बीते दिनों में हम सब, पहले से ज्यादा अकेले हुए हैं। कितने दोस्तों को दूसरा शहर नौकरी की जंजीरों में बाँधकर अपने साथ ले गया और कितने अजीज रिश्ते राजतीनिक बहसों में उलझकर टूट गए। सोशल मीडिया की फिजूल प्रायोजित बहसों में लड़ते हुए हम अपने आसपास के लोगों से कितने दूर चले आए, अहसास नहीं हुआ। धर्म, जाति, वाद, ट्वीट, मीम, रील्स और वायरल होने की गुमनाम दुनिया में अपने-आपको ढूँढ़ने की कोशिश है यह किताब। हर तरफ फैलते जा रहे द्वेष के द्रोह में प्रेम की कहानी है 'द्वेषद्रोही'
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