नमिता अजब उलझन में थी. कोरोना काल में हवाई- यात्रा, अविवेकपूर्ण थी; पर उसके पास, दूसरा विकल्प भी तो नहीं बचा. ताऊजी की मरणासन्न अवस्था में, उनकी मदद के लिए, कोई न था. ताईजी स्वयं बीमार थीं; पति की सेवा- सत्कार, उनके बस से बाहर की बात थी. जी कड़ा करके नमिता ने, लखनऊ से पुणे, उड़ान के लिए टिकट करवा लिया. डैड भी बड़े भैया के प्रति, दायित्व के बोझ से, उबर गये. वे स्वयं शरीर से लाचार ना होते तो भैया की सहायता करने अवश्य जाते. नमिता ने एक अच्छी बेटी का फर्ज निभाते हुए, वह जिम्मेदारी, अपने ऊपर ओढ़ ली थी.
छोटी बहनें अपने घर- संसार में रमी थीं. माँ दूसरे लोक जा चुकी थीं... ले- देकर एक वही बची थी, अपने कुटुंब की तारनहार! उसका जी खट्टा हो गया. ताऊजी के सुपुत्र रमेश दा, विदेश में पड़े थे. पिता की बीमारी भी उन्हें, वहां से हिला नहीं सकी. लॉकडाउन खुलने के बाद, बैंकर के तौर पर, उनकी जिम्मेवारियां बढ़ गई थीं. ऐसे में, कनाडा से इंडिया आ पाना, संभव ना हुआ...मृतप्राय पिता के लिए भी नहीं! मशीनी रिश्तों को कोसते हुए, वह एअरपोर्ट तक पहुँच गयी थी. प्रवेश द्वार पर ही ‘आरोग्य सेतु’ एप और थर्मल स्क्रीनिंग की जरूरत आन पड़ी. भीतर जाकर, अपने सामान को, सैनीटाइज़ करने की, अनिवार्यता भी थी. वेब चेक- इन करते हुए, नमिता खीजने लगी थी. कोरोना क्या आया, जमाने के दस्तूर ही बदल गये; फिर वह चाहे एअरपोर्ट हो, या रेलवे स्टेशन... नये- नये सियापे झेलते रहो!!
मास्क और ग्लव्स, उसने बेमन से चढ़ाए थे. वाह री नकाब...नाक पर ऐसे चिपकती है कि घुटन लगने लगे...नमिता ने खुद को, प्रतीक्षास्थल के आईने में देखा. उसका हुलिया, कीटनाशक दवा का, छिड़काव करने वाले बंदे से... मेल खा रहा था- सोचते हुए, वह मुस्करा दी. उसने पाया- बगल वाले गेट पर, बोर्डिंग शुरू हो गयी थी. हवाई अड्डे के कर्मचारी, यात्रियों को सुरक्षा किट मुहैया करवा रहे थे. पी. पी. ई. किट और मुखावरण से लैस वे लोग, एलियन जैसे जान पड़ते थे. एक बार फिर, नमिता को अपनी सोच, गुदगुदाने लगी! ‘गुड...फ्लाइट, इज़ इन टाइम’ उसके विचारों को बाधित करते हुए, एक आवाज़ उभरी. नमिता चौंक गयी. जान पड़ा- उस स्वर को, युगों- युगों से... सुनती चली आ रही हो!
उसने सर घुमाकर देखा था. एक लम्बा सा युवक...बाल माथे पर झूलते हुए...कसरती शरीर...और...! उसकी आँखों पर, दृष्टि पड़ते ही, वह सिहर गयी. यह तो वही है...शत प्रतिशत वही! मुंह ढका होने के बावजूद, नमिता ने उमंग को पहचान लिया. मन में धुकधुकी होने लगी. कहीं वह भी उसको, पहचान तो न लेगा?? ‘नहीं... नहीं...!’ उसने स्वयं को आश्वस्त किया. इन तीन सालों में, कितना कुछ बदल गया था. नमिता की आँखों के नीचे, स्याह घेरे पड़ गये थे. तनाव और सामाजिक दबाव इतना कि बाल झड़ने लगे. बदले हुए केश- विन्यास और मोटे चश्मे में...चेहरे पर चढ़े, आवरण के साथ; कोई पूर्व- परिचित... भला कैसे उसे पहचानेगा? उसकी भूख प्यास उड़ गई थी. यह जानते हुए भी कि बोर्डिंग आधे घंटे बाद शुरू हो जायेगी और फ्लाइट में खाना नहीं मिलेगा, नमिता को पर्स से टिफिन निकालकर, खाने की सुध ना रही.
विमान के भीतर का दृश्य तो और भी अनोखा था. गिने-चुने मुसाफिर सहमे से, अपनी-अपनी जगहों पर, इस तरह दुबके थे- जैसे कोरोना पहले, उन्हें ही दबोचने वाला हो... विमान परिचारिकाएं भी मुंह ढांपे हुए...उनकी विलक्षण मुस्कानें नदारद! वे किसी भूतिया फिल्म का हिस्सा जान पड़ती थीं. नमिता को विंडो सीट मिली थी. यात्रियों के बैठने की व्यवस्था ने, उसे आश्वस्त किया. सोशल डिस्टेंसिंग को ध्यान में रखते हुए, बीच वाली सीटें खाली रखी गई थीं. अब वह फैलकर सो सकती थी. थकावट ने बेहाल कर दिया था ...लेकिन उमंग का खयाल उसे सोने नहीं दे रहा था...और यह क्या! उमंग का वजूद, उसकी सोच तक ही सीमित न रहा. वह सशरीर उसके सामने मौजूद था और उसके निकट वाली, कार्नर -सीट की तरफ इशारा कर, एयर- होस्टेस से कुछ बात कर रहा था.
‘हे ईश्वर!...कहीं वह... यहीं तो ...बैठने नहीं वाला है’ नमिता का दिल, मानों, सीने को चीरकर, निकल ही आता, ‘ यह भी इसी फ्लाइट में!’ उसकी धड़कनें कुछ मंद पड़ीं, जब उमंग ने, किसी अनाम समझौते के तहत; अपनी जगह किसी महिला को बैठा दिया. किन्तु इससे भी नमिता को शांति न मिली. मन में दूसरा कोई बवंडर, आकार लेने लगा, ‘कहीं उमंग चौधरी ने जानकर ऐसा तो नहीं किया...क्या वह समझ गया था कि विंडो सीट पर बैठी हुई युवती, नमिता ठाकुर है!’ सहसा ध्यान भंग करते हुए पासवाली स्त्री ने कहा, ‘हाय...आई एम. वृंदा’ बदले में नमिता ने संक्षिप्त सा ‘हेलो’ बोला. किन्तु वृंदा चुप ना हुई. वह उसकी तरह अंतर्मुखी नहीं थी.
वृंदा अपनी वाचाल जिह्वा को, लगाम नहीं दे पा रही थी, ‘ बड़ा मुश्किल है आजकल फ्लाइट लेना ...सब कुछ बदल गया है...इतनी फॉर्मेलिटीज़ हैं कि नाक में दंम हो गया’ नमिता ने शिष्टतावश, स्वीकृति में सर हिलाया. वार्तालाप आगे बढ़ा, ‘ सब कुछ कंप्यूटराइज़ हो गया है...ये कंप्यूटर वाले फंडे, अपन को समझ नहीं आते...ऐसे कामों में, बार- बार मदद की जरूरत होती है...तभी तो...स्टाफ से मगजमारी करनी पड़ी’ नमिता की भावशून्य आँखें, उसके माथे की सिलवटों को, देख रही थीं. हालाँकि वह उसे, सुनकर भी नहीं सुन रही थी...वह तो कहीं और, गुम हुई जा रही थी...सहसा वृंदा का स्वर, कुछ बदल सा गया; इस कारण, नमिता सचेत हुई. उसके कान अब चौकन्ने थे. बात जारी रहीं, ‘इस सीट पर जो महाशय थे, उन्होंने उड़ान में दो टिकटों के लिए आरक्षण कराया था... पता चला, अलग - अलग जगह पर सीट मिली है...क्योंकि बाकी सब सीटें भर चुकीं थीं’
बोलते- बोलते वृंदा थोड़ा रुकी और फिर से चालू हो गयी, ‘मियाँ बीबी को साथ बैठना था...मैंने अपनी जगह उन्हें दे दी और खुद यहाँ आ गयी.’ नमिता अब तटस्थ हो चुकी थी. उसके चेहरे पर, पसरी उदासीनता ने, वृंदा दुखित किया...जान पड़ा कि फालतू में उसने, अपनी सहयात्री से, अनावश्यक बातचीत की- एक अनजान महिला से...बहनापा जोड़ने की, बचकानी कोशिश...! वह तत्क्षण मौन हो गयी.
इधर नमिता, बिना किसी व्यवधान के, अतीत में विचरने लगी. उमंग के साथ बिताये सुनहरे दिन, जीवन को नया अर्थ दे गये थे. उन्हें याद कर, टीस उभर आयी...दिल ने कहा, ‘काश समय वहीं पर रुक गया होता!’ ‘वृंदा जी, कुड यू डू अ फेवर फॉर मी?’ ‘व्हाई नॉट...टेल मी व्हाट आई हैव टु डू?’ नमिता जैसे नींद से जागी! उमंग ठीक वृंदा की सीट के बगल में खड़ा होकर, वार्तालाप कर रहा था. ख्यालों की खुमारी में डूबी, वह बस इतना समझ पाई कि उमंग की बात सुनकर उसकी सहयात्री झटके से उठी और अपनी पुरानी सीट की तरफ चल दी. अब नमिता से रहा न गया. उसने सर घुमाकर, कनखियों से, उस दिशा में देखा.
तीन- चार कतार पीछे, उमंग और उसकी पत्नी बैठे थे...और वृंदा...भिन्न- भिन्न कोणों से, उनकी तस्वीर उतार रही थी. नमिता की दृष्टि चोरी- छुपे, उनका पीछा करने लगी. यहाँ तक कि जब वृंदा वापस आयी तो उसने पाया- साथ वाली युवती, जिज्ञासु आँखों से, उसे ही ताक रही थी. यह देखकर वह नमिता की पुरानी बेरुखी भूल गयी और दोस्ताना अंदाज़ में कह उठी, ‘नई नई शादी हुई है...इसी से क्रेज़ ज्यादा है! एयरहोस्टेस थोड़ी देर, इधर- उधर हो गयी...नहीं तो क्या, मास्क हटाकर...फोटो खिंचवाने देती?! मुझे उस बंदे की वाइफ से बात करनी थी... लेकिन यू नो...क्रू को इस बात से, प्रॉब्लम हो सकती थी- वे उधर खड़े रहना, अलाऊ नहीं करते ... एंड आल्सो... आई डोंट वांट टु डिस्टर्ब दोज़ लव बर्ड्स...कबाब में हड्डी नहीं बनना मुझे!’ ‘उसकी वाइफ का नाम क्या है?’ नमिता की अनपेक्षित उत्सुकता ने, वृंदा को थोड़ा सशंकित अवश्य किया किन्तु फिर सहज होकर बोली, ‘डॉली’. ‘घर का नाम होगा’ ‘नहीं जी...! ऑफिशियल नाम है.’ इस रहस्योद्घाटन से, उसको झटका सा लगा. चिन्तन- यात्रा पुनः चल निकली. इधर वृंदा कान में हैडफ़ोन लगाये, शायद कोई संगीत सुन रही थी...और वह... सुधियों की अबाध धार में, बहती ही जा रही थी.
‘तुम्हारा नाम कितना प्यारा है नमिता! ये आधुनिक नाम मुझे बिलकुल अच्छे नहीं लगते- स्वीटी, पिंकी, मिनी...टीना!’ इस तरह के नाम हमसे, हमारी पहचान छीन लेते हैं. नकली ठसक दिखाने को, तथाकथित प्रगतिवादी, अपने बच्चों को ऐसे नाम दे देते हैं. ‘ नमिता उमंग की विचारशीलता पर मुग्ध थी और वह उसकी सादगी पर. प्रेम की राह में, बाधाओं का आना, कोई नई बात नहीं. जब डैड उसका विवाह, बड़े घर में तय कर रहे थे; उन्हें, उसके प्रेम- सम्बन्ध का पता चला. नमिता का प्रतिष्ठित घराना, उमंग सरीखे छोटी बिरादिरी के युवक को, अपनाने के लिए, कतई तैयार न था. फिर भी वह, अपनी जिद पर अड़ी रही. किन्तु उसे, अपना निर्णय बदलना पड़ा. एक दिन उसने, चुपके से, डैड और ताऊजी की बातें सुनीं. वे उमंग को ‘रास्ते से हटाने’ की योजना बना रहे थे. ‘तो बात ऑनर- किलिंग तक पहुँच गई है’ सोचते ही नमिता का सर्वांग काँप गया. रसूखवालों के लिए, किसी को मरवाना बड़ी बात नहीं. ऐसे लोग, कानून और व्यवस्था को, मुट्ठी में लिए फिरते हैं.
उमंग की जान, उसके कारण खतरे में थी. वह उसकी विधवा माँ से, उनका इकलौता बेटा, नहीं छीनना चाहती थी...इसलिए पीछे हट गयी. यहाँ तक कि इसकी कोई वजह, उसने उमंग को नहीं बताई. वह रूठकर उसे, बेवफा, पत्थरदिल- जाने क्या क्या कहता रहा, तो भी उसकी जुबान न खुली. आज वह उस डर से उबर गई है...किन्तु यादों की फांस, आत्मा में कहीं गहरे धंसी है; तभी तो ब्याह के नाम से ही बिदक जाती है! वह खुद को ये समझा नहीं पाती कि सब कुछ भूलकर, उसे जीवन में आगे बढ़ जाना चाहिए. उनके बीच अभी भी फरेब की आड़ है- चारों तरफ मुखौटे ही मुखौटे...मास्क में छिपे चेहरे!
नमिता, फ्लाइट अटेंडेंट की इस घोषणा के साथ, वर्तमान में वापस आयी कि विमान; कुछ देर के लिए, दिल्ली में रुक रहा था. यहाँ कुछ यात्रियों को, चढना- उतरना था. वृंदा को बतियाने का अच्छा मौक़ा मिला और वह डॉली की तरफ लपक ली. नमिता की निगाहें, पुनः उस तरफ, मुड़ चलीं. वृंदा को देखते ही उमंग आदरपूर्वक, अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ. सीट के हैंडल पर पड़ा, अपनी पत्नी का स्कार्फ, उसने हाथ में ले लिया...वह स्कार्फ, जो डॉली ने; तस्वीर उतरवाते वक्त, हटा दिया था. दोनों महिलाओं की बातचीत में, बाधा न हो- इस विचार से वह, वृंदा द्वारा रिक्त किये गये, स्थान पर आ बैठा. उत्तेजनावश नमिता की हृदयगति, थम सी गईं! वह चेहरे पर चढ़े, मास्क को हटाकर; पानी पीने ही वाली थी; किन्तु उमंग के डर से, जड़ हो गई!
पर दूसरे ही क्षण, उसके अन्तस में, नितांत विपरीत भाव कौंधा- ‘क्यों न मैं अभी, उमंग से क्षमा मांग लूं...जिस ग्लानि और अपराध- भावना में, आज तक पिसती आयी हूँ- वह कुछ कम तो होगी...भले ही उमंग माफ़ ना करे; पर उसे यह बताकर, दिल हल्का हो जाएगा कि मैंने किस बेबसी के तहत, उससे दूरी बनाई...यह एक स्वर्णिम अवसर है- अपना पक्ष रखने का.’ यह सोचते ही उसने, नकाब को नीचे खींचना, शुरू किया ताकि उमंग को अपना चेहरा दिखा सके. हाथ में पानी की बोतल ले ली ताकि उसके मास्क उतारने पर, विमानकर्मी, आपत्ति ना करें.
परन्तु यह क्या...! उमंग तो किसी दूसरे ही... संसार में था! अपनी ब्याहता का स्कार्फ, नथुनों से लगाये... उसमें रचे- बसे इत्र की मादक सुवास, श्वासों में उतार रहा था. नमिता का जी धक से रह गया!! उसने पल भर का विलम्ब न करते हुए, मुख पर; पहले वाला आवरण, चिपका लिया!! चेतनाशून्य होकर, कुछ पल, वह यूँ ही बैठी रही; फिर सोचने लगी- ‘लोग चेहरे पर चेहरा चढ़ाने को, अनुचित मानते हैं. मुखौटा ओढ़ने को, गलत करार देते हैं...अपनी पहचान पर पर्दा डालने को, दोगलापन कहते हैं...लेकिन परदा हमेशा बुरा नहीं होता...कई बार, वह हमारी निजता... हमारे सम्मान की रक्षा करता है! हमारी गोपनीयता को, भद्दे रूप में उघड़ने से रोकता है...हमारी उजली, अनछुई एकान्तता को, सेंधमारी से बचाता है ; ताकि वह मैली न पड़े! महान शायर जौंक की, खूबसूरत गजल का मतला, उसके कानों में गूंज उठा-
‘दिल से तकमीले इशारात न होने पाए
नजरें मिल जाएँ मगर बात न होने पाए
जौंके दीदार उनको, पाके अदब है लाजिम,
ऐसी बेपरदा मुलाक़ात न होने पाए!’
‘भला हो मास्क का’, उसने सोचा, ‘जिसने इस मुलाक़ात को, बेपरदा होने से बचा लिया!!’