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द्रोह के स्वर

14 नवम्बर 2024

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लीला, बुआ संग, एक विवाह- समारोह में आई है...एक छोटे से कस्बे में होने वाली, बड़ी सी घटना!                                            
    बड़ों के सामने, हाथ भर का पल्लू डालने वाली औरतें,  गुँथे आटे से,  दुल्हन और दूल्हे के प्रतिरूप,  गढ़ रही हैं...उन पर हल्दी का ऐंपन लगेगा...दुल्हनिया को छोटा सा, चमकीला लहंगा पहनाना होगा. चोली के नाम पर, एक गाढ़े रंग की पट्टी और गोटे जड़े रुमाल की चुन्नी... चटख लाल, रिबननुमा कपड़े को, सर पर लपेट- लपेटकर,  दूल्हे राजा की पगड़ी बनी है. मलमल के कपड़े को सीकर,  नन्हा सा अंगरखा बना... उसी कपड़े के, छोटे से टुकड़े को तुरुप कर,  धोती का आकार,  दिया गया.  चमकदार किनारी और सितारे जड़े गए. मोतियों के गहने.
बांस की डलिया में, सिंधौरे संग, इन्हें रखकर, वधू के घर, पहुँचाना है. साथ ही फल- फूल और मिष्ठान्न भी जायेंगे. स्त्रियाँ सुहाग- गीत गाने लगीं. लीला दूर से, देख रही थी. उसको सब कुछ, बहुत भला सा लग रहा था. किन्तु जब वर- वधू के, अंदरूनी अंगों को लेकर, भौंडी और अश्लील टीका- टिप्पणी, होने लगी; तो वह सह ना सकी और उधर से चली आई. 
चम्पा मौसी के बेटे की शादी थी.
...बुआ की बचपन की सखी चम्पा, माँ की चचेरी बहन...बेटा खास कुछ पढ़ नहीं पाया...रो- पीटकर बी. कॉम तक पढ़ाई की; अंततः ट्रकों के ट्रांसपोर्ट का, पारिवारिक धन्धा ही, उसकी कमाई का जरिया बना.
लिहाजा उसकी शादी के लिये, लड़की भी कम पढ़ी- लिखी मिली. बारहवीं के बाद, आंगनबाड़ी शिक्षिका का काम कर रही थी. गाँव में ही पली बढ़ी. पिता वहीं प्राइमरी स्कूल के शिक्षक. दहेज देने की सामर्थ्य नहीं.
विवाह गाँव में ही सम्पन्न होना था.  आधुनिक समय में, औरतों को बारात में जाने से रोका नहीं जाता था. किन्तु उस गाँव के, कुछ पोंगापंथी बुजुर्गों को ये मंजूर नहीं था. एक और समस्या भी थी; वह ये कि गाँव के विद्यालय में, ठहरने की व्यवस्था, की गयी थी. जहाँ शौचालय गिने चुने थे.
कपड़े बदलने के लिए भी, दो ही कमरे. इसलिए स्त्रियों को बारात में ले जाना ठीक नहीं लगा. अविवाहित लड़कियों को छोड़, अन्य सारी महिलाएँ, घर पर ही रह गईं. इस तरह, 30 वर्ष पहले बंद हुई, नकटा की रस्म, फिर से होनी थी. कुनबे की स्त्रियाँ, कुछ ज्यादा ही ‘पिछड़ी’ हुई थीं... पिछड़े हुए कस्बे के पिछड़ेपन का, प्रतिनिधित्व करने वाली नारियाँ! ‘नयी नस्ल’ की कन्याएँ, भले ही, स्नातक या परास्नातक हों: पर उनकी माएँ, चाचियाँ और काकियाँ; हद से हद, दसवीं पास रहीं...और दादियाँ, नानियाँ तो अँगूठा टेक!!
लीला बारात में तो गयी पर वहाँ उसका जी न लगा. बारातियों में से कोई, अपने बच्चे के, रोने- गाने से, तंग आकर; वहाँ से, वापस लौट रहा था...सो वह भी, संग चली आई.  बच्चे की माँ, छत पर लगे जंगले के पास...बेतरतीबी से, बिछा गद्दा पाकर, उसे सुलाने लगी. लीला भी उधर ही पसर गयी.
जंगले से नीचे का दृश्य, साफ़ नजर आ रहा था...माँ चाहती थी कि वह ऐसे आयोजन से, दूर ही रहे...फिर भी...!
लीला ‘नकटा’ में भाग लेने वाली नारियों को विस्फारित आँखों से देख रही थी.
कुछ माँ ने बताया, कुछ गाँव में अपनी जड़ें होने के कारण, उसने स्वयं समझा; पर अपनी प्यारी बुआ को इस रूप में देखना, अत्यंत कष्टकारी था!
उन महिलाओं का व्यवहार कुछ ऐसा था- ज्यों लस्ट स्टोरी का एपिसोड चल रहा हो. मानों यौन- दासत्व का त्रास, सर चढ़कर बोल रहा हो...ऐसी थीं, उस प्रकरण को, अभिनीत करने वाली, विवाहिताएँ...! लीला सोच में पड़ गयी...यह कि विवाह संस्था, ऊपरी सम्मान तो देती है, किन्तु मन के जुड़ाव बिना, दैहिक सम्बन्ध,  बलत्कृत होने जैसा दुख देता है. घर मे पड़े फ़ालतू सामान, की भांति बरती गयीं; आमोद प्रमोद के तुच्छ साधन की तरह भोगी गईं...
समय समय पर दैहिक हिंसा, मारपीट की शिकार...सास, ससुर,  पति; यहाँ तक कि अपनी ही कोखजाई औलादें- समय समय पर, अपमानित करती रहीं. अपढ़ कहकर, कोसी जाती रहीं. पति का सान्निध्य मिला अवश्य...पर देह के मिलन में, इनकी इच्छा- अनिच्छा का, कोई महत्व ही नहीं...!
उसकी अपनी बुआ...इन सबकी नायिका!!
रोज भगवान के नाम की माला जपने वाली...तपस्विनी की भांति, अपनी इकलौती संतान के लिए, खटने वाली, पवित्र स्त्री...?! वह बुआ के जिगर का टुकड़ा और बुआ उसकी लाइफलाइन ...! माँ तो ऑफिस जाती रहीं: एक तरह से देखा जाए तो बुआ ने ही उसको पाला.
लीला के मन मस्तिष्क में,  बुआ की प्रेम कथा छाई हुई है. एक लड़की, अपने बालसखा से विवाह करती है. जाति एक होने के कारण, उनका प्रेम, समाज को स्वीकार्य होता है.
वह औरत पति से नहीं, एक भरे पूरे, परिवार से ब्याही गई...जहां इसका काम, एक अदद नौकरानी का रहा...पति शिक्षा और रोजगार के अवसर, तलाशता फिरता...शहरों की भीड़ में, कहीं खो गया. वह एक नया इंसान बनकर, वापस आया...जो जीवन की दौड़ में, आगे निकल चुका था और स्त्री, घरेलू कामकाज में, खटती हुई, कुएँ के मेढक जैसी जाहिल, बनी रही...तब उसे अपनी-  वही दुलारी पत्नी, गँवार लगने लगी.
वह शहर में, ठाठ से, दूसरी औरत के साथ रहता है...गजब है, लिव- इन की ‘सुविधा’...! प्रेमिका का पति, दुनिया में नहीं है...किन्तु उसके शादीशुदा जीवन ने, एक बेटी जरुर गोद में, डाली हुई है.
...और लीला के फूफा, अपनी इस ‘तथाकथित’ पत्नी और ‘तथाकथित’ बेटी संग, अलग ही दुनिया में,  मगन हैं.
पत्नी और उनके बीच, अभी भी एक कमजोर कड़ी है- उनका बेटा ...! बिरादरी के, तानों से बचने के लिए, बेचारी, बेटे को लेकर; भाई के घर, चली आई...
...बुआ, अपने वैवाहिक जीवन की, बर्बादी को, छुपाने के लिए; पारिवारिक उत्सवों में, यदा कदा, ससुराल हो आतीं...दुबई में बसे बेटे के खातिर, मृतप्राय सम्बन्धों को भी, सामाजिक स्वीकृति, दिलानी है...आखिर उसका भी ब्याह, कहीं न कहीं करना होगा...बेटे के लिए, अच्छी जोड़ी चाहिए तो परित्यक्ता होने का, ‘दोष ‘ ढांपना ही पड़ेगा
सोच में व्यतिक्रम हुआ. ब्याह का ‘नाटक’ पूरे जोर-शोर से, खेला जाने लगा था...
ब्याह के समानान्तर दूसरा ब्याह...उन कम अकल औरतों के लिए तो यह महज देहराग ही था! पर्दादारी करने वाली, लज्जालु महिलाएँ, अपने खोल से, निकल आई थीं. सफेद बाल वाली...लटकती खाल और झुर्रियों वाली...नाती- पोतों वाली वृद्धाएँ, अपनी उम्र का लिहाज, करना भूल गयी थीं...उमर भर, मिली प्रताड़ना की कसक, किसी दूसरे ही रूप में, मुखर हो रही थी...मर्यादित स्त्रियाँ, मानों शूर्पणखा में तब्दील हो गई थीं. यौन कुंठाएं छलक पड़ी थीं.
और बुआ का तो कहना ही क्या...!
पहले तो वे पुलिसिया चोला पहनकर, सब पर रौब जमाने आ गयीं...आखिर ब्याह तो, पुलिसकर्मी के घर से हो रहा था सो एक पुरानी यूनीफॉर्म वहीं पड़ी मिल गई. उन्हें देख, लीला की भी हँसी, न रुक सकी.
अगला स्वाँग, बारातियों के स्वागत-सत्कार का था. उसमें मीन- मेख निकालती, बुआ की अभिनय- दक्षता, देखते ही बनती थी. यहाँ वे सेहरा लगाकर, वर का रूप धारे थीं. समधियों ने आपस में, गले मिलकर, स्वाँग को, स्वाभाविक रूप, प्रदान किया. दूल्हे की आरती उतारी गई. मेहमानों को, पान पेश किया गया और उनका मुँह मीठा करवाया गया.
विवाहोपरांत, दैहिक सम्बन्ध को लेकर, चटखारेदार चर्चा, लज्जाजनक थी. वरमाला हुई. वर- वधू का अभिनय कर रही स्त्रियों के, बाकायदा, पाँव पूजे गये. श्रद्धानुसार धन भी अर्पित हुआ. इस बीच दूल्हा बनी, बुआ का, निर्लज्ज प्रलाप, जारी था.
दुल्हे- दुल्हनिया के बीच, शारीरिक संसर्ग का, सांकेतिक निरूपण, लीला को, शर्म से भर गया.
बुआ एक के बाद एक ‘बाउंसर’ फेंकती जा रही थीं...
उन्होंने चम्पा के पति, रामविलास जीजू, और अपनी ‘काल्पनिक अंतरंगता’ को, खुलेपन के साथ, अभिव्यक्त किया, ‘ उन हिन का शुगर( मधुमेह)...हमहिन का शुगर...हमरी जोड़ी, बहुतै बढ़िया!
जल्द ही वे, जीजू के मित्र को लेकर, दिल्लगी करने लगीं , “ऊ त बहुतै, बढ़िया अंगरेजी बोलत रहे. हमऊं फिराक पहिन लीना...लाली, लिपस्टक(लिपस्टिक)लगाइके, ओनके लगे, चली गईन “
“ओनका माथा फिरिन गवा?!” किसी तमाशबीन महिला का, कौतुक, छलक पड़ा था.
“ अउका...!” बुआ का उत्साह, देखते ही बनता था, “कलीन बोरड( क्लीन बोर्ड) हुइगै!”
इस पर ‘जनता ‘ ने ताली बजाई और ओछी हुंकार के साथ, उस मनगढ़ंत ‘पराक्रम’ का, अनुमोदन किया.
अगली बारी रामविलास जी के अनुज की थी, “यक दैयां हम ओनके छुटके भैया क देखै गे रहेन...तुम पंचै ओहिका जानित नाहीं...! यकदम्मै हीरो लागत रहा”
“तुमहूँ सुन्दरी हौ...” किसी ने चुटकी ली.
“एमा कौनो सक?! ऊ जानो...बहुतै गुस्सैल हय... मुला हमरे लगे, बार-बार मुस्कियात रहा”
“काहे नाहीं...तुइ त हिरोइन लागत रहीं “ स्त्रियों को मजा आ रहा था.
“ ऊ जबरिया, हमका लिए जात रहा...बड़ी मुस्किलन ते हाथ छुड़ाइन”
अगला प्रसंग जीजू के साले पर, केंद्रित हो गया. बुआ ने उनके संग, अपने ‘नैन- मटक्का’ का, रसिकता से, विवरण दिया.
“उइ तुम्हरे, सगरे करम, कइ दीन हुँइहैं “ इस बेहया जुमले के उछलते ही सब औरतों के साथ-साथ, बुआ भी खी खी करके हंस पड़ीं.
लीला को वितृष्णा होने लगी.
यों लगा- जैसे कोई गलीज किस्म का दलदल हो... और ये औरतें,  उसमें, गले तक फंसी हों ! जिन्हें हाथ- पाँव मारने से, कुछ हासिल नहीं...जैसे इनके कलपते हुए मनोभाव...मनोविकार बनकर , अपनी ही दुर्गति का जश्न मना रहे हों! मन की कटुता, उनकी भाषा को, बाजारू बना रही थी.
नकटौरा- खेल खेलने वाली स्त्री...
संयुक्त परिवार में, अनगिनत दायित्व निभाती उसकी देह...पति की दैहिक क्षुधा को, शांत करती...वंश बेल को, अपनी रक्त- मज्जा से सींचती देह... छद्म मर्यादा का बोझ ढोते हुए, स्त्री देह बन जाती है....पति के लिए, कुटुंब के लिए, समाज के लिए, यही उसकी पहचान रहती है. घूंघट की कैद में, परिवार के सम्मान को, नाजुक कन्धों पर ढोती...किन्तु स्वयं उसका ही कोई सम्मान नहीं
..मवेशी की भांति एक खूंटे से दूसरे खूँटे बांधी गयी...आत्मसम्मान को वह, कहीं गहरे दफन कर देती है.
मन के सारे समीकरण, नकार दिए जाते हैं...जहां उसकी खुशी, उसकी भावनाओं का, कोई मान नहीं...दूसरों के लिए जीते हुए, अपशब्दों को झेलना, उसकी नियति...! विवाह जैसे महत्वपूर्ण, सामाजिक उत्सव में जाने से, रोकी गयी महिलाएँ...लैंगिक असमानता की कसक लिए...’ नकटा या नकटौरा का स्वाँग भरते हुए, वे खुद नकटी हो जाती हैं...हृदय में युगों युगों से पलता असंतोष...उन ‘नकटी औरतों ‘ की कुंठाओं में, मुखरित होता है.
और बुआ...इन सबकी प्रतिनिधि...!!
दूसरे एक ‘खेल’ में वे, चूड़ीवाले का भेस, धारे थीं. बारी बारी से, हर महिला के पास जातीं. उसकी कलाइयों पर हाथ फेरते हुए, उनकी कमनीयता और कोमलता की, सराहना करतीं. और फिर...! चूड़ी पहनाते हुए, कभी, महिला के गाल, चूमने लगतीं तो कभी उसे आलिंगनबद्ध कर लेतीं...एकाध स्त्री ने, इस क्रम में, उन्हें ‘खरी खरी ‘ सुनाई . एक ने तो, उनका हाथ ही झटक दिया...! भला वह शालीन नारी, अपने वक्ष पर छिपकली की भाँति रेंगकर , गुदगुदाने वाले हाथों को, कैसे सहन करती?
अपढ़ औरतों का मेल तो चूड़ीहार या धोबी जैसों से ही हो सकता था...जो जीवन की दौड़ में, उनकी ही तरह, पीछे रह गए थे. बुआ का स्वाँग, कदाचित, इसी ओर संकेत करता था...उपहासस्वरूप, ये एक- दूसरे को, ऐसे ही किसी पुरुष के संग, भाग जाने का, अनर्गल उलाहना देतीं!
उसे याद है; माँ से, रिश्ते की एक लुगाई ने, अपने नन्दोई को दिखाते हुए, पूछ लिया, “इनके संग सोओगी?”
“कोई सवाल ही नहीं!” माँ का चेहरा लाल हो गया था. “क्यों भौजी? “ नन्दोई जी ने, मासूमियत से, सवाल किया. माँ कुछ कड़वा बोलने ही वाली थीं कि पास बैठी उनकी जेठानी ने, “हमका त कौनो दिक्कत नहिन...हमहिं इनके लगे...सोय जइबै” कहकर, बात को सम्भाल लिया.
ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह का हँसी- ठट्टा होना आम बात है. बड़ी सहजता से...किसी का सम्बन्ध, किसी के संग भी, जोड़ दिया जाता है...जुबान चलते वक्त, आगा- पीछा नहीं देखती...! ब्याह के दौरान, समाधियाने को, अश्लील गालियाँ दी जाती हैं... गज भर का घूंघट धारण करने वाली, ग्राम्याओं को, घाट में स्नान करते हुए देखकर... हैरत होती है ; चुहलबाजी में वे, अपनी हर मर्यादा, भूल जाती हैं.
कितनी ही मनोग्रंथियाँ ... अनवरत पनपती जाती हैं...अनगिनत दंशनों को सहते हुए! मुश्किल से दसवीं , बारहवीं पास, स्त्रियाँ...पढ़ने के लिए, अकेले- दुकेले, साइकल पर, जाना सहज नहीं...मनचले घात लगाये, राह पर, बैठे रहते हैं!
पति से कोई, बौद्धिक या मानसिक जुड़ाव नहीं. पति के लिए वह उसके बच्चों की माँ , उसके परिवार की वधू जरुर है...जीवन साथी अवश्य है...पर मन की साथी नहीं...!
पितृसत्ता ने उनकी इच्छाओं पर लगाम लगाई...उनका नाचना, गाना, उठना, बैठना, बतियाना, सजना- संवरना...सब नियन्त्रित किया...एक तरह से, नकटौरा की प्रस्तुति में, विद्रोह के, सम्मिलित स्वर थे. दमन और शोषण के विरुद्ध, द्रोह के स्वर! बुआ को इन, बेड़ियों से उबरना था...उन्होंने लीला से कहा भी, “बिट्टी...हमका दसवीं कै फारम, लाईके दइ दियौ.”
“क्यों बुआ...? किसलिए?! इस उमर में, यह पचड़ा छोड़ों. किस बात की कमी है तुम्हें...मैं तुम्हारी बेटी नहीं?”
“फिरौं हमका नउकरी चही... आँगनबाड़ी म, काम, करैं क हय” तब लीला ने उसे, उनके दिमाग का, अस्थायी फितूर जानकर, अनसुना कर दिया.
किन्तु अब लग रहा था, बुआ अपने पैरों तले, जमीन तलाश रही थीं...आत्मसम्मान की जमीन! 
ब्याह- जो स्त्री- पुरुष की समानता का पर्व है...जिसमें स्त्री, पति के वामांग में सुशोभित होकर, अर्धांगिनी कहलाती है...उसके अस्तित्व का आधा हिस्सा...! ऐसे समानता के पर्व में...स्त्रियों को ही, सम्मिलित होने की, अनुमति नहीं...?!
उसकी आँखें पनिया गई थीं. वह मानों हवा से, बात करते हुए...अस्फुट स्वर में, बुदबुदाई,
“ चिंता मत करो बुआ, इस बार, प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में, तुम्हारा नाम जरुर लिखवाऊंगी.”



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17
रचनाएँ
जीवन के रंग
5.0
जीवन के खट्टे- मीठे अनुभवों की कहानियां .
1

एक्स

10 दिसम्बर 2021
10
4
4

<p>केतकी आज फिर पीछे पड़ गयी थी, ‘ चल यार, आज कोई मूवी देखने चलते हैं’ ‘लेकिन प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिखनी

2

असहमति

10 दिसम्बर 2021
7
3
6

<p>‘चल फटाफट...अभी शॉपिंग बाकी है ...तेरे लिए नये सैंडल और लिपस्टिक लेनी है’ ‘सैंडल तो ठीक है...पर ल

3

मास्क

10 दिसम्बर 2021
4
1
4

<p>नमिता अजब उलझन में थी. कोरोना काल में हवाई- यात्रा, अविवेकपूर्ण थी; पर उसके पास, दूसरा विकल्प भी

4

अन्ततः

10 दिसम्बर 2021
3
1
4

<p>समीरा का जी बस में नहीं था; ममा का फोन आया था. इधर- उधर की बात करने के बाद, कहने लगीं, ‘सिमो...शा

5

धोबी की गधैया

10 दिसम्बर 2021
4
1
4

<p>पूरा परिवार, गाँव के रिहायशी मकान में, छुट्टियाँ मनाने आया था. अगले ही दिन, कुनबे की इकलौती बेटी

6

सपनों की सरगम

10 दिसम्बर 2021
5
1
4

<p>नव्या कॉलेज- लाइब्रेरी से निकलकर, उस शानदार रेस्तरां तक आ पहुंची थी. वहाँ मंद- मंद संगीत की स्वरल

7

चिन्ना वीदू

10 दिसम्बर 2021
2
1
4

<p>जबसे नमित अपने ननिहाल से आया है, लगातार रोये जा रहा है. वह रह रहकर, अपनी माँ मीनाक्षी को, कोस रहा

8

झूठी शान

10 दिसम्बर 2021
2
1
4

<p>तनु दुविधा में थीं. माइक ऑटोवाले ने, उनके पति सुकेश को फोन करके, अच्छी- खासी रकम उधार माँगी

9

साक्षात्कार

10 दिसम्बर 2021
5
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4

<p>साक्षात्कार का दूसरा दौर चल रहा था. फैशन की दुनियाँ में तहलका मचा देने वाली, अंतर्राष्ट्रीय कम्पन

10

रागों की वापसी

10 दिसम्बर 2021
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4

<p>लॉकडाउन के दौर में, वह चिरपरिचित चेहरा, मानों कहीं खो सा गया है...उस मधुर कंठ से निःसृत, अन

11

दूसरे दौर की प्रताड़ना

10 दिसम्बर 2021
2
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4

<p>अमन शर्मा झल्ला रहे थे. उनकी भूरी वाली टी. शर्ट पर, इस्तरी नहीं फेरी गई. देविना रोज रोज की नाराजग

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संक्रमण

10 दिसम्बर 2021
3
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2

<p>‘आंटी...कल फेसबुक पर, तन्वी की फोटो देखी. शी वाज़ लुकिंग गॉर्जियस! उसके साथ क्यूट सा एक लड़का था...

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रिश्तों का बहीखाता

10 दिसम्बर 2021
2
1
4

<p>“गोदी होरिलवा तब सोहैं, जब गंगा पै मूड़न होय गंगा पै मूड़न तब सोहैं, जब गाँव कै नउवा होय” बुलौवे वा

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दूसरी भग्गो

10 दिसम्बर 2021
4
1
4

<p>सुमेर मिसिर हिचकते हुए, उस दहलीज़ तक आ पहुंचे थे, जहाँ कभी आने की, सोच भी नहीं सकते थे. क्या करते?

15

मेले में लड़की

14 नवम्बर 2024
0
1
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छात्रावास में, पुनः, एक ‘महत्वाकांक्षी’ योजना, बनी थी. हर बार की तरह, इस बार भी, योजना की सूत्रधार थी- दीपाली. शहर के सुदूर, जागीर-मेला- स्थल पर, प्रदर्शनी लगी थी. मेले में जाना चाहिए या नहीं- यह निर्

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वज़ूद का हिस्सा

14 नवम्बर 2024
0
1
0

मुनीश चौधरी आज बहुत बेचैन थे. दिन के आठ बजे थे; फिर भी बिस्तर से उठने को, उनका जी नहीं मान रहा था. रोज तो साढ़े छः बजे ही उठकर, सैर पर चले जाते थे; किन्तु...! आज ११ दिसम्बर  था. सुहासी का जन्मदिन. सु

17

द्रोह के स्वर

14 नवम्बर 2024
0
1
0

लीला, बुआ संग, एक विवाह- समारोह में आई है...एक छोटे से कस्बे में होने वाली, बड़ी सी घटना!                                                 बड़ों के सामने, हाथ भर का पल्लू डालने वाली औरतें,  गुँथे आटे

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