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हर घर, अपना अर्थ ढूंढ रहा है

19 दिसम्बर 2023

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   भारतीय परिवेश में 'घर' एक समूह से जुड़ा हुआ शब्द समझा जाता है जिसमें सभी सदस्य न केवल एक ही रक्त सम्बन्ध से जुड़े होते हैं बल्कि परस्पर उन सभी में उचित आदर,संवेदन, लिहाज़ और सहनशीलता आदि भावनाएं निहित होती हैं।जैसे जैसे समय बीतता गया अर्थात् प्रत्येक कल अतीत के गर्त में दफन होता गया, त्यों त्यों प्रकृति और पर्यावरण में भी बदलाव आता गया क्योंकि बदलाव स्वाभाविक क्रिया है। ऐसे में विचार और व्यवहार कहां अछूते रह सकते हैं? हौले-हौले वे भी परिवर्तित होते रहे। इनमें नित्य नये अन्वेषणों की भी अहमं भूमिका है क्योंकि नया ज्ञान पुराने ज्ञान पर हावी हो जाता है यही नहीं, नयी पद्धति भी पुरानी पद्धति को अप्रासंगिक करती गई।

            हर परिस्थितियां गुण दोष युक्त होती हैं। जटिलताओं और सुगमताओं से प्रभावित जितनी पुरातनपंथी है उतनी हीं नवीनपंथी भी।अपनी अपनी सोच की सीमाओं के कारण पुरानी पीढ़ी नवीनपंथी में एडजेस्ट नहीं करती और नयी पीढी सुगमता और सुविधा भोगी होने के कारण अंतर्मन की गूढ भावनाओं की लम्बी लम्बी प्रक्रियाओं से समाविष्ट पुरातनपंथी के साथ सामंजस्य नहीं स्थापित कर पाती। कारण साफ है शनै: शनै: आविष्कारों से, पहले की जटिल विधि सरल हो गई और जो वर्जनाएं थी विकसित मीडिया के कारण उनमें खुलापन आ गया।पहले जिस समस्या का हल ढूंढ़ने में लम्बा समय लगाता था वह चंद सेकेंड में उत्तर प्राप्त कर लेता है।अब कोई डिस्क्रिप्टिव पसंद नहीं करता , परिवर्तन के बहाव में वे आब्जेक्टिव और ग्लोबल हो गये हैं। इनमें मानवीय संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं रह गया है।बस यही प्रत्येक स्तर पर  पीढ़ियों के संघर्ष की जड़ है।

           एक पीढ़ी जिसको महत्व देती हैं उसी को दूसरी पीढ़ी नकारती है।बहस छिड़े,तो उनके अपने अपने तर्क हैं।एक के पास समय ही समय है,अपनी पहचान बनाने में उनके पास संघर्षों का पुलिंदा है अथवा यों कहें अस्तित्व बचाने के लिए स्वयं का स्वयं के रक्त के साथ लड़ाइयों का इतिहास है। आधुनिकता के सुख सुविधाओं में नयी पीढ़ी के पास समय का अभाव है।उनकी रोलिंग मशीन की तरह दिनचर्या है। कार्पोरेट जगत में पहचान बनाने की होड़ में सारी मानवीय संवेदनाओं यहां तक कि स्वस्थ्य रहने के लिए मूलभूत शारीरिक आवश्यकताओं को ताक पर रख दिये हैं।शान शौकत अथवा लाइमलाइट में बने रहने के बनावटी बाना ओढ़े हुए हैं।

           हमारी समझ में उनमें कहीं न कहीं कुछ गैप (रिक्तिता) है जो हर मनुष्य में मानवता के लिए आवश्यक है।चलो ये ना ही सही ,कम से कम वह पशुता ही ओढ़ लें जो नेचर ने सभी पशुओं में स्वाभाविक रूप से दे रखी है।अब तो हालत यह है कि हम मानव अपनी सुरक्षा के कुत्तों (जानवर) पर भरोसा कर सकतें हैं पर रक्त संबंधियों पर नहीं।

            सोचनीय विषय है कि अब मुझमें आखिर वो बात कहाँ रह गई है कि घर को मुझमें खोजना पड रहा है।पहले हम अपने "हम " से भरपूर थे और घर अपने "शब्द की सनातनी सार्थकता" और तर्क की शाश्वता में मशगूल था।हमको यह विचार करना चाहिए कि घर अवयक्त जरूर है पर मूक और जड होने के बावजूद वह वो अर्थ वाला जीवन क्यों खोज रहा है जो मनुष्य को मनुष्य होने की प्रेरणा दे ? वह अनवरत जीवन में वह संवेदना उकेरने में क्यों जुटा है जिससे बडी से बडी जंग जीत ली जाती थी।यहाॅ तक कि प्रायः घर का दरवाजे पर  प्रेयसी के कपोलों का अंकित स्थान,जो थपकी पाने को लालायित थी और उसकी हर टकटकी को सुबह के मिलने पर आत्मसात कर लेता था ।घर के छत वाले पंखे में वह भावनात्मक बात पता नहीं कहाँ गुम हो गई और जो पिता के अंतर्मन में आंदोलित होती भावनाएं घड़ी के हिलते पेंडुलम के सहारे घंटे गिन लेतीं थीं और माॅ के फिक्र की तरह हर चीजें बैचैन रहती थी।

              लगता जरूर है कि अब हम  घर और मकान के बीच का फर्क भूल गये हैं।कहीँ यह सच तो नहीं कि हमें अब हम इनके बीज बोने का वक्त ही नहीं तलाश पा रहे।निश्चित ही इसकी खेती खुशियों की फसल लेकर आती है लेकिन उसके लिए पारस्परिक विश्वास की जमीन और अपनत्व की उष्णता के बीज पास में होना आवश्यक है।घरौदें में रहकर फिर वही दादी की कहानियाँ सुनने और बरसात में बाहर निकलकर कागज की किश्तियाॅ तैराने  की माद्दा पैदा करनी होगी जिससे मानव मानव के प्रति  संवेदनशील हो।


ओमप्रकाश गुप्ता 

बैलाडीला, दन्तेवाड़ा

छत्तीसगढ़

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मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सुंदर लिखा है आपने सर 👌 आप मेरी कहानी प्रतिउतर और प्यार का प्रतिशोध पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

20 दिसम्बर 2023

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रचनाएँ
वक्त की रेत पर
5.0
इस पुस्तक में अधिकांश ऐसे वर्ग के परिवारों की कहानियों का संग्रह है जो समाज की आर्थिक संरचना की दृष्टि में लगभग पेंदे पर है , सामान्य तौर पर लोगों की नज़र इनकी समस्याओं पर न तो पड़ती है और न ही तह तक जाकर समझना चाहती ।देश के कानून के अनुसार किसी वर्ग में नहीं आता क्योंकि राजनैतिक पार्टियों का मतलब केवल वोट बैंक से है जो धर्म,जाति या क्षेत्रवादिता पर आधारित है जो उनके शक्ति देने में सहायक है। यह अछूते हैं क्योंकि इनकी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है।आरक्षण का मूल आर्थिक न होने के कारण इनसे कोई हमदर्दी भी नहीं है।इस अनछुए वर्ग के लोगों की मानसिकता भी ऐसी है जिसमें आत्मविश्वास या विल पावर न के बराबर दिखती है ये समस्याओं में ही जीते और उसी में मर जाते हैं। इनमें इतनी भी कला नहीं होती कि किसी के समक्ष कुछ कह सके।इस पुस्तक के कहानियों के माध्यम से लेखक समाज को ठेकेदारों को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि देश का वास्तविक विकास इन अनछुए वर्ग को समस्याओं से निजात देने में निहित है। कुछ विचारोत्तेजक लेख भी समाहित हैं जो सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम सब ,चाहे जितना सबल हों,नियति का हाथ हमेशा ऊपर रहता है,आखिर होनी ही तो है जो हर मनुष्य के किस्मत के साथ जुड़ी होती है, होनी और किस्मत मिलकर मनुष्य के सोच( विचार) का निर्माण करते हैं,सोच में ही तो सर्वशक्तिमान हर प्राणी में कुछ कमियां और खूबियां छोड़ देता है।वही मनुष्य के चाहे अथवा अनचाहे मन की विवशता से भवितव्यता की ओर ठेल ( धकिया)कर ले जाता है।चाहे मूक रूप से धर्मयुद्ध का शंखनाद हो या होनी के आगे कर्ण की विवशता।
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महा धर्मयुद्ध का शंखनाद

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इतिहास गवाह है कि प्रत्येक क्रांतिकारी युगपरिवर्तन के लिए धर्मयुद्ध हुआ है उसका स्वरूप चाहे जैसा भी हो।कभी कभी अस्तित्व के लिए परिस्थियों से संघर्ष,कुछ संवेगो और आवेगों को

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छठी की वो काली रात

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- अंधविश्वास के चक्कर में जान गंवाने या जान लेने के हादसे बहुत दर्दनाक होते हैं खासतौर से नाबालिग बच्चों की मौत,काला जादू और चुड़ैलों के कपोल कहानियों के चलते&nb

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कुछ तो गूढ़ बात है!

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ओम के दिमाग में पता नहीं,कब होश आया? कब विचार कौंधा? उसने अपनी दिनचर्या में उस नगर निगम के वृजेन्द्र स्वरूप पार्क में रोज सुबह शाम टहलने का विचार बनाया। विचार तो नैसर्गिक ह

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दो बच्चों के स्वर्गलोक सिधार जाने के बाद तीसरे बच्चे के रूप में किशोर(नामकरण के बाद रखा नाम) जब गर्भ में आया तो उसकी मां रमाबाई अज्ञात डर और बुरी

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सुरेश को अपनी सत्तर वर्ष लम्बी की लम्बी जीवन यात्रा तय करने के बाद जाने क्यों अब लगने लगा कि इस महानगर में निर्मित पत्थरों के टावरों के जंगल में किसी एक छेद नुमा घोंसले में कबूतरों की तरह रहते रहते मन

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वो पुरानी चादर, नसीबवाली थी

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बहुतायत में लोग कहते हैं कि प्राणी का जन्म मात्र इत्तेफाक ही नहीं होता, पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाले लोग इसके साथ प्रारब्ध, क्रियमाण भी जोड़ देते हैं

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वे ऐसा क्यूं कर रहे?

18 अक्टूबर 2023
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बीते दिनों को क्यूं लौटें,इससे क्या फायदा?जो होना था,वह सब कुछ हो गया।समझ में नहीं आता कि इतिहास का इतना महत्व क्यूं दिया जाता? वेंकट उन सारे मसलों को अपने विचारों क

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वह कुप्पी जली तो,,,,,,,

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जब अपने सपनों की मंजिल सामने हो और हासिल करने का जज्बा हो।इसके अलावा जज्बे को ज्वलंत करने के मजबूत दिमाग और लेखनी में प्रबल वेग से युक्त ज्ञानरुप

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चल चला के बीच,लगाई दो घींच

25 अक्टूबर 2023
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उन दिनों, जब पूस की ठंड अपने शबाब पर होती, गांव में हमारे घर के सामने चौपाल लगती,लगे भी क्यों न? वहीं पुरखों ने एक बरगद का पेड़ लगा रखा हैं। बुजुर्ग व्यक्ति र

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सकउं पूत पति त्यागि

27 अक्टूबर 2023
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नया दौर है ,खुली हवा में सांस लेने की दिल में चाह लिए आज की पीढी कुछ भी करने को आतुर रहती हैं।मन में जो आये हम वही करेंगे ,किसी प्रकार की रोक-टोक

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एक किता कफ़न

31 अक्टूबर 2023
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आखिर उस समय उन्होंने अस्पताल में एडमिट मां के बेड के सामने, जो खुद अपने बिमारी से परेशान है , इस तरह की बातें क्यों की?इसके क्या अर्

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कर्ण,अब भी बेवश है

8 नवम्बर 2023
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चाहे काली रात हो,या देदीप्यमान सूर्य से दमकता दिन। घनघोर जंगल में मूसलाधार बरसात जिसके बीच अनजान मंजिल का रास्ता घने कुहरे से पटा हुआ जिस पर पांच कदम आगे बढ़ाने पर भ

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आत्ममुग्धता, वातायन की

23 नवम्बर 2023
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मैंने न जाने कितने तुम्हारे छुपे हुए दीवानापन, बेगानापन, अल्हड़पन और छिछोरापन के अनेकों रूप देखें हैं।मेरी आड़ में सामने निधडक खड़े,बैठे,सोये,अपने धुन में मस्त दूसरो

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सोच, व्यव्स्था बदलाव की

26 नवम्बर 2023
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लगभग वर्ष 1973 की बात है,मेरी आयु भी 17 वर्ष के आस पास थी;अपने निवास स्थान से थोड़ी दूर स्थित बृजेन्द्र स्वरूप पार्क में सुबह शाम टहलना हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा हुआ करता था।यह एक ऐसा सा

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हर घर, अपना अर्थ ढूंढ रहा है

19 दिसम्बर 2023
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दुखड़ा किससे कहूं?

6 जनवरी 2024
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पता नहीं क्यों,आज दिन ढलते ही गर्मी से निजात पाने "अनुभव"अपने हवेली की खुली छत पर खुली हवा में सांस लेते हुए अपनी दोनों आंखें फाड़े हुए नीले व्योम के विस्तार को भरपूरता से देख रह

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शहरों से न्यारा मेरा गांव

16 जनवरी 2024
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मनराखन बाबू फर्श पर बिछी चटाई पर बैठे थे और लकड़ी की चौकी पर कांसे की थाली में उनके लिए भोजन परसा जा रहा था। नैसर्गिक और छलहीन प्रेम और बड़े सम्मान के स

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जेहि जब दिसिभ्रम होइ खगेसा........

19 मार्च 2024
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रेडियो में बड़े ध्यान से बगल की घरैतिन "लक्ष्मी " पुरानी मूवी "मदर इंडिया" का गीत"नगरी नगरी द्वारे द्वारे........" को अपने लय में गाये जा रहीं थीं जैसे लगता मुसीबत की मारी "नर्गिस" का रोल इन्हीं

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शकुनि कब तक सफ़ल रहेगा?

23 मार्च 2024
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पता नहीं लोग उजाले को ही क्यों देखते हैं,हमने माना कि ज्ञान सूर्य तुल्य है , शक्ति से परिपूर्ण है , वैभवशाली है और आकर्षक है पर सम्पूर्ण नहीं है । आखिरकार इसक

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तेज कदमों से बाहर निकलते समय

21 अप्रैल 2024
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हमें जिंदगी में लाना होगा भरोसा जो कदम कदम पर जिंदगी की आहट को उमंगो की तरह पिरो दे, और वह अर्थ खोजना होगा जो मनुष्य को मनुष्य होने की प्रेरणा दे।वह लम्हे चुरा

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एक , वही मलाल

16 मई 2024
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कोई भी मनुष्य अपने जीवन को परिपूर्ण तथा महत्तम आनन्दमय बनाने लिए मनपसंद मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र है पर उस मार्ग की दशा और दिशा का पूर्णतः निर्धारण नियति ही

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