मेरी एक सहेली वर्षों तक मेरे साथ काम
करती आ रही
थी। हम एक दूसरे के साथ करीब २४ साल काम किया है। उनकी मानसिकता से मैं
परिचित तो अच्छी तरह हूँ। उन्होंने अपनी बेटी की शादी अंतर्जातीय की और
बेटे की खुद खोज कर सजातीय। फिर शुरू हुआ उनके परिवार में शादी का
सिलसिला। साथ रहे तो एक दूसरे के परिवार ससुराल और मायके पक्ष के विषय
में अच्छे से परिचित हैं। हमने हर सुख दुःख भी बांटा है - चाहे मेरे पापा
का निधन हो या उनकी माँ के निधन की घडी।
अब दोनों ही कम मिल पाते हैं लेकिन संपर्क में तो रहते ही हैं। उनके
परिवार में किसी लडके की शादी होनी है तो उन्होंने मुझसे अप्रत्यक्ष रूप से
कहा की - 'रेखा कोई अच्छी सी कायस्थ लड़की बताओ , देवर के बेटे के लिए खोज
रहे हैं। '
मैंने सहज रूप से लिया लेकिन बाद में
कि वह लोग लड़कियों की शादी तो कहीं भी कर सकते हैं लेकिन अपने घर में
सजातीय लड़की ही चाहते हैं क्योंकि वह अगर दूसरे जाति की होती तो उसके तौर
तरीके , संस्कार सब अलग होंगे। अपने परिवार में कैसे ले सकते हैं ? आखिर
खून तो हर जाति का अलग अलग होता है।
मुझे बड़ा
आश्चर्य हुआ कि क्या हमारी मानसिकता शिक्षा, पद या फिर प्रगतिवादी होने के
बाद भी बदलती नहीं है या फिर हम अवसरवादी हो जाते हैं कि अगर हमारी बेटी
सुन्दर नहीं है और अपनी जाति में वर नहीं मिला तो बेटी की पसंद को
प्राथमिकता दे दी जाय। हाँ अगर बेटे वैसे हुए तो उनकी तो शादी हो ही
जायेगी।
क्या संस्कार भी जाति के आधार पर होते हैं?
क्या नैतिकता , सामाजिकता
और संस्कार की भी परिभाषा अलग हो जाती है?
क्या बड़ों को सम्मान देने का तरीका , अपने दायित्वों को संभालने का ,शिक्षा ग्रहण करने का तरीका जाति के अनुसार बदल जाता है ?
क्या शरीर का खून भी अलग अलग रंग का होता है ?
क्या ब्राह्मण , कायस्थ , ठाकुर कही जाने वाली जातियों में अपराधी जन्म
नहीं लेते?
क्या इनके घर में षडयंत्र नहीं रचे जाते?
क्या इन परिवारों में
महिला उत्पीडन , घरेलु हिंसा नहीं होती , दहेज़ नहीं माँगा जाता है ?
आज सभी
उच्च शिक्षित हो रहे हैं , परिवार का स्तर भी बहुत अच्छा हो चुका है ,
उनके संस्कार भी हमसे कम नहीं है , फिर भी हम अपने मानसिकता को बदल नहीं पा रहे हैं . अपनी कमियों के लिए नयी नयी दलीलें खोज लेते हैं और दूसरे को उसी काम के लिए निकृष्ट घोषित कर देते हैं .
अगर हम
दूसरे पक्ष को देखे तो लोग कहते हैं ( अभी भी समाज में उच्च शिक्षित 75
प्रतिशत लोग इसको मानते हैं ) अगर निम्न जाति में शादी कर दी जाएगी तो बेटी
उसी जाति की हो जायेगी। अगर वह किसी अनुसूचित जाति में शादी कर लेती है
तो फिर हम अपने घर कैसे बुला सकते हैं ? क्यों क्या सिर्फ शादी कर देने
भर से उस बेटी के शरीर का खून बदल जाएगा या फिर उसकी डी एन ए बदल जाएगा और
वह आपके परिवार की बेटी न होकर उस परिवार की हो जाएगी ? कई बार ऐसी ऐसी
दलीलें सुनने को मिल जाती हैं कि आश्चर्य भी होता है और गहरा सदमा भी
लगता है कि हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे ? ये निम्न जाति की परिभाषा कहाँ से
गठित हुई ? उस इतिहास में जाकर उसके आधार को देखने की किसी को जरूरत नहीं
है. बस लीक आज भी पीटने को तैयार है। अगर नौकरी में कोई अफसर निम्न जाति का हुआ तो उसे घर बुला कर धन्य महसूस करेंगे और मौका पड़ने पर उसके चरण भी छू लेंगे लेकिन उनकी बेटी लेने में या फिर बेटा देने में हम कट्टरवादी हो जाते हैं .
ऐसी सोच अगर हम रख कर प्रोफेसर , डॉक्टर , अधिकारी हुए भी तो हमारी शिक्षा
का , हमारे समाज के लिए दिग्दर्शन करने का कोई आधार रहेगा ? हम रूढ़िवादिता न
छोड़ सके। हम यथार्थ को समझने के लिए तैयार न हुए तो फिर हममें और हमारे
पीछे की गुजरी पीढ़ियों में क्या अंतर हुआ ? हमने घर में चूल्हे को छोड़ कर
गैस अपना ली , हाथ के पंखे झलने के जगह पर अब बिजली के उपकरण अपना लिए।
बेटियों को अपने पुराने परिधान के जगह पर नयें पाश्चात्य परिधान स्वीकार कर
लिए। उनको घर से बाहर भेज कर पढ़ाने के लिए भेजने पर भी कोई आपत्ति नहीं
है क्योंकि अब हम प्रगति कर रहे हैं लेकिन हमारी वही प्रगति इस विषय पर
कहाँ चली जाती है ? अगर आज भी हम दोहरे मानको को लेकर चलते रहेंगे तो हम इस
समाज में कौन सा सन्देश दे सकेंगे ?