न्यौछावर हो जाने के आवेग से आतुर था। जनता आवेग और उत्तेजना में संघर्ष में सत्याग्रह के अहिंसात्मक मार्ग से हिंसा के मार्ग की ओर फिसलती जा रही थी। तीसरी ओर कांग्रेस के समर्थ और प्रभावशाली अधिकांश लोग इतने वर्ष तक त्याग और कठिन संघर्ष के कार्यक्रम के परिणामों से संतुष्ट न थे। वे चुनाव संघर्ष द्वारा कौंसिलों असेम्बलियों में जा वैधानिक मार्ग से राजनैतिक अधिकार और शक्ति पाने के लिये प्रयत्न करना चाहते थे। इस विकट स्थिति में गांधी जी मध्य मार्ग की खोज में थे।

अन्ततः अगस्त के तीसरे सप्ताह में गांधी जी ने घोषणा की: सरकार से शान्तिपूर्वक विचार-विनिमय द्वारा समझौते के सब यव विफल हो गये हैं। देश दमन के सम्मुख आत्म- समर्पण नहीं कर सकता। आन्दोलन का आमरण संघर्ष पुनः आरम्भ होगा, परन्तु आन्दोलन को हिंसा के घातक रोग से सुरक्षित रखने के लिये आन्दोलन सामूहिक सत्याग्रह के रूप में नहीं, केवल वैयक्तिक, सत्याग्रह के रूप में होगा। इस आन्दोलन में वे ही व्यक्ति भाग ले सकेंगे जिन्हें गांधी जी या कांग्रेस द्वारा नियुक्त डिक्टेटर सत्याग्रह में भाग लेने की अनुमति देंगे। हरि भैया आन्दोलन स्थगित होने पर मई में जेल से रिहा कर दिये गये थे। हरि भैया और उनकी तरह गांधी मार्ग के अनुगामी तुरन्त वैयक्तिक सत्याग्रह के लिये प्रस्तुत हो गये। सत्याग्रह की अनुमति मिलते ही उन्होंने फिर अपना खद्दर का भण्डार विश्वस्त मित्रों के यहाँ धरोहर रख दिया और स्वयं कोतवाली जाकर सत्याग्रही के रूप में आत्म समर्पण कर दिया। वे परिवार के साथ तीन मास रह पाये थे।

इस बार हरि भैया कांग्रेस आन्दोलन के डिक्टेटर से अनुमति माँगकर जेल गये थे। उनके इस व्यवहार पर उनकी पत्नी बिलख-बिलख कर रोयीं । अमर सांत्वना देने गया। भाभी को यों रोते देख उसका हृदय उमड़ आया। भाभी विह्वल क्षोभ में कह रही थीं, "इन्हें ऐसा ही जोग रमाना था तो घर-गृहस्थी क्यों की थी। घर में चार बच्चे, हम दो जनीं। हमें किस पर छोड़ जाते हैं। ''देश सेवा का पुत्र बटोरेंगे हमें सताकर, तड़पाकरा लोग घर में दिया जलाकर मट्टी मडैया पर दिया रखते हैं। ये अपने बाल-बच्चों को सताकर पुन्न कमायेंगे ।" रजा, उसके मामू, नाथ शास्त्री, नरेन्द्र सभी के विचार में वैयक्तिक सत्याग्रह सिर्फ जनता को बहलाने की राजनीति थी। स्वयं अमर की सहानुभूति उग्र कार्यक्रम के पक्ष में उसके विचार से हरि भैया का यह सत्याग्रह देश की राजनीतिक शक्ति का अपव्यय था, परन्तु हरि भैया की अपने विश्वास और आस्था के प्रति ईमानदारी की सराहना किये बिना भी न रह सका। भाभी, गौरी और बच्चों से सहानुभूति में सोचता रहा यदि जन-सेवा, खासकर क्रान्ति का मार्ग अपनाना है तो घर-गृहस्थी, प्रेम, विवाह के बंधनों से बचे रहना उचित है। अपने निर्णय से कष्ट यातना सहना एक बात, दूसरों को मुसीबत में डालने का हमें क्या अधिकार ! प्रेम और आकर्षण के फन्दे व्यक्ति को कमजोर बना देते हैं। लड़कियों के प्रेम-पाश में फँसे तो गये।

रज़ा और अमर में सभी तरह की चर्चा और परामर्श हो जाता था। अप्रैल के अन्त में अमर ने अपनी खिन्नता रजा के सामने प्रकट कर दी. “वालिद जाने क्यों हमारे सगाई -ब्याह के लिये इतने परेशान हैं। हम इतनी बार कह चुके एम० बी० बी० एस० पूरा हो जाने दीजिये। कहीं से पैगाम आ जाता है या वालिद खुद तूं लाते हैं। फिर वही झाँय झाँ।" "बच सको तो इस फंदे में मत फँसना।" रज़ा ने चेतावनी दी, "हम देख रहे हैं, इस फंदे के अन्दर-बाहर फंदे फंदा सिर्फ जिस्मानी नहीं, दिमाग को भी जकड़ लेता है। हमारे वालिद और भाई तो बरस भर से पीछे पड़े हैं। उन्हें तो दहेज का लालच परेशान कर रहा है। हम मामू पर बात टाल देते हैं। मामू वालिद को समझा लेते हैं। हमारे नफीस भाई को देख लो, छब्बीस की उम्र अभी से चार पिल्ले हरदम बुजुर्गों सी बातें रिलीजन और ट्रेडीशन की पावन्दी के लेकचर ""

शुरू अक्टूबर में रजा मिला तो बताया, “यार हमारी सगाई हो गयी।" आवाज गमगीन जैसे सोग की खबर दे रहा हो, "मजबूर हो गये। अब तक मामू की मदद थी। मामू ही बोले सब कुछ सिचुएशन से होता है। इसे सिचुएशन में रिश्ता मंजूर कर लो।"

रजा ने सिचुएशन बतायी, "जानते हो, हमारे घर की हालते कमजोर है। वालिद का

मतब जैसा कुछ चल रहा था, अब और सुस्ता गरीब लोग सस्ती के खयाल से देसी दवा लेते थे। कमबख्त होमियोपैथी आ गई, देशी दवा से सस्ती पैसे वालों के लिये तो ऐलोपैथी हकीम वैद्य के यहाँ लोग आते हैं, कुश्तों के लिये। सो हमारे वालिद उतने शातिर नहीं। नफीस भाई बाल्दा में छब्बीस माहवार पा रहे हैं। ख़ुदा के करम या कहर से चार बच्चे. जिनमें तीन लड़कियाँ चार बहनों की शादी में अब्बा इतना कर्ज कर बैठे हैं कि उसका सूद ही मारे बाल रहा है। हमने दो साल घर पर रहकर कालेज अटेंड कर लिया, वजीफे की मदद से वर्ना फीस तक न भर पाते। अब होस्टल में रहना लाजिम, तो खर्च का सवाल!

"वालिद ने साफ कह दिया डाक्टरी पड़ना है तो रिश्ता कबूल करो। इस तालीम का खर्च हमारे बस का नहीं। तुम्हारे ससुर यह खर्च देने को तैयार हैं। यह रिश्ता तुम्हारे-हमारे लिये ख़ुदा की इमदाद है। रिश्ता मंजूर नहीं तो ढूँढ लो बीस रुपये की नौकरी।"

रजा की विवशता पर क्रोध-घृणा दिखाना अन्याय होता। अमर ने सहानुभूति अनुभव  की।

रजा ने बताया, "हमारे अब्बा और नफीस भाई कहते हैं. हम बुलन्द मुकद्दर हैं। रज्जाक (पालनहार) ने हमारी डाक्टरी तालीम के लिये यह रिश्ता हमारी तकदीर में लिखा है।" रज़ा अपना अवसाद छिपाने के लिये मुस्कराया, "ख़ुदा की कुदरत में बड़े-बड़े करिश्मे हैं। हमारा खयाल है, ख़ुदा ने मियाँ शमसुद्दीन की परेशानी में इमदाद के लिये हमें मुफलिस बनाया और हमारे दिल में डाक्टरी तालीम का अरमान पैदा कर दिया, मियाँ शमसुद्दीन का जरखरीद दामाद बना देने के लिये।"

अमर के समाधान के लिये रजा ने बताया, “मियाँ शमसुद्दीन का खालों का कारोबार है। कारोबार खूब फैला हुआ। यहाँ, आगरा, गोरखपुर, कानपुर में भी दुकानें उनकी छोटी बेटी से हमारी सगाई हुई है। दहेज में मेडिकल कालेज का फाइनल तक का खर्च और एक पुख्ता मकान का वायदा। हमारी माँ-भाभी कहती हैं, लड़की सूरत- सीरत से बहुत अच्छी है। इतने दहेज की उम्मीद है तो लड़की की सूरत सीरत में क्या कमी! सौदा हमारी जानका।

" किस्सा यह कि लड़की हमारे समुर की दूसरी बीवी से है। असलियत ख़ुदा जाने, अफवाह है कि दूसरी बीवी छोटी जात यानी यूजर की बेटी है। अच्छे खानदान रिश्ता कबूलने में लड़की-लड़के के मां-बाप की सात पीढ़ी के शळे मांगते हैं। हमारे यहाँ चूहे भूखे मरते हैं तो क्या हैं हम शेखजादे। हमने बिक कर डाक्टरी तालीम का इंतजाम कर लिया। सैकड़ों हमसे हसद करने वाले गरीबों की मजबूरी गरीबों में बिकने के मौके के लिये हमद मियाँ शमसुद्दीन हमें दामाद बनाने के लिये खरीद रहे हैं। यह भी हमारी खुशकिस्मत वर्ना हमारी कीमत है क्या, बीस रुपया माहवार!"

मई, १९३४ में गांधी जी ने कांग्रेस के कार्यक्रम में परिवर्तन की अनुमति दे दी। कांग्रेस का सम्पन्न और प्रभावशाली वर्ग असहयोग और सत्याग्रह आन्दोलन से थक चुका था। वे लोग देश में उत्पन्न राजनीतिक जागृति के बल पर कौंसिलों और असेम्बलियों में जाकर वैधानिक संघर्ष से शासन में अधिकार और शक्ति के लिये यब करना चाहते थे। कांग्रेस ने पटना अधिवेशन में सरकार से असहयोग और सत्याग्रह का कार्यक्रम स्थगित कर सरकार से लड़ने के लिये चुनावों के मैदान में उतरने, सहयोग से लड़ने का कार्यक्रम स्वीकार कर

लिया। जनशक्ति में विश्वास रखने वाले कांग्रेस के उग्र लोगों, विशेषतः समाजवादी और साम्यवादी लोगों को कांग्रेस कार्यक्रम में परिवर्तन से तीव्र असंतोष इन लोगों ने पटना में ही एक कान्फ्रेंस आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में आयोजित कर कांग्रेस समाजवादी पार्टी का संगठन कर लिया। इस पार्टी का विचार था 'विदेशी साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था की रक्षा के लिये बनाये गये विधान को स्वीकार करके या उस विधान की सीमा के अन्तर्गत प्रयत्न से साम्राज्यवादी शासन को तोड़ता सम्भव नहीं। पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शासन की नीति और कानून बनाने वाली कौंसिलें देश की शोषित साधनहीन सर्वसाधारण जनता की प्रतिनिधि नहीं हैं। यह कौंसिलें गरीब किसान-मज़दूर जनता का शोषण करने वाले जमींदारों, पूँजीपतियों और इनके सहायक समृद्ध पेशेवर वर्गों की प्रतिनिधि हैं। साधनहीन गरीब जनता को इन कौंसिलों के प्रतिनिधि चुनने का अधिकार नहीं है। इन कौंसिलों को सर्वसाधारण जनता का प्रतिनिधि या जनता के हित का रक्षक कहना निर्दय प्रपंच है। उस समय यह बात अक्षरशः सत्य थी। विधान सभाओं के लिये वोट का अधिकार केवल उच्च शिक्षित लोगों और सम्पत्ति के स्वामी, टैक्स देने वाले लोगों को ही था। आजकल की तरह बालिग मताधिकार नहीं।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी शोषित साधनहीन बहुजन – किसान, मजदूर और गरीब नौकरी पेशा लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार और मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली पार्टी है। हमारी पार्टी को शोषक वर्गों की प्रतिनिधि कौंसिलों के चुनावों से कोई प्रयोजन नहीं। हमारी पार्टी अखिल भारतीय कांग्रेस के अन्तर्गत कांग्रेस का अंश है। यह पार्टी कांग्रेस को जनशक्ति से पुन: देश में पूर्ण स्वराज्य और जनतंत्र के लक्ष्य के लिये संघर्ष के मार्ग पर लाने का यत्न करेगी।

भारत के सभी प्रमुख नगरों में लखनऊ में भी कांग्रेस समाजवादी पार्टी की शाखायें बन गयीं। देश के शिक्षित सजग नौजवानों को देश की संपूर्ण जनता के लिये समान अवसर- अधिकारों और शोषण से मुक्त व्यवस्था के लक्ष्य के लिये समाजवादी पार्टी को सहयोग देने का उत्साह। मेडिकल कालेज में कुछ विद्यार्थी और पैथालोजी के जूनियर प्रोफेसर देवेन्द्र शर्मा और फार्माकोलोजी के प्रोफेसर जायसवाल को समाजवादी आन्दोलन से गहरी सहानुभूति थी। समाजवाद के अध्ययन और चर्चा के लिये गोष्ठियाँ होने लगीं। अमर, नवीन तिवारी, गुरुप्रसाद सिन्हा उनमें भाग लेने लगे। कांग्रेस समाजवादी पार्टी की सदस्यता के लिये कांग्रेस का साधारण मेम्बर होना आवश्यक था। कांग्रेस समाजवादियों को चखें और खद्दर में उतना विश्वास न था परन्तु वे कांग्रेस के अनुशासन के कारण चर्खे खद्दर को आवश्यक समझते थे। खद्दर विदेशी शासन के विरोध और देशभक्ति की भावना का प्रतीक था। ब्रिटिश शासनकाल में खद्दर के उपयोग से किसी सुविधा की आशा न की जा सकती थी। खद्दर का प्रयोग सरकारी अप्रसन्नता का ही कारण हो सकता था। मेडिकल कालेज के विद्यार्थी और प्रोफेसर प्रायः कोट- पतलून पहनते। उनमें कांग्रेस के सदस्य खहर के कोट- पतलून।

मार्च, ११३६ में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लखनऊ में हुआ। उस समय जनता में बहुत उत्साह था। कारण गत पन्द्रह वर्ष में लगातार राजनैतिक आन्दोलनों, साइमन कमीशन के सुझावों और लन्दन में गोलमेज़ कान्फ्रेंस के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत को प्रान्त और केन्द्र में आंशिक स्वायत्त शासन देना स्वीकार कर लिया था। यह कांग्रेस की विजय थी। नगर का पश्चिम-दक्षिण भाग, जहाँ अब मोतीनगर, आर्यनगर, रघुवीरनगर बस गये हैं, उस समय वहाँ खेत- झाड़ियाँ वीं या ऊबड़-खाबड़ परती धरती। उस भाग को साफ-समतल करके अधिवेशन के लिये विस्तृत पंडाल, अतिथियों के निवास के लिये कैम्प और ग्रामोद्योग तथा खद्दर प्रदर्शनी की व्यवस्था की गयी थी। फूस की झोपड़ियों, छोलदारियों, कनातों का छोटा सुन्दर सुथरा नगर। इस नगर का नाम कांग्रेस के प्रमुख नेता स्वर्गीय पंडित मोतीलाल नेहरू की स्मृति में रखा गया—मोतीनगर। बाद में उस स्थान का वही नाम बना रहा।

अधिवेशन में समाजवादी विचारधारा और आन्दोलन को सशक्त बना सकने में सहयोग देने के लिये देश के सभी भागों बम्बई से नरीमैन, यूसुफ मेहरअली, मसानी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय; बंगाल से सोमेन ठाकुर, माया घोष: दिल्ली से भालसिंह, सरोज गुप्ता पंजाब से सोहनसिंह जोश, कामरेड रामचन्द्र कपूर और मुंशी अहमददीन, बिहार से जयप्रकाश बाबू और बेनीपुरी के दल आये थे। पूर्णिमा बनर्जी और एम० पी० सिन्हा कुछ मास पूर्व ही आयोजन में सहायता के लिये आ गये थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस समाजवादी दल में सम्मिलित नहीं हुए, परन्तु समाजवाद से उनकी सहानुभूति सर्वविदित थी। अमर को जब अवसर मिलता, देश के विभिन्न भागों से आये नेताओं के विचार जानने और उनके दर्शन के लिये मोतीनगर पहुँच जाता। मोटर साइकल की सुविधा थी।

समाजवादी विचारधारा और आन्दोलन से सहानुभूति के अतिरिक्त भी इस अस्थायी जादुई नगर में आकर्षण था। अमर लखनऊ से बाहर केवल कानपुर, इलाहाबाद और बनारस तक गया था। इस राजनैतिक नगर में पूरे भारत का प्रतिनिधित्व देश के विभिन्न भागों के स्त्री- पुरुष विभिन्न पोशाकों में मोतीनगर को कलात्मक दृष्टि से भारतीय रंग-रूप दिया गया था परन्तु यहाँ की भाषा अंग्रेजी थी।

हरि भैया नगर कांग्रेस की ओर से मोतीनगर में प्रदर्शनी और नेताओं के जलपान के लिये प्रबंधक थे। कॉलेज के होस्टल में रहने और संध्या दूसरी व्यस्तताओं के कारण उन दिनों अमर सेवाश्रम कम जा पाता था। गौरी असाधारण अध्यवसाय से गत वर्ष महिला कालेज से कक्षा नौ की परीक्षा में पास हो गयी थी। उसे उस वर्ष मैट्रिक की परीक्षा देनी थी। परीक्षा में केवल दो सप्ताह शेष हरि भैया ने आग्रह किया विशिष्ट मेहमानों के जलपान का प्रबंध निबाहने के लिये तीन दिन कैम्प में स्वयंसेविका बनकर काम करे। यह भी शिक्षा है। कोठरी आँगन में बन्द रहने से काम न चलेगा। गौरी कैसे इनकार करती!

सार्वजनिक अधिवेशन का समय संध्या सात बजे था। विभिन्न नगरों से आये साथियों से परिचय के अवसर के लिये अमर पाँच बजे ही मोतीनगर पहुँच गया। कांग्रेस समाजवादी दल के दफ्तर की झोंपड़ी के सामने कई लोग मेहरअली, मनानी, सरदेसाई, दुर्गा सितोले, पूर्णिमा बनर्जी और सिन्हा बड़े बातचीत कर रहे थे। उनके समीप एक आधुनिका नवयुवती गर्दन तक घंटे फूले-फूले केश, बहर की बहुत महीन नीली छींट की साड़ी।

अमर को देखकर सिन्हा उसकी ओर बढ़ आया, "कामरेड, बहुत व्यस्त हो?"

"खास नहीं, देखने-सुनने चला आया।"

सिन्हा ने घड़ी पर नजर डाली, "अभी सेशन में दो घंटे हैं। हम लोग पार्टी कार्यकारिणी की बैठक कर रहे हैं। तब तक तुम मौली को नगर में घुमा लाओ। मौली प्लीज!" सिन्हा ने जवान लड़की को सम्बोधन किया। वह उनकी ओर आ गयी।

मौली के समीप आने पर अमर को भीनी सुगन्ध भली लगी। युवती के चेहरे और बिना आस्तीन बाँहों पर प्रसाधन की ताज़गी। कंधे से लटका बड़ा पर्स सहज निस्संकोच ऐसी युवतियाँ उन दिनों लखनऊ में बहुत कम सिन्हा ने दोनों का परिचय कराया, "मौली बजा, फैलो ट्रेवलर बम्बई से आई है।" अमर की ओर संकेत "कामरेड डाक्टर अमरनाथ सेठ अमर तुम्हें शहर घुमा लायेगा। बम्बई की तरह टैक्सी न मिल सकेगी। घोड़ागाड़ी पर परेशानी ज़रूर होगी।" सिन्हा ने मुस्कान से विवशता प्रकट की।

उस समय लखनऊ और आस-पास के नगरों में टैक्सी का रिवाज़ बहुत कम था। जितनी टैक्सियों थीं, कांग्रेस अधिवेशन की प्रबंधक कमेटी ने प्रबंध कार्य और सम्मानित अतिथियों के लिये सुरक्षित करवा ली थीं।

"नॉट एटॉल! मुझे घोड़ागाड़ी बहुत पसन्द !" मौली क्लिक से मुस्करायी। अमर की ओर देखा, "डाक्टर, मेरे कारण आपका समय बर्बाद होगा! "

"न, न, मुझे फुर्सत है, प्रसन्नता होगी!" अमर विनय से बोला ।

नवयुवतियों की संगति अमर के लिये बहुत साधारण सी बात न थी। अस्पताल में नित्य अनेक स्त्रियों को नहीं, उनके अवयव और शरीर देखता, उनकी परीक्षा करता था। मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी और डाक्टर स्त्री-पुरुषों को वैसे ही देखते हैं जैसे मोटर मरम्मत कारखाने में कारीगर मरम्मत के लिये आयी गाड़ियों को जाँचते हैं। सिन्हा ने फैलो ट्रैवलर (सहधर्मी, लक्ष्य के सहयात्री) के रूप में परिचय कराया था। वह जमाना और था। आज के दिन सभी समाजवादी हैं। उस जमाने में स्वयं को समाजवादी बताना जोखिम सिर लेना होता । समाजवादी विचारों से सहयोग, जोखिम में सहयोग, विश्वास और आत्मीयता का सबसे गहरा रिश्ता परिचय से ही दोनों में आत्मीयता विश्वास का सम्बन्ध ।

अमर ने एक अच्छा टोंगा किराये पर ले लिया। टोंगे को चारबाग होते हुए हज़रतगंज चलने का आदेश ।

"डाक्टर, प्रैक्टिस 'शुरू कर दी या नौकरी?" अमर के साथ टोंगे पर बैठते ही मौली ने पूछ लिया।

"अभी न प्रैक्टिस न सर्विस। चौथे वर्ष में हूँ। परीक्षा के बाद अनुभव के लिये वर्ष भर कॉलेज अस्पताल में काम करना होगा।"

"मेरा अनुमान ठीक।" मौली मुस्कराई, "मैंने भी इस वर्ष एम० ए० की परीक्षा दी है। पी-एच० डी० का विचार हैं पर कामरेड सितोले कहती है पार्टी के साप्ताहिक में सहयोग दूँ। चाहती मैं भी हूँ लेकिन पढ़ाई एक बार छूटी तो छूटी। " "साप्ताहिक बम्बई से?" अमर ने बात जारी रखी।।

"हाँ, बम्बई से हम बम्बई निवासी हैं। पिता का मोटर रिपेयर गैराज और टैक्सी का कारोबार है। कामरेड्स कांग्रेस के लिये आ रहे थे। सितोले के साथ आ गयी। देश का उत्तरी भाग देखने की भी इच्छा थी। हमारे यहाँ से बहुत भिन्न परन्तु पिक्चरक्सा यहाँ रिवाज़ कितने भिन्नः स्त्रियाँ मुँह इके, आँखों पर कपड़ा डाले चल-फिर लेती हैं, सब काम कर लेती हैं।" मौली हँसते-हँसते कई बातें कह गयी।

बम्बई की तुलना में मौली को लखनऊ बहुत छोटा, संक्षिप्त परन्तु सुथरा लगा। हज़रतगंज से प्रभावित न हुई। लखनऊ के पार्क पसन्द आये। अमर ने उसे रेजीडेंसी दिखाई। फिर लखनऊ के अतीत का वैभव बड़ा इमामबाडा दिखाने ले गया। भूलभुलैया देखने के लिये दूसरी मंजिल पर गये। बहुत पुराने जीने में सीढ़ियाँ टूटी और घिसी हुई। पाँव फिसल खिसक रहे थे। मौली ने अमर की बाँह का सहारा ले लिया। अमर का शरीर सनसना गया परन्तु मॉली उसकी बाँह में ऐसे सहज बाँह डाले रही जैसे जीने पर लगी टेक का सहारा लिये हो। अमर को अपने अनभ्यास से प

गाइड उन्हें भूलभुलैया में तीन-चार मोड़ भीतर ले जाकर अदृश्य हो गया। “गाइड के बिना यहाँ से निकल सकना बहुत कठिन।" अमर ने बताया।

"कोशिश करें।" मौली अमर की बाँह पकड़ कई मोड़ बन गयी। लगा दिशा ज्ञान खोकर दीवारों के गहरे व्यूह में डूबते जा रहे हैं।

मौली के चेहरे पर घबराहट आ गयी।

गाइड ने प्रकट होकर सलाम कर दिया।

"ऐसी इमारत बनाने का क्या प्रयोजन रहा होगा, इसमें क्या सौन्दर्य" मौली ने सान्त्वना से साँस लेकर पूछा।

कहा जाता है, नवाब लोग यहाँ जवान लड़कियों स्त्रियों से आँखमिचौनी खेलते थे।" अमर ने संकोच से बताया, "खियाँ उनकी इच्छा बिना इस व्यूह से बाहर न निकल सकतीं।"

“यह भी क्या विकृत रुचि!" मौली के चेहरे पर विरक्ति। "आधे शहर की लागत की यह इमारत ऐसे शौक के लिये बनायी गयी? हमारे राजाओं नवाबों की सामन्ती अय्याशी के ऐसे ही शौक वे जिनके परिणाम में देश दो सौ बरस से गुलामी भोग रहा है।"

लोटते समय मौली की नजर इमामबाड़े की भीतरी ड्योढ़ी में दुकान की ओर गयी- लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों के चित्र, हाथीदांत और पीतल के छोटे-मोटे उपहार, खिलौने, चिकन कसीदे के मेजपोप, रूमाल, साहियाँ, कुर्ते ।

मौली के कदम उस और बढ़ गये।

चिकन कसीदे का काम देखकर मौली मोहित दाम सुनकर अमर ने परामर्श दिवा: यह दाम विदेशी यात्रियों के लिये हैं। बाजार में बेहतर चुनाव का अवसर और उचित दाम पर माल मिल सकेगा। अमर स्वयं खद्दर पहनता था परन्तु चाचा और पड़ोसी टंडन चिकन के व्यापारी थे। बड़े सेठ जी को कोहली परिवार के लिये ऐसा सामान खरीदते भी देखता ही था। बड़े इमामबाड़े से बज़ा को अमर ने तस्वीर पहल और छोटा इमामबाड़ा दिखाकर अमीनाबाद के रास्ते कांग्रेस कैम्प पहुँचा दिया। रात नींद आने से पूर्व अमर के मस्तिष्क में मौली और उसकी बातचीत बार-बार कौंध रही थी मौली का निस्संकोच, सहज, स्वच्छन्द खिलाड़ी जैसा ढंग परन्तु उसकी बातें "।

पी-एच० डी० की महत्त्वाकांक्षा है परन्तु वह वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा इतने बड़े-बड़े

ज्ञानी प्रोफेसर समाज के लिये क्या कर रहे हैं? केवल पेचीदा बातें और बड़ी-बड़ी तनखाहें "समाज के प्रति भी व्यक्ति का कुछ कर्तव्य। विराट जनसमूह के संकट से निरपेक्ष, अपनी ही चिन्ता स्वार्थ बुद्धि। दूसरे कामरेड्स को जनकल्याण के लिये तिल-तिल निछावर होते देखकर अपनी वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षाओं के लिये ग्लानि अनुभव हो जाती है। मौली, दुर्गा सितोले की निस्वार्थ कर्मठता की सराहना से अघा न रही थी। मौली स्वयं वैयक्तिक कैरियर की परवाह न कर अपनी पार्टी के साप्ताहिक में काम करने के लिये तैयार। सहसा सिन्हा की बात याद आयी कम्युनिस्टों को गर्ल कामरेड्स का सहयोग बहुत बड़ी सहायता । इसलिये यूनिवर्सिटी में कम्युनिस्टों का इतना प्रभाव। मौली कम्युनिस्टों के प्रभाव में है परन्तु उसका उत्साह, निष्ठा सही रास्ता पहचान कर सही मार्ग क्यों न अपनायेगी।

अमर ने पिछली संध्या दुर्गा सितोले और मौली के अनुरोध पर उन्हें दोपहर में चिकन कसीदे की दुकानों पर ले चलने का आश्वासन दे दिया था। दोपहर बाद अमर डाक्टर नरसिंहम की क्लास छोड़कर मोतीनगर कांग्रेस कैम्प चल गया। क्लास में जाना चाहिये था परन्तु सुदूर बम्बई से आये सहधर्मियों की सहायता भी कर्तव्य मौली और सितोले के पास अमरे निश्चित समय पर पहुँचा था। सितोले ने अमर से पूर्व परिचित की तरह बल्कि बड़ी बहिन की तरह व्यवहार किया। टोंगे पर बैठते-बैठते ही तीनों में बातचीत। कांग्रेस पर पूँजीपतियों के नियंत्रण के लिये क्षोभ, कांग्रेस के बहुमत को सचेत करने की जरूरत। समाजवादी क्रान्ति के लिये विश्वस्त हरावल केवल सचेत मजदूर वर्ग समाजवादी लक्ष्य से संगठन के लिये उचित क्षेत्र बड़े औद्योगिक नगर एक दुकान से दूसरी दुकान की ओर जाते समय बातचीत, विचार-विनिमय।

"जनगण की मुक्ति के संघर्ष के लिये जनगण का विश्वास पाने का जैसा अवसर डाक्टर को, उतना दूसरे व्यक्तियों के लिये बहुत कठिन । डाक्टर के बराबर जनता का आत्मीय और विश्वस्त कौन हो सकता है!" मौली ने अमर की आँखों में देखा।

"हो सकता चाहिये," अमर ने स्वीकारा, "परन्तु अधिकांश लोग जनसेवा के लिये नहीं जन के कष्ट से लाभ उठाने के लिये डाक्टर बनते हैं। "

"ठीक कह रहे हो कामरेड," सितोले ने सराहना से कहा, "यह पूँजीवादी व्यवस्था का प्रभाव है। इस व्यवस्था में पूरा समाज अभाव की आशंका से त्रस्त इसी त्रास से परस्पर अविश्वास, आशंका, क्रूरता। इस व्यवस्था के अभिशाप से समाज को मुक्त करने का यन तुम्हारे जैसे साथियों का कर्तव्य। ""तुम परीक्षा पास कर बम्बई आ जाओ। तुम्हारे लिये अनुकूल कार्यक्षेत्र वहाँ है।"

"सूर्य ढलने से कुछ पूर्व वे लोग चौक से चिकन की साड़ियाँ लेकर शाहमीना के सामने से लौट रहे थे। उनके समीप से सजे बजे दो गहरेबाज़ इक्के तेज दौड़ से घुँघरू बजाते निकूल गये। कद्दावर स्वस्थ घोड़े, इक्कों से लटकते बड़े-बड़े घुँघरूओं की तुमुल टनटन। बज़ा की आँखें विस्मय से फैल गयीं।

"ओह कितने सुन्दर चैरियट (रथ) ऐसे रथ किराये पर मिल सकते हैं? “जरूर! पसन्द है?"

"बहुत पसन्द " मौली किलक उठी, "एक बार जरूर सवारी करूंगी। बहुत बरस पहले

दमन गयी थी। अंकल के यहाँ छोटी घोड़ागाड़ी थी। ऐसी नहीं, टेंडन। हम लोग उसे खूब दौड़ाते थे।"

"यहाँ इसे इक्का कहते हैं। खुद अपने यहाँ है। कल संध्या आ सकता है।"

प्लीज, अगर असुविधा न हो। प्रतीक्षा करूंगी।" मौली की आँखों और स्वर में अनुरोध।

मोतीनगर से लौटते समय अमर ने मुन्ने साईस को आदेश दे दिया: बम्बई से मेहमान आये हैं। इङ्का चौधे पहर तैयार रहे। गद्दी तकिये के गिलाफ बदल कर घुँघरू, फुन्दना, पटका सब दुरुस्त टिचन। खुद भी साफ कपड़े पहनना। कल तुम्हारे घोड़े की चाल देखेंगे छावनी की सड़क पर सेठ जी का इक्का घोड़ा बढ़िया थे।

कुछ बरस पहले तक सेठ जी का इक्का बहुत सजीला चुस्त रहता था। घुँघरू टनटनाता, गहरेबाज़ इक्का, सुडौल टाप टाप सड़क पर निकल जाता तो लोगों की आँखे उठ जातीं। इधर सभी बातों में लोगों की पसन्द और राय बदलती जा रही थी। चौक की ओर अब भी पुराने रिवाज थे परन्तु हजरतगंज छावनी की तरफ घुँघरू बजाता, सजा-बजा इक्का सड़क पर निकलता तो लोगों की नज़रें उठतीं जरूर परन्तु सराहना के बजाय कुछ विस्मय और विद्रुप से घोड़ा सेठ जी के यहाँ अब भी अच्छी राम का जवान, स्वस्थ, सुडौल था। घुषरू खुलवा दिये थे। भट्ठे पर या दिहात में जाते न थे। सेठ जी को सवारी की ज़रूरत सप्ताह में एक-दो बार से अधिक न होती। अमर के पास मोटर साइकल इड्डे के लिये रोज़ाना काम घोड़े के लिये चौपटिया से घास लाना ताकि खड़े-खड़े घोड़े की टाँगें न जुड़ जाये। सेठ जी को महीने पखवाड़े शहर से बाहर काकोरी, मलीहाबाद, बंधरा, बराव वा मोहनलालगंज जाने का अवसर होता तो घोड़े का बदन खुल पाता। वर्ना दाना-रातिव खाकर हिनहिनाने और तबेले की धरती फोड़ने के सिवा क्या करता।


8
रचनाएँ
मेरी,तेरी, उसकी बातें
0.0
गद्रष्टा, क्रांतिकारी और सक्रिय सामाजिक चेतना से संपन्न कथाकार यशपाल की कृतियाँ राजनितिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक हैं | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान और स्वातंत्रयोत्तर भारत की दशा-दिशा पर उन्होंने अपनी कथा-रचनाओं में जो लिखा, उसकी महत्ता दस्तावेज के रूप में भी है और मार्गदर्शक वैचारिक के रूप में भी | 'मेरी तेरी उसकी बात' की पृष्ठभूमि में 1942 का भारत छोडो आन्दोलन है, लेकिन सिर्फ घटनाओं का वर्णन नहीं | एक दृष्टिसंपन्न रचनाकार की हैसियत से यशपाल ने उसमे खासतौर पर यह रेखांकित किया है कि क्रांति का अभिप्राय सिर्फ शासकों का बदल जाना नहीं, समाज और उसके दृष्टिकोण का आमूल परिवर्तन है | स्त्री के प्रति प्रगतिशील और आधुनिक नजरिया उनके अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास के भी प्रमुख स्वरों में एक है |
1

भाग 1 : मेरी तेरी उसकी बात

1 सितम्बर 2023
2
1
1

बात पिछली पीढ़ी की है। डाक्टर अमरनाथ सेठ की फाइनल परीक्षा थी। रतनलाल सेठ को पुत्र के परामर्श और सहायता की जरूरत पड़ गयी। पिता ने झिझकते सकुचाते अनुरोध किया, "बेटे, जानते हैं, तुम्हारा इम्तहान है। पर ज

2

भाग 2 : मेरी तेरी उसकी बातें

5 सितम्बर 2023
0
0
0

गंगा बुआ को मास्टर जी की नोक-झोक से चिह्न उस पर लांछन कि उसे बच्चे के लिये उचित भोजन की समझ नहीं। गंगा मास्टर मास्टरनी से उलझ पड़ी, नयी-नयी बातें हमारे यहाँ बड़े-बड़ों के जमाने से ऐसा ही होता आया है।

3

भाग 3: मेरी तेरी उसकी बातें

6 सितम्बर 2023
0
0
0

छोटे मालिक का हुक्म पाकर गुन्ने ने घुँघरू अमचूर के घोल में डाल दिये। सुबह इक्के को धोया पहियों, राम साज पर तेल-पानी का हाथ लगाकर चमकाया। गद्दी तकिये के गिलाफ बदल दिये। अमर संध्या पाँच के लगभग पहुँचा।

4

भाग 4 : मेरी तेरी उसकी बातें

6 सितम्बर 2023
0
0
0

 सन् १९३८ अप्रैल का पहला सप्ताह धूप में तेजी आ गयी थी। कंधारी बाग गली में दोपहर में सन्नाटा हो जाता। रेलवे वर्कशाप और कारखानों में काम करने वाले तथा अध्यापक सुबह छः- साने छः बजे निकल जाते। बाबू सा

5

भाग 5: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023
0
0
0

रजा की भौवें उठ गयीं, "जब देखो कंधारीबाग गली! मिस पंडित से लग गयी?" "जब देखो तब क्या मौका होने पर सिर्फ इतवार शाम जाता हूँ। उसकी समझ-बूझ अच्छी हैं। समाजवाद में बहुत इंटरेस्ट ले रही है। शी कैन बी ग्रेट

6

भाग 6: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023
0
0
0

पिता ने उपा को चेतावनी दी थी: तुम घृणा और तिरस्कार की खाई में कूदकर आत्महनन कर रही हो। डाक्टर सेठ कितना ही ईमानदार, उदार हो परन्तु हिन्दू हिन्दू सम्प्रदाय का मूल ही शेष सब समाजों सम्प्रदायों से घृणा औ

7

भाग 8: मेरी तेरी उसकी बातें

8 सितम्बर 2023
0
0
0

बार रूम के बरामदे में वकील कोहली कुर्सी पर बैठे समीप खड़े महेन्द्र को मुकदमे के बारे में समझा रहे थे। बजरी पर कार के पहियों की सरसराहट से नजर उठी। कचहरी में नरेन्द्र का आना अप्रत्याशित! बेटे का चेहरा

8

भाग 7: मेरी तेरी उसकी बातें

8 सितम्बर 2023
1
0
0

 गांधी जी और नेताओं की गिरफ्तारियों के विरोध में जनता का आक्रोश और क्षोभ काली आँधी की तरह उठा। सरकारी सत्ता के पूर्ण ध्वंस का प्रयत्न उसके बाद सरकार की ओर से प्रतिहिंसा में निरंकुश दमन के दावानल क

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए