यह मेरी पुरानी रचना है इसे मैं पुनः प्रकाशित कर कर रही हूं आज मूढ़ आफ मंथ में मां शब्द पर लिखने के लिए कहा गया है इसी संदर्भ में मैंने अपना यह लेख पुनः प्रकाशित किया है। कुंती, गांधारी और द्रोपदी स्त्री होने के साथ-साथ मां भी थी द्रौपदी के मनोभावों को मैंने यहां व्यक्त किया है।
"द्रोपदी के घायल आत्मसम्मान की पीड़ा"
"द्रोपदी " महाभारत का एक ऐसा चरित्र सम्भवतः महाभारत जैसे महान ग्रंथ का कथानक जिसमें अनेक उपकथानक भी जुड़े हुए हैं। कुछ समय के पश्चात् इसी चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता हुआ दिखाई देता है। ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि, महाभारत का विनाशक युद्ध जो कुरूक्षेत्र के मैदान में लड़ा गया उस भीषण युद्ध का कारण ही द्रोपदी हैं।
यह विचार पुरूषों का ही नहीं है बल्कि इस विचार में स्त्रियां भी भागीदार हैं। ऐसे बहुत से लेख और कहानियों को मैंने पढ़ा है उसमें सीधे साधे शब्दों में बिना किसी झिझक के लेखकों ने लिखा है कि, द्रोपदी यदि दुर्योधन को अंधे का पुत्र अंधा न कहती तो महाभारत का युद्ध होता ही ना,उनका कहना है कि स्त्रियों को अपनी मर्यादाओं का उल्लघंन नहीं करना चाहिए। उनकी इस बात से मैं भी सहमत हूं कि, किसी को भी किसी का ऐसा अपमान मज़ाक में भी नहीं करना चाहिए कि उसकी आत्मा और स्वाभिमान दोनों आहत हो जाएं।
यहां प्रश्न यह है कि, क्या महाभारत के भीषण युद्ध का कारण द्रोपदी ही है?
महाभारत का युद्ध क्या द्रोपदी के द्वारा किए गए अपमान के कारण ही हुआ?
क्या किसी स्त्री से अपने अपमान का बदला इस प्रकार लिया जाना उचित है?
क्या अपने अहम की तुष्टि के लिए किसी भी व्यक्ति को अपनी मर्यादाओं की सीमा के उल्लघंन का अधिकार हमारी सभ्यता और संस्कृति अनुमति देती है?
क्या एक स्त्री को किसी भी खानदान की कुलवधू बनने के बाद अपने स्वाभिमान का त्याग कर देना चाहिए?
क्या एक स्त्री को ही अपनी मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए पुरुष को नहीं?
क्या विवाह के बाद स्त्री मात्र एक वस्तु होकर रह जाती है?
क्या ईश्वर, भावना, दुःख दर्द का एहसास, इज्जत की इच्छा स्त्रियों के शरीर और मन में नहीं डालता?
क्या स्त्री के शरीर में चेतन आत्मा नहीं होती,?
क्या स्त्री जड़ होती है उसमें कोई मानवीय संवेदनाएं नहीं होती?
क्या वास्तव में महाभारत के युद्ध का बीजारोपण इंद्रप्रस्थ के राजमहल से ही आरम्भ हुआ था?
क्या द्रोपदी के द्वारा किए गए अपमान के, भी बहुत पहले इस भीषण युद्ध की नींव नहीं पड़ चुकी थी?
ऐसा सभी जानते हैं कि, धृतराष्ट्र और गांधारी की अनुचित महत्वाकांक्षा के कारण महाभारत के युद्ध का शंखनाद बहुत पहले ही उद्घघोषित हो चुका था पर इस की ध्वनि स्वार्थ में लिप्त महत्त्वाकांक्षी कुरूवंशियों को सुनाई नहीं पड़ी या उन्होंने सुनना ही नहीं चाहां।
इसलिए उन्होंने अपनी गलतियों का दोषारोपण द्रोपदी के सिर मढं दिया क्योंकि, वह लोग बहुत अच्छे राजनीतिज्ञ थे। उन्हें राजनीति की चालें चलनी बहुत अच्छे से आतीं थीं। इस प्रकार उन्होंने स्वयं को निर्दोष साबित करने की भी असफल चाल चली।
फिर क्या इन प्रश्नो पर विचार किए बिना ही द्रोपदी पर दोषारोपण करना किसी के लिए भी उचित है
क्या उस राजमहल के किसी भी व्यक्ति को द्रोपदी की घायल आत्मा की तड़प महसूस हुई?
शायद किसी को भी नहीं,!!
मात्र एक व्यक्ति ऐसा था जिसने द्रोपदी के घायल आत्मा की तड़प महसूस की और उस पर स्नेह का मरहम भी लगाया।
उस को हम इंसान कहें भगवान कहें सखा कहें या भाई कहें चाहें हम उसे कुछ और नया नाम दें। वह थे यशोदानंदन, कृष्ण,कन्हैया, मधुसुदन,जिस भी नाम से उन्हें पुकारों, पर वह थे तो द्रोपदी के भाई ख़ून के रिश्ते से ना सही पर प्रेम और स्नेह के रिश्ते से तो थे।
हस्तिनापुर की सम्मानित राज सभा में जिस प्रकार एक स्त्री (कुलवधु) को केशों से पकड़कर घसीटते हुए लाया गया। वहां विद्वानों और महारथियों की उस सभा में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जो उस अन्याय का प्रतिकार करता। उस क्षण द्रोपदी के स्वाभिमान और आत्मसम्मान पर कैसा कुठाराघात हुआ होगा। क्या उस पल उसकी आत्मा घायल होकर तड़पी न होगी? क्या किसी ने उस तड़प को महसूस किया?
नहीं किया!!
इतने पर ही द्रोपदी के अपमान की इतिश्री नहीं हुई। अभी तो उसे उस सभा में अपने अस्तित्व और नारी गरिमा को भी दांव पर लगाना था। पहली बार उसके धर्मात्मा पति ने वस्तु समझकर दांव पर लगा ही था। दूसरी बार उसके नारीत्व की गरिमा को ही तार,तार कर दिया गया।यह कर्म वहां उपस्थित शूरवीर योद्धाओं, महारथियों के सम्मुख किया गया और सब सिर झुकाकर कर यह कहकर बैठें रहें कि वह मजबूर हैं।
यह कैसी मजबूरी है जहां एक नारी की गरिमा को भरी सभा में नीलाम किया जाएं और वहां उपस्थित शक्तिशाली व्यक्ति यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लें कि मैं विवश हूं।
वह विवशता नहीं स्वार्थपरता थी, वहां उपस्थित महारथियों को मान सम्मान और शान-शौकत का जीवन चाहिए था। जो उन्हें मौन रहकर ही मिल सकता था। फिर चाहे स्वयं ही की नज़रों में क्यों न गिर जाए।
अपने को सही साबित करने के लिए उन महा पुरूषों ने उसे स्वामिभक्ति,राजभक्ति और सिंहासन भक्ति का नाम देकर किनारा कर लिया।उस समय जब द्रोपदी ने अपने उस परिवार के महारथियों को आशा की दृष्टि से अपनी सहायता के लिए देखा होगा। जब द्रोपदी ने उन्हें सहायता के लिए आगे बढ़ते हुए ना देखकर उनके झूके हुए सिर दिखें होंगे तो क्या उसकी घायल आत्मा ने चित्कार ना कि होगी।उस समय क्या उसके उस दर्द को किसी ने महसूस किया?
नहीं किया!!
अगर किया होता तो भीष्म पितामह के बाणों से लहूलुहान होकर दुर्योधन और दुशासन के शव राजसभा के प्रांगण में पड़े होते।
यदि उस दर्द को किसी ने अनुभव किया होता तो द्रोणाचार्य के बाण द्रोपदी को वेश्या कहने वाली जिभ्या को काटकर पृथ्वी पर धूल चाटने के लिए विवश कर देते।
पर उस दिन उस सभा में ऐसा नहीं हुआ। वहां द्रोपदी को इस महावीरों के झूकें हुए सिर दिखें यह देखकर द्रोपदी की घायल आत्मा कितना छटपटाई होगी।
उस दर्द को सिर्फ और सिर्फ द्रोपदी ने महसूस किया राज परिवार के सदस्यों ने नहीं किया।
जिस परिवार के व्यक्तिअपने घर की मर्यादा की रक्षा न कर सके उन्हें सम्मान पाने का अधिकार कहां है?
यह तो परिवार के सदस्यों की बात हुई। वहां तो उस सभा में स्वयं द्रोपदी के पांच महान पति भी उपस्थित थे। उनमें अर्जुन जैसा धनुर्धारी,भीम जैसा गदाधारी भी था। जब द्रोपदी ने उनकी तरफ अपनी मर्यादा की रक्षा की खातिर देखा होगा और वहां भी उसे निराशा ही मिली तो,उस क्षण उस विवश घायल नारी की व्यथा को किसने जाना या महसूस किया था। उस समय राज परिवार का कौन सा व्यक्ति उसके स्वाभिमान की रक्षा के लिए आगे आया।
जब दुशासन के हाथ उसके वस्त्र को पकड़ने के लिए आगे बढ़े होंगे तो वह भयभीत हिरनी की तरह चारों ओर अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए अपनों को आशा भरी नजरों से देखते हुए भाग रहीं होगी इस उम्मीद में कि शायद इनमें से कोई महारथी मेरी रक्षा के लिए आगे आए।
पर उस मृतकों की सभा में कोई ऐसा पुरुष नहीं था जो अपने घर की कुलबधू और अपनी पत्नी की रक्षा के लिए आगे आया हों।
तब स्वयं द्रोपदी को अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए प्रयत्न करना था और उसने किया अपनी आत्मशक्ति को जागृत कर उसने अपनी आत्मा को परमात्मा रूपी भाई से जोड़ दिया और वह भाई ईश्वर का चमत्कार बनकर अपनी बहन की रक्षा के लिए दौड़ा चला आया।
उस भाई को उस समय कुरूवंशियों की तरह अपने पद प्रतिष्ठा का लालच नहीं था कि, अगर वह द्रोपदी की सहायता करेगा तो उसकी सुख समृद्धि को छिन लिया जाएगा।उसे तो सिर्फ अपनी बहन के आत्मसम्मान की रक्षा किसी भी कीमत पर करनी थी उसे किसी की भी परवाह नहीं थी।
उसे पद प्रतिष्ठा से कोई मतलब नहीं था उसे तो सिर्फ अपने बहन को उसी की नज़रों से गिरने से बचाना था। जो वह कर गुजरा जो व्यक्ति धर्म का आदर करता है वह सिर्फ अपने धर्म का पालन करता है हर हाल में वह कोई बहाना नहीं ढूंढता।
अबतक बात राजपरिवार के पुरुषों की हुई।वह पुरुष थे उन्होंने शायद नारी की आत्मा की तड़प को महसूस ना किया हो।
यहां तो राजपरिवार की स्त्रियों को भी द्रोपदी की तड़प नहीं महसूस हुई। कुन्ती ने यह कहकर कि मुझे अपने पुत्रों से ऐसी आशा नहीं थी। वह अपने कर्तव्यों से मुक्त हो गई।उस समय कुन्ती ने क्यों नहीं अपने उन पुत्रों को दंड दिया जिनके कारण दुशासन के मलीन हाथ द्रोपदी के पवित्र आंचल तक पहुंचे थे।
गांधारी ने द्रोपदी को श्राप देने से मना कर दिया क्यों? यदि उन्होंने द्रोपदी की पीड़ा का अनुभव किया होता तो वह द्रोपदी को श्राप देने से कभी मना ना करती।
वह स्वयं उन्हें श्राप देती इसमें तो वह माहिर थीं, क्योंकि उन्होंने अकारण कृष्ण को श्राप दे दिया और अपने पुत्रों के द्वारा किए गए इतने बड़े घिनौनें कृत्य को क्षमा कर दिया।
क्यों? क्या इसलिए कि द्रोपदी उनकी पुत्री नहीं कुलवधु थी!!
क्या!!कुलवधु का कोई आत्मसम्मान और स्वाभिमान नहीं होता।
क्या वह अपनी ससुराल में एक मन्दिर की घंटी की तरह होती हैं जो चाहें उन्हें बजाकर चला जाएं?
अगर ऐसा ना होता तो महारानी गांधारी ने कभी भी अपने पुत्रों के लिए क्षमा की मांग ना की होती।
उन्हें तो अपने पुत्रों का जीवन चाहिए था किसी भी कीमत पर चाहें वह क़ीमत कुलवधु के मर्यादा की धज्जियां उड़ाकर ही क्यों न मिले और उन्होंने द्रोपदी की अच्छाई का फायदा उठाकर उनसे अपने अधर्मी बेटों का जीवन मांग लिया।
यदि गांधारी और कुन्ती ने द्रोपदी की आत्मा की पीड़ा को महसूस किया होता तो वह स्वयं उन्हें श्राप देकर भस्म कर देती पर उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि द्रोपदी उनकी पुत्री तो थी नहीं तो उसके मान सम्मान से उन्हें कोई मतलब था ही नहीं और गांधारी ने तो तिरिया चरित्र दिखाते हुए स्वयं को महान भी साबित कर दिया, जीता हुआ राज्य देकर।उस समय उन्होंने पूरे राज्य को सास के दोहरे व्यक्तित्व का आईना दिखा दिया,कि ऐसी घृणित मानसिकता भी एक सास रखतीं हैं जो षड़यंत्र भी राजनीति के दायरे में करतीं हैं, जिससे लोग उसे महान भी मान लें और वह अपने घृणित कार्य को सबके सामने सही साबित कर लें, आज भी हमारे समाज में ऐसा ही हो रहा है क्योंकि परम्परा तो वहीं से शुरू हुई थी।
आज भी ऐसी मांऐं समाज में विद्यमान हैं जो अपनी बहूओ के साथ घृणित व्यवहार करने के बावजूद समाज के सामने स्वयं को देवी स्वरूपा प्रर्दशित करने में सफल रहतीं हैं।
क्या राज्य वापस देकर किसी भी नारी का खोया हुआ आत्मसम्मान,उसका बिखरा हुआ अस्तित्व उसे उसी रूप में वापस मिल सकता है?
शायद कभी नहीं!!
क्योंकि वह स्वयं अपनी ही नज़रों में गिर गई होती है उसे स्वयं से घृणा हो जाती है।वह स्वयं से प्रश्न करतीं हैं कि क्या मेरा कोई वजूद नहीं है? क्या मैं उपभोग की वस्तु हूं।
क्या मैं मृतक हूं? क्या यही मेरा अस्तित्व है?
क्या नारी के आत्मसम्मान की रक्षा का दायित्व उसके मायके वालों का है?
क्या एक नारी अपने पिता का घर अपमान सहने के लिए छोड़कर आतीं हैं?
यह प्रश्न तो हर नारी के मन में उठतें ही हैं।
तब वह स्वयं से और अपने पति से प्रश्न करतीं हैं।
जब मुझे अपने आत्मसम्मान की रक्षा स्वयं करनी है तो मैं इस घर में अपनी शर्तों पर रहूंगी, दूसरों की शर्तों पर नहीं।
तुम अपराधियों को दंड ना दो क्योंकि तुम्हारी आत्मा मर चुकी है पर मैं उन्हें तुम्हीं से दंड दिलाऊंगी पर मेरा तरीका दूसरा होगा।
क्योंकि ऐसे खतरनाक अपराधियों को छोड़ देना धर्म और मर्यादा के विरुद्ध है।
द्रोपदी ने भी ऐसा ही सोचा कि, मुझे भी अधर्मियों को दंड दिलवाना है। मुझे अपनी घायल आत्मा के लिए मरहम भी चाहिए।उसे पाने के लिए द्रोपदी ने अपने विशेष अस्त्र का प्रयोग किया और अपने शस्त्र रूपी केश खोल दिए।
उसने अपने पिता के घर जाने से इंकार कर दिया वह वन,वन भटकने को तैयार रहीं अब द्रोपदी को न्याय चाहिए था।
यह न्याय उन्हें अपने पति के हाथों चाहिए था। जिससे आने वाली पीढ़ियों को यह आभास रहें कि जब एक नारी को परिवार मान सम्मान देकर सम्मानित करता तो वह अपने परिवार के लिए प्राणों को भी न्योछावर करने में संकोच नहीं करतीं, पर जब वह परिवार उसके नारी गरिमा और अस्तित्व को अपने लोगों के प्यार में पड़कर दांव पर लगा देता है तो वह अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए कुछ भी कर और करवा सकती है क्योंकि पापियों को दंड देना न्यायसंगत है।
द्रोपदी ने भी अपने केश रूपी शस्त्रो का प्रयोग किया। उन्हें खुला छोड़कर जिससे उनके पति हर दिन उसे देखें और उस भयानक मंजर को याद रखें और वे उन पापियों को दंड देकर आने वाली पीढ़ियों को यह सबक दें कि कभी भी किसी नारी का अपमान इस हद तक ना करों कि उसकी घायल आत्मा इतनी तड़प उठें कि वह अपने विकराल रूप को धारण कर महाभारत जैसे युद्ध का शंखनाद कर दें।
द्रोपदी की घायल आत्मा और खुले केश धृतराष्ट्र, गांधारी, जैसे लोगों को यह संदेश देतें हैं कि वह दुर्योधन और दुशासन जैसे पुत्रो को ऐसे संस्कार न दें कि, उनका अन्त इतना वीभत्स हो कि उस मंज़र को देखकर मौत भी कांप जाए।
भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य को यह समझातें है कि किसी की इतनी अंध भक्ति न करों की अन्त में तुम्हें शरशैय्या पर सोना पड़े, और पुत्र को कुष्ठरोगियों सा जीवन जीना पड़ें।
युधिष्ठिर जैसे लोगों को यह सबक मिलता कि यदि तुम नारी को वस्तु समझने की भूल करोंगे तो वह सचमुच जड़ हो जाएगी।
उसमें से कोमल भावनाओं का विलय हो जाएगा फिर उसके अन्दर किसी के लिए कोई एहसास नहीं रह जाएगा।वह सिर्फ न्याय अन्याय धर्म अधर्म को ही अपना लक्ष्य बनाकर मानव कल्याण के लिए और धर्म की स्थापना के लिए पुनः अपने केशों को खोलकर महाभारत जैसे युद्ध का शंखनाद करेंगी, जिस धर्म युद्ध की अग्नि मे धृतराष्ट्र, गांधारी, भीष्म, द्रोणाचार्य, जैसे लोगों के समस्त परिवार को भस्म करने की क्षमता होंगी और वह स्वयं भी उसी भीषण अग्नि में भस्म होने को मजबूर हो जाएंगे। क्योंकि जब धर्म और न्याय के लिए नारियां अपने हाथों में शस्त्र धारण कर लेतीं हैं तो काली, दुर्गा, चंडी बनकर पापियों का विनाश करतीं हैं।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक