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वे ऐसा क्यूं कर रहे?

18 अक्टूबर 2023

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          बीते दिनों को क्यूं लौटें,इससे क्या फायदा?जो होना था,वह सब कुछ हो गया।समझ में नहीं आता कि इतिहास का इतना महत्व क्यूं दिया जाता? वेंकट उन सारे मसलों को अपने विचारों की मथनी से मथ रहा था। कभी तटस्थ होकर , बीच बीच में यह सोचता भी कि जो हुआ नियति के वश हुआ। बुद्धि फिर गई उसकी,इतना इंटेलीजेंट होने से क्या मतलब? हमनें सोचा कि इंटेलीजेंट और बुद्धि फिरने में आपस का क्या संबंध? दोनों अलग अलग ऐसे विषय हैं कि इनमें कोई सहसंबंध नहीं। अच्छे अच्छे पढे लिखे और इंटेलीजेंट लोगों की सोच अच्छी नहीं होती। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी हैं जो पढ़े लिखे नहीं होते अथवा विद्वता के क्षेत्र में उनकी कोई गिनती नहीं होती।पर तार्किक इतने होते कि न्यायाधीश भी दंग रह जाए।
             फिर भी लोग क्यूं कहते हैं कि इंटेलीजेंट होने के बावजूद इस तरह का बेवकूफी का काम वह कर ही गई।शायद वे समझते हैं कि समझदारी और पढे लिखे में गहरा संबंध हैं। 
             सामान्यत: पढ़े लिखे समझदार होते हैं।यह सही है कि पढ़ने लिखने से ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं और अपने समक्ष खड़े व्यक्ति से बात करने में कोई झिझक नहीं होती ।यह सुमति,अच्छी पढ़ी लिखी और इंटेलीजेंट है। आफिस में पब्लिक रिलेशन मैनेजर होने के कारण उसकी अच्छी खासी पैठ भी है ।क्या उसको यह पता नहीं होगा कि गड्ढे में कूदने से चोट लगेगी ?वह कोई प्रहलाद तो नहीं कि दैत्यों ने पहाड़ से ढकेला तो भी तली में समाने के बाद उसके शरीर के अंदर और बाहर चोट क्या , खरोंच तक नहीं लगी।
             वेंकट के साथ आफिस में काम करने वाला और अंतरंगी मित्र सुदेश, वेंकट की बातों को बहुत ही ध्यान से सुन रहा था और अपने अन्तर्मन में अनेकों तर्क के साथ जूझ रहा रहा था ।अंत में वह बोला,अरे दोस्त! तुम ऐसा क्यों नहीं सोचते कि नियति वश मनुष्य के मन में कर्म और विकर्म का ज्ञान नहीं पैदा होता।ईश्वर मनुष्य को दुख कह कर नहीं देता या यूं कहें कि वह आगाह कर ये बताए कि हम यह विचार बुद्धि  में ला रहें हैं जिसका भविष्य में परिणाम यह होगा,मित्रवर! अच्छे बुरे विचार तो संगत से पनपते हैं।अर्थात काल अपने हाथ में लाठी लेकर नहीं दौड़ाता और न ही मारता है।वह तो धर्म,बल, बुद्धि और विवेक का हरण कर लेता है।आखिर में जब मनुष्य का अंतकाल आता है तो उसे भ्रम पैदा हो जाता है और अच्छा  बुरा,अधर्म और धर्म का ज्ञान खत्म हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में लिखा भी है
             "..........................................
             काल बिबस मन उपज न बोधा।।"
            " काल दंड गहि काहु न मारा।
                हरै धर्म बल बुद्धि बिचारा।।
             कहने की आवश्यकता नहीं कि व्यक्ति की संगत कितनी पावरफुल होती है।
         संगत से गुन होता है,संगत से गुन जाय।
         बांस फांस और मिसरी, सब एकै भाव बिकाय।।
         सर्व विदित है कि रानी कैकेई की बुद्धि दासी मंथरा  के संगत में भ्रष्ट न होती तो अयोध्या काण्ड न होता और सूर्पनखा की भावुकता ,रावण की बुद्धि को कुबुद्धि न बनाती तो लंका काण्ड न होता।
         मिस सुमति की दोस्ती श्रीमती सरोज से जो है वही मुझे संदेहास्पद लगता है। सरोज तो बिचौलिए का काम करती है , सुमति का शान्तनु से पहले दोस्ती फिर नजदीकियां ऐसे थोड़े बढ़ गई। अब लगता है कि दोनों का परिवार टूटने के कगार पर है। दोनों भावनाओं में ऐसा क्यूं कर रहें हैं? यह तो हम जैसे सामान्य आदमी के समझ में आ रहा है। इस तरह की कथाओं और कहानियों में क्या हश्र होता है?,पूरा साहित्य समाज में भरा पड़ा है। दोनों सम्भ्रांत और समृद्ध परिवार से सम्बन्ध रखते हैं।बाल बच्चे दार हैं। टी० वी० में पहले "सावधान इंडिया " और "क्राइम पेट्रोल" सीरियल आता था। क्या इन्होंने देखा और गुना नहीं होगा ?
         अब इन लोगों को समझाये कौन? बेपढों को समझाने की एक बार प्रयास भी किया जाए ,ये तो अच्छे खासे पढ़े लिखे हैं।
         सुदेश ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि इस सूचना क्रांति या मोबाइल युग ने किशोरों, नवयुवक और नवयुवतियों को ऐसा सम्मोहित कर दिया है कि वे सद्विचारों से बेहोश हो गये हैं? इन लोगों को यह पता नहीं इस प्रकार की क्रियाएं पूरे समूह को कहां ले जा रही?
         आवश्यकता इस बात की है कि कोई इन लोगों का रोल माडल बन इनको कोई ठिठका दे या सोच में डाले कि वे जो कर रहे हैं,वे क्रियाएं कहीं उनको दिशाहीन या दिग्भ्रमित तो नहीं कर रहे।
         वेंकट ने बात जोड़ी कि सुमति और शांतनु के बीच जो पक रहा है उसमें इन साधनों का रोल कम नहीं हैं। समय रहते अपने को बचाया जाए, यहीं वक्त की मांग है।
         
             



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इस पुस्तक में अधिकांश ऐसे वर्ग के परिवारों की कहानियों का संग्रह है जो समाज की आर्थिक संरचना की दृष्टि में लगभग पेंदे पर है , सामान्य तौर पर लोगों की नज़र इनकी समस्याओं पर न तो पड़ती है और न ही तह तक जाकर समझना चाहती ।देश के कानून के अनुसार किसी वर्ग में नहीं आता क्योंकि राजनैतिक पार्टियों का मतलब केवल वोट बैंक से है जो धर्म,जाति या क्षेत्रवादिता पर आधारित है जो उनके शक्ति देने में सहायक है। यह अछूते हैं क्योंकि इनकी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है।आरक्षण का मूल आर्थिक न होने के कारण इनसे कोई हमदर्दी भी नहीं है।इस अनछुए वर्ग के लोगों की मानसिकता भी ऐसी है जिसमें आत्मविश्वास या विल पावर न के बराबर दिखती है ये समस्याओं में ही जीते और उसी में मर जाते हैं। इनमें इतनी भी कला नहीं होती कि किसी के समक्ष कुछ कह सके।इस पुस्तक के कहानियों के माध्यम से लेखक समाज को ठेकेदारों को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि देश का वास्तविक विकास इन अनछुए वर्ग को समस्याओं से निजात देने में निहित है। कुछ विचारोत्तेजक लेख भी समाहित हैं जो सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम सब ,चाहे जितना सबल हों,नियति का हाथ हमेशा ऊपर रहता है,आखिर होनी ही तो है जो हर मनुष्य के किस्मत के साथ जुड़ी होती है, होनी और किस्मत मिलकर मनुष्य के सोच( विचार) का निर्माण करते हैं,सोच में ही तो सर्वशक्तिमान हर प्राणी में कुछ कमियां और खूबियां छोड़ देता है।वही मनुष्य के चाहे अथवा अनचाहे मन की विवशता से भवितव्यता की ओर ठेल ( धकिया)कर ले जाता है।चाहे मूक रूप से धर्मयुद्ध का शंखनाद हो या होनी के आगे कर्ण की विवशता।
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