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चिन्ना वीदू

10 दिसम्बर 2021

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जबसे नमित अपने ननिहाल से आया है, लगातार रोये जा रहा है. वह रह रहकर, अपनी माँ मीनाक्षी को, कोस रहा है. हाल में ही, उसकी इच्छा के विरुद्ध, वह उसे दो- तीन बार, अम्मप्पा(तमिल में नानाजी के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द) के घर, वागमोन ले गई है. बहाना एक ही- कोरोना की वजह से, घर में नौकर नहीं हैं. अम्मप्पा के घर चलेंगे, कुछ दिन आराम हो जाएगा. यह बात सच थी कि नानाजी की कोठी में, नौकरों के लिए खोलियां थीं; वहां सेवा- सत्कार भी अच्छे से होता था; किन्तु नमित को वहां की स्वच्छंद आबोहवा में भी घुटन सी महसूस होती थी. नानाजी की बाहें तो हमेशा स्वागत के लिए खुली रहतीं पर अमम्मा(नानी) की मिचमिची आँखें, उसे लील लेने को आतुर जान पड़ती थीं.

उसके दसवें जन्मदिन पर, अम्मप्पा- भूतपूर्व सांसद वेंकट चन्दर जी, उनके घर आये थे. जहाँ तक उसे याद पड़ता है; पहली बार उनके दर्शन तब हुए थे, जब वह तीसरी कक्षा में था. वह तब ७-८ वर्ष का रहा होगा. माँ से पूछा था, ‘ये बूढ़े बाबा कौन हैं?’ ‘बाबा नहीं रे, अम्मप्पा हैं तेरे...जा उनके पास जा...आशीर्वाद ले ले’ वे एक मंदिर में मिले थे. नमित दुविधा में पड़ गया. पूछ ना पाया कि आखिर अब तक यह कहाँ थे...कितना समय बीत गया...वह इतना बड़ा हो गया; इस बीच उनको, अपने इस नाती की याद, क्यों नहीं आयी?! लेकिन जबान तालू से चिपक गई थी. बड़ी बहन मीनल ने बाद में उसे समझाया कि अम्मप्पा के संग, उनके परिवार के कुछ मतभेद हो गये थे, इसी से बातचीत बंद चल रही थी.

मीनल अक्का की बात से, नमित की जिज्ञासा कम होने के बजाय, और बढ़ गई थी. मतभेद...पर क्यों?? किसलिए?! क्या छोटे बच्चे को, यह जानने का हक भी नहीं? बड़े लोग बहलाने के लिए, कुछ भी, उलटी पट्टी पढ़ा देते हैं. खैर...! अम्मप्पा से दोस्ती के बाद, उसके छोटे से जीवन में, अद्भुत बदलाव आये थे. वागमोन की सुहानी वादियों से, परिचय हुआ; वहां प्रकृति की गोद में रहकर, अनेक दैवीय चमत्कार देखे...छोटे- छोटे सुखों से, उसकी झोली भर गई- देवदार वृक्षों के, असीम विस्तार को, अपने नन्हें कदमों से, नापने का सुख...आसमान छूते उस फैलाव में, सरसराती हवा के स्पंदन को, सांसों में उतार पाने का सुख...चाय बागानों के जादुई लोक में, पसरी हुई हरियाली पर, सुनहरी किरणों का नृत्य...उस सुनहले जादू को, आँखों में बंद कर लेने का सुख!

किन्तु माँ...! माँ तो वागमोन के मायावी संसार से, उसे दूर रखना चाहती थीं. तब उसे यह ठीक ना लगता. यह और बात है कि आज वह खुद... उस राह, नहीं जाना चाहता!! हठात ही, अतीत की धुंध में डूबी, वागमोन की सर्पिल पगडंडियाँ, उसे कहीं खींच ले गईं...जहाँ सुधियों में बसा, पहाड़ी- अंचल था...पक्षियों का मधुर कलरव...सुरम्य झरना...बाग- बगीचों के बीच, अम्मप्पा की भव्य कोठी.

अमम्मा की भेदती दृष्टि को छोड़कर... सभी कुछ तो सुन्दर था! उसके संकोच को देख, नानाजी ने स्पष्ट कर दिया कि समय के साथ, उसकी नानी कुछ पगला गई है. हांलांकि नमित को वह पगली कम, धूर्त ज्य़ादा लगती थीं. उन खुलते- झपते नेत्रों में, एक विचित्र चमक थी, जो उसे भीतर तक सिहरा देती! माँ के प्रतिरोध को, तब वह समझ ना पाया; ना ही उनके बदले हुए रवैये को...जब वे स्वयम उसे, वागमोन ले जाने पर उतारू हो गईं. पर अब धीरे- धीरे, बहुत कुछ स्पष्ट हो रहा है...परिस्थितियों ने उसे समय से पहले, परिपक्व बना दिया है.

मीनल अक्का(दीदी) ने उसको सावधान अवश्य किया था, अमम्मा के बारे में; यह कि उनसे ज्यादा उलझना ठीक नहीं. ना जाने क्यों माँ, उनको अम्मा न कहकर, चिन्नम्मा (छोटी माँ/ मौसी) कहती थी. घर- बाहर, आस- पड़ोस में, उनका यही नाम प्रचलित था...अक्का के हिसाब से, माँ भी इस कारण, उन्हें वैसे ही बुलाने लगीं. नमित को लगता कि उसकी वह तथाकथित नानी, अपने अंदर, कोई बैर पाले हुए हैं. नानाजी मंहगे उपहार देते या उससे लाड़ लड़ाते तो उनकी ‘कपटी’ आँखें, और अधिक पटपटाने लगतीं! तब वह अम्मप्पा के बूते, उस ईर्ष्या- भाव को, एक अदृश्य पटखनी दे देता.

क्या रूतबा था उसका...पर अब! बार- बार हुई बेइज्जती को, वह किसी तरह पचा नहीं पा रहा है. माँ का लाडला, उनकी आँखों का तारा नमित...जिस पर एक ऊँगली उठने पर, वे सिंहनी की भांति, गर्जन -तर्जन करने लगतीं; उसे भीड़ के बीच, जलील होते देखती रहीं. कोई रोष नहीं जताया उन्होंने; बल्कि हाथ पकड़कर, वहां से जबरन...लगभग घसीटते हुए हटा लिया! वह माँ से बुरी तरह रूठा है. उनसे बोलना भी पसंद नहीं करता. उसके झल्लाने, बात- बात पर रिसियाते रहने से, वे दुखित अवश्य हैं; किन्तु उसके अनकहे आरोपों का कोई उत्तर, उनके पास नहीं.

इधर मीनाक्षी से, अपने दिल के टुकड़े, अपने निश्छल बालक की छटपटाहट, देखी नहीं जाती...और उस दिन तो हद ही हो गई! तैश में आकर, उसने खाने की थाली, जमीन पर पटक दी. ‘नमित! ये क्या हरकत है?!’ माँ के घुड़कने पर, वह निशब्द आंसू बहाने लगा. मीनाक्षी मानों सदमे में आ गई. कैसे समझाए अपने भोले बच्चे को...समझाने की प्रक्रिया में उसे, जीवन के उन क्रूर रहस्यों को खोलना होगा; जिन्हें इस नाज़ुक उमर में जानकर... भोले नमित के मन को, गहरी ठेस लग सकती थी! उम्र का यही पड़ाव... और... कुछ ऐसा ही द्रोह उसके भीतर भी उपजा था!!

अप्रिय स्मृतियाँ जीवंत होकर, पुनः कचोटने लगी थीं. विडम्बना की दस्तक, उसने पहली बार तब सुनी; जब अम्मा ने उसे, लन्दन वाली अक्षया बुआ के, हवाले कर दिया. पहले भी कई बार बुआ ने, मीनाक्षी को, गोद लेने का, निवेदन किया था; किन्तु माँ ने वह प्रस्ताव, रुखाई से फेर दिया... फिर क्यों उस बार...?? अपनी इकलौती बच्ची को कैसे, कोई दूसरे की झोली में डाल सकता है?! माना कि बुआ निःसंतान थीं, स्वर्गीय पति, पर्याप्त धन, उनके लिए, छोड़कर मरे थे; क्या केवल इसलिये, अम्मा ने उससे, नजरें फेर लीं??

दुर्भाग्य यहीं पर नहीं थमा. बुआ ने माँ के खिलाफ, उसके कान भरने शुरू कर दिये; यह कि जल्द ही उनकी गोद हरी होने वाली थी, कि इसीलिये... उन्होंने मीनाक्षी को लन्दन भेज दिया. समय के साथ, माँ को दो और संतानें मिल गयी थीं- एक बेटा... और बेटी भी. ना चाहते हुए भी मीनाक्षी का हृदय, तिक्तता से, कसक उठता. किस बात का बदला लिया, एक जननी ने, अपनी ही कोखजाई दुलारी से?? उनका स्नेह भुलाए नहीं भूलता. उनका सीने से सटाकर चूम लेना...और...रोज बालों में कंघी फिराकर चोटियाँ गूंथना... फूलों की वेणी, केशों में सजाकर, चुपके से दिठौना, कान के पीछे लगा देना!

जब वह स्कूल से आती, वे दौड़कर उसका बैग थामतीं. वह नहाकर कपड़े बदलती...और अम्मा... खाने की मेज सजाकर, उसकी प्रतीक्षा करतीं... वह उनके जीवन की धुरी! अप्पा(पिता) तो कभी काम के सिलसिले में, कभी किन्हीं अज्ञात कारणों से, बाहर रहते. वे घर में, बहुत कम दिखाई पड़ते. एक अम्मा ही थीं जो उसके आगे- पीछे डोलतीं...उसे घुमाती- फिरातीं, पढ़ातीं- लिखातीं...बात- बात पर बलैयाँ लेतीं!!

उस गहरे ममत्व को, खुद ही, एक झटके में उखाड़ फेंका...कैसे कर सकीं होंगी वह! क्या यह अनुमान तक नहीं रहा, कि उन्होंने अपनी लाडो को, कैसा मर्मान्तक आघात दिया था...?! बरसोंबरस अम्मा ने, बिटिया की कोई सुध ना ली! कभी भूले- भटके फोन कर भी लेतीं तो बुआ से ही उसके हाल- चाल मिल जाते. नपे - तुले एकाध वाक्यो में, उनसे बात होती भी तो बुआ किसी भूतिया साए की तरह, सर पर सवार रहतीं. उनके होते माँ- बेटी, खुलकर बात, करतीं भी तो कैसे?!

बुआ माँ के विरुद्ध, सदैव उसके कान भरतीं. उस पर एकाधिकार जो चाहती थीं. उनके बहकावे में आकर उसने, कुछ हद तक, यह मान लिया कि अम्मा, दूसरी औलादों के मोह में, अपनी इस बिटिया को भुला बैठी थीं! एक  कटुता, मन में घर करती चली गई. समय ने करवट ली. दसवीं की परीक्षा के बाद, मीनाक्षी हल्का महसूस कर रही थी. वह अक्षया बुआ के, लन्दन वाले, डिपार्टमेंटल- स्टोर में खड़ी थी...अपनी दोस्त के जन्मदिन का तोहफा- एक सुंदर सा केक, पैक करवाने में लगी थी. सहसा एक भारतीय महिला, उसके पास आकर फुसफुसाई, ‘तुम्हारी अम्मा का नाम धन्या है?’ मूक सहमति पाकर उसने आगे बताया, ‘ वे बहुत बीमार हैं... तुम्हें देखने के लिए तड़प रही हैं’

यह सुनते ही वह विक्षिप्त सी हो गई. माँ ने जो कुछ भी किया- उसके साथ...अच्छा या बुरा; उस सबके बावजूद वह उसकी माँ थीं और उसे किसी भी तरह, उन तक पहुंचना था- जल्द से जल्द! मीनाक्षी पर जिद सवार हो गई; इंडिया वापस जाने की. बुआ कुछ कम ना थीं! वे भी अपने हठ पर अड़ी रहीं, उस पर अपनी पकड़, उन्हे ढीली नहीं करनी थी. अंततः जीत मीनाक्षी की हुई. वह भूख- हड़ताल पर बैठ गई...रो - रोकर आँखें सुजा ली थीं. उसकी हालत देख, अक्षया जी को झुकना ही पड़ा.

अपने ही विचार- मंथन से थककर, मीनाक्षी वर्तमान में वापस लौट आयी. दोपहर बीतने को थी. संध्या की आहट, आसमान के बदलते रंगों और वृक्षों की फैलती हुई परछाइयों से मिल गयी थी. दोनों बच्चे, किसी कंप्यूटर- गेम में, सर खपा रहे थे. उसने बगीचे की तरफ वाली खिड़की खोल दी और जोर से साँस भरी. मोतिया- पुष्पों की सुवास, अंतस में घुलने लगी. रसोईं में जाकर, वह शाम के नाश्ते की, तैयारी में लग गयी. धीरे - धीरे पति जनार्दन के, ऑफिस से आने का, समय हो चला था. एक बार वह काम में क्या लगी, व्यस्त दिनचर्या में फंसकर रह गयी...कुछ सोचने- विचारने का होश न रहा; किन्तु रात के आते- आते, जब दैनिक क्रिया- कलाप थम गये- ख्यालों का बवंडर फिर उमड़ आया.

वह अपने वतन, अपनी धरती पर... न लौटती... तो कैसे पता चलता कि अम्मा किस हाल में थी?! उनकी दुर्दशा देख, वह खून के आंसू रोई; तब पहली बार, चिन्ना वीदू शब्द का, अर्थ पता चला था! चिन्ना वीदू का शाब्दिक अर्थ- छोटा घर (चिन्ना अर्थात छोटा + वीदू अर्थात घर = छोटा घर); गर्भित अर्थ- रखैल का घर! चिन्ना वीदू का, एक दूसरा निहित अर्थ, रखैल भी था! लतिका, अप्पा की रखैल ही तो थी- जिसके कपटजाल से दूर रखने के लिए, अम्मा ने उसे- अपनी जान से प्यारी मीनू को...पराये हाथों में सौंप दिया! वे उसका बचपन, पंगु होने से बचाना चाहती थीं और वह...!! न जाने क्या- क्या सोचती रही, उनके बारे में; बुआ के भुलावे में आकर!

अप्पा ने लतिका से ब्याह अवश्य किया; किन्तु पहली पत्नी धन्या के रहते, वह रिश्ता नाज़ायज था. उनके रुतबे से डरकर, कोई इस अन्याय का, विरोध न कर सका...धन्या के मायके वाले, पहले ही कमजोर थे...माता- पिता वृद्ध और अशक्त- जो शीघ्र काल- कवलित हो गये. इधर लतिका ने, अपने सौन्दर्य को ही अस्त्र बना लिया...उसकी हैसियत बढ़ती चली गयी और अम्मा की पहचान, धूल- धूसरित होती रही! अक्षया बुआ ने सच कहा था- माँ उसे दूर भेजकर, अपनी अन्य संतानों की, सेवाटहल में लगी थीं! परन्तु यह सच, झूठ के आवरण में लिपटा था...अम्मा की वे ‘तथाकथित’ संतानें- उनका अंश नहीं थीं; बल्कि लतिका के वजूद का, लहराता हुआ परचम थीं!

माँ तो बस एक सेविका थीं...निरीह...असहाय...! सेविका - जो बीमारी में भी, अपनी सेवाएं, दिए जा रही थी! क्रूर यथार्थ का सामना करते हुए, पन्द्रह वर्षीय मीनू, कच्ची उमर में ही, सयानी हो गई. लतिका बला की निर्दयी थी. उसके दोनों बच्चे- साढ़े चार वर्षीय श्रीनिवास और तीन वर्षीय पल्लवी, शाही ठाठ- बाट में जी रहे थे. बात- बात पर ऐंठना, उनकी फितरत थी. वह माँ को, उस घुटन भरे परिवेश से निकालने हेतु, कटिबद्ध हो गई. यह एक सुखद संयोग रहा कि उसके मातृप्रेम ने अंततः, बुआ का हृदय- परिवर्तन कर दिया. उन्होंने जाते- जाते, दो मोटे कंगन और भारी सी सोने की चेन, उसे पहना दी. ये आभूषण, अम्मा ने ही, बहुत पहले, उन्हें दिए थे.

बुआ ने उसके साथ, एक मोटी नोटों की गड्डी भी रखी. परिस्थितियों से उबरने में, उनके द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता, दोनों माँ- बेटी के, बहुत काम आई. वे वागमोन से दूर, एर्नाकुलम में, एक छोटा सा घर, लेकर रहने लगीं. बीच- बीच में बुआ, उनसे मिलने आ जातीं. मीनाक्षी ने, ग्यारहवीं कक्षा में, प्रवेश ले लिया था. वह छोटे बच्चों को, अंग्रेजी का ट्यूशन देने लगी. लन्दन- निवास ने, उसकी अंगरेजी को, ख़ासा समृद्ध कर दिया था. अम्मा  भी, निकटवर्ती कार्यालयों में, लंच- पैकेट भिजवाने का, छोटा- मोटा कारोबार करने लगीं. अक्षया बुआ, पैसों से मदद करती रहती थीं. जीवन फिर से, पटरी पर आने लगा था.

एक बार बुआ, देवर के बेटे को, लेकर आ गईं...जो उनके व्यापार को संभालने के साथ, बढ़ती हुई आयु में, उनकी देखभाल भी कर रहा था. माता- पिता के गुजर जाने के बाद, वह नितांत अकेला हो गया; इसी से, अक्षया जी ने पास बुला लिया. दूसरे शब्दों में कहें तो वह यानी जनार्दन स्वामी, उनका अघोषित वारिस था. बुआ और अम्मा की सहमति से, जनार्दन और मीनाक्षी, विवाह के पवित्र- बंधन में बंध गये. जब माँ और बुआ, दोनों ही, दुनियाँ से कूच कर गईं...मीनू और उसके पति ने, लन्दन की संपत्ति बेचकर, स्वदेश में काम जमा लिया.

मीनू स्वयम को सौभाग्यशालिनी समझती है...उसे ऐसा पति मिला जो दिल का बहुत साफ़ और उसकी परवाह करने वाला है. अप्पा को मेहरबान होता देख भी, कभी उनके पैसों का लालच नहीं किया... बल्कि स्वाभिमान को बनाये रखने के लिए, पत्नी को निर्देश दिया, ‘ अपने अवसरवादी अप्पा से, कोई भी भेंट लेने से बचो’ पति द्वारा प्रयुक्त ‘अवसरवादी’ शब्द, मीनू के कानों में चुभता...किन्तु वह खुलकर, विरोध न कर पाती. एक तरह से, जनार्दन का कहना सही है. वेंकट चन्दर अपनी परमप्रिय लतिका और उसके जने बच्चों को ही, अपना सब कुछ मानते रहे. धन्या और उसकी बेटी के लिए, उनका कर्तव्य- बोध सोया ही रहा.

वक्त बदला. श्रीनिवास और पल्लवी, उनकी आशाओं पर खरे न उतर सके. पल्लवी किसी मवाली के साथ भाग गई और श्रीनिवास, ड्रग- तस्करी में, संलिप्त हो गया. यदि ऐसा न होता, तो भला, मीनू की याद, उन्हें क्यों आती?! मीनू के बेटे, नमित से मिलकर; उनके मन में, ढेरों उम्मीदें जाग उठीं. जान पड़ा कि यह बालक, बड़ा होकर, उनका नाम रौशन करेगा. लतिका के दोनों बच्चे, उनके दिल से उतर चुके थे. पहली बार उन्हें, वैध और अवैध संतति का अंतर, महसूस हुआ. नमित के भोले शैशव में, वेंकट चन्दर की उपस्थिति ने, एक नया रोमांच, भर दिया था- परीलोक जैसे अनोखे, वागमोन का, उससे परिचय कराकर.

अब तो, वह अक्सर वागमोन जाने लगा था. वहां राजसी वैभव को, भोगते हुए... नैसर्गिक सुन्दरता में, नित- नये आयामों को, जुड़ते देखना... किसी मधुर स्वप्न का, हिस्सा लगता था. वह चिन्नम्मा के आँखों की किरकिरी बनता जा रहा था; यह जान- समझकर उसकी माँ, उसे वहां जाने से रोकना चाहती थीं. तब वह उनकी उस आपत्ति में निहित, गूढ़ रहस्य को नहीं जानता था...ठीक से तो अब भी नहीं जानता...किन्तु सम्बन्धों पर पड़ी यवनिका के उठ जाने से, उसे उनके, भुरभुरे होने का आभास अवश्य हो गया है.

इधर मीनाक्षी, इस पूरे सिलसिले को याद कर, परेशान होती रहती है. उसे ध्यान आता है कि अप्पा के स्नेह की बौछारें, धीरे- धीरे उसे भिगोने लगी थीं. जीवन भर, पिता के स्नेह को तरसती मीनू, उसे पाकर अभिभूत हो गयी. वह भूल गयी कि इसी पिता ने, उसे और उसकी अम्मा को, भगवान भरोसे छोड़ दिया था...उनकी मेहरबानियों को, चाहकर भी, वह ठुकरा नहीं पाई. जो हक उन्होंने, उसकी माँ से छीना- उसका प्रतिकार नमित कर रहा था...उनके साम्राज्य में, अपना दबदबा बनाकर! किन्तु उसका परिणाम...! मीनू ने संयमित भाषा में, नमित के समक्ष, विगत की परतों को खोलना शुरू कर दिया...ताकि वह विचलित मनःस्थिति से, उसे उबार सके.

‘तो चिन्नम्मा आपकी माँ नहीं ...अम्म्प्पा की दूसरी पत्नी हैं?’ नमित तथ्यों की चीरफाड़ करने लगा था. मीनू ने यंत्रवत, सिर हिलाकर, हामी भरी. ‘और श्रीनिवास मामा...चिन्नम्मा के सगे बेटे...? अगले प्रश्न के साथ, मासूम नमित की आँखों में, परिपक्वता की कौंध, दिखाई दी. अपने नन्हें बच्चे को, रिश्तों की पेंचीदगी में, उलझते पाकर, माँ का मन भर आया. उसका बस चलता तो...बेटे पर, विद्रूपताओं की, छाया तक ना पड़ने देती! मीनाक्षी का मौन समर्थन मिलने पर, नमित ने बात आगे बढ़ाई, ‘ तभी तो वे उस दिन...मेरे साथ...!’ उसका वाक्य पूरा भी न हुआ था कि माँ ने, तसल्ली देने के अंदाज़ में, जोर से, उसे भींच लिया.

माँ और बेटा, दोनों ही; अबोले की स्थिति में, जा पहुंचे. स्मृतियों के भंवर, उन्हें पाश में, जकड़ते चले गये.   वेंकट चन्दर ने, अपने नाती में; भविष्य की संभावनाएं, देख ली थीं. वे अक्सर, उसे पास बुलाने लगे. यूँ भी वागमोन की धरती, अपनी तरफ खींचती थी. केरल का यह हिल- स्टेशन, दैविक सौन्दर्य से भरपूर, अद्भुत पर्यटन- स्थल है. वहां रहना किसे पसंद न होगा? नमित को भी वागमोन बहुत भाता. चिन्नम्मा की काली नीयत को, वह ठीक से समझ नहीं पाया. जब अम्मप्पा, गंभीर रूप से बीमार पड़े; चिन्नम्मा के तेवर, और भी आक्रामक हो गये थे.

तब मीनू जान रही थी कि लतिका ने, अपराध की दुनियाँ में गुम हुए, श्रीनिवास को, खोज- निकालने की जेद्दोजेहद क्यों की...सम्बन्धों को लात मारकर, दूर चली गई पल्लवी को, ढूँढने का जतन क्यों किया. निश्चित ही उसे; अपना सिहासन, डोलता हुआ, लगा होगा...राजमहिषी का पद, छिन जाने की, आशंका हुई होगी. आखिर उसे, अपनी नामुराद औलादों का, पता- ठिकाना मिल गया. उसने तत्काल, उन्हें बुलवा भेजा. उनके पिता, जीवन की लड़ाई, हार भी सकते थे. ऐसे संवेदनशील समय में, जब बिरादरी के लोग; प्रख्यात वेंकट चन्दर का, हाल- चाल पूछने को, जमा हुए थे- अवसर को भुनाने से, चूकना नहीं था!

यह जरूर था कि नमित को वहां जाना, अब अच्छा नहीं लग रहा था. श्रीनिवास और पल्लवी की शह पाकर, लतिका उसे, कुछ ऊल- जलूल बक देती थी...कभी उसकी वेशभूषा तो कभी उठने- बैठने...बोलने- चालने...चलने- फिरने के ढंग पर कटाक्ष! उसकी माँ के, सौन्दर्य- बोध तक की खिल्ली उड़ाते...वे लोग!! नमित संस्कारों में जकड़ा था. तमतमाकर, उन्हें तीखी नज़र से घूरता...लेकिन इसके अलावा, कुछ ना कर पाता. उसने माँ से साफ़ कह दिया कि उसे वागमोन में नहीं रहना. किन्तु माँ, आधा जीता हुआ युद्ध, वापस हारना नहीं चाहती थीं... उन्हें उसकी नानी का बदला लेना था- लतिका को उसकी औकात दिखाकर!

उस दिन नानाजी का जन्मदिन था. अपने हर जन्मदिन की तरह, उन्हें अपने ‘भक्तों’ को संबोधित करना था. इस बार अपने भाषण में, उन्होंने संकेत दिया कि उनका उत्तराधिकारी, नमित जैसा तेजस्वी बालक ही हो सकता था. भाषण के बाद, वे क्लांत होकर, आरामकुर्सी पर ढह गये; किन्तु चिन्नम्मा से रहा न गया. वह अपने स्थान से उठ खड़ी हुई और नमित पर उंगली तानकर, उसे मनहूस और भिखारी जैसे अपशब्दों से, नवाजने लगी. इस बार, उस छोटे बच्चे ने, धैर्य खो दिया...इतने जनों के सामने, ऐसा निरादर! वह पूरी शक्ति लगाकर चीखा- ‘चिन्ना वीदू...!!!’ भीड़ स्तब्ध थी. बालक इतने दिन, रिश्तेदारों की दबी- छिपी खुसपुसाहटों में...अपने कुनबे के बारे में, गुप्त चर्चाओं की, भनक पाता रहा. आखिरकार, उसने सच का संधान, कर ही लिया.

वह पल, मानों रुक सा गया था. वक्त के सीने पर, एक बोझिल सन्नाटे का भार था. सहसा श्रीनिवास ने सैंडल निकाली और नमित की तरफ दौड़ा... नानाजी ने बगल में पड़ा माइक उठाया...वे कुछ कहते कहते रुक गये- नाजुक हालात का खयाल कर! मीनाक्षी अपने बच्चे को बचाकर, वहां से ले आयी. भीड़ में से कोई न आया- बीचबचाव करने. उनके निजी मामले में, हस्तक्षेप का साहस, किसी में ना था! वेकट चन्दर, अपने व्यक्तिगत जीवन का, तमाशा नहीं बनाना चाहते थे...सो चुप ही रहे. धीरे- धीरे वह, अपनी व्याधि से उबरने लगे थे. उनके अंगरक्षक, उनकी सुरक्षा के लिए, और अधिक सक्रिय हो गये.

फ़िलहाल, नमित के सौतेले मामा और मौसी, अपनी- अपनी दुनियाँ में, वापस लौट गये थे. चिन्नम्मा सर्प की भांति, अपनी बांबी में, दुबकी पड़ी थीं! नमित, नानाजी से रूठा है. उनका फोन नहीं उठाता...ना ही व्हाट्स एप सन्देश, देखता है. सोच का क्रम भंग हुआ, जब मीनल ने टी. वी. चला दिया... कोई गाना, जोरों से बज रहा था...तीव्र संगीत को सुनकर, माता और पुत्र; लगभग साथ ही, विचार- समाधि से बाहर निकले. नमित ने गहरी सांस लेकर, मीनाक्षी को देखा और धीरे से कहा, ‘अम्मा! नानाजी से कह देना कि अगर,,, वे इतने लोगों के आगे भी...मेरे अपमान को, रोक नहीं सकते- तो उनकी जायदाद से मुझे, एक धेला भी नहीं चाहिये!’ प्रत्युत्तर में, माँ ने, उसे गले लगा लिया!

विनीता शुक्ला

विनीता शुक्ला

आभार अनीता जी।

27 दिसम्बर 2021

Anita Singh

Anita Singh

बढ़िया

27 दिसम्बर 2021

विनीता शुक्ला

विनीता शुक्ला

धन्यवाद ज्योति जी.

20 दिसम्बर 2021

Jyoti

Jyoti

👍

20 दिसम्बर 2021

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रचनाएँ
जीवन के रंग
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एक्स

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<p>‘चल फटाफट...अभी शॉपिंग बाकी है ...तेरे लिए नये सैंडल और लिपस्टिक लेनी है’ ‘सैंडल तो ठीक है...पर ल

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चिन्ना वीदू

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<p>जबसे नमित अपने ननिहाल से आया है, लगातार रोये जा रहा है. वह रह रहकर, अपनी माँ मीनाक्षी को, कोस रहा

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दूसरे दौर की प्रताड़ना

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संक्रमण

10 दिसम्बर 2021
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<p>‘आंटी...कल फेसबुक पर, तन्वी की फोटो देखी. शी वाज़ लुकिंग गॉर्जियस! उसके साथ क्यूट सा एक लड़का था...

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रिश्तों का बहीखाता

10 दिसम्बर 2021
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<p>“गोदी होरिलवा तब सोहैं, जब गंगा पै मूड़न होय गंगा पै मूड़न तब सोहैं, जब गाँव कै नउवा होय” बुलौवे वा

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एक ढका छुपा सच

10 दिसम्बर 2021
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<p>सोमेश चौधरी के हाथ काँप रहे थे. वकील की नोटिस, थामकर रखना, मुश्किल हो गया. सरकारी आदेश था. रितेश

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दूसरी भग्गो

10 दिसम्बर 2021
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<p>सुमेर मिसिर हिचकते हुए, उस दहलीज़ तक आ पहुंचे थे, जहाँ कभी आने की, सोच भी नहीं सकते थे. क्या करते?

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एक कतरा आसमान

10 दिसम्बर 2021
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<p>आज का ये ‘सो काल्ड ख़ास दिन’...महक को वहशत सी हो रही है, सोचकर. अंतस की परतों में जमा लावा, कुछ इस

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