पिता ने उपा को चेतावनी दी थी: तुम घृणा और तिरस्कार की खाई में कूदकर आत्महनन कर रही हो। डाक्टर सेठ कितना ही ईमानदार, उदार हो परन्तु हिन्दू हिन्दू सम्प्रदाय का मूल ही शेष सब समाजों सम्प्रदायों से घृणा और अलगावा अन्य समाजों और सम्प्रदायों से ही नहीं, हिन्दुओं की सभी बिरादरियों में परस्पर अलगाव और घृणा हिन्दू किसी अन्य समाज के व्यक्ति को अपना नहीं सकता। उस समाज में परित्यक्त, हैय बनकर तुम्हारी क्या अवस्था होगी?
उषा ने क्रान्ति के मार्ग पर जूंझ जाने के दृढ निश्चय से और डाक्टर सेठ के अदम्य अनुराग की उमंग में कुछ न गुना। परन्तु उसे पिता के परामर्श की अवहेलना के लिये पछताना नहीं पड़ा।
तब हास्पिटल रोड पर गोलागंज से रिफाएआम क्लब तक, खासकर पूरब की ओर बहुत विरली बस्ती थी। बीच-बीच जगह छोड़कर छोटे-मोटे मकान तीन-चार पुराने इंग के खपरैल छायी बंगलिया उनसे उत्तर इलवान पर कच्चे मकानों-शुग्गियों की बस्ती। यहीं एक बंगलिया में डाक्टर सेठ की डिस्पेंसरी और निवासा
सेठ और उषा के यहाँ वे ही लोग आते जिन्हें विचार साम्य से उनके प्रति सराहना, सहानुभूति और लगाव था। नगर में ऐसे उदार विचार लोग सैकड़ा पीछे एक भी रहे हों तो भी हजारों विवाह के बाद कई दिन तक सद्भावना से शुभकामना के लिये आने वालों का ताँता मार्क्सवाद के विभिन्न पक्षधर कामरेड लोग सहानुभूति और शुभकामना प्रकट करने के लिये मिलें तो परस्पर नोक-झोंक और वहस बिना न रह सकें।
फरवरी के शुरू में ही राजनीतिक उत्तेजना का बवंडर अवसर था, अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आगामी अधिवेशन (मार्च १९३९) के अध्यक्ष का चुनाव उस चुनाव और अधिवेशन की उत्तेजना प्रौढ़ कांग्रेसी तीस-बत्तीस बरस बाद भी न भूल सके। अप्रत्याशित परिस्थिति थी। किसे कल्पना थी, कांग्रेस समुदाय गांधी जी के निर्देश की उपेक्षा कर देगा। गांधी जी ने नैतिक और सैद्धान्तिक कारणों से १९३४ में कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी थी परन्तु गांधी जी पर कांग्रेस नेतृत्व का पूरा भरोसा और श्रद्धा रही। गांधी जी को कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठकों में आमंत्रित कर लिया जाता। कांग्रेस की नीति और कार्यक्रम का निश्चय गांधी जी के निर्देश से होता
सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस की नीति से संतुष्ट न थे। बोस के विचार में ब्रिटिश राज में सीमित अधिकार स्वीकार करके, कांग्रेस का मंत्रिमण्डल बनाकर शासन चलाना समझौते की प्रतिक्रियावादी नीति थी। उग्र कांग्रेसी, कांग्रेस समाजवादी और कम्युनिस्ट बोस से सहमत थे। बोस कुछ बरस मध्य यूरोप और जर्मनी में रहकर लौटे थे। वहाँ की स्थिति से परिचित थे। उन्हें विश्वास था: ब्रिटेन और जर्मनी में म्यूनिख संधि निभ न सकेगी, दोनों में शीघ्र युद्ध होगा। ऐसी स्थिति में भारत को अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता के लिये तुरन्त संघर्ष आरम्भ कर देना चाहिये। इस अवसर से चूकना बहुत बड़ी राजनीतिक मूर्खता होगी। बोस कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में अपनी नीति का प्रस्ताव रखने पर उतारू थे। बोस जानते थे,
उनका प्रस्ताव गांधी जी को स्वीकार न होगा। गांधी जी ऐसा प्रस्ताव कांग्रेस के सामने आने ही न देंगे। बोस ने कांग्रेस के समुख अपनी नीति पेश कर सकने के लिये कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिये चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी।
उससे पूर्व बीरा बाईस वर्ष से कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव औपचारिक अनुष्ठान मात्र होता था। गांधी जी जिस व्यक्ति के लिये निर्देश कर देते, उसे सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुन लिया जाता। उस वर्ष गांधी जी ने अपने परम अनुयायी पट्टाभि सीतारमैया का नाम सुझाया था। कांग्रेस के नेताओं को गांधी जी का निर्णय स्वीकार था। बोस को परामर्श दिया गया: गांधी जी की प्रतिष्ठा और कांग्रेस की एकता के लिये गांधी जी का निर्णय मानकर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का विचार छोड़ दें। पंडित नेहरू भी कांग्रेस की समझौतावादी नीति से असंतुष्ट थे परन्तु गांधी जी के नेतृत्व की उपेक्षा न कर सकते थे। नेहरू ने भी बोस को गांधी जी का निर्णय मान लेने की राय दी। बोस अपने निश्चय पर दृढ़ रहे ।
बोस के नेतृत्व में कांग्रेस को संघर्ष के मार्ग पर लाने के लिये सब वामपंथी दलों में समझौता हो गया। गांधी जी के निर्दिष्ट व्यक्ति के मुकाबले चुनाव लड़ना मजाक न था। गांधीवादी कांग्रेसी नेता जनता की गांधीभक्ति के भरोसे निश्चिन्त रहे। वामपंथी लोग पूरे सामर्थ्य से चुनाव अभियान में जुट गये। इसके लिये योजनायें बनती: कांग्रेस के अधिक मेम्बर बनाकर जिलों और प्रान्तों से अधिक से अधिक बोस के समर्थक डेलीगेट चुनवाये जायें। केवल लखनऊ में प्रयास पर्याप्त न था। सेठ पार्टी की ओर से बाराबंकी जाता तो पाठक उन्नाव दौड़ता। कहीं सिन्हा जा रहा है, कहीं नाथ शास्त्री चेतन, जमाल, रायिस्ट पंत, निगम, पी० सिंह, कुँबर आनन्द सिंह सभी पूरा सहयोग दे रहे थे। संघर्ष उत्तर प्रदेश में नहीं, पूरे देश में था। समाचार की उग्र प्रतीक्षा रहती । बम्बई, पंजाब, मद्रास, कलकत्ता में क्या हो रहा है? 'संघर्ष' कार्यालय के अतिरिक्त इस काम के लिये दूसरा अड्डा, सेठ का मकान परामर्श के लिये कभी बनारस- इलाहाबाद से, कभी कानपुर - फैजाबाद से साथी आते। इलाहाबाद से माया घोष पहले भी लखनऊ आती रहती थी। पाठक द्वारा सेठ से परिचय हो गया था। अब तो सेठ के यहाँ ठहरतीं।
माया घोष और उपा दो बार भेंट में ही अंतरंग सहेलियाँ बन गयीं। दोनों में विचार और रुचि साम्य माया इंगलिश लिटरेचर में एम० ए० । बंगाली क्रिश्चियन पिता और मुस्लिम माँ की बेटी । पिता एग्रीकल्चर कालेज में शोध और अध्यापन करते थे। गौर वर्ण चेहरे पर केले की नयी फूटती कोपल जैसी आभिजात्य कोमलता, आकर्षक फक्त गदबदा दोहरा बदन । कद अच्छा होने से मोटापा न जान पड़ता। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पोलिटिकल साइन्स के अध्यापक घोष से स्वयंवर हँसमुख, हाजिरजवाब, निधड़क परन्तु अतिभावुक। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में रुद्रदत्त पाठक की समकालीन थीं। दोनों में पुराना विश्वास मैत्री संबंध।
फरवरी के अन्त मैं 'चुनाव परिणाम से कांग्रेस के गांधीवादी नेता और गांधीभक्त विस्मयाहत रह गये। जैसे महान वट वृक्ष हवा के मामूली झोंके से अकस्मात् धराशायी हो गया। वामपंथी कांग्रेसी, कांग्रेस समाजवादियों, कम्युनिस्टों के हौसले बढ़ गये त्रिपुरी में कांग्रेस को संघर्ष का मार्ग स्वीकार करना ही पड़ेगा। उत्साह से त्रिपुरी जाने की तैयारियाँ होने लगीं।
चुनाव परिणाम की प्रतिक्रिया में गांधी जी ने अहिंसात्मक घोषणा कर दी कांग्रेस- अध्यक्ष के लिये चुनाव में पट्टाभि सीतारमैया की पराजय स्वयं उनकी पराजय है। इस घटना से स्पष्ट है कि कांग्रेस के बहुमत को उनके परामर्श पर भरोसा नहीं रहा। वे कांग्रेसजन का यह निर्णय स्वीकार करके भविष्य में कांग्रेस से कोई सम्पर्क न रखेंगे। भावी नीति निर्णय में कांग्रेस अध्यक्ष के मार्ग में किसी प्रकार की बाधा न डालने के लिये त्रिपुरी अधिवेशन में न जायेंगे। इस समय उनका स्थान फरीदकोट राज की पीडित जनता के साथ है। वे फरीदकोट की प्रजा का संकट दूर न होने तक आमरण अनशन आरम्भ कर रहे हैं। उन्हें ईश्वरीय प्रेरणा फरीदकोट रिवासत में बुला रही है।
गांधी जी की घोषणा से कांग्रेस क्षेत्रों में आतंका गांधी अनुयायी क्षुब्धा वामपंथी नेताओं में भी परेशानी गांधी जी के अनशन का प्रयोजन जो भी हो, जनता और नेता संघर्ष और नीति की चिन्ता करेंगे या गांधी जी की प्राण-रक्षा की? नेहरू जी का क्या रुख होगा? प्रमुख कांग्रेस समाजवादी नेताओं आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश बाबू, लोहिया, मसानी द्विधा में कांग्रेस को संघर्ष पथ पर ले जाने के लिये बोस की अध्यक्षता महायक, जनता को साथ रखने के लिये गांधी जी का सहयोग लाजिम उन्हें गांधी जी की देश हित की चिन्ता और उदारता से दोनों स्थितियों में समन्वय हो सकने का भरोसा।
त्रिपुरी अधिवेशन के लिये लखनऊ से बहुत लोग जा रहे थे। तीसरे दर्जे के कम्पार्टमेंट रिजर्व कर लिये गये थे। कांग्रेसी मंत्रियों के लिये फर्स्ट क्लास के डिब्बे नरेन्द्रदेव, सक्सेना साहब, गुप्त जी सामान्य जन के साथ तीसरे दर्जे में जा रहे थे। आचार्य जी के स्वास्थ्य के विचार से एक कोने में लम्बी सीट पर गद्दा बिछाकर उनके सुविधा से बैठने और लेट सकने के लिये जगह बना दी गयी। वैसे ही सक्सेना साहब के लिये भी रास्ते भर बहस सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट बहुत लिन थे: बोस का कार्यक्रम सामने आये बिना गांधी जी को बोस से मतभेद किस बात पर बोस की अध्यक्षता से गांधी जी का असहयोग कैसे उचित और नैतिक?
अब गांधीवादी पहले की तरह निश्चिन्त न थे। उनकी ओर से भी कन्वेसिंग शुरू हो गयी थी। हरि भैया उसी डिब्बे में थे। समाजवादी महारथियों के मुकाबले के लिये वे अगले स्टेशन पर विश्वनाथ त्रिवेदी जी को बुला लाये।
त्रिवेदी जी का ढंग आत्मीयता और सहिष्णुता का चेहरे पर निरन्तर मुस्कान। बोले, उग्रपंथियों ने बोस का समर्थन उनकी नीति से सहमति के कारण किया। गांधी जी क्या इतने अजान कि बोस की नीति और कार्यक्रम का अनुमान नहीं कर सकते। गांधी जी ने असहयोग नहीं किया। बोस और उनके समर्थकों को पूरा अवसर और उनके मार्ग में अड़चन न बनने का आश्वासन दिया है ।" त्रिवेदी जी प्रथम कांग्रेस सरकार में पार्लमेन्टरी सेक्रेटरी
थे, जैसे आजकल के उपमंत्री उनकी गणना उत्तर प्रदेश के गहरी सूझ-बूझ के पुराने कांग्रेसियों में थी। वे हरि भैया के अनुरोध पर उग्रपंथियों को समझा सकने के अवसर के लिये आचार्य जी और अन्य मित्रों का हाल-चाल पूछने तीसरे दर्जे में आ गये थे। आचार्य जी के समीप बैठे।
प्रचार अभियान की भनक पाकर कई लोग सिमट आये। डाक्टर रशीदजहाँ, मिसेज वाजपेयी, कमला सिन्हा, उषा सब एक साथ थीं। रशीदा, उपा और कमला को भी खींच
लायी। डी० पी० एस० सिन्हा, महमूद, जमाल और पाठक त्रिवेदी जी को उत्तर देने के लिये व्याकुल । सिन्हा के संकेत से महमूद मुस्कराकर बोले, "बोस के दृष्टिकोण से गांधी जी का मतभेद है परन्तु कांग्रेस की नीति और कार्यक्रम अध्यक्ष के डिक्टेशन से नहीं, कार्यकारिणी में विचार और बहुमत से निश्चय होते हैं। गांधी जी को सुझाव और परामर्श का पूरा अवसर है। परामर्श देने से इन्कार असहयोग ही समझा जायेगा ।" महमूद मुस्कराते अधिक, बोलते कम थे।
पट्टाभि की पराजय स्वयं मेरी पराजय है। मैं अधिवेशन में सम्मिलित न होऊंगा - यह कहना असंतोष और असहयोग का एलान नहीं?" सिन्हा ने पूछा।
पाठक ने जोड़ा, "यह एलान उनके अनुयायियों को आदेश है कि बोस और उग्रपंथियों के मार्ग में अड़चन डालने के लिये वे भी कांग्रेस से असहयोग कर दें। " त्रिवेदी जी तर्जनी उठाकर मुस्कराये, "अड़चन 'ना' डालने के लिये।" "असहयोग अडचन डालने के लिये होता है, सहायता के लिये नहीं।" पाठक ने आग्रह किया, "नेहरू ने तुरन्त संकेत समझा और एलान कर दिया-बोस गांधी जी के परामर्श के बिना मुझे कार्यकारिणी समिति में सम्मिलित करेगा तो मैं स्वीकार न करूँगा।"
"आप बोस और उग्रपंथियों को पूरा अवसर देने के सदाशय को असहयोग कहते हैं।" तिवारी जी मुँह में पान घुमाते घुमाते मुस्कराये, “गांधी जी तो पाँच वर्ष से कांग्रेस सदस्य नहीं हैं। उनसे असहयोग या अनुशासन भंग की क्या शिकायत?"
गांधी जी पाँच वर्ष से कांग्रेस के सदस्य नहीं हैं, यह सिर्फ दिखावा है।" सिन्हा ने आपत्ति की, "पिछले पाँच वर्ष में कांग्रेस के सभी कार्यक्रम पूर्णतः गांधी जी के निर्देश से चले हैं। ब्रिटिश सरकार से बातचीत में गांधी जी कांग्रेस के सर्वाधिकारी नेता बल्कि स्वयं कांग्रेस थे। आपका मतलब है, गांधी जी कांग्रेस सदस्य नहीं थे, कांग्रेस थे।"
डाक्टर रशीदा रह न सकी, "गांधी जी को कांग्रेस का अनुशासित मेम्बर होना मंजूर
नहीं। वे अनुशासन से ऊपर डिक्टेटर ही बन सकते हैं, कांग्रेस सदस्य नहीं ।"
"ठीक है, " त्रिवेदी जी मुँह में पान घुमाकर मुस्कराये, "आप लोग यथार्थवादी हैं। आप कांग्रेस और देश की जनता में गांधी जी के प्रभाव और स्थान जानते हैं। कांग्रेस ने स्वतन्त्रता संघर्ष में गांधी जी की उपयोगिता देखकर यह स्थान उन्हें दिया है। स्वयं आप निश्चय कीजिये, कांग्रेस को गांधी जी की जरूरत है या नहीं?"
"यह गांधी जी की धमकी है-कांग्रेस को मेरी जरूरत है तो मुझे डिक्टेटर स्वीकार करो!" जमाल ने चुनौती की मुद्रा में बाँह उठा दी।
"हम लोग गैरों से नहीं, आपसी बातचीत कर रहे हैं; शब्दों पर क्या बहस?" त्रिवेदी जी और अधिक उदारता से मुस्कराये। "हमें सेनापति चुनना है। मोर्चे पर सेनापति से बहस नहीं की जाती ।" त्रिवेदी जी की नजर प्रश्नकर्ता की ओर न थी, श्रोताओं के चेहरों पर घूम रही थी; विशेषतः नारियों की ओर उषा की ओर संकेत कर रशीदा से पूछ लिया, “आपसे पूर्व परिचय याद नहीं आ रहा। "
रशीदा ने संरक्षिका की तरह उषा के कंधे पर हाथ रख दिया, "कामरेड उपा। कामरेड डाक्टर अमर सेठ की दुल्हन यूनिवर्सिटी में एम० ए० कर रही है।" उपा ने त्रिवेदी जी को नमस्कार किया।
त्रिवेदी जी प्रत्युत्तर में नमस्कार से मुस्कराये, "सुन्दर, बहुत सुन्दर प्रसन्नता हुई।" "सुन्दर सिर्फ सूरत नहीं, सीरत भी।" रशीदा हँस दी।
"तसदीक करता है।" त्रिवेदी जी मुस्कराये। उपा की नजर शुक गयी।
रशीदा ने उपा के कान में फुसफुसाया, "अजीब शख्स है।"
उपा का ध्यान खुद भी त्रिवेदी जी की मुद्रा की ओर गया मोटे चश्मे में झिरी-झिरी पलकें, जैसे मुई में धागा डालने के लिये नजर केन्द्रित हो। पिचके गाल, पतले ओठों के बीच निरन्तर पीक की चमक ओठों के दोनों कोनों पर पीक की फैली बूँदें। निरन्तर हिलते जबड़े।
"आप कुछ नहीं बोले, " त्रिवेदी जी ने आचार्य जी की ओर देखा।
"सब कुछ कह दिया गया।" आचार्य जी मुस्कराये, "आपने यथार्थ दृष्टि का परामर्श दिया। एक यथार्थ है, कांग्रेस का बहुमत बोस की नीति को अवसर देना चाहता। दूसरा यथार्थ बोस या कोई भी कांग्रेसी गांधी जी के परामर्श की उपेक्षा नहीं करना चाहता। आप दोनों पहलुओं का समन्वय कराइये।"
गांधी जी का निर्देश ही समन्वया" त्रिवेदी मुस्कराये।
महमूद भी मुस्कराये, “निर्देश या आदेश को समन्वय कैसे कहा जा सकता है?
इलाहाबाद में डेलीगेटों की संख्या दूनी हो गयी। माया घोष भी चल रही थीं। उषा से आलिंगन में मिलीं। पाठक और अमर से कुछ नोकझोंक । फिर बहसः गांधीपंथी नेता धूर्तता कर रहे हैं। फरीदकोट में स्थिति क्या आज ही बिगड़ी है। गांधी जी के अनशन के लिये ये ही खास मुहूर्त वा? हम तो बोस का साथ देंगे।
सन् १९३६ तक कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन आधुनिक सुविधापूर्ण बड़े-बड़े नगरों में किये जाते थे। १९३७ में गांधी जी की प्रेरणा से ग्रामों के देश भारत में गाँव को महत्त्व देने का निश्चय किया और कांग्रेस अधिवेशन का आयोजन किसी बड़े नगर के समीपी गाँव में करने की रीति आरम्भ हो गयी थी। लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस से आये प्रतिनिधियों का समूह सूर्यास्त से कुछ पूर्व त्रिपुरी कैम्प में पहुँचा।
त्रिपुरी में नागरिक इमारतों-सड़कों का परिवेश और पृष्ठभूमि न थी। लम्बी-चौड़ी परती धरती पर फूल के सुरुचिपूर्ण छप्परों-छोलदारियों की अस्थायी बस्ती फूस या सुख रोड़ी बिडी सुथरी की सड़कें। उत्तर पूर्व की ओर विंध्याचल की नीची श्रृंखला विस्तृत प्राचीर की भाँति । धूल से बचाव के लिये गहरा छिड़काया बिजली की पर्याप्त रोशनी। कांग्रेस नगर का सिंहद्वार, पंडाल और प्रदर्शनी आँगन के मुखद्वार प्राचीन भारतीय स्थापत्य की अनुकृति में भव्य सुन्दर स्थान-स्थान पर शोभा के लिये तोरणद्वार और विशिष्ट कलाकारों द्वारा हल-बैल, पनघट चक्की, कोल्हू के चित्रों या मूर्तियों से ग्राम्य जीवन की चारु सज्जा-शोभा। भारतीय ग्रामों की वास्तविकता — पूरे के ढेर, भूखे-कंकाल पशु, सूर्यास्त के समय ग्राम पर उपलों और खरपात के ईंधन से उठे दमघोंट, आँखें चरचराते धुएँ के बादल बहती दीवारों और छीजे छप्परों के बीच कीचड़, मल-मूत्र से भरी गलियाँ सूखे अंग, पेट फूले, नंगे, कीचड़ भरी आँखें, बहती नाक बच्चे गंधाते चीथड़ों से उमड़ते अंगों से बेपरवाह, कलह मे खाँखियाते नर-नारी; सूर्यास्त के पश्चात घुप्प अँधेरा। भारतीय ग्रामों का तथ्य अदृश्या
बहुत से डेलीगेट नेता - यात्री, मद्रास कलकत्ता- बम्बई-अहमदाबाद- दिल्ली- लाहौर- लखनऊ-इलाहाबाद के निवासी जिन्होंने कभी बैल जुते हल न देखे थे। उन्हें गेहूँ-चने की लतायें और कुम्हड़े के पेड़ देखने का कौतूहल आपस में सटे तिमंजिले चौमंजिले मकानों की घुटन और सवारी टकराती भीड़ भरी सड़कों से ऊबे सम्पन्न और मध्य वित्त भारतीय नागरिक त्रिपुरी पहुँचकर सामने ग्रामीण देश की रमणीक ग्राम्य विभूति और संस्कृति पर मुग्ध हो रहे थे।
प्रतिनिधि अपने-अपने प्रान्तों के लिये निर्दिष्ट छप्परों और छोलदारियों के कैम्पों में सामान रख ही रहे थे तभी राजनैतिक विवाद की उत्तेजना कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का संयुक्त एलान: जिस समय गांधी जी रियासती प्रजा पर अत्याचार के विरोध में आमरण अनशन से प्राणों पर जोखिम ले रहे हैं, कांग्रेस गांधी जी की उपेक्षा नहीं कर सकती। वे लोग नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष को एक शर्त पर सहयोग दे सकते हैं कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्यों की नियुक्ति गांधी जी के निर्देश या स्वीकृति से की जाये। नेहरू पहले ही घोषणा कर चुके थे कि वे गांधी जी के परामर्श के बिना बोस द्वारा नियुक्त कार्यकारिणी की सदस्यता स्वीकार न करेंगे।
राजनैतिक संघर्ष की आशा से कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिये बोस का समर्थन करने वाले विस्मयाहत । कांग्रेस विधान के अनुसार कांग्रेस की कार्यकारिणी की नियुक्ति कांग्रेस अध्यक्ष का अधिकार और जिम्मेदारी है। इससे पूर्व निर्वाचित अध्यक्ष कार्यकारिणी की नियुक्ति गांधी जी के निर्देश और परामर्श से करते आये थे। अध्यक्ष को किसी से भी परामर्श ले सकने का अधिकार अवसर है, परन्तु अध्यक्ष पर ऐसी पाबन्दी न वैधानिक है न नैतिक रूप से उचित । यदि कार्यकारिणी के सभी सदस्य अध्यक्ष से असहमत व्यक्ति बना दिये जायें तो अध्यक्ष कांग्रेस नीति का निर्देशन कैसे कर सकेगा? यदि बोस को पूर्णतः गांधी जी के निर्देश से चलना है तो जनता ने पट्टाभि की अपेक्षा बोस को अध्यक्ष चुनकर क्या पाया?
उग्र कांग्रेसी, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट खासकर बंगाली बहुत क्षुधा कांग्रेसजनों ने पट्टाभि को अस्वीकार कर गांधीवादी नेतृत्व को बहुमत से अस्वीकार कर दिया। गांधीपंथी नेतृत्व गांधी के जादू से जनमत को परास्त कर कुचल देना चाहता है। कांग्रेस प्रजातंत्र का समर्थन और फासिज्म की निन्दा करती है। गांधी जी का यह व्यवहार जनतांत्रिक है या तानाशाही? अध्यक्ष के अनुरोध पर परामर्श देना एक बात, अध्यक्ष को अपनी एड़ी के नीचे दबाकर रखने की शर्त फासिस्ट तानाशाही के अतिरिक्त क्या है! अहिंसक मेमने की खाल ओढे फासिस्ट बाघ!
गांधीपंथियों की आवाज: भारत की गरीब जनता का सच्चा प्रतिनिधि स्वेच्छा से दीन गांधी है। भारतीय आत्मा और धर्मप्राण भावना का प्रतीक गांधी। गांधी के लिये लुटिया- अंगोछा पर्याप्त। उसने कभी नेता और अध्यक्ष बनने की माँग नहीं की। गांधी अपनी बात जबर्दस्ती नहीं सुनाता। जो उसकी सुनना नहीं चाहते, वह उनका रास्ता नहीं रोकता। कांग्रेस संगठन की महान शक्ति किसकी वेन? गांधी ही कांग्रेस शक्ति है। गांधी कुछ नहीं माँगता । यहाँ आया भी नहीं। गांधी जनता के लिये अपने प्राणों की आहुति दे रहा है। कांग्रेसी जन भावना के निर्विवाद प्रतिनिधि का निर्देश और परामर्श चाहते हैं या महत्त्वाकांक्षा से बौखला कर गांधी का अपमान अवज्ञा करने वाले का नेतृत्व! गांधी का
नेतृत्व डिक्टेटरशिप है तो यह त्याग, निःस्वार्थ सेवा, सत्य-अहिंसा का आदर है। जनता स्वयं निश्चय करे, गांधी के त्याग और सेवा का आदर करेगी या गांधीविरोधी अंध स्वार्थ का?
उग्रपंथियों का खीझ भरा क्षोभः जनता फैसला कर चुकी है करोड़ों लोगों को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये ब्लैकमेल किया जा रहा है। गांधी जिन वर्ग स्वार्थी का रक्षक है, वे ही गांधी के त्याग, सत्य, अहिंसा, सेवा रूपी हाथी के पाँव से जनता के आत्मनिर्णय को कुचल रहे हैं।
कांग्रेस समाजवादी नेताओं आचार्य नरेन्द्रदेव, लोहिया, जयप्रकाश, मसानी, अहमद दीन विकट दुविधा में गांधीवादी प्रमुख नेता नेहरू, पटेल, राजेन्द्र बाबू, मौलाना आजाद, राजगोपालाचार्य के कार्यकारिणी समिति से असहयोग का अर्थ कांग्रेस में फूट! दो समानान्तर कांग्रेस! ब्रिटिश साम्राज्यशाही के मुकाबले फूटी हुई कांग्रेस क्या रह जायेगी। साधारण जनता न आत्मनिर्णय का अधिकार समझती है; न आर्थिक शोषण से स्वतन्त्रता की बात उसके लिये सब कुछ महात्मा गांधी! इतने बड़े संगठन आन्दोलन का खर्च देश के साधन सम्पन्न वर्ग का विश्वास केवल गांधी और गांधीपक्षी नेताओं पर कांग्रेस न रही तो न आजादी का मोर्चा और न ही आर्थिक संघर्ष का अवसर पहली आवश्यकता कांग्रेस की रक्षा उपायः दोनों पक्षों में सहिष्णुता और उदारता से व्यावहारिक समझौता।
कांग्रेस नगर में रात भर विचार-विमर्श और समझौते के लिए दौड़-भागा कांग्रेस समाजवादी नेता नवनिर्वाचित अध्यक्ष बोस के डेरे पर पहुँचे। सुझाव का एकमात्र मार्ग समझौता; दोनों ओर की बात रह सके। बोस वास्तविकता से अनजान न थे। गांधी पक्ष ने कूटनीति से अपनी पराजय को अपनी विजय का प्रबल शस्त्र बना लिया था। बोस उस समय स्वास्थ्य से भी विवश: वे आधो-आध या मध्यमार्गी समझौते के लिये तैयार। कांग्रेस समाजवादी नेता गांधी पंथी नेताओं के यहाँ पहुँचे। वहाँ केवल एक बात - पूर्णतः गांधी की अनुमति, निर्देश, आदेश पूरी कार्यकारिणी समिति की नियुक्ति गांधी द्वारा सक्सेना साहब के आदेश से हरि भैया और उनके साथी पूर्ण आस्था से अपने प्रदेश के प्रतिनिधियों के सामने हाथ जोड़कर गांधी जी की प्राण-रक्षा और कांग्रेस की रक्षा के लिये प्रार्थना कर रहे थे।
बहुत से वामपंथी और उग्र लोग चीख उठे: गांधी कांग्रेस और देश से भी बड़ा! १९३४ में गांधी का प्रस्ताव था, कांग्रेस का ध्येय भारत के लिये स्वराज्य के बजाय सत्य-अहिंसा की साधना स्वीकार किया जाये। तब तो नेताओं ने गांधी के कांग्रेस सदस्यता छोड़ देने पर भी गांधी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। गांधी ने कौंसिल प्रवेश का विरोध किया। तब भी इन नेताओं को गांधी के बिना संगठन को चलाने में घबराहट न हुई, गांधी को उठाकर ताक पर रख दिया। आज गांधी के बिना कांग्रेस का हार्ट फेल हो जायेगा! जनता से आमना- सामना होने पर गांधी इनके लिये शिखण्डी जनता को बहलाना हो तो गांधी की जय!
दूसरे दिन प्रातः डेलीगेट अधिवेशन मुख्य प्रश्न कांग्रेस कार्यकारिणी की नियुक्ति के सम्बन्ध में। बोस ज्वर की अवस्था में त्रिपुरी आये थे। वहाँ पहुँचकर परिस्थितियों के विकट तनाव से ज्वर बढ़ गया। अधिवेशन के अध्यक्ष की उपस्थिति जरूरी। सुबह त्रिपुरी के पठार के इलाके की तीखी धूप। डाक्टर की राय से बोस को पंडाल में स्ट्रेचर पर लाया गया। उनके चेहरे आंखों को तीखी धूप से बचाने के लिये एक व्यक्ति छतरी लेकर साथ बोस की
भतीजी समय पर दवा-दारू देने और देखभाल के लिये हाथ में छोटा पंखा लिये हुए। लौहपुरुष पटेल, देशबन्धु राजेन्द्र बाबू, विधानचन्द्र राय इस दृश्य से चौक। भाँप लिया: डेलीगेटों की सहानुभूति पाने की चाला करुणा जगाकर विपक्षी को हृदय परिवर्तन द्वारा जीतने के गांधीवादी हथियार का उपयोग गांधीपंथ के विरुद्ध !
गांधी समर्थक नेताओं द्वारा तुरन्त अहिंसात्मक प्रत्याक्रमणः बिना टिकट नाटक देखो! रास्ता छोड़ दो! बादव बामुलाहिजा होशियार! महाराज की पालकी आ रही है! पालकी पर राजछत्र, पंखा चंवर लिये सुन्दर दासियाँ रात छक कर पिया, डटकर कबाब-मच्छी- पुलाव का पथ्य; अब तबीयत खराब?
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बड़े नेताओं के पीछे-पीछे डी० पी० एस० सिन्हा और लोहिया से बात करते कलकत्ता के कांग्रेस समाजवादी मित्रा थे। मित्रा कांग्रेसी नेताओं के व्यंग्य से भड़क गये। विधानचन्द्र राय को सुनाने के लिये गरजे "कितने जहरीले ये गांधी पंथी ये असलियत इनके सत्य- अहिंसा की।"
लोहिया और सिन्हा ने मित्रा को चुप कराया। गांधीपंथी नेताओं ने व्यंग्य आक्षेप सहिष्णुता से अनसुना कर दिया।
पत्रकारों में सनसनी: बोस की वास्तविक स्थिति क्या है? कौन डाक्टर इलाज कर रहे
हैं? बोस के साथ कलकत्ते से डाक्टर न आया था। कांग्रेस के अधिवेशन में बम्बई से आये सुप्रसिद्ध डाक्टर गाडगिल बोस का इलाज कर रहे थे। गाडगिल ने पूरा ब्यौरा दियाः सुभाष बोस को ज्वर १०३ डिग्री था। फेफड़ों में गहरा जमावा रक्तचाप बहुत बढ़ जाने से अनिद्रा ।
बड़े नेताओं के अनुरोध से समाचार दबा दिया गया। फिर भी खबर फैल गयी। सिन्हा शास्त्री, सेठ, पाठक, माया और उषा उदास। कम्युनिस्टों ने क्षोभ में दाँत पीस लिये। पाठक क्रोधवश न कर सका, "साबरमती के कन्हैया दो-दो गोपियों को बगल में लेकर चलें तो संत। दूसरों के साथ दवा देने के लिये बेटी-भतीजी चले तो बेशर्म ऐयाशी !"
डेलीगेट अधिवेशन में मुख्य प्रस्ताव पेश किया पंडित गोविन्दबल्लभ पंत ने कांग्रेस प्रतिनिधियों का यह अधिवेशन कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष को निर्देश देता है कि कार्यकारिणी समिति के सब सदस्यों की नियुक्ति गांधी जी के निर्देश अथवा अनुमति से की जाये।" "एक घंटे बक्तृता में कांग्रेस के विकास में गांधी जी के योगदान की स्तुति कांग्रेस की शक्ति और जीवन गाँधी 'बोस की उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता के कारण कांग्रेस के निश्चित ध्वंस की चेतावनी। गांधी के नेतृत्व के बिना गांधीपंथी लोगों की कांग्रेस से पूर्ण असहयोग की मजबूरी। पंडाल में सन्नाटा।
पंडित पंत के बाद आचार्य नरेन्द्रदेव का भाषण एक घंटे तक आचार्य जी की अपीलः कांग्रेस का ध्येय देश के जनसाधारण को आत्मनिर्णय के अधिकार के लिये समर्थ बनाना और उनके लिये यह अधिकार प्राप्त करना है। आत्मनिर्णय का अधिकार ही प्रजातंत्र का मूल और स्वतंत्रता है। कांग्रेस ने अपने सिद्धान्त और विधान के अनुकूल जनता को निर्णय लेने का अवसर दिया। यह जनता की स्वाभाविक आशा है कि जनता को दिये गये अधिकार के
अनुसार उसका निर्णय कार्यान्वित किया जाये। आचार्य जी ने गांधी जी में पूर्ण भरोसे, विश्वास और श्रद्धा का एलान किया। गांधी जी के अनुयायी महापुरुषों से सहिष्णुता और उदारता से नवी उठती जन-भावनाओं को सहयोग और सहायता देने की अपील की।
दोनों पक्षों की ओर से अनेक भाषण। वही बातें, अपीलें दोहरा दोहरा कर प्रस्ताव पर मत लेने से पूर्व प्रतिनिधियों को विचार के लिये समय दिया गया। कांग्रेस समाजवादी नेता विकट दुविधा में बोस पक्ष की भारी बहुमत से विजय में उनका सहयोग मुख्य सहारा था। यदि कांग्रेस सोशलिस्ट पूर्ववत मत देते बोन पक्ष की पुनः निश्चित विजय और गांधी पक्ष का कांग्रेस से निश्चित असहयोग कांग्रेस टूट-फूट से तहस-नहस कांग्रेस समाजवादी नेताओं ने सुझाव दियाः बजाय इस प्रस्ताव के कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव पुनः करा लिया जाये। चुनाव में गांधी समर्थन का आश्वासन
गांधी पक्ष के नेता विपक्ष में खलबलाइट भाँप कर अपने प्रस्ताव पर अडिग। वे जनता को गांधी पक्ष की अवज्ञा का पूरा दण्ड देने पर उतारू उनका एक ही जवाब जो निर्णय हो इसी प्रस्ताव पर
कांग्रेस समाजवादी नेताओं की राजनीतिक समझ का तकाजा सबसे जरूरी काम कांग्रेस को विघटन से बचाना। दूसरी ओर नैतिक संकट, गांधी पंथी नेतृत्व की नीति विरुद्ध मत देने के बाद अब उसका समर्थन कैसे करें? दारुण स्थिति में उन्होंने अपने दल को आदेश दिया इस इन्द्र में प्रस्ताव पर मतदान में निष्पक्ष रहा जाये।
कम्युनिस्ट और रायिस्ट बौखला उठे बोस को संघर्ष में भिड़ाकर उसकी टाँग घसीटना निष्पक्षता पर लानता अनेक कांग्रेस समाजवादी बहुत क्षुब्ध वे स्वयं इसे बोस के साथ विश्वासघात समझ रहे थे और मोर्चा जीतकर पीठ दिखा देना। दल के विश्वस्त कार्यकर्ताओं से अन्य साथियों को समझाने का अनुरोध किया गया। यह विश्वासघात या पराजय स्वीकार करना नहीं, संघर्ष में पीछे हटकर पुनः आक्रमण के लिये पैंतरा है। हमारा प्रोग्राम कांग्रेस को समाप्त करना नहीं, कांग्रेस में अपनी शक्ति बढ़ाना है। कम्युनिस्ट को न राष्ट्रीय भावना की न राष्ट्रीय संगठन की चिन्ता। जनता ने हमारी शक्ति का कुछ परिचय पाया, शेष अगले आक्रमण में।
वामपंथी मोर्चे को सबल बनाने के लिये रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी एक मास पूर्व कांग्रेस समाजवादी दल में सम्मिलित हो गयी थी। उनके विचार में बोस विरोधी प्रस्ताव पर कांग्रेस समाजवादियों की निष्पक्षता बाम पंच से विश्वासघात रेवोल्यूशनरी
सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस समाजवादियों से अलग हो गयी। कम्युनिस्टों जीर राविस्टों ने भी कांग्रेस समाजवादियों से असहयोग कर दिया। संयुक्त मोर्चा बिखर गया।
कांग्रेस समाजवादियों की पृथक सभा में बोस विरोधी प्रस्ताव पर आचार्य जी और लोहिया की धैर्य और दूरदर्शिता की अपीलों के बावजूद त्यागी ने ऐसी निष्पक्षता को डुलमुल अवसरवादी नीति कहकर इसका विरोध किया। पाठक ने चेतावनी दी: यह कांग्रेस पूँजीपतियों के प्रतिनिधि मठाधीशों के सामने आत्मघाती समर्पण है और सदा के लिये बाम पक्ष के सहयोग की समाप्तिः इलाहाबाद से माया और जायसवाल ने भी इसका विरोध किया। लोहिया और आचार्य जी की अपीलों से पार्टी में निष्पक्षता का प्रस्ताव बहुमत से स्वीकार हो जाने पर पाठक और अठारह-बीस युवक सभा से उठकर चले गये। सभा के बाद माया को पाठक दिखायी न दिया, सेठ और उपा से पूछने पर भी कुछ पता न चला। कांग्रेस समाजवादियों को बोस विरोधी प्रस्ताव पर मत न देना था। अपना निश्चय बदल देने की शर्मिन्दगी से बचने के लिये उन्होंने मतदान के समय पंडाल में न जाना ही बेहतर समझा।
पंडाल से महात्मा गांधी की जय' के तुमुल घोष के बाद लाउडस्पीकर पर घोषणा की गयी। डेलीगेटों की सभा में बहुमत से स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष को आदेश है कि संपूर्ण कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की नियुक्ति गांधी जी के निर्देश और अनुमति से की जाय।
अध्यक्ष के चुनाव में बोस समर्थक दल दो सौ के बहुमत से जीता था। अब समाजवादियों की निष्पक्षता से बोस विरोधी प्रस्ताव अड्डाईस वोट से पास हो गया। गांधीपंथियों में विजयोल्लास |
कानपुर के लल्लन पांडे ने ललकार कर भगवान का वचन याद दिला दिया, "यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति ।"
कानपुर के त्रिवेदी और टण्डन पांडे को चुप रहने के लिये डॉट रहे थे, परन्तु काले खाँ चीख पड़ा, "तुम्हारी कांग्रेस हिन्दू जमात गांधी हिन्दुओं का पोप है।"
पांडे काले खाँ की तरफ झपटी काले खाँ सिंखिया पहलवान लेकिन किसी से भी भिड़ जाये। बिसेसर ने समीप के छप्पर से बाँस खींच लिया। दूसरे कामरेडों ने दोनों को दबोच लिया। सबको कड़ी हिदायतः कोई कटाक्ष या कड़वी बात नहीं होनी चाहिये। हमारा डिमान्स्ट्रेशन पीसफुल होना चाहिये। पन्द्रह-सोलह कामरेड जुलूस बनाकर नारे लगाने लगे: सरमायादारी तानाशाही नहीं चलेगी! 'जनता को दगा देने वाले गद्दार मुर्दाबाद!
अविनाश शर्मा वोटिंग का रंग-ढंग देखने पंडाल चला गया था। उसने लौटकर बताया बीस-पच्चीस दूसरे कांग्रेस सोशलिस्ट भी पंडाल में पहुंच गये थे। कम्युनिस्टों, रायस्टों, रेवोल्यूशनरी सोशलिस्टों और उग्र कांग्रेसियों ने बोस विरोधी प्रस्ताव के विरुद्ध हाथ उठाये तो रुद्रदत्त पाठक और मेरठ के नरसिंह ने भी उनका साथ दिया। उन दोनों की देखा देखी अठारह-बीस अन्य कांग्रेस सोशलिस्ट डेलीगेटों ने भी प्रस्ताव के विरोध में हाथ उठा दिये।
सिन्हा, शास्त्री, पूर्णिमा बैनर्जी, त्यागी, गौतम समाचार से बहुत खिन्न। त्यागी को बहुत क्रोध, "दल के भीतर अपने विचार प्रकट करने का जनतांत्रिक अधिकार सबको है। प्रस्ताव का विरोध सबसे पहले हमने किया, लेकिन पार्टी के सामूहिक निर्णय की अवज्ञा अनुशासन भंग, पार्टी से दगा!"
अविनाश ने और भी बताया; वोटिंग के बाद कम्युनिस्टों ने अपने साथ वोट देने वाले कांग्रेस समाजवादियों को घेरकर खूब नारे लगाये सचाई और साहस के लिये बधाई। वामपंथी मोर्चा जिन्दाबाद! नरसिंह और पाँच-छः लोग उनके साथ चले गये। पाठक चुपचाप निकल गया।
पाठक के व्यवहार को लेकर सेठ और माया में झड़प हो गयी। माया का आग्रह था, पाठक ने अपनी समझ से उचित किया। सेठ मौन रहा। पाठक के न लौटने से माया चिन्ता
से व्याकुल हो रही थी, उषा को लेकर पाठक की खोज में निकल गयी। सेठ न गया।
उपा झोपड़ी में लौटी तो नेठ ने देख लिया था परन्तु अनदेखा करने के लिये नजर झोपड़ी की छत की ओर कर ली। चेहरे पर नाराज़गी का भारीपना उपा घुटने मोड़कर पति के सिरहाने बैठ गयी। झोपड़ी में दूसरी ओर एक चटाई पर बैठे तीन आदमी आपस में बात कर रहे थे। उपा ने उस ओर पीठ कर पति के माथे पर हाथ रख दिया, "राजे क्या बात उसका स्वर भी उदासा
सेठ मौना उपा के दूसरी बार पूछने पर भी सेठ मौना
"राजे प्लीज़!" उपा के गले में आँसुओं की घरघराहट और सेठ के माथे पर टपटप दो बूंद उषा ने आँचल आंखों पर दबा लिया था। विवाह के बाद छठा सप्ताह पहली बार पति की नाराज़गी और क्रोध।
"अच्छी, ये क्या!" सेठ का गुस्सा पिघल गया, "स्टॉप टा दस कदम पीछे बैठे आदमियों के कारण उपा के लिये बोल सकना बहुत कठिना ओंठ काटकर धीमे से कहा, "प्लीज बाहर चलिये।"
सेठ और उषा झोपड़ी से बाहर आ गये। एकान्त में बैठकर बात करने की जगह कहाँ उषा उससे पहले माया के साथ चलकर थकी हुई थी। सूर्य ढल रहा था। झोपड़ियों और छोलदारियों की छाया पूर्व की ओर फैल गयी थी। यू० पी० कैम्प के पीछे पाक का बहुत बड़ा पेड़ पेड़ की मोटी-मोटी जड़ें धरती पर दूर तक फैली हुई। दोनों वहीं बैठ गये। उपा गले का अवरोध निगल कर बोली, "राजे आप नाराज़ क्यों हो गये
“तुम्हारी मावा- पाठक से सहानुभूति का मतलब? गलत काम से सहानुभूति गलत काम का समर्थन।"
"राजे, हम पाठक जी से सहानुभूति में नहीं दीदी के अनुरोध से गये।"
"माया तो पाठक की गलती मानने को ही तैयार नहीं। उसके बिट्रेवल की भी सराहना।” सेठ ने कहा, “ऐसे व्यक्ति से सहानुभूति अनुशासन भंग और विट्रेयल को उत्साहित करना।"
पाठक जी ने अनुशासन भंग तो जरूर किया, परन्तु दीदी की बात भी ठीक। बिद्रेयल का मतलब धोखा। पाठक जी ने विद्रोह किया, बिद्रे नहीं।"
अच्छी, तुम जानती हो, पाठक पर मुझे कितना भरोसा। मेरे लिये उसका यह व्यवहार
"आप पाठक जी से बात कीजिये।"
"हरगिज नहीं! मेरे लिये पार्टी लायल्टी फर्स्ट वैयक्तिक मंत्री बाद में। " उपा मौन रही।
अधिवेशन के लिये आते समय साथियों को उमंग थी: त्रिपुरी के समीप नर्मदा का प्रसिद्ध 'धुआंधार झरना और पुनों की चाँदनी में चमकते नर्मदा किनारे संगमरमर की चट्टानों के शिखर देखेंगे। अब निरुत्साह में तुरन्त लौटकर जबलपुर स्टेशन से अपने-अपने नगर के लिये ट्रेन पकड़ सकने की उतावली। कुछ लोग तो बोस विरोधी प्रस्ताव पास होने की घोषणा सुनकर ही लौट पड़े थे।
सेठ और उषा अपने कैम्प की ओर लौट रहे थे। डाक्टर दादा!" पुकार सुनकर घूमकर
देखा, राम वर्मा तेज कदमों से आ रहा था। “दादा, क्या विचार? आचार्य जी की पार्टी के लिये कार का प्रबन्ध हो गया। पाठक दादा और माया जी जा रहे हैं। आप लोग चलें तो इलाहाबाद के लिये रात की गाड़ी पकड़ ली जाये।"
यू०पी० के बहुत से कांग्रेस समाजवादी रात की गाड़ी से इलाहाबाद लौट रहे थे। आचार्य जी के साथ सिन्हा, पूर्णिमा बैनर्जी और त्यागी। त्रिपुरी आते समय वामपंथी अभियान के उत्साह में सीना ताने, कंधे से कंधे भित्राये आरक्षित डिब्बों में एक साथ आये थे। लौटते समय मोर्चा छोड़कर भागते सिपाहियों की तरह अकेले दुकेले या तीन-चार की टोली में भाग रहे थे। ट्रेन में जिसे जहाँ जगह मिली, बैठ गये। सेठ उपा, माया, पाठक, राम वर्मा एक ही डिब्बे में बैठे। पाठक का चेहरा अब भी मौन से भारी, आँखों में लाल डोरे । उषा माया में दबे दबे स्वर में कुछ बात हुई। सेठ और पाठक दोनों मौन
गाड़ी सुबह इलाहाबाद पहुँची। लखनऊ से आये साथी तुरन्त लखनऊ की गाड़ी पकड़ना चाहते थे। सेठ - उषा ने माया के अनुरोध से साँझ तक ठहरना स्वीकार कर लिया। पाठक को भी इलाहाबाद में कुछ काम था। दोपहर बाद आने का आश्वासन देकर स्टेशन से ही कहीं चला गया।
माया प्रतीक्षा करती रही। पाठक न पहुँचा। माया संध्या सेठ उषा को गाड़ी पर पहुँचाने आयी तो पाठक प्लेटफार्म पर मौजूद था।
"पट्टू, हम तुम्हारी राह देखते रहे!" माया ने शिकायत की। स्वर बहुत उदास । "मौका नहीं बन सका।"
"तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं चल रही आज ठहर जाओ, कल चले जाना।" माया ने आतुर अनुरोध किया।
“इस समय तो जाना बहुत जरूरी।" पाठक ने कहा, “हो सकता है तीन-चार दिन तक लौट आऊँ और यहाँ ही रहूँ।
तीनों एक ही डिब्बे में बैठे। ये लोग अच्छी जगह के लिये कुछ जल्दी आ गये थे। भीड़ भी अधिक न थी। ऊपर सोने की जगह बना ली थी। त्रिपुरी से चलने के बाद से सेठ और पाठक में कुछ बात न हुई थी। गाडी प्लेटफार्म लाँघ गयी तो सेठ और उषा लेटने के लिये ऊपर जाना चाहते थे।
"एक मिनट।" पाठक ने सेठ को पुकार लिया। उषा भी ठिठक कर पति के साथ बैठ
“कुछ लोगों की शिकायत है कि मैंने पार्टी अनुशासन भंग से पार्टी को बिट्टे किया और दूसरे लोगों को उसके लिये भड़काया। तुमने भी माया से कुछ ऐसी बात कही। ऐसी स्थिति मैं पार्टी में मेरे लिये क्या जगह। 'नेशनल हेरल्ड' में पार्ट टाइम काम के लिये लखनऊ बैठे रहने की क्या सार्थकता, लेकिन में गलतफहमी नहीं रहने देना चाहता कि मैं आवेश में ऐसा कर बैठा और अब उसके लिये लज्जित है। यह गलत है कि मैंने दूसरे लोगों को पार्टी निर्णय के विरुद्ध भड़काया। मैंने मीटिंग में चेतावनी दी थी कि पार्टी के ऐसे अवसरवादी व्यवहार से साथी डिमॉरलाइज होंगे और कुछ विद्रोह कर बैठेंगे। वह तुरन्त सामने आ गयी। मैंने अपने विचार में पार्टी के हित को अनुशासन से अधिक महत्व दिया। मैं अपने व्यवहार की सफाई पार्टी के सामने देना जरूरी समझता हूँ। किसी दूसरी पार्टी में चले जाना मेरे लिये
असम्भव भविष्य के बारे में भी मुझे सोचना है।"
पाठक के प्रति अपनी सहानुभूति की विह्वलता वश में रखने के लिये उषा डिब्बे की खिड़की से बाहर बिना कुछ देखे फीकी चाँदनी में पीछे छूटते जाते खेतों गाँवों की ओर नजर लगाये थी।
"मुझे अपनी बात के लिये खेद है। मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूँ।" सेठ पाठक की बात सुनकर एक वाक्य बोला। उपा का मन पति की उदारता से गद्गद ।
लखनऊ स्टेशन से पाठक को सेठ अनुरोध से अपने मकान पर ले गया।
उषा दस बजे यूनिवर्सिटी चली गयी थी। चार बजे लौटी। सेठ ने बतायाः शाखी और गौतम पाठक से बात करने आये थे। उनके साथ आचार्य जी के यहाँ गया था। बहुत देर तक बात होती रही थी। आचार्य जी की राय थी, कूटनीति के विकट व्यूह में फँसकर जो कुछ भुगता, उससे भविष्य में सावधानी जरूरी। अनुशासन का बवंडर उठाने की जरूरत नहीं। अनुशासन का प्रयोजन संगठन की रक्षा होनी चाहिये संगठन का विघटन नहीं।
दो दिन बाद पत्रों में समाचार: गांधी जी ने फरीदकोट के प्रश्न पर अपना अनशन स्थगित कर दिया। उसके साथ गांधी जी का वक्तव्य इस प्रश्न पर मेरा अनशन का निर्णय उचित न था। मुझे खेद है, मैंने ईश्वरीय प्रेरणा को समझने में भूल की।
उसी संध्या नरेन्द्र और रज़ा हास्पिटल रोड गये थे। ऐसे अवसर पर वे अपना क्षोभ कैसे न प्रकट करते। नरेन्द्र ने कहा, "गांधी ने अपना काम बनाकर अनशन समाप्त कर दिया और भूल स्वीकार करके संत भी बन गया। तुम्हारी पार्टी का भी नैतिक कर्त्तव्य है कि गांधी गुट्ट के प्रपंच में आ जाने की अपनी भूल स्वीकार करके जनता को पथभ्रष्ट करने में सहयोग के लिये क्षमा माँगे।"
"गांधी जी अपनी भूल स्वीकार कर रहे हैं, तुम उसे प्रपंच कहना चाहते हो?" सेठ ने विरोध किया, "बिना प्रमाण किसी की नीयत पर सन्देह करना स्वयं बेईमानी।"
"गांधी ईश्वरीय प्रेरणा को समझने में कितनी बार भूल करेगा!” नरेन्द्र भी उत्तेजित "पहली बार सन् बाईस में चौरीचौरा की घटना के अवसर पर दूसरी बार सन् इकतीस में नमक सत्याग्रह असफल होने पर, अब तीसरी बार कांग्रेस राजनैतिक संगठन है या गांधीपंथी सम्प्रदाय की उम्मत!"
सेठ के उत्तर दे सकने से पहले रज़ा बोल पड़ा, "ईश्वरीय प्रेरणा का दावा ही प्रपंच क्या कारण ईश्वर ने गांधी को अपनी दूत चुन लिया। गांधी पैगम्बर है या अवतार है? जिन्ना ईश्वरीय प्रेरणा का दावा नहीं करता, यह उसकी ईमानदारी तुम लोग समाजवादी और मार्क्सवादी होने का दावा भी करो, दूसरी तरफ गांधी को ख़ुदा का रसूल बनाने के अंधविश्वास को बढ़ाने में सहयोग दो। यह ईमानदारी है?"
रज़ा बोल रहा था तो पाठक आ गया था। सेठ ने कहा, "गांधी जी को रसूल बनाने में हमारा कोई सहयोग नहीं परन्तु गांधी जी पर जनता की अंधश्रद्धा को एक झटके में दूर नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय मुक्ति के मोर्चे पर गांधी जी के प्रभाव की उपेक्षा कैसे की जा सकती है? गांधी जी के प्रभाव ने राष्ट्रीय चेतना को व्यापक रूप और जन बल दिया है। उस तथ्य से कौन इन्कार कर सकता है।"
"सामयिक उपयोगिता तो अनेक अंधविश्वासों की हो सकती है।" नरेन्द्र ने आपत्ति की, इसलिये जनता को अंधविश्वास से भेड़-बकरी बनाये रखा जाये। लेकिन यह न भूलिये कि ईश्वरीय आदेशों का अंधविश्वास समाजवाद के मार्ग की सबसे बड़ी अड़चन बनेगा। इसीलिये लेनिन को कहना पड़ा-ईश्वर विश्वास जनता के लिये अफीम का नशा वही बात ईश्वर के प्रतिनिधि पर विश्वास से गांधी का तो उपदेश स्वामी- सेवक सम्बन्ध ईश्वरीय न्याय, सेवक का धर्म स्वामी की सेवा।"
डिस्पेन्सरी से घंटी की आवाज परसू सुबह-शाम बरामदे में रहता था। मरीज के आने पर घंटी बजा देता था। सेठ उठकर बाहर चला गया।
"हम मानते हैं गांधी का प्रभाव समाजवादी लक्ष्य में अड़चन बन सकता है, परन्तु राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में उसके प्रभाव का बहुत मूल्य। जब तक हम जनता का अंधविश्वास दूर नहीं कर सकते, जनता में अपने प्रति विरोध भावना जगा कर उन्हें पूर्णतः गांधी पंथ के हाथ सौंप देना भी समझदारी नहीं।" पाठक ने सेठ की ओर से उत्तर दिया।
"तुम्हारी पार्टी अंध गांधी भक्ति दूर करना ही नहीं चाहती।" रजा ने आपत्ति की 'त्रिपुरी में अवसर आया था, उसे तुम्हारे मुबुद्धि ने खो दिया।"
"कांग्रेस से अध गांधी भक्ति दूर करने का उपाय कांग्रेस को समाप्त कर देता है या जनता को प्रबुद्ध बनाने का यत्र सिरदर्द हो या सिर में जुएँ पड़ जायें तो डाक्टर सिर काट देने की राय देगा?"
"जुओं के बारे में लड़कियाँ ही बेहतर राय दे सकती हैं। उस बारे में हम लोग क्या जानें।" नरेन्द्र मजाक का अवसर न चूका।
"कभी-कभी लड़कियों की खोपड़ी पर जुएँ हो सकती हैं परन्तु कुछ लोगों की खोपड़ी के भीतर। " उषा भी कह गयी।
पाठक ने उपा के समर्थन में कहकहा लगा दिया।
नरेन्द्र ने बात स्वीकार करने के लिये मुस्कराकर उषा को लखनौआ अदा से सलाम किया और फिर खीझ दिखायी, "जाओ? जाओ! जाकर एक्जाम की तैयारी करो। स्टूडेंट्स को राजनीति में नहीं पड़ना चाहिये।"
डाक्टर बेटे की प्रैक्टिस शीघ्र जमा देने के लिये सेठ जी ने ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि उस ओर अमर का निरुत्साह कर्तव्य की उपेक्षा होती। आर्थिक आत्म निर्भरता भी स्वाभिमान का तकाजा और कर्त्तव्या
सेठ जी हुसैनगंज में अपनी डिस्पेन्सरी से दवा बेचकर प्रैक्टिस करने वाले एक पुराने जाने हुए डाक्टर के अनुभवी कम्पाउण्डर को कुछ अधिक वेतन पर तोड़ लिया था। कम्पाउण्डर इल्मदीन मेरीज पटाने और दवा बनाने में भी दक्ष डिस्पेन्सरी के कमरे में तीन आलमारियों में रोजमर्रा काम आने वाली दवाइयों भरवा दीं। बंगलिया की फटकिया के साथ चारदीवारी पर बोर्ड गरीब मरीजों को निःशुल्क परामर्श, असहाय मरीजों को मुफ्त दवा। कम्पाउण्डर डाक्टर सेठ की फीस दवा के दाम के अनुपात से कुछ आने पैसे दाम मैं जोड़ देता।
त्रिपुरी अधिवेशन के बाद पार्टी में शैथिल्य आ गया था। अब अधिक ध्यान स्वामी
सहजानन्द के प्रभाव से किसानों की ओर दिया जा रहा था। सेठ को प्रैक्टिस की ओर ध्यान देने के लिये पर्याप्त समय अप्रैल के अन्त तक सुबह-शाम मिलाकर बीस-पच्चीस मरीज आने लगे थे। इल्मदीन दवा का खर्च निकाल कर आठ-दस रुपये बना लेता। आरम्भ में इतना कम न था।
अमर और उपा का विवाह निश्चित हो जाने पर संध्या नरेन्द्र अकसर अमर को अपनी गाड़ी में सेवाश्रम ले जाता। उपा से परिचय था, अब वह भाई जैसे मित्र की वाग्दत्ता । अमर और उषा को हजरतगंज या छावनी की ओर घुमा लाता। प्रयोजन था उषा की उदासी में उसका दिल बहला सकता। चेतन, सुबह, सुन्दर नवयुवती की संगति का सन्तोष भी।
अमर उषा हास्पिटल रोड की बंगलिया में आ गये तो नरेन्द्र का उनके यहाँ जाना- बैठना और अधिका उपा को नोंकझोंक, व्यंग्य- काकोक्ति से बहस, हँसी-मजाक के लिये उकसाता रहता। उपा को स्वयं उसमें बहुत रुचि। नरेन्द्र का व्यक्तित्व, व्यवहार, संगति आकर्षक परन्तु झिझका पति का बड़ा भाई और यूनिवर्सिटी के नाते अध्यापक-विद्यार्थी का महीना पूरा हो रहा था। नरेन्द्र संध्या आया। रज़ा 'इस तरफ बन्दर नहीं आते थे। आज अचानक सम्बन्ध।
फरवरी का अन्त था। विवाह के बाद मौजूद था। उषा परेशानी बता रही थी, आ गये। ये वो नुकसान कर गये। "
"उन्हें खबर अब मिली। रिश्ते नाते में मिलने आना ही था।" नरेन्द्र ने कहा और कनखी से उषा की ओर देखा ।
उपा मुस्करायी नहीं, नजर बचाये बोली, "खबर कैसे नहीं थी। नातेदार दूसरे तीसरे आते रहते हैं। अच्छे-भले आदमियों की तरह बैठकर बात करते थे। ऐसा ऊधम न किया था।"
नरेन्द्र को करारे जवाब से सेठ कहकहे से उछल पड़ा। रजा ने कटाक्ष में नरेन्द्र को एक हाथ की अँजुली से लखनौवा आदाब किया, "मियाँ, इस मात पर सलाम करो!" नरेन्द्र ने उपा को सलाम से मात स्वीकार की। उपा ने भी उसी अदा की मुस्कान से सलाम तस्तीम किया। उपा की झिझक टूटी तो टूटी।
अप्रैल का अन्तिम सप्ताहा उषा के दो पेपर शेष थे। संध्या भी बैठक के साथ के कमरे में पड़ रही थी। आहट से बैठक की ओर नजर उठी। नरेन्द्र आया था, उसके साथ सेठ भी भीतर आ गया। उपा ने पुस्तक खुली छोड़ दी। थकावट की अंगड़ाई लेकर बैठक में आ गयी।
"तुम पढ़ो। अपना समय क्यों खराब करोगी हम बाहर बरामदे में बैठ जायें।" नरेन्द्र ने उपा की ओर देखा।
ढाई घंटे से एक करवट बैठी थी। जरा थकावट न जाये।" उषा ने परसू को चाय बनाने के लिये पुकार लिया।
"बहुत गरमी हो गयी। आज दोपहर विजिलेंस (परीक्षा भवन में चौकसी) से लौटकर चार बजे तक सोये।" नरेन्द्र ने सेठ की ओर देखा, "तुम क्या करते रहे?"
"सदर बाजार गया था, काम से।"
"दोपहर में!" नरेन्द्र को विस्मय, "बैसाख जेठ की दोपहर में तो गधे चरते हैं। आदमियों
के लिये सोने का समयः "
" दिन में उल्लू सोते हैं।" सेठ ने जवाब दिया।
नरेन्द्र मुस्कराया। उपा की ओर देखा। उषा ने मुस्कराकर नरेन्द्र को आदाब कर दिया। "हूँ!" नरेन्द्र ने चुनौती दी, "हर मास्टर्स वायस!"
उषा हंस दी। सेठ ने एतराज किया, "मास्टर नौकर का क्या मतलब? यहाँ तुमने ऐसा क्या व्यवहार देखा।"
नरेन्द्र ने उषा की ओर देखा, "इसे 'राजे' कहती हो या नहीं?' "कर से इनकार इसके डर से!"
"कहते हैं। काजी जी दुबले ।" उषा नरेन्द्र को जवाब दे रही थी, बाहर डिस्पेन्सरी में घंटी की आवाज सेठ बाहर चला गया। बात अधूरी रह गयी।
अमर दो मिनट में लौट आया। नरेन्द्र से बोला, "मरीज देखने जा रहा हूँ मोटर साइकल पर तुम बैठो। अधिक वक्त न लगेगा।"
"हम भी चल दिये।" नरेन्द्र उठ गया। उषा की ओर देखा, "तुम पड़ो।"
सेठ के लौटने में घंटे से अधिक लग गया। फटकिया का खटका खोलकर गाड़ी भीतर कर रहा था तो देखा, उषा बरामदे में कुर्सी पर मौन निश्चल सेठ ने उसके कंधे पर हाथ रखा, "अच्छी, चलो अन्दर पलंग पर लेटो।"
अमर उसे सहारा देकर भीतर ले चला, "अच्छी, नरेन्द्र के बेहूदा मजाकों में सहयोग देकर उसे बढ़ावा देना ठीक नहीं। वह बहुत बढ़ता जा रहा है। हमें मास्टर-नौकर है! तुमने हाँ कैसे कह दिया?"
"आपने हमारी बात सुनी नहीं, बाहर चले गये। हमने तो जवाब दिया था— काजी जी दुबले शहर के अन्देश में।" उपा ने पति की ओर आँखें उठाव, "तुम हमारे राजा या मालिक, हम तुम्हारी गोली दासी जेठू भाई या किसी को मतलब ! "
"तुम उसे नहीं जानती।" सेठ ने समझाया, "उसके, ये उदार विचार परिहास की आड़ में लड़कियों से अंतरिता बढ़ाने के पैंतरे हैं। लड़कियों के मामले में उसका कोई भरोसा नहीं। बहस-मजाक में रिझा-मोह लेने में बहुत चतुर मौका बनाकर बेखवरी में कब हाथ डाल दे ! उसमें बहुत गुण परन्तु यह जबर्दस्त कमजोरी।"
"हम आपके बड़े भाई मानकर आदर करते हैं। अब तक हमें वैसी कोई बात नहीं लगी। हँसोड हैं परन्तु कायदे से हम जिस रोज वैसी बात या हरकत देखेंगे, टीचर- वीचर की परवाह नहीं करेंगे, झाड़कर रख देंगे।"
"तुम्हें चेतावनी दे दी।" अमर ने कहा, “हम तो उसे लड़कपन से जानते हैं सेठ ने अपनी चेतावनी के प्रमाण में नरेन्द्र के कई पुराने चरित्र बता दिये।
"राजे, छोड़ो उनकी बातें।" उपा ने मचल कर सिर अमर के सीने में गड़ा दिया, दोनों के बीच तीसरे की कोई जगह नहीं।
त्रिपुरी अधिवेशन के प्रस्ताव में कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस को आदेश था दो मास के भीतर गांधी जी के परामर्श और अनुमति से कॉंग्रेस कार्यकारिणी की नियुक्ति हो जानी चाहिये। गांधी जी के परामर्श और अनुमति का अर्थ उनके आदेश का
अक्षरश: पालन, अन्यथा असहयोगः बोस लाचार।
मई के अन्त में फिर राष्ट्रीय कांग्रेस के डेलीगेटों का अधिवेशन कलकता में बुलाया गया। वामपंथी प्रतिनिधियों ने कलकत्ता जाना निरर्थक समझा। बोस को त्रिपुरी अधिवेशन के प्रस्ताव का निर्देश पूरा न कर सकने के कारण अपदस्थ कर दिया। उनके स्थान पर परम गांधी अनुयायी राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष नियत हो गये। यू० पी० में कांग्रेस समाजवादी मजदूर और किसान संगठनों की ओर ध्यान दे रहे थे। इस प्रयोजन से पाठक पूर्वी जिलों में काम करने चला गया था।
यूनिवर्सिटी में ग्रीष्म अवकाशा नरेन्द्र एक मित्र के साथ मसूरी चला गया था। रज़ा चौथे- छठे आ जाता। रज़ा स्वभाव से उतना बातूनी और हंसोड़ न था। नरेन्द्र और पाठक के अभाव में हंसी-मजाक और बहस में गरमा-गरमी न हो पाती। रजा एक दिन अमित को भी बहिन के यहाँ खींच लाया था। उसे इन्टर की परीक्षा के बाद फर्मत थी। झिझक खुल गयी तो अकसर जीजी के यहाँ आ जाता। अब तक वह रजा तिवारी जी और जमाल के प्रभाव से पक्का कम्युनिस्ट उसे केवल श्रेणी-संघर्ष और मार्क्सवादी चर्चा में रुचि उपा सूनेपन से बचने के लिये अमित को रोक लेती।
उषा के संतृष्ट जीवन में दो उलझनें। हरि भैया उसे हस्पताल से सेवाश्रम ले आये थे तो गौरी ने उपा को बहुत पढ़ी-लिखी, अमर भैया की परिचित राजनीतिक कार्यकर्ता, दो दिन की मेहमान समझकर आदर- खेह से लिया था। गौरी को सेठ एकमात्र बहिन मानता था। उसकी पढ़ाई-लिखाई स्वास्थ्य सभी बातों की चिन्ता करता। अब सेठ आता तो उसका ध्यान उषा की ओर उसी से फुसफुसा गौरी से सिर्फ उड़ती- उड़ती बात सप्ताह बीतते रहस्य-भेद' 'हाय, ये अमर भैया से व्याह करेगी! उपा के प्रति गौरी का भाव बदल गया। गौरी को ईसाइन की घिनौनी आदतें और बेहवाई अखरने लगी। हरि भैया ने आँगन में नल के समीप नहाने धोने के लिये सिर बराबर ऊँची पतली दीवार से कुछ जगह घिरवा दी श्री भाभी और गौरी वहाँ नहाती तो भी अभ्यास और संस्कारवश धोती पहने रहतीं। नहाने से धोती भी धुल जाती। धोती पहने हुए नहाने की बात उपा के लिये अचम्भा गौरी को उसकी बिना धोती नहाने की बेशर्मी पर विस्मय और घिन हाय राम, नंगी नहाती है! नहाकर फिर वही पहले पहने पेटीकोट धोती नहाना क्या हुआ! लोटा-गिलास कहाँ रख दिया। हाथ धोये बिना पड़ा-गागर छू लेती है। जब देखो, हाथ धोने के लिये साबुन चाहिये। जो आये (अमर के साथ नरेन्द्र वा रज़ा) सबसे हँसने-बोलने की ललका आँचल सिर पर टिकता ही नहीं।
गौरी को क्षोभः ये घर की भागी ईसाइन। अमर भैया इतने बड़े घर खानदान के, इससे ब्याह करेंगे! होगी पढ़ी-लिखी हवा-हैसियत भी कोई चीज होती है। इक्कीस बाईस की धींग। सीधे लच्छन होते तो अब तक ससुराल में न होती। फरफन्दी कहीं की, भोली बनती है। अमर भैया स्वयं सीधे, सबको सीधा समझें। इसके छल में आ गये। माँ-बाप को धत्ता बता आयी, दूसरों को क्या गिनेगी। भैया (हरि भैया) जाने कैसे इसे भली मानकर ले आये, भली कहे जा रहे हैं। काका (सेठ जी कभी नहीं मानेंगे। पर जब काका ने भी मुँह बन्द कर लिया, गौरी क्या बोलती परन्तु उसकी भावना उपा से कब तक छिपती।
अमर उपा का ब्याह हो गया। गौरी अमर की बहिना भाभी जैसी भी थी, गौरी को भैया के गृहस्थ और सुविधा का ध्यान रखना था। नार्मल स्कूल से लौटते समय तीसरे चौथे सेठ के यहाँ जाकर भाभी और परसू को समझा बता देती और अमर भैया से हालचाल पूछ लेती। सी० टी० की परीक्षा के बाद फुर्सत थी। दोपहर से पहले या धूप डलने पर भैया के यहाँ हो आती उषा पति के अनुकरण में उसे जीजी कहती थी पर उसे गौरी का व्यवहार रूखा लगता, जैसे उससे खिसियाई हो । गौरी अमर से बहुत आत्मीयता से बोलती। उषा ने दो बार, • पहले केवल संकेत से फिर पति से स्पष्ट, जीजी के व्यवहार के बारे में कहा। सेठ ने पहली बार टाल दिया फिर समझाया, "जीजी तुमसे क्यों नाराज होंगी। तुम्हें गलतफहमी हुई।" उषा खीझ गयी।
सेठ ने आरम्भ में ही उपा को बता दिया था हमारे विवाह में पिता को घोर विरोध होगा। उषा के माता-पिता को भी घोर विरोध। वे सब विरोधों के बावजूद अपनी समझ और विश्वास से चले थे। उषा को ससुर से आत्मीयता और वात्सल्य की आशा न थी । आरम्भ में सेठ जी उनके यहाँ न आते। अमर घर हो आता पर ससुर की कृपा छिपी न रही। हरिया आवश्यक रसद तेल, दूसरी चीजें, कभी साग-सब्जी, फल-वल भी दे जाता । परसू जो जरूरत समझता, छोटी गली से ले आता।
सेठ जी ने इल्मदीन कम्पाउण्डर को नौकर रखकर प्रैक्टिस का पूरा सरंजाम कर दिया तो कभी सुबह साढ़े नौ दस के लगभग या सूर्यास्त पश्चात पूछताछ कर जाते। इक्के पर आयें या पैदल, चारदीवारी की फटकिया से परसू को ऊँची पुकार फटकिया लाँघकर दूसरी पुकार, "मियाँ इल्मदीन" डिस्पेन्सरी या बरामदे में खड़े चार-पांच मिनट में स्थिति का अनुमान कर लेते। भीतर के दरवाजे से आँखें फिराये। बहू के बारे में कोई पूछ-ताछ नहीं है या नहीं, कहाँ कैसी है।
उषा दुविधा अनुभव करती। ससुर के व्यवहार से उनकी भावना में परिवर्तन स्पष्ट था। उस भावना की उपेक्षा तिरस्कार। पति से राय ली, "चच्चा आते हैं तो हम आदर नमस्कार के लिये बाहर जायें या नहीं?"
अमर ने राय दी, "तुम्हारी भावना उचित है परन्तु उनके अपने संस्कार भावनायें हैं। एक बार आजमा लो।" परन्तु उपा को ससुर की स्पष्ट उपेक्षा के कारण उत्साह न हुआ। मई का अन्त। सुबह आठ का समय। उपा को मतली आ गयी। सेठ डिस्पेन्सरी में था। कमरे का पर्दा खींचकर उपा पलंग पर पंखे के नीचे लेट गयी थी। आहट आवाज से गौरी के आने का अनुमान
"परसू क्या रसोई बना रहे हो?" "अरे दौड़ो, दूध उफन जायेगा, इतना भी ख्याल नहीं। नाभी कहाँ है?' 'अभी तक लेटी है। ये क्या तरीका|"
गौरी के कदमों की आहट समीप पर्दा हटा, “भाभी, लेटी हो! क्या बात?"
"जरा तबीयत घिर आयी।"
"भैया से नहीं कहा?" गौरी ने उषा के माथा बाँह छूकर देखे। ध्यान से उषा का चेहरा देखा। कान पर झुककर फुसफुस उषा के चेहरे पर लाज।
"घबराने की बात नहीं। नींबू, इमली मँगा लिया करो। अमिया की चटनी पास रखो।" गौरी का स्वर नरम
गौरी लौटते हुए पहले छोटी गली गयी। बुआ के समीप बैठकर दबे स्वर में बात की।
बुआ के चेहरे पर चमक। गौरी को चेतावनी, "बिटिया, अभी किसी से कहना नहीं जानती हो, कई तरह के लोग ।" संकेत आँगन पार तरीकों की ओर।
सेठ जी जीमने के लिये आये तो गंगा का स्वर उल्लास से गहराया गौरी आयी थी।" सेठ जी के चेहरे पर भी संतोष
सेठ जी बेटे-बहू का ध्यान रखते थे अब और अधिक पाँच सेर खूब महकता अच्छा घी उसी साँझ पहुँच गया। हरिया पहले चौथे छठे मिठाई दे आता था, अब दूसरे तीसरे रबड़ी- बर्फी, मलाई की मिठाई वडिया से बढ़िया फल खरबूजे आम-लीची इतने कि अमर और उषा समास न कर सके। उपा ने भॉप लिया, जीजी से बुआ और चच्चा को सूचना मिल गयी। सब ससुर का प्रसाद। मन ससुर के प्रति आदर कृतज्ञता से उमड़ आया।
उषा ने तीन दिन सोच-सोचकर निश्चय किया। सेठ जी के आगमन की पुकार सुन साड़ी बदल ली। कंधी ठीक की। सिर पर आँचल माथे तक। सहमती- सहमती बरामदे में निकली। सेठ जी की ओर दोनों हाथ जोड़कर आदर से सिर झुका दिया।
सेठ जी ने बहू के सामने आते ही झटके से मुँह फेर लिया। उपा अपमान से चुटिया कर भीतर लौट गयी।
उषा के मस्तिष्क में अपमान की ज्वाला, गले में अपमान के आँसुओं का अवरोधः पति भीतर आया तो शिकायत की, "हम इतने आदर और कृतज्ञ भाव से ""
सेठ ने सान्त्वना दी, "तुमने अपना कर्तव्य निवाहा। उनके संस्कार आदर मन ही रहने दो। प्रकट कर अपमानित होने की जरूरत नहीं।"
तीसरे दिन गौरी आयी तो सहानुभूति की आशा में उषा ने ससुर से अपमान पाने की घटना बता दी।" उनके सामने बहू के कायदे से चला करो।" गौरी खाई से बोली।
उपा क्रोध से फुंक गयी। कहना चाहती थी, बहू के नाते हमने क्या बेकायदी की? अपने कोच ने डर कहीं कुछ और न मुख से निकल जाये। दाँत पीसकर गुसलखाने में नहाने चली गयी। गौरी के लौट जाने का विश्वास होने पर गुसलखाने से निकली।
पति भीतर आया तो उषा चुप न रह सकी, राजे, उस दिन आपने कह दिया हमें गलतफहमी है। जीजी जाने क्यों हमसे नाराज रहती हैं? हमने चञ्चा की बात उनसे कही तो हम को डॉट दिया उनके सामने बहू के कायदे से चला करो! बताइये, हमने क्या बेकायदी की। आपके सामने बोलेंगी, जैसे मुँह में बताना घुल रहा है। पीछे हमसे बोलेंगी खखिया करा हमने उनका क्या दीन निवा?
"हमें तो ऐसा नहीं लगा।" अमर के स्वर से झुंझलाहट का आभास
राजे गलत समझकर नाराज मत हो। हमारा मतलब है कि तुम्हारा सब ध्यान हमने समेट लिया।"
"हम जीजी को खूब जानते हैं। ऐसी बात हरगिज नहीं हो सकती।"
इसके बाद से गौरी आती तो उषा कतरा जाती ।
जुलाई का दूसरा सप्ताह पहला पहरा उपा बैठक में पंखे के नीचे धोबी से लौटे पति के कमीज-पतलून और अपने ब्लाउज में बटन या कहीं उघडी सीवनें ठीक कर रही थी। आहट से फटकिया की ओर देखा। नरेन्द्र की कार से एक महिला उत्तरी आधुनिक ढंग से साड़ी- जूड़ा, आँचल कंधों पर। उसके साथ दूसरी महिला नाड़ी पर चादर ओडे, सिर ढके। कार चली गयी। पहचान लिया, चादर ओते पुष्पा भाभी थी। उषा अगवानी के लिये आधे लान तक बढ़ गयी। डिस्पेन्सरी से अमर भी उठ गया! बड़ी जीजी जयरानी बिना परिचय भी आलिंगन से मिलीं।
उषा को पुष्पा नेहमयी लगी थी। बड़ी जीजी पहली ही भेंट में वत्सल, उदार आत्मीयता पुष्पा मिलती थी काली भर कर परन्तु उसके हाथ से पानी कभी न पिया था। दुविधा में उषा ने पति की ओर झुककर कान में अंग्रेजी में पूछा। सेठ ऊँचे बोल पड़ा "जीजी, ये पूछती हैं तुम उसके हाथ से पानी बानी पी लोगी?"
जयरानी ने उपा को बाँहों में ले लिया, "छोटी, तुम्हारे हाथ का नहीं खायें पियेंगे तो किसके हाथ का आज साथ बैठकर बात करो। पहले तो हम तुम्हारा मुंह मीठा करायें।" जयरानी साथ फल मिठाई की टोकरी लायी थी। मिठाई में से एक टुकड़ी निकाल अपने हाथ से उषा के मुँह दे दी। "अब तुम हमें दो। जयरानी ने पहले ही दाँव में उषा को समेट लिया।
सेठ उठकर बाहर चला गया। तीनों में आंतरिक बातें जयरानी बता रही थी, "छोटी, नरेन्द्र तो एक नकचड़ा। सब में ऐव निकाल दे पर तुम्हें सराहते नहीं अघाता। हमें तो पुष्पी की चिट्टी से अम्मू के व्याह की खबर मिली तो बहुत गुस्सा आया अम्मू और चच्चा पर हंसकर बोली, "हमें खबर ही न दी। हम अम्मू को गोदी में उठाये फिरते थे। बड़ा डाक्टर साहब बन गया। सुना, बच्चा भी तुम्हें बहुत सराहते हैं।"
"नहीं बीबी जी, चचा हमसे नाराज है। हमारा मुंह तक देखना नागवार!" जयरानी की नौवें आधे माथे पर उपा ने बरामदे में जाकर नमस्कार करने की बात बता दी। जबरानी कहकहे से हंस दी, “छोटी, एक बार नहीं चार बार एम० ए० पास कर लो। हमारा रीति-शास्तर अलग से पढ़ना पड़ेगा, अरी, चच्चा खाँसते-खंखारते-पुकारते आते होंगे?"
"तुम्हें चेताने के लिये, घूंघट कर लो या ओट में हो जाओ। तुम पगली चौक चपाट चेहरा खोने चली गयी नमस्कार करने।" पुष्पा की ओर देखा, "तुमने नहीं समझाया इन्हें?" पुष्पा ने सफाई दी, “हमारे व्याह को तो ग्यारह बरस हो गये। अब तक बाबू और चच्चा के सामने मुँह उघाड़े नहीं गये। "
जबरानी ने उषा के सिर पर आँचल रख हाथ भर का घूँघट खींच दिया, "इतना घूँघट ''समझी। इससे कम नहीं। गर्दन झुकाये निधड़क चली जाना। चच्चा के पाँव छू लेना यो घूँघट का छोर धरती पर छुआ देता, बस रोज-रोज भी जरूरी नहीं, कभी-कभार पर्व त्योहार के दिन फिर हमें बताना।"
सप्ताह भर बाद संध्या हलकी बूँदा बाँदी थी। नरेन्द्र मेडिकल कालेज से रजा को लेता आया था। बैठक में चाय और गप्प चल रही थी। तभी सामने सड़क पर इथे की टाप रुकी। अमर कुछ मिनट पहले डिस्पेन्सरी में गया था। परसू को और फिर मियाँ इल्मदीन को पुकार कर सेठ जी छाता ताने भीतर आये। नरेन्द्र और रज़ा उनके आदर के लिये बरामदे में निकले। दो पल में नमस्कार कर लौटे तो चकित। उपा साड़ी के आँचल से सिर ढके एक और खड़ी थी।
उषा ने लम्बा घूँघट खींचकर आँचल सम्भाला और बरामदे में निकल गयी। रजा और नरेन्द्र कौतूहल में दरवाज़े से झकते रहे। उपा घूँघट लटकाये बरामदे में गयी और सेठ जी के पाँव के समीप उकडूं बैठकर पाँव छू लिये।
"बस बस बेटा हो गया।" सेठ जी ने मुंह फेरकर सौभाग्य और वंश-वृद्धि का लम्बा आशीर्वाद दिया। मुख फेर लेने पर भी स्वर वात्सल्य स्निग्ध।
उषा ने कमरे में लौटकर घूंघट और सिर से आँचल हटा लिया। चेहरे पर प्रसन्नता की दमका
बा को रिझा लिया!'' अच्छी, तुम बहुत चंट बधाई।" नरेन्द्र के स्वर में सराहना । उपा अपनी सफलता से गद्गद
रज़ा भाई साहब, आपके यहाँ भी ऐसा कायदा है?
"हरगिज़ नहीं। मुसलमानों में किसी के पाँव छूने का कायदा नहीं बस ससुर के सामने मुँह सिर नहीं खोलतीं। झुककर आदाब अर्ज कर दिया जाता है। "
"क्रिश्चियन्स में भी किसी के पाँव छूने का कायदा नहीं घूंघट का भी नहीं ।" उपा कह रही थी। सेठ मरीजों से फुर्सत पाकर भीतर आ गया। चच्चा चार-पाँच मिनट ही ठहरे थे।
"आज तुमने चच्चा को संतुष्ट कर दिया।" सेठ प्रसन्न था, "ये सब करना था तो उसी दिन किया होता। इतने दिन कुढ़ती रही।"
"हमें मालूम होता तो जैसे आज किया, तभी करते।" उषा ने अपना अवसर समझा, "उस दिन बीबी जी और भाभी से अपना दुख कहा। उन्होंने सहानुभूति से हमें समझाया। गौरी जीजी नहीं समझा सकती थी। उन्होंने तो उलटे हमें डॉट दिया।"
"बेचारी गौरी बड़ी जीजी की समझ को पहुंचेगी?" अमर ने टालना चाहा।
"इसमें ऐसी क्या कूटनीति थी! गौरी को अपने यहाँ के रीति-रिवाज नहीं मालूम।" नरेन्द्र ने कहा, "जाहिर इनसे ईर्ष्या या नाराज़गी।"
“क्या बकते हो!" सेठ ने विरोध किया, "ईर्ष्या या नाराज़गी का कारण?"
"कारण अनेक।" नरेन्द्र बहस के लिये तैयार, "माँ-बहिन बेटे भाई को बहू पर अनुरक्त देखें तो ईर्ष्या हो जाये। याद नहीं, हमें भाई की बहू बिन्दो भाभी की तायी और हीरा बहिन कैसे सताती थीं! बेचारी बहुत यत्र सावधानी से खाना बनाये, सास-ननद उसमें ऐव निकाल दें
"सोचकर बोलो।" सेठ ने टोका, "गौरी को तुम जानते नहीं। ऐसी कमीनी नहीं है कि दूसरों के संतोष से ईर्ष्या करे।"
"तुम्हारे बराबर नहीं जानते पर है तो वो इन्सान ऐसा कौन इन्सान जिसे किसी से ईर्ष्या न हो। तुम कहते हो, बहुत उदार सहृदया है। उसे इनसे सहानुभूति क्यों नहीं? कारण, ईर्ष्या ।'' ''नरेन्द्र कहता गया, "सदा उसकी चिन्ता में भागे जाते थे, अब तुम्हें उसके लिये फुर्सत नहीं। ईर्ष्या कैसे न हो!"
उषा ने हँसी छिपाने के लिये हाथ ओठों के सामने कर लिया।
"क्या बेतुकी बातें!" सेठ खिसियाहट से बोला।
"बेतुकी क्या; सही बात! गौरी तुम्हारी मुँहबोली बहिना" रजा को उषा से सहानुभूति,
"कुदरत की लादी हमशीरा नहीं।" दोस्त कहते झिझक इसलिये बहिन पुकार लिया; मतलब वही
सेठ ने खीझकर मुँह फेर लिया। पति से सहानुभूति में उषा बोली, "अच्छा, अब जीजी की बात छोड़िये।"
छोड़ कैसे सकते हैं!" नरेन्द्र ने आँखें दिखायीं, “तुमने उनके विरुद्ध ईप्या की नालिश की है। उसका फैसला होना चाहिये।"
उसी समय वर्षा का जबर्दस्त लहरा रजा कुर्सी पर पसर कर सिगरेट सुलगाने लगा, "इस बारिश में कौन जाता है। भाभी, कुछ चाय-वाय हो जाये।"
चाय-कॉफी का लालच छोड़ो।" नरेन्द्र ने रजा को राय दी, “चलने की सोचो। मियाँ- बीवी दोनों एक हो गये। टूट पड़े तो खैरियत नहीं।"
सेठ चुप रहा। उत्तर दिया उषा ने, "मियाँ बीवी तो सदा एका आपने क्या नयी बात देवी?"
संध्या खाने के बाद सेठ और उपा रिफायेआम क्लब या रोशनुद्दौला की बगल से छतर मंजिल की तरफ कुछ दूर तक टहलने चले जाते थे। उस संध्या वर्षों के कारण न जा सके। सेठ बातचीत से बचने के लिये बैठक में सोफा पर पसर कर सुबह का अखबार देखने लगा।
उपा को पति की उदासी का मीन असह्य समीप की कुर्सी पर बैठकर अमर के माथे पर हाथ रख दिया, "राजे, आप नाराज हो गये। हमें क्या मालूम था, वे लोग बात को इतना खींच देंगे! आपकी जीजी हमारी जीजी नहीं! हम तो चाहते हैं, जीजी हमें अपनी समझें।" "अच्ची, तुम सोचो। गौरी को जया जीजी की तरह समझने-बुझने का अवसर कब मिला! न वैसा संतुष्ट जीवन, न तुम्हारी तरह शिक्षा और संगति से मस्तिष्क के विकास- विस्तार का अवसर । जो व्यक्ति सदा घुटता रहा हो, कभी रूखा भी जान पड़ सकता है। लेकिन हम लोगों से उसका सम्बन्ध शुभकामना की चिन्ता, ममता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। वे लोग मानना ही नहीं चाहते कि भाई-बहिन में उदात्त नेह का सम्बन्ध भी हो सकता है।"
"ठीक कहते हैं।" उषा को मान लेना पड़ा।
अगस्त का चौथा सप्ताह कई दिन वर्षा के बाद आकाश खुला था। स्वच्छ नीले आकाश से आठ बजे ही तीखी चकाचौंध धूप। सेठ- उषा के नाश्ता लेते लेते बाहर तीन चार मरीज आ गये थे। सेठ डिस्पेन्सरी में चला गया था। उपा सबसे पहले पत्र लिखने बैठ गयी। सेठ उषा का पत्र व्यवहार कम ही था। डेढ़-दो मास में चित्रा का पत्र आता पत्र क्या, तीन-चार पृष्ठ की कहानी या चुहल भरी डायरी उपा भी रस ले-लेकर वैसा ही उत्तर लिखती माया घोष का पत्र खास कारण से ही आता था। उसने अपनी चिन्ता के समाधान के लिये एक्सप्रेस उत्तर माँगा था। उषा ने पत्र आरम्भ किया:
"माई डियर माया दीदी, आपका पत्र पाने पर अमर संध्या 'संघर्ष कार्यालय गये थे।"
"डाक्टर सेठ, जरा आइये!” फटकिया के खटके के साथ नाथ शास्त्री की आवाज़ उपा ने झांक कर देखा नाथ और दूसरा व्यक्ति एक बीमार को सहारा देकर फटकिया
से भीतर ला रहे थे। सेठ उस और बढ़ रहा था। बीमार को बैठक में ले आये। उसे सोफा पर बैठाकर सेठ फिर डिस्पेन्सरी में चला गया।
उषा को अनुमान, कोई साथी होगा। बैठक में आ गयी। विस्मय का धक्का है! पाठक का सुडौल, कड़ियल शरीर लगभग कंकाला स्वस्थ, क्लीन शेव, नमकीन, उजला सावला चेहरा कूड़े में पड़े सूखे पत्ते जैसा। कई दिन की हजामत, सिर पर बड़े हुए रूखे उलझे बाल। आँखें लाल धँसी हुई। गाल पिचके दर्द से सिकुड़ी भाँवें। सिर पर देहाती अँगोछा ऐंठकर कसा हुआ। खद्दर का कुर्ता-पाजामा बहुत मैले पसीने की तीखी दुर्गन्ध उषा से नजर मिलने पर पाठक ने अभिवादन का संकेत किया और सोफे पर लेटकर आँखें मूंद लीं।
"पाठक जी क्या हुआ क्या तकलीफ?" उषा ने उसकी ओर झुककर पूछो। सेठ डिस्पेन्सरी से थर्मामीटर ले आया। थर्मामीटर पाठक के मुँह में देकर समीप बैठकर नब्ज़ देखी जुबान, आँखें देखीं। स्टेथिस्कोप से पसलियाँ, सीना टोह कर देखे।
नाथ ने बताया: पेचिश कई दिन से है, आठ-दस दिन से बुखार भी साथी रामराखन सुबह की गाड़ी से लेकर आया है। पाठक इलाज़ के लिये मेडिकल कालेज हस्पताल में दाखिल होना चाहता है।
"क्यों! यहाँ आराम से रहेंगे। देखभाल के लिये हम हैं।" पाठक की अवस्था से उपा का कलेजा मुँह को आ रहा था।
सेठ और उपा दोनों पाठक को बहुत मानते थे।
सेठ ने मेडिकल कालेज में भर्ती का विचार ठीक बताया। वहाँ सीनियर स्पेशलिस्ट डाक्टरों का परामर्श मिल सकेगा। सब जरूरी टेस्ट तुरन्त निःशुल्क हो सकेंगे।
पाठक का सिर दर्द से फट रहा था। अमर ने डिस्पेन्सरी से दो गोलियाँ लाकर उषा को दीं. "आधा गिलास जल से गोलियाँ निगलवा दो।" पंखा तेज कर दिया, ठण्डे जल में कपड़ा भिगो भिगो कर पाठक के माथे पर रखने का परामर्शी सेठ नाथ शास्त्री के साथ फिर डिस्पेन्सरी में चला गया।
औषध और पानी पट्टी के प्रभाव से आधे घंटे में पाठक का सिरदर्द जाता रहा। सेठ ने तेज़ हो जाने से पूर्व उसे हस्पताल पहुंचा देना उचित समझा। उपा ने पाठक के लिये पति धुले हुए कुर्ता-पाजामा निकाल दिये। सेठ और नाथ शास्त्री पाठक को लेकर हस्पताल गये। उपा को अनुमान, माया को पाठक के अस्वास्थ्य की सूचना मिल गयी होगी, इसीलिये व्याकुल माया को आरम्भ किया पत्र पूरा करने लगी, "आपका पत्र पाने पर अमर संध्या 'संघर्ष' कार्यालय गये थे।"
यह पत्र आरम्भ किया था, तभी पाठक आ गया। माया ने वास्तविक स्थिति जानने के लिये उसका भरोसा किया था। उपा को आशंका, दीदी घबरा न जाये लिखा, "पाठक के पेट में कष्ट और कुछ बुखार भी है। कुछ दिन से ऐसी ही स्थिति में थे। अमर का विचार है, समुचित उपचार मेडिकल कालेज में हो सकेगा। स्वयं पाठक भी ये ही चाहते हैं। अमर उन्हें हस्पताल ले गये हैं। आपको तुरन्त सूचना देने के लिये यह पत्र अमर के लौटने से पूर्व लिख रही हूँ। संध्या स्वयं हस्पताल में पाठक की स्थिति देखकर कल सुबह ही फिर लिखूँगी। हम दोनों पाठक को आत्मीय मानते हैं, उनका आदर करते है। निशंक रहें ।" उषा ने एक्सप्रेस टिकट लगाकर परसू को पत्र छोड़ने के लिये स्टेशन भेज दिया।
संध्या उषा सेठ के साथ हस्पताल गयी। साथ दो पुस्तकें लेती गयी थी। पाठक की अवस्था सुबह से बेहतर थी। बातचीत कर सकता था। उषा ने शिकायत की, "आपने माथा दीदी को पत्र क्यों नहीं लिखा? हमने उन्हें सब हाल लिख दिया। वे चिन्ता से बहुत व्याकुल थीं।"
"बीमारी की बाबत क्या लिखता!" पाठक ने कहा, "ठीक हो जाने पर लिखने का विचार था।"
उपा ने रात 'पाठक की अवस्था और स्थिति में सुधार का ब्यौरा लिखकर सुबह ही माया को दूसरा पत्र पोस्ट कर दिया। संध्या पति के साथ फिर हस्पताल गयी। रजा ने नाई बुलवा कर पाठक के बाल छँटवा कर हजामत बनवा दी थी। पेट दरद में आराम था। तीसरे दिन सुबह सेठ- उषा नहाने धोने से निबट न पाये थे कि परसू ने पुकारा, इलाहाबाद वाली बीबी जी आयी हैं।"
माया के चेहरे पर यात्रा की थकान के साथ गहरी चिन्ता की छाप उसे उपा का पत्र दोपहर में मिला था। रात की ट्रेन से चल पड़ी।
माया जल्दी ही नहा-धोकर तैयार हो गयी। सेठ से मोटर साइकल पर हस्पताल पहुँचा देने का अनुरोध किया।
"माया जी, इस समय जाना ठीक नहीं।" सेठ ने समझाया, "यह वार्डों में सफाई और डाक्टरों के राउण्ड का समय है। नर्सों एतराज करेंगी। बैठने नहीं देंगी।"
"हम बैठेंगे नहीं।" माया का कातर आग्रह "बस एक नजर देख लें। विश्वास मानो, दो मिनट से अधिक नहीं ठहरेंगे।" सेठ मज़बूर हो गया। माया को मोटरसाइकल के पीछे बैठाकर ले गया। पन्द्रह-बीस मिनट में दोनों लौट आये।
माया बहुत उदास। उसकी चुप्पी दूसरों के लिये बोझ न बन जाये, इसीलिये बोलती पर अनमनी बात करती तो बार-बार पाठक का प्रसंग, इलाहाबाद में था तो कितना स्वस्थ हैंडसम ! उषा की दृष्टि में पाठक स्मार्ट था परन्तु ऐसा विशिष्ट नहीं। सेठ से पोर भर ऊँचा, स्वस्थ, हैंडसम् परन्तु नरेन्द्र कोहली के बराबर नहीं। माया ने बताया: यूनिवर्सिटी के टेनिस के सेकेण्ड डबल में था। लखनऊ आकर ही दुबला गया था। अब तो हड्डियों का ढाँचा |
"शनिवार उषा को यूनिवर्सिटी जाना जरूरी न था। दोपहर में दोनों एक ही पलंग पर पंखे के नीचे लेटीं। रुद्रदत्त पाठक का प्रसंग: इसके चच्चा की हाईकोर्ट में बहुत अच्छो प्रैक्टिस है। पट्टू के पिता की स्थिति कमजोर। चचा के कोई बेटा नहीं। चच्चा पालिटिक्स से दूर, सरकारपरस्त। यह पालिटिक्स में उलझने लगा तो चञ्चा को नाराज़गी। तभी से इसका मन फट गया। बहुत ब्रिल्लिएंट है। इंगलिश विभागाध्यक्ष भागवत इसका बहुत फेवर करते थे। इसकी पालिटिक्स ने वह भी नाराज़। इसी झगड़े में रिसर्च का स्कालरशिप खो दिया। चाचा ने समझाया, यह झगड़े छोड़कर वकालत कर लो और हमारा काम सम्भाल लो। पट्ट को दूसरी लगन । उन दिनों कम्युनिस्टों के चक्कर में था। इसने न माना। चाचा गुस्से में कह बैठे हमने तुम्हें इसीलिये लिखाया- पढ़ाया कि आखिर में यह रंग दिखाओगे! पट्ट् बहुत आत्माभिमानी। उसने निश्चय कर लिया, चाचा ने जो कुछ किया हो, मेरी कॉनस और ज़िन्दगी तो नहीं खरीद ली। अपनी वकालत सम्पत्ति अपने घर रखें। तब से चाचा के
यहाँ नहीं जाता। लखनऊ आने से पहले 'लीडर' और 'भारत' में अप्रेंटिसी कर रहा था, तब भी चाचा के यहाँ नहीं, कटरे में अपने एक दोस्त के यहाँ रहता था। माया को रात के सफर की थकावट में झपकी आ गयी।
साँझ माया के साथ उषा भी पाठक को देखने गयी। माया को देखकर पाठक के चेहरे पर रौनक माया उसे ममता से बाँहों में ले लेने के लिये आतुर गला भर आने से बोल थे- थे, "तबीयत खराब थी तो हमें क्यों नहीं लिखा। इलाहाबाद आ जाते तो यह हालत क्यों होती।"
पाठक ने टाला, "तबीयत अचानक बिगड़ गयी। यहाँ इलाज़ ज्यादा कायदे से हो सकेगा।" माया कभी पाठक के हाथ अपने हाथों में लेकर सहलाती, कभी उसके बालों में उँगलियों डालकर प्यार करती। उपा को उन दोनों के बीच बैठने से संकोच परन्तु माया को ऐसा कोई बयान नहीं।
उपा उठ गयी, "दीदी, हम डाक्टर रजा के यहाँ गेती भाभी से मिल आयें। रजा के यहाँ से उपा लौटी तो भेंट का समय समाप्त होने को था।
हस्पताल से लौटते समय माया की अधीरता वश में थी। रास्ते में बात चीत का प्रसंग भी बदल गया, घोष मेज़ पर ही बैठा होगा। कहीं जाने का खयाल आया भी होगा तो मेरे बिना कैसे जाये। एक पुस्तक लिख रहा है। दिन-रात उसी में व्यस्ता में न उठाऊं तो शायद मेज़ से उठे ही ना शनिवार साँझ उसे काम नहीं करने देती। कल मुझे न आना चाहिये था। तुम्हारा पत्र मिला तो रह न सकी।"
माया- उषा हस्पताल से पैदल लौटी तो पसीना-पसीना माया फिर नहायी। उषा से पूछा, "तुम्हारे यहाँ लखनऊ का बस होगा, हमें बहुत अच्छा लगता है। भई, बेला के गजरे मंगवा लो तो मजा आ जाये।"
उषा को माया की बेतकल्लुफी प्यारी लग रही थी।
माया नहा धोकर साड़ी बदल, इत्र लगा, जूड़े में गजरा बाँध तैयार होकर बोली, “सुनो नई सेठ और अच्छी, हमें तो अपने घोष की बहुत याद आ रही है। शनिवार हमारा और घोष का सिनेमा का प्रोग्राम होता है। खाना जल्दी खा लें। फिर तीनों दूसरे शो में चलें जो भी पिक्चर हो। तुम दोनों को ही घोष समझ लेंगे ।" कहकहे से हँस पड़ी।
आधी रात सिनेमा से लौटते समय माया फिर घोष के खयाल में बेचैन, क्या मालूम इस समय भी मेज़ पर बैठा होगा! मेरी बाद आ रही होगी तो भन्ना रहा होगा— चली गयी वार से मिलने, हम तड़प रहे हैं।" फिर खिलखिला उठी।
"दीदी क्या बत रही हो।" उषा ने झेंप और झुंझलाहट से टोका।
"उषा, तुम नहीं जानती।" माया बेझिझक होकर बोली, "ऐसे ही कह देती है। मैं भी चिड़ाती रहती हैं। खैर, सोमवार साँझ को शनिवार साँझ बना लूंगी।"
दूसरे दिन दोपहर में माया पंखे के नीचे उषा के साथ लेटी तो अपने और रहस्य बँटा लिये: घोष से उसका लगाव पहले से पाठक से सामीप्य हुआ तो गहरा अनुराग बन गया। समस्या, दोनों से प्रबल अनुराग घोष से विवाह का निश्चय करके वचन दे चुकी थी, परन्तु पाठक से भी प्यार कम नहीं कहना मुश्किल, किससे ज्यादा प्यारा उलझन और सुख का ऐसा उन्माद कि दिल-दिमाग में अंट न सके। बहुत तर्क किये, दो नावों में पाँव रखकर
चलना कैसा सम्भव मन का झुकाव घोष की ओर पर पट्टू को छोड़ना असम्भव ! रविवार साँझ भी उषा माया के साथ हस्पताल गयी। माया पाठक के समीप बैठकर फिर उसी तरह बिह्वल उषा को दूसरे दिन भी गेती के यहाँ चले जाना पड़ा।
माया हस्पताल से लौटकर इलाहाबाद चली जाने के लिये तैयार हुई तो उपा से वचन ले लिया: नित्य साँझ पाठक को देखने जायेगी और दूसरे दिन प्रातः ही पाठक की हालत ब्योरे से उसे लिखती रहेगी।
पाठक की चिन्ता में माया तीसरे ही दिन चौथे पहर मेल से फिर आ गयी। सेठ ने सौजन्य से पूर्ववत उसका स्वागत किया परन्तु उपा से अपनी विरक्ति प्रकट किये बिना न रह सका। स्वयं नित्य पाठक को देख आता था उस संध्या माया उपा हस्पताल गयीं तो उसके जाने की ज़रूरत न थी । माया के प्रति सहानुभूति से उषा सतर्क, पति की विरक्ति माया को खटकने न पाये। माया बृहस्पति दोपहर बाद आयी थी, शुक्र की रात इलाहाबाद लौट जाने के विचार से माया को स्टेशन पहुँचा कर लौटते समय सेठ फूट पड़ा क्या चरित्र है! यहाँ आकर घोष के लिये व्याकुल, वहाँ जाकर पाठक के लिये पागल जैसे दोनों से एक सा सम्बन्ध, दोनों ही पति पति को उल्लू बना रही है।"
पति को उल्लू बनाने का मतलब?" उषा को विस्मय और आपत्ति । "उल्लू बनाना नहीं तो क्या ! क्या दोनों पति हैं? दोनों के लिये समान व्याकुलता । पाठक से उसका लगाव और व्यवहार परिचित या कामरेड का है तो प्रेमी या पति से क्या होगा?"
"अजीब बात कह रहे हैं।" उषा ने विरोध किया, "पति के प्रति उसकी चिन्ता, व्याकुलता आपने स्वयं देखी। पाठक से गहरी मित्रता कह सकते हैं। उसकी बीमारी के कारण उसकी चिन्ता भी संगत।"
"तुम प्रत्यक्ष देखकर भी इन्कार कर रही हो।" सेठ के स्वर में खीझ तुम्हारे विचार से हस्टैण्ड और फ्रैण्ड में कोई भेद ही नहीं? उसने स्वयं नहीं कहा था, घोष कहेगा- अपने बार के पास चली गयी। घोष भी अजीब आदमी जिसे इस पर एतराज नहीं या यह उसकी सुनती नहीं।"
"राजे, आप मजाक की बात को इस प्रकार ले रहे हैं।" उषा ने विरोध किया, "अगर वैसा अनुचित भाव होता, यो निधड़क कह सकती थी?"
"तुम्हें ऐसे बलगर मजाक पसन्द हैं? बलगर मज़ाक बलगर आदमी ही करते हैं।" "राजे आप शब्दों पर जा रहे हैं। भाव क्यों नहीं लेते।" उषा भी नाराज "माया का निधड़क बोलना ही उसकी निश्छलता का प्रमाणा"
"तुम्हारे लिये होगा। हमें तो पसन्द नहीं। "
ताँगे वाले की उपस्थिति के कारण बात अंग्रेजी में हो रही थी। "मज़ाक पसन्द न होना एक बात परन्तु दूसरे की नीयत और आचरण पर लांछन दूसरी बात" उषा ने विरोध किया।
सेठ नाराजगी में मौन हो गया। बात घर पहुंचकर भी जारी रही। "गलत व्यवहार से तुम्हें इतनी सहानुभूति क्यों? गलत बात से सहानुभूति का अर्थ गलत बात को पसन्द करना, उसका अनुमोदन जो चीज पसन्द उसका अनुकरण करने में क्या आपत्ति?"
उषा पति की बात से विस्मित परन्तु चुनौती से बोली, "राजे, आप क्या कह रहे हैं! हमें किस गलत आचरण से सहानुभूति? हमें केवल माया दीदी की मित्र के प्रति चिन्ता से सहानुभूति जिसे आपने स्वयं उदात्त सम्बन्ध कहा था।"
"तुमने उदात्त शब्द की अच्छी आड़ ले ली। सीधी बात मित्रता कहो। अवैध सम्बन्ध भी मित्रता ही होता है। उसके लिए भी लोग हत्या करने और जान दे देने को तैयार हो जाते हैं।
उपा और भी विस्मित, "राजे, किसी पर बिना प्रमाण ऐसा लांछन " दोनों बरामदे में बैठे बात कर रहे थे। सेठ क्रोध में उठकर भीतर चला गया। टेवल लैम्प जलाकर सुबह के अखवार पर नज़र डालने लगा।
उषा के आँसू वह गये। कुछ मिनट में स्वयं को वश कर आँसू पोंछकर बैठक में गयी। पति के हाथ से अखवार छीनकर परे फेंक दिया। टेवल लैम्प गुलकर सोफा के समीप फर्श पर बैठकर पति के सीने में सिर गहा दिया।
सेठ पिघल गया, "अच्छी, ये क्या फिजूल बात!"
उपा फफक उठी, "आपने स्वयं बात की। हम बोले तो दीदी की और साथ ही हमें भी क्या-क्या कह डाला हमें कह दीजिये, हम मुँह सी लेंगे।"
मियाँ इल्मदीन ने आधा अगस्त बीतते-बीतते सेठ जी को सूचना दे दी, दवायें खत्म हो रही हैं। पहली से कुछ ज्यादा खरीदने की राय "अल्ला के करम से मरीज आने लगे हैं। मौसम भी दवा की ज्यादा खपत का आ रहा है।" जैसे रबी और खरीफ की फसलों की कटाई के समय किसानों को व्यस्तता, वैसे ही फागुन चैत और बरसात का अन्त बीमारियों के उभरने और डाक्टरों-हकीमों के लिये फसल के दिन। खासकर बरसात के अन्त में मलेरिया की महामारी। अब बहुत-सी बीमारियों की बनी बनाई दवाइयाँ आ रही हैं। पड़े- लिखे लोग डाक्टरों को पूछे बिना ज़रूरत की दवा ले लेते हैं। तब ऐसा न था। दवायें डाक्टरों के नुसखों पर ही बनती थीं।
मलेरिया आफिस का नाम लोगों ने सुना होगा। मलेरिया कैसा क्या होता था, जवान पीढ़ी के लिये अनुमान कठिन। गरमी में बीमार को दो लिहाफ ओखा देने पर भी भयंकर जाड़े से दाँत बज जाते। तापमान १०४, १०५. १०६. कभी १०७ डिग्री तक और बीमार समाप्त। प्रति वर्ष तीन-चार लाख आदमी मलेरिया में बलि हो जाते। यू० पी० बिहार की तराइयों में मलेरिया के प्रकोप से गाँव के गाँव उजड़ जाते। ऐसी ही कुछ दूसरी बीमारियों के वार्षिक प्रकोप से देश की आबादी सीमित रहती थी।
दुसरे महायुद्ध के समय जब पूर्वी मोर्चे पर लड़ने के लिये लाखों ब्रिटिश और अमरीकन सिपाही इस देश में आये, युद्ध जीतने के लिये मलेरिया को जीतना भी जरूरी हो गया। समस्या थी, सेनायें मलेरिया से बेकाम हो गयीं या युद्ध कार्य में लगे लाखों मजदूर मलेरिया से पड़ गये तो युद्ध कैसे लड़ा जायेगा? उस समय मलेरिया उन्मूलन के लिये हवाई जहाजों से देहातों और जंगलों तक में मलेरिया मच्छर-नाशक दवाइयों की जाती थीं। स्वराज्य के बाद भी पन्द्रह वर्ष मलेरिया उन्मूलन अभियान जारी रहा। तब जाकर देश को मलेरिया से मुक्ति मिली।
सेठ जी व्यस्तता के कारण दवाओं के लिये बोक-फरोशों के यहाँ सितम्बर के दूसरे
सप्ताह में जा सके। थोक- फरोशों ने सब माल रोक लिया था। सहसा हर चीज़ के दाम सवाये, झोड़े। कारण, तीन सितम्बर से यूरोप में युद्ध छिड़ गया था। व्यापारियों ने इक्कीस वर्ष पूर्व पहले महायुद्ध के अनुभव से कमाई का सुअवसर समझ लिया। उस जमाने में यहाँ नये पंचानवे प्रतिशत दवा यूरोप से आती थी। निम्र आर्थिक वर्ग के लोग भी युद्ध के आरम्भ से उत्साहित अब रोज़गार बढ़ेंगे, पैसा बरसेगा भरती होगी। हिटलर मुसोलिनी के पराक्रम की अफवाहें चार-पाँच बरस से फैल रही थीं। लोग अंग्रेजों को गाली देते, 'अब इन मादरचोदों की गाँड में डण्डा होगा।' पहले महायुद्ध में जर्मनी ने इंग्लैण्ड की काफी दुर्गत की थी।
युद्ध सर्वथा अप्रत्याशित ढंग से आरम्भ हुआ। राजनीति की समझ के दावेदार लोगों का खवाल था, ब्रिटेन फ्रांस ने म्युनिख संधि से जर्मनी इटली को पूर्व की ओर बढ़कर समाजवाद और कम्युनिज्म को समाप्त करने का अवसर दे दिया है। जर्मनी और सोवियत में युद्ध अनिवार्य समाचार आया, जर्मनी सोवियत में अनाक्रमण संधि। पोलैण्ड पर पश्चिम से जर्मनी का और पूर्व से सोवियत का आक्रमण जर्मनी और सोवियत ने दो ही सप्ताह में पोलैण्ड को बाँटकर अपनी सीमायें बड़ा लीं। ब्रिटेन और फ्रांस ने कूटनीति में पराजय से बिसिया कर जर्मनी और सोवियत द्वारा झपटे जा चुके निर्बल पोलैण्ड की सहायता के लिये और संसार में प्रजातंत्र की रक्षा के लिये जर्मनी इटली के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी। इस समय एशिया और अफ्रीका में ब्रिटेन और फ्रांस के अधीन अनेक देश भारत की तरह प्रजातंत्रीय अधिकारों के लिये छटपटा रहे थे।
वामपंथी लोग बहुत क्षुब्द: त्रिपुरी अधिवेशन के समय बोस का प्रस्ताव दूरदर्शिता का था। इस समय कांग्रेस को संघर्ष के लिये तैयार होना चाहिये था।
कांग्रेस नेता मीना सबकी नजरें कान गांधी जी की ओर। सप्ताह भर बाद 'हरिजन' में गांधी जी का वक्तव्य आया प्रजातंत्र की रक्षा और निर्बल पोलैण्ड की सहायता के प्रयोजन से युद्ध का संकट उठाने के लिये ब्रिटेन और फ्रांस की सराहना तथा उनसे सहानुभूति परन्तु युद्ध को अन्याय-हिंसा का साधन बताकर युद्ध की निन्दा और उससे सैद्धान्तिक विरोध। पोलैण्ड को नाजी बममार हवाई जहाज़ों और तोपों का सामना अहिंसात्मक असहयोग से करने का परामर्श। जनता भौंचक्क: इस वक्तव्य का व्यावहारिक अर्थ क्या होगा?
कांग्रेस समाजवादियों को कम्युनिस्टों से शिकायतः सोवियत ने निर्बल पोलैण्ड को नाज़ियों के साथ मिल-बाँटकर और फासिस्टों के साथ संधि करके प्रजातंत्र और समाजवाद से दगा किया। कम्युनिस्टों और रायिस्टों का मतः सोवियत ने कूटनीति के अखाड़े में साम्राज्यवादियों को मात देकर उचित किया। साम्राज्यवादियों और नाज़ियों के परस्पर भिट्ट कर क्षय हो जाने से ही संसार में प्रजातंत्र और समाजवाद का भविष्य।
सेठ के यहाँ फिर बहस का अखाड़ा। नाथ, पाठक, सेठ, उपा कांग्रेस समाजवादी नीति
के समर्थक रजा रायवादी; नरेन्द्र और अमित कम्युनिस्टों की ओर से बोलने वाले अमित इंटर के बाद बी० एस-सी० के लिये यूनिवर्सिटी में आ गया था। अब पक्का कम्युनिस्ट | सेठ - उषा को कांग्रेसियों, कांग्रेस समाजवादियों की भाँति विश्वास गांधी जी और कांग्रेस ऐसे अवसर पर निष्क्रिय नहीं रहेंगे। कांग्रेस बहुमत की उपेक्षा कैसे करेगी। प्रातः अखबार आते ही दोनों उस पर एक साथ झुक जाते। सितम्बर के अन्त में कांग्रेस
कार्यकारिणी के प्रस्ताव प्रकाशित हुए। लम्बे मसविदे का अभिप्राय था: यह साम्राज्यवादी युद्ध है। इसका प्रयोजन पराधीन देशों पर साम्राज्यवादी नियंत्रण को दृढ करना है। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता की अनुमति बिना भारत को वृद्ध में घसीट लिया है। कांग्रेस ऐसे बुद्ध से असहयोग करेगी। दूसरा प्रस्तावः ब्रिटेन युद्ध के सम्बन्ध में अपने प्रजातांत्रिक उद्देश्यों को स्पष्ट करे। ब्रिटेन यह स्पष्ट करे कि युद्ध के पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य में भारत की क्या स्थिति होगी? क्या भारत को पूर्ण आत्मनिर्णय का अधिकार दे दिया जायेगा?
जनता दुविधा में यदि ब्रिटेन भारत को पूर्ण आत्मनिर्णय के अधिकार का आश्वासन दे दे तो कांग्रेस का व्यवहार क्या होगा?
कांग्रेस समाजवादी तुरन्त संघर्ष के लिये उतावले, परन्तु कांग्रेस अनुशासन से विवश कम्युनिस्ट कांग्रेसी नेताओं की तुलमुल नीति को पूँजीवाद से सहानुभूति बताकर स्वयं संघर्ष का श्रेय लेने के लिये व्याकुल अक्टूबर के पहले सप्ताह में कम्युनिस्टों ने बम्बई में एक लाख मजदूरों की रैली करके साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध की घोषणा कर दी। देश भर में कम्युनिस्टों की गिरफ्तारियाँ शुरू हो गयीं। अमीनाबाद में तिवारी गिरफ्तार हो गये। जमाल, चेतन फरार। कांग्रेस समाजवादियों को शीघ्र व्यापक आन्दोलन की आशा परन्तु पत्रों में दूसरा ही समाचार कांग्रेस ने असहयोग की घोषणा कर दी थी, परन्तु कांग्रेस के प्रतिनिधि रूप गांधी जी ने प्रस्ताव किया: ब्रिटिश केन्द्रीय विधानसभा में बहुमत (कांग्रेस) का मंत्रिमण्डल बनाकर भीतरी शासन मंत्रिमण्डल को सौंप दे तो कांग्रेस युद्ध में पूर्ण सहयोग दे सकती है। इस प्रस्ताव पर परामर्श के लिये वायसराय से भेंट का अनुरोध किया। उस राजनीतिक अस्थिरता में मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का एलान: मुसलमान कांग्रेस के युद्ध विरोध और असहयोग के समर्थक नहीं है। मुसलमान केन्द्र में हिन्दू (कांग्रेसी) बहुमत के शासन का जी-जान से विरोध करेंगे।
वायसराय ने गांधी जी को उत्तर दिया कांग्रेस का प्रस्ताव अव्यावहारिक है। देश की जनसंख्या के इतने बड़े भाग के विरोध में देश का शासन कांग्रेस को नहीं सौंपा जा सकता।
बाजार, गली-मोहल्लों में लोगों को बुद्ध के अवसर से कारोबार बढ़ाने, लाभ उठाने की चिन्ता। अशान्ति और चिन्ता केवल राजनीतिक बहस में कम्युनिस्टों के फरार और प्रकट में चुप हो जाने से यूनिवर्सिटी में सन्नाटा। कांग्रेस समर्थक और कांग्रेस समाजवादी विद्यार्थी कांग्रेस के संकेत की प्रतीक्षा में उषा को शरीर बोझल लगने के कारण यूनिवर्सिटी जाने में संकोच होने लगा था। सोच लिया था, अक्टूबर में पूजा की छुटिट्यों तक किसी तरह निभ जाये। उस साल दशहरा दिवाली के लिये आधे अक्टूबर से नवम्बर पहले सप्ताह तक छुट्टी रही।
उस संध्या अमित कुछ विलम्ब से लौटा था। खाने के लिये पुकार पर बता दिया जीजी के वहाँ पूरी कचौरी और मिठाई छक कर रखा ली। आज उनकी झोली भरी गयी है। घर में मालूम थी, अमित बहिन के यहाँ जाता रहता है। बेटी मम्मी न आपत्ति करते, न कभी उपा की बाबत कोई जिज्ञासा। देवे चुपके से अच्छी का हाल पूछ लेती थी। अमित ने बेचे को बता दिया जीजी मोटी हो गयी है, पेट ऐसे बढ़ गया है।
"चुप पागल, ऐसे नहीं कहते।" बेबे ने समझाया। बेबे लड़की को देख आने के लिये
सप्ताह भर व्याकुल रह न सकी। मिसेज़ पंडित को सुनाकर कह दिया, "मीतू के साथ अच्छी को देखने जा रही हूँ ।" मिनेज पंडित ने अनसुना कर दिया।
"बेबे जी पैरीपना सेठ ने बेवे का अभिवादन किया।
बेबे ने आशीर्वाद दिया, "जीओ बेटे, रख्ख बड़ियाँ बड़ियाँ उमरों करे। ज्वानियाँ माणो। " उपा बेबे से लिपट कर रोयी। फिर उसके सीने में सिर गड़ा दिया, "बेबे, मुझे तो बड़ा डर लग रहा है।"
"हट कमली (पागल)।" बेबे ने उसे अंक में ले लिया, "डरने की क्या बात मुबारक हो। मैं आती-जाती रहूंगी।" बेबे तीन सप्ताह बाद फिर आयी और फिर जल्दी आने लगी।
सरकार ने कांग्रेस के सहयोग का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो कांग्रेस के सामने सम्मान रक्षा का प्रश्न उस समय अविभाजित हिदुस्तान में ग्यारह राज्य थे। नौ में कांग्रेसी मंत्रिमंडल कांग्रेस ने सरकार पर दबाव डालने के लिये मंत्रिपदों से त्यागपत्र दे दिये। अंग्रेज गवर्नरों ने मंत्रियों के त्यागपत्र तुरन्त स्वीकार कर लिये। विधान सभायें स्थगित कर दी गयीं।
कांग्रेस के मंत्रिपद त्याग देने पर मुस्लिम लीग ने योगेनिजात (मुक्ति दिवस) का उत्सव मनाने की घोषणा कर दी। नगर में मुसलमानों के जुलूस की बहुत बड़ी तैयारी। जगह-जगह मुसलमानों की सभाओं में कांग्रेसी हिन्दू राज में मुसलमानों के दमन के प्रति क्षोभः कांग्रेसी अमलदारी में मुसलमानों को जिस कदर हकतलफी की गयी, वो किसी तरह गवारा नहीं की जा सकती जब तक मुसलमानों की रंगों में एक बूँद भी खून बाकी है, हिन्दू कांग्रेस का राज कायम नहीं हो सकेगा। हम मुहम्मद गोरी, मुहम्मद गजनवी और नादिरशाह के वारिस हैं। हमने इस मुल्क को शमशीर से फतह किया था। मुसलमान इस मुल्क में हिन्दुओं गुलाम बनकर नहीं रह सकते। जब तक सल्तनते वर्तानिया कायम है, हम उसकी वफादार रिआया हैं लेकिन मुसलमान हिन्दू हुकूमत बर्दाश्त नहीं करेंगे ।
कांग्रेसी और हिन्दू चकित। उस समय तक नगर या प्रदेश में मुस्लिम लीग का विशेष प्रभाव न था। नगर के अनेक प्रभावशाली मुस्लिम नेता और रईस बैरिस्टर खलीकुज़ज़माँ, राजा महमूदाबाद, मौलाना हसरत मोहानी, मदनी नदीम साहब वगैरह कांग्रेस के साथ थे। मुसलमानों में मुख्य प्रभाव था 'अहरार पार्टी' का या 'जमायत उल उमेला' का। ये दोनों दल कांग्रेस में सम्मिलित न होकर भी कांग्रेस के सहयोगी संगठनों के रूप में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध कांग्रेस का साथ दे रहे थे। देशभक्ति की पोशाक बद्दर पहनते थे, सत्याग्रह और असहयोग में भाग लेते थे। अब सहसा मुसलमानों का बहुमत मुस्लिम लीग के साथ अब खलीकुज़ज़माँ, राजा महमूदाबाद, कानपुर के मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना मदनी सब लीग में सम्मिलित महीने भर में मुसलमानों की बड़ी संख्या लाल तुर्की टोपी, काली शेरवानी और सफेद पाजामा की मुस्लिम लीगी पोशाक में दिखने लगी। लीग का कार्यक्रम हिन्दू कांग्रेस का विरोध |
मुस्लिम लीग का विराट जुलूस निकला - बहुत उत्तेजक जुझारू नारे। हिन्दुओं के आश्वासन के लिये नगर भर में सशस्त्र और घुड़सवार पुलिस की कड़ी चौकसी। जुलूस को निश्चित रास्तों से चलना पड़ा। पुलिस को कडा निर्देश, कोई झगड़ा न हो सके। द्वेषपूर्ण नारों की पूरी छूट। जुलूस के बाद सब कुछ यथावत परन्तु हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर पूर्वापेक्षा अधिक द्वेषा मुसलमानों को भरोसा, अंग्रेज सरकार उनकी सहायक है। हिन्दुओं को भरोसा, अंग्रेज सरकार उनकी रक्षक के वेवे दिसम्बर के दूसरे सप्ताह उषा को देखने आयी तो वहीं ठहर गयी। डाक्टर सेठ का सब प्रबन्ध चौकस था। उपा तीन दिन पूर्व द्वीन मेरी में चेकअप के लिये हो आयी थी। डाक्टर कमर का आश्वासन था, समय पर हमें ले जाना। गौरी अपना उत्तरदायित्व समझ कर स्वयं ही वहाँ ठहर गयी थी।
खूब जाड़ा। सुबह सूर्य की किरणें कोहरे को बेध न पायी थीं। गौरी ठहरती ठिठुरती छोटी गली पहुंची, "बुआ, काका, बधाई।"
सेठ जी और गंगा समझ गये। उन दिनों लड़की के जन्म दिन पर बधाई का कोई रिवाज न था।
सेठ जी ने आकाश को हाथ जोड़ दिये, "सब उसी का उछाह उल्लास से गला रुंध गया। चेहरे पर दमका बुआ तुरन्त गौरी के साथ चल दीं।
• उपा १९४० फरवरी से यूनिवर्सिटी जाने लगी। कमर पर कुछ भराव आ गया था। सीने पर उभार से अनुपात ठीक हो गया। फिर पूर्ववत चुस्त सुडौल दो मास यूनिवर्सिटी न जा सकी थी। कान्वोकेशन और क्रिसमस मिलाकर महीना भर छुटिट्यों ही थीं। यूनिवर्सिटी न गयी थी परन्तु पड़ने में कठिनाई न थी। सहपाठियों में मुर्तजा सबसे तेज था। वह सप्ताह में एक दिन आकर क्लास में लिये नोट्स उसे दे जाता। बड़ी सहायता थी पाठक की। पाठक ने दो बरस पूर्व इलाहाबाद से इंगलिश लिटरेचर में एम० ए० किया था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में इंगलिश लिटरेचर का स्तर लखनऊ से बेहतर। पाठक स्वयं साहित्य रसिक और प्रतिभावान साहित्य चर्चा या पढ़ाने में रस लेता। सप्ताह में दो बार भी उषा के साथ दो-दो घंटे के लिये बैठ जाता तो यूनिवर्सिटी न जा सकने की कमी पूरी करा देता ।
सेठ की प्रैक्टिस जम रही थी, परन्तु अन्य वामपंथियों की तरह उसके मन में भी कलख स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष का अवसर निष्फल जा रहा है। उस वर्ष मार्च में कांग्रेस अधिवेशन रामगढ़ में होना था।
गांधी जी ने उस वर्ष कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिये मौलाना आजाद का नाम सुझाया था। एम० एन० राय युद्ध की स्थिति में कांग्रेस के सामने नयी नीति का प्रस्ताव रखना चाहते थे। इसलिये राय ने अध्यक्ष पद के लिये चुनाव लड़ा। राय के चुनाव अभियान में राय को वोट देने के बजाये युद्धकाल में कांग्रेस की नीति की भूलों और राव की नीति की तर्क-संगति का प्रचार। रजा पक्का राविस्टा नरेन्द्र पाठक, नाथ उससे बहस करते राय बँटे हुए वामपंथ में और फूट डाल रहा है। गांधी समर्थित मौलाना के मुकाबले उसकी क्या हैसियत क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा!
रजा राय का समर्थन करताः वामपंथ पहले फट चुका। एकता के पाखण्ड के लिये कांग्रेस के सामने सही नीति न रखना कायरता। गांधी और कांग्रेस युद्ध की स्थिति से लाभ उठाने के लिये सरकार को सहयोग देने को तैयार हैं परन्तु अव्यावहारिक शर्तों और माँगों पर कांग्रेस ने अपनी मूर्खता से व्यर्थ में लीग का भूत खड़ा कर दिया। लीग को चुप कराने और युद्ध में सहयोग देकर लाभ उठाने का सही तरीका है, युद्ध-विरोध का व्यर्थ बवंडर
खड़ा न करके अपने दोनों शत्रुओं साम्राज्यवाद और नाजीवाद को अपनी शक्ति समाप्त करने देना और सैनिक शिक्षण प्राप्त करके शासन में सहयोग देकर शनैः शनैः अधिकार उत्तरदायित्व सम्भालते जाना।
राय की बातों को पाठक-नरेन्द्र शेखचिल्ली सपने कहकर हँस देते।
रजा का आग्रहः तुम मानो या न मानो राय की समझ ठीक है। यह युद्ध की आरम्भिक स्थिति है। अन्ततः टक्कर जर्मनी और सोवियत में होगी। तब हमारा अवसर होगा। हमें दूरदर्शिता ने उस अवसर की तैयारी करनी चाहिये। अध्यक्ष का चुनाव राय हार जायेगा, वह कांग्रेस के सामने सही नीति रखने का कर्तव्य पूरा कर रहा है। परिणाम आशानुसार हुआ। राय को केवल दो सौ वोट, मौलाना हजार वोट से जीत गये।
बोस ने कांग्रेस छोड़कर अपना पृथक दल बना लिया था। रामगढ़ में गांधी समर्थक कांग्रेस का अधिवेशन मौलाना आजाद की अध्यक्षता में हुआ। समीप ही बोस समर्थक वामपंथी लोगों का तुरन्त संघर्ष आरम्भ की माँग के लिये अधिवेशन बोस की अध्यक्षता में। अधिवेशन के बाद फिर शैथिल्य
कांग्रेस नेता गांधी जी के निर्देश की प्रतीक्षा में गांधी जी ईश्वरीय निर्देश और प्रेरणा की प्रतीक्षा में अधिकांश कांग्रेसियों का अनुमान, गांधी जी ब्रिटेन पर युद्ध-संकट गहराने की प्रतीक्षा में हैं। युद्ध अभी यूरोप में ही सीमित था। अमेरिका निष्पक्ष रहकर जर्मनी- इटली और ब्रिटेन फ्रांस दोनों को युद्ध-सामग्री और हथियार बेचकर मुनाफा कमाने में व्यस्त था।
गांधी जी के सामने सैद्धान्तिक प्रश्न युद्ध की गतिविधि और भविष्य समझने की भी चिन्ता। कांग्रेस की निष्क्रियता से जनता की सहानुभूति उग्र पथ की ओर बढ़ने की आशंका भी देख रहे थे। कांग्रेसजन को बहुत देर तक बिना किसी कार्यक्रम या आशा के रहने देना उचित न था। गांधी जी ने ईश्वरीय प्रेरणा से युद्ध की हिंसा के नैतिक और सैद्धान्तिक विरोध में शीघ्र ही सत्याग्रह आरम्भ करने की घोषणा कर दी। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने सत्याग्रह के कार्यक्रम तथा संचालन के लिये गांधी जी को डिक्टेटर मान लिया। सत्याग्रह का कार्यक्रम बनने में दो मास लग गये। फिर उसके लिये तैयारी आरम्भ
उस सत्याग्रह के कार्यक्रम में सामान्य बुद्धि के लिये अगम अनेक सूक्ष्मताएँ थीं परन्तु गांधी जी के आदेशों पर तर्क नहीं किया जा सकता था। युद्ध विरोध के लिये सामूहिक सत्याग्रह के बजाय वैयक्तिक सत्याग्रह का आदेश गांधी जी ने उस आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रही का श्रेय संत विनोबा भावे को देना निश्चय किया। तब विनोबा भावे राजनैतिक क्षेत्र में लगभग अपरिचित थे। जनश्रुति थी जनता पर प्रभाव के विचार से कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद का सुझाव था, अजाने विनोबा की अपेक्षा किसी जाने-माने राजनीतिक नेता से सत्याग्रह आरम्भ कराया जाये। गांधी जी का आग्रह, विनोबा ने अधेड आयु तक भी नारी संग नहीं जाना। उससे अधिक पवित्र, नैतिक, प्रभावशाली दूसरा व्यक्ति नहीं हो सकता है।
मौलाना विस्मित। नर नारी की संगति ईश्वरीय विधान और प्रकृति का आवश्यक कार्य। उससे अज्ञान दुर्भाग्य, मूर्खतापूर्ण दुराग्रह या सद्गुण! परन्तु गांधी जी डिक्टेटर थे। सत्याग्रह कार्यक्रम और प्रक्रिया प्रकाशित होने पर उग्रपंथियों और कांग्रेस समाजवादियों ने सिर पीट लिये।
सत्याग्रह आरम्भ करने से पूर्व गांधी जी जान लेना चाहते थे, कितने लोग इस वैयक्तिक सत्याग्रह में भाग लेंगे। देश के प्रान्त प्रान्त, नगर-नगर में सत्याग्रह के लिये तत्पर अहिंसक सैनिकों की सूचियों बनायी जाने लगीं। आन्दोलन हिंसा का मार्ग न अपना ले, इस सावधानी के लिये सम्मिलित हो सकने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को गांधी जी या गांधी जी के प्रतिनिधि की अनुमति पाना आवश्यक था। इस प्रयोजन से सत्याग्रह आवेदन पत्र छपवा लिये गये: युद्ध की हिंसा के सैद्धान्तिक और नैतिक विरोध के अधिकार और सत्य- अहिंसा की मान्यता के लिये वैयक्तिक सत्याग्रह में गांधी जी द्वारा निर्दिष्ट कार्यक्रम के अनुसार भाग लेने की अनुमति चाहता हूँ। मुझे ईश्वर में पूर्ण विश्वास है।" अहिंसक सैनिकों को इस आवेदन पर हस्ताक्षर करना आवश्यक था।
व्यक्ति को सत्याग्रह की अनुमति मिल जाने पर वह जिलाधीश या पुलिस को सूचना दे देता: मैं अमुक तारीख, समय, स्थान पर सत्याग्रह द्वारा घोषणा करूंगा कि हिंसा के कार्य -युद्ध में सहयोग देना पाप है।
उग्र कांग्रेसी, कांग्रेस समाजवादी, कम्युनिस्ट चकित-यह संघर्ष राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिये है?
अप्रैल का अन्तिम सप्ताह पिछले आँगन में सुबह की हलकी धूप आ गयी थी। उपा चटाई बिछाये बेबे के साथ बच्चे को बहलाती उसकी मालिश कर रही थी। डाक्टर भाई! भाभी जी!" सामने बरामदे की ओर से पुकारें। उपा आँचल सम्भाल कर उस ओर गयी। उदय, राम वर्मा और वाजिद थे।
"आओ, आओ बैठो!" उषा ने बैठक की ओर संकेत किया। आठ-दस कांग्रेस समाजवादी नवयुवक अमरनाथ सेठ के निकट परिचित और खास विश्वस्त थे। उदय और राम वर्मा दल के जंघाई मंघाई, उनके साथ छोटी गली के मास्टर जी का छोटा बेटा वेदप्रकाश किसी भी काम या जोखिम के लिये तैयारी अच्छी सूझ-बूझ के नौजवान यूनिवर्सिटी छोड़कर देश के काम में कूद पड़े थे। सेठ के यहाँ उनका अकसर आना-जाना वर्मा, उदय, वाजिद प्रादेशिक कांग्रेस के दफ्तर में पच्चीस मासिक पर काम कर रहे थे।
“भाभी, डाक्टर भाई से काम है।"
उषा ने बताया, डाक्टर रात की गाड़ी से कानपुर गया। साँझ तक लौटने की आशा थी। "डाक्टर भाई नहीं हैं तो भाभी, हरि भैया के यहाँ आप चलिये।" राम वर्मा ने अनुरोध किया, "उनसे हमारी बात करवा दीजिये। मालवीय जी जुल्म कर रहे हैं। गांधी जी क्या डिक्टेटर मालवीय हिटलर के बाप बन गये ।" वर्मा, उदय, वाजिद ने अपनी परेशानी बतायी।
"घबराओ नहीं। ये सॉझ नहीं तो रात की गाड़ी से आ जायेंगे। कल भैया जी से बात कर लेंगे।"
"कल!" उदय बोला, "मालवीय (प्रादेशिक कांग्रेस कार्यालय के मंत्री) हमें आज दोपहर मैं बर्खास्त कर देंगे। आप अभी चलिये, हरि भैया घर से न चल दें।"
हरि भैया आँगन की दीवार की छाया में चटाई पर बैठे चर्खा कात रहे थे। छोटे बेटे
विद्याभूषण को पुकार कर दूसरी चटाई समीप डलवा दी। तीनों युवक बहुत उत्तेजित। एक साथ बौल पड़ते। उषा मौन, लड़के अपनी बात कह लें। हरि भैया के प्रति आदर से उनसे बहसती न थी। हरि भैया शान्ति के संकेत में हाथ उठाया, "एक-एक बोलिये, धैर्य से !"
वाजिद ने शुरू किया, "भैया जी हम आपसे इंसाफ में मदद चाहते हैं। मालवीय साहब हम पर गांधी जी की इन्सट्रक्शन के खिलाफ दबाव डाल रहे हैं। गांधी जी का हुक्म है, इस जाती सत्याग्रह में सब कांग्रेस मेम्बर हिस्सा नहीं ले सकते। सिर्फ खास लोगों को, जिन्हें अहिंसा के मकसद में फेथ है, सत्याग्रह के लिये इजाजत दी जायगी। मालवीय जबरन भरती कर रहे हैं। सत्याग्रह के लिये दर्खास्त पर दस्तखत न करो तो कांग्रेस की सर्विस से डिसमिस "
"भाई मेरे, इसमें दबाव क्या है और गांधी जी के हुक्म के खिलाफ क्या?" हरि भैया चरखा चलाते रहे, "कांग्रेस ने युद्ध-विरोध के आन्दोलन की पूरी जिम्मेदारी गांधी जी पर दी है। आप कांग्रेस मेम्बर, बल्कि कांग्रेस कार्यकर्ता । आप परमिशन कैसे नहीं चाहेंगे!"
"हम परमिशन नहीं चाहते क्योंकि" वाजिद उत्तेजित हो गया। उदय उसकी कोहनी पकड़ उसे चुप करा कर बोला, "भैया जी, गांधी जी ने स्पष्ट कहा है, यह आन्दोलन युद्ध का विरोध नहीं है। आन्दोलन का प्रयोजन युद्ध की तैयारी के रास्ते में अड़चन डालना भी नहीं है। गांधी जी ने साफ कह दिया है कि आन्दोलन का प्रयोजन युद्ध के संकट में फँसे ब्रिटेन की कठिनाई से लाभ उठाकर आजादी की माँग करना भी नहीं है।" उदय ने एक-एक शब्द पर जोर दिया, "आन्दोलन हिंसा के सैद्धान्तिक विरोध के नैतिक अधिकार के लिये है, युद्ध विरोध के लिये नहीं गांधी जी ने इस आन्दोलन को सत्य-अहिंसा के प्रचार के लिये नैतिक अधिकार का आन्दोलन कहा है। कांग्रेस सत्य-अहिंसा के प्रचार के लिये नैतिक अधिकार के आन्दोलन का संगठन नहीं, स्वराज्य प्राप्ति के राजनैतिक आन्दोलन का संगठन है।"
"मूलतः लक्ष्य एक ही है।" हरि भैया ने समझाने के लिये चर्खा रोक दिया, "अहिंसा के नैतिक अधिकार की मान्यता हमें उसी ओर ले जायेगी। "
"भैया जी " वर्मा ने हाथ जोड़ दिये, "हमें गांधी जी के शब्दों पर विश्वास है। गांधी जी ने कहा है. यह आन्दोलन कांग्रेस के लक्ष्य स्वराज्य का आन्दोलन नहीं है। आपको याद है, १९३४ में भी गांधी जी ने ऐसा प्रस्ताव कांग्रेस कार्यकारिणी में रखा। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने उसे अस्वीकार कर दिया था। इस दृष्टि से अब आन्दोलन कांग्रेस का नहीं, गांधीवाद का है। कांग्रेस का आन्दोलन चलाइये, युद्ध के वास्तविक विरोध का आन्दोलन, उसमें हम सबसे आगे होंगे। हमें सत्याग्रह करने की आज्ञा माँगने के लिये मजबूर क्यों किया जाये। साफ कहिये हमारा आर्डर है स्वराज्य के बजाय सत्य अहिंसा का लक्ष्य मानना होगा। हम सोच लेंगे, हमें क्या करना है। "
"यह नॉनवायोलेट फासिज्म है!” बाजिद उबल पड़ा। उषा मौन गम्भीर बनी रही। यह बातें लड़कों ने सप्ताह पूर्व सेठ, पाठक, नरेन्द्र और स्वयं उससे सुनी थीं।
हरि भैया ने सिर और दोनों हाथ हिलाये, “मूलतः यह स्वराज्य का ही आन्दोलन है। सत्य अहिंसा का मतलब सबकी स्वतंत्रता है। सबकी स्वतंत्रता ही सबका स्वराज्य है। सत्य- अहिंसा के बिना स्वराज्य असम्भव ।"
"साहब, ये कैसी सत्य-अहिंसा और क्या आन्दोलन की सिंसेरिटी?" वाजिद क्षोभ न रोका सका, "गांधी जी कहते हैं, सत्य-अहिंसा के लिये सत्याग्रह इतवार और सरकारी छुट्टी के दिन सस्पेंड रहेगा। सरकारी छुट्टी के दिन सत्य-अहिंसा से भी छुट्टी ?
“इतवार ख़ुदा ने आराम के लिये मुकर्रर किया है।" उदय ने कहा, मुद्रा बहुत गम्भीर हरि भैया कनखी से देख चुप रहे। उपा नजर बचाये रही।
वाजिद ने क्षोभ से कहा, "सरकारी छुट्टी के दिन सत्याग्रह मुल्तवी । जाहिर है, अंग्रेज अफसरान के आराम और तफरीह में खलल न पड़े। गांधी जी की नजर में इतवार के दिन अफसरों के शराब पीकर नाच सकने और चिड़िया का शिकार कर सकने की अहमियत सत्य-अहिंसा से ज्यादा। अफसरों के शिकार में खलल उनके साथ हिंसा हमसे फार्म पर जबरन दस्तखत करवाना हिंसा नहीं
हरि भैया गम्भीर मौन
"भैया जी हमें तो इसमें सीरियस आवजेक्शन है।" उदय ने आपत्ति की, "हम नास्तिक हैं। हमें शक्ति और साहस के लिये अल्ला-ईश्वर की जरूरत नहीं। गांधी जी की शर्त कांग्रेस संविधान के खिलाफ है। हमसे ईश्वर में पूर्ण विश्वास का झूठ बुलवा कर हमारे आत्म- सम्मान की हिंसा क्यों की जाये। भगतसिंह और उसके साथियों में आत्मबल, शक्ति और साहस था या नहीं? उन्होंने फांसी के तख्ते से अल्ला-ईश्वर को याद नहीं किया, केवल 'साम्राज्यवाद का नाश हो, इन्कलाब जिन्दाबाद, संसार के मजदूरों एक हो' के नारे लगाये। उन्हें ईश्वर में पूर्ण विश्वास की जरूरत नहीं थी।"
हरि भैया ने स्वीकार किया, "नहीं भैया, नास्तिक कोई नहीं है। जिसमें न्याय के लिये अन्याय के विरुद्ध बड़े होने का साहस है, आत्मबल है, वह आस्तिक ही है।"
“भैया जी, मुझे तो आज्ञा दीजिये।" उषा उठने को हुई। स्पष्ट था, हरि भैया से सहायता की आशा न देखकर लड़के उन्हें खिझा रहे थे। उसे हरि भैया के सामने धृष्टता पसन्द न थी। लौटते समय रास्ते में उषा ने लड़कों को डाँटा, “गये थे भले आदमी से मदद लेने, वहाँ लड़ने लगे। फिजूल अपना और मेरा समय बर्बाद किया। अब भैया जी मुझसे भी बिगड जायेंगे कि ऐसे लोगों को ले गयी।"
“भाभी, आप किस रिएक्शनरी की चापलूसी में पड़ी हैं।" उदय बोला, "अब ये अन्याय से लड़ने के लिये हंगर स्ट्राइक करने वाले हरि भैया नहीं है। अब ये कांग्रेस का अंग है। देख लीजिये, लिस्टें बनाकर गांधी जी को और खुद को धोखा दे रहे हैं। देहात से भरती किये पेशेवर सत्याग्रहियों का क्या, बाहर कांग्रेस की रोटी खायेंगे, जेल जायेंगे सरकारी रोटी खायेंगे। सरकार भी हकीकत जानती है। तभी इन धमकियों से निश्चित।"
..संध्या सेठ कानपुर से लौट हाथ-मुँह धो रहा था कि कानपुर का समाचार जानने के लिये पाठक आ गया। उषा चाय बना लायी शिकायत की आज सुबह ही वर्मा, वाजिद, उदय आ गये हमें हरि भैया के यहाँ ले गये। लड़के परेशान मालवीय जी उन्हें नौकरी से बर्खास्त करने की धमकी देकर वैयक्तिक सत्याग्रह की एप्लिकेशन पर सिगनेचर करवा रहे हैं। लड़कों ने बहुत बका सका। भैया जी हम पर नाराज होंगे।
पाठक ने टोका, "आप फिजूल लड़कों के कहने से गयीं। ऐसी बात के लिये राय ले लेनी चाहिये। मालवीय किसी को बर्खास्त नहीं करेंगे। वह तो केवल गांधी जी को संतुष्ट करने के
लिये एप्लिकेशन इकट्ठा कर रहे हैं। मालवीय को खुद शक, यह सत्याग्रह होगा कैसे?" युद्ध पर कांग्रेस के असहयोग का विशेष प्रभाव न पढ़ रहा था। कांग्रेस का असहयोग केवल प्रतीकात्मक था। सरकार को बुद्ध के लिये सिपाही, मजदूर, गल्ला, कपड़ा सब सामग्री प्रचुर मात्रा में निर्बाध मिल रहे थे। सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार प्रतिदिन पाँच हजार व्यक्तियों की भर्ती सैनिक कामों के लिये हो रही थी। स्वयं गांधी खद्दर भंडार बाजार में न खूप सकने वाले करघे पर दुने कम्बल सेना के घोड़ों खच्चरों के लिये अच्छे दामों पर सेना को बेच रहा था। सरकार को आन्दोलन की कोई आशंका न थी। कांग्रेस और गांधी जी में ही सहमति नहीं तो आन्दोलन कैसा? प्रजातंत्र या बहुमत के नाम पर शासन के अधिकार की माँग के लिये कांग्रेस को जवाब में मुस्लिम लीग के विरोध का मोहरा ।
उषा ने एम० ए० कर लिया था। टीचर या लेक्चरार के रूप में आत्मनिर्भरता उसकी पुरानी इच्छा थी । उषा, सेठ, नरेन्द्र पाठक, रज़ा में इस विषय पर विचार हुआ। उन लोगों की राय, उपा को अवसर और सुविधा है। वह टीचरी के बजाय पी-एच० डी० के लिये रिसर्च करे। पाठक का विशेष आग्रह, यूनिवर्सिटी और स्टूडेण्ट यूनियन में दल के भरोसे का एक व्यक्ति रहना उपयोगी होगा।
डाक्टर कमरुन्निसा की राय से उषा ने पप्पू का ब्रेस्ट फीडिंग जून से घटाना शुरू कर दिया था। जुलाई तक बिल्कुल समाप्त लड़का खूब स्वस्थ था, गोल-मटोल, पिता और माँ से खुला गोरा रंग, कत्थई सुनहरे बाल बेवे कहती थी, नानी पर गया है। उपा का विचार यूनिवर्सिटी खुलने पर अंग्रेजी साहित्य में पी-एच० डी० शोध कार्य के लिये यत्र करेगी। बेबे पप्पू के जन्म के समय आयी तो महीना डेढ़ महीना रही इतने छोटे बच्चे और अनजान लड़की को छोड़कर कैसे चली जाती परन्तु दसवें पन्द्रहवें सांती, पद्दों और सद्दू को देखने की हुड़क उठ आती तो तीन-चार घंटे के लिये बालाकदर हो आती। मिसेज़ पंडित का मौन एक तरह से अनुमति। मिसेज़ पंडित के पूछे बिना ही अच्छी और काके का हाल- चाल बताती रहती। अकसर सेठ के स्वभाव की सराहना भी उपा के यहाँ सभी चीजों की इफरात जब बेबे कह देती, "पप्पू का रंग तेरा जैसा चिट्टा "सिर के बाल बिलकुल तेरे जैसे।" मिसेज़ पंडित होंठ दबाकर आँसू रोक लेती।
जुलाई में पप्पू सात मास का हो गया था। रेंगने का यत्र करने लगा। ग्रीष्मावकाश बाद यूनिवर्सिटी खुलने से पाँच-सात दिन पहले बेबे निश्चय से अपनी गठड़ी-मुठड़ी समेट कर तैयार हो गयी, धिये, आज मैं जा रही हूँ।" उपा का मुँह फूल गया। वेवे ने कहा, "कुछ अकल कर! कोई बेटियों के घर सदा नहीं बैठा रहता।"
उषा ने पप्पू को उठाकर बेबे की गोद में डाल दिया, रुआँसी आवाज में लड़ पड़ी, "तो इसे भी ले जा! मैं इसके पीछे-पीछे दौड़ेंगी कि कालिज जाऊँगी ?"
"क्या बात है माता जी?" मेठ डिस्पेन्सरी से भीतर आ गया। उषा के बहते आँसू देखे । बेबे के समझाने का स्वर भी सुना था। सेठ बेबे को कभी वेवे जी पुकारता था कभी माता
जी।
उषा नाराजगी से मुँह फुलाये मौन बेबे ने पंजाबी उच्चारण की हिन्दी बोल सेठ को समझाया, "काका जी, अच्छी तो सदा से जिद्दी । तुम समझदार तुम्हीं बताओ बेटी के घर कोई कब तक बैठा रह सकता है।"
"माता जी, आप भी क्या बात करती हैं?" सेठ देवे के समीप फर्श पर ही बैठ गया. "आप अच्छी की माँ हैं, मेरी माँ नहीं? मुझे बेटा पुकारती है तो क्या दिन में नहीं मानती अच्छी की माँ बालाकदर में मेरी मां तो आप ही पप्पू आपके बिना कैसे रहेगा? उसे नींद ही आपकी गोद में आती है।"
देवे ऐसी कूटनीति का क्या उत्तर देती ! उस समय जाना टल गया तो टल ही गया। हर रविवार दोपहर बाद चली जाती। संध्या पर उसे लिवा लाता।
युद्ध चलते लगभग छः मास हो रहे थे। विदेशों में भागे हुए भारतीय क्रान्तिकारियों की आवाजें, जर्मन और इटालियन रेडियो पर सुनाई देने लगी थी। इन आवाजों के उच्चारण, भाषा, मुहावरे ने उनके भारतीय होने में सन्देह की गुंजाइश न थी। प्रौड लोग कुछ आवाजों को पहचान सकते थे। ये रेडियो भाषण, सभा मंच या पत्रों पुस्तकों में छपने वाली शैली में न होते। गली, बाजार खेत, सड़क, फैक्ट्री में बोली-मुनी जाने वाली लोग बाग की बोली में होते। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बगावत के लिये, जनता में अंग्रेजों की प्रति घृणा और क्रोध भड़काने के लिये अंग्रेजों और सरकारी अफसरों को बन्दर, सुअर के बच्चे, कुत्ते के पिल्ले, हरामजादे कहकर माँ-बहिन की गालियाँ दी जाती। सर्वसाधारण पर इन भाषणों का बहुत प्रभाव पड़ता। इन भाषणों में अंग्रेजों की बदकारियों, दगाबाजी और बुजदिली को बड़ाकर याद दिलाया जाता। युद्ध में अंग्रेजों की पराजय, दुर्गति, असामर्थ्य और कायरता के अत्युक्तिपूर्ण या काल्पनिक दर्शन होते।
"भारतीयों को ललकारा जाता: गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का वक्त आ गया। चेतावनी दी जाती— अपने बुजदिल समझौतापरस्त, अंग्रेजों के खुशामदी लीडरों के बहकावे में मत आओ। हिंदुस्तानी सिपाही तुम्हारे भाई हैं। उनकी आँखें खोलो। उनसे ताल्लुक कायम करो। फौजें तुम्हारी तरफ से पहल की इंतजार में हैं। अंग्रेजों को खत्म किये बिना हिन्दुस्तान की आजादी नामुमकिन अंग्रेजों की जंगी ताकत की कमर तोड़ने के लिये सब जगह हड़ताल करके जंगी सामान का बन सकता और सरकार को कच्चा माल, गल्ला मिल सकना नामुमकिन कर दो। तार, डाक, रेल को खत्म कर दो। तब आजकल की तरह मामूली लोग भी ट्रांजिस्टर रेडियो नहीं लिये फिरते थे। लोग छिप-छिपकर ये ब्राडकास्ट सुनते और उन्हें बड़ा-चढ़ाकर दूसरों को सुनाते विदेशी दमन के प्रति जनता का स्वाभाविक क्रोध और घृणा भीतर-भीतर बड रहे थे।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री की नीति यूरोप में नाजियों को रोक न सकी। इस कारण ब्रिटिश जनता में बहुत क्षोभ परिणाम में चेम्बरलेन सरकार गिर गयी और प्रधानमंत्री ब्रिटेन का लौहपुरुष चर्चिल बन गया था।
चर्चिल कट्टर साम्राज्यवादी और ब्रिटेन के अधीन देशों में दमन से शासन का समर्थक चर्चिल के प्रधानमंत्री बन जाने से भारत में दो प्रकार की प्रतिक्रियाः सरकार की ओर से किसी प्रकार की नरमी या समझोते की आशा समाप्त और कठोर दमन नीति की सम्भावना। दूसरी कल्पना, चर्चित की उग्रनीति के कारण ब्रिटेन बुद्ध में गहरा उलझेगा और ब्रिटेन की स्थिति अधिक नाजुक होगी। संघर्ष के लिये अनुकूल अवसर की सम्भावना जून, १९४० में एक और अप्रत्याशित घटना जर्मनी ने म्यूनिख संधि के विरुद्ध, पलट
कर पश्चिम में फ्रांस पर आक्रमण कर दिया। फ्रांस की पूर्वी सीमा पर सुरक्षा के लिये मैजिनो लाइन मोर्चे के अभेद्य होने की ख्याति थी। वह मोर्चा अपनी जगह खड़ा रह गया था। जर्मन सेनायें उत्तर में हॉलैण्ड से फ्रांस में घुस आयी थीं। पन्द्रह दिन में आधे फ्रांस पर जर्मन सेना का अधिकार। जर्मनी इटली ने पश्चिम एशिया और अफ्रीका में ब्रिटेन और फ्रांस के उपनिवेशों पर भी हमले बोल दिये।
फ्रांस पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति का केन्द्र और स्तम्भ! उदार राजनीतिक विचारधारा का गुरु नेहरू, मौलाना आजाद राजगोपालाचार्य और अन्य कांग्रेस नेता थरथरा गये। प्रजातंत्र, सभ्यता और संस्कृति के लिये विश्वव्यापी खतरा यूरोप के उत्तरी भाग बेल्जियम, डेनमार्क, हॉलैण्ड, नार्वे पर जर्मनी मई से पूर्व अधिकार जमा चुका था। ब्रिटेन जर्मनी की दूरमार तोपों और हवाई जहाजों की जद में गांधी जी ने फ्रांस के कुचल दिये जाने पर हार्दिक समवेदना प्रकट की। ब्रिटेन पर संकट गहरा जाने के लिये घोर चिन्ता और सहानुभूति। वे ब्रिटेन को मन-वचन-कर्म से सभी प्रकार की सहायता देने के लिये आतुर हो गये, परन्तु युद्ध के हिंसात्मक प्रयत्न में सहयोग न दे सकने की मजबूरी।
गांधी जी ने मित्र राष्ट्रों से अपील की यह विनाशकारी युद्ध मानवता का अन्त कर देगा। युद्ध तुरन्त समाप्त किया जाये। यदि मित्र राष्ट्र स्वीकार करें तो शान्ति के प्रयन के लिये उनकी तुच्छ सेवा प्रस्तुत है। गांधी जी के विचार में विश्व को युद्ध के विध्वंस से बचा सकने का एकमात्र मार्ग उनका सत्य अहिंसा का सन्देश।
कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने नयी स्थिति पर विचार के लिये पूना में अधिवेशन किया। नाज़ीज्म और फासिज्म के अन्तर्राष्ट्रीय आतंक और संसार में प्रजातंत्र, सभ्यता और संस्कृति पर संकट की गम्भीर स्थिति की चिन्ता से ब्रिटेन को पूर्वापेक्षा नरम शर्तों पर बुद्ध में जन-धन की पूरी सहायता देने के प्रस्ताव पर विचार किया गया।
समाजवादी नेता आचार्य नरेन्द्रदेव इस प्रस्ताव के विरुद्ध थे। उन्हें संसार में प्रजातंत्र सभ्यता-संस्कृति की रक्षा की चिन्ता थी परन्तु अपने देश के लिये भी प्रजातंत्रात्मक आत्मनिर्णय का अधिकार वे आवश्यक समझते थे। आचार्य जी का आग्रह था, उस पर अधिकार और शक्ति के बिना हम स्वयं असहाय है; दूसरों को क्या सहायता देंगे। हम सहायता देना चाहते हैं, बलि के पशु नहीं बनना चाहते।
जवाहरलाल नेहरू के लिये नाज़ी और फासिस्ट आक्रमण का प्रतिरोध आवश्यक, प्रजातंत्र सभ्यता-संस्कृति की रक्षा आवश्यक, देश के लिये प्रजातंत्रात्मक आत्मनिर्णय का अधिकार भी आवश्यक। वे सब लक्ष्यों के समन्वय के लिये परेशान पटेल, मौलाना आज़ाद, राजाजी परिस्थिति से लाभ उठाने के लिये उत्सुक उनके आग्रह से प्रस्ताव पास हो गया।
गांधी जी इस प्रस्ताव से असहमत थे। उनका विचार था, यदि कांग्रेस इस परिस्थिति में कर्तव्य भावना से युद्ध में सहायता देना उचित और नैतिक समझती है तो ऐसी सहायता का मूल्य माँगना अनैतिक है। सहायता बिना मूल्य और शर्त दी जानी चाहिये। पटेल का उत्तर, यदि युद्ध में सहयोग सहायता देना उचित और नैतिक है तो उस सहायता सहयोग का मूल्य लेना भी अनैतिक नहीं।
ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के प्रस्ताव की ओर ध्यान नहीं दिया। गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में मतभेद के कारण युद्ध की हिंसा के नैतिक विरोध के अधिकार के
लिये वैयक्तिक सत्याग्रह भी स्थगित रहा।
उपा पी-एच० डी० के शोध कार्य के लिये रूप-रेखा तैयार कर रही थी। सप्ताह में एक- दो बार यूनिवर्सिटी जाती, अपने गाइड से परामर्श के लिये वा लाइब्रेरी में नोट लेने के लिये। जुलाई, ४० से ही सेठ के वहाँ लोगों का आना-जाना बहुत कम हो गया था। नरेन्द्र केवल शनि या रवि संध्या आता। रजा दसवें पन्द्रहवें वह अपने एम० एस० के काम में बहुत व्यस्त था। अधिकांश प्रसिद्ध कम्युनिस्ट उम्र बुद्ध-विरोध के कारण जेलों में थे, शेष फरार अमित पार्टी में संवाद-सूत्र का काम करता था, इसलिये अपनी ओर ध्यान आकर्षित न करने के लिये बहुत सावधान। सेठ के यहाँ अधिक न जाता सिन्हा, नाथ, शाखी, त्यागी वगैरह सेठ के यहाँ कम ही आते।
उषा जानती थी मेठ, पाठक और गोपाल कांग्रेस समाजवादी पार्टी से निराश हो गये थे कि ये लोग कांग्रेस के अनुशासन में रहकर उग्र नीति के लिये बार-बार पुकार से अधिक कुछ न करेंगे। इनसे बेहतर तो रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के मुट्ठी भर लोग, जिनका जैल से छूटे पुराने क्रांतिकारियों से सम्पर्क था।
सेठ के यहाँ अब कभी-कभी आगरा के रावत, श्याम माथुर, जौहर आ जाते। उपा कांग्रेस की भीतरी दलबंदी भी समझने लगी थी। यह लोग स्वर्गीय मोतीलाल नेहरू के अनुयायी थे, सिद्धान्तों के अगले से निरपेक्ष, समयानुकूल सामरिक नीति के समर्थक इन्हीं लोगों ने १९३१ में सरकार पर नमक सत्याग्रह का विशेष प्रभाव पड़ता न देखकर यू० पी० के देहातों में लगानबंदी आन्दोलन से सरकार के लिये परेशानी पैदा कर दी थी और जगह- जगह रेल-तार व्यवस्था को बिगाड़ देने के भी प्रयत्न किये थे। अब इन लोगों के मुखिया के किदवाई साहब, आगरा के पालीवाल और मालवीय इन्हें सत्य-अहिंसा, सत्याग्रह से कोई सैद्धान्तिक लगाव न था परन्तु प्रकट में सदा कांग्रेस के साथ
सेठ के यहाँ के लोगों का आना बहुत कम हो गया परन्तु सेठ का बाहर जाना बहुत बड़ गया। पहले उसे सप्ताह में दो-तीन बार लोग मरीज देखने के लिये बुला ले जाते थे। अब प्रतिदिन एक-दो कॉल। डिस्पेन्सरी के टाइम में आकर सन्देश देकर पता बता जाते। अमर रात में खाने के बाद अकसर चला जाता. कभी सुबह मुंह अंधेरे कहीं चला जाता। मोटर- साइकल के बजाये पैदल या इक्का ले लेता।
उषा भाँप रही थी गुपचुप कुछ हो रहा है परन्तु उससे कोई जिक्र नहीं मन ही मन कूड़ती, भाड़ में जाव पी-एच० डी०! हम क्या उम्र भर स्टूडेंट रहने और गृहस्थी चलाने के लिये हैं। पहले हमसे सब बातें होती थीं, अब छिपाने की जरूरत! 'हम किसी लायक नहीं? दो बार इस कुजन में पति से पूरी-पूरी साँझ का मौन
सेठ ने पूछा जरूर अच्छी क्या बात बहुत चुप-चुप हो?" कुछ नहीं, ऐसे ही जी अच्छा नहीं।"
उस दिन सेठ खूब सुबह बाहर गया था। रात के खाने के बाद भी गया तो ग्यारह बजे लौटा। उपा उस समय लेटी-बेटी पड़ रही थी। सेठ ने आते ही टोका, "अच्छी, हमने कहा था, इतना स्ट्रेन मत करो। तुम नींद पूरी नहीं लेती हो, इसी से कुछ सुस्त जान पड़ती हो।" उषा ने पुस्तक पति के सामने पटक दी, "हम अकेले में नावल पर रहे थे, इसमें क्या स्ट्रेन? मन में खुदबुद हो तो कैसे सो जायें
"क्यों, क्या खुदबुद?"
उषा पति की जेबों की तलाशी लेने लगी, "आज-कल सुबह, दोपहर, रात हर समय कॉल। आखिर कितनी कमाई हो रही है
जेब में केवल साढ़े तीन रुपये। दोपहर पाँच का नोट उषा से ले लिया था, स्पष्ट मोटर- साइकल में पेट्रोल डलवाया होगा या इक्के का भाड़ा दिया होगा। सेठ का और कोई खर्च न
था।
है। "
"तुमसे कब कहा कॉल पर जा रहा है। कॉल की बात तो इल्मदीन के लिये कही जाती
"हमें बताते नहीं तो क्या हम देखते भी नहीं! हमें कॉज और लक्ष्य का साथी बनाया था या केवल हाउस वाइफ?" उषा ने उलहना दिया।
सेठ ने उसे सोफा पर साथ बैठाकर बाँह उसके कंधे पर रख दी, "तुमसे छिपाने का क्या सवाल! कुछ बताने करने लायक होगा तो तुम साथ होगी।"
राम वर्मा, उदय, वाजिद ने सत्याग्रह के प्रार्थना-पत्र न भरे थे परन्तु मालवीय ने उन्हें दफ्तर से बर्खास्त न किया। मालवीय का अभिप्राय था, गांधी जी को सत्याग्रह के लिये तत्पर लोगों की इतनी बड़ी संख्या बता दी जाये कि गांधी जी आन्दोलन आरम्भ करने के लिये मजबूर हो जायें।
वर्मा को अब कांग्रेस दफ्तर जाने से अधिक महत्वपूर्ण दूसरे काम उसे मालूम था, लखनऊ छावनी में गनेसी की सिगरेट चाय, पान-बीड़ी की दुकान थी। उसके यहाँ सिपाही गाहक आकर गप्पबाजी के लिये बैठते थे। वर्मा अकसर संध्या छावनी चला जाता और घंटे- डेढ़ घंटे गनेसी के यहाँ बैठता। इस काम के लिये वर्मा को बीड़ी फेंक सकने की साधना भी करनी पड़ी। गनेसी से गाँव-पड़ोस का सम्बन्ध, बोली की आत्मीयता । भोजपुरी में रख ले- लेकर बातें चलतीं।
बातें मौसम फसल से आरम्भ होती और लाम (युद्ध) की खबरों तक पहुँच जातीं। दुकान पर बैठने वालों में गाज़ीपुर जिले का एक सूबेदार था। वर्मा ने सूबेदार से भी गाँव का सम्बन्ध बना लिया। एक साँझ वर्मा ने भोजपुरी में बात बढ़ायी, "ददुआ, अब तो तुम्हारे लिये विलायत की सैर का मौका आ गया। विलायत तो स्वर्ग है। खाने को मनचाहा प मक्खन, मेवे, कलिया। वहाँ सब सिपाही महलों में रहते हैं। हाथ हाथ भर मोटे गद्देदार पलंग। खिदमत के लिये गोरी मेमें 'वर्मा को मालूम था, सूबेदार पिछले युद्ध में मैसोपोटामिया की ओर गया था।
"स्वर्ग नहीं ये सूबेदार का क्रोध गालियों की सीमा पार कर गया, "लड़ाई के मोर्चे पर मेवे कलिया नहीं पत्थर तीन-तीन दिन पेट पर पट्टी बाँधे अमर्जी राशन पर गुजार दिये, चबेना पहुँच गया तो बड़ी बात बहनचोद गोरों को वहाँ भी चाय बिस्कुट -सिगरेट और जाने क्या-क्या वहाँ ससुर गरम रेत की आंधी में अंधे हो गये और फिर जाड़े में पानी बरमा तो सात-सात दिन-रात कीचड़ में सनी भींगी वर्दी में हड्डियाँ जम गयीं। अंग्रेज साला जहाँ सबसे ज्यादा खतरा और मुसीबत देखेगा, वहीं हिदुस्तानी फौज को भेजेगा ।" कुछ और गालियाँ।
आरम्भ हो गयी तो बढ़ने लगी। गोरे और हिंदुस्तानी सिपाहियों की तनखाह, वर्दी, रहने के प्रबन्ध में फर्क की बेइन्साफी। उसके आगे बात करने के लिये वर्मा दुकान से उठ गया। सूबेदार के साथ टहलते हुए बात करता रहा, "ददुआ, तो फिर मौका आ गया। शहर में लोग जर्मनी इटली का रेडियो सुनते हैं। अंग्रेज बहुत हार रहा है। अब कांग्रेस भी बगावत पर आ रही है। इस बार डंडे खाकर जेल जाने वाली लड़ाई नहीं, सी लड़ाई। इस समय फौज साथ दे दे तो," वर्मा ने चुटकी बजाई, "मुल्क में गोरी फौज है ही कितनी ! जैसे सन् सत्तावन में गदर हुआ था। तब सिर्फ पल्टन ने गदर किया। इस बार पब्लिक भी पल्टन के साथ हमें पक्की खबर, लीडरों ने फैसला कर लिया है कि लीडर पिछले लाम की तरह अंग्रेजों की बातों में चूतिया नहीं बनेंगे सुना है, कई छावनियों में देसी पल्टनों के देसी अफसरों से बात हो गयी। यहाँ आप जैसे लोग ही कुछ करेंगे।"
.."क्या लड़कों की बातें!" सूबेदार ने इनकार में सिर हिला दिया, "बाबू, फौज में ऐसा नहीं हो सकता। तुम नहीं जानते, अंग्रेज बहुत काइयों, चौकस हर पल्टन में बीसियों भेदिया रखे हैं। कोई ऊँची साँस ले तो इन्हें पता लग जाये। सिपाही आपस में आटा-दाल में रेत कंकरी कीड़ा की बात करें तो अफसरों के कान तक पहुँच जाये।"
वर्मा ने समझाना चाहा, "ददुआ, ये तो आपस में एका न होने से समझ-बूझ और होशियारी से लोगों में बात हो तो सब हो सकता है। आखिर गदर के बखत सब सिपाहियों मैं कैसे एका हो गया था?"
सूबेदार ने अविश्वास में सिर हिला दिया, "वो नवाबों बादशाहों का जमाना था। उनका हुक्म सिपाही मान सकता था। ये लीडर लोग तो गांड़ बहनचोद एक दिन अंग्रेज से लड़ेंगे, दूसरे दिन माफी माँग लेंगे। अंग्रेज से हाथ मिलाकर साथ कुर्सी पर बैठेंगे। सिपाही एक बार गदर का विजन वजा देगा तो माफी नहीं माँग सकता। सिपाही के लिये माफी है ही नहीं। एकदम कोट-मासल! बाबू, दस बरस पहले क्या हुआ! हमारी रजमेंट रावलपिण्डी में थी। पेसावर में कांग्रेस की पब्लिक भड़क गयीं। गोरा मेजर ने गढ़वाली पल्टन को रिआया पर गोली चलाने का हुक्म दिया। गढ़वाली हवलदार ने इनकार कर दिया हम निहत्थी रिआया पर गोली नहीं चला सकते। गढ़वाली सिपाही तो देस कीम का खयाल किये और तुम्हारा गांधी बोला कि सिपाही का फर्ज अफसर का हुक्म मानना रहा। सिपाही साले चूतिया बन गये। कोट-मासल में हो गयी चौदह बरस की जैल। उनके जोरू जातक भूखे मरे सो अलगा
वर्मा ने दम भरा, "ददुआ, वह जमाना गया। हमारे साथ चलो, कांग्रेस लीडरों से बात करवा दें।"
सूबेदार ने इन्कार में सिर हिला दिया, "ऐसा लड़कपन ठीक नहीं लीडरों को बात करना है तो बड़े अफसरों से करें। हम क्या चीज़ा देसी बड़े अफसर आर्डर दें तो हम सीने पर गोली खाने को तैयार बहनचोद अंग्रेज के लिये मोर्चे पर मरेंगे; अपनी पब्लिक और मुलक के लिये नहीं मर सकते? सिपाही तो गदर के लिये तैयार पर कोई भरोसे की बात हो। " पाठक को ढूँढता वर्मा सेठ के यहाँ आ गया। सुबेदार से बातचीत का सारांश बताकर कहा, "दादा तुम समझा सको तो जतन करो। हमें तो वह लोग लड़का समझकर हमारी क्या सुनेंगे।"
युद्ध आरम्भ होने के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू व्यांग काई शेक के निमंत्रण पर चीन में थे। उस समय च्यांग की सेनाएँ चीन पर जापानी आक्रमण के विरुद्ध लड़ रही थीं। कांग्रेस की सहानुभूति आत्मरक्षा के लिये लड़ते चीन के साथ चीन से सहानुभूति में भारतीय कांग्रेस ने डाक्टर अटल के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल चीनी जनता की सहायता के लिये भेजा था। नेहरू युद्ध आरम्भ होते ही देश लौट आये थे। वे चीन में फासिस्ट जापानियों की साम्राज्य लिप्सा के निरंकुश नृशंस कारनामे आँखों देख आये थे। उन्होंने लौटते ही देश को नाजी, खासकर जापानी साम्राज्य विस्तार के खतरे से सावधान किया था। नेहरू अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की गहरी जानकारी के कारण बहुत दुविधा में थे। उन्हें नाज़ी और फासिस्टवाद से मौलिक विरोध। जनतंत्र और समाजबाद से गूढ़ सैद्धान्तिक सहानुभूति, प्रजातंत्रात्मक ब्रिटेन और फ्रांस की सभ्यता संस्कृति से अनुराग । उससे अधिक चिन्ता देश की स्वतंत्रता की। नेहरू फ्रांस की हार के बाद संसार में जनतंत्र के भविष्य के बारे में और भी चिन्तितः
सरकार ने कांग्रेस के पूना प्रस्ताव की उपेक्षा कर दी। नेहरू कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्तिम निर्णय और गांधी जी के निर्देश की प्रतीक्षा में थे और देश की जनता को गांधी जी के नेतृत्व में आन्दोलन के लिये तत्पर रहने के लिये ललकार रहे थे। इसी प्रसंग में नेहरू लखनऊ आये थे। उग्रपंथी युवकों ने नेहरू से विशेष परामर्श और निर्देश पाने के लिये लालकुओं के प्रादेशिक दफ्तर में चुने हुए लोगों की एक विशेष गोष्ठी की थी। उषा को नेहरू के विचारों और व्यक्तित्व के प्रति विशेष आकर्षण और आदर उसकी राजनैतिक जागृति का आरम्भ ही नेहरू की आत्मकथा से हुआ था। नेहरू को समीप से देखने-सुनने के लिये बहुत उत्सुक उत्साह से पति के साथ गोष्ठी में गयी। मिसेज चैटर्जी, कपिला दुबे, लीला वाजपेयी भी आयी थीं।
नेहरू ने सन्तोष प्रकट किया, "यह खुशी की बात है कि हमारे प्रान्त की स्त्रियों भी मुल्क और कॉम की तरफ अपनी जिम्मेदारी, फर्ज और पब्लिक लाइफ में अपनी जगह समझने लगी हैं। " नेहरू ने समझाया, “आन्दोलन तो होगा और जल्दी होगा। शायद हम लोगों के पूरी तरह तैयार होने से पहले शुरू हो जाये। हमें हर मिनट की कीमत समझनी चाहिये। इस बार मामूली आन्दोलन नहीं होगा। हर आन्दोलन हालात के मुताबिक चलता है। इन्टरनेशनल हालात को खयाल में रखकर हमें सिर्फ आन्दोलन के लिये नहीं, इन्कलाब के लिये तैयार होना चाहिये। "हालात इन्सानों को मजबूर कर देते हैं। अगर इन्सान की समझ दुरुस्त हो और वो मौके के लिये तैयार हो तो हालात से फायदा उठाया जा सकता है। वर्ना हालात इसान को खत्म कर देते हैं। आन्दोलन एक जंग होती है और जंग के हालात आम जिन्दगी से मुख्तलिफ होते हैं ।" श्रोता शब्दों के गूढ़ अर्थ समझने का यन कर रहे थे। नेहरू ने और समझाया, "आन्दोलन शुरू हो जाने पर सरकार हमारे लीडरों को जनता की रहनुमायी का मौका न देने के लिये शुरू में ही गिरफ्तार कर लेती है। जंग में हर वक्त लीडर या कमाण्डर की तरफ देखने की सहूलियत नहीं हो सकती। लायक सिपाही वो है जो वक्त पर खुद सही कदम उठा सके। आप सभी को वक्त के मुताबिक जनता को राह दिखाने के लिये तैयार रहना चाहिये ।"
भाषण के बाद भी पाठक और मालवीय नेहरू के साथ रहे। वे लोग कुछ क्षण अलग बातचीत का अवसर चाहते थे। नेहरू बहुत थके हुए थे। सुबह से रात के साढ़े दस तक उन्हें पल भर विश्राम न मिला था। रात की मेल से गोरखपुर जाने के लिये तैयार। उन लोगों के अनुरोध से उन्हें पृथक कमरे में बुला लिया। नेहरू सार्वजनिक सभाओं में या आम जनता में सिगरेट न पीते थे। उस समय अकावट और बेतकल्लुफी में सिगरेट लगा ली।
पाठक ने भूमिका के बिना बात आरम्भ की, “आपने इन्कलाब के लिये तैयारी का आदेश दिया है। इन्कलाब में फौजें चुप या निष्पक्ष नहीं रह सकेंगी। फौजें या तो इन्कलाब में मदद करती हैं या इन्कलाब को दबाने का काम हम लोग यहाँ फौज से कुछ कन्टेक्ट्स बना रहे हैं, लेकिन वे लोग बड़े लीडरों का आश्वासन चाहते हैं: हमने उन्हें वचन दे दिया है। आपसे अनुरोध है, गोरखपुर से लौटते समय ।"
"ये क्या हिमाकत कर रहे हैं आप लोग!" नेहरू चौक अंग्रेजी में समझाया, "सब क्रान्तियाँ एक ही रास्ते पर नहीं चलतीं। हमने इस क्रान्ति का नेता गांधी जी को स्वीकार किया है। वे इसका समर्थन करेंगे। आप जानते हैं. गांधी जी १९३१ में गढ़वाली सिपाहियों के व्यवहार की आलोचना कर चुके हैं। जब फ्रांस के पत्रकारों ने गांधी जी से गढ़वाली सिपाहियों के अहिंसात्मक व्यवहार की आलोचना का कारण पूछा था तो गांधी जी ने स्पष्ट कहा था, वे पुलिस और सेना को विद्रोह नहीं सिखाते कल हमें इन्हीं सिपाहियों के भरोसे शासन सम्भालना होगा। हमारी क्रान्ति इतिहास में नयी चीज है निःशस्त्र अहिंसात्मक क्रान्ति से स्वशासन पाना।"
पाठक चुप नहीं हुआ, "ब्रिटिश सरकार क्रान्ति को अहिंसात्मक न रहने दे तो हम क्या करेंगे? पुलिस और सेना भी देश की जनता है। उनकी उपेक्षा हम कब तक कर सकते हैं। आपने कहा है, नेताओं की गिरफ्तारी के बाद हमें स्वयं समयानुकूल कदम उठाना होगा। हमारे विचार में इस बात का उपाय करना जरूरी है कि हमारी पुलिस और सेना हमारे दुश्मन न बनकर हमारे सहायक बने। हम दूसरी क्रान्तियों के इतिहास से आँखें क्यों दे?" "गांधी जी और कांग्रेस नेता दूसरी क्रान्तियों के इतिहास से इतने बेखबर नहीं हैं। नेहरू के स्वर में परेशानी, “क्रान्तियों की सतही समझ से काम नहीं चलेगा, वस्तुस्थिति की समझ जरूरी है। तुमने कभी ब्रिटिश इंडियन सेना के संगठन को समझने की कोशिश की है? उसे जाने बिना उस काम में हाथ डालोगे? ब्रिटिश सरकार ने सन् १५७ के गदर के अनुभव से भारतीय सेना के संगठन में इन आशंकाओं का ध्यान रखा है। विभिन्न बोलियों, बिरादरियों, इलाकों के लोगों की अलग-अलग पल्टने हैं जो खुद को एक-दूसरे से अलग समझती हैं। अधिकांश सिपाही निरक्षर, केवल इशारे पर चलने वाली मशीनों की तरह। गोरखा, बलूची पठान, पंजाबी कोई खुद को हिदुस्तानी नहीं मानता, सब अपनी अलग कौम मानते हैं। पल्टनों को सदा जन सम्पर्क से दूर रखा जाता है। साल-दो साल में उनकी एक छावनी से दूसरी छावनी में बदली हो जाती है कि स्थानीय जनता से सम्पर्क न बन पाये।"
नेहरू का स्वर धीमा हो गया, "हमारे आन्दोलन की नींव शुरू से ही दूसरी है। हमने पूर्ण निर्देशन गांधी जी को साँपा है। गांधी जी इसका अनुमोदन नहीं करेंगे। हम दो नावों पर पाँव रखकर चलना चाहेंगे तो दोनों नावें डूबेंगी ।
पाठक ने फिर भी आग्रह किया, "कभी तो यह काम करना ही होगा। एक पल्टन को
दूसरी पल्टन का उदाहरण सिखायेगा। सिपाही स्वयं तैयार हो रहे हैं। वे विदेशी मोर्चों पर प्राण देने के बजाय अपने देश के लिये लड़ना पसन्द करेंगे। वे केवल एक आश्वासन चाहते हैं। कि यह आन्दोलन पीछे नहीं हटेगा।"
"आन्दोलन के पीछे हटने का सवाल ही नहीं, परन्तु कांग्रेस की मूल नीति के विरुद्ध चलने की योजना गलत काम है।" नेहरू ने बात समाप्त कर दी। घड़ी देखकर बोले, "इस समय तो हमें गोरखपुर की मेल पकड़नी है।"
इस
दूसरे दिन संध्या नेहरू ने गोरखपुर की सार्वजनिक सभा में आन्दोलन के लिये बहुत उम्र ललकार का भाषण दिया। उस राजद्रोही भाषण के लिये नेहरू दूसरी सुबह गिरफ्तार कर लिये गये। अदालत में नेहरू ने अपनी सफाई में और कड़ा भाषण दे डाला, सरकार के अस्तित्व का आधार ही अनैतिकता और अन्याय है। ब्रिटिश जनता और ब्रिटिश सरकार जिन सिद्धान्तों और आदर्शों की रक्षा के लिये यह युद्ध लड़ने का दावा कर रही है, भारत में सरकार की नीति और व्यवहार उन दावों के ठीक विपरीत है। मानवीय न्याय और विवेक की दृष्टि से यह सरकार स्वयं दोषी और अपराधी है। इस सरकार को सहना, कायरता से अन्याय और मानवता के विरुद्ध अपराध में सहयोग देना है। इस सरकार से विद्रोह प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है ।" अदालत ने नेहरू को राजद्रोही व्याख्यान के लिये चार बरस जेल की सजा दे दी। वे गोरखपुर जेल में बन्द लखनऊ लौटे ही नहीं। उपा अदालत में नेहरू के वक्तव्य का उल्लेख पढ़कर सिहर उठी। दूसरे दिन पाठक के आने पर भाषण की चर्चा ।
पाठक ने निरुत्साह से सिर हिला दिया, "इससे भी अधिक उत्तेजक भाषण दिये जा चुके हैं, परन्तु उनसे ब्रिटिश सरकार का आसन नहीं हिला। क्रान्ति अदालतों से शुरू नहीं होगी।"
१९४० अक्टूबर से युद्ध और हिंसा के विरोध के नैतिक अधिकार के लिये वैयक्तिक सत्याग्रह आरम्भ हो गया। सत्याग्रह के कार्यक्रम में सरकार को कठिनाई में न डालने का ध्यान रखा जा रहा था। कांग्रेसी नेता पुलिस को अपने युद्ध विरोधी भाषण देने के समय- स्थान की सूचना दे देते। पुलिस उन्हें सवारी पर हवालात पहुँचा देती, परन्तु सामान्य कांग्रेसजन आवेश में गांधी जी के निर्देश के बावजूद पुलिस को सूचना दिये बिना उत्तेजक युद्ध विरोधी भाषण दे देते, "इस साम्राज्यशाही युद्ध में सहयोग देशद्रोह और पाप है। इस युद्ध के लिये न एक भाई न एक पाई।" पुलिस उन्हें भी गिरफ्तार कर लेती।
किदवाई साहब, पालीवाल, मालवीय और कांग्रेस के भीतर उग्र दल को इस निष्क्रिय सत्याग्रह से सन्तोष न था। वे अवसर की प्रतीक्षा में आन्दोलन के लिये दूसरी तैयारियाँ कर रहे थे, परन्तु कांग्रेस में उनके स्थान और अनुशासन के विचार से उन्हें भी सत्याग्रह में गिरफ्तार होना पड़ा। पाठक, सेठ और कुछ दूसरे साथियों को उग्र नेताओं का आदेश था, वे वैयक्तिक सत्याग्रह में गिरफ्तार न हो, अपना काम जारी रखें। साम्राज्यशाही युद्ध में सरकार से पूर्ण असहयोग और स्वतंत्रता के लिये उम्र संघर्ष की तैयारी की ललकार के गुप्त रूप से छपे पर्चे और साइक्लोस्टाइल बुलेटिन निकलते रहते थे।
आरम्भ में लोगों को सत्याग्रह में भाग लेने का बहुत उत्साह और उत्तेजना, परन्तु सरकार की ओर से सत्याग्रह को दबाने के प्रयत्न के कोई लक्षण नहीं। अनेक अवसरों पर
पुलिस सत्याग्रह करने वालों की ओर से नजरें फेरे रहती क्या जरूरत ऐसे आन्दोलन से परेशान होने की किसी से न छिपा था, सत्याग्रह के मुख्य निर्देशक और संचालक गांधी जी थे। सरकार गांधी जी को गिरफ्तार न कर सत्याग्रह जारी रखने का पूरा अवसर दे रही थी। लोगों को ऐसी लड़ाई में जूझने के लिये क्या उत्तेजना या उत्साह होता! सत्याग्रह करने वालों की संख्या घटती जा रही थी। सरकार की ओर से आन्दोलन के प्रति निश्चिन्तता की उदासी। १९४१ जनवरी लगते तक सत्याग्रह बिलकुल शिथिल उषा पति और पाठक के सामने ओम प्रकट करती इतनी तैयारियों, गुप्त पुत्रों से विदेशी सरकार के विरुद्ध जूझ जाने की ललकारों और हुंकारों का परिणाम यह वैयक्तिक सत्याग्रह
१९४१ सत्ताईस जनवरी। देश भर में सनसनी सुभाष बोस को ब्रिटिश सरकार विरोधी उग्र भाषणों के कारण तीन-चार मास पूर्व गिरफ्तार कर लिया गया था। बड़े कांग्रेसी नेता, जेल की असुविधाओं से प्राय: बीमार हो जाते। उनकी बीमारी से जनता में सरकार विरोधी भावना फैलती। सरकार यह न चाहती थी. खासकर युद्ध के समय गिरफ्तार कर लिये जाने पर बोस भी बीमार हो गये। सरकार ने बोस के स्वास्थ्य और सुविधा की जिम्मेवारी न लेने के लिये बोस को कलकत्ता में उनके मकान को ही हवालात मानकर मकान में ही कैद कर दिया। मकान पर पुलिस का कड़ा पहरा रहता । बोस बंगले से बाहर न जा सकते। डाक्टर और दूसरे लोग बोस से पुलिस की अनुमति से जेल के नियमों के अनुसार मिल सकते थे। सत्ताईस जनवरी को अदालत में बोस की पेशी थी। उस दिन पता लगा, बोस मकान से लापता थे। कांग्रेसी संघर्ष के इतिहास में जेल से किसी नेता के भाग जाने की इच्छा या प्रयत्न अप्रत्याशित बात इस समाचार से सर्वत्र सनसनी।
पाठक, सेठ, उपा को बोस के जेल से निकल भागने के समाचार से उत्साह-बोस हवालात या जेलों के कष्टों से बचने के लिये फरार नहीं हुआ। फरार व्यक्ति को आराम कहाँ? उसके सिर पर तो प्रति क्षण पकड़ लिये जाने की आशंका की तलवार उठी हुई ! बोस जेल से संघर्ष आरम्भ करने के लिये भागा है। अब लड़ाई आरम्भ होगी दिखावे का आन्दोलन नहीं, असली लड़ाई।
१९३९ में कांग्रेस अध्यक्ष के पद के चुनाव में सभी वामपंथियों ने बोस का समर्थन किया था। १९४० के रामगढ़ अधिवेशन में बोस ने कांग्रेस से पृथक अपना फॉरवर्ड ब्लाक दल बना लिया तो कम्युनिस्ट और रायिस्ट उससे पृथक हो गये। कम्युनिस्ट लोग कांग्रेस पर गांधीवादी नीति की जकड़ हिलाने के लिये बोस की सहायता करने को तैयार थे। वे ब्रिटिश सरकार और युद्ध विरोध में बोस का साथ दे सकते थे, परन्तु बोस की नीति से वे असहमत। कम्युनिस्टों को बोस के भाषणों से जर्मनी और इटली से सहानुभूति की गंध आने लगी थी। नरेन्द्र के विचार में अब बोस का प्रभाव बढ़ने का परिणाम होगा – कड़ाही से बचने के लिये भट्ठी में कूद जाना।
रायिस्ट होने के नाते रज़ा बोस के और भी विरुद्ध उसके विचार में ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका के युद्ध प्रयत्रों में बाधा डालना नाजी जर्मनी और फासिस्ट इटली की सहायता करना; जनतंत्र और समाजवाद की दृष्टि से अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय आत्महत्या ।
रजा उन दिनों बहुत परेशाना उसकी परेशानी का आरम्भ १९३९ में कांग्रेस मंत्रिमण्डलों के इस्तीफे देने पर मुस्लिम लीग द्वारा 'यॉमेनजात' मनाने के अवसर से
आरम्भ हुआ था। सर्जरी का असिस्टेंट प्रोफेसर अब्दुल समद लीग समर्थक हो गया था। प्रोफेसर हामिद से समद कुछ कह न सकता था, परन्तु मेडिकल कालेज के शेष मुस्लिम अध्यापकों और विद्यार्थियों को उसने 'वीमेनजात' में सहयोग न देने की प्रेरणा दी थी।
रज़ा पर समद का एहसान था। उसे सर्जरी में लेक्चररशिप दिलाने में समद ने मुस्लिम के नाते उसकी सहायता की थी, परन्तु रजा ने उस साम्प्रदायिक प्रदर्शन में सहयोग न दिया। समद उसे बार-बार उलाहने देता रहता। नौकरी में सीनियर से झगड़ा, पानी में रहकर मगर से बैर ।
सन् १४० अप्रैल में समद का आक्रोश और बढ़ गया। कारण था, सर्जरी के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर निगम के रिटायर हो जाने का समय आ गया और समद के विभागाध्यक्ष बनने का अवसर। लेकिन यूनिवर्सिटी कोर्ट ने प्रोफेसर निगम की विशिष्ट योग्यता के विचार से उसके कार्यकाल की अवधि दो वर्ष बढ़ा दी। समद के विश्वास में निगम के लिये पक्षपात उसके साथ अन्याय कारण, यूनिवर्सिटी कोर्ट पर कांग्रेसी हिन्दुओं का कब्जा। समद अब जुझारू लीगी। रज़ा की लीग से विरक्ति के कारण रज़ा से भी नाराज वह नाराजी १९४१ जनवरी से और अधिक।
लीग को सहयोग न देने से रज़ा के परिवार में भी उससे असन्तोषा परिवार मे उसका समर्थक और मित्र था उसका सा वकील फजल अहमद १९३९ तक फजल अहमद मजहब के मामले में सहिष्णु विचारों से नेशनलिस्ट। स्वयं को हिन्दुस्तानी कहता था। उसने 'यमेनजात' में भी सहयोग न दिया था, परन्तु वह भी शनैः शनैः लीगी बनता गया। परिणाम उसकी वकालत के लिये अच्छा हो रहा था। सन् १४० के अन्त तक वह इतना पक्का लीगी कि मद्रास में मुस्लिम लीग के अधिवेशन के लिये लखनऊ से डेलीगेट चुन लिया गया और उसके लिये लीग की ओर से इतने लम्बे सफर के खर्च का भी प्रबन्ध हो गया। मद्रास में लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पास कर दिया था। लीग के मद्रास अधिवेशन के बाद यू० पी० में पाकिस्तान की माँग को लेकर लीग की गतिविधि में बहुत वेग आ गया। वकील फज़ल अहमद लीग की प्रान्तीय शाखा के प्रचार कार्य का उपमंत्री बन गया। उसकी स्थिति और प्रभाव में बहुत अन्तर सरकारी अफसरों से मिलना-जुलना बढ़ गया।
रजा फजल अहमद से भी कटने लगा। कभी बात हो भी जाती। फजल अहमद की बोल- चाल, व्यवहार बहुत शिष्ट । रजा साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को मुस्लिम लीग की अदूरदर्शिता और सम्प्रदायों के लिये विशेषाधिकार को जनवाद विरोधी दृष्टिकोण बताता । पाकिस्तान की माँग उसकी दृष्टि में अव्यावहारिक फजल से पूछा, "पाकिस्तान बनने पर आप लखनऊ छोड़कर पाकिस्तान जाने को तैयार होंगे?"
फज़ल अहमद का व्यवहार अब भी मजहबी कट्टरता या असहिष्णुता का न था। वह लीग को साम्प्रदायिक संगठन नहीं, मुसलमानों का राजनैतिक संगठन मानता था। वह नमाज़-रोज़े की अपेक्षा मुसलमानों में राजनैतिक जागृति और संगठन को महत्व देता था। उसका कहना था, पाकिस्तान लीग का जुझारू नारा है। इस समय ब्रिटेन इंडिया को जनतांत्रिक शासन अधिकार सौंपता है तो उसका अर्थ हिन्दू कांग्रेस का प्रभुत्व होगा। हमें जनवाद की अपेक्षा मुस्लिम कौम का लाभ देखना है। युद्ध के बाद अंग्रेज हिंदुस्तान को स्वशासन के अधिक अधिकार देने के लिये मजबूर होंगे। उस स्थिति में मुसलमान
अल्पसंख्यक होने के नाते घाटे में क्यों रहें। मुसलमानों को लाभ बहु की संख्या में खो जाने में नहीं, अपनी पृथक स्थिति रखने में है।
रजा बिलकुल अकेला पड़ गया था। कोई रज़ा से नाराज, किसी से वह नाराज सबसे बड़ी परेशानी गृहस्थ कलह दो-ढाई महीने में गेती को झगड़ने का दौरा आ जाता। पति की मानसिक परेशानियों को अपनी उपेक्षा समझ लेती। गेती की कल्पना में इस उदासीनता का एक कारण, पति की किसी अन्य स्त्री से आसक्ति बात इतनी बढ़ जाती कि बेबस होकर रजा का हाथ चल जाता। एक-दो दिन गेती का रूठना और रोते रहना, फिर बिस्तर पर समझौता। रजा समझ गया था, यह स्वयं गेती के बस की बात नहीं।
राजनैतिक मतभेद के बावजूद रजा अकेलेपन से परेशान हो हंसी-मजाक, बहस या बतरस में गम गलत करने के लिये नरेन्द्र के यहाँ चला जाता। सहानुभूति सांत्वना की इच्छा हो तो सेठ के यहाँ दोनों को एक-दूसरे के विवेक और नीयत पर अनन्त विश्वास सेठ के सामने अपनी सभी परेशानियां उन्हेल देता, खासकर गेती के बारे में, जो शिष्टता के विचार से उपा के सामने न कह सकता था।
वैयक्तिक सत्याग्रह के आरम्भ में गिरफ्तार लोग जनवरी-फरवरी में जेलों से लौटने लगे। सक्सेना साहब, हरि भैया जैसे निष्ठावान लोगों ने फिर सत्याग्रह किया लेकिन सरकार ने उन्हें गिरफ्तार न किया। बहुत से कांग्रेसी ऐसे सत्याग्रह से उबने लगे। अब उन्हें बोस का कार्यक्रम प्रकट होने और उसमें सम्मिलित होकर विदेशी सरकार से लड़ सकने का अरमान। फिर स्वतंत्रता के लिये संघर्ष की ललकार के गुप्त पर्चे और साइक्लोस्टाइल बुलेटिन दिखायी देने लगे।
१९४१ मई में इल्मदीन ने डाक्टर अमर और सेठ जी से मुआफी चाही। बता दिवा, खुफिया पुलिस का हवलदार उसके घर पर बार-बार आता था "पुलिस चाहती है, हम यहाँ आने जाने वालों पर और डाक्टर साहब की नस्लो हरकात पर नज़र और उनकी बातचीत पर कान रखें और पुलिस को रिपोर्ट दें। इस काम के लिये मुआवजे का लालच दिया जा रहा है। ऐसा दोगलापन और नमकहरामी हम नहीं कर सकते।"
अमित ने कुछ दिन पूर्व बहिन-बहनोई को सावधान कर दिया था, जान पड़ता है, सी० आई० डी० आपके बंगले पर नज़र रखती है।"
सेठ जी घबरा गये। बेटे के लच्छन जानते थे, परन्तु इतनी दूर तक आशंका न थी। वकील कोहली ने राय ली। तय पावा इल्मदीन के बजाय जिसे रखेंगे, पुलिस उसे भी पटा सकती है। पुलिस के और बीस जरिये उसका शक बढ़ाने से फायदा!
इल्मदीन काम का आदमी और वफादार बेहतर वही रहे। सेठ-उषा राजनीतिक और गुप्त मामलों में इल्मदीन से पहले ही चौकने रहते थे। डाक्टर सेठ ने उससे बात की, "हमें आप पर एतबार है। इनाम आप कबूल करे या न करें। हमें गैरकानूनी काम से वास्ता नहीं। आप जो खबर देना मुनासिब समझें, दीजिये। कांग्रेस से हमें हमदर्दी है. लेकिन किसी अग में नहीं पड़ेंगे।"
सेठ जी का दिल अब वहाँ आते धड़कता परन्तु बेटे का घर, खासकर पोते का मोह। प्रताप डेल साल का हो गया था। कुछ शब्द तोते की तरह बोल लेता। सेठ जी सुबह नौ-दस
के लगभग आते। उषा प्रताप को नहला धुला कर साफ-सुथरे कमीज-नेकर, मोजे- जूते पहना कर तैयार रखती। ससुर के आगमन का संकेत पाकर स्वयं आड़ में रहकर बच्चे को बरामदे में कर देती । प्रताप दादा को देख बोलने लगता, "दा जी जै, दा जी जे, पाली-
पन्ना।"
सेठ जी का मन पुलक आता। पोते को गोद में उठा लेते। पन्द्रह-बीस मिनट उससे दिल बहला लेते। यह वैसा ही नियम जैसे मन्दिर जाना। बालक रूप भगवान के दर्शन के पर होते तो प्रताप को घंटे-आध घंटे के लिये साथ ले जाते। लौटाने आते तो साथ पत्तों में बँधा मिठाई का छींका या अंगोछे में फलों की गठरी रहती।
युद्ध के कारण आशंका या बेचनी थी तो केवल राजनीतिक लोगों में आम जनता के लिये कठिनाइयों थीं और सुविधायें भी अनाज, कपड़े, घी, चीनी और दूसरी सभी चीजों के दाम दुने तिगुने । महँगाई फसलों की खराबी के कारण नहीं, सरकारी नीति से। सेनाओं के लिये रसद और कपड़ा मुँहमाँगे दामों खरीदा जा रहा था। मजदूरी का सरकारी रेट भी दूना। लोग महंगाई के दबाव से सेना और जंगी काम की मजदूरी के लिये लपके आ रहे थे। बीजार बहुत बढ़ जाने से सरकार ने कंट्रोल लगा दिये थे। कंट्रोल दाम पर अनाज-कपड़े की दुकानें। ऐसी दुकानों पर केवल मोटा अनाज मिलता, वह भी घुना हुआ और मोटा कूपड़ा। विचित्र व्यवस्था थी, गॉव में खपने वाला कपड़ा शहरों के हिस्से आता और शहरों की जरूरत का महीन कपड़ा गाँवों के हिस्से। फिर अपनी माँग के बाजार में जाकर ब्लैक में विकता । व्यापारियों के लिये कारोबार, बीच के अफसरों की आमदनी। लोग गेहूं न मिलने की शिकायत के डेपुटेशन कलेक्टरों और बड़े अंग्रेज अफसरों के यहाँ ले जाते। जवाब मिलता, 'गेहें फौज के लिये। जो गोली खायेगा गेहूं खायेगा।'
जनता को युद्ध के कारण अनेक कष्टों में एक संतोष, पिटे हुए असमर्थ निर्बल का संतोष -जर्मनी साले अंग्रेजों को खूब जूते लगा रहा है। जर्मनी और हिटलर सामर्थ्य और दुर्धर्ष शक्ति के प्रतीक लोगों की धारणा, हिटलर जब चाहे अंग्रेजों को मिट्टी के ढेले की तरह मुट्ठी में मींज कर हवा में उड़ा दे इक्केवाले अपने घोड़े को तेज चलने के लिये ललकारते, 'चल' बेटा बल चल, हिटलर की चाल ।' मुर्गो तीतरों की लड़ाई में जीतने वाले मुर्गे तीतर हिटलर कहलाते। गली-मुहल्ले के सबसे जोरावर कुत्ते का नाम हिटलर ।
१९४१ जून में तीसरी अप्रत्याशित घटना जर्मनी ने सोवियत से अनाक्रमण संधि के बावजूद सोवियत पर धावा कर दिया। जर्मन पैंजर सेनायें कल्पनातीत गति से सोवियत के गाँवों, नगरों, मोचों को रौंदती बढ़ने लगीं। रायवादियों ने बहुमत की राजनैतिक भावना और विरोध के बावजूद चेतावनी दी सोवियत पर नाज़ी आक्रमण के बाद यह युद्ध साम्राज्यवादी युद्ध नहीं रहा। अब यह युद्ध प्रजातंत्र, अन्तर्राष्ट्रीय न्याय, सभ्यता संस्कृति और संसार में समाजवाद और आत्मनिर्णय का अधिकार चाहने वाले निर्बल देशों के लिये आत्मरक्षा का युद्ध है। भारतीय का कर्तव्य है, जनतंत्र की रक्षा और आत्मरक्षा के इस युद्ध में ब्रिटेन को पूरा सहयोग दे। देश के आम लोग सोवियत सीमा में जर्मन सेनाओं के अवाध गति से बढ़ते जाने के समाचारों से उत्साहित उन्हें विश्वास, जर्मनी छ: मास में पूरे सोवियत को जीत लेगा, फिर अकेले ब्रिटेन की क्या औकात!
जुलाई में समाचार: जर्मनी से हारे हुए फ्रांस के अधीन इंडोचाइना पर जापान ने कब्जा कर लिया और आशंका, जापान अब ब्रिटेन को जर्मनी से उलझे देखकर ब्रिटेन के अधीन मलाया, सिंगापुर, हांगकांग की तरफ बड़ेगा। ब्रिटेन और स्वयं भारत के लिये इस खतरे से भारतीय जनता को उत्साह उन्हें जनतंत्र पर विश्वव्यापी खतरे या स्वयं भारत पर आक्रमण की आशंका से चिन्ता के बजाये ब्रिटेन के धूल में मिल जाने के स्वप्न से सन्तोष।
कम्युनिस्ट इस स्थिति से दुविधा में उन्हें सोवियत पर जर्मन आक्रमण और जर्मन सेना की चमत्कार गति से सोवियत सीमा में धंसते जाने की घबराहट, परन्तु उन्हें अपनी साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध की नीति से पीछे हटने में संकोच या अपने पोलित ब्यूरो के निर्णय की और अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट संगठन के निर्देश की प्रतीक्षा। वे साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध की नीति पर डटे रहे।
युद्ध के आरम्भ में राय के दल में सम्मिलित अनेक उम्र कांग्रेसी, कांग्रेस समाजवादी और पुराने क्रान्तिकारी गिरफ्तार कर लिये गये थे। रायवादियों के युद्ध विरोध को आत्मघाती मूर्खता कहने और युद्ध में सहायता के प्रचार की नीति के कारण सरकार उन्हें जेलों से छोड़ने लगी। रायवादियों के विरुद्ध 'गद्दारा और मुर्दाबाद के नारे लगने लगे।
अंग्रेजों पर संकट गहराने से फिर उम्र संघर्ष के समर्थकों में उत्साह इस उत्साह के लिये प्रेरणा का एक विशेष कारणा सुभाष भागकर यूरोप पहुँच गये थे। पहले रोम और फिर बर्लिन रेडियो पर सुभाष की आवाज। भारतीयों को स्वतंत्रता प्राप्ति का अवसर न चूकने की ललकार
अगस्त का पहला सप्ताह सेठ और उपा की नींद बरामदे से बैठक के दरवाज़े पर जोर की दस्तक से टूटी। विस्मय, इस समय कौन: अनुमान, शायद पाठक ने कोई सन्देश भेजा। पाठक पाँच मास से भेष बदले छिपकर काम कर रहा था। सेठ ने बैठक में जाकर किवाह खोले। पुलिस थी। दो अफसर, पाँच कांस्टेबल वर्दी में, दो पड़ोसी व्यक्ति साधारण नागरिक पोशाक में तलाशी का वारंट था।
पुलिस के व्यवहार से लगा, वे किसी सूचना के आधार पर आये हैं। सबसे पहले डिस्पेन्सरी में आलमारियाँ हटाकर लकड़ी से दीवार और फर्श पर टकोर कर पोलापन भाँपने का यन किया। उसके बाद रसोई में जाकर कोयले का ढेर हटवा कर जगह को ध्यान से देखा। उसके बाद सरसरी तौर से सभी कमरे देख डाले। कुछ न मिला तो कुछ पैम्फलेट, दो-तीन पुस्तकें और राविस्टों के साप्ताहिक 'वैन्गार्ड' की दो प्रतियाँ ही ले ली।
उषा पलंग कमरे में कपड़े बदल कर बैठक में आकर कुर्सी पर बैठ गयी थी। दोनों बाहें सीने पर बाँधे, पुलिस को ऐसे घूर रही थी जैसे दिल्ली सामना करने के लिये तत्परता में आक्रामक कुत्ते की ओर देखती है।
तलाशी लेने के बाद अफसर ने सेठ को सम्बोधन किया, "आपकी गिरफ्तारी का वारंट है।" अफसर ने कागज सेठ की ओर बड़ा दिया, "हमारे साथ चलना होगा।" सेठ ने वारंट पड़ा। डी० आई० आर०-२६ में वारंट था। सेठ ने वारंट उपा को भी दिखा दिया।
"आपके साथ चलने के लिये मुझे कपड़े बदलने होंगे।" वह रात के कपड़ों में था। अफसर और कांस्टेबल प्रतीक्षा के लिये बरामदे में चले गये।
सेठ ने पलंग-कमरे की ओर बढ़ते हुए पत्नी से बात करने के लिये उसे बुला लिया,
"घबराना नहीं।" "घबराने से क्या मिलेगा।" उपा ने साहस दिखाया परन्तु मुस्करा न सकी, ' दीजिये क्या करना होगा।"
"बता
"सुनकर चचा घबरायेंगे। तुम वकील चाचा के यहाँ भी कहलवा दो तो बेहतर हरि भैया को भी खबर भिजवा दो। बेबे को बुलवा लो।"
पप्पू अभी गहरी नींद में था। सेठ ने कपड़े बदल कर बाहर जाने से पहले बेटे के सिर पर हाथ फेरकर प्यार किया। उपा को एक बार और धैर्य का परामर्श।
पुलिस हथकड़ी और रस्सी साथ लायी थी, परन्तु हथकड़ी लगाना जरूरी न समझा। पुलिस सेठ को सड़क पर खड़ी मोटर बैन की तरफ ले गयी। उपा बैठक के दरवाजे में खड़ी, पुलिस के साथ जाते पति को अपलक देख रही थी। उस समय उजाला हो गया था।
उषा ने परसू को तुरन्त छोटी गली में वकील चाचा के यहाँ और हरि भैया को खबर दे आने के लिये कहा। परसू दौड़ता गया था। वैसे ही लौटा। सेठ जी, वकील साहब और मास्टर जी सुबह की सैर के लिये गये हुए थे। वह भावो और गंगा बुआ को सूचना दे आया
था।
परसू के लौटते ही उषा ने उसे समीप से इक्का-तोंगा लेकर बेबे को लिवा लाने के लिये वालाकदर भेज दिया। उस दिन सोमवार था। बेबे पिछले दिन चौथे पहर परिवार के लोगों के साथ गिरजा जा सकने के लिए वालाकदर चली गयी थी। सुबह लौट आने का आश्वासन दिया था। उपा के लिये सबसे जरूरी साथ वेवे का। परसू को समझा दिया, वहाँ पुलिस की बात न बताना। बेचे घबरा जायेगी। कह देना, हमारी तबीयत ठीक नहीं, आकर पप्पू को सम्भाले।
उषा की तबीयत खराब होने का समाचार पाकर बेबे तुरन्त चल पड़ी। सहानुभूति में अमित भी कुछ मिनट बाद साइकल पर आ गया।
उषा प्रताप के उठने से पहले नहा धोकर तैयार हो गयी थी। पुलिस वाले तलाशी लेते समय सोफा कुर्सियों की गद्दियाँ टेडी-मेढ़ी कर गये थे। उषा ने सब कुछ कायदे से लगाया। प्रताप उठ गया तो उसे भी नहला कर कपड़े बदल कर तैयार कर दिया और दूध दे रही थी। अमित ने उसे बताया, "जीजी, पप्पू के दादा आये हैं।"
सेठ जी सुबह की सैर से लौटे तो थके हुए थे। उनकी घबराहट का खयाल कर कोहली भी साथ हो गये थे। अमर के यहाँ आने के लिए इक्का जुतवा लिये था।
उषा ने पप्पू को अमित के साथ बरामदे में भेज दिया। अधीरता या घबराहट न प्रकट करने के लिये सिर और कंधों पर आंचल सम्भाला। मन में छिपी घबराहट में लम्बा घूँघट खींचना याद न रहा। ससुर के सामने फर्श तक झुककर चरण-स्पर्श का संकेत किया। बाबू को भी खूब झुककर प्रणामा
पप्पू दादा की गोद में चढ़ बैठा था, पुकारे जा रहा था, "दादा जी जै! दादा जी जै! पाली-पन्ना।" सेठ जी पोते को सीने से लगाकर उसकी पीठ थपथपा रहे थे। उद्वेग में बोल पाना कठिन बहू की ओर से आँखें फिरा कर संक्षिप्त आशीर्वाद दिया।
बाबू ने उपा को आशीर्वाद देकर समीप कुर्सी पर बैठने का संकेत किया। उषा बाबू के समीप सिर झुकाये कुर्सी पर बैठ गयी तो सेठ जी पोते को गोद में लेकर बरामदे से उठकर घास पर टहलने लगे।
उपा का चेहरा उदासी से गम्भीर आँख गुलाबी परन्तु आँसू एक न टपकाया। बाबू ने बह के धैर्य की सराहना की। सेठ जी की नजर में भी उपा के धैर्य से उसका रीति-विपरीत आचार सभ्य हो गया।
बाबू ने समझाया, "बेटी इन दिनों डी० आई० आर०-२६ में बहुत गिरफ्तारियाँ हो रही हैं। इस धारा में मुकदमा नहीं चलता। जमानत पर रिहाई भी नहीं हो सकती। आशंका में गिरफ्तारी एक तरह से नजरबन्दी । धैर्य रखो, इसमें डिटेंशन की अवधि दो मासा तुम बहादुर बेटी हो। हमारे लायक जो भी होगा, करेंगे हमारे लिये अमर महेन्द्र नरेन्द्र के समान ।" बाबू सब तरह की सहायता का आश्वासन देकर सेठ जी के साथ चले गये। बेबे बहुत परेशान पुलिस अमर जैसे भले जवान को क्यों पकड़ ले गयी! ऐसे नेक जवान से पुलिस क्यों नाराज!
बेबे को उपा राजनीति क्या समझाती कहा, "पुलिस जैसे गांधी बाबा को, दूसरे कांग्रेस वालों को पकड़ कर जेल में बन्द कर देती है, वैसे इन्हें भी ले गयी।"
बेबे ने कुंधारीबाग गली में सुना था, गांधी बाबा बहुत बड़ा हिन्दू फकीर है। अंग्रेज गांधी से क्यों नाराज हैं यह वेवे न जानती थी। इतना सुना था, कांग्रेस वाले ईसाइयों से नाराज रहते हैं। यह बात बेबे को नापसंद थी। अब बेबे को यकीन हो गया, अंग्रेज काले लोगों से बैर मानते हैं और पुलिस वाले जुल्म करते हैं। प्रत्यक्ष देख रही थी।
कुछ देर बाद हरि भैया और गौरी आ गये। हरि भैया को दूसरी बार सत्याग्रह करने पर पुलिस ने गिरफ्तार न किया था। हरि भैया ने भी सराहना से सांत्वना दी अमर निर्भय और साहसी है, वैसी ही तुम। हम तुम्हें क्या समझायें। वैसे तो काका हैं परन्तु छोटी-मोटी बात के लिये उन्हें क्या तकलीफ दोगी। हम और गौरी आते-जाते रहेंगे।"
गौरी नार्मल स्कूल से ट्रेनिंग कोर्स पास करके रकाबगंज की कन्या पाठशाला में अध्यापिका बन गयी थी। उसने भी उषा को तसल्ली दी, “अकेली तुम घबराओगी। हम रात भी यहाँ रह जायेंगी । यों तो तुमने अच्छा किया कि बेबे जी को बुलवा लिया। हम स्कूल से छुट्टी लेकर घंटे भर में आ जायेंगे। "गौरी जाते-जाते बोली।
अमित से समाचार पाकर नरेन्द्र दस तक पहुँच गया। बैठक में सहानुभूति से उषा के समीप बैठकर धैर्य का परामर्श देता रहा। उपा उदासी में मौन। नरेन्द्र उसे हँसाने के लिये मजाक करने लगा, “कांग्रेसी वीरांगनायें तो पति-भाई परिचितों की गिरफ्तारी के समय उनकी आरती करके समर-यात्रा का तिलक लगाती हैं। तुम क्रान्तिकारी बनती हो और मुँह लटकाये बैठी हो!"
"कहाँ मुँह लटकाये बैठी हूँ।" उपा ने अवसाद से गुलाबी आँखों के बावजूद मुस्करा दिया।
तभी बैठक में कदम रखा गौरी जीजी ने गौरी लौटी तो मकान के सामने नरेन्द्र की गाड़ी खड़ी थी। फटकिया खुली। उसके आने पर कोई आहट न हुई। बिना पुकारे बैठक में आ गयी। उषा सोफे के सिरे पर थी। समीप लगती कुर्सी पर नरेन्द्र नरेन्द्र आत्मीय भाव से सोफा की ओर झुका हुआ। उषा के चेहरे पर मुस्कान।
उपा के चेहरे पर मुस्कान देख गौरी का मन जल गया कुछ देर पहले भैया के सामने
कैसा सोग बनाये बैठी थी। हम चिन्ता में धूप में जलते दौड़े आये। ये गैर मर्द के साथ बैठी हँस रही है।
"आइये जीजी ।" उषा ने समीप बैठने के लिये संकेत किया। गौरी नरेन्द्र को जानती थी पर ऐसी आत्मीयता नहीं कि समीप-सामने बैठकर हँसे बोले उपा का सब लोगों के साथ बैठकर बहसना कहकहे लगाना भी उसे भला न लगता था।
"मुन्ना कहाँ है? गौरी ने समीप बैठने की बात अनसुनी करने के लिये पूछा। "सुबह से अपने पापा को ढूँढ रहा था। बेबे ने नहला दिया तो सो गया।"
गौरी को उन लोगों के साथ बैठना अच्छा न लगा। "रसोई में क्या बनवा रही हो? देखें, परसू क्या कर रहा है।"
"जीजी, अभी तो कुछ नहीं। परसू इधर-उधर दौड़ में रहा। वेवे, हम और परसू ही हैं। क्या बखेड़ा करना । वेवे खिचड़ी उबाल लेगी। हमारा खाने को मन नहीं है।" "क्यों?" नरेन्द्र ने टोक दिया, "हम खाना खाकर जायेंगे।"
उपा मुस्करा दी, "जरूर! कहिये क्या बनवा दें?"
"कुछ भी । " नरेन्द्र कुर्सी पर जरा और पसर गया।
“भाभी, अभी हम चल रहे हैं। हम आकर पूछते रहेंगे।" गौरी को उषा नरेन्द्र में हँसी- ठिठोली, नरेन्द्र का वहाँ आ बैठना भला न लगा। सोचा, मर्द जेल गया है, बहूरानी मनसैनी कर रही है।
नरेन्द्र दोपहर में सेठ जी से सहानुभूति प्रकट करने लगा। उसके बाद पता लेना था, डाक्टर अमरनाथ सेठ को पुलिस ने कहाँ रखा है? उसे बदलने के लिये कपड़ों का दूसरा जोड़ा और रोजमर्रा की जरूरी चीजें साबुन, तौलिया, शेव का सामान, पढ़ने के लिये एक- दो पुस्तकें पहुँचाना जरूरी था। उपा को पति से भेंट मुलाकात की इजाजत कैसे मिलेगी? भाई महेन्द्र को कार में साथ लेकर इधर-उधर पता किया। रजा को अमित का छोड़ा सन्देश डेढ़ बजे मिला। ढाई बजे कड़कती धूप में उपा के यहाँ पहुँचा। अनुरोध किया, उसके लायक जो भी काम हो जरूर खबर दें।
पुलिस ने डाक्टर अमरनाथ सेठ को जल्दी ही जिला जेल पहुँचा दिया था। उससे मुलाकात जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति से हो सकती थी। सेठ जी में बेटे को सींखचों और जेल में देखने का हौसला न था। एक समय तीन व्यक्तियों को ही मुलाकात की अनुमति मिल सकती थी, केवल रिश्तेदारों को नरेन्द्र ने दर्खास्त में अपना नाम रिश्ते के भाई के रूप में दिया था। अनुमति मिलने पर दूसरे दिन उषा को जेल ले गया।
भेंट के लिये डाक्टर सेठ को जेल दफ्तर में लाया गया। वह साधारण कैदी नहीं राजनीतिक डेटेन्यू था। उससे भेंट करने वालों को और उसे भी बैठने के लिये कुर्सी दी गयी। एक ओर प्रताप को गोद में लिये उषा और नरेन्द्र, उनके सामने दो फुट के अन्तर से सेठा उन लोगों की बातचीत सुनने, नोट करने के लिये या कोई कागज पर्चा, हथियार इधर-उधर न हो जाय इस सावधानी के लिये बीच में जेल अफसर, वास्तव में खुफिया पुलिस का अफसर प्रताप पापा को देख उसकी ओर लपका।
सेठ ने अफसर की ओर देखा, "अपने बेटे को प्यार कर सकता हूँ?"
"जरूर जरू!" अफसर झेंप गया, "हम भी बाल-बच्चेदार आदमी ड्यूटी पर बैठे हैं,
क्या करें।"
सेठ ने उपा को आश्वासन दिया, "घबराना नहीं। हमें सब कुछ मिल रहा है। तुम कपड़े खामुखा लायी। हमारा मेजबान इतना बड़ा साम्राज्य। सब कुछ इनसे लेंगे।" दो आदमियों की उपस्थिति में उपा पति से क्या बात करती मुस्कराकर आश्वासन दिये जा रही थी,
हमारी चिन्ता न करना, अपनी सेहत का ध्यान रखना।" नरेन्द्र पति पत्नी को बात का अवसर देने के लिये अफसर से डी० आई० आर० के डेटेन्यू के लिये नियमों के सम्बन्ध में पूछता रहा।
चलते समय अमर ने सावधान किया, "मेरा पत्र पाने पर ही भेंट के लिये आना। शायद मुझे दूसरे जेल में भेज दें।"
पति से भेंट कर उषा जेल फाटक से नरेन्द्र के साथ निकली तो मौन कार में नरेन्द्र के साथ सामने की सीट पर बैठी तब भी स्तब्ध, नजर दूर सामने प्रताप उसकी गोद से फिसल कर कभी डेशबोर्ड पर इस उस स्विच को छेड़ता, कभी हार्न बजा देता। नरेन्द्र बार-बार टोक रहा था, "सम्भालो अपने बन्दर को!"
उपा मौन निश्चल
गाड़ी बंगलिया के सामने रुकने पर उषा बच्चे को गोद में लेकर कार से उतरी और तेज कदमों से भीतर चली गयी। नरेन्द्र कार को बन्द करके बैठक में आया। उषा ने प्रताप को फर्श पर खड़ा कर दिया था। दोनों हाथों की अंजलियों से साड़ी का आँचल चेहरे पर दबाये श्री आँचल भीगता जा रहा था। बच्चा माँ की अवस्था से स्तब्ध
"अच्छी, होश करो! बच्चा घबरा जायेगा।" नरेन्द्र ने समीप सोफा पर बैठकर
समझाया।
उपा फफक पड़ी। प्रताप चीखकर रो उठा।
"हाय की हो गया!" बेबे घबराहट में पुकारती दौड़ी आयी।
"बेबे जी, कुछ नहीं, जेल में अमर को देखकर आयी है। दिल भर आया है। आप बच्चे को ले जाइये।"
नरेन्द्र ने सांत्वना के लिये बाँह उषा की पीठ पर रख दी। आत्मीयता से बोला "अच्छी, जेल में विस्मयजनक धैर्य और संयम निवाह कर अब इतनी अधीर हो रही हो।"
उषा ने अंजलियों से आँचल दबा चेहरा नरेन्द्र के घुटने पर रख दिया। खुलकर रो दी। दो मिनट बाद नरेन्द्र ने उसकी पीठ पर अपकी दी, "अच्छी, बस हो गया। तुम्हें विश्वल देखकर बच्चे और बेचारी बेबे का क्या हाल होगा। "
उषा ने आँसुओं से भीगा चेहरा आँचल से पोंछा। झटपट गुसलखाने में जाकर शरीर पर जल डाला। साडी बदल कर बैठक में आ गयी। आँखे गहरी गुलाबी नरेन्द्र दूसरे प्रसंगों से उसका मन बहलाने का बन करता रहा।
उषा को सम्भली देखकर बेबे आकर अमर का हाल पूछने लगी। उपा की आँखें गुलाबी पर मुस्करा रही थी, "बेबे फिक्र न कर जेल में तो हैं पर खूब आराम से काम कुछ नहीं करना पड़ेगा। अपने घर के कपड़े खाने को डबल रोटी मक्खन, दूध, फल-बल सब कुछ खायें तो गोश्त अंडे भी। मैंने समझाया है, आमलेट खा लिया करेंगे। खूब दूध पियेंगे, कसरत करेंगे।"
अगले दिन नरेन्द्र संध्या पांच बजे के लगभग आया। उषा ने स्वागत में मुस्कराने का यत्न किया। उदासी छिपाने के लिये नजर चुरा रही थी।
"सुबह से अखबार ही पड़ रही हो?" नरेन्द्र सोफा पर बैठ गया। "सुबह देख नहीं पाई।" उषा ने नजर बचाये उत्तर दिया। नरेन्द्र ने उसकी गर्दन पर उँगलियों से आत्मीयता की चपत लगा दी।
उपा ने मुड़कर देखा, नजर में विस्मय ये क्या नयी बात!
नरेन्द्र बोल-चाल के मजाक में बेझिझक था, परन्तु उपा से हाथापाई या छूने छेड़ने का मजाक नहीं। ताश- फ्लश खेलते समय पत्ते बिछा लेने पर या पैसों की छीना-झपटी में हाथ पकड़ मुट्ठी खोलकर छीन लेना दूसरी बात उषा को ध्यान ही न था- पिछली दोपहर यह फूट-फूट कर रो रही थी तो स्वयं सिर नरेन्द्र के घुटनों पर रख दिया था और नरेन्द्र उसकी पीठ पर थपकी से सांत्वना दे रहा था। गर्दन पर नरेन्द्र का हाथ लगाना खटक गया।
नरेन्द्र ता गया, "नाराज हो रही हो?" नरेन्द्र ने उसकी आँखों में घूरा, "खामुखा मुंह लटकाओगी, उदासी छिपाने के लिये नजरें बचाओगी तो पिटोगी नहीं! में बुजुर्ग है। "
उपा कृतज्ञता से मुस्करा दी। नरेन्द्र आया तो वह पति की बात सोच रही थी। नरेन्द्र का हाथ गर्दन पर लगने से नरेन्द्र के सम्बन्ध में पति से सुनी बातें याद आ गयी थीं। उस स्मृति से नरेन्द्र का व्यवहार अच्छा न लगा। नरेन्द्र की बात से मन साफ हो गया।
जेल में पति से भेंट के दस ग्यारह दिन बाद उपा को सुबह-सुबह तार मिला। तार पति
ने भेजा था, "बरेली सेन्ट्रल जेल तबादला हो गया। पत्र की प्रतीक्षा करो। "डी० आई० आर० के बन्दियों को सप्ताह में एक पत्र लिखने की और मास में एक बार सम्बन्धियों से भेंट की अनुमति थी। अब भेंट के लिये बरेली जाना होगा। सितम्बर दूसरे सप्ताह में भेंट की आशा । फिर चार सप्ताह में डिटेंशन के दो मास का समय समाप्त।
उपा को जेल से पति का पत्र मिला पत्र पर सेंसर की मोहर। पति का पत्र दूसरों की नजरों से गुजर कर पत्र लम्बा न था, न भावुक बच्चा और प्रताप के विषय में जिज्ञासा और अपनी दिनचर्या का ब्यौरा अमुक-अमुक (नाम) को कुशल मंगल कहना और उनका समाचार देना। इस पर भी सेंसर ने गुप्त संदेशों के संदेह में कई पंक्तियाँ गहरी स्वाही से काली कर दी थीं।
उपा समझ गयी, उसका लिखा पत्र भी पति को सेंसर होकर मिलेगा। पत्र बहुत सावधानी से लिखा था। व्यंजना से गुप्त राजनैतिक कार्य का आभास देने का यत्र । प्रताप के खेलों और प्यारी शरारतों का वर्णन सभी लोग मेरी सुविधा का मुझे उदास न होने देने का खयाल रखते हैं। खास तौर पर जेठू भाई अनुमान न था, वे किसी की इतनी चिन्ता भी कर सकते हैं।'
बरेली उषा के साथ गौरी भी गयी। सफर में साथ के लिये हरि भैया ने सत्यभूषण को भेज दिया था। गौरी भेंट के समय आँसू न रोक सकी। उषा उद्वेग वश किये मुस्कराती रही, आपके लौटने में तीन सप्ताह शेष आने की सूचना तार से दीजियेगा।"
है।"
सेठ ने चेतावनी दी, "होप फार द बेस्ट, बी प्रिपेयर्ड फार द वर्स्ट। कुछ भी हो सकता
हरि भैया, पाठक ने पहले ही आशंका बता दी थी, परन्तु उषा पूर्ण आशा बाँधे दिन
गिन रही थी। बरेली से लखनऊ आने वाली सभी ट्रेनों के समय याद हो गये थे।
उषा पति की प्रत्याशित रिहाई की तारीख के दो दिन पूर्व से घर की सम्भाल- सफाई में बहुत व्यस्त थी। सेठ को बेपरवाही और फूहड़ विखराव से चिड़ थी। उस दिन सुबह आठ के लगभग फटकिया से पुकार, "तार वाला
उषा को आशंका। सोचना चाहा, पहुंचने की ट्रेन का टाइम बताया होगा। लपक कर तार ली। फार्म पर दस्तखत करने से पहले लिफाफा फाड़कर पड़ लिया। आँखों के आगे अंधेरा आ जाने के कारण दस्तखत करना कठिन डिटेंशन की अवधि डी० आई० आर० २९ के अन्तर्गत बह गयी थी। मालूम हो गया था, डी० आई० आर० २९ की अवधि अनियमित जब तक सरकार आवश्यक समझे। उपा बहुत देर तक पलके मूंदे बैठी रही।
"मम्मी मम्मी देवो! देखो!" प्रताप आकर घुटनों से लिपट गया। प्रताप को उठाकर गोद में ले लिया। ऑसू बह गये।
पौने दो बरस का प्रताप क्या समझता, परन्तु माँ की दुखी मुद्रा और आंसुओं का प्रभाव अनजान बच्चों पर भी पड़ता है। प्रताप जोर से रो उठा। उपा ने उसे सीने पर दबाकर आँसू पोंछ लिये, "मेरे लाल! मम्मी नहीं लोई कहाँ लोई!" उसे खिलाने लगी, "मेरे पप्पू के डैडी बहादुर मेरा पप्पू बहादुर रा
देवे रात में जमाया दूध बिलो कर मक्खन निकाल रही थी। स्वयं घर में बनाया मक्खन और लस्सी बच्चे और लड़की को खिला-पिलाकर संतोष पाती थी। प्रताप का रोना सुन मक्खन लस्सी सने हाथों में भागी आयी।
रुलाई वश में रखने के प्रयत्न में उपा के आँसुओं की धारे और मोटी बेबे व्याकुल बच्चा और माँ दोनों रो रहे थे। सने हाथ लड़की के साफ कपड़ों को कैसे लगाती। हाथ कोहनियों से ऊपर उठाये समीप होकर उषा को पुचकारा। वेवे की आँखों से भी टपटप उपा ने सिसक-सिसक कर बता दिया, "सरकार ने सजा बड़ा दी।"
"हाय हाय, इन पर रब्ब का कहर! सरकार की मत्त मारी गयी हाथ पाँव बँधे उन्हीं के घर तो बैठा था।" बेबे को गुस्सा आ गया, "रब्ब गारत करे ऐसे जालमों को दोजख की आग में जलेंगे ।"
उषा ने परसू के हाथ तार छोटी गली भिजवा दिया।
घंटे भर में बाबू महेन्द्र और सेठ जी आ गये। सेठ जी के चेहरे पर कातर दुःख की श्यामलता। प्रताप दादा के हाथ से सदा कुछ पाता था। उनकी ओर लपक गया। सेठ जी उसे गोद में उठाकर इल्मदीन के समीप जा बैठे। सेठ जी इल्मदीन को तब भी रखे हुए थे: मरीज न उचट जायें। वही डिस्पेंसरी चला रहा था। इल्मदीन अपनी तनखाह से दूना- तिगुना कमा लेता था।
बाबू और महेन्द्र ने सान्त्वना दी डिटेन्शन की अनियमित अवधि का अर्थ अनन्त समय नहीं है। पोलिटिकल सिचुएशन सुधर जाये, जंग खत्म हो जाये सरकार- कांग्रेस में समझौता हो जाये या सरकार का सन्देह दूर हो जाये तो कल छूट सकता है। सरकार हर दूसरे-तीसरे मास डेटन्यूज के मामलों पर गौर करती रहती है। लोग रिहा होते रहते हैं। बाबू और सेठ जी लौट रहे थे तो हरि भैया और गौरी आ गये।
नरेन्द्र को सेठ के इतनी जल्दी लौट आने की आशा न थी। संध्या खबर लेने आया तब
तक उपा सम्भल चुकी थी।
नरेन्द्र ने छोटी तिपाई पर पड़ा तार देख लिया था, "अच्छी, हमने तुमसे पहले ही कहा था। डी० आई० आर० २६ में जितने भी लोग गिरफ्तार किये गये, दस में से नौ के साथ यही हुआ। बुद्ध की स्थिति बहुत विकट अनुमान है, सरकार और कांग्रेस दोनों को ही स्थिति पर पुनः विचार करना पड़ेगा।
नरेन्द्र सोवियत में नाज़ियों के बढ़ते जाने से युद्ध की स्थिति के बारे में बात करने लगा, "बहुत लोगों का खयाल है नाज़ियों ने फ्रांस पन्द्रह दिन में जीत लिया था। पूरा सोवियत समेटने में अधिक से अधिक छः मास लग जायेंगे। वह अनुमान ठीक नहीं नाज़ी हमले को चार मास से अधिक तो हो गये। तुमने 'वार एण्ड पीस' पढ़ा है। रूस के जाड़े में नेपोलियन पर क्या बीती थी। जाड़े आ रहे हैं। नाज़ी अपनी सीमा से जितना दूर जा रहे हैं, उनकी स्थिति कमजोर हो रही है। रूस की बरफ ! सप्लाई कायम रखना मामूली बात नहीं ।" नरेन्द्र का प्रयोजन युद्ध की स्थिति पर विचार करना नहीं, उपा का ध्यान बँटाना था। उषा उसकी बात में रुचि न ले रही थी।
नरेन्द्र ने बात बदली, "तुमने कॉफी के लिये भी नहीं पूछा!"
"अभी बनाती है।" उषा ने मुस्कराने का यत्न किया।
"अब बनाने का क्या मतलब! खेर छोड़ो। उठो चलो, हजरतगंज में कॉफी लेंगे।" "अब कौन साही वाही बदले! यहाँ ही ले लीजिये।"
"हजरतगंज ही चलो हमें दो-तीन चीजें भी खरीदनी हैं।” नरेन्द्र ने पुकार लिया, "वेवे जी हम अच्छी को थोड़ी देर बाहर घूमा लायें।"
"मला हो बेटा, ले जाओ! सुबह से मुर्झावी हुई है। "
जाड़े तक हजरतगंज का रंग बहुत बदल गया था। दक्षिण-पूर्व एशिया में जापानी आक्रमण के प्रतिरोध के लिये भारत की अनेक छावनियों में अमरीकन सेनायें आ गयी थीं, वैसे ही लखनऊ में भी छावनी में उनके लिये पर्याप्त स्थान न था। विधानसभा मार्ग पर बर्लिंगटन होटल रायल होटल और कार्लटन होटल में भी अमरीकन सिपाहियों और अफसरों के लिये स्थान जाकड़ कर लिये गये थे। हजरतगंज में अब जहाँ श्री गांधी आश्रम खादी भण्डार है, पहले लखनऊ का सुन्दर-सुथरा कॉफी हाउस था। उस कॉफी हाउस और उसके ऊपर स्थान खाली करवा कर अमरीकन सिपाहियों के विनोद के लिये बार और क्लब बना दिया गया था। कॉफी हाउस को धकेल दिया गया नरही की ओर; तब से वहीं है। संध्या हजरतगंज में खाकी वर्दी पहने सिपाही भर जाते। दोनों हाथों में जिन विस्की की बोतलें, बगल में कोई छोकरी जाने कहाँ से सिपाहियों की संगति के लिये अनेक यूरोपियन, एंग्लो-इण्डियन और देसी छोकरियाँ टपक पड़ी थीं। वे सिपाहियों की घात में उनकी बगल में या हजरतगंज के दोनों फुटपाथ पर घूमती रहतीं।
सैनिक दफ्तरों में स्टेनो टाइपिस्ट, रिसेप्शनिस्ट, सैनिक हस्पतालों में नर्सिंग के कामों के लिये बड़ी संख्या में नवयुवतियाँ भी भरती की गयी थीं। सैनिक दफ्तरों में नवयुवतियों की मौजूदगी से वातावरण का तनाव कम और सहज हो जाता। अफसरों के लिये संगति की सुविधा। अंग्रेजी बोल सकने वाली युवतियाँ, अध्यापिका की साठ-सत्तर की नौकरी छोड़कर सैनिक कार्य में दो-ढाई सौ पा जातीं। ग्रेजुएट लड़कियों को तीन-साडे तीन सौ मासिक तक।
यह युवतियाँ 'वकाई' कहलाती थीं। उषा की परिचित दो युवतियाँ भी वकाई बन गयी थीं। हजरतगंज में | बहुत से नये रेस्तोरों खुल गये थे। भारतीय या अंग्रेज जहाँ दो रुपये खर्चते, अमेरिकन दस खर्च करते। पाँच-दस का नोट देकर फिरती से बेपरवाह उन्हें रुपये के मूल्य का ठीक अनुमान न था या जेब में प्रचुर रकम रहती। अंग्रेजों की तरह अमेरिकन देशी रेस्तोरों से कतराते न थे। जहाँ जगह देखते घुस जाते। रेस्तोरों में बड़े-बड़े बाते या फुटपाथ पर चलते मुँह चलाते रहते। अमेरिकन सिपाहियों के जबड़े मुख में भरी च्यूइंग गम के कारण, अकसर हिलते रहते। दुकानदार, रेस्तोरों वाले और रेस्तोरों के वेटर सदा अमेरिकन सिपाहियों को वर्जीह देते। अंग्रेजों को भी अनदेखा कर देते। भद्रलोक इस सबसे परेशान, लेकिन हजरतगंज के आदी लोगों के लिये शहर में वैसी दूसरी जगह न थी।
नरेन्द्र ने गाड़ी प्रिन्स सिनेमा के समीप पार्क कर दी। समीप सिल्वर-खो रेस्तोरों में बैठे गये। रेस्तोरों में बाजार की ओर दीवार काँच की दोनों फुटपाथ और सड़क पर नजर दौड़ा रहे थे। नरेन्द्र ने फुटपाथ की ओर संकेत किया, "उस मुटल्ली को देखना, भिड़ जाये तो ट्रक को उलट दे। पीली साड़ी वाली कैसे कूल्हे झटक-झटक कर चल रही है। बायें हाथ कलूटी छिपकली को देखो। आगे-पीछे एक सी सपाटा खुद काली, वैसी ही काली फ्राका उम अमेरिकन को फैसा रही है।"
" आपको ।"
देखो-देखो मैथमेटिक्स वाला धवन अपनी पड़िया को घुमाने लाया
है एन्थ्रोपोलोजी के विश्वेश्वरैया की बेटी दामिनी।”
"फार गाइस सेक!'' आप किसी को नहीं बख्शते। आप तो हम पर रिमार्क कसने से नहीं माने।" कह गयी, फिर संकोच
"क्या 55] ""कब?"
"जाने दीजिये।" उषा सिटपिटाई, "अच्छा, अमर से नहीं कहियेगा कह दीजियेगा कोई बात नहीं। आपने नहीं कहा था, "उषा फिर झिझकी, "बड़े जोर की लौंडिया फँसाई समथिंग तबीयत तो हमारी भी आ गयी थी। "चेहरे पर झेंपा
“ओ। ''इसमें आपत्तिजनक या अशिष्ट क्या?" नरेन्द्र ने याद कर स्वीकारा, "किसी की सराहना अशिष्टता है?"
"आप तो दुनिया भर की लड़कियों की सराहना करने वाले! बडे दान जुआँ।" "दुनिया भर की हम तो सैकड़ों में से एक की सराहना करते हैं।"
क्या कहने! बनाने को हमीं रह गये हैं।" उपा ने आँखें तरेरी, "तब आप हमें जानते ही क्या थे।"
"जितना जाना था, उतनी सराहना अब निकट परिचय से और सराहना।" नरेन्द्र का स्वर गम्भीर हो गया, "मित्रता या लाईकनिंग वही जो अति सामीप्य की कसौटी पर खरी उतर जाये" "आरम्भिक परिचय में लोग बहुत शिष्ट बने रहते हैं, इसलिये अच्छे लग सकते हैं। उत्तरोत्तर सामीप्य में आपसी रगड़ से ऊपरी परतें चिटखने या खिलके झड़ने लगते हैं। आकर्षण के कारण ही ऊब के कारण बन जाते हैं। अति या निरन्तर सामीप्य से आकर्षण या मैत्री गूढ भी हो सकती है. परन्तु अधिकतर वह ऊब बन जाती है। किसी को पूरा जान लेना कठिन अन्य वस्तुओं और समस्याओं की तरह हम व्यक्तियों को भी उत्तरोत्तर जानते-
पहचानते हैं। अधिक जान लेने पर पहली धारणा बदल सकती है।" "जानने के लिये समय की कोई सीमा?"
"बहुत कठिना" नरेन्द्र ने फिर तटस्थता या बेलागी से सोचने का अनुरोध किया, "तुमने डाक्टर अमर के कितने ही रूप देखे हैं। पहले हस्पताल के वार्ड में, फिर मकान पर आकर समाजवाद की चर्चा करने वाले मित्र के रूप में, फिर तुम्हारे सहयोग या संगति की इच्छा करने वाला अमर फिर पति अमर भविष्य में राजनैतिक परिस्थितियों की आँच में उसका कुछ और रूप प्रकट हो सकता है।" "उत्तरोत्तर अधिक अच्छा, भरोसे का उपा का स्वर प्रेम के गर्व से गद्गद । "बधाई।" नरेन्द्र ने कहा, "परन्तु अकसर अति सामीप्य का परिणाम दूसरा होता है। रजा का मामला जानती हो।"
"वह रज़ा भाई की अपनी परख और पसन्द नहीं थी। वो उन पर लाद दी गयी स्थिति निवाह रहे हैं। भँवरा-वृत्ति लोगों की बात दूसरी, जो सदा नये और बेहतर रूस की खोज में रहते हैं।" उषा ने भौवें उठाकर सावधान किया, "आप भी हमारी बात को बेलाग लीजियेगा । "याद आया, नरेन्द्र अपनी और रला की ठण्डी पड़ती मित्रता की ओर संकेत न समझ ले।
"निश्चिन्त रहो बिलकुल तटस्थता से बात कर रहा हूँ। तुमने भैवरा वृत्ति कहकर नये और बेहतर के प्रति आकर्षण से विरक्ति प्रकट कर दी, परन्तु जीवों को नये, अधिक और बेहतर की इच्छा ही विकास से बेहतर जीवन की ओर ले जाती है।"
"जेठ भाई, सभी स्थानों पर एक ही फार्मूला नहीं लग सकता।" उपा ने आग्रह किया, पति-पत्नी में या मैत्री में भी प्रेम का सन्तोष नये, अधिक और बेहतर की खोज नहीं दे सकता। उसके लिये स्थायित्व और उत्सर्ग का आधार चाहिये।"
" प्रेम उत्सर्ग के लिये नहीं किया जाता, जीवन में पूर्णता और सन्तोष की ललक से किया जाता है। जब प्रेम आकर्षण अदम्य आवेग बन जायेगा, उसके उत्सर्ग की अपील की जरूरत नहीं होगी। जब आकर्षण की ललक खत्म प्रेम खत्म। उसे निबाहने में ऊब और यातना।"
"तब तो सन्तोष कभी होगा ही नहीं। "
"जीव, सचेत जीव पूर्ण या चिरसन्तुष्ट हो ही नहीं सकता।"
उषा ने कलाई पर समय देखा "माई गॉड! उठिये उठिये !"
कार में लौटते समय नरेन्द्र ने फिर बात आरम्भ कर दी, "तुम्हारे विचार में नये अधिक और बेहतर की निरन्तर चाह या उसके लिये प्रयत्न अच्छी प्रवृत्ति नहीं है। बताओ वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और यान्त्रिक विकास से मनुष्य के जीवन में सुधार के लिये नये, अधिक या बेहतर की खोज कल्याणकारी हुई या नहीं?"
"मैंने पहले कहा, एक फार्मुला सभी जगह लागू नहीं हो सकता।" उपा ने अस्वीकारा, "मानवी या नर-नारी सम्बन्धों में इस प्रवृत्ति के परिणाम क्या होंगे? व्यक्ति और समाज का कल्याण इष्ट है या नये, अधिक और बेहतर की खोज?"
"नये अधिक और बेहतर की इच्छा वैयक्तिक और पारिवारिक सम्बन्धों के लिये अकल्याणकारी होगी, यह विश्वांस तुम्हारी वर्तमान समझ है। मानोगी, व्यक्ति-परिवार के लिये क्या अच्छा और क्या बुरा, इस बारे में बहुत मतभेद है और रहेगा।"
उषा बंगलिया के सामने कार से उतर रही थी नरेन्द्र ने कहा "किसी विचार या काम के सही होने की कसौटी समाज की मान्यता या उसके तुरन्त परिणाम को नहीं माना जा सकता। सुकरता की कहानी भूल गयीं। तुम सोचना, फिर बात करेंगे।"
वकील कोहली ने सेठ जी और उषा को तसल्ली दे दी थी कि डी० आई० आर० २९ में अनियमित अवधि सरल कारावास का अर्थ अनन्त समय या बहुत लम्बी अवधि नहीं है। आखिर आशंका की स्थिति कब तक रहेगी? बुद्ध समाप्त होने से पहले भी सरकार और कांग्रेस में समझौता हो सकता है। अंग्रेज सरकार ने जनता की सहानुभूति पाने के लिये वायसराय की कॉसिल में भारतीयों की संख्या बढ़ा दी है। वे लोग कठोर दमन नीति का अनुमोदन नहीं करेंगे। सरकार और कांग्रेस में पहले कई बार समझौता हो चुका है। समझौते के समय जरूरी बात राजनैतिक कैदियों की रिहाई। कोहली अपने मित्र सेठ जी के चेहरे पर मर्दनी देखकर बहुत चिन्तित। अदालत में मामला या जमानत सम्भव होती तो एड़ी- चोटी का जोर लगा देते। टी० आई० आर० २९ में अदालत का रास्ता बन्द कोहली दूसरे रास्ते की चिन्ता में।
कोहली ने वकील कैलाश नारायण सक्सेना से बात की सक्सेना ने बारह वर्ष पूर्व वकालत आरम्भ की तो तीन बरस कोहली का जूनियर रहा था। कोहली को अब भी मानता था। सक्सेना की वकालत फौजदारी की थी, खामकर पुलिस से सम्बद्ध मामलों की। सक्सेना अदालत में पुलिस को नीचा दिखाकर अपने मुवक्किल को बरी कराने के बजाय अधिक सुरक्षित मार्ग से चलता था, पुलिस को पटाकर केस कमजोर कर देना या केस विगाड़ कर मुवक्किल को बरी करा लेना। बहुत संगीन मामलों में भी मुबलि को जमानत आनन-फानन करवा लेना सक्सेना के लिये आसान प्रतिद्वन्द्वी सक्सेना को फौजदारी का वकील न कहकर पुलिस का दलाल कहते थे। प्रदेश में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने पर सक्सेना खद्दर की काली शेरवानी और सफेद किश्ती टोपी पहनने लगा था। युद्ध के समय कांग्रेस मंत्रिमंडल के इस्तीफा दे देने पर सक्सेना हवा के रख के अनुकूल पुरानी शेरवानी और टोपी पर आ गया था। सक्सेना सदा राजभक्त जो भी राजा हो। अब डेढ़ साल में सरकारी कृपा की आशा में बार बांड भी बिकवा रहा था।
बेटे को जेल से छुड़ा सकने के लिये सेठ जी आठ-दस हजार फूँक देने को तैयार सरकार को ऋण देने में क्या जोखिम? माना सरकारी ऋण पर सूद की बहुत कम परन्तु जोखिम तो नहीं सेठ जी ने सक्सेना की मार्फत दस हजार रुपये के बुद्ध ऋण के कागज़ खरीद लिये। सक्सेना ने बताया: डी० आई० आर० के मामलों पर प्रति दो मास में विचार होता रहता है। यू०पी० में डी० आई० आर० के मामले डी वाई एस० पी० तमद्दुक अहमद देखता है। वह हमारा मिलने वाला। डाक्टर अमर के मामले पर विचार के समय आपकी राजभक्ति काम आयेगी। कोहली की राय से सेठ ने ढाई सौ के नोट सक्सेना की जेब में डाल दिये। सक्सेना ने नोट वापस करने चाहे "सेठ जी आपका रुपया हमारे लिये गोरक्ता हमारे लिये कोहली साहब और आप एका"
सेठ जी ने सक्सेना का हाथ रोक दिया, "नहीं नहीं रखिये। आप पर हमें भरोसा लेकिन
पुलिस तो बिना दस्तुर के अपनी माँ का काम न करे।"
कोहली साहब ने उषा के यहाँ जाकर भी समझा दिया "बेटी हम अमर और तुम्हारे खयाल जानते हैं। अपने फादर इन लॉ का भी खयाल करो। उनके लिये अमर और तुम्हारे सिवा और कौन इस उम्र में यह सदमा बर्दाश्त करना उनके लिये मुश्किल। हम अमर की रिहाई के लिये कोशिश कर रहे हैं। इस समय तुम्हारा राजनीति से दूर रहना ही ठीक।"
उपा ने सिर झुकाये बाबू की बात सुनी। उसका भी सेठ जी की तरह आदर करती थी, परन्तु मन कैसे मान लेता स्वतंत्रता के संघर्ष से विरत होना राजे के साथ धोखा, परन्तु यूनिवर्सिटी में उसे श्यामा निगम ने भी पाठक का ऐसा ही संदेश दिया तो उषा ने चुप रहना ही उचित समझा। पाठक अब फरार था। उसके यहाँ न आता। पाठक के सन्देश उपा को बी एस सी० पहले वर्ष की श्यामा निगम पहुँचाती रहती थी।
बरेली सेन्ट्रल जेल में पति से तीसरी भेंट के लिये उपा दिसम्बर चौथे सप्ताह के आरम्भ में गयी। पति से कहा, "हम चार दिन ठहर कर आये, पप्पू अपने जन्मदिन पर आपकी गोद में बैठ सके।" दो बरस का पप्पू फ्लैनल के चुस्त सफेद-नीले नेवी सूट में था। पति के लिये बहुत सी चीजें चचा की ओर से चौक की मिठाई की छींका, नरेन्द्र और रजा ने पुस्तकें भेजी थीं, हरि भैया ने मौसम के बढ़िया अमरूद।
"पप्पू का सूट कैसा लगा? जे भाई का पप्पू को जन्मदिन का उपहार।" उषा का बुना स्वेटर पति को बहुत पसन्द आया, "ये ऊन आपको जेठू भाई की भेंट डिजाइन मेरा । आपके लिये जल्दी-जल्दी बुनकर ले आयी, लौटकर उनके लिये बनाना है। वे भी यही रंग और डिज़ाइन चाहते हैं।"
प्रताप को खूब सजाकर ले गयी थी। उसके कान में याद दिलाया। बच्चे ने अटक अटक कर कह दिया, "टेटी जल्ली जल्ली आना । "
पास खड़े पुलिस अफसर को बच्चे की तोतली बातें सुनकर प्यार आ गया। गोद में लेकर पूछा, "बेटे कितने बड़े हो गये?"
उत्तर दिया उषा ने, “आज दो बरस का हुआ।"
उपा पति को विश्वास दिलाती रही.'
'आपके सिवा हमें कोई कमी नहीं । चञ्चा सदा
से ज्यादा खयाल रख रहे हैं।" मुस्करायी, "और हिज़ मैजेस्टीज गवर्नमेंट को हमारी चिन्ता । आपको यहाँ बन्द रखने के एवज में हमें सौ रुपया मासिक गुजारा दिया जा रहा है। " नरेन्द्र के आने और सांत्वना देते रहने के बारे में भी बता गयी।
सेठ को संतोष, परन्तु विस्मय भी, "नरेन्द्र! वह तो कभी किसी के प्रति उत्तरदायित्व का बन्धन न मानने वाला। सहायता भी करेगा तो अपनी मौज से बहुत भला बन गया। मेरी तरफ से धन्यवाद कहना।"
नवम्बर, १९४९ से कम्युनिस्ट पार्टी ने युद्ध को 'पीपल्स वार' (जनता का युद्ध) मानकर युद्ध प्रयवों के विरोध की नीति छोड़ दी थी। अब अमित को बहिन के यहाँ जाने में आशंका न थी। बाईस जनवरी की रात उषा पति से भेंट के लिये बरेली जाने की तैयारी कर रही थी। अमित उपा को स्टेशन तक छोड़ने जरूर जाता। उस दिन अमित संध्या ही आ गया था।
अमित के आने से कुछ ही मिनट बाद रज़ा आ गया। रजा कालेज से शहर आता तो
लौटते समय उपा का हाल-चाल पूछ जाता था। यह जानकर कि उषा पति से मिलने जा रही है रजा सामयिक स्थिति पर बात करने लगा। उसने दिसम्बर में एमरी की पार्लमेंट में घोषणा की याद दिलायी, ब्रिटिश इस समय सुलह का हाथ बढ़ा रहा है। कारण स्पष्ट है। जापान ने प्रशान्त सागर में इण्डोचाइना सियाम, हांगकांग जहाँ भी हमला किया, आनन-फानन में पूरे द्वीप समेट लिये। वहाँ के लोगों ने जापानी आक्रमण के विरुद्ध अपनी सरकार को कोई सहयोग नहीं दिया। वहीं के लोगों ने जापान को दुश्मन समझा ही नहीं। उनके लिये जैसी एक विदेशी साम्राज्यशाही सरकार वैसा दूसरा विदेशी आक्रामक जापान ने अंडमान भी ले लिया, सिंगापुर की तरफ बढ़ रहा है। उसके बाद वर्मा यानी हिन्दुस्तान (उस समय भारत और बर्मा संयुक्त थे। ब्रिटेन स्थानीय जनता के सहयोग की जरूरत समझ रहा है, इसीलिये एमरी, स्टैफोर्ड क्रिस को कांग्रेसी नेताओं से बातचीत के लिये भेजना चाहता है। गांधी जी ने भी अपने वैयक्तिक सत्याग्रह की व्यर्थता समझ कर इकतीस दिसम्बर से वह नाटक स्थगित कर दिया है। जापानी फासिस्ट आक्रमण को रोकने के लिये इस युद्ध में सहयोग बहुत जरूरी और स्थिति समझौते की बातचीत के लिये बहुत अनुकूला"
रेजा ने अमित की ओर देखा, "हमारे कम्युनिस्ट कामरेड भी अजीब हैं। जब फासिस्ट विरोधी युद्ध के विरोध को गलत समझ लिया, युद्ध को जनता का युद्ध मान लिया तो फासिस्ट विरोधी आत्मरक्षा के युद्ध में सहयोग जरूरी कैसे नहीं समझते!"
अमित का उत्तर, पार्टी लाइन के अनुकूल, तैयार था, "हम फासिस्ट विरोधी जनता के युद्ध में पूरा सहयोग देने के लिये तैयार हैं, परन्तु सहयोग आत्मनिर्णय से देंगे, साम्राज्यशाही के हाथ की लाठी बनकर नहीं। और फिर लम्बी बहस अमित सिद्धान्त के प्रश्न पर अपने गुरुओं से बराबरी से बहस को तैया
उषा पति से भेंट के समय रजा से बातचीत के आधार पर आशाजनक स्थिति की सूचना देना चाहती थी, परन्तु सी० आई० डी० को सुनाकर क्या बात करती। पहली दो मुलाकातों के समय भी वही अफसर चौकसी के लिये था। उषा ने अफसर को सुनाकर बेटे से कहा, "अंकल को गुड मार्निंग कहो।"
अफसर पप्पू को गोद में लेकर दुलराने लगा। उषा ने मौका देखकर पति से कहा, डाक्टर भाई कल कह रहे थे, हालात बदल रहे हैं। पालमेिंट में एमरी के स्टेटमेंट से भी समस्या के हल में सहायता मिलेगी। हालत देखकर गांधी जी ने दिसम्बर के अन्त में सत्याग्रह स्थगित कर दिया। कुछ लीडर रिहा भी हो गये हैं।
"एमरी का स्टेटमेंट देखा है। हम लोगों को अखबार मिलता है। "सेठ ने स्वीकारा और फिर पुलिस को सुनाने के लिये, "प्रश्न है सरकार स्थिति को कैसे देखती है, क्या निर्णय करती है।"
उषा लौटी तो मन आना से उमग रहा था।
चित्रा ने दो मास पूर्व लिख दिया था, भाई हरिप्रसाद का विवाह तीन फरवरी को निश्चित है। वह उनतीस जनवरी दोपहर में लखनऊ पहुंचेगी। उषा चित्रा से मिलने के लिये व्याकुला चित्रा के ससुर रामबहादुर बहुत राजभक्त, चित्रा का पति भी मुसिफ। उपा ने
पति की गिरफ्तारी की बात चित्रा पर विश्वास से लिख दी थी। उषा के पत्रों का उत्तर चित्रा सुविधा से दो-तीन सप्ताह में देती थी पर इस पत्र का उत्तर अविलम्ब दिया। सहेली की परेशानी में गहरी सहानुभूति और समवेदना प्रकट की, लम्बा पत्र न लिख पाने के लिये खेद और सहेली से मिलकर उसकी सुनने और अपनी कहने की इच्छा।
उपा तीन बजे चित्रा से मिलने के लिए पार्क रोड गयी। उषा को अब चित्रा के पिता सरगा साहब के यहाँ जाते झिझक चित्रा के पिता भी सरकार परस्त। अकसर सरकार की ओर से पैरवी करते थे। चित्रा के घर जाते कुछ झिझक उषा को पहले भी होती थी। चित्रा की माँ ने उसे एक बार डाँट दिया था। तब चित्रा और उषा मैट्रिक में थीं। चित्रा दो दिन स्कूल न आयी थी। उपा को पता लगा, सहेली के यहाँ से बीमारी में छुट्टी के लिये आवेदन आया था। रविवार सहेली को देखने चली गयी।
उपा नौकर से पूछकर पिछवाड़े जा रही थी, चित्रा की माँ से सामना हो गया। उपा ने अभिवादन कर पूछ लिया, "दिद्दा, सुना चितू की तबीयत खराब है!"
दिद्दा के माथे पर तेवर, "क्या किसके दुश्मनों की तबीयत खराब है!" उपा समझ न पायी दिा के क्रोध से घबराहट भी चुप रही। दिद्दा ने उसके सिर पर हाथ रख दिया, "बेटा, चित्तू के दुश्मनों को बुखार आ रहा था। अब ठीक है। शाबाश, चली जाओ, चित्तू पीछे के बरामदे में है। ए चन्दो, बिटिया को चित्त के पास ले जाओ।"
उपा की बडवायी हुई आँखें देखकर चित्रा को विस्मय उद्या ने दिद्दा से खाई डाँट के बारे में बताया तो चित्रा हॅस दी, "अच्छी, ये कुछ नहीं, सब लखनौआ बातचीत का अंदाज । अज़ीज़ो के लिये नाकिस लफ्ज इस्तेमाल नहीं किये जाते उनकी बीमारी का जिक्र हमेशा दुश्मनों के नाम से।"
सरगा साहब की कोठी पर मेहमानों के कारण भीड़-भड़का। उपा साढ़े तीन बरस बाद आयी थी। पुरानी नौकरानी ने उसे पहचान लिया। उषा को देख चित्रा लपकी आ रही थी। दिद्दा ने उपा को पहचानने के लिये भाँव सिकोड़ कर देखा ।
उषा को नहीं पहचाना दिद्दा?"
"पहचाना क्यों नहीं क्या नाम, उषा पण्डित नहीं क्या?"
चित्रा सहेली से बात करने के लिये उसे भीड़ से अलग पिछवाड़े ले जा रही थी। सहेली
के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, "क्या हाल है, सच बता। कल गंजूर साहब आये थे। फादर
से कह रहे थे, कई लीडर रिहा हो गये। अब सभी लोग रिहा हो जायेंगे। हम तो भगवान से मना रहे हैं, तुम्हारे साहब आज ही आ जायें। हम उनसे मिलकर लौटें।" कई पल मीन रहकर उपा ने पूछा, "चित्तू तुम्हें क्या हो गया। तीन साल पहले आयी थी, तब से कैसी मुर्झा गयी हो; आधी भी नहीं रही। क्या तकलीफ है?
" अच्छी छोड़ मेरी बाता” चित्रा ने गहरी साँस ली, "दुखी के पास बताने के लिये के सिवा क्या! क्या करेगी दुखी होकर!"
"चित्त, मुझे नहीं बतायेगी?"
दुख
"बता दूंगी, अच्छी।" चित्रा ने आँसू रोकने के लिये होंठ काट लिये "लम्बी बात है। अभी मौका नहीं । तुम्हारे यहाँ आकर बात करूंगी। अपने मकान की जगह बता दे। " " हस्बैण्ड को भी साथ लाना।"
"वे आये ही नहीं।" "क्यों?"
"उनका मूड।"
चित्रा के विवाह के समय उपा ने उसके पति तेज नारायण टिक्कू को देखा था। सुडौल स्वस्थ शरीर, कश्मीरी गोरा वर्ण गालों पर कुछ गुलाबी झलक, क्लीन शेव उषा की नज़र कुछ जनाना कोमलता। रईस, आभिजात्य मुद्रा ।
"चित्रा ढाई मास ससुराल में रहकर लौटी तो सन्तुष्ट, प्रसन्न गर्व और उमंगों से बुदबुदाती। पति के बारे में बताया था बहुत गहरा अध्ययन, वैसी ही तीक्ष्ण बुद्धि और उतने ही गहरे रसिक- रसिया। उसे हर शौक में सहयोगी बनाने का चाब
चित्रा का ससुराल परम्परागत आभिजात्य प्रतिष्ठा का पाबन्द । उसके ससुर रायबहादुर साहब पंजाब के चोटी के वकीलों में उसका पति एम० ए०. एल एल० बी० करके सिलेक्शन में मुंसिफ बन गया था। कचहरी जाता तो परिवार की परम्परागत पोशाक पगड़ी शेरवानी और चूड़ीदार में परन्तु मेल-जोल सैर-सपाटे में सूट।
स्त्रियों के लिये पदों बिना चादर और सवारी के बाहर न निकल सकती थीं। टिक्कू पिता के सन्तोष के लिये परम्परा निबाहता था, परन्तु शौक से उदार विचारा कभी प्रोग्राम बना लेता तो चित्रा घर से साड़ी पर चादर ओढ़ और छोटा घूँघट कर पति के साथ कार में निकलती। अपने गली-मुहल्ले के बाहर आकर चादर पर्दा एक ओर रख देती।
चित्रा ने बताया था उसका देवर देवनारायण और ननद कुसुम परिवार में विकल्प थे। परम्परा और रईसी रख-रखाव से विद्रोही उग्र विचारों के कुसुम सबसे छोटी। आरम्भ में कान्वेंट में पढ़ी। उस समय फतेहसिंह कालेज फॉर गर्ल्स में एम० ए० में थी। अलानिया कहती: मुझे शादी वादी नहीं करनी दकियानूसी कश्मीरी पण्डितों के परिवार में तो हरगिज नहीं! कुसुम और चित्रा में पट गयी थी।
चित्रा दूसरे दिन दोपहर बाद बेटी को लेकर उपा के यहाँ आ गयी। चित्रा ने पप्पू को और उषा ने माला को गोद में ले चूम-चूम कर प्यार किया। दोनों बच्चों को धूप में खेलने के लिये बेबे को सौंप दिया। सहेलियाँ बात करने के लिये भीतर सोफा पर सट कर बैठी। "चित्तू, सच बताओ, तुमने अपना क्या हाल कर लिया।"
चित्रा ने अटक अटक कर उसासों और आह्नों से जो कहानी सुनायी, उसका सारांश था: चित्रा के पति ने गत जुलाई के अन्त में पढ़ी से कहा, यह दूसरे दिन रात की गाड़ी से चार सप्ताह के लिये मसूरी जायेगा। चित्रा संध्या पति के लिये सूटकेस में ऊनी और दूसरे कपड़े सहेज रही थी। उतारे हुए कपड़े धोबी के लिये समेटते समय शेरवानी कोट- पतलून की जेब टटोल रही थी। उसके हाथ में एक सुथरी लिपटी पुड़िया जा गयी। पुड़िया में फर्स्ट क्लास के दो रेल टिकट देहरादून के लिये दो वर्थ के कूपे के रिजर्वेशन की रसीद में लिपटे
हुए।
चित्रा को विस्मय। समझ न पायी तो ननद से पूछा। कुसुम के चेहरे पर सहसा तनाव। टिक्कू परिवार में सभी लोगों का स्वभाव तुष्ट तो तुष्ट, रुष्ट तो बहुत रुष्टः भाभी आपसे नहीं कहा तो आप क्यों परेशान! ये मर्द औरतों को जाने क्या समझते हैं। बीवियों को पर्दे में कैद कर सखियों से गुलछर्रे उड़ाना रईसों की आम बात ये तो चांस ने टिकट और
रिज़र्वेशन आपके हाथ आ गये। हिम्मत है तो साथ जाने को तैयार हो जाइये या कम से कम भैया से पूछिये, ऐसा कौन हमसफर जिसके लिये कूपे के एकान्त की जरूरत?
चित्रा के आग्रह पर कुसुम ने बता दिया: उसके अनुमान से दूसरा टिकट भैया की दोस्त सलूजा के लिये है। पुरानी दोस्ती है। सलूजा पहले टीचर थी फिर बकाई बन गयी। कुसुम कुछ और कहने लगी थी, चित्रा ने पति के कदमों की आहट पहचान कर चुप रहने का संकेत किया। टिक्कू स्टेशन जाने से पहले गुड़वाई कहने आया था।
• टिक्कू ने मसूरी से दो पत्र लिखे। चित्रा उत्तर न दे सकी। मसूरी में वर्षा से तंग आकर टिक्कू कुछ जल्दी लौट आया। लौटने पर पत्नी का मौन और नाराजगी देखकर उसने कारण जानना चाहा।
. चित्रा तेईस दिन से कुछ रही थी। उसने दो टिकट देखने तथा पति के दोस्त के बारे में सुनी बात साफ-साफ बता दी। गुस्से में कह गयी: अगर आपके ऐसे शौक या ताल्लुकात थे तो हमारी क्या जरूरत थी!
टिक्कू का चेहरा तमतमा गयाः बहुत अच्छा हुआ तुम्हें मालूम हो गया। उसकी हमें कोई फिक्र नहीं है। तुम ग्रेजुएट हो, हमारे ख्याल में समझदार तुमने धोखे और बेइन्साफी की शिकायत की। बताओ, तीन बरस में तुमने कब उपेक्षा, किसी तरह की असंतुष्टि दुर्व्यवहार या अपमान अनुभव किया जिसे धोखा या अन्याय कहा जा सके? हम आज भी उसका हर्जाना भर देने को तैयार।
जैसे मैं इनकी जरूरत आराम या घर चलाने की नौकरी की पूरी तनखाह, दूसरे हक या राशन पा रही थी उसमें किस कमी की शिकायत थी। उसके आगे न मेरा कोई मतलब, न हक " चित्रा की आँखें सुर्ख, "और में भी अपना सर्वस्व देकर उन्हें सम्पूर्ण पा लेने, दासी बनकर स्वामिनी बन जाने के स्वप्नों में कितना धोखा!"
दोनों सहेलियाँ फर्श की ओर नजरें झुकाये देर तक मौन
चित्रा की गाड़ी उसे लौटाने के लिये आ गयी। चित्रा उठते-उठते बोली, "अच्छी कल मेरे मुँह से ठीक ही बात निकली निभ रहा था, क्या जरूरत थी जानने की जान कर बवंडर ही हुआ।"
सहेली के पराजय स्वीकार कर लेने के लिये उषा को और भी क्रोध परन्तु चुप रही। सहेली को उस अन्याय के विरुद्ध भड़काने से क्या लाभ था!
दूसरे दिन संध्या उषा व्याकुलता से ध्यान बढाने के लिये बैठक में पप्पू का स्वेटर रफू कर रही थी। पप्पू समीप फर्श पर काठ के रंगीन टुकड़ों से रेल रेल खेल रहा था। बच्चे ने सहसा पुकारा, "ताया। ताया" लड़का खेल छोड़कर फटकिया की ओर भागा। पप्पू नरेन्द्र की कार का भोंपू बहुत दूर से सुन लेता था। कुछ पल में डिस्पेन्सरी से कम्पाउण्डर इल्मदीन की आवाज "आदाब अर्ज है प्रोफेसर साहब डाक्टर साहब!"
उषा ने कंधों से खिसका साड़ी का आँचल ठीक कर लिया। "हेलो अच्छी" नरेन्द्र पप्पू को गोद में लिये भीतर आया, उसके पीछे रज़ा।
उषा ने दोनों को स्वागत से बैठाया। "बैठिये, अभी आती हूँ ।" बेबे को उबलता पानी, प्याले, दूध-चीनी भेज देने के लिये पुकारा। आलमारी से तुरन्त कॉफी का डिब्बा ले लिया।
नरेन्द्र ने बताया, "दोपहर रेडियो पर खबर थी, बंगाल में डेटेन्यूज की रिहाई शुरू हो गयी। हमारा गवर्नर बहुत जालिम, पुराना आई० सी० एस० ।"
" गवर्नर क्या कर लेगा! यू० पी० को भी एमरी और वायसराय का आदेश मानना ही होगा। मोलमीन में ब्रिटिश सेना जापानी हमला रोक नहीं सकी। जापानी वर्मा में घुस गये। ब्रिटिश समझ चुके हैं, स्थानीय जनता साथ न दे तो जापानियों को रोक सकता असम्भवा " रजा का स्वर चिन्तित, "हमारे कुछ उम्र कांग्रेसी और कांग्रेसी सोशलिस्ट तो खुश कि अंग्रेज हार रहा है। उन्हें फिक्र नहीं कि अंग्रेजों की दीवार गिरेगी तो दबेगा हिंदुस्तान अंग्रेज हारेगा तो भाग जायेगा, हिंदुस्तानी कहाँ जायेगा?"
"नेहरू का बयान है, "नरेन्द्र ने उषा को सम्बोधन किया, "तुमने अखबार देखा होगा हमें फासिस्ट जापानी आक्रमण से आत्मरक्षा के लिये तैयार होना चाहिये। विदेशी सरकार जनता का सहयोग नहीं पा सकती, जनता को आत्मरक्षा के लिये स्वयं संगठित और तैयार होना चाहिये।"
"सैनिक सामर्थ्य के बिना युद्ध में रक्षा के लिये कैसा संगठन और तैयारी!" रज़ा के स्वर मैं खीझ, "फासिस्टों के सामने सत्याग्रह करेंगे? हिंदुस्तान पर जापानी आक्रमण और कब्जे को रोकना स्वयं ब्रिटेन और अमरीका के हित में हमारी रक्षा उनकी सैन्य शक्ति को सहायता देकर जापान को रोक सकने में ही है।"
"वो एक पहलू है। ब्रिटेन से आत्मनिर्णय का अधिकार पाये बिना ब्रिटिश के हाथ की लाठी बन जाने का अर्थ होगा, ब्रिटेन की दासता को स्वीकार किये रहना।" नरेन्द्र ने उपा की ओर देखा, "तुम इतनी गुम सुम क्यों? तुम्हारी लाहौर से आयी सहेली लौट गयी? उस दिन तुम दोनों ही रोगी-रोधी सी लग रही थीं। वही उदासी अब तक?"
चित्रा बैठी थी तो नरेन्द्र रीडर्स डाइजेस्ट' देने आया था। उषा ने बैठने के लिये कहा परन्तु उपा और चित्रा का मूड देखकर नरेन्द्र बैठा नहीं।
"उदासी से क्या होगा बेचारी की किस्मत!" उषा ने गहरी साँस ली "औरत होना ही बदकिस्मती।" अमर की तरह उषा को रज़ा और नरेन्द्र पर पूरा भरोसा विश्वास। उसने संक्षेप में चित्रा की बीती बता दी।
"भाभी, आपने भी क्या परेशानी बतायी!" रजा ने सहानुभूति से कहा, "ऐसी शिकायत सही या गलत नब्बे नहीं तो अस्सी फीसदी घरों में चित्रा की शिकायत सही हो सकती है; हमारी बीवी को बेवजह शिकायत है।"
"हूँ।" नरेन्द्र रजा को घूरकर बोला, "अच्छी तुम्हारी हरकतों से नावाकिफ तो क्या गेती भी नहीं जानती। बहुत मासूम बनते हो!"
उषा ने मुस्कान रोककर टोका, "आप लोग चित्रा की परेशानी को समझते ही नहीं। वह फूहड़ नहीं है। उनकी सब सुख-शान्ति राख हो गयी। अब जिन्दगी भर का संतापा
“भाभी, आप बात को बढ़ा रही हैं।" रजा ने कहा, "आपकी सहेली ग्रेजुएट होकर भी परम्परागत रईसी में पैरासाइट बनने के सुख और पर्दे की प्रतिष्ठा के सम्मान से संतुष्ट है तो उस प्रणाली की दूसरी बातें भी उसे सहनी होंगी। आपकी सहेली को पति की ऐसी स्वच्छन्दता नामंजूर तो उसे चाहिये, पर्दे से निकल कर सामाजिक जीवन में पति की सहचरी बने।"
पर्दे की मजबूरियाँ अपनी जगह नरेन्द्र, " कुछ ऊँचा बोला, "लेकिन बीवी चाहे पर्दे में रहे, चाहे पति की बाँह में हाथ डालकर बाजार या क्लब में जाये, जब तक वह निर्वाह के लिये पति की मोहताज, वह केवल पति की जरूरत और संतोष की चीजा उसकी अपनी कोई हस्ती नहीं । उसे पति की दूसरी जरूरतों और संतोष से एतराज का हक?"
"ये आप क्या बकते जा रहे हैं।" उषा के चेहरे पर भी क्रोध पत्नी का इससे अधिक क्या अपमान!"
"अच्छी जरा सब से सुनो!" नरेन्द्र ने समझौते के स्वर में कहा, "हमने कहा नहीं था इस प्रकार के तनाव के अवसर दम्पति जीवन में आते रहते हैं। प्रेम को स्थायी बनाने के लिये ऐसी छोटी-मोटी बातों के लिये उदारता और सहिष्णुता जरूरी होती है।"
"आप तो अजीब बातें करते हैं।" उषा ने विरोध किया।
""अजीब बात क्या " नरेन्द्र ने पूछा, 'टिक्कू की इस बात का क्या जवाब है कि तीन बरस में चित्रा ने क्या अभाव, क्या अतुष्टि अनुभव की? सलूजा के प्रति उसका आकर्षण या व्यवहार चित्रा के लिये ऐसा था जैसे हौद भर जाने पर छलक कर बाहर वह गया जल उससे चित्रा का क्या दिन गया?"
"क्या उलटी उलटी बातें कह रहे हैं।" उषा ने खीझ से कहा।
"उलटी बात क्या है?" नरेन्द्र ने पूछा, "मसूरी में टिक ने मन बहलाव के लिये श्राब पी होगी जुआ खेला होगा, उन सब बातों से चित्रा को कोई एतराज नहीं। एतराज है, सलूजा के साथ एकान्त पर समझती है, पति के उस संतोष पर उसका एकमात्र अधिकार। यह आशंका कि पति उसके हाथ से निकल जायेगा, टिक्कू से प्रेम नहीं, टिक्कू पर अधिकार की भावना।"
" दम्पति को एक-दूसरे पर अधिकार नहीं होता?" उषा को आपत्ति । "अधिकार होता है, प्रेम के नाते और प्रेम में प्रेमी या प्रेमिका के सन्तोष का भी महत्त्व और उसके लिये सहिष्णुता भी प्रेम में सम्मिलित "
"उच्छृंखलता के लिये सहिष्णुता!" उषा ने रज़ा की ओर देखा ।
रजा सिगरेट सुलगा रहा था, रुक गया, “भाभी, उचित और उच्छृंखलता का निर्णय टेडी बात। गेती की नजर में तो औरत का बुरके के बिना घर से निकलना ही बेहयाई और उच्छृंखलता। उसे मालूम हो जाये कि आप अमर को घर छोड़कर हम दोनों के साथ सिनेमा गयीं तो न जाने क्या-क्या बक दे! उच्छृंखलता की कसौटी हर जमाने और समाज की मान्यता और संस्कारों से हर वर्ग और स्तर के लोगों में उच्छृंखलता और उचित के पैमाने भिन्न हो सकते हैं।"
"बिलकुल सही! क्या नाम तुम्हारी मुटल्ली सहेली का ? "उषा के विरोध को अनदेखा कर नरेन्द्र कहता गया, "अच्छा माया सही माया और घोष के उदाहरण से उनकी परस्पर सहिष्णुता देखिये। घोष को इतना आत्मविश्वास कि पत्नी को मित्र की हालत देखने के लिये दूसरे नगर जाने की अनुमति दे सकने में आपत्ति नहीं।"
"जो विश्वासयोग्य होता है, उसी का विश्वास भी किया जाता है।" उषा फिर लड़ने को तैयार।
रज़ा जोर से हँस दिया, "भाभी, ये तुमने खूब कहा! माया ने विश्वास का कौन टेस्ट
पास किया जो टिक्कू ने नहीं किया?"
उपा चुप रही।
उठो भाई, टिक्कू से नाराजगी कहीं हम पर ही न उतरे!" नरेन्द्र ने रजा को चलने का संकेत किया।
प्लीज एक-एक कप कॉफी और " उषा ने अनुरोध किया हमारे लिये आजकल दिन इतने भारी हो रहे हैं कि क्या कहें। आप लोग आ गये तो जरा मन हलका गया।" “भाभी, रात खात्मे पर आती है तो अंधेरा गहरा मालूम होता है। समझ लो, अमर आने वाला है; चार नहीं तो छः दिन में।"
दिन! उपा ने गहरा सॉस लिया और हंस दी।
"हमारा बस चले तो जेल तोड़कर उसे अभी ले आयें।" नरेन्द्र बोला।
फरवरी का दूसरा सप्ताह । उपा अपने थीसिस के लिये पड़ रही थी। संध्या पाँच बजे पुस्तक एक और रखकर चाय के लिये परसू को आवाज देने लगी थी कि बरामदे से पुकार,
सिन्हा का स्वर पहचान कर उपा को विस्मया सिन्हा पाँच मास से न आया था। कुछ दिन पूर्व वर्मा कह गया था, सिन्हा छूट आये। उपा को सिन्हा के आने की आशा न थी । परसू अतिथि को बैठक में ही ले आया।
सिन्हा ने कहा "हफ्ते भर से सोच रहे थे उपा जी के यहाँ हाल-चाल पूछना है पर कोई न कोई झंझट " फिर अमर के विषय में पूछा, "आप कब मिलने गयी थीं? फिर अनुमान प्रकट किया, "अब तक छूट आना चाहिये था बस आया ही चाहता है।"
"क्या लीजियेगा चाय या कॉफी?"
"कॉफी भई कॉफी उपा जी, कॉफी बनाने का आपका खास हुनर है न। वो टेस्ट दूसरी जगह नहीं देखा।" सिन्हा अंग्रेजी बोलते तो शुद्ध किंग्स इंगलिश, आचरण और एक्सेप्ट का ध्यान रखकर हिन्दी बोलते तो नाथ शास्त्री की तरह उनकी बोली में भोजपुरी की लहर आ जाती।
"यह आपकी कृपा मुझे तो कॉफी गरम पानी में घोलकर दूध चीनी मिला देने का ही श्रेय हुनर तो उपा ने कॉफी के डिब्बे की ओर संकेत किया, "कॉफी बनाने वाली नेस्ले कम्पनी को।"
सिन्हा कॉफी की चुस्कियाँ लेता स्वर नीचा कर पत्रों में क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों पर कांग्रेस नेताओं की प्रतिक्रिया की बात करने लगा गांधी जी ने वैयक्तिक सत्याग्रह की निष्फलता देखकर उसे स्थगित कर दिया। गांधी का रुख संघर्ष का तो अब नेता समझौते की ओर झुकने लगे। इलाहाबाद में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक हो रही है। उस समय जनमत ने समझौते की नीति का विरोध जरूरी अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति के विचार से ये ही असली समय ब्रिटेन को चोट देने का सिन्हा ने ब्रिटेन को जोर का ऐसा घूँसा मारने का संकेत किया, “सेठ के आते ही हमें खबर दीजियेगा। अब चुकता नहीं चाहिये।" स्वर कुछ और दबाया, "पाठक से बात करना जरूरी हमारा सन्देश उसे भिजवा सकेंगी
सिन्हा ने दूसरा प्याला भी लिया। लगभग घंटे भर बैठा। अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से उत्पन्न अपने पक्ष में उपयोगी स्थिति के प्रति नेताओं की शिथिलता और समझौतावादी प्रवृत्ति की
शिकायत करके, 'कुछ होना चाहिये' का उच्छवास प्रकट करता रहा।
सदीं उतार पर थी। भोर की झीनी नींद में उपा के कान अखबार वाले के लिये सतर्क रहते। घास पर अखवार गिरने की आहट पाकर लिहाफ छोड़कर शाल ओढ अखवार के लिये लपक जाती। ओस से भीगा अखबार लाकर बिजली के प्रकाश में बिस्तर में बैठकर पड़ने लगती। सबसे पहले जेलों से रिहा होने वाले लोगों के समाचार। उपा ने अखबार गिरने की छपाक के बजाये फटकिया खुलने का खटका सुना। बरामदे में कदमों की आहट और बैठक के किवाड़ों पर जोर की दस्तक कदमों और दस्तकों की भी पहचान होती है। उषा लिहाफ से उछल गयी। बिस्तर में ब्लाउज पेटीकोट में थी। साड़ी तो क्या सर्दी में कंधों पर शाल लेने तक धैर्य नहीं। पलंग कमरे की चिटखनी गिराकर बैठक के किवाहों तक पहुँचते-पहुँचते दूसरी दस्तक और ऊँची पुकार, "परसू ! प्रताप!"
उपा नित्य सुबह बैठक के किवाड़ों की ऊपर-नीचे की चिटखनियाँ हटाकर किवाड़ खोलती थी, परन्तु हड़बड़ी में ऊपर की ही चिटखनी गिराकर किवाड़ खींचें। किवाड़ न हिले तो याद आया नीचे की चिटखनी
चिटखनी खींचते ही किवाड़ बाहर के दबाव से खुल गये।
अमर रात के सफर में कंधों पर लिया कम्बल एक तरफ न डाल सका, उससे पहले उपा की बाँहें उसके गले में उल्लास के आवेग से चीख निकल गयी। पति के गले में बाँहें कसकर लिपट गयी। अवश उल्लास से फफक उठी। अमर ने उसे बाँहों में उठा लिया "अच्छी ! बस- बस बस ।"
अमर का अभ्यास था, जोर से लम्बी दस्तक देने और ऊँचे पुकारने का। बुढ़िया बेबे की नींद पहरू कुत्ते की उषा की बातों से आशा का आभास था। कलेजा उछल आया। लोई कंधों पर डालकर बैठक में आ गयी। विह्वलता में बेखबर लड़की को पति के गले लगी देखकर नजर फेरकर लम्बी दुआ- आशीर्वाद रब्ब को शुक्रिया कहती अपनी खाट पर लीट गयी।
अमर ने देख लिया था, "बेबे जी, पैरीपना।"
बरेली में अमर दोपहर बाद जेल से छूटा था। रात दस बजे पैसेंजर से चल सका। जेल में मिले ऊनी कपड़ों के अतिरिक्त कम्बल था। ऊँचे वर्ग के नजरबंद की हैसियत से उसे ऊँची श्रेणी का रेल टिकट दिया गया था। रात भर जाड़े से ठिठुरता आघाता आया था। पौ फटते- फटते घर पहुँचा। आरामदेह पलंग, बिस्तर लिहाफ विरहाकुल पली अपनी ऊष्मा दे देने के लिये व्याकुल
अमर छोटी गली जाने के लिये तैयार हो रहा था चच्चा बाबू महेन्द्र मास्टर जी आ गये। परसू समाचार पहुँचाये बिना कैसे रहता। सुबह-सुबह नब्बन के यहाँ दूध लेने गया तो पहले छोटी गली और सेवाश्रम में सूचना दी। सब लोग बरामदे में आती किरणों में कुर्सियों पर बैठे थे। अमर ने चज्जा, बाबू को पैरीपना किया। पीछे-पीछे उषा छोटा घूंघट खींचे आयी कृतज्ञता में चच्चा बाबू के समीप फर्श पर बैठ दोनों को चरण-स्पर्श
"सौभाग्यवती हो, कुलवती हो, जुग जुग जियो। बहू, तुम्हारे तप-बल से ही बेटा घर
लौटा। शाबाश तुम्हारा हौसला! अकेली डेढ़ सौ मील दौड़ी जाती थी।" बाबू ने गद्गद कंठ से आशीर्वाद दिया। सेठ जी भावविभोर गला भर आने से मौन पोते को गोद लिये बेटे को समीप कुर्सी पर बैठाकर उसके कंधे पर आशीर्वाद का हाथ रखे थे। उनके जीवन के परम सुख का क्षण कुछ देर में हरि भैया और गौरी आ गये। मामा को नमस्ते करने आभा भी आयी थी। गौरी का मन भैया के यहाँ से जाने को न था, परन्तु नौकरी की मजबूरी।
अमित को मोटरसाइकल चलाना सिखा देना काम आया। मशीन पड़ी पड़ी जाम न हो जाये, इस खयाल से और कुछ अपना शौक अमित तीसरे चौथे मोटर साइकल इस्तेमाल कर लेता था। अमर को गाड़ी रखाँ, चुस्त हालत में मिली। वेवे वालाकदर समाचार पहुँचाने के लिये छटपटा रही थी। प्रताप को दो-तीन बार नाना-नानी से मिला लायी थी। उपा ने वेवे के लिये इक्का मँगवा दिया। ताकीद कर दी अमित से कह देना, कोहली साहब को बिलकुल खबर न दे। साँझ नये हैदराबाद जाने का प्रोग्राम था। दोपहर में मेठ आचार्य जी. सिन्हा, त्यागी ने मिल आया।
अमर का विचार था नरेन्द्र के पास गाड़ी है। समाचार पाकर सुविधा से आ सकता है। हम रज़ा और दूसरे लोगों के यहाँ हो आयें।
उपा का आग्रह, "नहीं, पहले जेठू भाई को सरप्राइज देंगे, फिर रजा भाई के यहाँ राजे आपके पीछे हमारा सबसे अधिक बाल नरेन्द्र भाई ने किया। सप्ताह में दो-तीन बार भी आते। हमारे लिये क्या नहीं किया। कल आये थे, आज नहीं आयेगे चौकाने का मजा आज ही कल तक उन्हें जरूर पता लग जायेगा।"
संध्या उषा तैयार होकर बैठक में आयी तो अमर अपलक गहरी कत्वई रेशमी साड़ी पर बर्फानी सफेद छोटा कोट, जूड़े पर फूलों का गजरा खूब ऊँची एड़ी के जूते। "कैसे लग रहे हैं" उषा पति के मुआइने के लिये उसके सामने एड़ी पर धूम गयी।
"ये कब?" अमर ने सराहना से पूछा।
"कोट भैवाजी के यहाँ से कश्मीरा लेकर बनवाया। आप सरकार से सौ रुपया मासिक गुजारा दिलवा रहे थे। सोच लिया आपका प्रेजेन्टा खूब चीजें खरीदी साड़ी जेठू भाई का नये साल का प्रेजेन्ट कैसी लगी?"
"यही रंग हमने लेने को कहा था तो कहती थी. हम पर इतना गहरा नहीं चलेगा।" "हमें बाद था। जेठ भाई ने भी ये ही पसन्द किया। वो बहुत मीन-मेख निकालने वाले। सोचा, सब कहते हैं तो वही ठीका"
"आइन्दा नरेन्द्र से ही रिकमेंड कराया करेंगे।"
उषा ने पति को मुँह चिज्ञाया और लपक कर चूम लिया।
नरेन्द्र के मकान के कुछ कदम पहले मोटर साइकल रोक दी। अमर पहले भीतर गया। उपा आहट बचाये पीछे-पीछे। नरेन्द्र चकित, "अरे अम्मू नरेन्द्र ने लपक कर अमर को बाँहों में जकड़ कर फर्श से उठा लिया। हमें खबर क्यों नहीं दी? हम स्टेशन पर आते।"
नरेन्द्र को अमर से बीसों प्रश्न: कैसे रहे, क्या पड़ डाला? युद्ध की वर्तमान स्थिति के बारे में अमर के विचारों में कोई परिवर्तन न आया था। स्वास्थ्य बेहतरा
अमर ने बताया, "अच्छी के तो हर पत्र में तुम्हारा गुणगान जेठू भाई वे, जेठू भाई बो, जेठू भाई फरिश्ता हम हैरान, तुम्हारे जैसा मौज का मालिक आदमी कैसे इतना बदल गया!"
नरेन्द्र की नजर उषा की ओर गयी, "क्या इशारे कर रही हो?"
उषा ओठों पर तर्जनी से पति को 'चुप' का संकेत कर रही थी।
"पति पत्नी की प्राइवेट बातें किसी को बतायी जाती हैं!" उषा के माथे पर बनावटी त्योरी, ओठों पर मुस्कान, "इनके मुँह पर तारीफ कर रहे हैं। मिजाज बढ़ जायेगा। इतनी खुशामद से तो आते थे।"
नौकर ने कॉफी का सामान रख दिया। उपा आगे बढ़कर बनाने लगी।
" आपके लिये चाय बनवा दें?" कॉफी से पति की अरुचि भाँप कर उपा ने पूछा।
न न! वहाँ हम चाय भी न पीते थे। चाय के बजाय दूध।"
"हूँ तभी कलते भर गये।" नरेन्द्र ने हुंकारे से गर्दन हिलायी। उपा को सुनाकर बोला, "भाई, इसका दूध न छुड़ा देना।"
"तुम्हारा लुचपना कभी नहीं जा सकता।" अमर ने डाँटा
"तुमने जाने क्या समझ लिया!" नरेन्द्र भोला बना, "हम तुम्हारे स्वास्थ्य के लिये राय दे रहे हैं। जेल में खूब दूध पिया बेटा, सरकार का खाकर दण्ड पेलो और सरकार से लड़ो। " फिर दूसरी बातें। "सुना, तुम राजभक्ति में सरकार के लिये प्रान्त में उद्योगों की
सम्भावना पर सुझाव तैयार कर रहे थे।"
"वो लम्बी बात" नरेन्द्र ने कहा, "जब सुनने का धैर्य होगा; बतायेंगे।"
"कल शाम उधर आना।" चलते-चलते अमर उपा ने अनुरोध किया।
अमर के लौटने पर उपा का उल्लास दूसरे दिन भी कायम पनी बता रही थी क्या-
क्या नया बनवा लिया क्या बदलवा लिया।
"यह क्या मनहूस रंग करवा लिया। परदे भी वैसे ही उदास।" अमर ने बैठक की दीवारों और परदों की ओर संकेत किया।
"हाय बादली धुस्सा, कितना क्वाएट-सोवर कलर ! नरेन्द्र भाई ने मुझाया। रजा भाई और अविनाश ने भी सराहा। "
“हर बात में नरेन्द्र की पसन्द-परख हमारी तुम्हारी पसन्द कुछ नहीं ?" "आपकी हमारी पसन्द पहले पर अच्छा सुझाव माना ही जाता है। अमित को भी पसन्द आया।"
"होगा। हमारी राय में तो सफेद चुना सबसे अच्छा, जर्म-नाशका ये नये फैशन !" प्रताप को जो कुछ पहनाओ, आधे घंटे में धूल-पानी से खराब कर लेता। साँझ पाँच बज रहे थे। उषा उसे फुलवाड़ी से उठा लायी, कपड़े बदलने के लिये बच्चा विरोध में चीख-चीख कर हाथ-पाँव मार रहा था।
"खेलने दो उसे ।" अमर ने कहा।
"राजे, एक मिनट में बदल देते हैं। नरेन्द्र भाई टोक देते हैं, क्या भंगी बना रखा है। “ओफ! हर बात में नरेन्द्र भाई की पसन्द ! "
"हाय तो क्या गलत कहते हैं।" उषा ने चिरौरी की, "कहते हैं इतना सुन्दर लड़का उसे मंगी-सा बनाये रखती हो।"
"बदलो-बदलो खेलने मत दो, कपड़े मैले होंगे उठाकर शीशे की आलमारी में रख
दो।"
क्यों लख दें शीशे की आलेमाली में!" उषा ने लड़के को सीने पर दबा लिया, "हमारा प्रताप सौ बार कपड़े मैले करेगा। मामा सौ बार कपड़े बदलेगी अपने राजे के बेटे के।"
नरेन्द्र के आते ही अमर ने कम्युनिस्टों की नीति परिवर्तन पर आलोचना शुरू कर दी। सेठ जी ने बेटे के लौटने की खुशी में पिछली साँझ ढेरों मिठाई नमकीन फल भिजवा दिये थे। उपा ने छोटी मेज पर सामान लगा दिया। तीन-चार मास से संध्या कॉफी ही ले रही थी। वही बनाकर नरेन्द्र और पति के सामने प्याले रख दिये।
उषा वेवे के लिये मिठाई और कॉफी लेकर रसोई की तरफ चली गयी। लौटी तो नरेन्द्र कह रहा था, चखकर तो देखो।" अमर का चेहरा गम्भीर
उषा कॉफी से पति की अरुचि भूल गयी थी बोली "हम चाय बना देते हैं। पानी खौल
रहा है।"
"जानती हो, कॉफी कल भी हमने नहीं ली।
नाराजगी ।
अब रहने दो।" अमर के स्वर में
"राजे, चखकर देखो। हम चाय भी बनाये देते हैं।"
उषा को उठते देख अमर ने गम्भीरता से कह दिया, "हमें नहीं जरूरत नहीं लेंगे।" " चखने में क्या हर्ज ! " नरेन्द्र ने कहा, "बेटा, ये टेस्ट सीचे जाते हैं।"
"व्यसन बढ़ाने की जरूरत?" अमर ने पूछा।
"व्यसन!" नरेन्द्र बोला "व्यसन ही कल्वर संस्कृति बशर्ते बेकाबू न हो जाये। मियाँ रस की दीक्षा पाये बिना नृत्य संगीत, चित्रकला किसी में रस नहीं आ सकता; विज्ञान और अध्यात्म में भी नहीं है ब्रह्मचारी, उसी प्रकार चाय-कॉफी, सिगरेट-शराब के रस की भी दीक्षा साधना जरूरी।"
"तुम्हीं को मुबारक!" अमर ने इनकार में गर्दन हिला दी। उषा उदासी से चुप रही। "चलो, हजरतगंज घूम आयें। देखो, गंज में क्या रंगत आ गयी। "
"इस समय कैसे जा सकते हैं?" अमर ने इनकार किया, “डिस्पेन्सरी का टाइम हो गया।"
"अच्छा, परसों का पक्का ।" नरेन्द्र उठते हुए बोला "हम लोगों ने चार दिन पहले विज्ञापन देखकर प्रोग्राम बना लिया था। कैपिटल में शॉ की 'मेजर बार्बरा' लग रही है। जरूर देखनी है।"
नरेन्द्र के चले जाने पर अमर भी उठा और नजर बचाये डिस्पेन्सरी में चला गया। पति की नाराजगी से उषा हतोत्साह कल आये, आज नाराज! वेवे रसोई बनाने में व्यस्त । परसू को मटरगश्ती का शौक, प्रताप को कंधे पर बैठाकर चल देता। उषा एक पत्रिका उठाकर पन्ने पलटने लगी पर मन न लगा बेबात नाराजगी ।
अँधेरा गहरा कर रात भीगने लगी थी। मरीजों के आने की आशा न थी। अमर कम्पाउण्डर से पूछ-ताछ कर रहा था, उसके पीछे कैसे चलता रहा। कुछ न कुछ मरीज आते ही रहे थे। कुछ मरीजों की नजर में दाड़ी-मूंछ सफाचट जवान एम० बी० बी० एस० डाक्टर की अपेक्षा शरही मूँछों और खसखसी खिचड़ी दाढ़ी वाला बुजुर्ग कम्पाउण्डर अधिक भरोसे लायक। मरीजों को प्रभावित करने का हुनर इल्मदीन में खूब नब्ज और
जवान देखता ही था, मरीजों के आश्वासन के लिये कान में स्टेथिस्कोप लगाकर सीना- पसली भी टोह लेता। दवा की बिक्री से अपनी तनख्वाह निकाल लेने के अतिरिक्त बीस- पचीस सेठ जी के हाथ पर भी रख देता। उसने अमर को आश्वासन दिया: ख़ुदा के फजल से आप आ गये, सब ठीक हो जायेगा। अमर कम्पाउण्डर के साथ बात करता सड़क पर निकल गया। मील भर का चक्कर लगाकर लौटा। जेल में व्यायाम के लिये अपने हाते में संध्या तेज चाल से पन्द्रह-बीस चक्कर लगाने का नियम बना लिया था।
उपा बैठक में कोने की कुर्सी पर लैम्प के समीप पत्रिका लिये बैठी थी। अमर ने उसे अनदेखा कर परसू को पुकारा "खाना तैयार हो गया तो दे दो।" सोफा पर मौन बैठ गया। उषा उपेक्षा से चुटिया गयी।
परसू की पुकार का उत्तर दिया बेबे ने "बैठ जाओ। खाना ला रहा है।" परसू ने बैठक के आधे हिस्से में लगी मेज पर खाना रख दिया।
"कब तक नहीं बोलेंगे? उपा का उद्वेग उमड़ आया।
"चलो, खाना आ गया।" अमर ने सम्बोधन किया।
उपा ने आँसू रोकने के लिये ओंठ काट लिये। बोल न पायी। जैसे-तैसे ग्रास निगलती जा रही थी। बेबे छोटी-छोटी फूली फूली फुलकियाँ बनाकर भेज रही थी। पंडित परिवार ने लखनऊ में अठारह बरस रहकर भी इस प्रदेश के उच्च वर्ण हिंदुओं का संध्या पूरी पराठे का पक्का खाना न अपनाया था। अमर को हाजमे के विचार से पूरी के बजाय फुलके पसन्दा उषा कनखियों से देख रही थी। अमर ने भी मन भर कर न खाया। दोनों मौन
खाने के बाद अमर ने स्वेटर पर कोट पहन लिया और ऊनी टोपी।" हम रज़ा के यहाँ हो आयें।" बाहर जाकर मोटर साइकल चालू कर दी।
उषा स्तब्ध परन्तु अब उपेक्षा की व्यथा के बजाय क्रोधः अपमान की सीमा। ऐसा हमने क्या कर डाला। प्रताप के रोने की आवाज बेबे की पुकार "अच्छी धिये लड़के को नींद आ रही है। उसे सुला दो। मैं खा रही हूँ। "
परसू प्रताप को यहाँ दे जाओ।" उषा पलंग कमरे में चली गयी। प्रताप का खेल- खिलवाड़ करना हो तो मम्मी, नींद के लिये बेबे की अपकी। बच्चा रें-रें कर रहा था, उपा उसे थपक रही थी। वास्तव में रो रहा था उसी का दिल, बेटे के गले से लड़का चार-पाँच मिनट में सो गया। उषा लड़के को बेबे के कमरे में पलने पर सुला आयी।
अमर विलम्ब से दस के करीब लौटा। दस्तक सुनकर उषा ने बैठक के किवाड़ खोले। मन बहुत भरा हुआ। पलंग पर लौटकर सिर चेहरे पर आँचल लपेट लिया। बुला लेना चाहती थी. गिगा कर हाथ जोड़कर न बोले तो! कितना अपमान कर रहे हैं। नरेन्द्र के सामने अपमान किया और बाद में भी मेरा कसूर?
अमर को पलंग पर उषा की बगल में लेटे कई पेल गुजर गये। उषा के लिये कई घंटे रह न सकी, "राजे, पूछ सकती हूँ स्वर भीगा ।
जरूर पूछ सकती हो।" अमर स्वयं ही बुलाने को था। क्रोध छन चुका था, सहारा बन गया।
" आप किस बात से नाराज हैं। हमसे क्या गलती हुई?"
"मैं खुद पूछना चाहता है, क्या वजह कि हर समय हमारी उपेक्षा?" ठिठका, "मत समझ, क्षुद्रता या ईर्ष्या कर रहा हूँ।"
"हाय राजे, आपको कैसी ईष्यों या क्षुद्रता!"
“लेकिन देख रहा हूँ तुम्हारे लिये नरेन्द्र की राय-रुचि ही सब कुछ बन गयी जब से आया हूँ, नरेन्द्र का राग पत्र लिखती थी तो भी उसी का जिक्र! पहले मुझे कह लेने दो। कल साँझ तुमने देखा, कॉफी नहीं पी सकता। तुमने आज फिर कॉफी बनायी, क्योंकि नरेन्द्र को पसन्द । जुलाई तक तो तुम्हें कॉफी के बजाय चाय पसन्द थी। मेरी रुचि की परवाह ही नहीं!"
राजे, आपकी परवाह नहीं तो परवाह किसकी?" उपा का स्वर संगत हो गया, कल साँझ आपने कहा जरूर था, परन्तु आधा प्याला ले लिया था। आपको चाय का भी शीक नहीं। पहले हमें कॉफी का टेस्ट नहीं था। सब लोगों के साथ हम भी पीने लगे तो अच्छी लगने लगी।"
"हमारे लिये चाय बनाने में तकलीफ होती है तो नहीं पियेंगे।"
"राजे, कैसी बातें करने लगे। हम तो बनाने के लिये दो बार उठने को हुए, हमें डॉटकर बैठा दिया। हमें बनाने क्यों नहीं दी?"
"उपेक्षा अपमान से आदमी को गुस्सा नहीं आयेगा ?"
"हाय राजे, आपका अपमान हम करेंगे! ऐसा कहने से हमें मरा देखो"।" "अच्छा चुप!" अमर ने उसके ओठों पर हाथ रख दिया "ऐसा नहीं कहते।"
उषा पति से लिपटकर फफक उठी, "आपने दूसरों के सामने डाँटकर हमारा अपमान क्यों किया? आपकी वाइफ की इंसल्ट आपकी इंसल्ट नहीं? हमारी गलती समझी तो अकेले में जो चाहे कहते, डाँट लेते। फिर इतनी देर बोले क्यों नहीं? रजा के यहाँ अकेले गये। मन चाह रहा था. सिर फोड़ लें।" अमर भी विहवल दोनों एक-दूसरे को सम्भालने के लिये अधीर सुलह हो गयी।
तीसरे दिन उपा दस बजे यूनिवर्सिटी के लिये तैयार हो गयी, "कई दिन हो गये। डाक्टर दास को हाजिरी देना जरूरी वर्ना समझ लेगा हम कुछ नहीं कर रहे। कल सरकार आया था कि आज लॉ के सहाय का टॉक करवाना है। हम यूनियन के कल्चरल सेक्रेटरी । कम्युनिस्ट पीपुल्स वार डिक्लेयर करके छूट आये। अपने प्रोपेगेण्डा का जोर बाँध रहे हैं। सहाय हाईकोर्ट के जजमेन्ट पर बोलेंगे — 'अपराध करने का इरादा प्रकट करना अपराध नहीं है।' इस बार यूनियन की प्रेसीडेन्टशिप बहुत मुश्किल के कम्युनिस्टों से ले आये हैं। अब उनके प्रभाव के लिये सतर्कता जरूरी।"
सेठ दोपहर में सिन्हा के यहाँ चला गया। एकान्त में बात के लिये। सिन्हा ने कहा: अब आन्दोलन नहीं, संघर्ष करना होगा। बहुत सावधानी से गुप्त तैयारी गिरफ्तार नहीं होना, चाहे फरार हो जाना पड़े। नेहरू, आज़ाद को जर्मनी जापान का आतंक खाये जा रहा है। आजाद ने कानपुर स्टेशन पर लेक्चर दे डाला-अगर बोस जापानी फौज लेकर आयेंगे तो हम दोनों हाथों में तलवार लेकर मुकाबला करेंगे। राजगोपालाचार्य तो सरकार और लीग दोनों से समझौते के लिये तैयार उन्हें पाकिस्तान की माँग तक मंजूर। जनता बौखला उठी पिटते पिटते बचे। उन्हें बचाने में नेहरू भी रगड़े गये। नेहरू जनता का रुख देख सहम गये। नेहरू को गांधी के विरोध का साहस नहीं चमत्कार ये कि गांधी अब सबसे उम्र युद्ध-विरोधी ।
स्वर दबाकर अंग्रेजी में, परसों हमने उषा जी के सामने कहना ठीक न समझा। अविनाश और दूसरे साथियों ने हमसे कई बार कहा, उषा जी को समझाना जरूरी नरेन्द्र कोहली से उनकी इतनी आत्मीयता ठीक नहीं जानते हो कम्युनिस्ट लड़कियों के बारे में कैसी-कैसी बातें उड़ती रहती हैं। लोगों का ध्यान सबसे पहले लड़कियों की ऐसी रेपुटेशन पर जाता है। दो बार किसी से हँसते-बोलते देखा और ले उड़े। और इनका रोज का मिलना। कभी कोहली के साथ कार में कभी साथ सिनेमा, कभी गंज में साथ घूमना, रेस्तोरों। गंज में गाड़ी पार्क करके आउट्रम रोड पर निराले में बाँह में बाँह डाले घूम रहे हैं। हम तो ऐसी बातों की परवाह नहीं करते। 'मतलब है, पार्टी कामरेड की बदनामी से पार्टी की बदनामी।"
सेठ ने झिझक से पत्नी की ओर से सफाई दी, "उसके मूल संस्कार दूसरी बिरादरी और चलन के। नरेन्द्र से हमारे सम्बन्धियों जैसे रिश्ते, उसे जेठ कहती है। हमारे पीछे नरेन्द्र ही उसकी सब तरह की सहायता करता रहा।"
सिन्हा ने असहमति में सिर हिला दिया, "हम पाँच बरस यूरोप में रहे। वहाँ किसी भद्र महिला के साथ चलते समय उसे बाँह का सहारा न दो तो लोग आपको वहशी समझें। हर समाज का अपना कायदा लोगों को क्या मालूम, कोहली से उसका क्या रिश्ता है। हमारे यहाँ तो जेठ से हाथ भर का लम्बा घूंघट खींचा जाता है। हम तो कोहली को जानते नहीं पर उसके बारे में कुछ सुना जरूर है। हम लोग पोलिटिकल वर्कर हैं। पार्टी कामरेड की बदनामी से पार्टी की बदनामी ।"
सेठ घर लौटा तो बैठक में छोटी मेज पर चाय का सामान तैयार उषा ने पुकार लिया, “राजे, आप साँझ का प्रोग्राम भूल गये। पाँच बज रहे हैं। झटपट चाय ले लो। " "तुम्हें चाय अच्छी नहीं लगेगी, अपने लिये कॉफी बना लेती।"
" आपके साथ हमारे लिये सब अच्छा। नरेन्द्र भाई छः से पाँच मिनट पहले वहाँ पहुँचेंगे।"
" सिनेमा हम कैसे जा पायेंगे?" सेठ प्याले की ओर नजर किये रहा।
"राजे, ये क्या? आपने विचार कैसे बदल दिया? नरसों आपके सामने बात हुई।" उपा
का स्वर आतुर, "हम जा रहे हैं, आप हमारे साथ न जायें, ये कैसा लगेगा?"
"हमारी अनिच्छा जानकर भी तुम्हारा जाना जरूरी तो जाओ। हमने विचार नहीं बदला। प्रोग्राम तुमने हमसे पूछकर नहीं बनाया। हम उसी समय कह देते हम नहीं जायेंगे। " "राजे, क्या कह रहे हैं। हमें इतना भी हक नहीं। "ये क्या नयी बात?"
"देखो अच्छी, परसों साँझ जो बात हमने कही थी सिर्फ हमें ही वैसा नहीं लगा, सभी लोग कह रहे हैं। हम रूढ़िवादी नहीं, लेकिन औचित्य का खयाल जरूरी। हम नरेन्द्र की रेपूटेशन के बारे में तुम्हें बहुत पहले बता चुके। तुम्हें नहीं मालूम पर नरेन्द्र से तुम्हारा लगाव सभी को खटक रहा है।" सिन्हा का नाम न लिया पर सेठ ने आवेश में सब कुछ कह दिया।
"ये संकीर्ण, कमीने लोगों की बातें हैं। वो नरेन्द्र भाई को क्या जानते हैं।" उषा को क्रोध आ गया, "सेक्स के अलावा सौहार्द मैत्री की कल्पना ही नहीं बातों को क्या-क्या रंग दे
डाला! हम यूनिवर्सिटी जाते थे सप्ताह में एक दिन नरेन्द्र यहाँ रोज कब आते थे? सबके सामने सिनेमा या गंज में कम्पनी से कौन अनाचार? बाँह में बाँह फँसाकर घूमने की खूब कही नामालूम किस जैनेगी में झूठी अफवाहें "।"
"दूसरे सब जैलेसी में झूठ बकते हैं?"
रोजे, व्हाट इयू मीन उपा ने घूरकर पूछा, "क्या हो गया है आपको!"
"हमें कुछ नहीं हुआ। हमने जो देखा, जो दूसरों ने देखा-सुना, तुम्हारे प्रति कर्तव्य और अधिकार से तुम्हें सावधान करने के लिये कह दिया।"
राजे, तुम्हारा अधिकार कर्तव्य है पर गलतफहमी दूर करना हमारा भी फर्ज आपको हम पर नहीं, लोगों की बात पर विश्वास
"तुम पर विश्वास है और आपसी हित में तुम्हें सचेत करना भी आवश्यक है।" राजे, ये छः मास जेल की घुटन का असर चिड़चिड़े हो गये हैं और अकारण भ्रान्तियाँ। धैर्य रखिये स्वयं देख लेंगे।"
हम सब देख रहे हैं। हमें कैसी घुटन! हमें अकारण धान्ति और सब लोगों को भी भ्रान्ति सोचना चाहिए, हमें या लोगों को भ्रान्ति क्यों? भ्रान्ति का कारण दूर होना चाहिये।"
"हम अपनी भावना नहीं जानते?"
ये तर्क नहीं, जिद्द है। अपने बारे में किसी की राय का कोई मूल्य नहीं होता।" सेठ उठकर बरामदे में टहलने लगा। चाय बिना पिये रह गयी। उषा सोफा पर बैठी दाँत पीसे मौना
प्लीज सुनिये!" उपा ने उठकर दरवाजे से पुकारा।
"क्या है?" सेठ भीतर आ गया।
उषा ने पति के कंधे का सहारा ले लिया, स्वर अनुरोध-निग्ध, कल्पना नहीं कर सकती आपने क्या सोच-समझ लिया। यह सब छः मास की मानसिक यातना के कारण। स्वयं देखकर सब उलझन दूर हो जायेगी।"
"क्या उलझन दूर हो जायेगी।"
"जो कुछ भी गलतफहमी है। पौने छः हो गये। अब ऐसे ही चले चलो। आप चाहें तो स्वयं नरेन्द्र भाई में बात कर लीजियेगा। अब हमारी इज्जत रख लो।"
"तुम्हें हमारी इज्जत का सवाल नहीं, हमारे डिस्पेंसरी के टाइम का भी खयाल नहीं, हमारा सवाल नहीं। ऐसी मानसिक स्थिति में हम क्या सिनेमा देखेंगे?"
"यू विल फील बेटर: चलो तो वो हमारी खातिर इतनी दूर से आकर टिकटें लिये बड़े होंगे।"
"फिर वही बात तुम्हें नरेन्द्र का खयाल हमारी इच्छा-भावना का नहीं?
राजे, इस समय इच्छा हमें भी नहीं रही। केवल निवाहने का सवाल है। जन तो अपने ऊपर ही किया जा सकता है। नरेन्द्र फिर दूसरे आदमी।”
खैर, हमने कह दिया, हम नहीं जायेंगे, नहीं जायेंगे।" सेठ फिर बरामदे में चला गया। उपा अपनी ऐसी अवज्ञा से पल भर के लिए स्तब्धा पति ने ऐसी असंगत कठोरता कल्पनातीत थी। दृड निश्चय से पुकारा, "परसू जल्दी जाओ! रिक्शा-तांगा इक्का जो मिले.
एकदम ले आओ!" गुसलखाने में चली गयी।
परसू ने सूचना दी, "रिक्शा आ गयी।"
सेठ हैराना आशा न थी, उषा अपनी बात पर इतना अड़ जायेगी।
उषा साड़ी बदल कर कमरे से निकली। मुंह क्रोध से भारी, "आई एम सारी। वचन दिया है जाना पड़ेगा।"
सेठ को कल्पना न थी, उपा अकेले जाने को तैयार हो जायेगी। इस अपमान में उदारता दिखाने के लिये बोला, "तुम अकेली जाने को तैयार हो तो हम पहुँचा देते हैं। हम सिनेमा नहीं जायेंगे। लोगों को मालूम है, हम लौट आये हैं। तुम अकेली अन्य आदमी के साथ सिनेमा जाओ, यह लोगों को खटकेगा। हम पहुंचा देंगे तो लोग समझेंगे, हमारी अनुमति है। हम ये अपनी और तुम्हारी इज्जत के पर्दे के लिये कर रहे हैं। अब भी सोच लो।" उषा ने फिर दो बार साथ चलने का अनुरोध किया।
"हमने जो कह दिया, वही होगा।" अमर का निश्चय। घर के भीतर होते तो आँसू बहाकर मनाने का यन करती सड़क पर मजबूर।
नरेन्द्र सिनेमा की ड्योढ़ी में प्रतीक्षा में छटपटा रहा था। मोटर साइकल पहुँची तो घंटी बज रही थी। “जल्दी करो, दूसरी घंटी है।"
"हम नहीं आयेंगे। सवा आठ तक आकर उषा को ले जायेंगे।" सेठ ने इंजन बन्द न
किया। नरेन्द्र की बात सुने बिना लौट गया। नरेन्द्र विस्मितः
नरेन्द्र के साथ उषा हाल में चली गयी। फिल्म के लिये चाव मर चुका था। स्थिति की
स्पष्ट कटुता नरेन्द्र से कैसे छिपी रहती। इंटरवल में नरेन्द्र ने पूछ लिया, "अमर नाराज क्यों है?"
पति की और अपनी इज्जत के विचार से उपा क्या कहती? 'नहीं कुछ नहीं, कह देना भी सम्भव न था। मन इतना व्यथित कि आँसू रोकना कठिन नरेन्द्र का इतने दिन से उत्तरोत्तर बढ़ता गहरी आत्मीयता, भरोसे, विश्वास और आभार का व्यवहारा
"जाने क्या गलतफहमी हो गयी?" उसके मुख से निकल गया तो और कहना पड़ा, "लोगों ने क्या-क्या कान भर दिये हैं। स्वयं समझ लेंगे।"
नरेन्द्र बहुत उदास, "अच्छी, यह हस्बैंड वाइफ का मामला। उसमें तर्क नहीं, भावना प्रधान होती है। अमर स्वभाव से कुछ निडी अडियल । समझदारी से काम लो। इसमें दूसरे के बोलने से अपमान मान लेगा। "
सेठ लौटा तो इल्मदीन आ गया था। दो मरीज भी थे। सेठ मरीजों को 'बहुत सावधानी से देखकर नुस्खे लिख रहा था।
"भैया वन्दे मातरम्! खीं खौं मामा जी वन्दे मातरम्।" गौरी बेटी को लेकर आयी थी आभा को जुकाम-खाँसी ।
सेठ ने आभा का गला देखकर कम्पाउण्डर से दवा दिला दी। उसने हरि भैया, भाभी
और दूसरे बच्चों का हाल पूछा।
"भैया, तुम्हारी तबीयत कैसी है?" सेठ के चेहरे का भारीपन गौरी को खटका "बिलकुल ठीक जीजी।"
"हम भाभी से मिल लें।" गौरी भीतर गयी "पप्पू बेटे! भाभी!"
"प्रताप को परसू जरा घुमाने ले गया है।" बेबे ने बताया, "दोनों कहीं गये हैं।" बेबे को मालूम न था, सेठ कब का लौट आया।
"भैया तो हैं, भाभी कहाँ मरीजों के लिये नुस्खे लिखकर सेठ भीतर आ गया, बैठो जीजी हम अच्छी को सिनेमा पहुँचाने गये थे। नरेन्द्र के साथ प्रोग्राम था। बादल से कॉफी सर्दी हो गयी। आमा, चाय पियोगी
"भैया, इतनी दूर गये थे. दोनों साथ-साथ देख लेते। भैया जी की तरह तुम्हारी सिनेमा न देखने की कसम तो है नहीं।"
हमें ऐसा शौक नहीं। यहाँ बीमारों के आने का भी समय "
"भैया, एक बात कहें। गौरी कुछ झिझकी पर बात मुँह में आ गयी थी. "भैया, तुम लोग बहुत आजाद बवाल। हम भी अपने पुराने रीति-रिवाज नहीं मानते। भाभी तुम्हारे साथ जहाँ जायें घूमे सबको खुशी पर गैरों के साथ उनका घूमना-फिरना लोगों को नहीं जँचता। पुराने समय में तो मर्दै परदेश होता था तो औरत का ढंग से कंधी-चोटी करना भी लोगों को खटकता था। पर अपने मर्द का कुछ तो सवाल चाहिये। भैया, हम तो कुछ नहीं कहते पर बड़ी भाभी को बहुत बुरा लगता है।"
गौरी कहती गयी, "कालिक अनान के दिन भाभी हमारे साथ गोमती गयी थी। लौटने में बोली, यहां तक आये हैं, उपा बहू को देखती चलें। यहाँ आये तो परसू ने बताया, नरेन्द्र साहब आये थे, उन्हें मोटर में ले गये हैं। बच्चा रो रहा था। बेचारी बड़ी उसे कंधे पर लिये बहला रही थी। भाभी को बहुत बुरा लगा, बोली, तुम्हारे भैया जेल चले जाते हैं तो हमें घर उजड़ा उजड़ा लगता है। ये रंगरेलियां मना रही है, जैसे तीजों पर मायके आयी हो।
"भैया, आज ही क्या ऐसा मुहरत था। तुम्हें फुर्सत नहीं थी तो कल-परसों दोनों साथ- साथ चले जाते। नरेन्द्र भाई को सब लोग बहुत विद्वान बताते हैं। उन्हें नहीं खयाल आता, उनके साथ बहू के इतना घूमने-फिरने से उँगलियाँ उठती है। हम तो जब आये, अकसर उन्हें यहाँ देखा। कभी वो रजा डाक्टर भी। चाय-पानी हो रहा है। घर भर में सिगरेट का धुआँ।" जीजी, उन पुराने रिवाजों को छोड़ो। अच्छी, क्या नरेन्द्र मे घूँघट करेगी। नरेन्द्र अपना रिश्ता- जिम्मेदारी समझते हैं। उपा भी अपनी जिम्मेदारी जानती है।" गौरी के सामने पत्नी की आलोचना उचित न समझी पर उसका मन और कटु हो गया।
नरेन्द्र उषा हाल से निकले तो सेठ को प्रतीक्षा में देखा। नरेन्द्र उसकी ओर बढ़ आया, “तुम नहीं थे तो अच्छा नहीं लगा। उषा तो बिलकुल सुन्न बनी रही। इससे तो न आती। "क्या हुआ?"
"कुछ नहीं।" सेठ ने नरेन्द्र की ओर से नज़र बचाये उषा को मोटर साइकल पर बैठने का संकेत किया। उषा मौन पीछे बैठ गयी।
घर पहुँचे तो सेठ नजर चुराये उपा से कहा, "हमें तो भोजन की इच्छा नहीं "तुम बा लो।"
उषा विस्मित, वह अकेली कैसे खा ले, "अभी हमें भी भूख नहीं। आप खायेंगे तब नही। वेवे. तुम खा लो। हम लोगों के लिये अंगीठी पर डॉक दो।" मन बहुत खिन्न था। सेठ के समीप आ गयी, "आपको कितनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी? आपको देने खड़े देखा तो बहुत
बुरा लगा। नरेन्द्र पहुँचा देते या हम रिक्शा तांगे पर आ जाते। आपको ऐसे खड़ा होना पड़े, यह हम दोनों की इन्सल्ट नहीं!"
"इन्सल्ट में कसर क्या रह गयी! सवाल है, स्थिति सम्भल सकती है या नहीं।" क्या मतलब? कैसी स्थिति
"स्थिति स्पष्ट है। हम दोनों स्वेच्छा से नैतिक दृष्टी से कानूनन पति-पत्नी हैं। हमारा सम्बन्ध दूसरों के निर्णय या सामाजिक मजबूरी से नहीं है। यदि अब हम एक-दूसरे से सन्तुष्ट नहीं।
"मोमेंट!" उपा ने टोका पति उत्तेजना में ऊंचा बोल रहा था। उठकर बेबे के कमरे के किवाड़ उड़का दिये। बच्चे की नींद टूट न जाये।
उषा पति के समीम आ गयी, "यस?"
"स्पष्ट है, तुम्हारे लिये नरेन्द्र का महत्त्व मेरी अपेक्षा अधिक हो गया।" "क्या गलतफहमी हो गयी आपको? आप और नरेन्द्र में क्या तुलना?"
"क्या माइने मैं नरेन्द्र की तुलना में नगण्य
"राजे!” उषा ने विरोध का साँस खींचा, "आप उलटे माइने क्यों निकाल रहे हैं? आप मेरे पति वो नातेदार या मित्र।"
"यह तो कानूनी या सामाजिक बात तुम्हारे लिये उसकी संगति अधिक जरूरी, उसकी इच्छा, संतोष का अधिक ध्यान मेरी भावना की अपेक्षा उसकी खिन्नता, निराशा की अधिक चिन्ता। तुम्हारे पत्रों से समझ गया था, तुम नरेन्द्रमय हो गयीं।"
"राजे, सम्भल कर बोलिये!" उषा का स्वर क्रोध से भर्रा गया, "मैं सिर्फ एहसान में शिष्टाचार निभा रही थी।"
"अपने आकर्षण सम्मोहन को शिष्टाचार बताकर मुझको या स्वयं को बहलाने से क्या लाभ! स्पष्ट है, उसका आकर्षण तुम्हारे लिये अदम्य । उसकी संगति अधिक संतोष जनक। " "दिस इज लिमिटा" उषा ने ओठ काटा, उठने के लिए दोनों हाथ सोफे पर रखे, आँखों में चिनगारियों, "आपको मुझ पर सन्देह !" झटके से उठी।
सेठ ने उसकी बाँह पकड़ ली।
"छोड़िये छोड़िये, आपका सन्देह दूर कर दूँ।" उपा ने बाँह झटक लेने का यत्न किया। पति ने उसे खींचकर बाँहों में कस लिया, "पागल मत बनो।" याद आ गया माँ से अपमान की उत्तेजना में सिर पर दाब मार चुकी थी। उसे बाँहों से उठाये पलंग कमरे में ले गया।
उषा हॉफ हॉफ कर पति की बाँहों में छूटने का यत्न करती रही, “छोड़ दीजिये, यह नहीं सहूँगी।"
सेठ पक्षी को बाँहों में कसे पलंग पर बैठा रहा। उपा ने थकान से विवश होकर पलकें मूंद लीं। श्वास सम हो गया। चेहरे पर बूंद टपकने से उसकी पलकें खुलीं। पति की आँखों में आँसू देख उषा तड़प उठी। बाँह पति के गले में डाल दी, “राजे, तुम्हारी आँखों में आँसू ! मैं मर जाऊँ ।" आँचल से पति के आँसू पोंछे अपनी आँखों से झरने दोनों बाँहें उसके गले में डाल उसके सीने पर सिर रखकर फफक उठी।
उषा चौथे दिन दोपहर में यूनिवर्सिटी गयी। चार बजे लौटी तो पति बाहर गया हुआ था। पति के लौटने पर चाय के लिये सोफा पर पति से सटकर बैठी। प्यालों में चाय डालते- डालते बोली, "हम गये तो नरेन्द्र भाई थे नहीं। लौट रहे थे तो दिखलायी दिये, क्लास लेने जा रहे थे। हमने उन्हें बता दिया, वी आर आल राइट। कोई गलतफहमी नहीं है।"
पति के मौन से उपा ने उसकी ओर देखा, चेहरा गम्भीर।" राजे, चुप क्यों?"
सेठ निरन्तर प्याले से घूँट भरता रहा। उषा के अनुनय से प्रश्न दोहराने पर भी मौन उषा का मन बुझ गया। सेठ प्याला समाप्त कर उठा और बाहर चला गया। उषा ने झाँककर देखा, पति पैदल रिफायेआम क्लब की ओर जा रहा था। कहाँ जा रहे हैं? पति के व्यवहार से उषा का मस्तिष्क चकरा रहा था। सेठ आधे घंटे बाद टहलकर लौट आया पर डिस्पेन्सरी में ही रहा।
उषा ने खाना रखवा कर पुकारा तो पति मेज पर आ गया। चुपचाप खाना शुरू "राजे, इतने चुप क्यों?" "हमसे गलती हुई तो बता दो।"
"खा लो, फिर बात करेंगे।"
खाने के बाद सेठ कुछ मिनट मौन बाहर चहलकदमी करता रहा। उपा की नज़र पति की ओर पति बैठक में आकर बैठा तो समीप कुर्सी ले ली।
सेठ ने बात शुरू की, "हमारी पति-पत्नी के बीच की प्रत्येक स्थिति और व्यवहार की सूचना नरेन्द्र को देना और उस पर उसकी स्वीकृति लेना आवश्यक है?"
"कतई आवश्यक नहीं, राजे!" उपा का स्वर खेद का, "ये किया भी नहीं। उस दिन सिनेमा न जाने से नरेन्द्र भाई को आशंका और खिन्नता स्वाभाविक थी। हम उनकी चिन्ता दूर कर देना चाहते थे।"
"लेकिन हमारे बीच उसका क्या स्थान? पति-पत्नी की आपसी बात से उसे मतलब, उसे बताने की जरूरत?"
"हम दोनों के बीच किसी का स्थान नहीं उनकी सद्भावना के लिये हम दोनों कृतज्ञ हैं, इसीलिये ""
" फिर वही बात!" सेठ ने टोका, "तुम्हें उसकी खिन्नता और चिन्ता दिखायी देती है, मेरी नहीं। सीधी बात कहो, तुम माया की तरह पति और मित्र दोनों को चाहती हो। मुझे मंजूर नहीं।"
"उषा ने हाथ कानों पर दबा लिये।
"तुम चाहती हो, हमारे सम्बन्ध का परदा बना रहे। तुम मनचाहे खेल खेलो, मैं उदारता के धोखे में बेबकूफ बनता रहे।"
“अमर भाई।" बरामदे में रजा की पुकार और साइकल टिकाने की आहट रजा के फटकिया खोलकर भीतर आने की आहट पर अमर- उषा उत्तेजना में न सुन सके थे। रज़ा बैठक में आ गया, "मियाँ बीबी में डिबेट हो रही है। बारुदखाना से लौट रहे थे। सोचा, दस मिनट तुम्हारे यहाँ बैठ लें।"
हो!"
"आओ आओ।" सेठ ने कुर्सी की ओर संकेत किया।
उषा अपनी उत्तेजना छिपाने के लिये मुस्करायी, "हमारी डिबेट खत्म, आपकी शुरू
"डिबेट विवेट कुछ नहीं।" सेठ ने उषा को बैठ जाने का संकेत किया, "तुम्हारे सामने ही
बात हो जाये। यह कह रही हैं, मुझे खामुखा गलतफहमी "
"राजे, क्या फिजूल बात!" उषा ने टोका ।
"हम लोगों में कुछ परदा नहीं है।" सेठ ने उपा को जवाब देकर रज़ा की ओर देखा, "तुम स्थिति पर गौर करके तटस्थ राय दो।"
"हमारी आपसी बात से उन्हें क्यों परेशान करेंगे?" उषा ने याद दिलाना चाहा, पति- पत्री की बात से तीसरे को क्या मतलब?
"अब स्थिति उस हद तक पहुँच गयी कि निर्णय जरूरी।"
"अमर, तुम बहुत एक्साइटेड हो।" रजा बोला, "भाभी ठीक कह रही हैं।"
सेठ ने आग्रह किया, "नहीं, यह मामला छिपाने से नहीं सुलझेगा।" और उत्तेजना में नरेन्द्र के प्रति उषा के अनुराग के प्रमाण में पिछले दो दिन की घटनायें, उषा के पत्रों का उल्लेख और नाम लिये बिना लोगों से अफवाहें बताने लगा।
उपा दाँत दबाये सुन रही थी। झटके से खड़ी हो गयी, "बातों को जैसा रंग दिया गया हैं, मुझे सुनने की जरूरत नहीं। न मुझे सन्देहों, आरोपों के जवाब देने हैं।"
"तुम बैठो, सुनने को क्यों तैयार नहीं?" सेठ ने पत्नी का हाथ पकड़ कर बैठा लिया, "मैं गलत कहें तो तुम सही बता सकती हो।"
उपा उठ गयी, "रजा भाई, क्षमा कीजिये। संदेह और आरोप मुझे असह्य! पति-पत्नी में क्या पंचायत?"
रज़ा ने सेठ से कहा, "भाभी की बात सही है। पंचायत की कोई जरूरत नहीं। इन्हें भीतर जाने दो।"
उषा के भीतर चले जाने पर सेठ उसके व्यवहार की शिकायत करता रहा। रज़ा कुछ देर सुनकर कुर्सी से उठा और अमर से सटकर बैठ गया। स्वर दबाकर बोला, "तुमने बात शुरू की है तो बात साफ हो जाये। हमें अन्दाज़ है, तुमने किन लोगों ने कहा। यह लोग हमें भी बहुत बार साथ ले जाते रहे। यकीन मानो, वह बात जिसके लिये दूसरे की मौजूदगी खटके दोनों में नहीं। मेरी बात को गलत मत समझना, रजा ने अमर की आंखों में देखा, “तुम्हें बेवफाई का अंदेशा या शक नहीं, तुम्हें एतराज सिर्फ नरेन्द्र के प्रति भाभी के अति आदर और लगाव से है। दोस्त, बुरा न मानना, तुम्हारे व्यवहार में बेवफाई की चिन्ता की अपेक्षा ईर्ष्या का क्रोध अधिक है। नरेन्द्र के लिये उषा की सराहना, उसकी संगति की चाह से तुम्हें अपनी तौहीन महसूस होती है।"
“पर उषा का व्यवहार" सेठ ने कहना चाहा, स्वर उत्तेजित।
रजा ने सेठ का घुटना दबाकर भीतर कमरे की ओर संकेत किया, "बाहर आओ।" सड़क पर आकर रज़ा बोला, “भाभी जैसी चेतन, विनोदप्रिय स्त्री के लिये यह व्यवहार स्वाभाविक मानोगे, नरेन्द्र का व्यक्तित्व, बोलचाल, आचरण हमारी तुम्हारी अपेक्षा आकर्षक, खासकर स्त्रियों के लिये भाभी के लिये नरेन्द्र मित्र, लेकिन तुम पति, वह समझती है दोस्ती की हद कहाँ तक तुम खुद उन्हें स्त्री-पुरुषों में समान स्थिति, समान अधिकार के लिये बढ़ावा देते रहे हो। अब एकदम दूसरी दिशा। भाभी जैसी खी को जोर- जब से नहीं रखा जा सकता "रजा सड़क पर टहलते हुए देर तक सेठ को समझाता रहा।
रजा और पति को बैठक में छोड़कर उषा पलंग कमरे में चली गयी। बैठक में अप्रिय चर्चा की भनक से बचने के लिये कमरे के किवाड़ बन्द कर लिये। इतना ओभ कि तालू से आग निकल जायेगी और पति पर गुस्सा सीना चीर कर दिखा दे, दिल में क्या है? दोनों हाथों से कनपटियों दबाकर, आँखें मुंदे, बिलकुल सीधी चित्त लेट गयी। कुछ मिनट में मस्तिष्क में भरा धुआँ बैठने लगा। बैठक में बातचीत की अस्पष्ट भूनका पति की आवाज़ का अनुमान राजे को हो क्या गया! अड़ जाने की आदत पहले भी थी, परन्तु समझने- सोचने के लिये तैयार रहते थे।
बैठक से पति के कदमों की चाप। अमर पलंग कमरे का दरवाजा ठेलकर भीतर आ गया। उषा ने पलंग पर दाहिने सरक कर जगह दे दी। चाहती थी, सांत्वना देने के लिये बात करे परन्तु झिझका आँखें मूंद आहट से अनुमान करती रही। पलंग हिलने से पति के समीप लेट जाने का आभास उषा ने कलखी से देखा, वह दोनों हाथ सिर के नीचे दबाये, सीधा चित्त लेटा था। कई मिनट उसी तरह।
उपा को अनुमान, पति कोध बौखलाहट की थकावट से विश्राम के लिये नींद चाहता है। दाहिने करवट लेकर पति को और स्थान दे दिया। कुछ पल बाद उसके कुल्हे पर पति का हाथ, जैसे नींद में आ पड़ा हो। पति की नींद खराब न करने के लिये उषा निश्चल। "अच्छी।"
उपा करवट लेकर पति की ओर सरक गयी।
"अच्छी, क्षमा कर दो। मैं बिलकुल अवश हो गया हूँ।" देख रही हो, तुमसे अवज्ञा की आशंका - कल्पना से मेरी क्या हालत इसे क्षुद्रता या कमीनापन समझ सकती हो लेकिन यह सब तुम्हें खो देने की आशंका से "। "
उषा अमर की बाँहों में निश्चल पति के हाथ उसके घुटनों से नीचे पाँव की ओर सरके । उपा ने हाथ रोक दिये। कान पर आँसू टपकने से पति की ओर देखा, "प्लीज, आँखें पौलिये।"
अमर के हाथ फिर उषा के घुटनों से पाँवों की ओर उतरे।
उपा ने पति का हाथ रोक दिया, "ये सब न कीजिये। ये मुझे असह्य आँखें पोंछिये। सौ बार कह चुकी आपकी हूँ।" अमर के गले में बाँह डाल दी, परन्तु निश्चल मौन। पहले मुझे क्षमा कर दो। अच्छी, मैं अपने आप में नहीं हूँ समझ लो, स्वप्न में भूत देखकर पागल हो गया हूँ. मुझे रोगी समझ लो।"
उषा ने दोनों बाँहें पति के गले में डाल उसका सिर अपने सीने पर दबा लिया, “आँखें पोंछो। स्वप्र के भूत को मन से निकाल दो। मैं तुम्हारी हूँ, तुम मेरे हो। मन से सन्देह निकाल दो। तुम्हारे लिये सब कुछ न्योछावर कर सकती हूँ।"
अमर पक्षी की करुणा जगाने के लिये अपना क्लेश बताता रहा, "जानती हो, दस बरस से यह मोटर साइकल चला रहा है। उस पर मुझे अपने हाथ-पाँव की तरह भरोसा, जैसे मेरे शरीर का ही अंग। दो-चार बार मामूली चोटें खरोच भी आयीं पर घबराहट कभी महसूस नहीं की। अब लगता है, साइकल मेरे नीचे से निकल जायेगी, मुझे फेंक देगी। मेरी बाँह इसे सम्भाल सकने में असमर्थ लगता है, मैं सबसे निर्बल हीन अपदार्थ हो गया है। तुमने देखा, जेल से आया तो स्वास्थ्य बेहतर था, वहाँ सात पौंड वजन भी बढ़ गया, लेकिन अब चलने से घुटने काँपते हैं "। "
"उपा पति को बाँहों में लिये परन्तु नजर उसके चेहरे से बचाये। स्वर में कुछ विरक्ति, “ऊटपटांग बातें न करो। अच्छा नहीं लगता। जानते हो, वहम है, उसे दूर कर दो।" पति के आश्वासन के लिये उसके केश उँगलियों से सहलाने लगी।
"अच्छी सिर चकरा रहा है। मुझे सुला दो।"
पति को नींद ला सकने के लिये उषा ने उसे करुणा से समेट लिया।
अगले दो दिन सेठ कुछ गुमसुम था। उषा को अनुमान, रजा के सामने अपने व्यवहार से खिन्न हैं। पति की खिन्नता न बढ़ाने के लिये सतर्क रही। दूसरे दिन संध्या चाय के लिये बैठे थे तो नरेन्द्र आ गया।
उपा ने उल्लास से स्वागत किया, "आइये।"
"बैठो।" सेठ ने भी कहा, परन्तु स्वर ठंडा । उषा संकोच छिपाने के लिये चाय बनाने में व्यस्त हो गयी। सेठ ने नज़र झुकाये बड़े-बड़े घंटों में प्याला समाप्त कर दिया, तुम लोग चाय पियो। हम अभी आते हैं।" सेठ बाहर निकल गया। कुछ पल में मोटर साइकल स्टार्ट होने की आवाजा
उषा नरेन्द्र से नज़र न मिला सकी। दोनों कुछ देर चुप रहे। नरेन्द्र ने मौन तोड़ा, "तुमने कहा था. सब ठीक हो गया है. आकर देख लीजिये। मुझे खेद है, मैंने खामुखाह बदमज़गी पैदा कर दी।" नरेन्द्र प्याला समाप्त करके उठ गया।
नरेन्द्र के चले जाने के बाद उपा वैसे ही बैठी रही। क्या करूँ? दूसरों के सामने मेरा अपमान क्यों करते हैं! कह देते हैं, सॉरी और फिर वही बात
उषा को डिस्पेन्सरी से आती भनक से अनुमान हो गया, पति लौट आया था। आठ बजे के लगभग पति की पुकार सुनाई दी, "परसू बेबे जी से कह दो, हम बुआ के यहाँ छोटी गली जा रहे हैं। वहाँ से खाकर आयेंगे।" उपी का उत्तर पाने से पहले ही सेठ निकल गया। बे के आग्रह पर उषा ने अनिच्छा से एक चपाती खा ली। सेठ की प्रतीक्षा में बाहर सर्दी में लान पर चहलकदमी करती रही। दस बजे पति के लौटने की आहट सुनी तो अन्दर पलंग कमरे में चली गयी।
"आप उठकर चले क्यों गये?" पति के आने पर उपा ने पूछा।
"तुम लोगों की आपसी बात में विघ्न न डालने के लिये। "
उषा ने विस्मय से पति की ओर देखा, "आपसे अलग हमारी आपसी बात क्या? कोई मिलने आये उसकी ऐसी अवज्ञा "।"
“तुम चाहती हो, तुम्हारे मित्रों से आमोद-प्रमोद के समय में आई बनकर बैठा रहूँ?" सेठ का स्वर तीखा
"आप क्या कह रहे हैं?" उषा का स्वर भारी।
"तुम यही चाहती हो। उसे तुमने मेरी राय या अनुमति से बुलाया था?"
"बुलाया नहीं। अनुमति का अवसर या प्रश्न भी क्या था। परसों उन्होंने चिन्ता से पूछा । मैंने कह दिया, अब बिलकुल ठीक है। स्वयं देखने मिलने चले आये। पहले भी आते ही थे। " "तुम फिर उस बात को कुरेद रही हो। " सेठ का स्वर क्षुब्ध, "उसे भूल नहीं सकती? यह मेरे लिये असा "
"आप बात सुन लीजिये।" उषा का स्वर दृढ़
"क्या कहना है?"
उनके प्रति हमसे अभद्रता और अन्याय हुआ है। वे कितना घुट रहे होंगे। उनका तीन साल का व्यवहार हम भूल सकते हैं? आपके पीछे उन्होंने मेरे लिये क्या नहीं किया? रजा भाई से पूछिये।"
"तुम उसके प्रति अभद्रता अन्याय देखती हो, मेरी समझ और भावना नहीं? सेठ का चेहरा तमतमा गया। उपा का भी।
"आप सुनना नहीं चाहते तो क्या करूँ?" उषा ने पति की आंखों में सीधे देखा, "मुझे अनुमति दीजिये, उनसे मिलकर इस प्रसंग के लिये अपनी और आपकी ओर से खेद प्रकट करके क्षमा माँग लूँ।"
"मेरी अनिच्छा के बावजूद?"
मेरे खयाल से आपका उनके यहाँ जाना उचित होता, परन्तु आपको विवश नहीं कर रही हूँ। मेरा विवेक यह आवश्यक समझता है।"
"विवेक का बहाना साफ कहो, उससे मिलने की इतनी तड़प कि मेरी अवज्ञा करके भी उससे मिलने के लिये आतुरा"
उषा ने पल भर पति की आँखों में देखा, "साफ कहती हैं. नरेन्द्र भाई के साथ हमने बहुत अन्याय किया। उनसे जरूर क्षमा माँगना चाहती हूँ। वह बहुत सदाशय, सहायक मित्र हैं। आखिर मेरे उनसे मिलने पर आपको आपत्ति क्या?"
"तुम उस पर आसक्ति से मेरी अवज्ञा करो; मैं आपत्ति करूँ तो तुम्हें विस्मय?" उपा की आँखें लाल, गर्दन तन गयी, "आपने क्या आसक्ति देखी?"
"मेरी अनिच्छा भावना जानकर भी उससे अकेले मिलने की उत्सुकता। यह मेरी
अवज्ञा अपमान नहीं? यही है पति-पत्नी का सम्बन्ध?"
"अकेले कैसे? मैंने आपसे साथ चलने के लिये कहा। मैं सदा आपकी मानती हूँ, परन्तु आपको मेरे विवेक, मेरी भावना का कुछ खयाल नहीं। आपने मुझे अविनाश से मिलने पर टोका, माया से मेल-जोल पर असंतोष, अब नरेन्द्र से मिलने पर आपत्ति में स्वयं को सदा कुचलती रहूँ?
"तुमने स्वयं को कुचला या मैं सब देख-समझ कर भी तुमसे पति का व्यवहार निबाहता रहा। उसके लिये कितनी ग्लानि और पश्चाताप अनुभव किया!
उपा का चेहरा घृणा, अपमान, क्षोभ से श्यामला पलकें मुंदकर गर्दन झुका ली।
सेठ ने गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी को उठने का अवसर न देने के लिये और वार किया, "तुमने मुझे इतना अपदार्थ, नपुंसक समझ लिया कि मुझे अपने प्रेमी से अभिसार के लिये पर्दा बनकर साथ चलने के लिये धमका रही हो। एक बार तुम्हें उसकी संगति में छोड़ आया, तुमने मुझे 'कोल्ड' समझ लिया। जैसा चाहोगी, मुझे नचाती रहोगी ।" अमर उत्तेजना वंश न कर पाने पर बैठक में चला गया। पलंग कमरे की ओर का दरवाजा जोर से बन्द कर लिया।
उषा पलकें मूंदे पलंग पर चित्त लेट गयी थी। क्रोध और आवेश से सिर में चक्कर फिर वही पागलपन को दौरा ककोल्ड! अभिसार! क्या होने को है।
बैठक से कुछ रखने उठाने की आहट । फिर कुर्सी खींचे जाने की अखबार खुलने और मोड़ने की आवाजें । उपा चित्त लेटी पलकें मूँदे रही। पति के कमरे में आने, कपड़े बदलने की सरसराहटें। रोशनी बुझ गयी। पति के बोझ से पलंग हिला पति मौन लेट गया। उषा ने दायें दूसरी ओर करवट ले ली।
"अच्छी !"
उषा निश्चल, मौन पति ने दूसरी-तीसरी बार पुकारा, "सुनो!"
"क्या है?" स्वर में बीस।
"अच्छी, आई एम सॉरी प्लीज, सुनो। "
"गुन रही हूँ।"
"तुम बहुत अवज्ञा कर रही हो। यह असह्य "
"सुन रही है।" उषा करवट से सीधी, चित्त हो गयी।
"इधर आओ।" पति का हाथ उसके सीने पर। उपा ने हाथ हटा दिया।
"तुम्हारे रवैये से तुम्हारी मानसिक स्थिति स्पष्ट है।" पति का स्वर क्षुब्ध, "मेरा स्पर्श
भी असह्य तुम अंतिम फैसला कर लो।"
"क्या?"
"तुम नरेन्द्र से ज़रूर मिलना चाहती हो।"
उषा के मौन पर पति ने धमकाया, "जवाब दो!"
"हाँ"
"यह दो नावों की सवारी असम्भवा फैसला कर लो, वो या मैं?" स्वर धमकी का "फैसला तो हो चुका।"
"क्या?"
"मैं मजबूर, सदा के लिये कैदी ।"
पति कुछ पल मौन। फिर उपा को अपनी ओर समेटने का यत्न उपा ने उसका हाथ हटा दिया, "मुझे ग्लानि और पश्चात्ताप का कारण नहीं बनना।"
"अच्छी परेशानी में मुँह से निकल गया। सिर फट रहा है। नींद नहीं आ सकेगी।" फिर हाथ पत्नी के शरीर पर
उषा ने पति का हाथ फिर हटा दिया, "मैं नींद की दवा नहीं हूँ।" "अच्छी !" पति ने फिर हाथ बढ़ाया।
"चुपचाप लेट भी नहीं सकती!" उषा फुंकार से उठी। समीप रेक पर से कम्बल लिया, बैठक में जाकर सोफा पर लेट गयी।
कुछ देर बाद उषा के शरीर पर फिर परिचित हाथ का स्पर्श क्रोध से उठ बैठी, "कहीं शान्ति नहीं पा सकती! सड़क पर चली जाऊँ?"
अमर दाँत पीसकर अपने पलंग पर लौट गया।
खटके से उषा की आँख खुली। पति गुसलखाने की ओर जा रहा था। उसे नींद बहुत देर से आयी थी. देर से आँख खुली खिड़की के पर्दे पर पी फट जाने का प्रकाश। उपा रसोई में चली गयी। अंगीठी अथक चुकी थी। वेवे मग से चाय सुड़क रही थी।
"बेवे, चाय मुझे भी दे।"
देबे नित्य के समय पर उठी थी। रसोई में जाते हुए उषा को सोफा पर कम्बल में गुड़ी- मुडी देखकर चिन्तित क्या फिर लड़ पड़े ! उपा को चाय थमाकर पूछा लिया, "तू जाड़े में यहाँ एक कम्बल में सोई, क्या बात?
उपा ने बात बनायी, "बेबे, थोड़ी ही देर पहले उठकर गुसलखाने गयी। पेट में गडगडाहट थी। यहाँ ही लेट गयी। शायद फिर जाऊँ।"
कुछ पति-पत्नी एक-दूसरे से नज़रें बचाये। सेठ अखवार लेकर बरामदे में जा बैठा। जाड़े में कम्पाउण्डर साढ़े आठ तक आता था। गरीब मरीजों के पास घड़ी कहाँ सूर्य की किरणें फैल गयीं तो उठकर चल दिये। एक बुड़िया, बहू और बच्चे को लेकर जल्दी आ गयी थी। दो और मरीज आ गये। सेठ मरीज़ों को देखने में लग गया। उनके लिये खुद ही दवा बना दी। व्यस्त रहने का यत्रा मन में पत्नी से पाये अपमान से उबाल, प्रतिशोध के उफान मरीजों के चले जाने पर उद्विग्रता से बेचैन, फैसला करने देने के निश्चय से भीतर आ गया।
पत्नी को उसके पढ़ने के कमरे में आने के लिये पुकारा। गम्भीर मुद्रा, निश्चय के स्वर में अंग्रेजी में बोला, "तुमने गत रात के व्यवहार से हमारा पति-पत्नी का शेष सम्बन्ध भी समाप्त कर दिया।" बहुत सोचकर तैयार किया वक्तव्य उत्तेजना में गड़बड़ा गया, "हमने किन भावनाओं से जीवन में सहयोग किया था, उसका यह अन्त। अस्तु, स्पष्ट है, अब तुम्हारा अन्यत्र अनुराग अदम्य में तुम्हें असह्य तुम्हारा क्या निर्णय है?"
"मैं कह चुकी । उपा की नज़र खिड़की से बाहर।
उनका कुछ अर्थ नहीं। तुम्हारा कहना करना परस्पर विरुद्ध निर्णय स्पष्ट होना चाहिये और ईमानदारी से। तुम्हें दोनों में से एक को चुनना होगा "किसे चुनती हो?" उषा के मौन से पति को भरोसा पत्नी उसकी अंतिम चोट से विवश होकर उसका निर्णय मानने को बाध्य हो जायेगी। वह अपना अनुशासन मनवाने पर दूड़ उषा मौन पति ने उत्तर के लिये तकाज़ा किया।
उपा नजर खिड़की से बाहर किये स्तच्छ। पति के तीसरे तकाज़े पर उषा का मौन टूटा, स्वर क्षीण परन्तु दृढ़, "अब फिर चुनना है तो इट इज नॉट यु।"
इट इज नॉट यू सेठ के तालू पर आकाश से बछे की तरह गिरा, पूरे शरीर को बेध कर फर्श में धंस गया। मस्तिष्क, शरीर, निस्सत्व। पीछे हटकर बचने के लिये तिल भर जगह नहीं!
सेठ स्तब्ध। कई पल बाद बोल सका, बेहरा लाश की तरह सफेद डूबते को तिनके के सहारे का अन्तिम प्रयत्न “ठीक है। तुम्हारा निर्णय गुन लिया। यह निर्णय है तो वे ही होगा। इस निर्णय के बाद सहवास का कोई कारण या प्रयोजन नहीं।"
"चली जाऊँगी।" उपा की नजर पूर्ववत् खिड़की से बाहर।
"कहाँ?"
"सोच लूँगी।"
सेठ सोचकर बोला, "ठीक है, परन्तु मेरा कुछ उत्तरदायित्व? तुम्हें कहीं जाने, रहने के लिये कितना चाहिये? यह मेरा अन्तिम दायित्वा"
"कुछ नहीं चाहिये।"
"तुम्हारी इच्छा मेरा दायित्व समाप्तः”
उषा उठकर पलंग कमरे में चली गयी।
डाक्टर सेठ का सिर कंधों से उड़ा जा रहा था। शरीर रेत की दीवार की तरह रहता लग रहा था। मस्तिष्क पर बार-बार चोट इट इज नॉट यू! इट इज नॉट यू नॉट यू! नॉट यू!" कुछ देर बाद दूत निश्चय से उठा। सोचने के लिये डिस्पेन्सरी की ओर चला गया। दो मरीज और आ गये थे। कम्पाउण्डर भी आ गया था। अमर मरीज़ो की ओर ध्यान देने में अक्षम।
"हमारे सिर में दर्द है। आप देख लीजिये।" सेठ कम्पाउण्डर से अनुरोध कर बैठक में आ गया। चिन्ता और क्षोभ से कुछ भी सोच सकना कठिन कमर के पीछे हाथ बाँधे बैठक में चहलकदमी करने लगा, कान पलंग कमरे की ओर उस ओर से बहुत धीमी आहटें। क्या कर रही है? बीस मिनट बाद कौतूहल अवश
सेठ ने पलंग कमरे में झाँका, उषा ड्रेसिंग टेबल के आईने के सामने कान से बुन्दा निकाल रही थी। मेज़ पर नोटों के ऊपर जेवर उसके विवाह के समय भावो और पुष्पा भाभी ने सेठ जी से उसके लिये बहुत-सा जेवर निकलवा दिया था। उसके बाद प्रताप के जन्म की खुशी में, प्रताप के नामकरण पर सोने की भारी अनन्त, भारी चेन, चूड़ियाँ मिलती रही थीं। पति के जेल में रहते समय सरकार से निर्वाह के लिये एक सौ मासिक, मिल रहा था। उसमें से साढ़े तीन सौ शेष सब रुपया, जेवर, चावियां मेज पर कलाइयों से सोने की चूड़ियाँ भी निकाल दीं। काँच की लाल चूड़ियाँ उतारते हाथ ठिठक गया, सुहाग का चिन्ह उन्हें रहने दिया। दाम उनका कुछ भी नहीं। केवल सुहाग का चिन्ह । पत्नी के व्यवहार से नेट और व्याकुल, "ये सब तुम्हारी वैयक्तिक चीजें हैं। " उषा ने इनकार में गर्दन हिलायी और कान से बुन्दा निकालती रही। एक महत्त्वपूर्ण बात तुम्हें यहाँ से कुछ मंजूर नहीं, लड़के का क्या होगा?" बुन्दा खोलने के यत्र में उषा के मीन से सेट को कुछ आशा, "लड़के का क्या होगा? मुझे जानने का हक है।"
उषा ने बुन्दा कान से निकाल कर मेज पर रख दिया, "उसे ले जाऊंगी।"
"मैं लड़के का पिता हूँ। तुम मुझसे सम्बन्ध नहीं रखना चाहती। लड़के से मेरा सम्बन्ध नहीं तोड़ सकती। उससे मेरा सम्बन्ध और मुझे उसके बारे में जानने का अधिकार है।" सेठ को अपने इस दाँव की सफलता पर भरोसा उषा दीवार की ओर नज़र लगाये मौना पति का तकाजा, "मेरे प्रश्न का उत्तर?"
"अभी नहीं ले जा रही हैं।" उषा पति से बचकर बैठक में गयी, बरामदा, लॉन, फटकिया लॉकर सड़क पर गोपालगंज की ओर पैदल चली गयी। न पर्स लिया, न सर्दी में शाल या कोई ऊनी कपड़ा पति दाँत दबाये देखता रह गया, असहाय।
सेठ की बेचैनी और चिन्ता क्षण-क्षण उग्र कहाँ जायेगी? माता-पिता के यहाँ नहीं जा सकती। तीन साल में एक बार भी नहीं गयी, बेबे के साथ भी नहीं बेबे प्रताप को ले जाती थी। उपा कभी नहीं गयी। उपा का प्रण था— जब पति को बुलायेंगे, एक साथ जायेंगे। इलाहाबाद माया के यहाँ, जबलपुर या आगरा? लेकिन किराया? किसी से नहीं माँग सकती, बस नरेन्द्र से।
गोमती सहसा रोमांच विश्वास, ऐसी कमजोर नहीं। नरेन्द्र के साथ कैसे रह सकेगी? स्वयं लौटेंगी नहीं, बहुत दृढ निश्चय से गयी है। जेवर उसकी अपनी चीज़ क्यों छोड़ गयी? इस सबसे मुझसे इतनी पुणा!
"ईडी-ईडी, डम-डम!" प्रताप का सबसे रोचक खेल छड़ी लकड़ी लेकर इधर-उधर मारना, कुछ तोड़ना फोड़ना। पिता के घुटनों पर बैठने का आग्रह अमर ने उसके सिर पर हाथ फेरा, अवस्था बच्चे की ओर ध्यान देने योग्य न थी। परसू को पुकारा, "इसे धूप में ले जाओ।"
बच्चे को कौन सम्भालेगा? बेवे यहाँ कैसे रहेगी? यह बुआ के बस का नहीं। अच्छी को हो क्या गया? रजा को विश्वास, मुझसे अंध अनुराग, श्रद्धा, विश्वास खी कैसी भी हो, माँ बन जाने के बाद उसका संसार बच्चा और पति। बच्चे के लंगर को नहीं छोड़ सकती। गुस्से में क्या कर बैठा? खुद उससे कहलवाया- इट इज नॉट वू! उसे विवश करके कहलवाया। उस पर विश्वास क्यों नहीं कर सका? विश्वास तो है। ईर्ष्या या अपने अधिकार की अवज्ञा के अपमान की धारणा।
"अच्छी कहाँ गयी?" बेबे ने पूछा। बुड़िया सुबह से दोनों में विरोध की चुप्पी भॉप रही थी।
"नजदीक गयी है। अभी आ जायेगी।" सेठ को कहना पड़ा।
फिर चिन्ता, उसे क्या कह बैठा! अवज्ञा, अपमान की विचित्र धारणा अब सम्मान कहाँ? शहर भर में बात फैलेगी।
बरामदे में जाकर कम्पाउण्डर से कहा, "हम जरा जा रहे हैं। आप देख लीजियेगा।" मोटर साइकल लेकर चल पड़ा। गोपालगंज, नवाब अली रोड से छतरमंजिल की ओर। मोटर साइकल की चाल तेजा सावधानी से अपने बायें छतरमंजिल से गोमती के पुल ओर।
नरेन्द्र कोहली बैठक में खिड़की से आती धूप में आराम-कुर्सी पर पसरा हुआ कुछ पढ़ रहा था। यूनिवर्सिटी साढ़े ग्यारह के बाद जानी था। सिगरेट सुलगा रहा था, गलिवारी में सैंडलों की आवाज से नज़र उठी उपा! चेहरा कागज़ की तरह बेरंग, कंधों पर नशाल न ऊनी कपड़ा, माथे पर बिन्दी भी नहीं मामूली सफेद धोती-साडी।
नरेन्द्र विस्मितः सम्भल कर कहा, "आओ! इस समय कैसे? अमर ठीक है?" सामने सोफा पर बैठने का संकेत।
उपर बैठ गयी। साँस तेज़ा दो मील चलकर आयी थी। बोलने से पहले गहरी साँस से
ओंठ चूगे।
"क्यों? क्या बात?" नरेन्द्र ने पूछा।
उषा ने गहरी साँस ली, "वहाँ छोड़ आयी। वहाँ रहना असम्भवा"
"क्या 52" नरेन्द्र के माथे पर गहरे तेवर
"हमारा सम्बन्ध समास" नज़र फर्श पर "उन्होंने भी यही कहा।"
नरेन्द्र के प्रश्न पर संक्षेप में बता दिया हम लोगों का साथ और सम्बन्ध पूर्णतः समाप्तः इलाहाबाद जाऊँगी। बीस-पचीस रुपये उधार चाहिये।
"क्या पागलपन! गलतफहमी को सुलझाना चाहिये या और उलझाना! अमर बहुत आनेस्ट और सिंसीयर है, लेकिन सिडी और जिद्दी तुम्हें सोबर और बुद्धिमती समझता था। तुम बौखलाहट में आत्मघात पर उतारू। अभी वापस लौटो, तुम्हें पहुंचा देता हूँ। अमर को शिकायत मुझसे है। मैं घर न जाऊँगा। अभी लौटो, चलो।" नरेन्द्र उठने को हुआ।
"मैं सब कुछ कर चुकी ।" उषा ने इनकार में गर्दन हिलायी, "अन्तिम फैसला। लौटने का सवाल नहीं। फिलहाल इलाहाबाद जाऊँगी।"
"प्रताप का क्या होगा?"
"उसे फिर से जाऊँगी! किराया नहीं है, बीस-पचीस ।"
"बीस-पच्चीस क्या तुम दो-ढाई सौ ले जाओ। लेकिन मित्र के प्रति उत्तरदायित्व है।" "मैं मित्र नहीं?"
"तुम मेरी मित्र हो, लेकिन पहले अमर की पत्नी । तुम्हें पति को और घर को छोड़कर भागने में सहायता नहीं दे सकता।"
"भागने का क्या मतलब?" उपा तड़प कर खड़ी हो गयी, मैं छिपकर चोरी से जा रही हैं। मुझे कौन रोक सकता है? तुम्हारे मित्र की क्रीत दासी हैं जो भाग रही हूँ? क्या चुराकर भाग रही है "बहुत उदार और प्रगतिशील बनने वाले!" क्रोध में गलियारे की ओर बढ़ गयी।
"मेरा मतलब यह नहीं ।" नरेन्द्र रास्ता रोकने को बढ़ा।
उपा निरुत्तर दरवाजे की ओर गयी।
"उषा प्लीज़! पागल मत बनो। एक मिनट ठहरो, मैं पहुँचा देता हूँ ।"
उषा अनसुनी कर गली में उतर कर लौट चली।
नरेन्द्र विवश उषा को गली में बाँह से पकड़ कर रोक न सकता था। उपा बौखलाहट में कुछ अनर्थ कर बैठे। अभी रात के कपड़ों पर ड्रेसिंग गाउन में था। तुरन्त कपड़े बदल कर निकलने के लिये लौट पड़ा।
अमित यूनिवर्सिटी के लिये घर से साढ़े नौ बजे चल दिया था। पुल से यूनिवर्सिटी की ओर घूम रहा था, सामने सड़क पर उषा पैदल कंधों पर न शाल न कोई ऊनी कपड़ा उषा का चेहरा सफेद फक भाई से नजर मिलने पर भी भावशून्य।
अमित बहिन की ओर बढ़ गया, "जीजी, कहाँ से आ रही हो? क्या बात?" उषा न रुकी, न बोली। अमित चिन्ता से उसके साथ लौट पड़ा। फिर प्रश्न, "जीजी, क्या हुआ?" बहुत परेशान हो। "
उपा ने रुककर थकावट से गहरी साँस ली, "मीतू ।" दोनों पुल पर थे। उनके पीछे से एक कार आकर उनके बराबर रुकी, "प्लीज़ अमित, बहिन को गाड़ी में बैठा दो। तुम भी आ जाओ।" गाड़ी का दरवाजा खुल गया।
उषा ने गर्दन हिला दी, “मुझे गाड़ी नहीं चाहिये।"
कोहली के सुझाव से अमित ने बहिन से दुबारा अनुरोध किया। उपा को अस्वीकार ।
पुल पर बहुत से विद्यार्थी वहाँ विवाद उचित न था ।
"बहिन को तुरन्त सीधे मकान पर ले आओ।" कोहली ने गाड़ी बढ़ा दी। गाड़ी पुल लाँघकर दाहिने छतरमंजिल की ओर मुड़ गयी।
अमित चिन्तित, "जीजी प्लीज़, क्या बात?"
"मीतू, कुछ रुपये हैं?" उषा ने गहरी साँस से पूछा।
डेड रुपया है। क्यों, ऐसी क्या बात?"
"मुझे दस-पन्द्रह की जरूरत।"
"हो जायेगा, जीजी," अमित ने सोचकर कहा, "पर बात क्या है?" कब तक ला सकोगे?"
"घंटे डेड घंटे तक प्लीज़ कुछ बताओ तो!" अमित की नज़र पुल की ऊँचाई से दाहिने छतरमंजिल की ओर गयी। कोहली उन्हें हाथ के संकेत से बुला रहा था। सड़क के किनारे एक मोटर साइकल पड़ी हुई। उसके समीप दो आदमी खड़े थे। उपा की नज़र सामने थी। "जीजी, कोहली बुला रहे हैं। वहाँ मोटर साइकल कैसी पड़ी है। अपनी गाड़ी लगती है। क्या दुर्घटना
उपा की नज़र भाई के इशारे की दिशा में घूमी कलेजा धक्क। दोनों के कदम उस और तेज।
नरेन्द्र ने अपनी गाड़ी सड़क के बायें उतार कर रोक दी थी। उनकी ओर लौट रहा था, “मोटर साइकल अमर की है। गाड़ी कुचली हुई, खून गिरा हुआ है। दुर्घटना हुई है।""
उषा के घुटने लड़खड़ा गये। नरेन्द्र ने उसे कोहनी से पकड़ लिया। अमित लम्बे कदमों से लपक कर गाड़ी देख आया "अपनी ही गाड़ी है। सड़क पर बहुत सा खून "
“क्या मालूम किसका खुनः" नरेन्द्र ने कहा, "तुम लोगों को मकान पर पहुँचा है। फिर हस्पताल और कोतवाली से मालूम करने का
“साथ जाऊँगी।" उषा बहुत कातरा नरेन्द्र ने समझाया, "कई जगह जाना पड़ सकता है। पता ले लूँ, फिर तुम्हें ले जाऊँगा।"
नरेन्द्र और अमित उषा को दोनों ओर से सहारा देकर फटकिया के भीतर ले गये। बरामदे में खड़े कम्पाउण्डर ने बताया, "डाक्टर साहब साढ़े नौ के करीब गाड़ी पर गोलागंज की तरफ गये थे।"
नरेन्द्र ने उपा को सोफा पर बैठाकर समझायाः अनुमानों और कल्पनाओं से परेशान मत हो। धैर्य रखो। सम्भव है, उसकी गाड़ी से किसी दूसरे को चोट आयी हो। अमित को उपा के पास रहने का आदेश देकर नरेन्द्र चला गया।
बेबे भी । बहुत चिन्तित। अमित ने उसे भी धैर्य का परामर्श दिया।
नरेन्द्र उलटे कदम वापस उसके साथ डाक्टर सुरेश तिवारी तिवारी मेडिकल कालेज से आया था। उसने बतायाः अमर की गाड़ी अमरीकन मिलिटरी गाड़ी से एक्सीडेन्ट में कुचल गयी। चोटें बहुत गहरी हैं। उषा को हस्पताल ले चलने का अनुरोध किया। उपा का चेहरा काठ की तरह दिवर्ण, निस्पन्दा उठ खड़ी हुई। पप्पू की साथ चलने की जिद्दा माँ की गाड़ी पकड़ ली। वेवे चीखते-चिल्लाते लड़के को उठाकर भीतर ले गयी।
सुरेश ने अपनी साइकल खोड़ दी। सुरेश ने बताया घटना खतरमंजिल के समीप हुई। यूनिवर्सिटी के कुछ विद्यार्थी दौड़ आये। अमरीकन ड्राइवरों को दाहिने चलने का अभ्यास, उनकी गाड़ी का स्टिवर उसी ओर पिकअप के पीछे गाड़ी में उनका मेजर था। उसने अपनी गलती मान ली। अमर ने तुरन्त मेडिकल कालेज पहुँचाने के लिये कहा। चार विद्यार्थी
अमरीकन मिलिटरी पिकअप में अमर को हस्पताल ले गये।
सुरेश तिवारी वहाँ मौजूद था। उसने तुरन्त रजा को खबर दी। रजा ने हाउस सर्जन मिश्रा और एक अन्य डाक्टर को बुला लिया। तुरन्त एक्स-रे के लिये ले गये। वह खबर देने आया।
उपा और अमित एक्स-रे रूम के बाहर बेंच पर प्रतीक्षा में बैठे थे। नरेन्द्र उनसे कुछ कदम पर खड़ा था। रजा और मिश्रा पूर्व निश्चित आप्रेशन स्थगित कराकर अमर को तुरन्त आपरेशन थियेटर में ले जाने के प्रयत्न में दौड़-भाग रहे थे।
रज़ा तेज कदमों ने एक्स-रे रूम की ओर आया, "भाभी, धैर्य रखिये। सर्जन निगम ने इज़ाजत दे दी है। इस आपरेशन के बाद अमर को ही लेंगे। एक्स-रे प्लेट तैयार हो गयी। जो कुछ सम्भव, कोई कसर न छोड़ी जायेगी।" नरेन्द्र से बात कर एक्स-रे रूम में चला गया। एक्स-रे रूम से हस्पताली लाल कम्बल से ढँकी स्ट्रेचर ट्राली निकली। बेंच पर बैठी उषा की नजरों से स्ट्रेचर ऊँचा ट्राली के साथ रजा और सुरेश रजा ने उपा को बैठे रहने का संकेत किया। स्वयं स्ट्रेचर के साथ चला गया। उषा ने सिर में आता चक्कर वश में करने के लिये आँखें मूंद लीं।
“भाभी!" उषा ने पलकें खोलीं। रज़ा ने उसे साथ आने का संकेत किया। उपा के चेहरे से रजा को आशंका, लड़खड़ा न जाये। सहारा देने के लिये उषा की बाँह पकड़ ली। अमित को दूसरी ओर से सहारा देने का इशारा। नरेन्द्र उनके पीछे चलते-चलते रजा बोला, "भाभी, अमर आपरेशन से पहले एंटीरूम में है। आपके धैर्य से उसे सबसे बड़ी सहायता मिलेगी। एंटीरूम में केवल आपरेशन थियेटर के डाक्टर जा सकते हैं। सर्जन ने आपको दो मिनट अमर को धैर्य बँधा सकने के लिये विशेष अनुमति दी है। चोट बहुत गम्भीर चार पुस्लियाँ टूटकर यकृत और फेफड़े में धँस गयी हैं। डायफ्राम पर भी चोट है। यकृत और फेफड़े से पसलियाँ निकालने के लिये आपरेशन जरूरी। आपरेशन की अनुमति के लिये आपके हस्ताक्षर चाहिये। सर्जन निगम से बेहतर और कौन सर्जन! इंजेक्शनों के प्रभाव से अमर का दर्द वश में है। सावधान! वह कुछ भी कहे, उसके सामने विचलित नहीं होना ।"
रजा ने नरेन्द्र और अमित को बरामदे में प्रतीक्षा के लिये कहा। उषा को एंटीरूम में ले गया। कमरे में दवा की तीखी गंध सिर से पाँव तक सफेद चोगे में नर्स नर्स की नाक मुँह पर भी सफेद कपड़ा, केवल आँखें खुलीं, जैसे सफेद भूत। उपा के सीने तक ऊँची स्ट्रेचर ट्राली पर अमरा चेहरा पीला सफेद गालों और ओठों पर पुंछे खून की लाली, पलके खुलीं। " अच्छी ।" अमर के होंठों ने निस्बर कहा। उपा ने दाँत दबाकर उमड़ते उद्वेग को निगल लिया।
"तुम आ गयीं।" अमर का फनी से टूटता क्षीण स्वर, "सब कुचल गया बचना असंभव रजा को कह दिया।" होंठों पर खून छलक आया। नर्स ने आगे बढ़कर रुई से होंठ पोंछ दिये।
उपा ने विचलित न होने के लिये श्वास रोक आंखें मूंद लीं। रजा ने उसकी बाँह पर स्पर्श से बाहर चलने का संकेत किया।
"ठहरो 'अमर ने कहा, "सुनो " उषा ने आँखें खोलकर हाथ पति के माथे पर रख दिया । "पप्पू चच्चा लक्ष्य का खयाल 'नरेन्द्र क्षमा।" फिर होठों पर खून नर्स ने आगे बड़कर खून पौछ दिया।
रजा ने उपा को पीछे हटाना चाहा। उसने स्ट्रेचर का डण्डा पकड़ लिया। "सुखी रहना नार्मन "लाइफ।" स्वर और क्षीण। फिर पलकें झपक गयीं।
"काओ मत !” रजा ने उषा के कान में कहा। उषा ने स्ट्रेचर छोड़ दिया। गर्दन झुकाकर पति के माथे पर होंठों से स्पर्श कर पीछे हट गयी। रज़ा उसे बाँह के सहारे बाहर ले चला। उपा की पलकों से आँसुओं की धारें। रजा ने बरामदे में लाकर कुर्सी पर बैठा दिया। स्वयं एंटीरूम में चला गया।
नरेन्द्र बोलने में असमर्थ ।
रजा का भराया हुआ स्वर, "भाभी अफसोस!" उषा ने दोनों हाथों से आँचल चेहरे पर दबा लिया। अमित ने आँखें बचाकर ओठ काटे, पैंट की जेब से रूमाल निकालने के लिये हाथ बढ़ाया पर बहिन के गले में बाँह डालकर उसका सिर सीने पर दबा लिया।
रजा ने उपा के कंधे पर हाथ रखा, "भाभी, घर चलो।" उपा का शरीर दबे क्रन्दन से काँप रहा था। रजा ने उसके सिर पर हाथ रखा, "भाभी, धैर्य पर चलो।" उषा ने आँसुओं का घूँट भरा, "उनके साथ।"
रजा ने कानूनी मजबूरी बतायी: एक्सीडेंट पुलिस केस है। शरीर पुलिस की अनुमति से ही मिलेगा। उसमें साँझ हो जाये। जल्दी की कोशिश करने पर भी कम से कम तीन-चार घंटे।
"उनके साथ।" उषा का आग्रह देंगे।
“भाभी, यहाँ दूसरे सीरियस आपरेशन हो रहे हैं। सर्जन अधिक ठहरने की इज़ाजत नहीं स्थिति से मजबूर उषा स्वर दबा कर रो दी।
"एक बार और देख लूँ।"
रजा ने एंटीरूम में झांक कर देखा। उपा की एक बाँह रजा ने और दूसरी अमित ने अपनी बाँहों में ली। "भाभी धैर्य से साथ के कमरे में सीरियस आपरेशन हो रहा है "" उधर से औजारों की खनक आ रही थी। "आवाज नहीं।" दोनों उषा को भीतर ले गये।
अमर का शरीर निश्चल | पलकें मुदी हुईं। चेहरे पर निर्जीव सफेदी उषा ने पति के सीने पर सिर रख दिया। बौह पर रजा का संकेत चलो। उपा ने पति का माथा, ओठ चूम लिये। रज़ा और अमित की बाँहों में लड़खड़ाती बाहर आ गयी।
2 ककोल्ड कुलटा का मुर्ख या अपदार्थ पति