बुद्धिमानी और परोपकार
संसार मे लगभग सभी लोग सेवा करते हैं किन्तु सभी लोग सेवा के बदले कुछ ना कुछ चाहते हैं ...
भाग्यशाली वह है जो निस्वार्थ सेवा मे जुट कर अपना कल्याण करता है।
एक राज्य मे ऐसा ही एक मंत्री था जो बिना किसी स्वार्थ के लोगों की सेवा करते था।
किसी दुर्घटना मे मंत्री की दोनों आँखों की ज्योति चली गई ,
राजा ने उन्हें आराम के लिए मंत्रिमंडल से विदाई दे दी।
कुछ दिन बाद दूसरे राज्य के राजा ने , राजा के पास एक पत्र और सुरमे की एक छोटी सी डिबिया भेजी।
पत्र मे लिखा था कि जो सुरमा भिजवा रहा हूं, वह अत्यंत मूल्यवान है ...
इसे लगाने से अंधापन दूर हो जाता है।
राजा सोच मे पड़ गया , वह समझ नहीं पा रहा था कि इसे किस किस को दे।
उसके राज्य में नेत्रहीनो की संख्या अच्छी-खासी थी,किन्तु सुरमे की मात्रा बस इतनी थी जिससे केवल " दो आंखों " की रोशनी लौट सके।
तभी राजा को अचानक अपने अंधे मंत्री की स्मृति हो आई ,
राजा ने सोचा कि यदि उसकी आंखों की ज्योति वापस आ गई तो उसे उस योग्य मंत्री की सेवाएं फिर से मिलने लगेंगी।
राजा ने मंत्री को बुलावा भेजा और उसे सुरमे की डिबिया देते हुए कहा,
‘ इस सुरमे को आंखों मे डालें, आप पुन: देखने लग जाएंगे। ध्यान रहे यह केवल 2 आंखों के लिए है ’।
मंत्री ने एक आंख मे सुरमा डाला।
उसकी रोशनी आ गई ...
उस आंख से मंत्री को सब कुछ दिखने लगा।
फिर उसने बचा खुचा सुरमा अपनी जीभ पर डाल लिया।
यह देखकर राजा चकित रह गया. उसने पूछा,
‘ यह आपने क्या किया ?
अब तो आपकी एक ही आंख मे रोशनी आ पाएगी,
लोग आपको काणा कहेंगे।’
मंत्री ने उत्तर दिया,
राजन, चिंता न करें ...
मैं काना नहीं रहूंगा ,
मैं आंख वाला बनकर हजारों नेत्रहीनों को ज्योति दूंगा।
मैंने चखकर यह जान लिया है कि सुरमा किस चीज से बना है,
मैं अब स्वयं सुरमा बनाकर नेत्रहीनों को बांटूंगा ’।
राजा ने मुग्धभाव से मंत्री को गले लगा लिया और कहा,
यह हमारा सौभाग्य है कि मुझे आप जैसा मंत्री मिला,
यदि हर राज्य के मंत्री आप जैसे हो जाएं तो किसी को कोई दुख नहीं होगा।'
ज्ञान से ही तो होती, इंसान की पहचान है, अहम और वहम दो महा भयावह रोग है, जो इंसान का सर्वनाश कर देते है, पर हमारे ऋषि- मुनियों कहते है कि इसका भी निदान है, ब्रह्मज्ञान/तत्वज्ञान ही समाधान है!