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जेहि जब दिसिभ्रम होइ खगेसा........

19 मार्च 2024

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रेडियो में बड़े ध्यान से बगल की घरैतिन "लक्ष्मी " पुरानी मूवी "मदर इंडिया" का  गीत"नगरी नगरी द्वारे द्वारे........" को अपने लय में गाये जा रहीं थीं जैसे लगता मुसीबत की मारी "नर्गिस" का रोल इन्हीं को मिल गया हो। उन्मन मन से शाम को खेत से काम से लौटा बुधरू जब घर पहुंचा तो उसके कान में भी उनके यही गीत गुनगुनाने की आवाज़ आयी। उसको उल्लास के बजाय पता नहीं क्यों लगा कि उसके हृदय में किसी कल्पना के सुध करते हुए असहनीय दर्द की टीस का तीर लग गया हो।

            वह  खेत से लौटते वक्त अपने साथ हल का " फर" और "ऐरी" लाया था उसे घर के दरवाजे के बाहर रख अंदर पड़ी खटिया पर कुछ बदहवास सा बैठ गया। थोड़ी देर बाद उसकी बहू "रनिया"एक हाथ में स्टील की प्लेट में आधी चाय से भरी स्टील की लम्बी गिलास रख और दूसरे हाथ में हरे मटर की घुघुरी से भरी कटोरी लेकर अपने ससुर के सामने आई और खटिया के सामने स्टूल पर वह सब कुछ रख दिया। पूस माघ की ठंड में फलियों से ताजे मटर के दानों को खाने का क्रेज ही अलग होता है,वो भी सरसों के तेल में तली गई हो और हरे मिर्च के हल्के फ्लेवर में नमकीन हो। बुधरू ने कटोरी को उठा स्टील के चम्मच से घुघुरी के कुछ दानों को मुंह में डाला और बाद में गिलास उठाकर चाय पी तो उस स्वाद में भाव विभोर हो गया, आंखों से कुछ आंसू छलके। मैं भी अखबार को पढ़ना छोड़ उनकी तरफ देखने लगा पर आंखों से निकले आंसू किस कारण निकले, उसकी वज़ह में फंस गया। पता नहीं वो ,उसमें पड़े मिर्च के फ्लेवर से या अपने कुछ अतीत और वर्तमान के परिस्थितियों में उलझा। बुधरू के मुंह से अचानक निकले गीत " घर घर दिवाली,पर मेरे घर अंधेरा  ......" ने मेरे जेहन में तूफान खड़ा कर दिया।

           वर्षों पहले"बुधरू, जब वह अठारह साल का गबरू जवान था, अपना गांव छोड़कर शहर आकर किसी कपड़े की फैक्ट्री में काम करने आया था और कई साल काम करने के बाद वह उसमें परमानेंट हो गया था।अब वह अच्छा पैसा कमाने लगा था। पास के मुहल्ले में किराये के मकान लेकर अपनी घरैतिन के साथ रहने भी लगा। उसी फैक्ट्री में पहले से सोनेलाल मजदूरी करता था,मैनेजर ने बुधरू को उसके साथ काम पर रख दिया। सोनेलाल धूप और ठंडी से बचने के लिए अपने सिर को हमेशा सादे सफेद गमछे से कवर किए रहता था चूंकि वह ड्यूटी पर भी पहन कर जाता था इसलिए गेट के सिक्योरिटी गार्ड ने उसके गमछे पर कभी न मिटने वाली काली मुहर लगा दी थी।

              सोनेलाल लालची स्वभाव का था। ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में कपड़ा चोरी करने की युक्ति सोची। इस युक्ति में बुधरू को भी शामिल किया।अब दोनों सोची समझी चाल के तहत सतर्कता और भय के साथ पहले कभी कभी और थोड़ा थोड़ा काम करने लगे। उनके विभाग में जब कपड़े का लाट आता,उसमें किसी एक के कई साइज के टुकड़े करते इसके बाद दोनों अपनी सफेद गमछे की मुहर की पक्की काली स्याही को गर्म कर पिघलाते और लाट के किये टुकड़े पर रख उस मुहर की कापी कर देते फिर अपने कुर्ते के नीचे अथवा लुंगी बना पहनकर सिक्योरिटी आफिस से बाहर स्वतंत्र होकर निकल जाते। जब घर आते तो अपने अपने ग्राहक बना कपड़े के टुकड़े बेचते। लाभ होता देख उनमें लोभ बढ़ता गया,  अब दोनों यह काम थोड़ा निर्भीक होकर आये दिन करने लगे।

               बुधरू की पत्नी यह नाजायज़ काम देख नाराज़ होती और हर तरह से समझाती कि यह ग़लत काम है, इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। बुधरू कहता हम तो हर कपड़े के टुकड़े पर फैक्ट्री की मुहर लगाकर पुख्ता काम करता हूं। उसकी घरैतिन लक्ष्मी कहती जिस मुहर को कापी कर लगाते हो, उसके अक्षर टुकड़ों पर उल्टे हो जाते हैं। कुसंगत के कारण बुद्धि उल्टी हो गई,बुधरू यह मानने को तैयार न होता। पत्नी गीली स्याही से एक कागज़ कुछ अक्षर लिखती और बुधरू के सामने दूसरे कागज़ पर चिपकाती और कहती" देखो,ये अक्षर कैसे उल्टे हो गये।" पर वह समझने को कतई तैयार न होता। कहावत है:


"काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।"


         नियति वश उल्टी बुद्धि हो गई।उसका यह सिलसिला चलता रहा।पता नहीं वह क्यों नहीं समझा, शायद बदनसीबी उसके किस्मत में थी अतः समय पर दुष्परिणाम सामने आया।कुछ महीनों बाद बुधरू नौकरी से निकाल दिया गया।अब तो उसके सामने विपत्तियों का तूफान आ गया। पूरे परिवार की भूख तो शांत करनी ही होती है ,अब वह रोजाना मजदूरी करता कभी काम मिलता कभी न मिलता। सड़क पर ठेला खींचता,ट्राली खींचता, पैसे न होंने पर  खुद और पूरा परिवार भूखा सोता। इसी बीच घर में नवजात शिशु आया पर वह जमोगा बिमारी का शिकार होकर असमय मृत्यु को प्राप्त हो गया। 

           किसी तरह वह अपने गांव आया । घर और परिवार की दुर्दशा पर रुलाई भी नदारद हो गई,आंसू सूख चले। अब तो पुराने गीत ,कुंठाओं का दौर उसके जीवन का हिस्सा हो गये। बीते दिन एक स्वप्न और दु: स्वप्न की तरह याद करता। दुर्दिनों के दौर में उसकी घरैतिन कराहती बस एक ही सहारा रहता " जगंनियंता ईश्वर का । "

          कहते हैं कि ईश्वर दयालु है, अहैतुक करुणा बरसाते हैं।

बुधरू का बड़ा लड़का श्रीनिवास समझदार निकला। वह विद्वान के साथ बुद्धिमान भी था। पिता के दुर्दिन और दुर्दशा में ढाल बन कंधे से कंधा मिला खड़ा रहा।बुधरू के साथ अक्सर रहता।खेत से खलिहान, घर से दुकान , परिवार से पड़ोसियों तक वह अपने काम करने की शैली और समझदारी की वज़ह से घर के हर सदस्यों का लाड़ला तो था ही गांव और पुरवा, पाही में भी अपनी मददगारिता, सज्जनता,और सूझबूझ का लोहा मनवाता।गांव में छोटे से बड़े तक सबके सुख दुख में खड़ा रहता , आस पास के बच्चों को पढ़ाता ,भावना और मानवता भरी बातें सुनाता , देश और जन्मभूमि के मिट्टी के कर्ज को समझाता तथा कौन से कृत्य से इससे उऋण हुआ जा सकता समझाता जिस जमीन के टुकड़े और परिवार में पला उसे कैसे धन्य बनाया जा सकता।कहता कि मां बाप इस धरती पर जीवित देवता हैं अगर सुख और बड़प्पन लाना है तो इनकी नि: स्वार्थ और आत्मा भर कर सेवा करो क्योंकि ये ही इस स्वार्थ भरी दुनिया में वे शख्स है जो बिना किसी स्वार्थ के तुमको आनन्दमय देखना चाहते हैं और छोटी से छोटी कठिनाइयों में तुमको पाते हैं तो तड़प उठते हैं और दिन रात पर्यन्त आंसू बहाते हैं।

         उसने समय के नजाकत के साथ अपने को ढाला।पर किसी भी कीमत पर हिम्मत नहीं छोड़ी। "होनहार बिरवान के होते चीकने पात।" वह अपने चारों ओर विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सामना करता रहा, घनघोर संघर्ष किया। गांव के सभी लोग बुधरू और लक्ष्मी के भाग्य की सराहना करते और कहते कि बुधरू ने जरूर भगवान से खूब मिन्नतें की हैं और दोनों ने खूब गहरे बीज बोया है तब ऐसा लड़का लाखों में एक हुआ है।

           वास्तव में सबकी दुआएं और हृदय की सच्ची पुकार उसके साथ थी। समय आने पर बुधरू के घर का सितारा चमका । उस गांव का वह लाड़ला कलेक्टर हुआ जिससे पूरे गांव का गर्व बढ़ गया। सभी खुश थे। आज भी जब वह अपने गांव आता वहां हर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े आदमी से पूरे मन से मिलता। गांव ,घर की कठिनाइयों को समझता और सरकार और आफिस से जितनी सहायता दिला सकता , अवश्य दिलाता। आज उसका गांव उस जिले का आदर्श गांव है। सभी बुधरू के परिवार का उदाहरण देते हुए कहते जैसे उस परिवार का कष्ट से दिन बहुरे वैसे सबके अच्छे दिन आयें।

ओमप्रकाश गुप्ता की अन्य किताबें

मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सुंदर लिखा है आपने सर 👌👌 आप मेरी कहानी प्रतिउतर और प्यार का प्रतिशोध पर अपनी समीक्षा एवं लाइक जरूर करें 🙏🙏🙏

19 मार्च 2024

ओमप्रकाश गुप्ता

ओमप्रकाश गुप्ता

19 मार्च 2024

आपके सभी लेख पढ़ें हैं,समाज में स्वाभाविक रूप से उठ रहे प्रश्नों के कौतूहलका को बखूबी रेखांकित करते हुए बड़ी जिम्मेदारी के साथ प्रायोजित क्रांतिकारियों से उत्तर की अपेक्षा की है । विचारों के बहाव की दिशा परिवर्तन और नये जोश का झोंका भरने का दम्भ भरने वाले लोगों से यक्ष प्रश्न के साथ कटघरे में खड़ा किया है कि अब शकुनि के चरित्र के लिए स्थान मत ढूंढिये ईमानदारी से अपनी कर्तव्यता का अक्षरशः भूमिका निभायें, क्योंकि अब सामान्य जनमानस कहता है कि यह सब बस करो‌ जो चलता आ रहा है या कोई चलाता आ रहा है। सूचना क्रांति हो चुकी है अब कोई प्रयोग करोगे तो पकड़े जाओगे।

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रचनाएँ
वक्त की रेत पर
5.0
इस पुस्तक में अधिकांश ऐसे वर्ग के परिवारों की कहानियों का संग्रह है जो समाज की आर्थिक संरचना की दृष्टि में लगभग पेंदे पर है , सामान्य तौर पर लोगों की नज़र इनकी समस्याओं पर न तो पड़ती है और न ही तह तक जाकर समझना चाहती ।देश के कानून के अनुसार किसी वर्ग में नहीं आता क्योंकि राजनैतिक पार्टियों का मतलब केवल वोट बैंक से है जो धर्म,जाति या क्षेत्रवादिता पर आधारित है जो उनके शक्ति देने में सहायक है। यह अछूते हैं क्योंकि इनकी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है।आरक्षण का मूल आर्थिक न होने के कारण इनसे कोई हमदर्दी भी नहीं है।इस अनछुए वर्ग के लोगों की मानसिकता भी ऐसी है जिसमें आत्मविश्वास या विल पावर न के बराबर दिखती है ये समस्याओं में ही जीते और उसी में मर जाते हैं। इनमें इतनी भी कला नहीं होती कि किसी के समक्ष कुछ कह सके।इस पुस्तक के कहानियों के माध्यम से लेखक समाज को ठेकेदारों को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि देश का वास्तविक विकास इन अनछुए वर्ग को समस्याओं से निजात देने में निहित है। कुछ विचारोत्तेजक लेख भी समाहित हैं जो सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम सब ,चाहे जितना सबल हों,नियति का हाथ हमेशा ऊपर रहता है,आखिर होनी ही तो है जो हर मनुष्य के किस्मत के साथ जुड़ी होती है, होनी और किस्मत मिलकर मनुष्य के सोच( विचार) का निर्माण करते हैं,सोच में ही तो सर्वशक्तिमान हर प्राणी में कुछ कमियां और खूबियां छोड़ देता है।वही मनुष्य के चाहे अथवा अनचाहे मन की विवशता से भवितव्यता की ओर ठेल ( धकिया)कर ले जाता है।चाहे मूक रूप से धर्मयुद्ध का शंखनाद हो या होनी के आगे कर्ण की विवशता।
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