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अपनी पसंद !

14 अक्टूबर 2016

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हम लड़के और लड़कियों के भेद को ख़त्म करने के लिए सतत प्रयास कर रहे है लेकिन आज भी आज की पीढी में ऐसे लोग हैं , जिन्हें सिर्फ और सिर्फ लड़के चाहिए। इसके पीछे उनकी क्या मानसिकता है ? इसको इस घटना से समझा जा सकता है।

बात अभी कल की ही है मेरे एक रिश्तेदार मेरे घर आई और कुछ समय बाद उन्होंने बात शुरू की कि 'आपके तो सम्बन्ध कई संस्थाओं से है , आप तो जानती हैं कि मेरी शादी के इतने दिन बाद भी एक बच्चा भी मुझे नहीं मिल पाया। (वैसे उनको कई बच्चे हुए लेकिन कुछ कारणों से वे पूर्ण नहीं हो सके थे ). मैं अब एक बच्चा गोद लेने के बारे में सोचने लगी हूँ। वैसे तो मैं अभी भी एक डॉक्टर से इलाज करवा रही हूँ , मेरी उम्र भी अब बढती जा रही है लेकिन फिर भी मैं दो साल तक इन्तजार कर सकती हूँ।

मैं बताती चलूँ कि उनकी उम्र पैंतीस के आस पास होने वाली है।

'फिर मुझसे क्या चाहती हो?'

'यही कि आप किसी संस्था को जानती हों और उससे मुझे बच्चा गोद मिल जाए तो मैं ले लूं , लेकिन मुझे लड़का ही चाहिए। '

'लड़का ही क्यों?'

'देखिये आप जानती हैं कि मैं पैसे से बहुत अधिक सम्पन्न तो हूँ नहीं इनके पास प्राइवेट नौकरी है। मुझे आगे के खर्च के बारे में सोचना तो पड़ेगा ही। '

'क्या ये जरूरी है कि लड़का ही मिल जाए। '

'मैं उसके लिए दो साल तक इन्तजार कर सकती हूँ।'

मुझे उनकी बात से बहुत अधिक गुस्सा आया - ' अच्छा अगर तुम्हारा अपना बच्चा बेटी हो जाए तो क्या उसको तुम भी औरों की तरह से बाहर फ़ेंक दोगी? तुम्हारे पास तो लड़की का खर्च उठाने के लिए पैसे की कमी है.'
'नहीं अपना जब होता है तो सभी पाल लेते हैं लेकिन अगर बाहर से लेना है तो फिर लड़की क्यों ली जाय?'
'अगर तुम्हें गोद लेने में भी अपनी पसंद का बच्चा चाहिए तो ये कोई आर्डर नहीं है कि जो आप चाहे वह आर्डर कर दिया जाय और तैयार करके दे दिया जाय.'
'आप समझिये मेरे ससुराल वाले भी चाहते हें कि लड़का ही लिया जाय, वैसे मेरी ननद की एक सहेली है किसी हॉस्पिटल में काम करती है उसने कहा है कि आपको लड़का भी मिल सकता है लेकिन इन्तजार करना पड़ेगा और बच्चा अपरिपक्व मिलेगा क्योंकि वह बच्चा ऐसे लोगों का होगा तो ६-७ महीने पर गर्भपात करवाने आते हें तो फिर उस बच्चे को नर्सरी में रखना पड़ेगा और दो महीने तक उसका खर्च तुम्हें उठना पड़ेगा . '
'फिर वही विकल्प तुम्हारे लिए सबसे अच्छा होगा. अगर तुम किसी बच्चे के लिए मन में ममता नहीं रख सकती हो तो फिर कहीं से भी ले लो उसके साथ न्याय करना मुश्किल है और अगर कहीं ऐसा हुआ कि गोद लेने के बाद तुम्हारा अपना बच्चा भी हो गया तब उस बच्चे के प्रति तुम्हारा क्या व्यवहार होगा? इसके बारे में कहा नहीं जा सकता है. '
'नहीं ऐसा नहीं होगा? '
'क्यों? अगर तुम्हारे बेटा हो गया तो फिर दो बच्चों का खर्च कैसे उठा पाओगी? '
'इसी लिए तो दो साल और ट्राई करना चाहती हूँ उसके बाद ही गोद लूंगी. '
'नहीं मैं इस दिशा में कोई सहायता नहीं कर पाऊँगी ?'
'क्यों?'
'क्योंकि आज भी हमारे समाज में पैदा होने के बाद लड़कियाँ ही फ़ेंक दी जाती है, कभी भी सड़क पर पड़े हुए लड़के नहीं मिलते है . फिर नवजात शिशु लड़का तो मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. '
'आप ऐसे क्यों कह रही हें? लड़के भी मिल सकते हें.'
'देखिये फिर आप कहीं और जाकर बात कीजिये, मेरे समझ मैं ऐसी कोई संस्था नहीं है जहाँ पर सिर्फ लड़के ही मिल सकते हों. गोद लेने के लिए भी पसंद और नापसंद नहीं होनी चाहिए . जिनके घर में बच्चे नहीं होते वे कुत्ते और बिल्ली के बच्चे पाल पर वही स्नेह देते हैं , जो हम अपने बच्चों को देते हैं . फिर बेटी भी संतान ही होती है और बेटा भी. सबको एक तरह से पालना होता है और एक जैसे पढाना लिखाना होता है. पहले अपनी सोच को बदल लो फिर किसी भी बच्चे को गोद लोगी तो ज्यादा अच्छा होगा. '
'मैं तो सोच रही थी कि आप हमारी बात को समझ कर कोई सलाह देंगी.'
'मेरी यही सलाह है कि पहले अपनी सोच बदल लो और फिर किसी बच्चे को गोद लेने के बारे में सोचना. '
'देखिये मेरे दोनों जेठ के लड़के हें और मेरी दोनों ननदों के भी लड़के हें , इसलिए मैं लड़का ही चाहती हूँ.'
'एक बार और सोच लो, सूने घर में किलकारियां लड़की और लड़के दोनों से गूंजने लगती हैं , अपनी सोच को बदल सको तो अच्छा है. '
'फिर मैं कहीं और बात करके देखती हूँ.'
'शौक से.'
मुझे उस औरत के विचारों और सोच पर तरस आ रहा था कि बच्चा न हो कोई खिलौना हो कि अपने मन से जो चाहा ले लिया. ऐसे लोगों ने ही हमारे समाज में इतनी बड़ी लकीर खींच रखी है लेकिन आज की पीढ़ी से मुझे ये उम्मीद नहीं थी.

नृपेंद्र कुमार शर्मा

नृपेंद्र कुमार शर्मा

समाज का ये घिनोना सच कियूं है सब जानते हैं किउंकि हम बेटियों को पराया मानते हैं।

11 मई 2017

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रचनाएँ
merasarokar
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लघुकथा ! बहुत दिनों से सोच रही थी कि कभी किसी वृद्धाश्रम में जाऊं और वहाँ रहने वाले बुजुर्गों से मिलूँ - कुछ पल उनके साथ बैठ कर शायद कुछ पा सकूं और कुछ दे सकूं। पता चला कि घर से कुछ ही किलोमीटर की दूर पर एक वृद्धाश्रम है। उस दिन निकल ही ली। वृद्धाश्रम के परिसर में गुट बनाकर बैठे बुजुर्ग हँस रहे थे , बातें कर रहे थे, पुरुष औरमहिलायें दोनों ही थे। लग रहा था कि जैसे एक परिवार जैसा हो। वही देखा दूर बेंच पर एक</s
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जल संरक्षण !

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हाँ मैं रिश्ते बोती हूँ , धरती पर उन्हें रोपकर निश्छल प्यार ,निस्वार्थ भाव,और अपनेपन की खाद - पानी देकर उनको पालती हूँ। धूप , पानी और शीत से कभी बहा कर पसीना कभी देकर सहारा कभी पौंछ कर आंसू उन्हीं के लगाकर काँधे समेत कर सिसकियाँ बेटी , बहन और बहू के रिश्ते जीवन में संजोती हूँ । बेटे , भाई और दोस्त क

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अनुबंध - प्रतिबन्ध !

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शब्दों पर पहरे,कलम पर पहरे,कहाँ देखे?किसने देखे?उसके  जख्म गहरे .जुबां वह बोले जो उन्हें पसंद हो,जो उनके अहम् को बनाये रखने का अनुबंध हो।फिर क्या समझे ?एक रोबोट ही न काम सारे , दायित्व सारे,अधिकारों पर प्रतिबन्ध हो।क़ानून बने और बनते रहेंगे,इस चारदीवारी में वही क़ानून और वही दंड है। अकेले बंद कमरे में

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पाठ्यक्रम : नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य !

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अंतर की ज्वालामुखी जब पिघलती है लावा बन वो कलम से बहती है .आग उगलती है ,वाह ! वाह ! सुनकर वो सिर पटक कर रो देती है ,दर्द सहा उसने जहर पिया उसने क्या उसकी तपन का अहसास किसी को नहीं होता .नहीं बची संवेदनाएं जो कोई उसकेदर्द को महसूस कर सकता ,जो उस कलम से निकले लफ़्ज़ों की बेबसी , तपिश और खामोशी को तोड़ती

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दोहरी मानसिकता : आखिर कब तक ?

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             मेरी एक सहेली वर्षों तक मेरे साथ काम करती आ रही थी।  हम एक दूसरे के साथ करीब २४ साल काम किया है।  उनकी मानसिकता से  मैं परिचित तो अच्छी तरह हूँ।  उन्होंने अपनी बेटी की शादी अंतर्जातीय की और बेटे की खुद खोज कर सजातीय।  फिर शुरू हुआ उनके परिवार में शादी का सिलसिला।   साथ रहे तो एक दूसरे क

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अतीत का दंश

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                  काम करने वाली की पोती आई -' दादी के हाथ में कील घुस गयी है , वो आज नहीं आ पायेगी। 'सुनकर गृहस्वामिनी के पैरों तले जमीन खिसक गयी , कैसे करेगी यह सब, अपने ही काम नहीं निबट पाते  हैं . अचानक मालकिन वाली बुद्धि जागृत हुई - 'सुन तू मेरे सारे  बर्तन साफ कर दे। तेरी दादी अब तुझे बना कर त

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पितृ दिवस पर

18 जून 2016
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पापा बहुत याद आते हो ,अनजाने में पकड़ा कर कलम विरासत में दीं ये कवितायेँ ये कहानियां और ये लेख .सारी संवेदनाएं सारी ममता , करुणा कब दे दी मुझे ये पता ही नहीं चला .मैं लिखती रही तुम पढ़ते रहे पर कभी न बताया ये कलम विरासत में मिली है .उन्मुक्त सी हंसी बेफिक्री जहाँ की ,गैरों के दुःख को बाँटते सदा देखा .

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लावारिस

19 जून 2016
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                       यह एक कविता मात्र नहीं है बल्कि कितने पिताओं की कहानी है , बहुत पहले लिखी थी और आज पितृ दिवस पर पिता के स्वरूप को सभी परिभाषित कर रहे हैं और मैंने एक पिता के दुःखद अंत को बयां कर श्रद्धांजलि दी है .सुबह का अखबारजब हाथ में आयानजर पड़ीएक तस्वीर परफिर उसका शीर्षक पढ़ासड़क पर फ़ेंक द

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यक्ष प्रश्न

24 जून 2016
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नारी हूँतो यही  प्रश्न है , जीवन समर्पित किया अपनी हर उम्र में बेटी बनी,एक गर्भ से,एक घर में, जन्म लेकर पली बढ़ी  सब कुछ किया.पर कही पराया धन ही गयी.बेटा सब कुछ पा  गया.उसका वही घर बना। मुझको कहा गया --ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना ये मेरे वश में नहीं.पराया धनअपनी समझ सेसब कुछ देकर विदा कियाजिनकी अमानत

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साहस तो करती माँ तुम!

24 जून 2016
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माँ मुझको बतलाओक्यों मुझको सौपातुमने इन हत्यारों को?दूर कहीं जाकरफेंका था मुझकोनिर्जन  गलियारों में.बोल नहीं सकती थीपर अहसास तोकर ही सकती थी ,एक फटे कपडे मेंलिपटीकब तक झेल सकी थीमैंबारिश के तेज थपेडों कोचली गईदुनिया की नजरों में.पर बसी हूँअब भीतुम्हारी सूनी आंखों मेंमैंने भी देखा थामाँ तुमकोओंठ भीं

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बनो दीप से

29 जून 2016
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बन सको तो दीपक की मानिंद बनो ,जग रोशन कर जाता है ,खुद जल कर ही सही ,उसका नाम बन चुका है उजाले का पर्याय। कितने दीप बचते हैं जहाँ में ?फिर भी दीप नाम अमर ही तो है।  कौन  जानता है माटी , बाती और तेल को,कुछ भी तो नहीं है सब का संयोग ही कहें  या कहें संगठन कहें मिलकर ही सही कोई शिकवा नहीं किसी को किसी

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आज भी औरत क्या है ?

30 जून 2016
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कोई शब्द या वाक्य क्या एक पूरे विचार और लेख का वॉयस बन जाता है . बेटी या लड़कियों के प्रति हमारा नज़रिया दिन पर दिन बदलता जा रहा है लेकिन वह कितने प्रतिशत में ? हम क्या इसके बारे में कोई अनुमान लगा सकते हैं ? शायद नहीं .            आज सिर्फ एक संवाद सुना और पता नहीं कितने सवाल पैदा हो गये ? क्या पुरुष

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डॉक्टर्स डे

1 जुलाई 2016
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आज डॉक्टर्स डे है और वाकई डॉक्टर्स जो भगवान का रूप है इसी दुनियां में हैं।  उनका एक ही धर्म होता है और वह है मानव सेवा।  कभी कभी तो वह अपने पास से पैसे भी देकर सेवा कर जाते हैं।  आज का दिन वाकई ऐसे ही लोगों के लिए नमन का दिन है।  आज के दिन मैं एक डॉक्टर के साथ अपने अनुभव को साझा कर रहे है।         

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बुजुर्गों का भविष्य

1 जुलाई 2016
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अखबार में पढ़ी हुई कई घटनाएँ हमें विचलित कर जाती हैं लेकिन कुछ तो  अपने पीछे इतने सारे प्रश्न छोड़ जाती हैं कि उनके उत्तर खोजने में और कितने सवाल सामने उठ खड़े होते हैं।  सभी प्रश्न हमारे समाज के हो रहे नैतिक अवमूल्यन से जुड़े होते हैं।  हमें झकझोर  देते हैं लेकिन फिर भी उन घटनाओं को पढने वालों में से क

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फर्ज बेटे का !

8 अगस्त 2016
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           जीवन में बेटे अपना फर्ज निभाते है और अपने माता-पिता या फिर अपने पालने वाले की देखभाल करते हैं और हमारे सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत यही न्यायसंगत माना जाता है. लेकिन बदलते हुए परिवेश और सामाजिक वातावरण में बेटे इस कार्य को न भी करें तो कोई अचरज की बात नहीं समझी जाती है. माता-पिता अगर सक्षम

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तीन चरित्र : आज फिर

28 सितम्बर 2016
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जीवन में लोगों के लिए , ये तीनों महान आत्माएं प्रश्नों के उत्तर लेकर फिर से आयीं हैं। कलयुग में उठ रहे प्रश्नों को लेकर अपने चरित्र पर उछलते कीचड से बचाने को अपने अस्तित्व को खुद आये हैं। ये तीनों राम , सीता और लक्ष्मण हैं। हम बार बार उठाते है प्रश्न ?राम को कायर , विवश और स्वार्थी

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ठंडा ठंडा - कूल कूल : कितना घातक ?

2 अक्टूबर 2016
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आज की जीवन शैली और जीवन में बढ़ता तनाव - इंसान को परेशान करके रखा है। चाहे ऑफिस वालों , चाहे बिज़नेस वालों या फिर चाहे कॉर्पोरेट जगत में लगे लोग हों। अपनी जगह को , अपनी साख को या फिर अपने परिवार को सुख से रखने के लिए संघर्ष की स्थिति से गुजरने वालों लोगों की संख्या करीब करीब 80 % है। इसमें महिला

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अपनी पसंद !

14 अक्टूबर 2016
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हम लड़के और लड़कियों के भेद को ख़त्म करने के लिए सतत प्रयास कर रहे है लेकिन आज भी आज की पीढी में ऐसे लोग हैं , जिन्हें सिर्फ और सिर्फ लड़के चाहिए। इसके पीछे उनकी क्या मानसिकता है ? इसको इस घटना से समझा जा सकता है। बात अभी कल की ही है मेरे एक रिश

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