कोई शब्द या वाक्य क्या एक पूरे विचार और लेख का वॉयस बन जाता है . बेटी या लड़कियों के प्रति हमारा नज़रिया दिन पर दिन बदलता जा रहा है लेकिन वह कितने प्रतिशत में ? हम क्या इसके बारे में कोई अनुमान लगा सकते हैं ? शायद नहीं .
आज सिर्फ एक संवाद सुना और पता नहीं कितने सवाल पैदा हो गये ? क्या पुरुष के लिए पत्नी , संतान और बहू सिर्फ कपड़े की तरह बदलने वाली चीज़ समझी जाती रहेगी . उसका एक घर जिसमें वह अपने पिता का घर छोड़ कर आती है और सब कुछ अपनी खुशियां , अपना जीवन उन अजनबी लोगों के लिए समर्पित कर देती . अपना संपूर्ण संसार उसी को मान लेती है .
एक पिता ने अपने बेटें से कहा - " अपनी पत्नी को मार दो
और दोष अपने दुश्मन के सिर डाल दो जिससे तुम्हारे बाप को उससे मुक्ति मिल जायेगी . पत्नी का क्या ? चाहे जीतनी शादी कर लो और औलाद भी उससे चाहे जीतनी पैदा कर लेना लेकिन बाप तो एक बार ही मिलता है . उसका कोई विकल्प नहीं है ."
और बेटा अपनी पत्नी और बच्चे को मार देता है .
ये सिर्फ एक माँ और बाप की सोच नहीं है . कई सालों पहले भी मैंने खुद एक माँ
को कहते सुना था - " कौन ज्यादा सगा है , मैं माँ
हूँ जिसने तुम्हें जन्म दिया है या पत्नी जो कल दूसरे घर से आयी है . अब तू ही निर्णय कर कि घर छोड़ कर कौन जाएगा ? "
एक पुरुष कभी माँ के कहने पर कभी पिता के कहने पर और कभी भाई बहन के कहने पर पत्नी को छोड़ देने या उसको उसका स्थान न देने का अध्यादेश पारित करते रहेंगे क्योंकि वो सब खून से जुड़े हैं और पत्नी तो दूसरे घर की है .
सोचिए :
* पत्नी कभी रक्त सम्बन्धी नहीं होती है तो इसका क्या अर्थ है ? उसके रक्त संबंधों से इतर स्थान दिया
जाएगा और वह इतर स्थान वाली रक्त संबंधियों के लिए अपना पूरा जीवन होम कर देगी . अगर कहने वालों की बेटी को यही जगह दी जाई तो वे सह नहीं पायेंगे .
* वो बच्चे में जन्म देने के बारे में निर्णय लेने का अधिकर नहीं रखती है . ये काल्पनिक नहीं है बल्कि ये यथार्थ सत्य है .
* वो आज भी नौकरी करने के बाद भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं है .
* बैंक में अकाउंट उसके नाम का और एटीएम पति के पास रहता है .
आज भी देश के गाँव और शहर में पत्नी नाम का जीव इस तरह की ज़िंदगी जी रही है लेकिन उसकी पहुँच कहीं तक नहीं है . वह आवाज़ उठा नहीं सकती क्योंकि उसके आगे अपने बच्चों का चेहरा घूम जाता है , उनका भविष्य घूम जाता है क्योंकि ये समाज उसे पति के छोड़ने के बाद भी जीने नहीं देगा . आत्मनिर्भर सिंगल मदर भी समाज में इज़्ज़त की नज़र से नहीं देखते हैं . मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार की बात कर रही हूँ , जो समाज से डरता है आज भी और समाज उसको डराता भी है .
समाज हमसे ही बना है न फिर हम क्यों नहीं अपनी सोच को मानवता के आधार पर सोचते हैं .