शिक्षा मानव जीवन की ऐसी नींव डालता है , जो उसके मनो-मष्तिष्क में गहरे पैठ जाती है और इसके कारण ही बच्चों के जीवन में संस्कार या फिर अपने समाज , देश और परिवार के प्रति एक अवधारणा बन जाती है। चाहे घर हो , स्कूल हो या फिर उसका अपना दायरा - उसके चरित्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। आज के सन्दर्भ में जब कि चरित्र और संस्कार का निरन्तर ह्रास होता चला जा रहा है और हम इसकी जिम्मेदारी बच्चों की संगति , टीवी , संचार के बढ़ते हुए साधनों को देने लगे हैं। ऐसा नहीं है कि ये जिम्मेदार नहीं है लेकिन जब घर की नींव ही कच्ची रखेंगे तो ऊपर की दीवारों के स्थायित्व की आशा कैसे कर सकते हैं ? फिर दोष आधुनिक शिक्षा पद्धति और शिक्षकों के पढ़ाने पर भी ऊँगली उठने लगते हैं लेकिन ये शिक्षक भी तो वहीँ सब और वहीँ से पढ़ कर आ रहे हैं , जहाँ आज की पीढ़ी प्रवेश लेकर पढ़ने जा रही है।
देश का एक ही इतिहास और एक ही संस्कृति होती है। उसको हम शिक्षा के द्वारा ही तो हस्तांतरित करते चले आ रहे हैं लेकिन उससे कट कर हम अपने आपको संचित नहीं कर पाएंगे। हम जहाँ रहते हैं और जिस भारत भूमि पर रहते हैं , उसकी संस्कृति और इतिहास सबसे प्राचीन माना जाता है बल्कि कहें कि वह प्रमाण के साथ उपलब्ध भी है। लेकिन हम धीरे धीरे नए आविष्कारों के नाम पर पाठ्यक्रम को विस्तृत करते चले जा रहे हैं और उसमें नवीन विषयवस्तु को शामिल भी करते जा रहे हैं। शिक्षा के जितने भी संगठन है उनका अपना अलग अलग पाठ्यक्रम है और उस पाठ्यक्रम को निर्धारित करने वाले सुधी और विद्वान हैं लेकिन उनकी अपनी सोच के अनुसार वह समय समय पर पुनरीक्षित होता भी है। पुराने प्रसंगों को कालातीत समझ कर हटा दिया जाता है और नयी उपलब्धियों को इसमें शामिल कर लिया जाता है। इसमें ऐसे भी विचारक हैं जिनकी सोच अलग अलग विचारधाराओं से प्रभावित होती है। उसके अनुसार देश का इतिहास बदल जाता है। स्वतंत्रता संग्राम के चरित्रों को अपने अपने ढंग से परिभाषित किया जाने लगा है। हमारी आज की पीढ़ी अपने शिक्षकों से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है और शिक्षक भी वही पढ़ाता है जो किताबों में लिखा होता है।
पाठ्यक्रम में शामिल विकृतियों को समय समय इंगित किया जाता रहा है और इस संक्रमण काल में जब सामाजिक और नैतिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन हो रहा है जरूरी है कि पाठ्यक्रम को संशोधित किया जाय। वो महापुरुष और देश के गौरव व्यक्तित्व, जिन्हें उपेक्षित किया जाने लगा है और उनके आचरण आज भी सामयिक है , पुनः पाठ्यक्रम में शामिल जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि समाज में और देश के महत्वपूर्ण और जागरूक संगठनों में जागरूकता नहीं है , वो है और उसके लिए बराबर प्रयास किये जा रहे हैं। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदहारण है --
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की हाल में ही हुई २७-२९ मई २०१६ को "राष्ट्रीय शैक्षिक कार्यशाला " जो रयत -बाहर , पोपद कैंपस (पंजाब में संपन्न हुई। इसमें जो प्रस्ताव रख गया वह समीचीन है और राष्ट्रीय स्तर इसको स्वीकार किया जाना चाहिए।
"पाठ्यक्रम में परिवर्तन सामयिक आवश्यकता है। पाठ्यक्रम में निहित विकृतियों को लेकर शिक्षा बचाओ आंदोलन के द्वारा राष्ट्रव्यापी आंदोलन आरम्भ किया गया था। परिणाम स्वरूप इन विकृतियों को हटाने के लिए सरकार को विवश होना पड़ा था। माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने शिक्षा बचाव आंदोलन की याचिका पर पुस्तकों में संशोधन के लिए २००८ में ऐतिहासिक निर्णय दिया था - 'भारत वसुंधरा रत्नगर्भा है। समय -समय पर ऐसे महापुरुषों ने जन्मा लिया हकि जिन्होंने विनाश कर समाज को सुव्यवस्थित किया है। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक महापुरुषों की असंख्य श्रृंखला है। नयी पीढ़ी में भारतीयता का बोध और गौरब भाव जगाने के लिए ऐसी विभूतियों के जीवन -प्रसंग अत्यन्त प्रेरणादायी है।'
इस दृष्टि से नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत संपन्न परिचर्चाओं में अनेक सकारात्मक सुझाव आये हैं. शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास सबंधित संस्थाओं यथा - NCERT , CBSE , ICSE तथा अन्य राज्य स्तरीय बोर्ड उच्च शिक्षा संस्थाओं आदि से आह्वान करती है कि सकारात्मक एवं प्रेरणादायी सुझावों को लागू करने हेतु शीघ्र प्रयास आरम्भ करे और पाठ्यक्रम को यथोचित सशोधन एवं परिवर्तन करें।
प्राथमिक शिक्षा से नैतिक मूल्यों एवं एवं अनुकरणीय चरित्रों का समावेश
होना आवश्यक है। फिर शिक्षा के स्तर के बढ़ने के साथ साथ ही और विस्तार
से जानकारियों का समावेश करते जाना होगा। नैतिक मूल्यों से पढ़ने और समझने
से भटकती हुई युवा पीढ़ी संभालने में सहायक होंगे।