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भाग 1 : मेरी तेरी उसकी बात

1 सितम्बर 2023

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बात पिछली पीढ़ी की है। डाक्टर अमरनाथ सेठ की फाइनल परीक्षा थी। रतनलाल सेठ को पुत्र के परामर्श और सहायता की जरूरत पड़ गयी। पिता ने झिझकते सकुचाते अनुरोध किया, "बेटे, जानते हैं, तुम्हारा इम्तहान है। पर जैसे भी हो थोड़ा वक्त निकाल कर हमारे साथ चलो। अब्दुल लतीफ के यहाँ मरीजा को देख लो। फिर तुम्हारे कालेज के बड़े डाक्टर को, या जो डाक्टर मुनासिब समझो, मरीजा को दिखा दिया जाये।"

अमर पिता के साथ घर के इक्के पर नख्खास गया था। साईस की पुकार पर ऊपर की मंजिल की खिड़की से एक लड़की ने लाँका जीने के किवाह तुरन्त खुल गये।

एक युवती जीने के ऊपर दरवाजे तक बढ़ आयी, "बच्चा जान, आदाब अर्ज है।” युवती ने गर्दन झुकाकर, सविनय एक हाथ की अंगुली से सलाम किया। चेहरे पर आत्मीय के स्वागत का भाव। पुकार पर झोंकने वाली नौ-दस बरस की लड़की भी सलाम के लिये आ गयी। युबती अमर को देखकर पलांश ठिठकी, फिर जैसे अनुमान से पहचान कर आदाव अर्ज कर दिया। वह दिसम्बर की सर्दी में गहरे कत्थई रंग का अलवान ओ थी। अलवान सिर पर माथे तक, घूँघट नहीं। काले कपड़े का कुर्ता, लाल छींट का तंग पायजामा कत्थई अलवान से घिरा गोरा चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें, सौम्य संतुष्ट।

"खुश रहो बेटी, बड़ी उम्र हो।" आशीर्वाद देकर सेठ जी ने पूछा "लतीफ नहीं आये अभी?"

अमर अपने मित्र अहमद रज़ा के घर जब भी गया बैठक में ही बैठता था। रज़ा की अनुपस्थिति में उसकी माँ या अन्य प्रौढ़ा बैठक के दरवाज़े पर लटके पर्दे की आड़ से बात कर लेतीं। घर की लड़कियों स्त्रियाँ सदा पर्दे में रहतीं। अस्पताल में इलाज के लिये आने बाली मुस्लिम स्त्रियाँ डाक्टरों को आँख कान, नाक- जुबान गला दिखाने की मजबूरी में भी बुरका हटाते झिझकती थीं। यहाँ वैसा संकोच न था। घर में छोटे बच्चे के अतिरिक्त कोई मर्द मौजूद न था ।

लड़की ने दूसरे कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़कर सूचना दी, "अम्मां चनाजान और अमर भाई साहब आये हैं।" मरीज़ा उसी कमरे में पलंग पर थी।

प्रीता रोगी की धुंधली आँखें दरवाज़े की ओर घूम गयीं। रोगी की जीर्ण बाँह आशीर्वाद के संकेत में उठ गयी। अमर को ऐसी आत्मीयता की आशा न थी। उसने आगे बढ़कर प्रौढ़ा के आशीर्वाद के लिये सिर झुका दिया। प्रौढ़ा ने उसके सिर पर हाथ रखकर ओठों-ओठों में लम्बी दुआ दी कितने बरस बाद देखा।" प्रौढ़ा का बोल सॉस के कष्ट के कारण अटक रहा था। अमर को युवती की नज़र अपनी ओर होने का आभास लड़की और छोटा लड़का भी उसे कौतूहल से देख रहे थे। अमर ने अनुमान कर लिया: लतीफ भाई का परिवार है, उसके बारे में जानते हैं।

लड़की ने अमर के लिये मरीज़ा के पलंग के समीप मोद्रा रख दिया। अमर ने जानना चाहा: क्या तकलीफ है, कहाँ दरद, कब से? क्या दवा दी गयी? प्रश्न पर युवती अमर की ओर देखकर नज़र झुकाये उत्तर देती।

अमर ने प्रौढ़ा की नब्ज़ देखी। स्टैथसकोप से सीना, पसलियाँ जाँचे। साईस के हाथ दवा भिजवा देने का आश्वासन दिया।

सेठ जी कमरे के बाहर आँगन में मोढ़े पर बैठे थे। मरीज़ा को देख लेने के बाद छोटी लड़की अमर के हाथ चिरमची में धुलवा रही थी। उसी समय एक लड़का सिर पर चूहे की दुम जैसी पतली लम्बी चुटिया लटकाये दोने में पान-सुपारी, चुना-ज़र्दा लिये आ गया। युवती के अनुरोध पर सेठ जी ने पान लिया। अमर ने भी एक बौड़ा पान लेकर शुक्रिया कहा।

लौटने से पूर्व प्रौढ़ा ने फिर अमर के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया, “बेटे कभी तो अपनी बुढ़िया खाला को देख जाया करो।” युवती ने जीने तक आकर अदब से झुककर सेठ जी को 'खुदा हाफिज़' कहा। अमर की ओर देख मुस्कराई, "खुदा हाफिज़ भाई । खुदा नेमतें बख्शे। तूल उम्र हो । "

पिता के साथ इक्के पर नख्बास की ओर जाते समय अमर को अब्दुल लतीफ और अपने परिवारों में इतनी घनिष्ठता का अनुमान न था। अब्दुल लतीफ उनके भट्ठे का काम सम्भालता था, सेठ जी का बहुत विश्वस्त था। खयाल आयाः लतीफ से पहले उसके पिता भी सेठ जी के मित्र रहे होंगे। उस परिवार में कष्ट के प्रति सेठ जी की चिन्ता स्वाभाविक । नखास से लौटते समय अमर के कान में बार-बार प्रौढ़ा के शब्द गूँज जाते "कभी तो अपनी बुढ़िया खाला को देख जाया करो! उसे लगा, जैसे भूला स्वप्न याद आ रहा हो बचपन में पिता की उँगली पकड़े उस मकान में आया हो। मस्तिष्क में सहसा कौंधा: क्या इसी मौसी ने मेरे जन्म पर सोने के कंगन दिये होंगे! लतीफ की माँ और मेरी माँ सहेलियाँ रही होंगी। अमर प्रगतिवादी था। माँ की मुसलमान सहेली ! ''उसे अच्छा लगा। फिर लड़कपन की यादें ऐसी बात पर दीपचंद से मारपीट दीपचंद की ताई इसी मौसी के दिये कंगनों को रंडी के दिये कंगन कहती थी?

सोने के कंगनों की बात हर दीवाली पर ताज़ा हो जाती। पड़ोसी मास्टर जी के प्रभाव से अमर को लड़कपन से ही देवी-देवता, मन्दिर-पूजा में विश्वास या आस्था न रही थी। कालेज में पढ़ते समय पक्का भौतिकवादी समाजवादी था, परन्तु पिता और बुआ का मन रखने के लिये दीवाली की संध्या लक्ष्मी पूजा के लिये घर पर रहता। पूजा के समय गणेश- लक्ष्मी की मूर्ति के सम्मुख प्रणाम मुद्रा में हाथ जोड़ देता, चरणामृत लेता। पूजा के लिये हटड़ी और चाँदी के थाल में रखे जड़ाऊ गहनों, गिन्नियों के साथ सोने के बहुत छोटे कंगनों की जोड़ी भी रहती। लड़कपन में उतने छोटे कंगन के प्रति कौतूहल से अमर पूछ लेता, "बुआ ये कैसे कंगन?"

बुआ मुस्कराती, "तुम्हारे जन्म पर तुम्हारी एक मौसी ने दिये थे। तुम्हारी माँ इन्हें पूजा में रखती थी, सो हम भी रखते हैं। हम बने रहे तो तुम्हारे बेटे को पहनायेंगे।”

बुआ ने मौसी के बारे में कभी कुछ न बताया था। छोटे कंगनों की वह जोड़ी, जो अब उसके पाँव के अंगूठे पर आ सके, याद दिला देती उसकी एक मौसी थी। मौसी से अचानक भेंट से स्मृति में अटकी कटुता सुलझ गयी ।

उन दिनों मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन के बड़े प्रोफेसर डाक्टर व्यास नगर और प्रदेश के मसीहा माने जाते थे। व्यास बहुत व्यस्त डाक्टर, बड़ी फीस, उनसे समय पाना कठिन । अपने विद्यार्थी के अनुरोध पर दूसरे दिन साँझ पाँच बजे का समय दिया। अमर ने साईस गुने के हाथ लतीफ को सन्देश भिजवा दिया था। डाक्टर व्यास की मोटर को मार्ग दिखाने के लिये अमर अपनी मोटर साइकल पर पाईलेट की तरह आगे-आगे गया। डाक्टर व्यास ने मरीज़ा की परीक्षा कर अपने विद्यार्थी के निदान पर सन्तोष प्रकट किया। उन दिनों आजकल की अचूक जादुई एंटीबायोटिक औषधियों का आविष्कार न हो पाया था। डाक्टर ने छः दिन सुई लगाने और तीन पुड़िया रोज के लिये नुसया लिखवा दिया।

डाक्टर व्यास के लौट जाने पर अमर अब्दुल लतीफ को मोटर साइकल पर पीछे बैठाकर गोल दरवाज़े ले गया। लतीफ जब तक दवाइयाँ खरीद कर मकान लौटा, अमर अस्पताल से सुई लगाने का सामान लेकर आ गया। उसने मरीज़ा को सुई लगाकर आश्वासन दिया: रोज़ाना सुई लगाने आयेगा और मरीज़ा की हालत भी देख जायेगा।

अमर लौटने को था कि हिन्दुत्व का चिह्न लम्बी चुटिया लटकाये तम्बोली का लड़का दोने में पान लेकर आ गया।

"अमर भाई, शौक फर्माइये।" लतीफ ने पान के दोने की ओर संकेत किया। अमर के लिये बाज़ार से पान मँगवाने का मतलब जाहिर था हिन्दू से मुसलमान परिवार का पान स्वीकार करने की आशा नहीं।

अब्दुल लतीफ के व्यवहार का कारण था। वह जानता था, सेठ जी के यहाँ मुसलमान मेहमानों के लिये एक आलमारी में काँच के दो-तीन गिलास रहते थे। उन दिनों ब्राह्मण, खत्री, वूनिया, ठाकुर परिवारों में शीशे चीनी के बर्तनों का उपयोग बहुत कम होता था। अमर को पान का शौक न था परन्तु पान अस्वीकार करना मेज़बान का निरादर माना जाता। अमर ने गिलौरी लेकर शुक्रिया कह दिया।

अमर दूसरी साँझ सुई लगाने गया। लतीफ अभी लौटा न था। बुढ़िया को पिछली साँझ दवा से लाभ हुआ था। सुविधा से बोल पा रही थी। मरीज़ा की स्थिति में सुधार से युवती भी प्रसन्न थी। अमर ने हाल-चाल पूछकर सुई लगा दी। वह लौटने को था, तब तक तम्बोली का लड़का पान का दोना लिये हाजिर।

"अमर भाई" युवती ने अनुरोध किया, "हम और किस खातिर के काबिल ! ये ही कबूल फर्माइये।"

छुआछूत का बहमी समझा जाना अमर को असा बोला, "भाभी, आप हमें भाई पुकारें और पान बाज़ार का खिलायें! खातिर करना है तो कायदे से कीजिये।"

“सदके भाईजान! जहे किस्मत!" युवती का चेहरा खिल गया। वह किलक कर प्रीता की ओर घूम गयी, “अम्मा, अमर भाई हमें भाभी कह रहे हैं।" हँसी छिपाने के लिये हाथ होंठों के सामने किये थी।

प्रौढ़ा के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, "हाय तो इन्हें क्या याद ! इत्ते से थे, जब आते थे।" उसने कोहनी से बाँह उठा दी, “बेटे, हम तुम्हारी खाला हैं। रतनी तुम्हारी बहिन, अब्दुल लतीफ तुम्हारे जीजा। तुम आते थे तो इसे आपा आपा पुकारते थे। यह तुम्हें बहुत दुलरातीं, अपनी पीठ पर लिये फिरती थीं।"

तभी अब्दुल लतीफ भी आ गया। बहिन और भाभी की उलझन पर वह भी हँसा । अमर खाला के यहाँ मिठाई खाकर और जाफरानी गुलाबी चाय पीकर लौटा।

मेडिकल कालेज होस्टल के मेस में शनिवार संध्या छुट्टी की परम्परा पुरानी है। उस संध्या अमर अपने घर खाता था। बुआ भतीजे के लिये चाव से उसके शौक की चीज बनाकर तैयार रखती, सामने बैठाकर खिलाती खाते-खाते अमर ने पूछ लिया, "बुआ, हमारे जन्म पर जिस मौसी ने कंगन दिये थे, वे क्या मुसलमान थीं?"

"किसने कहा तुमसे?" बुआ की भैंवें विस्मय और आतंक से सिकुड़ गयीं, ओठ खुले रह गये।

"हमें अपने से मालूम हो गया।"

"यूँ ही बकते हैं।" बुआ स्वर दबाकर बोली, “ये लोग जो न कह दें ""!" बुआ का मतलब पड़ोसी सरीकों से था।

"कहा किसी ने नहीं ।" अमर ने बताया, "उनकी तबीयत खराब हो गयी थी, चच्चा ने हमसे डाक्टर बुलाकर दिखाने को कहा। हम उनके यहाँ गये थे। "

"अच्छा अच्छा, चुप रहो।" बुआ ने स्वर दबाकर समझाया, “किसी से कहने की जरूरत नहीं।"

"इसमें न कहने की क्या बात?" अमर को अपने पिता के उदार व्यवहार के लिये गर्व । "नहीं बेटे, अपने बड़ों की बातों में नहीं पड़ते। "

बुआ का स्वर आतंक से बोझिल हो गया था। अमर चुप रह गया। बुआ के लिये तो घर की सभी बातें रहस्य थीं। उनसे बहसने समझाने से लाभ!

परन्तु बुआ स्वयं उस रहस्य को कितना जानती थी! अमर ने जब-तब पड़ोसी कोहलियों और टंडनों के यहाँ उड़ती उड़ती असम्बद्ध बातें सुनी थीं। ठीक से कुछ समझा न था। रहस्य- कौतूहल की ओर उसे विशेष आग्रह भी न था, परन्तु रहस्य- कौतूहल से सब लोग उदासीन नहीं रह सकते।

डाक्टर अमर के पिता रतनलाल सेठ अपने बड़े भाई रामलाल सेठ के साथ पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में व्यवसाय के लिये लखनऊ आये थे। दोनों भाइयों की आयु में बारह बरस का अन्तर था। रतनलाल बड़े भाई के पूर्णतः अनुगत और आज्ञाकारी थे। रामलाल भरी जवानी में स्वर्ग सिधार गये थे। उनके बेटे हरलाल और किसनलाल अपने चाचा रतनलाल से क्रमश: सात और नौ बरस छोटे थे। दोनों लड़के काम-काज में सहयोग लायक हो चुके थे। रामलाल की मृत्यु के पश्चात् रतनलाल कर्ता बने। परिवार का रहन-सहन और व्यवसाय संयुक्त रहे। रतनलाल की सूझ-बूझ, हौसले और भतीजों के सहयोग से दस बरस में परिवार का व्यवसाय और सम्पत्ति चौगुने हो गये।

रतनलाल सेठ की पहली पत्नी से तीन बेटियाँ हुई। एक बेटी अल्पावस्था में जाती रही। सेठ जी बत्तीस भी पूरे न कर पाये कि पत्नी पूरी हो गयी। उस युग में विधुर का पुनर्विवाह न होना असाधारण बात थी। सेठ जी बड़े भाई के प्रति अनुराग और कृतज्ञता में भतीजे- भतीजियों को अपनी सन्तान मानते थे। भतीजों के बेटे-बेटी, सेठ जी के पोते-पोती मौजूद। एक बेटी ससुराल जा चुकी थी, एक व्याह योग्य। घर में जवान बेटी, पोते-पोती रहते नया  ब्याह रचाना उन्हें अटपटा लगा।

सेठ जी को भरी जवानी में ग्यारह बरस वैधुर्य कठिन न लगा। फिर जल्दी में तीसरी बेटी का विवाह निबटाकर पारिवारिक व्यवसाय और सम्पत्ति का बँटवारा करा लिया और तुरन्त दूसरी पत्नी को ले आये, उसके कुछ कारण थे।

वह समय साठ-पैंसठ बरस पूर्व, आज से बहुत भिन्न। सामाजिक आचार संबंधी धारणायें भी भिन्न थीं। सेठ जी अपने मित्र हकीम जमील अहमद के साथ, कभी अकेले भी, साँझ तफरीह के लिये चले जाते। उन्हें संगीत-संगति में रस था।

ईशा को सेठ जी ने एक-दो बार जुम्मेरात की शाम शाहमीना की दरगाह पर देखा था। गज़लें अच्छी गायी थीं, नाची न थी, बैठे-बैठे भाव बताती रही थी, प्यारी अदा

ईशा की माँ औसत हैसियत की तवायफ थी। दुर्भाग्य से, बेटी जवान होकर उसकी जगह सम्भाले, उससे पहले उसे दमे की बीमारी लग गयी। दम न रहा तो उसका बाज़ार गिरने लगा। लड़की से बहुत आशायें थीं। ईशा का रूप-रंग संदली गोरा, नैन-नक्श तीखे और गले में लोच। भाग्य ने इस मामले में भी धोखा दिया। तेरह की उम्र में जब लड़की की तालीम का वक्त था, बरसात में काही लगे जीने पर फिसल गयी। टखना बुरी तरह मोच खा गया। महीनों पट्टी-पुल्टिस और मालिशों से भी पाँव ठीक न हो सका। माँ की हालत खस्ता हो जाने से गाने की तालीम भी ठीक न हो पायी। ऐसी हालत में ईशा की नथनी उतारने के लिये कोई रईस क्या मिलता। उसके चेहरे के आकर्षण से मामूली हैसियत के खाते-पीते अत्तार ने रस्म अदायगी के हक के लिये अढ़ाई सौ रुपये दिये थे। अत्तार का कारोबार बैठ गया। वह शहर छोड़ गया और कभी न लौटा।

ईशा और उसकी माँ को खान्दानी होने का गर्व था। मुजरे, नृत्य-संगीत के बाज़ार में कद्र न होने पर वेश्याओं को जिस मेहनत का भरोसा होता है, उससे उन्हें झिझक ईशा बहुत तुनक-मिजाज। व्यवसाय या पैसे के लिये सब कुछ सह लेना उसके बस का नहीं था। कभी कुछ अखर जाता तो गाहक को फटकार देती।

सेठ जी को ईशा का गोरा सन्दली रंग, खान्दानी लड़कियों जैसे नख-शिख और उसके अनख-अन्दाज़ भा गये। उनकी पहली पत्नी को गुजरे डेढ़ बरस हुआ था। चौथे छठे ईशा के यहाँ आने लगे। वह तानपूरे पर कोई गज़ल, ठुमरी, कजरी सुना देती। सेठ जी उस पर रीझ गये, गाने से अधिक उसके नाज़ो अन्दाज़ और बातचीत पर। ईशा भी सेठ जी को इतना सहने लगी जितना किसी दूसरे को न सहा था। उनकी कोई बात नागवार हो जाती तो आँखें डबडबा आतीं, गर्दन लटका लेती।

एक दिन सेठ जी ने ईशा की साँस की गन्ध की शिकायत कर दी। किसी दूसरे ने ऐसी गुस्ताखी की होती तो ईशा को बर्दाश्त न होता। सेठ जी की बात से उसकी गर्दन झुक गयी। उसे कच्चे प्याज-लहसुन से परहेज हो गया। सेठ जी का मन उससे गहरा रम गया था। सेठ जी ईशा के लिये चौक से खास मिठाई और गोल दरवाज़े के मशहूर पनवाड़ी से गिलौरियों के दोने ले जाते। मौसमी फलों के तोहफे अपने साईस के हाथ भिजवाते रहते।

सेठ जी को विश्वास हो गया था, ईशा को पैसे की हवस नहीं है। यह वेश्या का चलित्तर रहा हो या हकीकत, उसने सेठ जी का मन बाँध लिया। उस पीढ़ी के परिष्कृत रुचि लोग उत्सवों-त्योहारों से ऊब-बोरियत न अनुभव करते थे। सेठ जी रसिक प्रवृत्ति और रंगीले।

उनके बड़े परिवार में छोटे-मोटे पर्व-त्योहार भी समारोह बन जाते। दशहरे, दीवाली, होली का कहना क्या; अनेक मुसलमान शुरफा से राह रसूख की वजह से ईद-बकरीद्, शब्बेरात का भी ध्यान रहता। मुहर्रम और निर्जला एकादशी पर राजा बाज़ार की ओर से रकाबगंज के पुल पर केवड़ा मिले शरबत की पंचायती छबील लगती।

होली के दिन थे। सेठ जी संध्या ईशा के यहाँ गये तो चौक दरवाज़े से एक छींका बर्फी लेते गये।

ईशा ने शंका से पूछा, “मालिक हमारा कसम ! इसमें भाँग तो नहीं ?" "डरो नहीं, ऐसे ही, जरा सी बेमालूम।" सेठ जी मुस्कराये, “थोड़ी लो और होली सुना दो। सरूर में लुत्फ रहेगा।"

ईशा होली खूब गाती थी।

"तीबा !" ईशा ने दोनों कानों के लौ हुए "मालिक, यकीन मानिये, नशा हमें बर्दाश्त नहीं । अत्तार लाला ने एक रोज इसरार करके दो घूँट शराब पिला दी। हमारी तबीयत दो दिन तलक खराब। इस मुँहजली भाँग की तो हमारे दिमाग पर ऐसी दहशत है कि ख्याल से पसीने छूटते हैं। अम्मा से पूछिये, तब हम लोग अकबरी दरवाजे पर रहते थे। पड़ोस में छुन का कोठा । उनका नाम आपने सुना होगा। शहर में उनकी कितनी शोहरत, रुतबा। ऐसे-वैसे लोगों की क्या ताब कि उनके जीने की तरफ मुँह कर सकें। पहाड़िया दरबान रहता था, फेंटे में खुखरी लगाये।

“छन्नन ऐसी परहेज़ी न थीं। बहुत थक जातीं या खास संगत सोहबत में जब-तब कुछ ले लेतीं। होली के मौके पर उनके किसी आशना ने ऐसी ही भाँग मिली बर्फी खिला दी। बर्फी ज्यादा खा गयीं या भाँग तेज रही। शायद खाते-खाते चढ़ गयी और वह गती गयीं, और ज्यादा खा गयीं। नशे में बदहवास, लगीं आयें-बायें बकने। घर के लोगों ने टोका तो गुस्सा गयीं: कौन है हमें टोकने, उँगली दिखाने वाला ! तैश में जीना उतर गयीं। यों कभी बदकलामी न करतीं, लेकिन उस वक्त ।" ईशा ने कानों को हाथ लगाये।

"लोगों ने लानत-मलामत की कुछ शर्म करो! वे और बिगड़ीं। चीख-चीखकर गाली बकने लगीं कि क्या मछली वाले और कुंजड़े बकेंगे। लोग समझायें और वे भड़कती जायें: किस बात की शरम, किससे शर्म तवायफ और शर्म! लोगों का समझाना उनके लिये जैसे आग पर किरासिन! नीचे गली में थीं। कपड़े उतार उतार कर फेंक दिये। बिलकुल अलफ इंशा ने शर्म से हाथ नाक पर रख लिया पर बोलती गयीं, "चिल्लायीं, देख लो क्या है। फलों-फलाँ नाक रगड़ते मर गये! चार-पाँच पड़ोसिनों ने हिम्मत की। एक ने उन पर चादर फेंक दी। चादर में उलझ फँसकर गिर पड़ीं तो चार-पाँच जनों ने उन्हें दबा लिया। उठाकर भीतर ले गयीं। हाथ-पैर बांध दिये। नशा उतारने के लिए अचार, नींबू क्या-क्या नहीं खिलाया। उस हालत में बुखार आ गया। बुखार तीन दिन बाद उतरा। होश आने पर अपनी हरकत सुनी तो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं। लखनऊ छोड़ गयीं। सुना कि लाहौर चली गयीं कौन जाने किस जहन्नुम में चली गयीं। उस वाकया की दहशत हमारे दिमाग पर अब भी कायम । "

इस पर भी सेठ जी ने आग्रह किया, "अमाँ, हमारे कहे से थोड़ी सी चख कर देखो। " "मालिक का हुक्म सिर आँखों पर। अपने दोस्त-मुबारक से दे दें तो ज़हर से भी इन्कार नहीं लेकिन एक शर्त है।

" ईशा की शर्त थी— सेठ जी उसे भॉंग खिलाना चाहें तो खुद रत्ती भर न लें और उसका नशा उतर जाने तक उसके यहाँ मौजूद रहें। एक तो सम्भालने वाला रहे। दोनों ने भाँग खा ली तो धुत्त को धुत्त क्या सम्भालेगा !...." मालिक यह न हो कि  ऊत को ऊत मिले, जूत पर जूत चले।"

होली की संध्या सेठ जी भाँग बिना कैसे रहते!

होली की साँझ गहरा जाने पर सेठ जी ईशा से होली मिलने चले। अवरक मिले खुशबूदार गुलाब की पुड़िया साथ ली। सूवा रंग साँझ भी चलता है। सेठ जी के चेहरे पर गहरे सरूर का तनाव, आँखों में लाल ढोरे। ईशा के चेहरे, माथे पर गुलाल लगाया और उसकी माँग में भी गुलाल भरने लगे।

"मालिक, सोचकर!" ईशा ने सेठ जी का हाथ रोका।

"क्यों?" सेठ जी के स्वर में ललकार।

"माँग भर रहे हैं!" ईशा ने कटाक्ष से चेतावनी दी।

"हाँ, भर रहे हैं!" सेठ जी ने दम भरा और माँग भर दी।

सेठ जी ने ईशा की माँग भर दी तो वह उकडूं बैठ लाज से सिमिट गयी, हाथ भर लम्बा

घूँघट खींच लिया।

"यह क्या?" सेठ जी हँसे ।

"माँग भरी है तो दुल्हन को मुँह दिखायी?" ईशा ने घूंघट किये झोली फैला दी। "जरूर!" सेठ जी ने सीना फुलाकर हामी भरी। उसके लिये तैयार होकर आये न थे। आत्मसम्मान का प्रश्न। उँगलियों से दोनों अंगूठियाँ खींचकर ईशा की झोली में डाल दीं। सेठ जी का नीलम और पन्ने की अंगूठियाँ जानी-पहचानी खूब बड़ा नौ रत्ती का नीलम, वैसा ही खूब बड़ा पन्ना। उस ज़माने में भी अंगूठियों के दाम हजार - बारह सौ ।

ईशा ने झुककर सलाम किया। दोनों अंगूठियाँ उँगलियों में पहन ली। तानपूरा लेकर होली गाने लगी। ऐसा हुमुक कर गायी कि रंग बँध गया। सेठ जी रात तीसरे पहर तक बैठे रहे।

सेठ जी चलने को हुए तो ईशा उनका हाथ अपने हाथों में लेकर अंगूठियाँ उनकी उँगलियों में पहनाने लगी।

“इसके क्या मायने?” सेठ जी ने हाथ खींच लिया। "तोहफा वापस किया जाता है?" “मालिक, तोहफा वापस नहीं।" ईशा मुस्कराई। सेठ जी का हाथ फिर पकड़ लिया, "बीज हमारी हो गयी, हमें भी तोहफा देने का हक "

“नहीं, यह नहीं हो सकता।" अंगूठियाँ फिर पहनने से सेठ जी को इन्कार। "कैसी बात कर रहे हैं मालिक, खेल तो खेल।"

“खेल कैसा? हमने माँग नहीं भरी! ये मुँह-दिखायी।” सेठ जी नशे में थे, नाराज़ होने लगे।

"मालिक, चीज़ हमारी, लेकिन रहेगी आपके हाथ में।” ईशा ने समझाया।

सेठ जी ने अनुरोध किया तो ईशा ने समझाया, "मालिक, नादानी की बातें। इतनी बड़ी अंगूठियाँ हमारी उँगलियों में ठहरेंगी?" उसने अपनी उँगलियाँ सीधे ऊपर उठाकर उनमें अंगूठियाँ पहनीं। उँगलियाँ अधोमुख कीं तो अंगूठियाँ ढलक कर फर्श पर "देख लिया!

"इन्हें फेंकना चाहते हैं?"

सेठ जी ने गर्दन हिला दी, "अब ये तुम्हारी हो गयीं। सुनार से ठीक करवा देंगे।” "मालिक, क्या कह रहे हैं!" ईशा ने भँवें सिकोड़कर परेशानी प्रकट की। "जानते हैं, नीलम सबको रास नहीं आता। जिसे उल्टा पड़ जाये, उसके लिए आज़ाब हो जाये, जान पर आ बने! हमें खतरे में डालियेगा! हमारे लिये कुछ और बन जायेगा । "

सेठ जी ने अंगूठियाँ पहन लीं।

कुछ दिन बाद सेठ जी आये तो बात छेड़ी, "दोनों अंगूठियाँ करीब बारह सौ की हैं। बोलो क्या बनवा दें तुम्हारे लिये, कान, गले, हाथ के लिये जो पसन्द हो । "

सेठ जी की आँखों में देख ईशा ने दुलार से पूछा, “सच कहिये, बिना गहने हम अच्छे नहीं लगते? गहना पहन कर हसीन हो जायेंगे? कहावत है— चाँद खूबसूरत लगता हैं विन गहने।"

"हमारे लिये तुम जो हो, क्या कहें; हमारे दिल से पूछो !" सेठ जी हँसे, "यह तुम्हारा कर्ज है।"

"कर्ज मानकर नागवार हो रहा है।” इंशा ने नाराजगी दिखायी, "हमने तकाजा किया?"

" तकाजे की क्या जरूरत, यह तुम्हारा हक है।"

"हक है तो हम पर छोड़िये मौका आयेगा, माँग लेंगे, जिद्द से ले लेंगे।"

महीनों गुजर गये, ईशा ने उस बारे में जिक्र न किया। सेठ जी को मालूम था, इंशा ने अपने यहाँ दूसरे लोगों का आना रोक दिया था। उन्हें इस बात का भी ख्याल सेठ जी से हजार- बारह सौ की रकम छोड़कर ईशा ने उन्हें ही समेट लिया। ईशा बिना किसी कौल- करार के सेठ जी की हो गयी।

सेठ जी का इतना खयाल होने पर भी ईशा कभी तैश में बेबस हो जाती। उसकी जुबान चल जाती तो सेठ जी तरह दे जाते। ईशा की गर्दन लटक जाती। हर झगड़े की गाँठ दोनों को आपस में कसती जा रही थी।

ईदुल फित्र का मौका था। सेठ जी ने सुबह ही साईस के हाथ सेंवई, सूजी, मेवे, मावा, शकर, घी भिजवा दिये थे। ईशा ने खुद एक छोटे थाल में खुशबू डाल, चाँदी के बरक लगाकर बर्फी जमाई थी। माँ ने पड़ोस और रिश्ते में हिस्से भिजवा दिये। इंशा ने छोटा थाल अछूता बचाकर रख लिया था। सेठ जी के इन्तजार में खुद कुछ न चखा था। साँझ जीने से सेठ जी का स्वर सुनाई दिया, “ईद मुबारक!"

ईशा हलस कर आगे बड़ी सेठ जी ने ईदी की आधी गिन्नी उसकी हथेली में दबाकर उसे गले लगा लिया। ईशा से गहरे अनुराग और आसक्ति के बावजूद सेठ जी धर्माचार में सावधान थे। अपने साथ चाँदी का गिलौरीदान भर कर लाते। घर पर उनके लिये कई बार हुक्का ताजा किया जाता था। ईशा और उसकी माँ को भी हुक्के का शौक था। उसके यहाँ सेठ जी के लिए अलग नेचा था। उसके आने पर लौंडा नेचा ताजा कर चिलम भर देता। कभी ईशा दुलार में खुद उनका नेचा ताजा कर चिलम भर देती। कभी एक ही चिलम दोनों नेचों पर चलती । हुक्के नेचे में जात-बिरादरी का परहेज मुख में ली जाने वाली नली -निगाली का होता है।

ईद की उमंग या सेठ जी के अनुराग का भरोसा, ईशा ने बर्फी के छोटे थाल से एक टुकड़ी उठाकर सेठ जी के मुँह की तरफ बढ़ा दी। सेठ जी हक्के-बक्के। उनका मुँह पीछे हट गया।

झन्नईशा ने बर्फी का थाल फर्श पर पटक दिया और हाथ में थमी आधी गिन्नी दीवार पर दे मारी। फुंकारकर खुद को गाली दी, "हमसे थूकने मूतने की ही मुहब्बत! लानत ऐसी जिन्दगी पर ले जाइये तशरीफ!" उसने जीने की तरफ इशारा किया, "मुंह न दिखाइयेगा; चाहे हम मर जायें।"

ईशा की माँ झनाहट सुनकर दौड़ी आयी माजरा समझकर मुँह बाये खड़ी रह गयी।

सेठ जी की आँखें लाल! बाँहें फड़क उठीं! दाँत पीसकर जीना उतर गये। गली से सड़क की ओर पचास कदम गये होंगे, पाँव शिथिल हो गये। गर्दन झुक गयी। कुछ पल खड़े रहकर सोचा और लौट पड़े।

सेठ जी जीना चढ़कर ऊपर आये। बुढ़िया दीवार की टेक लिये खड़ी बेटी पर बड़बड़ा रही थी. "अल्लाह की पनाह! तेरे दिमाग को हो क्या जाता है ""!"

ईशा घुटने बाँहों में समेटे फर्श पर बैठ गयी थी। चेहरा तमतमाया हुआ। नज़र खिड़की से एकटक आकाश में गालों पर आँसुओं की धारें। उसने सेठ जी के लौटने की आहट न सुनी थी।

सेठ जी ने फर्श पर बिखरी बर्फी की एक टुकड़ी उठा ली। ईशा के सामने पाँवों पर बैठ गये, "मुआफ करो। लो, अपने हाथ से खिलाओ।"

"ईशा ने उनकी ओर देखा। आँखें अंगारा ।

"अब गुस्सा थूक दो। हम गलती मान रहे हैं।"

ईशा घुटनों पर सिर दबाकर फफक उठी। सेठ जी ने उसके सिर और पीठ पर हाथ फेरा। बाँहों में लेकर आंचल से उसके आँसू पोंछे स्वयं उनकी आँखें छलछला आयीं, "हम कह रहे हैं, अपने हाथ से निवाला दो।"

ईशा ने आँसू निगलकर हिचकी ली, "नहीं, हमें अफसोस है। जिस बात से आपको एतराज है हमने उसके लिये इसरार किया। उसे भूल जायें।"

"फिजूल बात, अब हममें तुममें फर्क क्या तुमने कब हमारी कौन बात दुलखी जो हम तुम्हारी इतनी बात नहीं रख सकते।"

ईशा ने आश्वासन का साँस लेकर बाँह सेठ जी की गर्दन में डाल दी लेकिन निवाला देना मंजूर न किया।

""हम अपनी कसम देंगे!" सेठ जी ने धमकी दी।

"हाय, कसम न दीजियेगा," ईशा आजिज़ी से बोली। "देखिये, बाद में आपकी रूह को कोफ्त होगी कि हमने आपका ईमान बिगाड़ दिया।" उसने सेठ जी की आँखों में देखा, "हमें अपने इसरार पर अफसोस है।"

"तुम्हें हमारा यकीन नहीं ?" सेठ जी ने पूछा। "इतनी बार एक दूसरे का थूक पसीना चाट गये तब बहनचोद ईमान नहीं बिगड़ा। इस निवाले से बिगड़ जायेगा! हमारा ईमान तुम, तुम्हारा ईमान हम।"

"ईशा ने सेठ जी के सीने पर सिर रख दिया।

सेठ जी ने खुद दाँत से बर्फी का टुकड़ा काटकर शेष ईशा के मुँह की ओर बढ़ा दिया। इंशा ने गर्दन बढ़ाकर टुकड़ा ले लिया। बोली, "इससे हमें और ज्यादा खुशी हुई। हमारा हक मिल गया। आपका ईमान नहीं लिया और आपको पा लिया।"

"कैसे?"

"शौहर का जूठा बीवी का हक माँग तो भरी ही थी, अब आपके हाथ से हमारा हक आज मिला। ईद के रोज़ अल्लाताला से दुआ माँगते हैं। "ईशा ने आँखें मूँद चेहरा आकाश की ओर उठाकर अंजली बाँध ली, "हमारी आँखें इन कदमों में मुँदे ।" सेठ जी की तरफ देखकर ईशा मुस्करायी, “आप अपने हाथों चाहे दफना दें। चाहे मरघट में फेंक दें। दफना देंगे तो हम कयामत के रोज खुदाबन्द को जवाब देंगे: परवरदिगार, तूने ही हमें उनके कदमों में डाला। अब तेरा जो इन्साफ। फूँक देंगे तो जहाँ इतने हिन्दू जाते हैं, वहाँ हम भी । फिर पैदा होकर आपकी बीवी बनेंगे। न हो, गोली ही बना लीजियेगा।”

ईशा की ऐसी बातें सेठ जी को गहरा बाँध लेतीं। ईशा की संगति से सेठ जी को विश्वास हो गया औलाद और गृहस्थ की सम्भाल के लिये ब्याहता औरत चाहिये पर मुहब्बत और दिलजमई का हुनर घरेलू औरत के बस का नहीं। उनका वंश चलाने को जवान भतीजे और पोते थे। गृहस्थ की सम्भाल के लिये दो-दो बहुएँ। उन्हें दूसरे ब्याह के झंझट की क्या जरूरत थी!

ईशा ने एक दिन सेठ जी के गले में बाँह डालकर उनके कान में उपालम्भ दिया, "दिल में बैठ गये थे, उससे तसकीन न हुई जो कोख में भी आ बैठे!" और दार्शनिक मुद्रा में तर्जनी उठाकर बोली, "अब तो हम कयामत के रोज अल्लाह को भी जवाब दे लेंगे: हमने तो काफिर को दिल ही दिया था। पेट तो तुम्हारी कुदरत ने दिया । "

सेठ जी की पहली पत्नी से तीन बेटियाँ हुई थीं। ईशा से भी बेटी हुई। सेठ जी को विश्वास हो गया, शुभचिन्तकों के कहने पर भी दूसरा ब्याह न करने में भूल नहीं हुई। बेटा उनके भाग्य में है नहीं। बेटियाँ परिवार में पर्याप्त थीं। बच्ची का रंग माँ पर था। आठ-दस मास में नख-शिख स्पष्ट होने लगे। ईशा और उसकी माँ बच्ची की उँगलियाँ, नाक, भँवें सेठ जी को दिखाकर कहती, "बिल्कुल मालिक पर गयी है। "ईशा बच्ची को रतनी पुकारने लगी। वही उसका नाम हो गया।

देवीसिंह के नये भट्टे में सेठ जी की आधो-आध की शिरकत थी। हफ्ते-दस दिन में अपने इक्के पर नख्खास-टूड़ियागंज (विक्टोरियागंज) के रास्ते भट्ठे पर हो आते। पूस का महीना था, कहीं अच्छे अमरूद, किसी खेत में बढ़िया ईख और मूली दिखायी दे जाते तो घर के लिये ले लेते। सूरज ढले लौटते। ईशा की गली के समीप इक्का रुकवा कर दो

सेठ जी पर घड़ों पानी पड़ गया। ईशा हिचक हिचक कर रोती रही। उस समय सेठ जी उठकर चले गये, लेकिन रात मुआफी माँगने आये । 'तुम परेशान हो रही हो। क्या समझती हो, हमें कुछ खयाल नहीं है।" उस साँझ से वह ख्याल उनके दिमाग में अधिक चेत गया।

उन दिनों म्युनिसिपैलिटी नख्खास से गोल दरवाज़े की सड़क चौड़ी करवा रही थी । पहले सड़क बहुत संकरी गलीनुमा थी। रास्ते के दोनों ओर गरीब बस्ती के छोटे-छोटे खस्ताहाल मकान थे। पाँच-छः बरस पहले सड़क किनारे की पुरानी बस्ती में एक मियाँ ने अपने अधगिरे मकान की जगह गिरवी रखकर सेठ परिवार से कर्ज लिया था। मियाँ चार बरस तक असल क्या सूद भी न दे पाये। हालत और खस्ता हो गयी। वे गिरे मकान के मलबे और सौ गज जगह का सौ रुपया और लेकर शहर की नयी बस्ती में नया रोजगार जमाने चले गये। सड़क चौड़ी करने के लिये तंग सड़क पर किनारे के मकान गिरा दिये गये। मियाँ की जगह का कुछ भाग सड़क में गया तो शेष जगह सड़क पर आ गयी। सेठ जी ने पुराना मलबा नीवों में भरवा कर नीचे दो दुकानें और ऊपर रहने लायक जगह बनवा दी। उस सस्ते जमाने में भी पन्द्रह-बीस रुपया माहवार किराये की सम्पत्ति बन गयी। मकान-दुकान किराये पर देने से पहले सेठ जी ने सम्पत्ति रतनी के दहेज के लिये ईशा के नाम रजिस्ट्री करवा दी।  अपने अधगिरे मकान की जगह गिरवी रखकर सेठ परिवार से कर्ज लिया था। मियाँ चार बरस तक असल क्या सूद भी न दे पाये। हालत और खस्ता हो गयी। वे गिरे मकान के मलबे और सौ गज जगह का सौ रुपया और लेकर शहर की नयी बस्ती में नया रोजगार जमाने चले गये। सड़क चौड़ी करने के लिये तंग सड़क पर किनारे के मकान गिरा दिये गये। मियाँ की जगह का कुछ भाग सड़क में गया तो शेष जगह सड़क पर आ गयी। सेठ जी ने पुराना मलबा नीवों में भरवा कर नीचे दो दुकानें और ऊपर रहने लायक जगह बनवा दी। उस सस्ते जमाने में भी पन्द्रह-बीस रुपया माहवार किराये की सम्पत्ति बन गयी। मकान-दुकान किराये पर देने से पहले सेठ जी ने सम्पत्ति रतनी के दहेज के लिये ईशा के नाम रजिस्ट्री करवा दी।

सेठ जी के भतीजे पारिवारिक सम्पत्ति की ऐसी बरबादी से बौखला उठे। सेठ जी शौक- तमाशबीनी में जो खर्च करते, भतीजों से छिपा न रहता। सौ-पचास की बात तक कुछ कर रह जाते, परन्तु वह मामूली नुकसान न था। उस सस्ते के जमाने में भी ज़मीन इमारत साढ़े चार-पाँच हजार के भतीजों ने मुँह-दर-मुँह विरोध किया। बात बहुत बढ़ गयी।

सेठ जी ने बड़े भाई के पश्चात व्यवसाय और सम्पत्ति को चांगुना बढ़ा दिया था। उनकी औरस सन्तान तो अब एक लड़की ही शेष थी उसकी भी सगाई हो चुकी थी. छः महीने- साल की मेहमान आधी-आध गिनने से भी उनका तीस-चालीस हजार का हिस्सा भतीजों और भतीजों की सन्तान के लिये ही था। कलेजे पर रखकर तो ले नहीं जाते। कमीनों के कलेजे चार-पाँच हजार में ही दरक गये। सेठ जी भतीजों की कृतप्रता और कमीनेपन से खिन्न हो गये। लड़की का व्याह-गौना तुरन्त निपटा दिया। नखास वाला मकान अपने हिस्से में लेकर व्यवसाय, घर और सम्पत्ति का आधा-आध में बँटवारा करा लिया। भतीजों के व्यवहार से मन इतना फट गया कि बड़े आँगन के बीचोंबीच आदमकद दीवार उठवा दी। आँगन का कुआँ भतीजों के हिस्से में था। इसलिये आँगन बाँट दीवार में दरवाजा रखवाया गया। रणातुर सरीकनियों में साँझा कुआँ रणस्थल बन गया। भतीजों की ओर जल की आवश्यकता दूसरी ओर से कहार महरी या गंगा बुआ के जल के लिये आने की प्रतीक्षा करती। इधर-उधर के दोल, गागर छनक जाते या छींटे पह जाते। इसे कौन सह लेता! गंगा बुआ के कान आँख सरीकनियों के ताने-मीनों, हाव-भाव, कटाक्ष, व्यंग्य और ध्वनि के प्रति अति सूक्ष्मता से सतर्क। मौन कटान भी उनकी पकड़ से न बच पाते। तुरन्त प्रतिकारा सेठ जी नित्य की शय-झाँव से दुखी हो गये। घर के ऐसे कुएं से बेहतर था गली के कुएँ से जल मँगवा लेना या अपने भाग में कुआँ खुदवा लेना। उस जमाने में मिनट के लिये ऊपर जाकर फल-बल दे आते। उस साँझ सेठ जी आये तो ईशा की माँ रतनी को खिला बहला रही थी। पखवाड़ा पहले भी सेठ जी ऐसे ही समय आये थे। उस दिन भी ईशा घर पर न थी। सेठ जी के पूछने पर माँ ने तब भी कह दिया था, "जरा पड़ोस में अपनी एक सहेली के यहाँ गयी है, आती होगी। तशरीफ रखिये।"

सेठ को सन्देह हुआ, दाल में कुछ काला है आखिर बेश्या की जात! बैठ गये प्रतीक्षा में ईसा को महीने में पचीस-तीस दे देते थे। ईद-बकरीद, होली-दीवाली पर कपड़े- सपने अलग ईशा मुँह खोलकर कभी न मांगती सस्ता जमाना था। सरकारी मुहर्रिर भी तब इतनी ही तनखाह पाते थे। सेठ जी मोड़े पर बैठ गये। अम्मा ने नौकरानी से नेचा ताजा कर देने के लिये कहा पर सेठ जी ने मना कर दिया।

ईशा जल्दी ही आ गयी। सेठ जी के अप्रत्याशित दर्शन से पुलकित होकर मुस्करायी, "आज इस वक्त मेहरबानी कैसे?" बुरका एक तरफ फेंक कर सेठ जी के कदमों में बैठ गयी। हाथ की पोटली जाँघ के नीचे दबा ली। उत्तर न पाकर फिर मुस्करायी, “इतने चुप क्यों ?" "कहाँ गयी थी?" सेठ जी के स्वर में क्रोध ।

"बाज़ार में कुछ काम था । " ईशा अब भी मुस्करा रही थी ।

"अम्मा ने कहा: सहेली के यहाँ गयी हो।" सेठ जी का स्वर और कड़ा। "तुमने बाज़ार करना कब से शुरू किया? बुरका ऐसे सैर-सपाटे के लिये ही बना था!" रतनी के पेट में आने से पहले ही ईशा ने बुरका बनवा लिया था। कहती थी: हम नहीं चाहते गैर मर्द हमें देखें।

सेठ जी ने हाथ बढ़ाकर ईशा की जाँघ तले दबी पोटली खींचकर झटक दी। लट्टे के छोटे टुकड़े में हरी बैगनी मखमल के टोपी मिलने के लिये कटे टुकड़े छिटक गये। टुकड़ों पर कढ़ाई के लिये फूल पत्ती के नक्शे पुड़ियों में जरी गोटा, सलमा-सितारे। एक पुड़िया खुलकर चाँदी के तीन रुपये और कुछ रेजगारी बिखर गयी।

हो!"

सेठ जी सन्नाटे में। बोले तो झेंप की झल्लाहट से, "इसी शौक के लिये बाज़ार घूमती अब ईशा के चेहरे पर मुस्कान उड़कर तमतमाहट। "हम तो जवाब देंगे आपको पूछने का हूका पहले हजुर फर्माएँ, गुस्सा किस शक से किया? झूठ बोलें तो हमारा मुर्दा देखें!" सेठ जी की बोलती बन्द

"अब आप बोलते क्यों नहीं?" ईशा ने कपाल ठोक लिया, "हाय औरत की जात तेरा कभी एतबार नहीं ।" ईशा फफक उठी।

"अरे हमीं बता देते," अम्मा बोली। "इसी ने मना कर दिया था मालिक से कहने की जरूरत नहीं। जरी, कसीदे में इसका हाथ अच्छा है। दस-पन्द्रह दिन में चार-पाँच रुपये बना लेती है। पेट भरने को आपका दिया बहुत काफी कहती है, अजगर की तरह पड़े-पूड़े मुटियाने से क्या फायदा। बेटी को नाच-गाने की तालीम दिलानी नहीं। नथनी खुलवानी नहीं। एक दिन हाथ पीले करने को दो जोड़े कपड़े, दो-चार भांडे बर्तन लायक गाँठ में न होगा तो उसे कैसे बिदा करेगी!"

राजाबाज़ार की परम्परानुगामी हिन्दू बस्तियों में नल का पानी अपवित्र माना जाता था । सेठ जी ने दीवार में दरवाजे के किवाड़ों पर ताला डलवा दिया। जवाब में भतीजों की ओर से दरवाजा खुलने की सम्भावना न रहने देने के लिये किवाड़ों पर तख्तियाँ जड़ दी गयीं। सेठ जी व्यवसाय, सम्पत्ति और मकान के बँटवारे और आँगन में दीवार उठ जाने के बाद अपने भाग में बेवा छोटी बहिन गंगा और पुराने नौकर हरिया के साथ रह गये। इतने बड़े परिवार–पाँच मर्द, चार औरतें, सात बच्चों के काँव-काँव और कोलाहल से पृथक होकर सेठ जी पर उदासी और निरुत्साह। संसार में सब मतलब के हैं, कोई किसी का नहीं। यह कारोबार, घर-द्वार क्या कलेजे पर रखकर ले जायेंगे सब व्यर्थ। उम्र अभी तिरतालीस ही हुई थी पर लगता था शरीर बिल्कुल निस्सत्व हो गया है और जीवन निष्प्रयोजन।

पड़ोसी मित्र वकील कोहली और अन्य हितुओं ने समझाया: तुम्हारी उम्र कुछ ऐसी ज्यादा नहीं हो गयी। हाँ, स्थिरता का समय आ गया है। ऐसे ही समय पर की शान्ति और सेवा टहल की जरूरत होती है। परसों तक यह मकान तुम्हारा और भतीजों का पर था। अब तुम्हारा मकान है, पर नहीं। घर घरवाली बिना नहीं होता। ग्यारह बरस विचर रह जाने के बाद सेठ जी को पुनः विवाह से संकोच हो रहा था। उन्हें निरन्तर उदास और हतोत्साह देखकर ईशा और उसकी माँ ने भी समझाया, “कुनवा जैसा भी था, उसमें उससे तो थे अकेले जिन्दगी जरूर बोझ लगेगी। खाली मकान खाने को दौड़ता होगा। इंसान की जिन्दगी में सबसे बड़ा सहारा अपनों की फिक्र होता है। डल जाने पर जिस्म खिदमत चाहता है। ऐसी खिदमत वही कर सकता है जिसकी जिन्दगी आपसे वावरता हो। सो बीवी के अलावा कौन हो सकेगा ! और उस ऊपर वाले की कुदरत कौन जानता है, नयी बहु आपको बेटे का मुँह दिखाये!" 

ईशा ने आँसू बहाते सिसक-सिसककर कहा, 'आपका मुमत जाना हमसे नहीं देखा जाता। बीवी के लिये जो कुछ किया जाता है, आपने सब हमारे लिये किया, लेकिन हमें घरवाली नहीं बना सके, न बना सकेंगे। घरवाली क्या, हमें कनीज बनाकर भी घर में नहीं रख सकते। हम जानते हैं, हम इसरार करें तो आप तैयार हो जायें लेकिन हम कहेंगे नहीं। उसके लिये आपको अपना वजूद बदलना होगा। हम चाहें तो भी हिन्दू नहीं बन सकते। आप सरीहन मुसलमान बन भी जाये तो आपकी रूह को तसकीन नहीं होगी। अल्लाहताता जाने उसने मुसलमान हिन्दू का फर्क क्यों किया। लेकिन जमातों का फर्क तो है। आपकी उम्र ही क्या? मर्द को जरूरत हो, औकात हो तो बुढ़ापे में भी निकाह करते हैं। आपको नयी दुलहिन लाना लाज़िम आपकी उदासी हमसे देखी नहीं जाती ।"

सेठ जी ने विश्वास करना चाहा, ईशा हमारे लिये सब कुछ है। उत्तेजना में यहाँ तक सोच डाला: हम किसी का दिया नहीं खाते, ईशा को घर में रख लें। न हो ईशा के साथ किसी दूसरे मकान में चले जायें। कोई हमारा क्या बिगाड़ लेगा। कई उदाहरण याद आ गये हिन्दू औरत मुसलमान से उलझ जाये तो औरत को मुसलमान बनना पड़े। मर्द चाहे जिस हैसियत का हो मुसलमान औरत को घर में ले आये तो हिन्दू ही उसे मुसलमान बना दें। सेठ रतनलाल को धर्म-विश्वास, स्वर्ग-नरक की चिन्ता नहीं हुई, परन्तु समाज-संसार मैं त्याज्य बन जाने का विचार महान था।

सेठ जी ने दूसरी वह लाना जरूरी समझ लिया तो दो ही महीने में लड़की क दुलहिन पर ले आये। ईशा बुरका पहने डोली में बैठकर दुलहिन को देखने आयी। मुँह दिखायी में सोने की जंजीर दुलहिन के गले में पहना कर अपने हाथों मांग में सिन्दूर भरा, इत्र लगाया, छुहारे-बादाम, गोले से झोली भरी।

सेठ जी ने दूसरा ब्याह शौक, उमंग या प्रणयातुरता से नहीं, फिर से पर बाँध सकने की मजबूरी में किया था। काम होना चाहिये था चुपचाप और तुरन्त सरीकों की ओर से किसी भी व्यापात की आशंका थी। उस जमाने में वर या वधू को देखकर पसन्द करने की कल्पना भी न की जा सकती थी। सेठ जी के लिये जल्दी में विश्वस्त सूत्र से इतनी ही सूचना पर्याप्त भी कि लड़की ठीक कुल-गोत्र की हाथ-पाँव से दुरुस्त, स्वस्थ है। अल्हड़ बच्ची नहीं, जवान, घर सम्भालने लायक, सुबह, समझदारा परिवार की गरीबी के कारण इस आयु तक कुआंरी। ब्याह के कपड़े-जोड़े, सालू में लिपटी दुलहिन के कद-काठ, आकृति सन्तोषजनक थे।

सेठ जी ने ब्याह के अवसर पर अपनी सधवा बहिन को ससुराल से बुला लिया था। शुभ कार्य सम्पन्न करने के लिये सुहागिन की उपस्थिति आवश्यक थी। ननद ने नयी भाभी को बहुत उत्साह से, दहलीज पर प्रचुर तैल में चुआ कर उमंग से आँगन में लिया। बहू के माथे से लटके लम्बे घूँघट में चेहरे की पहली झलक से ही ननद का कलेजा बैठ गया।

सेठ जी स्वभाव से सौन्दर्यप्रिय और रसिक प्रकृति अवसर पर उन्होंने उत्सुकता से नयी बहू का घूँघट उठाया। बहू ने आँखें मूँद गर्दन झुका ली। चेहरे पर मधुर लाज की लालिमा नहीं. दुर्भाग्य की लज्जा की श्यामलता। भाग्य के ऐसे विद्रूप पर सेठ जी ने गहरा निश्वास ले सोचा: हाथ-पाँव से ठीक है, घर सम्भालेगी।

नये बँटे परिवारों में सरीकों की परस्पर ईर्ष्या, जलन और कलह कहावतों उपमाओं के रूप में प्रसिद्ध हैं। हरपाल, किसनलाल, उनकी पनियाँ और बेटे-बहुएँ, निपूते, बारह बरस से विधुर चाचा की बंटवारे की धौंस को कुआर के बादल की कड़क समझ रहे थे। दस बरस बाद चाचा की आँखें मुँदने पर सब उनके ही बेटों-पोतों को सम्भालना था। अप्रत्याशित जवान चाची का सहसा आ जाना उनके लिये तो निर्मेघ आकाश से वज्रपात! ऐसी चाची के प्रति उनकी भावना और व्यवहार की कल्पना कठिन नहीं। हरपाल, किसनलाल की बहुओं ने अपनी बेटियों की आयु की नवागत चाची की उम्र, रूप, कुल और घर की कंगाली की तुमुल स्वर से जो आलोचना और लांछना प्रसारित की, जो ताने-मीने और विषबाण छोड़े, उन्हें निरुत्तर सह लेना केवल पत्थर के दिल-दिमाग के लिये ही सम्भव था।

सेठ जी की नयी बहू का नाम अमरो था। सेठ जी बहुओं-बेटियों की कमीनी हरकतों का क्या उत्तर देते! अमरो की ननद गंगा के लिये मिथ्या लांछनायें और अपवाद मौन सहते रहना सम्भव न था। आंगन में आदमकद दीवार के दोनों ओर से गालियों- बोलियों की बौछारें घंटों जारी रहतीं। गंगा प्रतिकार में असमर्थ होकर गालियों और कोमनों के साथ प्रतिद्वन्द्रियों पर दैवी प्रकोप की गुहार के लिये विवश हो जाती। अमरो ननद को धैर्य से अवहेलना का परामर्श देती रहती । गालियों और तानों के विषबाणों की वर्षों में अमरो का कवच था— अनन्त व्यस्तता और आँचल से ढंके चेहरे पर मीन मुस्कान। कभी उसका मन प्रतिकार के लिये मचल उठता तो सरीकों की ओर मुस्करा देती, "बहू, अब तो थक गयी होगी, जरा सुस्ता लो ।"  

सरीकों के पराक्रम को इतना तुच्छ मान लेने का अपमान उन्हें बँध देता। अमरो ने सरीकों को निरस्त करके पति और ननद के हृदय जीत लिये। उन्हें अमरो के चेहरे पर सहिष्णु, उदार, खेह की स्निग्ध आभा दिखायी देने लगी।

सरीके की स्त्रियों- लड़कियाँ और कभी-कभी उनके हेलमेल में क्रूर मनोरंजन के रस के लिये स्वर मिलाने वाली पड़ोसनें अमरो के रूप— शीतला से दगे चेहरे के उपालम्भ में शहद छत्ता, छन्नी, खोखर, खंजड क्या-क्या नाम न देतीं। ननद के क्षुब्ध होने पर अमरो सरीकों को सुनाकर ननद से कह देती, "बीबी जी, तुम क्यों परेशान हो रही हो ! वो तो हमारा बखान है। बेचारी जो देखती हैं, कहती हैं।" कभी हँसकर सरीकों को कह देती, "बहू छत्ता तो है ही । सुजान छत्ते से शहद पाये, अजान डेला मार कर डांस ! "

जल्दी ही अमरो ने अपनी सहिष्णुता और मीठे बोलों से पड़ोसनों को जीत लिया। सरीकनों की ओर से आक्रमण के समय कई पड़ोसने गंगा की ओर से बोलने लगतीं। समय आने पर सरीकों ने अमरो का डांस भी खूब सहा उस जमाने में अच्छे खत्री कुल-गोत्र की बेटी के बीस वर्ष तक कुमारी रह जाने का कारण परिवार की गरीबी के अतिरिक्त अमरो के भाग्य की क्रूरता भी थी। अमरी डेल वरस की थी तो पास-पड़ोस के लोग बच्ची को देख पलक झपकाना भूल जाते। चम्पई उजला रंग, बड़ी कौड़ियों जैसी भूरी-भूरी आँखे नाक, भी, ओठ जैसे कलम से तराश दिये हों। स्वस्थ शरीर। शीतला माता उस पर ऐसी रीझी कि बड़ी को छोड़ना ही न चाहती थी। आखिर छोड़ा तो उसका चेहरा नोच कर शीतला माता के नखों की खरोंच से बच्ची के चेहरे पर खूब गहरे दाग रह गये, बिलकुल ऐसे कि मी माखी ने सुनहरी मोम से छत्ता बनाया हो। शीतला बी की एक आँख की ज्योति छीनकर वहाँ छोड़ गयी मक्का की बील जैसा सफेद ईंटर कारोबार में निरन्तर असफल पिता के लिये ऐसी बेटी का विवाह कठिन कैसे न होता।

अमरो ने सुध सम्भालते ही अपने रूप की निन्दा-लांछना को अपना अनिवार्य भोग पाया था। शीतला उसके चेहरे का आकर्षण नोच ले गयी पर एवजी में अतुल साहस, धैर्य और समझ दे गयी। उसने शैशव से ही मान लिया: आँसू-पसीना, अथक सेवा सहिष्णुता का समुचय ही उसका भाग्य और जीवन है। ससुराल आकर तीन-चार मास में अपने शील- सहिष्णुता और अथक सेवा से अमरो न केवल पति और ननद की नज़रों में प्यारी बन गयी, उसकी सहिष्णुता और सील की मुस्कान के छींटों से सरीको के हृदय में उठते घृणा और वैमनस्य के उफान भी बैठने लगे। वर्ष पूरा होने से पहले अमरो ने सेठ जी को चाँद जैसे बेटे का मुँह दिखा दिया। वह पति और ननद के विश्वास में भाग्य लक्ष्मी बन गयी। पति के न जाने कितने जन्म के पुण्य, तप, दान का फल लेकर वह आयी थी। कुलपुरोहित ने मेष राशि में जन्म लग्र के विचार से बेटे का नाम 'अ' से रखना उचित बताया। नयी बहू के प्रति सेह आदर और आभार में बेटे का नाम अमरनाथ रखा गया।

सेठ जी ने दूसरी पत्नी से गृहस्थ की स्थिरता, शान्ति और वारिस ही नहीं, आशा और कल्पना से अधिक पाया। ईशा अब एकमात्र अपरिहार्य सहारा न रही परन्तु उसके प्रति सेठ जी का आदर-खेह क्षीण न हुए। ईशा, रतनी और अम्मा को परिवार का अंग मानकर उनका खयाल फर्ज समझते रहे। दस-पन्द्रहवें घर-खबर लेने जरूर जाते बेटे की यशखबरी देने गये तो ईशा उनकी बाँधों से भाँप गयी। बहू का पैर भारी होने की खबर उसे थी। तर्जनी उठाकर सेठ जी से पहले बोल पड़ी, "बेटा मुबारक! आज ही शाम शाहमीना के मज़ार पर शीरनी चादर चढ़ायेंगे। बहू का मुंह देखकर लौटते वक्त ही हमने मजार पर रुककर मत कर दी थी।"  

सेठ जी ने ईशा की हथेली पर बेटे की बधाई की तीन मित्री रखी। रतनी को बहिन बनने की खुशी में मिश्री मिली। अम्मा को पूरे नये कपड़े। ईशा अम्मा के साथ बेटे का मुँह देखने आयी तो बहू के लिये साड़ी चादर लायी। बच्चे के लिये गोटा टंका अगला टोपी, हाथों के लिये सोने के कंगना बच्चे के सिर पर से मुट्ठी भर रेजगारी न्योछावर करके फकीरों के लिये दे गयी। बेटे के जन्मोत्सव पर सेठ जी ने बिरादरी को दावत दी. मुजरा भी करवाया। ईशा उस अवसर पर भी आयी। अब बुरके में थी। महफिल में गा न सकी थी लेकिन अपने घर ढोलक पर खूब सोहर गाये।

उत्तराधिकारी का मुख देखकर सेठ जी के मन-मस्तिष्क में फिर अर्जन पराक्रम की उमंग। अमर के जन्म के चौथे मास पहला विश्वयुद्ध छिड़ गया। जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के समय व्यवसायियों को दोनों हाथ बटोरने का अवसर था, वैसी स्थिति पहले युद्ध के समय भी । सेठ जी पूरी शक्ति से व्यवसाय में जुट गये।

उस समय भारत पर ब्रिटेन का निरंकुश शासन था। सर्वसाधारण प्रजा अंग्रेजों के आतंक से राजभक्त थी। गोरों को देखकर जनता के मुख भय से सूख जाते, परन्तु उनके हृदय में विदेशी शासकों के प्रति विरोध की घृणा। प्रजा अपनी असहाय अवस्था में बलवान आततायी को केवल शाप ही दे सकती थी। तब ब्रिटेन की सामरिक शक्ति पृथ्वी पर महत्तम। ब्रिटिश साम्राज्य का इतना विस्तार कि सूर्य भी उसकी सीमा न लोध सके।

युद्ध के समय में ब्रिटेन इस देश से लाखों सिपाही, मजदूर कुली और दूसरी सहायता बहुत बड़े परिमाण में ले रहा था। देश के राजनैतिक नेता मौका देखकर इस देश से ली जाने बाली जन-धन की सहायता के मूल्य में सरकार से देश के लोगों की बात सुनी जाने और शासन कार्य में देश के शिक्षित लोगों को स्थान दिये जाने की माँग कर रहे थे। जनता के हृदयों में अपने नेताओं के लिये बहुत आदर और श्रद्धा थी। बाल-पाल-लाल (लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय) के आह्वान और ललकारें जन-मानस में गूंज रहे थे। छोटी गली में वकील कोहली और सेठ जी नेताओं के भक्तों में से थे।

सरकारी नियंत्रण में छपे अखबारों के समाचार विचित्र होते थे। अंग्रेजों की सेनायें युद्ध में पीछे हटतीं तो अखबारों में उनके बहादुरी से हटकर नये मोर्चे पर डट जाने का समाचार होता। अखबारों के ऐसे समाचारों पर ही कवि अकबर ने विद्रूप किया था: "फतह इंगलिश की होती है, कदम जर्मन का बढ़ता है।' देश की सर्वसाधारण जनता अंग्रेजों की पराजय और पराभव से प्रसन्न होती: इनकी बेईमानी और जुल्मों का बदला मिल रहा है!

यूरोप के युद्ध के मैदानों में क्या हो रहा है, सरकार कितनी परेशान है. देश के नेता क्या कह रहे हैं, अखबारों के समाचारों को सच या झूठ मानने और सम्भावनाओं के अनुमानों पर गलियों, बाज़ारों में लम्बी-लम्बी बहसें होतीं। सेठ जी अवध अखबार नियम से पढ़ने लगे। दीर्घ प्रतीक्षा से पाये बेटे का जीवन सम्पन्न और सुखमय बना सकने की महत्त्वाकांक्षा थी ही, अपने बेटे के उच्च शिक्षित, सम्मानित जननायक बन सकने की कल्पना भी उनके मन में सिर उठाती ।

युद्ध के समय लगभग चार वर्ष तक भयंकर नरसंहार में लाशों को ठिकाने न लगा सकने और युद्ध के दूसरे मारक प्रभावों के परिणाम में यूरोप से एक नयी महामारी का विकराल झंझा उठकर संसार भर में फैल गया। महामारी की आँधी इस देश में भी आयी। उस बीमारी के नाम, निदान और उपचार डाक्टरों, हकीमों, वैद्यों के लिये अजाने। नयी बीमारी के साथ नया नाम आयाः फलंजा (इन्फ्लूएन्जा)। गला-नाक जकड़कर खांसी और जबर्दस्त बुखारा बिरले ही इस बीमारी से अछूते रहे। बीमारी ने दस को छुआ तो दो-तीन को समेट भी लिया। सड़कों बाजारों में दिन-रात, किसी भी समय अर्थियों, जनाजे दिखायी दे जाते । गली-मुहल्ले के लोग एक अर्थी मरघट या कब्रिस्तान पहुंचाकर लौटते तो दो शब और देखते। आतंक का सबसे बड़ा कारण था कि डाक्टर वैद्य रोग से बचाव का कोई उपाय न बता सकते। बीमारी के भय से कई मुहल्ले, गलियाँ, गाँव उजड़ गये। रोग की छूत हवा में समा गयी थी। छूतही हवा के श्वास से बचने का उपाय बताया जाताः नाक के सामने निरन्तर युकलिप्टिस के तेल की फुरेहरी, दालचीनी और बड़ी इलायची का काहा।

सेठों के परिवार में फलंजा की पहल हुई किसनलाल से। फिर क्रम लग गया- किसनलाल की घरवाली, हरलाल, उसका बड़ा बेटा, बहू बच्चे। जिसने खाट पकड़ी, पखवाडे-तीन सप्ताह से पहले न उठ सका। इन लोगों के पाँव पर बड़े हो सकने से पहले हरपाल की वह दूसरा बेटा और छोटे बच्चे पड़ गये। हरलाल, उसका बड़ा बेटा और किसनलाल की बहू बच न सके। इस ओर सेठ जी ने भी खाट पकड़ी। अन्त तक अछूते रहे तो केवल अमर और गंगा बुआ।

अमरो बीमारों की आहे- कराहटें सुन बिन बुलाये सरीकों के यहाँ गयी। घर में इतने बीमार और ऐसे कि न घूँट भर जल से सकें, न दिशा-फरागत के लिये उठ सकें। सेवा का अथक सामर्थ्य वा अमरो में अपनी थोड़ी से गली में निकलकर सरीकों की ड्योढ़ी से भीतर जाने की कठिनाई से बचने के लिये उसने सेठ जी से प्रार्थना की: आँगन बाँट दीवार का दरवाजा खुलवा दिया जाये। पाँच बरस से जंग लगा ताला तोड़ा गया। किवाड़ों पर कीलों से जड़ी तख्तियाँ उखाड़ी गयीं। घर में रोग-सोग एक साथा गंगा दिन भर देग में बीमारों के लिये साबूदाना, मूंग की दाल का पानी उबालती, दालचीनी इलायची अजवाइन काडती। अम्रो सबको दवा पिलाती, सबको पच्य देती, सबका गू-मूत समेटती सरीकों के शोक में उनके साथ रो-रोकर उनके आँसू पोंछती गंगा बार-बार दबे स्वर में अमरो को बीमारी की छूत से सावधान करती रहती। अमरो अनसुनी कर कलेजा फाड सेवा में लगी रही। उसे विश्वास था: सबके लिये उसकी अथक सेवा ही उसके पति और बेटे का रक्षा कवच है।

जब इन्फ्लुएन्जा की महामारी छोटी गली से नौ बलि लेकर लौट रही थी, राक्षसी ने अपने आतंक की अवज्ञा करने वाली अमरो पर झपट्टा मारा। अमरो ने मेड परिवार के सब रोगियों की ही सेवा न की थी, गली के जिस घर से हाथ और कराहट सुनी सेवा-सहायता के लिये पहुंची। उसने सभी के रोग का बोड़ा-थोड़ा अंश बँटाकर शायद रोग का सबसे अधिक विष समेट लिया था। सेठ जी नगर के बड़े से बड़े अंग्रेज डाक्टरों और सिविल सर्जन को इलाज के लिये लाये। अमरो की सेवा के लिये ननद गंगा और हरलाल की 'बहु अपने पति और बेटे की सेवा की कृतज्ञता में उसकी खाट के समीप बनी रही। अमरो बच न सकी। सेठ जी सिर पीटकर रह गये।

मृत्यु के बाद व्यक्ति के साधारण गुण-दोष दोष भुलाकर भी गुणों का बखान किया जाता है। सेठ जी के शोक में समवेदना और अमरो के प्रति आदर से सभी ने हृदय से कहा: "वह देवी थी। ऐसी आत्मा लोगों के जन्मान्तर के पुण्य-तप का फल देने के लिये स्वर्ग से थोड़े समय के लिये आती है।

अमर की माता ने लगभग पाँच बरस पति की सेवा कर और उसे उत्तराधिकारी सौंपकर आँखें मूंद लीं। सेठ जी अभी पचास के न हुए थे। परिवार के बँटवारे के बाद युद्ध के समय उनकी आर्थिक स्थिति और पोड़ी हो गयी थी। वह जमाना और था। अच्छे जाति कुल के हीन वित्त परिवार युवती कुमारी कन्याओं के दान के धार्मिक कर्तव्य की चिन्ता से व्याकुल रहते ही थे। पैंतालीस-पचास-साठ के प्रौढ़ वर को सोलह-सत्रह की कुमारी कन्या का दान धर्मशास्त्र की दृष्टि से वर्जित नहीं। ऐसी विवशता को बिरादरी भी दण्डनीय न समझती । कन्या का दान न कर पाने की चूक और अक्षमता को बिरादरी क्षमा न कर सकती थी। इस महापाप का प्रायश्चित न था। सेठ जी के लिये फिर सम्बन्ध के प्रस्ताव आने लगे।

उस समय प्यारी पत्नी के दिवंगत हो जाने पर उसका फोटो एनलार्ज करवा कर स्मृति रूप घर में लगा लेने का रिवाज न चला था, परन्तु दूसरी पत्नी के मर जाने पर सेठ जी की कल्पना स्वीकार न कर सकी कि कोई अन्य स्त्री अमर की माता के स्थान की पूर्ति कर सकेगी। अमरो के बेटे पर विमाता की छाया की कल्पना उन्हें सहा न थी। 

माँ के सम्बन्ध में अमर की स्मृति अमूर्त धूमिल छाया मात्र थी। केवल इतनी कि माँ थी, कभी माँ की स्नेहमय गोद और रक्षक हाथों में होने की अस्पष्ट चेतना, परन्तु बचपन से ही उसके चिन्तन और व्यवहार पर माँ की अनुपस्थिति में भी माँ की महिमा का गहरा प्रभाव पड़ता रहा। ऐसे प्रभावों का समुच्चय ही मनुष्य का चरित्र बन जाता है। शैशव से अपनी माँ की चर्चा सुन-सुनकर अमर के विश्वास में माँ का निश्चित व्यक्तित्व बन गया था। पिता से, बुआ से, पड़ोसियों से, विरोधी सरीकों से भी उसने माँ की उदारता, दया, सेवा भाव, निष्ठा और सहिष्णुता की स्तुति और सराहना सुनी थी। उसके विश्वास में उसकी माँ आदरणीय, अनुकरणीय गुणों की समुचय देवी थी। ऐसी माँ की सन्तान होने का गौरव, ऐसी माँ की योग्य सन्तान होने का उत्तरदायित्व!

राजाबाजार के पश्चिम में छोटी गली बसने से पहले घोसियों, धोबियों और पतंगसाजों के कच्चे मकान थे। पड़ती जमीन पुराने नवाबी खानदानों के तंगहाल वारिसों की सम्पत्ति । नवाबी रक्त का दम भरने वाले महानिरक्षर लोग समय के प्रभाव से छोटी-छोटी दस्तकारियों से निर्वाह कर रहे थे। जमीन बनियाँ, खत्रियों और रस्तोगियों के हाथ बिक कर पक्के मकान बनते जा रहे थे। सेठों के मकान के सामने, बलदेव टंडन के मकान की बगल में तब भी पतंगसाज नन्हें का कच्चा मकान शेष था। इन्फ्लुएन्जा की महामारी में नन्हें की बीवी और जवान बेटा जाते रहे। उसके छोटे बेटे फजल की ससुराल हुसैनाबाद में थी। महामारी में फजल का जवान साला जाता रहा था। उसकी बुढी बेवा सास ने दामाद फजल को अपने यहाँ बुला लिया। नन्हें अकेला कैसे रहता, वह भी बेटे के साथ हुसैनाबाद चला गया। नन्हें पर सेठ जी का थोड़ा बहुत कर्जा चलता रहता था। कुछ कर्ज सूद में कुछ नकदी में देकर सेठ जी ने नन्हें के मकान की सत्तर गज जमीन ले ली। ऊपर-नीचे चार कोठरियाँ, रसोई, आँगन बनवा दिये। 

मकान में पहले किरायेदार आये ठाकुर साहबसिंह आयु पैंतीस के लगभग, परिवार में पत्नी, दो लड़कियाँ मकान उनके लिये बड़ा और महंगा था। लखनऊ सिटी स्टेशन के पार्सल आफिस में बदली पर आये थे। स्टेशन के समीप जगह चाहते थे। दो मास में ठाकुर एक शिकमी किरायेदार ले आये। ये सज्जन थे मास्टर मथुरा प्रसाद मास्टर प्रदेश की पश्चिमी सीमा सुदूर मुजफ्फरनगर से आगामीर ड्योड़ी के जुबली हाईस्कूल में बदली होकर आये थे। पड़ोसी मास्टर और सेठ जी में शीघ्र ही संगति जम गयी। मास्टर की आयु लगभग बत्तीसा सेठ जी की पहली पत्नी के प्रथम सन्तान बालक होता तो मास्टर जी का समवयस्क होता। आर्यसमाजी युवा मास्टर को समाज सुधार और देशभक्ति की लगन उनकी तीन सन्तानें थी- छ: बरस का छोटा बेटा ओमप्रकाश, चार बरस की बेटी सत्यवती और दवावती गोद में अमर तब पाँच वर्ष का था। सेठ जी ने परम्परानुसार पुरोहित से पाटी पूजा कराकर बेटे का विद्यारम्भ करवाया था। सेठ जी ने लड़कपन में पौधे से मामूली हिन्दी, मुडिया, पहाड़ों की शिक्षा पायी थी। उर्दू उन्होंने स्वयं सीख लिया था। सेठ जी का विचार बेटे को अंग्रेजी पढ़ाने और ऊँची शिक्षा दिलाने का था। अभी बालक को कुसंगति से बचाने के लिये घर पर मास्टर रखकर पढ़ा रहे थे।

मास्टर जी अपने बेटे ओम और बेटी सत्या को प्रातः संध्या स्वयं पढ़ाते। सौजन्य से साथी किरायेदार ठाकुर की बेटियों और अमर को भी साथ बैठा लेते। वे समाज सुधार की भावना से गली के सभी बच्चों को पढ़ाने के लिये प्रस्तुत मास्टर जी के व्यवहार से सेठ जी प्रसन्न थे।

मास्टर जी शिक्षा का प्रयोजन बच्चों को साक्षर बना देना ही नहीं, उनका स्वास्थ्य और चरित्र निर्माण भी समझते थे। उन्हें अमर का शरीर दुबला और चेहरा पीला लगा। सेठ जी को समझायाः स्वास्थ्य की नींव बचपन में ही पड़ती है। अमर ठीक से पनप नहीं रहा। उन दिनों के स्थानीय साधारण रिवाज से अमर सुबह जलेबी खाता था या रात की बासी पूरी। बुआ लाह से उसे दिन में जब-तब मिठाई देती रहती। संध्या फिर पक्की रसोई पूरी परौंठा भोजन के समय बच्चे को खाने में रुचि न होती। 

मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सुंदर लिखा है आपने सर 👌 आप मुझे फालो करके मेरी कहानी पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

3 सितम्बर 2023

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रचनाएँ
मेरी,तेरी, उसकी बातें
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गद्रष्टा, क्रांतिकारी और सक्रिय सामाजिक चेतना से संपन्न कथाकार यशपाल की कृतियाँ राजनितिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक हैं | स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान और स्वातंत्रयोत्तर भारत की दशा-दिशा पर उन्होंने अपनी कथा-रचनाओं में जो लिखा, उसकी महत्ता दस्तावेज के रूप में भी है और मार्गदर्शक वैचारिक के रूप में भी | 'मेरी तेरी उसकी बात' की पृष्ठभूमि में 1942 का भारत छोडो आन्दोलन है, लेकिन सिर्फ घटनाओं का वर्णन नहीं | एक दृष्टिसंपन्न रचनाकार की हैसियत से यशपाल ने उसमे खासतौर पर यह रेखांकित किया है कि क्रांति का अभिप्राय सिर्फ शासकों का बदल जाना नहीं, समाज और उसके दृष्टिकोण का आमूल परिवर्तन है | स्त्री के प्रति प्रगतिशील और आधुनिक नजरिया उनके अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास के भी प्रमुख स्वरों में एक है |
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भाग 1 : मेरी तेरी उसकी बात

1 सितम्बर 2023
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बात पिछली पीढ़ी की है। डाक्टर अमरनाथ सेठ की फाइनल परीक्षा थी। रतनलाल सेठ को पुत्र के परामर्श और सहायता की जरूरत पड़ गयी। पिता ने झिझकते सकुचाते अनुरोध किया, "बेटे, जानते हैं, तुम्हारा इम्तहान है। पर ज

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भाग 2 : मेरी तेरी उसकी बातें

5 सितम्बर 2023
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गंगा बुआ को मास्टर जी की नोक-झोक से चिह्न उस पर लांछन कि उसे बच्चे के लिये उचित भोजन की समझ नहीं। गंगा मास्टर मास्टरनी से उलझ पड़ी, नयी-नयी बातें हमारे यहाँ बड़े-बड़ों के जमाने से ऐसा ही होता आया है।

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भाग 3: मेरी तेरी उसकी बातें

6 सितम्बर 2023
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छोटे मालिक का हुक्म पाकर गुन्ने ने घुँघरू अमचूर के घोल में डाल दिये। सुबह इक्के को धोया पहियों, राम साज पर तेल-पानी का हाथ लगाकर चमकाया। गद्दी तकिये के गिलाफ बदल दिये। अमर संध्या पाँच के लगभग पहुँचा।

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भाग 4 : मेरी तेरी उसकी बातें

6 सितम्बर 2023
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 सन् १९३८ अप्रैल का पहला सप्ताह धूप में तेजी आ गयी थी। कंधारी बाग गली में दोपहर में सन्नाटा हो जाता। रेलवे वर्कशाप और कारखानों में काम करने वाले तथा अध्यापक सुबह छः- साने छः बजे निकल जाते। बाबू सा

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भाग 5: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023
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रजा की भौवें उठ गयीं, "जब देखो कंधारीबाग गली! मिस पंडित से लग गयी?" "जब देखो तब क्या मौका होने पर सिर्फ इतवार शाम जाता हूँ। उसकी समझ-बूझ अच्छी हैं। समाजवाद में बहुत इंटरेस्ट ले रही है। शी कैन बी ग्रेट

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भाग 6: मेरी तेरी उसकी बातें

7 सितम्बर 2023
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पिता ने उपा को चेतावनी दी थी: तुम घृणा और तिरस्कार की खाई में कूदकर आत्महनन कर रही हो। डाक्टर सेठ कितना ही ईमानदार, उदार हो परन्तु हिन्दू हिन्दू सम्प्रदाय का मूल ही शेष सब समाजों सम्प्रदायों से घृणा औ

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भाग 8: मेरी तेरी उसकी बातें

8 सितम्बर 2023
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बार रूम के बरामदे में वकील कोहली कुर्सी पर बैठे समीप खड़े महेन्द्र को मुकदमे के बारे में समझा रहे थे। बजरी पर कार के पहियों की सरसराहट से नजर उठी। कचहरी में नरेन्द्र का आना अप्रत्याशित! बेटे का चेहरा

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भाग 7: मेरी तेरी उसकी बातें

8 सितम्बर 2023
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 गांधी जी और नेताओं की गिरफ्तारियों के विरोध में जनता का आक्रोश और क्षोभ काली आँधी की तरह उठा। सरकारी सत्ता के पूर्ण ध्वंस का प्रयत्न उसके बाद सरकार की ओर से प्रतिहिंसा में निरंकुश दमन के दावानल क

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