लॉकडाउन के दौर में, वह चिरपरिचित चेहरा, मानों कहीं खो सा गया है...उस मधुर कंठ से निःसृत, अनाम, अस्फुट से गीत...जीवन के तमाम राग, बौने वजूद के, किसी बंद तहखाने में, दबे पड़े थे... नाम भी रागम्मा; वैसी ही संगीतमय हंसी! किन्तु खिन्न होने पर, यदा कदा, उसके सुर बिगड़ जाते और वह आत्मालाप करते हुए, बड़बड़ाने लगती. तब वह किसी अभिशप्त नायिका जैसी लगती और उसे देख, मैं आतंकित हो उठती. जब घर की सफाई करने चलती हूँ, वह किसी भूली स्मृति सी, विचारों पर छा जाती है. आखिर एक परिचारिका के बारे में, इतना क्यों सोचती हूँ?! पतिदेव ने तो उसकी चर्चा करने से भी मना किया था. बोले थे, ‘लोगबाग यहाँ, सर्वेन्ट्स के बारे में, बात करने से बचते हैं. उनसे अगर दिक्कत भी है... तो खुद ही जूझते हैं पर समस्या को सार्वजनिक नहीं करते.’
सुनकर अजीब लगा, पर कुछ- कुछ समझ आ रहा था...यह कि इस प्रदेश में, समाजवाद का बोलबाला है. हाउस- हेल्पर्स के अपने संगठन हैं. स्थानीय स्त्रियों ने तो दबे- छिपे स्वर में, यहाँ तक बताया कि उनसे ऊंची आवाज में बोलना भी गुनाह है. वे हद दर्जे की नकचढ़ी और मुंहफट हैं और अपनेआप को किसी तरह, मालकिनों से कम नहीं आंकतीं. विचित्र स्थिति थी. मालकिन का आदेश न मानने वाली, बात- बात पर जवाब देने वाली सेविका को, कोई कहाँ तक सहन करे! इसी कारण, सामर्थ्य होने पर भी कुछ लोगों ने, अपने घरों में, सेविकाएँ नहीं रख छोड़ी थीं .
बावजूद इसके, इन ‘देवियों’ की पूछ बहुत है. मलयाली प्रदेश की दौड़ती- भागती ज़िन्दगी में, बन्दों को, साँस लेने की फुरसत नहीं मिलती...घरेलू- कार्य में सहायता मिल जाए, तो जीवन की दौड़ आसान हो जाती है. ऐसे में रागम्मा का आगमन, राहत भरा था. वह कामचलाऊ हिंदी, आराम से बोल लेती. आखिर बारहवीं तक हिंदी पढ़ी थी उसने. शुरू- शुरू में वह भी तनी- तनी सी रही, किन्तु बाद में, सामंजस्य बना लिया; कदाचित मेरा संगीत- प्रेम, उसके रागों को भा गया था...इसी से!
उसके राग कहीं न कहीं, यथार्थ से गहरे जुड़े थे. उनमें कहीं न कहीं, ‘नाडनपट्टू’ गीतों की कशिश थी, जो केरल के लोकजीवन से, उपजे गीत थे; जिनमें संघर्ष का करुण भाव तो था, किन्तु आम आदमी के छोटे- छोटे सपनों की रूमानियत भी...अनुभवों की यह थाती, इतिहास बनकर, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रही. कभी ऐसा लगता कि सुषुप्त ज्वालामुखी के भीतर, उमग रही सुगबुगाहट, उन रागों में समा गई हो. वह एक पहेली थी- जिसे हल करने की जुगत, लगा नहीं सकी- लॉकडाउन के चलते!
वाह रे लॉकडाउन! स्थानीय यातायात पहले तो बिलकुल ही बंद था; फिर चालू भी हुआ तो सोशल- डिस्टेंसिंग, बढ़े हुए किराये और नाईट- कर्फ्यू के साथ. ऐसे में... दो दो बसें बदलकर काम पर आना, रागम्मा के लिए... भला कैसे संभव हो पाता?! सुबह- सबेरे, वह अपने घरेलू काम निपटाती; फिर बस पकड़ती. प्रातः दस बजे, वह कॉलोनी में कदम रखती. यहाँ कुछेक फ्लैटों में काम करते हुए, उसे सात से आठ बज जाते... नौ या दस बजे के बाद ही वह, अपने घर पहुँच पाती. नाईट- कर्फ्यू ने यह संभावना, पूरी तरह से, रद्द कर दी थी. सोशल- डिस्टेंसिंग के कारण, बसें पूरी भरे बिना ही चल देतीं,,,उस पर टिकट का दाम!
‘मेरा मास्क कहाँ है?’ मैंने रंधीर को कहते सुना तो अपनी विचार- समाधि से बाहर निकली. उन्हें मास्क पकड़ाते हुए, मन शून्यता से भर गया. न कहीं निकलना न बैठना; उस पर ऑक्टोपस जैसे पंजें फैलाती बीमारी...बढ़ती हुई दहशत! गृहस्थान से मीलों दूर पड़े हुए हम... खाना- पीना, सोना- जागना, साफ़- सफाई और रसोई बनाना... जीवन एक बंधी हुई लीक पर घिसट रहा है. रंधीर जरूर, घर के कामों में हाथ बंटा रहे थे; किन्तु चार दिन की चांदनी, फिर अँधेरी रात! हफ्ते- दस दिन में, वह फिर दफ्तर जाने लगे और काम का बोझ, मुझ अकेली पर! ऐसे में रागम्मा की याद आना स्वाभाविक था. उसके रहने से, दैनिक कार्यों में कुछ राहत तो मिल ही जाती थी. काम करते समय, उसका मंद- मंद गायन, अक्सर सुनाई देता. मेरे पियानो छेड़ने पर, उन रागों के स्वर, सहज ही तीव्र होकर, खिल उठते.
दिन बीतते जा रहे थे...मानों सांसें भी किसी यांत्रिक औपचारिकता से चल रही हों. कैलेंडर पर कोई तारीख खोजना, रोमांचक नहीं लगता. जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ और त्यौहार, सब अनासक्त भाव से सरकते चले जाते थे. इस सबसे ध्यान हटाने को, एक अरसे के बाद, जब ब्लॉगिंग की साईट पर गयी तो अपने ही अधूरे लेख पर, ध्यान अटक गया. ‘केरल: सामाजिक स्थितियां और परिदृश्य’. आप सोच सकते हैं कि यह विचित्र सा विषय, आखिर मैंने क्यों चुना होगा,,,,??
तो सबसे पहले यह बता दूं कि केरल की जनता, बोली और लोक- व्यवहार, तीन वर्षों बाद भी मेरे लिए, अटपटे से थे. यहाँ हम अलग- थलग से पड़ गये थे. रागम्मा ने तो यह तक बताया कि स्थानीय नौकरानियां, ‘हिंदी वालों’ को पसंद नहीं करतीं. कारण- उनके प्रति भेदभावपूर्ण रवैया. मुझे स्मरण हो आया- रोज- रोज मुझे निरामिष भोजन पकाते देखकर, एक दिन वह पूछ बैठी थी, ‘आप ब्राह्मण हो?’ मेरे हामी भरते ही उसके तेवर, कुछ ऐसे तल्ख हो गये कि मैं सहम गयी. पढ़ा- सुना था कि कभी यहाँ, सामाजिक असमानता चरम पर थी और सवर्णों ने दलितों पर इतने अत्याचार किये कि उससे उबरने और समानता का अधिकार पाने में, इन्हें एक युग लग गया.
करीबन डेढ़ सौ साल पहले की वह बातें- यथा अस्पृश्यता, बंधुआ मजदूरी और जातिवाद अब अतीत बन गयी थीं. प्रसिद्ध डाक्यूमेंट्री ‘एट्टींन फीट’ से, उन जुल्मों का पता चलता था. एक अछूत को न तो कुँओं से पानी भरने का अधिकार था, ना ही जनसुविधा के लिए बनी सड़कों पर चलने का; यहाँ तक कि सवर्णों के आस- पास फटकने की भी अनुमति नहीं थी... जाति के अनुसार उन्हें, सवर्णो से, एक निश्चित दूरी बनाकर रखनी होती थी. कुल मिलाकर स्थिति, मनुष्य क्या, पशुओं से भी गई- गुजरी थी!
शायद वही कड़वाहट, रागम्मा के दिल को, अभी भी कचोटती थी. उसके नाज- नखरों ने, एक और बात, मुझे समझा दी. पहले लगता था कि पढ़- लिखकर भी निम्नस्तरीय काम करने की विवशता, इन नौकरानियों में, कुंठा का कारण है; इनके मन में, जातीयता को लेकर भी गांठ है...यह देर से समझ पाई. कॉलोनी में एक भी उच्च- जाति की, घरेलू- सहायिका नहीं थी. सौ प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य और ‘गॉड्स ओन कंट्री’ का तमगा हासिल कर लेने वाला यह प्रदेश- कितना रहस्यमय...कितना विचित्र था! एक बार यूँ ही जिज्ञासावश, केरल पर गूगल- सर्च कर रही थी कि अकस्मात मुरली टी. की एक पेंटिंग, कम्प्यूटर- पटल पर दिखाई पड़ी. देखकर भीतर तक हिल गयी. उसमें एक आक्रोशित स्त्री ने, हंसिये से, अपना वक्ष काट रखा था; दूसरा वक्ष भी हंसिये के निशाने पर था... उसके सीने से लहू की धारा, फूटी पड़ रही थी.
जाने कहाँ से उसी समय, रागम्मा आ टपकी. उसे शायद, डस्टिंग का नया कपड़ा चाहिए था. कम्प्यूटर पर दृष्टि पड़ते ही, वह बेचैन हो उठी, उसकी मुखमुद्रा बदल गई....और फिर बिना कुछ कहे, कमरे से चली गयी. मैं अचम्भित थी. उस दिन उसके राग, सुप्त ही रहे...सदा की तरह वह, गुनगुनाई नहीं. यह और बात थी कि अनजाने ही, मुझे ब्लॉगिंग के लिए, सशक्त विषय मिल गया. नान्गेली नाम की स्त्री भी रागम्मा की तरह ही एहजुवा जाति की थी.
उस कालखंड में, निम्न जाति की स्रियों को, सीना ढंकने का अधिकार नहीं था. ऐसा करने पर उन्हें, राज्य को, अपने वक्ष के आकार के अनुसार, कर चुकाना पड़ता. इस कुप्रथा के विरोध में, नान्गेली ने, अपने वक्ष काट लिए थे. हाल में ही (वर्ष २०१९ में) नान्गेली प्रकरण को, अनुपयुक्त करार देकर, सी. बी. एस. ई. के, नवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से हटा दिया गया. ज़माना बदल गया था. अब तो जातिसूचक शब्द कहने मात्र से, भारी सजा हो सकती थी. किन्तु क्या युगों- युगों के घाव, दिलों में सूख चुके थे?!
राग्म्मा के व्यवहार से लगता था- ‘शायद नहीं...!’ उसका कम्युनिस्ट पति, सार्वजनिक सभाओं में जाता...भाषण सुनता, नारेबाजी में भी हिस्सा लेता. यदा कदा वह भी वहां, भीड़ का हिस्सा बन जाती. ‘मीटिंग में जाना है’ कहकर वह, बेवजह अकड़ने लगती...उसके भीतर, हीनता की ग्रंथि, तब कसक उठती. बेटी की शादी रागम्मा, अपनी बिरादरी में नहीं, बल्कि ईसाई लड़के के संग, करवाना चाहती थी. ईसाईयत की तारीफ़ करते हुए कहती कि उसमें, इंसान- इंसान के बीच, अंतर नहीं है. मुझे संदेह था कि वह धर्म- परिवर्तन की सोच रही थी. उसकी ‘रागमाला’ रहस्यमय होती जा रही थी. जिज्ञासावश मैंने हेमा से पूछा. हेमा कृष्णन, रंधीर की सहकर्मी और मेरी भी परिचित है. वह मेरे साथ, सप्ताहांत में, पियानो क्लास तक जाया करती. उसने ही रागम्मा को, मेरे घर काम पर रखवाया था.
जब हम संगीत- कक्षा के लिए प्रस्थान कर रहे थे, मैंने परोक्ष रूप से रागम्मा की बात छेड़ी. हेमा मानों इसकी प्रतीक्षा ही कर रही थी! छूटते ही बोल पड़ी, ‘पता है पारुल, आज से लगभग १०० साल पहले...आई मीन १९२०- १९३० में, रागम्मा की एक रिश्तेदार, तैलमणि ने, ईसाईयत को अपना लिया था. उसने अपना नाम बदलकर, मैरी कर लिया. उन दिनों कई दलितों ने, मन्दिर में प्रवेश न मिलने से खिन्न होकर, हिन्दू धर्म छोड़ दिया. मैरी रिश्ते में, रागम्मा की दादी लगती थीं. धर्म परिवर्तन के बाद, वह आधुनिक और आकर्षक दिखने लगी.’
‘क्या उसे देखकर ही रागम्मा ने, ईसाई बनने की सोची?’ ‘सही अनुमान है पारुल...हालाँकि उसकी मैरी दादी, बीस साल पहले ही चल बसी; किन्तु वह फिर भी, उसके जादू से मुक्त नहीं हो पाई...सालोंसाल मैरी जैसी बनने का सपना पाला’ ‘तो सपना पूरा क्यों नहीं किया?’ मैं अचम्भित थी. ‘उसके पति और सास को, इस पर आपत्ति थी...उनका कहना था-’जातिभेद किस धार्मिक- समुदाय में नहीं होता??’ सही तो है, येशु मसीह और हजरत मोहम्मद साहब ने उपजातियां नहीं बनाईं...किन्तु उनके अनुयायी, यह दीवारें खड़ी करते गये. और ईसाई बंधु...! समय के साथ, ईसाई समाज में भी जातिवाद पनप गया.’ हेमा ने गहरी दृष्टि से मुझे देखा और निःश्वास लेकर बोली, ‘२०१८ में जब केरल में, बाढ़पीड़ितों के कैंप लगे, ‘संभ्रांत’ क्रिश्चियन अड़ गये कि वे दलितों के साथ नहीं रहेंगे. यही नहीं, इनमें तो ‘ऑनर किलिंग’ भी चलती है’ ‘ओह...!’ मेरे मुख से बस इतना ही निकल पाया.
बात आई गयी हो गयी. रागम्मा भी मैरी की तरह, फ्रॉक और जीन्स पहनकर, रहना चाहती थी; उस परिवार की औरतों की तरह, आत्मविश्वासी बनना चाहती थी...जीने का सलीका सीखना चाहती थी. उसे अपनी खुद की दादी पसंद नहीं थी. वह खुले उरस्थल वाली अर्धनग्न स्त्री...जिसके वारिसों को, यह तक पता नहीं कि वह किसकी औलाद थे. सवर्णों के दबदबे मे... दलित स्त्री की कोख में, किसने अपना बीज रोप दिया...कोई नहीं जानता! वाह री छद्म मातृसत्ता!
यहाँ का निचला तबका, समाजवाद के नारे तो लगाता है किन्तु निचले पायदान पर खड़े होने के कारण, खुद को असहाय पाता है. सुधारकों ने इनकी आर्थिक दशा को बदलने के लिए, एड़ी- चोटी का जोर अवश्य लगाया, किन्तु रागम्मा जैसे कुछ लोग, अब भी जीवन में ऊपर नहीं उठ पाए. सरकारी स्कूलों में सस्ती, स्तरहीन शिक्षा और सुरसा जैसा मुख फाड़े बेरोजगारी! करें भी तो क्या करें... मजदूर- यूनियनें, किसी औद्योगिक इकाई को टिकने ही नहीं देती. रोजगार कैसे मिले?? उस पर हर चीज महंगी! रागम्मा स्वयम बारहवीं पास है. उसकी बेटी ने तो बी. ए. के बाद, बी. एड. भी किया और बेटे ने बी. कॉम. की डिग्री हासिल की; पर नतीजा? वही ढाक के तीन पात!
वह पहले दर्जी की दुकान पर, कपड़े सिलती थी. बेटी नंदू को, शिक्षिका बनाने का लक्ष्य था; किन्तु रिश्वत के पैसे कैसे भरती? आखिर नंदू, मामूली से शोरूम में, सेल्स- गर्ल हो गई. बेटा दुबई में मजदूरी करता है पर दुनियाँ में कहती फिरती है कि उसे वहां अकाउंटेंट की नौकरी मिली है. रागम्मा निम्न- वर्ग की सच्ची प्रतिनिधि है; इसलिए मेरे आर्टिकल में, उसका दखल बढ़ता ही चला जाता है. यूँ लगता है कि घुमा- फिराकर, उसके ही बारे में लिख रही हूँ...कि इसीलिये मेरे लेखन में, यथार्थ झलक रहा है!
उसके राग, जीवन के भोथरे संगीत से, कुछ मधुर स्वर, खोज लेने का यत्न भर हैं. इस समाज में, कोई भी ‘ब्लू कालर जॉब’ नहीं करना चाहता...२०१८ की बाढ़ में, जब भूमि का हरा- भरा अंचल, कचरे से ढंक गया था; स्थानीय लोग, अपनी ही गंदगी की सफाई के लिये, दूसरों की बाट जोहते रहे. जाति- संबंधित पुरानी चोटें मन में लिए; अशिक्षा और कमतरी के दाग मिटाने में लगा निम्न वर्ग; अपनी उसी कुंठा के तहत; छोटा काम नहीं करना चाहता. प्रवासी मजदूरों की संख्या में हुई बढ़त, इसी ओर संकेत करती है. यहाँ का गरीब, दुबई जैसी जगहों पर, निचले स्तर की जीविका अपना लेगा. काम की तलाश में, दूसरे प्रदेशों में जाकर, चप्पलें घिसेगा...परन्तु गृहस्थान पर, ‘ऐसा- वैसा’ कुछ करने से इनकार कर देगा...लेकिन रागम्मा जैसों के नसीब में, छोटे काम करना ही लिखा है. ‘वाइट कालर जॉब’ उनकी किस्मत में कहाँ?!
उसने अपना सिलाई का काम छोड़ दिया था... क्योंकि उसमें सीमित आमदनी थी. अपने घर से बहुत दूर, वह हमारी कॉलोनी में काम करने लगी. उसकी तरह सरोजा भी किसी दूरस्थ स्थान से, काम करने आती है. सरोजा तो अंग्रेजी में एम. ए. है. अंग्रेजी का अखबार वह, तफसील से पढ़ लेती है. यही नहीं, इंग्लिश में अर्जी भी आराम से लिख सकती है. दोनों ही कामवालियां, अपने पड़ोसियों और परिचितों से, सर्वेंट होने का सच छिपाती थीं. घर से निकलते वक्त, कोई मिल जाता तो कह देतीं कि ऑफिस जा रहे हैं. दूर जगह पर काम करने के कारण, कोई यह रहस्य जान भी ना पाता.
सिलाई की दुकान पर, रागम्मा का काम, कहीं अधिक सम्मानीय था; फिर पगार, अपेक्षाकृत कम क्यों थी?? इस जिज्ञासा का समाधान, हेमा ने ही किया. उसके कुछ और राज, हेमा ने मुझे बताये... कुछ अन्य, स्वयम उसने- कुछ कमजोर भावुक क्षणों में! उसे जब फोन करो तो स्क्रीन पर फ़्लैश होता है- प्रॉपर्टी डीलर रागम्मा...यही उसकी छद्म पहचान है. इसी पहचान को जीते हुए, आखिरकार, उसे बेटी के लिए, वर मिल ही गया. वह कहती थी कि होने वाला दामाद, मॉलीवुड (मलयालम फिल्म इंडस्ट्री) में, स्क्रिप्ट- राइटर है...लेकिन वास्तव में, वह बेरोजगार था- ऐसा हेमा ने बताया. झूठ में जीती हुई, इस स्त्री ने, जैसे- तैसे करके, नंदू को ‘निपटाने’ वास्ते, पैसा जुटा ही लिया.
हांलांकि हाउस- मेड का कार्य, प्रतिष्ठा पर आंच जैसा अवश्य था किन्तु ‘सप्लाई एंड डिमांड’ के आधार पर, केरल प्रदेश में, सेविकाओं की मांग बहुत हैं. कामकाजी महिलाओं की संख्या, अधिक होने के कारण, हाउस- हेल्पर्स के पौ बारह हैं...वे मुंहमांगी पगार और उपहार पाती हैं, ऊपर से ठसक भी दिखाती हैं; मानों काम करके, मालकिनों पर एहसान कर रही हों! समाजवाद की बदौलत, शारीरिक श्रम की कीमत यहाँ, देश के किसी भी हिस्से की तुलना में, अधिक है. इतनी पगार तो रंधीर के कार्यालय में, चपरासी जोंनी भी नहीं पाता...सरकारी- सेवा के बावजूद! जोंनी तो सॉफ्टवेयर इंजिनियर है. कितनी मुश्किल से, उसने सरकारी नौकरी पाई है. उम्मीदवारों की लम्बी कतार से, उसे चुना गया.
मलयाली समाज अपनेआप में निराला है. यहाँ साक्षरता का प्रतिशत, देश में सबसे अधिक है, जबकि शिक्षा का अधिकार रागम्मा जैसों को, महज ६० वर्ष पहले ही तो मिला था. सामाजिक- राजनैतिक समीकरणों में, अभी भी सवर्णों का हस्तक्षेप था. प्रदेश के अधिकाँश भूभाग, उनके कब्जे में थे. फिर भी स्थितियां, पहले से कहीं बेहतर थीं...इसी से हेमा ने, समझा- बुझाकर, रागम्मा को धर्मान्तरण करने से रोक लिया. उसे बतलाया कि धीरे- धीरे, उसकी जाति एहजुवा की सामाजिक- हैसियत, पहले से कहीं अच्छी हो गयी थी. वोट- बैंक में उनकी संख्या, हिन्दुओं में सबसे अधिक थी. आर्थिक- मोर्चे में भी उनकी प्रगति हुई थी... और फिर...निकृष्ट परिस्थितियों से ऊपर उठकर, यहाँ तक पहुंचना... शर्मिंदगी का कारण कैसे हो सकता था; उलटे ही यह तो गर्व की बात थी! यह सब जानने के बाद, रागम्मा को जाति को लेकर लज्जा नहीं आती थी; बल्कि अभिमान होता था. यह निःसंदेह, एक सकारात्मक और क्रांतिकारी बदलाव था.
जब कोरोना का तांडव शुरू हुआ तो रागम्मा में दूसरा बदलाव आया. वह जान गई थी कि अब उसे हमारी कॉलोनी में, आना बंद करना होगा. रागम्मा बुझी- बुझी सी रहने लगी. उसके राग पूरी तरह बुझ गये. पहले जब मैं, म्यूजिक सिस्टम या पियानो पर, कोई धुन बजाती तो वह झूम - झूम जाती थी...परन्तु कोरोना ने मानों, उसके रागों का, सम्पूर्ण रस निचोड़ लिया... अस्फुट स्वर में भी उसका गाना, सुनाई नहीं पड़ता था! धीरे- धीरे वह मानों, विलुप्त सी हो गयी. मजबूरी में उसने, अपने घर के पास ही, काम पकड़ लिया था. हेमा से ज्ञात हुआ कि बेटी के ससुरालियों को, उसके ‘छोटा काम’ करने की भनक मिल गयी...वहीं आस- पास जो रहते थे. बेटी नंदू ने तो माँ से नाराज होकर, उसे सम्बन्ध- विच्छेद की, धमकी तक दे डाली.
अनलॉक- १ शुरू होने पर, एक बार मैं; हेमा संग, संगीत के हमारे गुरूजी से, मिलने गई. उन्हें संगीत के क्षेत्र में, कोई बड़ी उपाधि मिली थी; सो हमने भी सामने से, बधाई देने की सोची. गुरूजी का फ्लैट, रागम्मा के घर की तरफ ही पड़ता था. हेमा स्कूटी चला रही थी और मैं उसके पीछे बैठी थी. सहसा रागम्मा की झलक मिली. हमें देख, वह हाथ लहराकर, हमारी ओर लपकी. हेमा ने फौरन स्कूटी रोक दी. उसने पास आकर अभिवादन किया और जल्दी- जल्दी मलयालम में, कुछ कहने लगी. सवारियों की रेलमपेल थी. चलती सड़क पर, विस्तार में, वार्तालाप सम्भव ना था. मैंने पाया, बोलते समय, रागम्मा की आँखों से, चिंगारियां बरस पड़ी! जाते जाते उसने, एक मनमोहक मुस्कान, मुझ पर उछाल दी.
मेरे असमंजस को पढ़कर, हेमा ने झट, उन बातों का, तजुर्मा कर दिया. रागम्मा ने तय कर लिया था कि अब चाहे जो हो...बेटी, दामाद भले ही सम्बन्ध तोड़ लें; वह अपना काम नहीं छोड़ेगी...क्योंकि काम ही उसका माई- बाप है...कर्म ही ईश्वर है. मुझे आश्चर्य हुआ था कि गीता का सार, कितनी सहजता से, उसने अपने जीवन में उतार लिया! जातिगत हीनता से, वह पहले ही उबर चुकी थी...अब तो वर्ग को लेकर, हीनभावना भी त्याग दी. विदा होते हुए, उसकी मुस्कराहट में, एक चुम्बकीय आकर्षण था. मुझे विश्वास हो चला कि उसकी छोटी सी दुनियाँ में, रागों की वापसी, अवश्य हो गयी होगी!!