दोस्तों! इस कविता में मुख्य बिंदु 'लेखक' हैं जो रोजमर्रा के काम को छोड़ एक असल जिंदगी की तलाश में अपना सफ़र तय करता हैं .उसका यह सफ़र किस हद तक सफल होता हैं आइये देखते हैं :
चला चल में चला-कविता
चला-चल चला मैं चला,
न जाने कहाँ चला,
भटकता रहा इधर-उधर,
जलेबी की तरह टेढ़ा-
मेढ़ा रस्ता था,
फिर भी बांवरे की तरह
निरंतर चला मैं चला,
अलग –अलग नुक्कड़ों-
चौराहों-गलीयों
से सुकड़ता-गुजरता हुआ,
मकानों की तरफ देखता चला,
कुछ मकानों में रोशनी थी
रोशनी वाले मकानों की सतह से
गुजरते हुये ज़ोर
ज़ोर की हँसी और
चीख-चिल्लाने की
आवाजें आने लगी,
ज़ोर-ज़ोर से रोनें की सिसकियाँ
सुनाई देने लगी,
कुछ मकानों में अंधेरा था,
पर वहाँ एकदम खामोशी !!!
कुछ अंधेरे मकानों के दरवाजे खुले हुये थे ,
बाहर से उठता धुआँ दिखाई दिया,
मेरी नजर उस जगह रूकी जहाँ
से धुआँ आ रहा था,
दो कदम की दूरी चलने पर
बाहर दरवाजे के अंदर की तरफ से
एक मध्यम सी रोशनी आ रही थी,
चूड़ियों की खनखनाहट और फूँ-फूँ की
आवाज कानों में साफ सुनाई दे रही थी ,
दरवाजे की तरफ आगे मैं थोड़ा बढ़ा,
थोड़ा चला ,थोड़ा रूका और देखा,
एक औरत मेरे सामने की तरफ बैठी हुई थी,
एक हाथ से अपनी साड़ी का
पल्लू संभाल रही थी
तो दूसरे हाथ से
रोटियों को सेंक रही थी ,
बगल में उसके पास बैठी एक छोरी,
महज आठ या नौ साल की, तैयार
रोटियों
को गरम-गरम अपने बाबा और भाई को
परोस रही थी,
कमरे को इर्द-गिर्द देखा
जो दिखने में था सीधा-सादा,
एक खटियाँ,उसके पास नीचे
बिछी छोटी पतली दरी,
दो इंच दूर एक सादी कुर्सी
और छोटी मेज,
मेज के किनारी सतहों
से कुछ कुतरी हुई सी थी,
वापिस मेरी निगाहें
वहाँ बैठे चार जनों
की तरफ गयी,
प्यार और स्नेह से
हँसी –ठिठोली से
खाना खा रहे थे,
सामान भले ही
कम था,
पर आँखों में मासूमियत
भोलापन साफ झलक
रहा था,
मेरा यह नजारा देख
अंदर से दिल छूँ सा
गया, मेरे गले में
लटके कैमरे से
वह फोटू खींच लिया,
धीमे-धीमे अपने कदम पीछे
की ओर करते हुये,
वापिस उन सुनसान गलियों-
नुक्कड़ों व चौराहों को छोड़,
अपने घर की ओर चला
उस अनुभव को मन मे
रखे हल्की सी मुस्कुराहट
के साथ सो गया और
अगली सुबह का इंतज़ार
करने लगा, दफ्तर मे
अपने
विचारो को अपने कलम के
जरिये अखबार के एक कॉलम
में लिखा ,शाम का इंतज़ार
कर रोज़मर्रा की तरह शाम को
अंजान गलियों की तरफ
गुजरते हुये एक नए कॉलम
की तलाश में नए विषयों को
खोजते हुये नए रस्तों की
तरफ चला में चला ।