छात्रावास में, पुनः, एक ‘महत्वाकांक्षी’ योजना, बनी थी. हर बार की तरह, इस बार भी, योजना की सूत्रधार थी- दीपाली. शहर के सुदूर, जागीर-मेला- स्थल पर, प्रदर्शनी लगी थी. मेले में जाना चाहिए या नहीं- यह निर्धारित करने के लिए, सभा जुड़ी. देखते- देखते, बातचीत का स्तर, कुछ और ही, हो गया। नमिता, दार्शनिक अंदाज़ में, कह उठी, “ मेले, हमारी संस्कृति का, हिस्सा हैं …हमारी परम्परा की, पहचान हैं ” इतना सुनते ही, सब हँस पड़ी थीं.
अवकाश वाले दिन; वैचारिक- जुगाली होना, स्वाभाविक ही था. नमिता ने, मास्टरनी वाले अंदाज़ में, मेले को परिभाषित किया था...संग- संग, विचारों की अनूठी कड़ियाँ, जुड़ती चली गईं-
“...घरेलू कन्याओं और गृहणियों के लिए, झूले में बैठने...सिंगार- पिटारे और नये परिधानों का जुगाड़ है...”
“... चाट पकौड़े सा, तीखा चटखारा है!”
“...हास- परिहास के बीच, खिले हुए चेहरों का, निखार है...”
“...कुंठित अस्तित्व को, प्रखर बनाने का, साधन है...!”
“...एकरस जीवन में, दबे पाँव दाखिल होने वाला, सरस बदलाव है!”
जान पड़ा, मानों, हर कन्या… लच्छेदार तरीके से, अपनी धारणा, परोस देना, चाहती हो! इस अनोखी जुमलेबाजी ने, सबको गुदगुदा दिया था; किन्तु मेले को परिहास का विषय, बना देना- गीता को, तनिक न भाया! मेला, उसके लिए, एक अधूरा स्वप्न था...एक अपूर्ण अभिलाषा...! उसे याद आने लगा, कैसे उसकी हमउम्र सहेलियाँ, मेले से; छोटी- छोटी काँच की चूड़ियाँ, बिंदी के पत्ते, गुड़ की जलेबियाँ इत्यादि ले आती थीं और वह, मन मसोस कर, रह जाती. सखियाँ, उधर के, खेल- तमाशों का, ऐसा सजीव वर्णन करतीं कि गीता भी, वहाँ जाने को, मचल उठती!
जब- जब, आसपास, ‘मेले का खेला’ हुआ...उसने अम्मा की, लाख मिन्नतें करीं; पर उनका दिल…कभी ना पसीजा! तब वह किसी, वधिक के भाँति, कठोर हो जातीं.
गीता निवेदन करती, “अम्मा! हमहूँ मेला घूमन जाब...हुवाँ टिकुली, कंगन, चुनरी… मिलत रहीं; हमका चाट- पकौड़ा...गुलाब- लच्छी, नीक लागत हंय...”
अम्मा कहतीं- “... ‘दमड़ी की रुई मँगवाई...टका दिया, उसकी धुनवाई।‘ एतवार कय, हाट मा, जऊन तोहका चाही, मिल जाई. मेला- ठेला, फालतू होत हय. हुवाँ न जाँय देब.” उसके पैर- पटकने, रोने- चिल्लाने का उन पर, कोई असर न होता. वह तब, समझ न पाई, खुद को लेकर, माँ की असुरक्षा की भावना को. तमाशा देखने की, उसकी जिद, कभी पूरी नहीं हुई हो - ऐसा भी नहीं था!
अधिक सोचने से, मानसिक- शिथिलता आ गयी तो गीता अपने कमरे में जाकर, पसर रही. उसने आँखें बंद कर लीं और अतीत की यात्रा करने लगी. 7-8 साल की रही होगी; कानपुर में, दशहरे का मेला, देखने गयी थी...लोकजीवन के वैभव से, जुड़ने का- उसका पहला और अंतिम अनुभव...! वहाँ उसने, छोटे- छोटे मिट्टी और लकड़ी के बर्तन, चूल्हा- चकला, बेलन, भगोना व करछुल खरीदे. गोलगप्पे खाये. चमकीला लाल रिबन और एक नन्ही सी गुड़िया भी ली.
तभी मेला- मैदान में, रामलला की, सवारी निकलने लगी. पिताजी उसे गोद में लेकर, उधर ही दौड़ गए. उनके चौड़े कंधों पर बैठकर, उसने वह भव्य झांकी देखी. कितनी सुंदर, राम- जानकी की जोड़ी...चरणों में, हनुमान जी विराजमान...संग लक्ष्मण जी, धनुष- बाण, लेकर खड़े...दशानन अपनी मूँछों पर ताव देता; विविध भुजाओं में, तरह- तरह के आयुध!
सब कुछ कितना अद्भुत लग रहा था! कैकेई और मंथरा की, दुरभि- संधि भी, सांकेतिक रूप में, दर्शाई गयी थी. नारद जी अपनी वीणा के साथ, अवध- दरबार की, शोभा बढ़ाते हुए...उनकी शिखा, ऊर्ध्ववत खड़ी...कुटिया के पास, लव- कुश, माता सीता के साथ...!
शोभायात्रा गुजरने के बाद, पिताजी ने उसे, नीचे उतारा. हाथ कसकर पकड़ लिया और धीरे- धीरे, स्टेज की तरफ बढ़ने लगे. थोड़ी ही देर में, रामलीला का मंचन होना था. इतने में भीड़ का एक रेला आया और उनका हाथ, छूट गया. वह उस रेले के साथ- साथ, कहीं आगे निकल गयी. उसे पुकारने वाला, पिताजी का स्वर, मन्द पड़ने लगा.
किसी तरह, भीड़ में, जगह बनाकर वे, स्टेज तक गए. मेला- संयोजक से संपर्क किया. वहाँ से माइक पर, बेटी के गुम हो जाने की, सूचना दी. उसका हुलिया, उसकी आयु, सब बतलाया...किन्तु जब तक वे, यह सब कर पाये, बिटिया, पंडाल से, बहुत दूर जा चुकी थी!
... गीता, नींद की खुमारी में, डूबती जा रही थी. छात्रावास की सखियों के, प्रगतिशील जुमले; अवचेतन से टकरा- टकराकर, अर्धचेतना में गूंज रहे थे। वार्डेन प्रमिला दी, उनको दूरस्थ स्थानों पर, जाने से रोकती थीं परंतु वे सब, दीपाली के कहे में आ जातीं...और...स्त्री स्वतन्त्रता व स्त्री सशक्तीकरण के नाम पर, नये ‘कारनामे’, करना चाहती थीं। प्रमिला दी की, ‘थोपी हुई’, पाबन्दियाँ, उन सबको अखरने लगी थीं.
तंद्रा पर, कुठाराघात करता हुआ, गीता का, स्मार्टफोन बजा. अम्मा की वीडियो- कॉल थी. वह आँख मलते हुए, उठी. “सो रही थीं क्या?” अम्मा छूटते ही बोलीं.
“हाँ...जरा आँख लग गयी थी.” उसने सामान्य होने का, प्रयत्न करते हुए कहा.
“अपना ध्यान रखा करो...थक जाती हो...कोई जरूरत हो, तो प्रमिला दीदी या गिरधारी काका से, कह सकती हो।”
अम्मा की नसीहत...उनके दोनों, ‘शुभचिंतकों’ की चर्चा, गीता को खल गयी। प्रमिला दी, जरूरत से ज्यादा, सतर्क रहती हैं। जूडो- कराटे, सीखने पर, ज़ोर मारती हैं। उनका कहना है कि स्त्री का, व्यक्तिगत उन्नति के लिए, प्रयास करना...अपनी अभिरुचियों को, वरीयता देना, अच्छी बात है; परंतु वह कोमलांगी है… उससे कई, सामाजिक अपेक्षाएँ, जुड़ी हैं – अतएव, जो कुछ करना है...अपनी सीमाओं में, रहकर, करना चाहिए- निजी सुरक्षा को, ध्यान में, रखते हुए। वे उसकी, दूर की रिश्तेदार हैं और चौकीदार गिरधारी काका तो, उनके गाँव के हैं; गीता बेटी की, सहायता के लिए, सदैव तत्पर!
दीपाली तो उसको, वार्डेन की चमची कहती है. जब वह, सिक्यूरिटी में तैनात, गिरधारी काका से बात करती है; दीपाली, उसका उपहास करते हुए, बोल पड़ती है, “बैकवर्ड की दोस्ती तो बैकवर्ड से ही हो सकती है.” उसके कारण, वह जानकर, काका से, आँखें चुराने लगी है. ईवा कहती है- “दीपाली की बातों को, जी से मत लगाया करो...बड़े घर की, बिगड़ी संतान है. अपने रुतबे का, बहुत गुमान है, उसे...पर भीतर ही भीतर, तुमसे जलती है. ना ही पढ़ने में, तुम्हारी बराबरी कर सकती है और ना व्यवहार में”
ईवा के शब्द, गीता के दिल पर, मरहम का काम, करते हैं. छात्रावास से कुछ दूरी पर, पेइंग- गेस्ट बनकर रह रही, दीपाली, स्वछन्द और स्वेच्छाचारिणी ठहरी; और वह...! औरैया जिले के, बिरहुनी गाँव में, बारहवीं कक्षा तक पढ़ी...साधारण सी लड़की. उसका नाम, दीपाली को, पुराने ‘फैशन’ का लगता है; गाँव के उसके कॉलेज का नाम- जनता इंटर कॉलेज, निम्नस्तरीय छात्रों की, हैसियत से; मेल खाता हुआ, जान पड़ता है. उसके मन में, दीपाली को लेकर, अनोखी सी दुविधा है. एक तरफ तो वह उसे, नापसंद करती है ; और दूसरी तरफ...उसकी ही नजरों में, चढ़ जाना चाहती है!
दीपाली के तंज, उसे शहर की, चकाचौंध संग; जुड़ने के लिए, उकसाते हैं. ऐसी चकाचौंध... जिसमें, आँखें चुन्धियाने लगें. उसे डर है; यहाँ के माहौल से, समायोजन करते-करते, वह खुद को ही, न खो बैठे! यूँ तो उसके घर में भी, कोई कमी नहीं. अच्छी- खासी खेती है. गाय- भैसों का तबेला है. फसलें सोना उगलती हैं और दूध बेचने से, बढ़िया आमदनी होती है. दुःख इस बात का है कि जैसे उसके यहाँ, मवेशियों के कान पर, इलेक्ट्रॉनिक- टैग लगा है...उसी भाँति, उसके वजूद पर; पिछड़ेपन की, अदृश्य चिप्पी जड़ दी गयी है.
यही मानसिक दबाव, रहा हो, शायद. तभी तो जब, अम्मा ने घुमा- फिराकर, उसके ‘वीकेंड- प्लान’ के बारे में पूछा था; उसने, मेले का, हल्का सा, जिक्र भी ना किया!
इसके पीछे, उसका बचपन था और बचपन की वह घटना...! मेले में, उसके गायब होने की, नौबत आ गयी थी. यह तो कहो; किसिम- किसिम के मानुस- मनई के बीच...अपरिचित से जनसैलाब में, ना जाने कैसे...पड़ोसी गाँव के, मुरारी काका की नजर, उस पर पड़ गई.
“अरे बिट्टी...!” कहते हुए, उन्होंने उसे, अपनी तरफ खींच लिया. एक तगड़ी सी औरत, जो अपने दबंग हाथों में, उसे चूज़े की तरह दबाकर, चल रही थी, फनफना उठी, “किधर लिए जात हो? या हमार नतिनी हय!”
“पगलाय गइन हउ...?! जान ना पहिचान...बड़े मियाँ ते सलाम! हमरी बिट्टी, कउनो ढोर- मबेसी नहिन, जेका कोऊ, आपन दुआरे, बाँधि लेई.” काका ने भी तमककर, जवाब दिया. बहसबाजी होने लगी थी. तमाशा देखने को, वहाँ लोग, जमा होने लगे. “थाने चलिहौ? उहँहिं फइसला, हुई जइहै.” काका लगातार अड़े हुए थे. इतने में, एक लेडी कांस्टेबल, उस ओर, आती दिखाई पड़ी. यह देखकर, वह बहुरूपिया स्त्री, दबे पाँव, उधर से, खिसक ली.
बाद में किसी ने बताया कि वह महिला, बच्चियों को, बहला- फुसलाकर, अपने साथ ले जाती और ‘ऐसी- वैसी’ जगह बेच देती थी.
वह दिन और आज का दिन... उसे कभी, मेले में जाने की, अनुमति नहीं मिली! किन्तु अब वह अपनी, अदम्य लालसा, पूरी करना चाहती है. अंतर्जाल पर, कितने लुभावने दृश्य, दिखाई देते हैं...नई तकनीक ने, ऐसे आयोजनों में, चार चाँद लगा दिये हैं. मशीनी, दैत्याकार झूले… चमचमाती रौशनी के कोलाज...इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले वाली, वृहद स्क्रीन...!
“कहाँ खोई हुई हो...? मेले के बारे में, क्या तय हुआ?” ईवा ने उसके चिंतन को, भंग करते हुए, पूछा. वह पहले तो चौंकी; फिर धीरे- धीरे संयत हुई. उसने ईवा को बताया, “दीपाली का पूरा ग्रुप, जा रहा है और हमारे ग्रुप से, तीन लोग- मैं, मिन्नी और तन्वी”
ईवा ने समझाया, “मिन्नी और तन्वी, बहुत लापरवाह और गैर जिम्मेदार हैं. उनके संग, कहीं भी घूमने का, प्रोग्राम मत बनाओ...कल मामाजी आ रहे हैं; मुझे ले जाने के लिए. तुम्हें बताया था ना- वे अपने यहाँ, कथा करवा रहे हैं. दोचार दिन, उधर, रहकर ही आऊँगी; वहाँ जाना न होता; तो मैं भी, तुम्हारे साथ चलती...”
गीता को यह बात, हजम नहीं हुई. वह प्रतिकार करते हुए बोली, “इस बार, दीपाली को, दिखा देना चाहती हूँ कि उसके बिना भी मैं, घूम- फिर सकती हूँ...वह हमारी मेंटर नहीं; फिर काहे को, रौब झाड़ती है? बात- बात में दादागिरी दिखाती है.”
“अरे बाबा, उसने ऑटोवाले का नम्बर ले रखा है. जब कॉल करती है, आ जाता है. भरोसे का आदमी है... एक टैक्सी वाला भी, उसकी जान- पहचान का है. धीरे- धीरे, तुम्हारे सम्पर्क भी, बन जायेंगे; तब तक धीरज रखो.”
“मुझे इससे कोई मतलब नहीं...एग्जीबिशन में जाना है तो जाना ही है!” गीता, कुछ तुनककर बोली. उसे समझाते हुए, ईवा के स्वर में भी, कटुता आ गयी थी, “ अमीनाबाद में हम रहते हैं. इससे अच्छी शॉपिंग की जगह, हो सकती है? बहुत मन करे- ‘गंज’ (हजरतगंज) हो आओ...पास में, ‘सिटी प्लाज़ा मॉल’ भी है... नुमाइश जैसा ही तो है! उतनी दूर, चिनहट जाने में, अच्छी- खासी कुगत हो जायेगी.”
इस बार, जवाब में, गीता ने, कुछ नहीं कहा; बस मुँह फुला लिया.
ईवा जान गयी कि कहने- सुनने से, कोई लाभ न होगा!
आखिर ‘वह घड़ी’ आ ही गयी! गीता योजनानुसार, दोपहर का, भोजन करने के बाद, झट तैयार हो गयी थी. मोबाइल, पूरी तरह से, चार्ज कर रखा था. पैसे और क्रेडिट- कार्ड, संभालकर, बैग में रख लिए. अपना पहचान- पत्र भी ले लिया. मिन्नी ने, जनपथ पर, मिलने को कहा था. वह नये फैशन का, धूप का चश्मा लगाकर; शान से, रिक्शे पर बैठी, भीतर से, रोमांचित होती जाती थी. सहेलियों के बिना, आत्मनिर्भर होकर, कहीं जाने का; यह पहला अनुभव था!
परंतु मिन्नी तो जनपथ में, कहीं थी ही नहीं...! उसे महानगर से आना था. फोन करने पर पता चला कि वह तो निकल ही नहीं पाई; घर में मेहमान आ गए थे. इसके पहले कि गीता, उस पर झल्लाती, वह क्षमा मांगते हुए बोली, “तू चल...मैं पीछे- पीछे आती हूँ. ऐसा करना, गोमती नगर का, ऑटो पकड़ लेना; रामभवन के चौराहे पर उतर जाना; वहाँ तन्वी तुझे जॉइन कर लेगी... उसका फ्लैट भी वहीं पर है.”
यह सुनकर, उसके दिल के, किसी कोने से आवाज़ आई, “अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है...हज़रतगंज में ही ‘टहल मारकर’ लौट जा..इन सिरफिरी लड़कियों के, चक्कर में, अपना दिन खराब मत कर! ”
किन्तु वह, अपने ‘बागी कदमों’ को, वापस लौटा नहीं पा रही थी. एक तरफ, मेले की रंगीनियों को, आँख भर देखने का मौका तो दूसरी तरफ, तमाम बे- माँगी बन्दिशें...! और फिर उस वादे का क्या... जो उसने खुद से, किया था- यह कि अपने दम पर, मेला जरूर देखेगी?? वर्जनायें सदैव… कुछ अलग हटकर, करने के लिए, उकसाती हैं. गोमती नगर जाने वाले, ऑटोरिक्शा में बैठ तो गयी पर अंदर, धुकधुकी मची हुई थी. गीता यह सोचकर, अपनी पीठ थपथपा रही थी कि वह आज दीपाली से भी, एक कदम आगे, निकल गयी थी. अब कौन उसे, घोंचू कह पाएगा? वह दीपाली से कम चतुर ... कम स्मार्ट नहीं! उसे रहरहकर, अपनी बालसखी, लाजो याद आ रही थी; जो मायके के, हर शुभ- अवसर पर , झमक- झमककर, नाचती थी,
“दुनिया का मेला,
मेले में लड़की...
लड़की अकेली,
शन्नो नाम उसका”
वह नाच देखकर, सब खूब तालियाँ बजाते; लेकिन गीता जानती थी कि भीतर ही भीतर, लाजो को कोई दुख खाये जा रहा था... कदाचित, कम उम्र में ब्याह दी गयी, वह अर्धशिक्षित लड़की; ससुराल की नयी दुनिया में...उस दुनिया के मेले में, अकेली और कमजोर पड़ गयी हो! उसे तसल्ली हुई कि लाजो की जगह, वह नहीं थी!!
सोच से उबरते ही, उसने ऑटोवाले भैया से पूछा, “रामभवन कब आएगा?”
“वह तो कबका निकल गया बहन... अब हम सीधे, चिनहट जा रहे हैं”
गीता मानों, आसमान से गिरी! उसने फौरन, तन्वी से, संपर्क साधा. तन्वी बोली, “चिंता की कोई बात नहीं है... एक तरह से, अच्छा ही हुआ. तुम सीधे, प्रदर्शिनी तक, पहुँची जा रही हो... मैं तो अभी, ऑटो- स्टैंड तक भी नहीं पहुँची...चलो मिलते हैं, उधर ही...!”
ऑटोरिक्शा ठीक, जागीर मेला- स्थल पर; ताने गए, खूबसूरत पंडाल के सामने, जा रुका. पहियों की घुरघुराहट, धीमी पड़ते ही, वह उतर ली. रिक्शे का किराया चुकाया और पंडाल में, घुस गयी. भीतर का दृश्य, अत्यंत लुभावना था. चीनी मिट्टी के बर्तन और सजावटी सामान, उसे बालपन में, खींच ले गए. बिजलीवाले झूले ने, ऐसे झटके दिये कि उसकी चीख ही निकल जाती! इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ, दिलचस्प थीं. उसने एक, इलैक्ट्रिक केतली, लेने का मन बनाया... इसके लिए, अन्य कई स्टॉल, देखने थे. वह आगे बढ़ती जा रही थी. नकली जेवर, बहुत आकर्षित करने वाले थे.
उसने एक हार और कुछ चूड़ियाँ खरीदीं. उधर और भी बहुत कुछ था जो देखना था... देखने से, जी अघा नहीं रहा था! फर्नीचर, खाने- पीने के आइटम, मेकअप- किट, रसोईं और बागवानी के उपकरण...कपड़े, पर्स, जूते, चप्पलें, खिलौने...खाद, अचार, गमले, चादर... और कितनी ही दैनिक उपयोग की चीजें...! चहल- पहल, भली लग रही थी. हल्की भूख लगी तो पॉपकॉर्न व आइसक्रीम पर, हाथ साफ किया...
... इतना मजा आ रहा था कि तन्वी और मिन्नी की, सुध ही न हुई. जब वह, गुब्बारों पर, निशाना लगा रही थी तो उसे लगा कि समय बहुत हो गया था. अपनी नामुराद सखियों को, कॉल किया तो खबर हुई कि पॉलीटैक्निक के पास, जाम लग गया; जिस कारण, उन दोनों का आना, संभव नहीं होगा... यही नहीं, जाम के, जल्दी हटने की, संभावना भी नहीं थी... दो राजनैतिक दलों के जुलूस, आपस में भिड़ गए थे!
“अब क्या होगा ... वापस कैसे जाऊँगी?!” तड़ित के समान, यह विचार, गीता के, मन में कौंध गया. उसने पाया कि कुछ मनचले, उसे ही घूर रहे थे! वह डरकर, नकली जेवर के, स्टॉल के समीप, चली आई. वहाँ बैठी आंटी से, निवेदन किया कि उसका सर, घूम रहा था... थोड़ी देर, उसको, अपने पास रखे स्टूल में, बैठने दें. आंटी को उस पर दया आ गयी और वे फौरन मान गईं. इस बीच उसने दोबारा, मिन्नी और तन्वी से बात करनी चाही... परंतु कोई लाभ नहीं! दोनों जल्दी फोन नहीं उठा रही थीं और यदि उठा भी रही थीं... तो कुछ न सुनाई पड़ने का, बहाना जड़ देतीं थीं...
उसको ऐसी उलझन में फंसाकर, अपना पल्ला, झाड़ लेना चाहती होंगी... वे प्रयत्न करतीं तो अपने संपर्कों के माध्यम से, गीता की, कुछ सहायता तो कर ही सकती थीं; लेकिन ऐसा करने पर, बात खुल जाती और उन्हें, अपने अभिभावकों की डांट खानी पड़ती... शायद इसीलिए...!!
गीता को, ईवा की चेतावनी याद आई. उसने बताया ही था कि यह दोनों ‘होपेलेस’ हैं! बारी- बारी से, प्रमिला दी और अम्मा की नसीहतें भी, ध्यान में आयीं...सच ही तो है, स्त्री कितनी भी ताकतवर हो; आखिर है तो स्त्री ही! आंटी अपना पिटारा, समेटने में लगी थीं... प्रदर्शनी समापन पर थी. गीता को लगा, समय के साथ , मोबाइल की, बैटरी भी ड्रेन हो रही थी... साथ में, उसकी उम्मीद, उसका हौसला भी!
कानों में, वही पुरातन गीत, गूंज उठा-
“दुनिया का मेला
मेले में लड़की
लड़की अकेली
शन्नो नाम उसका”
गीता को शिद्दत से, लगने लगा कि मेले में खो गयी... अकेली पड़ गयी, ‘तथाकथित’ लड़की, वह ही है! इस बीच, आंटी ने, उसके मनोभावों को, पढ़ लिया था और उससे पूरा माजरा, जानना चाहा. गीता ने आँसुओं ही आँसुओं में, पूरी बात का, खुलासा कर दिया.
आंटी ने तत्क्षण, वार्डेन दीदी, प्रमिला वर्मा को, फोन किया. वहाँ तैनात, एक महिला- सुरक्षाकर्मी से भी, फोन पर, संपर्क किया... भाग्य से, गिरधारी काका, सप्ताहांत में, अपने एक रिश्तेदार से मिलने, चिनहट आए हुए थे और फिलहाल, वहीं ठहरे थे. वार्डेन के निर्देश पर, वह अविलंब, उधर पहुँच गए. उन्हें देखते ही, गीता की, आँखें नम हो गईं... दीपाली से होड़ लेने के फेर में, यदि वह किसी, ‘दुष्चक्र’ में फंस जाती तो...!
काका उसे हाथ पकड़कर, अपने संग लिए जा रहे थे. पल भर में, गिरधारी काका… मानों बचपन वाले, मुरारी काका, बन गए थे. छात्रावास में, होने वाली, स्त्री- विमर्श और स्त्री- स्वतन्त्रता की गूढ बातें, पीछे छूटती जा रही थीं... बहुत पीछे...!!