“गोदी होरिलवा तब सोहैं, जब गंगा पै मूड़न होय गंगा पै मूड़न तब सोहैं, जब गाँव कै नउवा होय” बुलौवे वाली औरतों में, ढोलक की थाप पर, अपनी आवाजों को बुलंदी तक पंहुचाने की होड़ थी. यह और बात थी कि उनके कंठ, फटे बांस से भी अधिक, गयेगुजरे हो चले. वे गंगा- तट पर होने वाले, मुंडन- संस्कार की महिमा बखान रही थीं. गीत में वर्णित परम्परा, व्यवहार में, कहीं भी लागू न थी. गंगा- तट तो क्या, वहां दूरदराज तक कोई नाला भी नहीं था. गाँव का नाऊ कहाँ से आता? फुटपाथ पर अपना तमेला- झमेला फैला कर, लोगों के बाल कतरने वाला कोई छोकरा पकड़ लाये थे; जो नाऊ कम, शोहदा ज्यादा लग रहा था- गले में रूमाल और फुंदने वाली गोल टोपी. तीन साल का शिशु नन्हें, मां की गोदी में था. बार- बार सर पर उस्तरा फेरे जाने से, सहमा हुआ था और बुक्का फाड़कर रो रहा था. पंडितजी भी उसके बालों पर हाथ आजमा चुके थे. हवनकुंड की लपटें और धुंआ, शिशु को बेकाबू कर रहे थे. आखिर यंत्रणा से छुटकारा मिला. विधि- विधान पूरा हुआ और मां ने स्नान करवाकर, उसे अंतर्वस्त्र पहनाये.
एक –एक कर सभी बुआएं आयीं; आंचल फैलाकर, नन्हें के बाल सहेजने. पहले गुहार लगी बिट्टो बुआ की जो सबसे बड़ी थीं. उन्होंने बच्चे को काजल लगाकर, कपड़े पहनाये. फिर आयीं रम्मो बुआ. भतीजे को डिठौना लगाने और टोपी पहनाने का काम उनके जिम्मे था. तीसरे नम्बर पर थीं लाली बुआ उर्फ़ लालिमा; उनको कोई पूछने वाला नहीं. वह मुंह लटकाए, कोने में खड़ी रहीं. बिट्टो और रम्मो आभूषणों से लदी- फंदी थीं. उनके हाथों में भतीजे के लिए, ढेरों सौगातें थीं. संग लाये डब्बे, उन्होंने खोलकर वहीं रख दिए. देखने वालों की आँखें चौड़ी हो गयीं. सुन्दर वस्त्र, चांदी के ताबीज, एक से एक डिजाइन की टोपियाँ, मोज़े और जूते. क्यों न हो...दोनों के पति, कमाऊ और समर्थ थे. उनकी भाभी बिंदिया ने भी, यथायोग्य नेग दिया- चमचमाती बनारसी साड़ियाँ, सोने की टिकुलियां और चांदी की पायलें.
बिंदिया ने अब लाली की तरफ रुख किया. २०००/- के दो और ५००/- के दो नोट, चुपके से, उसकी हथेली में ठूंस दिए. लालिमा ने धीरे से, उपहार के पुलिंदे को आगे बढ़ाया. बिंदिया ने रुक्ष से स्वर में, प्रतिरोध किया, “अभी नहीं बाद में देना...जब लल्ला को कमरे में ले जायेंगे- तब!” भाभी की बात से वह कटकर रह गयी. उनको डर रहा होगा कि उसका पैकेट खोलने पर, सबके सामने, किरकिरी हो जायेगी. जबसे उसका विवाह हुआ है, तबसे वह इस घर से ही नहीं, लोगों के दिलों से भी निकल गयी है. उसकी कोई वकत नहीं, ना इस घर में और न ही दूसरे घर में; जहाँ सप्तपदी ने, उसे बंधक रख छोड़ा है. शायद अच्छा ही हुआ, जो उसकी सौगात खोलकर नहीं देखी गयी. ससुराल की दुकान से, मलमल का थान निकलवाकर, कुर्ता पैजामा सिला था. उसने बड़े जतन से बेल- बूटे काढ़े थे, नन्हें के लिए. साथ ही फेरीवाले से खरीदा एक झुनझुना भी था. इतनी ही औकात थी उसकी. होंठ भींचकर उसने आंसुओं को रोका.
घर से निकलते वक़्त, माँ जी का ताना मिला, “नाम बड़े दरसन छोटे! बड़े लोग हंय, गाँठ फिरौं ढील नांय कइ सकित...तमाम कारज हुईगे...बिटिया क कउनो खियाल नाहीं...अउर ई! भतीज खातिर, गिफट(गिफ्ट) चाही ईका...हुंह!” बाऊजी की याद उमड़ पड़ी. वे कहते थे, “हमरी लाली सबसे जियादा पढ़ी- लिखी अउर होसियार हय. ऊका लगन भी ऊंच खानदान मां होई.” वे गाँव के एकमात्र स्कूल से, हेडमास्टर के तौर पर रिटायर हुए. समाज में बहुत इज्जत थी उनकी. अपनी इस सबसे छोटी बेटी पर, उनका बहुत लाड़ था. उसके अरमान भी मानों, उनके संग ही विदा हो गये! साल भर बाद, लालिमा के इकलौते भैया, रंजन का ब्याह हुआ. फिर तो सारी कहानी ही बदल गयी! बिंदिया भाभी बहुत तेज- तर्रार थीं. आते ही, घर की हर चीज पर, अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया. अम्मा पर तरह- तरह के दबाव बनाने लगीं. उनकी बकसिया के कीमती गहनों और कागजातों पर, भाभी की नजर थी. बाऊजी की पेंशन पर भी, उनकी नीयत डोलती थी. भैया उन्हीं के कहे में आ गये. अम्मा डरी रहतीं. लाली का भविष्य दांव पर था. उनकी यह छुटकी, गाँव से बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद, पत्राचार से बी. ए. भी कर चुकी थी. स्नातक परीक्षा तो उसने, बाऊजी के रहते ही पास कर ली थी. रोज साइकिल से छुटकी, बगल वाले कस्बे रायगंज में, कंप्यूटर- क्लास तक जाती. वहां काफी कुछ सीखा था. बिंदिया भाभी ने हल्ला मचाकर, गाँव का घर और खेत बिकवा दिए थे. ना चाहते हुए भी उनके परिवार को, बोरिया –बिस्तर के साथ, रायगंज का रुख करना पड़ा. रंजन कुछ ख़ास पढ़- लिख नहीं सका, लेकिन चौपहिया और दुपहिया वाहनों की मरम्मत का काम, बखूबी सीख चुका था; लिहाजा उसने, रायगंज में कार- गैराज खोल लिया.
बतौर मैकैनिक, उसका धंधा फलने – फूलने लगा. रायगंज के पास से होकर, हाईवे का रास्ता जाता था. वाहनों की आवाजाही होती ही रहती. समय के साथ रंजन ने, दो सहायक रख लिए. रायगंज का चेहरा, धीरे- धीरे बदल रहा था. आधुनिकीकरण ने, वहां जोर पकड़ लिया. ईसाई मिशनरी का, एक स्कूल भी आ गया था. कंप्यूटर- प्रशिक्षण के बाद, लालिमा को शिक्षिका के तौर पर, वहां नियुक्ति मिल गयी. वह बहुत मेहनती थी. घर में भाभी का हाथ बंटाने के साथ, प्राइवेट एम. ए. कर रही थी. परास्नातक की परीक्षा उतीर्ण करने पर, उसकी वाहवाही होने लगी. ननद की तरक्की, भाभी को अखर गयी. बिंदिया खुद सातवीं तक ही पढ़ सकी. उसकी दूसरी ननदें भी, दसवीं से आगे नहीं बढ़ पायीं. ऐसे में लाली को रोकने का, एक ही तरीका था- शादी!
बिंदिया के दूर के रिश्ते की बुआ का लड़का था- समर. वह बी. कॉम. कर चुका था. शहर में व्यापार जमाया हुआ था. दहेज़ की मांग भी कुछ ख़ास न थी; लड़की वालों को, भला और क्या चाहिए?! किन्तु लाली अपना लगा- लगाया जॉब, छोड़ना नहीं चाहती थी. उसका अभी बी. एड. करने का इरादा था. लालिमा तो भविष्य की योजनायें बुन रही थी; वहीं भाभी की, अपनी अलग रणनीति थी. रंजन हमेशा की तरह, पत्नी के खेमे में था; पति- पत्नी मिलकर, लालिमा को ‘निपटा’ देना चाहते थे. अम्मा ने हल्का सा विरोध दर्ज किया, परन्तु उनकी एक न चली. दायित्वों के हवनकुंड में, लाली को, सपनों की आहुति, देनी ही पड़ी. पतिगृह जाकर पता चला कि ससुरालियों ने, अपनी जिस समृद्धि का बखान किया- वह मात्र, अतीत का विषय थी! बिंदिया भाभी को इस बात की भनक जरूर रही होगी...तो भी उन्होंने...!!
कुछ साल पहले, समर के पिताजी का देहांत हुआ; फिर धीरे- धीरे, वह ‘तथाकथित’ समृद्धि हवा हो गई. परिवार के बेटों को, व्यापार का अनुभव कम था; बहनों की लगन कराने में, कर्जे का बोझ भी आन पड़ा. उस भारीभरकम ऋण को, कारोबार बेचकर, चुकता करना पड़ा. ले- देकर कपड़े की दुकान बची. मॉल- संस्कृति के चलते, वह भी, अपेक्षित मुनाफा नहीं दे पा रही थी. संयुक्त परिवार में, समर की माँ, दो बड़े भाई और उनके बीवी- बच्चे थे. पैसे को लेकर, रोज चख- चख होती. माताजी बहुत टेढ़ी थीं. उनकी जड़ें गाँव में थीं; इसी से बर्ताव भी, पुराणपंथी- पूर्वाग्रहों से ग्रसित था. बहुओं को, कोल्हू के बैल सा जोते रखतीं. प्यार से बोलना तो दूर- कलह के बिना, उनके पेट का पानी नहीं पचता. समर, लाली की व्यथा समझ रहा था परन्तु चाहकर भी, कोई सहायता नहीं कर पाया.
“अरी छुटकी! तू इधर बैठी है...मेहमान जीम रहे हैं. कुछ मदद कर, तनिक हाथ- पाँव चला.” भाभी के कड़वे बोलों ने, लाली की विचार- श्रंखला तोड़ दी थी. वह झटके से उठी और यंत्रवत चौके की तरफ बढ़ चली. बिट्टो और रम्मो जीजी, ठाठ से पंगत में बैठकर, पूरियां तोड़ रही थीं. उनके घर के लोग, सुस्वादु व्यंजनों को, तेजी से उदरस्थ कर रहे थे. लालिमा के दिल में हूक सी उठी. दोनों जिज्जियाँ परसों की आयी हुई हैं लेकिन वह आज सुबह ही पंहुची है. नाश्ते के समय भी, किसी ने उसे नहीं पूछा...वह तो अम्मा ने, साग में लिपटी हुई, दो रोटियां पकड़ा दीं; वरना फाके की नौबत आ जाती! दोनों जीजियों का भाग्य प्रबल रहा...जो उनका रुतबा, अपनी इस छोटी बहन से ऊंचा है...नहीं तो क्या, किसी तौर पर भी, वे लाली के समकक्ष थीं?! स्वयम उसका विवाह हुए, सात महीने हो गये हैं. पगफेरे से लेकर अब तक, नैहर के चार- पांच चक्कर लग चुके. समर अपने बीमार ताऊजी को देखने आते हैं तो उसको यहाँ छोड़ जाते हैं. वह भी अम्मा से मिलने का, लोभ- संवरण नहीं कर पाती.
उसके अभाव भरे जीवन को लेकर, अम्मा ग्लानि का अनुभव करती हैं. वह जब भी नैहर आती है, उसे कुछ न कुछ, भेंट या नगद देकर विदा करती हैं. गाँव के पोस्ट- ऑफिस में उनके नाम का खाता है, जो बाऊजी ने खोला था; उस पर पेंशन के पैसे, अलग से मिलते हैं... इसलिए भाभी ज्यादा रोकटोक नहीं कर पातीं; बल्कि शर्माशर्मी में, उन्हें अपना बटुआ, खंगालना पड़ जाता...सब कुछ, किया- धरा तो उनका ही है! लाली की उलझनों का, कोई अंत नहीं. तयेरे ससुर के देहांत के बाद, मायके आने का, कोई बहाना ना रहा. वह तो शुभकार्य का न्यौता मिल गया ...अन्यथा! नन्हें की दिदिया का मुंडन, एक बरस पहले हो चुका था. बरसों तक पीहर में, कोई कारज नहीं होना था. उसको न तो कोई बुलाएगा और ना ही, माँ जी इधर भेजेंगी. अम्मा उसकी हितैषी हैं, परन्तु बाऊजी के जाने के बाद, खुलकर उसका पक्ष नहीं ले पातीं. बेटा- बहू, बुढ़ापे का सहारा हैं. उनको नाराज कैसे करें??
लालिमा की नई- नई शादी है; इसी से, बिंदिया भाभी की जुबान, अभी तक बंद है...किन्तु वह दिन दूर नहीं- जब अम्मा से, लाली पर लुटाये गये धन की, कैफियत मांगेंगी... मुंह से कहें या ना कहें, पर उनका चेहरा, मन की चुगली कर ही देता. अपना- अपना भाग्य! बिट्टो जिज्जी के पति, सिविल- विभाग में, ओवरसियर हैं और रम्मो जिज्जी के- पुलिस में हेड- कांस्टेबल. दोनों ही भ्रष्ट- तंत्र के गुर्गे. खूब पैसा चीर रहे हैं. ऊपरी आमदनी की धाक, निराली होती है. और यह तीसरी बहन...इसकी जड़ें न तो मैके में हैं और ना पति के घर में. मैके के लिए, बिटिया पराई अमानत और ससुरालियों के लिए, दूसरे घर की लड़की! माँ जी को उसके कष्टों से, दूर का भी वास्ता नहीं. उनकी काकदृष्टि, बस मैके से मिले, उपहारों पर होती है. सोचते हुए, उसकी आँखें नम हो आयीं. सारी पंगतें जीम चुकीं. यहाँ तक कि भाभी ने भी, नन्हें को खिलाते हुए, पेट- पूजा कर ली. अम्मा अपने कमरे में, आराम कर रही थीं. उनका खाना, वहीं पहुंचा दिया गया...लेकिन उसका किसी को होश नहीं! वह थक- हारकर, अलग जा बैठी. इतने में उसने, अपने कंधे पर, किसी का हाथ महसूस किया.
“शेफाली!” अपनी पुरानी सखी को सम्मुख पाकर, वह चौंक उठी. “चल उठ!” प्यार भरा उलाहना मिला, “आंतें कुलबुला रही हैं. एक दाना भी, गले के नीचे नहीं उतरा...तेरे बिना, मैं कैसे खा सकती हूँ?!” शेफाली उसकी पुरानी सहेली और सहशिक्षिका थी. उसे ढूंढते हुए, घर के इस एकांत कोने तक चली आयी. वह खुद को ठेलकर, किसी भांति उठी. अपनी बेचारगी उसने, नकली मुस्कान से ढांपने की कोशिश जरूर की; पर ना जाने कैसे, शेफाली ने उसकी मनोदशा को पढ़ लिया. थालियों में भोजन परोसकर, खाना शुरू ही किया था कि बिंदिया प्रकट हुई. झूठी आत्मीयता जताते हुए, पूछने लगी, “ कुछ चाहिए तो बताना”. लालिमा का मन कसैला हो आया. थोड़ी और देर तक, वह यहाँ नहीं आती तो डोंगों में बचा खाना, चाकरों में बाँट दिया जाता. उसके खाने न खाने से, किसी को फर्क नहीं पड़ता.
शेफाली ने फुसफुसाकर उससे कुछ कहना चाहा, परन्तु बिंदिया को वहीं खड़ी देखकर, चुप लगा गयी. लालिमा जब उसे बाहर छोड़ने आयी तो उसने चुपके से कहा, “स्कूल में पी. ऍफ़. का पैसा आ गया है. प्रिंसिपल सर ने तुम्हें बुलाया है. भाभी सुन लेतीं...इसी से यहाँ बता रही हूँ.” लाली के लिए, यह सुखद आश्चर्य था. उसने स्कूल की स्थायी नौकरी से इस्तीफा अवश्य दिया था; लेकिन स्वप्न में भी यह नहीं सोचा था कि तीन वर्ष की अल्प- सेवा के लिए, विद्यालय से भविष्य- निधि का पैसा मिलेगा. शेफाली के संग घूमने का बहाना कर, वह उधर से निकल ली. पी. ऍफ़. की रकम, पैंतालीस से पचास हजार के बीच थी. उसे हाथ में लेकर, महसूस हुआ- मानों वजूद पर कसी बेड़ियाँ, ढीली पड़ गयीं! उसका अस्तित्व, चक्की के दो पाटों में पिस रहा था. एक पाट में, माँ जी का गुस्सा और दूजे में- भैया और भाभी के तेवर! दोनों तरफ से, दुत्कार मिलने का दुःख....असहायता की यंत्रणा!!
मायके से अब तक, पचास हजार मिल चुके थे, जो चुपचाप उसने, बैंक में जमा कर दिए. भाभी ने बीस हजार दिए थे और अम्मा ने तीस हजार. विद्यालय से मिले रुपयों को जोड़कर, यह राशि करीब एक लाख हो जायेगी. वह दो ढंग के लैपटॉप खरीदेगी और कम्पूटर- प्रशिक्षण का काम, शुरू कर देगी. बंधक बने जीवन को, मुक्त कराने का, फिलहाल यही एक तरीका था. उमगते विचारों पर, लगाम कसते हुए, वह घर में दाखिल हुई. बटुआ उसने आंचल में छुपा लिया. हलवाई के आदमी, एक- एक कर जा रहे थे; सो दरवाजा खुला मिल गया. आंगन पार कर, वह बरामदे तक पहुंची तो भाभी, जीजियों और अम्मा की मिली- जुली आवाजें सुनायी दीं. भाभी का कमरा अंदर से बंद था. वे कह रही थीं, “लाली के घरवाले लोभी हैं, यह तो पता चल गया; लेकिन वह खुद, ऐसा रंग दिखायेगी...ये नहीं मालूम था”
“क्या हुआ भाभी?” यह रम्मो जीजी थीं. “होगा क्या?! बार- बार चली आती है. भर- भरकर, पैसा देते हैं पर उसका कोई यश, हमें नहीं मिलता.” “क्यों, क्या हुआ?” “उसकी माँ जी से बात हुई थी. कह रही थीं, ‘लाली तुम्हार ननदी अही...ओहिका कछु ध्यान करो. तुम पंचे, ओके हाथ मां, एक्को पइसा नांहि रक्खत हो” “यह तो बहुत गलत है”, बिट्टो जीजी कब चूकने वाली थीं. “हाँ...अपने ही पीहर की बदनामी करवाती है...यह तो ठीक नहीं!” रम्मो जिज्जी ने, अपना सयानापन जाहिर किया. उन सबके विचार सुनकर, लालिमा का दिल डूबने लगा. “आपकी क्या राय है अम्मा...छुटकी की सास के लिए, जो चांदी के गणपति लिए हैं, वह उसे सौंप दें?” भाभी का वार, सटीक और सधा हुआ था. तीर सीधा निशाने पर जा लगा. “का बताई बहुरिया...जे आपन घर की बिटिया ही, नाक कटवाए त लोग का कहिहैं?! कछू दिहैं की जरूरत नहीं...सगुन का रुपैया, दिहिन रहीं- उहै बहुत हय...सासू खातिर, रंजन के हाथे, गिफिट(गिफ्ट) भिजवाय दियो”
अम्मा के शब्द, कलेजे को चीर गये थे! वे लाली के कानों में, पिघले सीसे की तरह, जा पड़े. एक अम्मा ही तो उसे समझती थीं...अब वे भी उसकी विवशता का, गलत अर्थ लगाने लगीं! वे मजबूरी में ऐसा कह रही थीं...या फिर!! लालिमा उलटे पैरों बाहर आ गयी. बाजार के लिए रिक्शा पकड़ा और तुरंत वहां से रवाना हो गयी. लौटते समय उसके पास २१०००/- का सोने का लॉकेट था, जिस पर दुर्गा देवी की तस्वीर खुदी थी; यह उसने भतीजे के लिए खरीदा था. ४०००/- से ऊपर की साड़ी, सास के लिए ली. बचे लगभग ५०००/- ...वह माँ जी को ही थमा देगी, ऐसा संकल्प लिया. इस प्रकार, भविष्य- निधि के सारे रूपये चुक गये; लेकिन उसे मलाल ना था. दिल में जूनून सा उठा कि आज वह, रिश्तों की बही, दुरुस्त कर देगी... भाभी के २००००/- का हिसाब ...माँ जी की शिकायतों का हिसाब! खरीदी के बिल भी, उसने संभालकर रख लिए थे; देने वालों को, कीमत का पता तो चले!
कुछ ही समय के बाद, वह भाभी के सामने खड़ी थी. लॉकेट उन्हें थमाते हुए, उसने कहा, “नन्हें के लिए, कुछ ला नहीं पाई थी; इसलिए सोचा... बाजार से ले लाऊँ.” “अरे इसकी क्या जरूरत थी?” बिंदिया ने बनावटी नाराजगी से कहा, “ मुझे भी तुम्हारे लिए कपड़े, खरीदने थे...लेकिन समय ही नहीं मिला”. “कोई बात नहीं भाभी”, उसने होंठ भींचकर कहा, “आप पहले ही, बहुत कुछ दे चुकी हैं.” सोने के महंगे लॉकेट को देखकर, रम्मो और बिट्टो भी हैरान थीं. अम्मा भी वहीं थीं. उनके मुख पर, पछतावा साफ़ झलक रहा था. वे बोले बिना रह न सकीं, “अरी छुटकी... इत्ता पइसा काहे खरच किया? ई तरह रुपैया फूंका- तापा जाई... त गुजारा कइस होई?!” उन्होंने अपने बटुए से, कुछ रकम निकालकर, लाली को देना चाही; लेकिन लालिमा ने उनका हाथ पकड़कर, उन्हें रोक दिया और कठोरता से कहा, “अम्मा... बिटिया मायके आती है, दो मीठे बोलों की तलाश में. मइके वालों को नोंचना- खसोटना, उसका मकसद नहीं होता” कहते हुए, वह बरामदे की तरफ निकल आई ताकि नम हुई आँखें, कोई देख ना ले. कंप्यूटर- क्लास खोलने का अधूरा सपना, उसके अंतस में, अभी भी छटपटा रहा था!!