'द्वेषद्रोही' दरअसल एक ऐसे समय का ही सच है जहां समकाल एक झूठे राष्ट्रवाद की गिरफ्त में है और जाति-धर्म के ढांचे पर साम्प्रदायिकता विकृत रूप से फल-फूल रही है। 'देहाती लड़के' के बाद 'द्वेषद्रोही' शशांक भारतीय का दूसरा उपन्यास है। 'हिन्दी युग्म' से छपे इस उपन्यास में शशांक ने प्यार, दोस्ती और राजनीति का त्रिकोण रचा है जिसके कुछ पात्र शहर से देहात की यात्रा करते हैं, लेकिन यह यात्रा जिंदगी की तरह अधूरी रह जाती है, कहानी कहीं-कहीं चुप्पियों से भी आगे बढ़ जाती है, कहीं-कहीं यादों में पीछे लौटती है, जिसका अंत एक टीस पैदा करता है, यही टीस आखिर तक दिल और दिमाग में फंसी रहती है।
'द्वेषद्रोही' एक नए शब्द से लिखा एक नए तरह का उपन्यास है जो मुख्यत: आज का उपन्यास है और इसकी विशेषता है इसकी गंभीर सामाजिकता, जिसे बहुत दिलचस्प तरह से लिखा गया है, जिसकी प्रस्तुति और भाषा में हर वर्ग के पाठकों को बांधने की संभावना है।