अंतर की ज्वालामुखी
जब पिघलती है
लावा बन
वो कलम से बहती है .
आग उगलती है ,
वाह ! वाह !
सुनकर वो
सिर पटक कर
रो देती है ,
दर्द सहा उसने
जहर पिया उसने
क्या उसकी
तपन का अहसास
किसी को नहीं होता .
नहीं बची संवेदनाएं
जो कोई उसके
दर्द को महसूस कर सकता ,
जो उस कलम से निकले
लफ़्ज़ों की
बेबसी , तपिश और खामोशी को
तोड़ती हुई
दरिया का वेग
महसूस कोई नहीं करता .