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एक किता कफ़न

31 अक्टूबर 2023

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                 आखिर उस समय उन्होंने अस्पताल में एडमिट मां के  बेड के सामने, जो खुद अपने बिमारी से परेशान है , इस तरह की बातें क्यों की?इसके क्या अर्थ है या क्या अर्थ निकाला जाये? उन सौतेले पिता रामलाल के तिरस्कार भरे शब्दों से मनोज के मन में यह बात बार बार कौंधतीं कि उनको यह बात नागवार लग रही है कि वह अपनी अस्पताल में मां से मिलने आता है ।आखिर मैं मां को आपबीती ही सुनाता हूं।इस बात का वह गहन मंथन वह अपने में अंदर ही अंदर कर रहा था और बाहर से मूक रहने के बावजूद मनोज अपनी अंतरात्मा से जोर जोर से चीख रहा था।वह अंदर छिपे जमीर से दहाड़ता और कहता कि क्या वह अपनी मां के संवेदनाओं का उचित उत्तर देने के भी काबिल नहीं है ? क्या वह अपनी मां से सिर्फ उसकी ममता वश घर से अस्पताल जाकर दस किलोमीटर पैदल  वापस नहीं आ सकता ?
                   मनोज मन ही मन कहता कि आखिर वह क्यों नहीं मां को मना कर पाता कि "राज्य कर्मचारी अस्पताल की ओर मां को जो दूध,ब्रेड, लंच और डिनर फ्री में मिलता , उसमें उसका हिस्सा नहीं है ।" वह बुदबुदाया कि जब भी मैं उससे कहता कि मां! मेरे बारे में चिंता मत करो, आखिर मेरी भाग्य में भी ईश्वर ने कुछ लिखा है,बस उसके सहारे मुझको छोड़ दो,बस मेरे इतना कहते ही मेरी मां रोली रोने लगती और कहती बेटा! मैं मां हूं, कुमाता नहीं हो सकती।अतीत से झटके में निकल वर्तमान में आ वह माथे पर सिकन देकर अपने आप से बोला ,अब तो मैं अधेड़ हो चुका हूं और अनुभवी मनोवैज्ञानिक भी हूं, पर नतीजे पर अभी तक नहीं पहुंच पाया कि उस समय तो किशोर अवस्था थी ,आखिर रोज मां के पास अस्पताल मिलने क्यों जाता,क्या उसके निश्छल ममता को क्षणिक संतुष्टि के लिए जाता अथवा जो भोजन या नाश्ता ,मां खाने के पहले बचाती,उसे खाने के लालच में जाता।वह अक्सर अस्पताल से मिले दो लीटर दूध में दो सौ मिलीलीटर मुझे देती और लगभग इतना ही पिताजी को देती ,हमारा उनका आमना सामना अस्पताल में कभी न होता ,पहले मैं पहुंचता और मेरे चले जाने के बाद वो पहुंचते, अब मैं इस बात की सफाई देते क्यों और किसे देते फिरूं? उस समय तो किशोरावस्था थी। दिन में एक बार तो बीमार मां से मिलने की इच्छा प्रबल होती ही होगी।
                    घर पर तो उसकी बहन शालू, सौतेला पिता रामलाल और बकरी थी जिसे प्यार से मुनमुन बुलाते थे , बकरी का दूध शालू दुहती और अंगीठी पर गर्म करती, फिर वे दोनों जीम लेते,मनोज तो कालेज से पढ़कर आता और फिर उसे होम वर्क करने से फुर्सत नहीं मिलती। शाम के समय वह  मां से मिलने अक्सर पहले से ही पैदल निकल जाता। पिताजी शायद कुछ मां के लिए खाने पीने का सामान लेकर बाद में रिक्शे पर बैठकर आते, कहते भी न थे कि थोड़ा रुको, रिक्शे से दोनों साथ अस्पताल चलेंगे। आखिर ईश्वर भी मनोज को समझाना चाहता है कि सौतेलापन व्यवहार का भी उसके जीवन में अपने मायने हैं।यह भी प्रारब्ध कहिये या संचित क्रियमाण, जो भी हो,से मिलता है। मनोज,मां को अपने पाठ्य सामग्री जैसे कापी,पेन,इंक और रात में रोशनी हेतु लालटेन में केरोसिन आयल न मिलने की बुझे मन से बात कहता और अंत में मायूस हो जाता। अस्पताल का वार्ड ब्वाय कन्हैया भी दबे पांव मनोज और मां की बात सुनता। 
                  कन्हैया उसके पिता रामलाल का दोस्त था। उसे इस प्रकार की बदतर स्थिति को सुनना अच्छा नहीं लगता।वह मौके की तलाश में था कि वह इस तरह का वर्ताव मनोज के प्रति क्यों कर रहा है? आखिर वह मौका आ ही गया , मनोज को मां से बात करते करते देर हो गई और पिता रामलाल आ गये, उनके थोड़ी देर बैठने के बाद मां ने उन दोनों को एक एक गिलास दूध दिया, थोड़ी देर में कन्हैया आया और बोला कि आप मनोज के साथ दुर्व्यवहार क्यों करते हैं?यदि वह अपने पढ़ाई सम्बन्धित सामग्री लाने की बात कहता तो आपको पूरा करना चाहिए। तभी झल्लाहट में भरकर रामलाल मनोज की तरफ इशारा करते बोला कि इसने पूरा घर बर्बाद कर दिया है हमारी सारी ब्यवस्था चौपट कर दी ,अगर यह मर जाये तो हम इसके लाश के लिए "एक किता दो गज कफ़न "भी नहीं देंगे।अब उनकी इस बात ने मनोज की अंतरात्मा को पूरी तरह से झकझोर दिया।बाद में वह इस बात को सोच पूरे रास्ते पैदल चलते चलते रोता रहा।
               घर पहुंचने पर वह एकांत में रात को सोचता रहा कि उन्होंने ऐसा क्यूं कहा माना कि मेरा एक मजदूर परिवार से संबंध है,एक मुखिया की कमाई से परिवार के चारों सदस्य का भरण-पोषण होता है, खर्चे की तंगी भी है,पर मानसिकता भी इतनी तंग हो कि मेरी दुर्दशा पर दिल ही न पसीजे और मुझे भूखा नंगा रखने की हद तक कठोर बना रहे। मनोज अपने मन को समझाता और उसको फुसलाता , लेकिन मन भी ऐसा कि आंसूओं को घूंट बनाकर पी जाता और उसकी आंखें सूखी की सूखी रह जाती। मुंह से कुछ बोलना चाहता तो होंठ कांपते।घर के बाहर मुहल्ले में गलियों या सड़क जब भी निकलता तो किसी से बात करने की हिम्मत न होती,कोई भी छोटा या बड़ा हो,किसी से इंटरेक्ट नहीं होता, चलते चलते बगल से कोई निकलता और कुशल क्षेम पूछता तो उत्तर देने की हिम्मत न होती। शायद इसी कारण कई लोग उसे "पगलुआ" कहते थे।
              मनोज को मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी " कफ़न"
 याद आने लगी, उस कहानी में गांव  का रहने वाला घीसू और उसके लड़का माधव दोनों की संवेदनहीनता की एक मिशाल है घीसू की बहू बुधिया घर के अंदर पीड़ा से तड़प रही है और पूरी रात दहाड़ मारते मारते सुबह तड़के ठंडी हो गई, पर इन लोगों के कान में  जूं तक न रेंगा । यहां तक गांव के मुखिया ने इन्हें कुछ पैसा दिया बाकी गांव वालों ने। दोनों बाजार में बजाज के पास कफ़न का कपड़ा लेने गये। तो वहां भी उन्होंने दुकान से हल्की क्वालिटी का कपड़ा लेने की इच्छा व्यक्त की क्योंकि जो पैसे बचाते उसमें देसी दारू मिल जाती जिसे पीकर अपना ग़म गलत करते।
             मनोज ने सोचा कि माना कि वह अनपढ़ हैं और इतने गरीब कि खाने के लाले पड़ रहे बस इसीलिए पढ़ाई से इतनी चिढ़, उनकी मानसिकता भी ऐसी उल्टी कि अपने अनपढेपन की इतनी तारीफ कि बोलते,पढ़ा नहीं तो क्या हुआ ? कढा तो हूं । तुम्हारे खक्खा खैया पढ़ लेने से कुछ नहीं होता।मुझे चार पढ़े लिखे लोगों के बीच बैठा दो तो सबको मात दे दूंगा।किसी भी दस्तावेज पर अंगूठा लगाना उन्हें खुद को गौरवान्वित करता था।
                 मनोज जिस दिन घंटों उनके शरीर और हाथ पैर की मालिश करता तो बहुत खुश होते। रात में सोने के पहले पिता रामलाल किस्से गढ़ गढ़ कर राग अलाप कर सुनाते और कल्पना के सुनहरे लोक में ले जाते, अच्छे विचार के पात्र को अच्छा परिणाम और बुरे सोच को बुरी स्थिति पर ले जाते थे। अंत में कहते भी थे " नेकी नेक और बदी बद होता है ,हमारे किस्से में जैसे किसान और उसके परिवार के अच्छे दिन बहुरे,भगवान ऐसे सभी के दिन बहुरावे।"
                       मुखिया रामलाल अपने परिवार के सदस्यों के भरण पोषण में अपनी हिस्सेदारी को अपने आपसे निर्धारित करते थे और प्रबल दावा भी करते थे।यही नहीं कोई उनके हिस्से में साझीदार हो तो तिलमिला जाते थे।वे क्रोध में लाल अंगार हो जाते जब मां रोली पढ़ाई के नाम पर खर्च करने को कहती। उनकी समझ कहती कि पढ़ाई पर खर्च गटर में पैसा डालने जैसा होता।मनोज को खुली चारपाई पर पुस्तक खोल कर पढ़ते देख लेते तो पारा सातवें आसमान पहुंच जाता।कुछ न कर पाने को वह तो घरैतिन रोली के सामने विवश थे।
                आज हम अपने देश को इक्कीसवीं सदी में ले जा रहें हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर देश ने अपना चन्द्रयान सफलतापूर्वक चांद की सतह पर पहुंचाया लेकिन समाज में ऐसी परिस्थिति और मानसिकता में रहने वालों की कहीं कमी नहीं है। यह समझने की बात है कि असली विकास तो ऐसे तबकों की मानसिकता और परिस्थिति बदलने की है,योजना बनाने वालों को ऐसी व्यवस्था देने की बात है जिससे वे बाध्य हो 24/7 इस सर्वहारा वर्ग का उद्धार कर सच्ची श्रेय प्राप्त कर सकें।
             

                 
  
                 



            

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इस पुस्तक में अधिकांश ऐसे वर्ग के परिवारों की कहानियों का संग्रह है जो समाज की आर्थिक संरचना की दृष्टि में लगभग पेंदे पर है , सामान्य तौर पर लोगों की नज़र इनकी समस्याओं पर न तो पड़ती है और न ही तह तक जाकर समझना चाहती ।देश के कानून के अनुसार किसी वर्ग में नहीं आता क्योंकि राजनैतिक पार्टियों का मतलब केवल वोट बैंक से है जो धर्म,जाति या क्षेत्रवादिता पर आधारित है जो उनके शक्ति देने में सहायक है। यह अछूते हैं क्योंकि इनकी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है।आरक्षण का मूल आर्थिक न होने के कारण इनसे कोई हमदर्दी भी नहीं है।इस अनछुए वर्ग के लोगों की मानसिकता भी ऐसी है जिसमें आत्मविश्वास या विल पावर न के बराबर दिखती है ये समस्याओं में ही जीते और उसी में मर जाते हैं। इनमें इतनी भी कला नहीं होती कि किसी के समक्ष कुछ कह सके।इस पुस्तक के कहानियों के माध्यम से लेखक समाज को ठेकेदारों को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि देश का वास्तविक विकास इन अनछुए वर्ग को समस्याओं से निजात देने में निहित है। कुछ विचारोत्तेजक लेख भी समाहित हैं जो सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम सब ,चाहे जितना सबल हों,नियति का हाथ हमेशा ऊपर रहता है,आखिर होनी ही तो है जो हर मनुष्य के किस्मत के साथ जुड़ी होती है, होनी और किस्मत मिलकर मनुष्य के सोच( विचार) का निर्माण करते हैं,सोच में ही तो सर्वशक्तिमान हर प्राणी में कुछ कमियां और खूबियां छोड़ देता है।वही मनुष्य के चाहे अथवा अनचाहे मन की विवशता से भवितव्यता की ओर ठेल ( धकिया)कर ले जाता है।चाहे मूक रूप से धर्मयुद्ध का शंखनाद हो या होनी के आगे कर्ण की विवशता।
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