भारतीय परिवेश में 'घर' एक समूह से जुड़ा हुआ शब्द समझा जाता है जिसमें सभी सदस्य न केवल एक ही रक्त सम्बन्ध से जुड़े होते हैं बल्कि परस्पर उन सभी में उचित आदर,संवेदन, लिहाज़ और सहनशीलता आदि भावनाएं निहित होती हैं।जैसे जैसे समय बीतता गया अर्थात् प्रत्येक कल अतीत के गर्त में दफन होता गया, त्यों त्यों प्रकृति और पर्यावरण में भी बदलाव आता गया क्योंकि बदलाव स्वाभाविक क्रिया है। ऐसे में विचार और व्यवहार कहां अछूते रह सकते हैं? हौले-हौले वे भी परिवर्तित होते रहे। इनमें नित्य नये अन्वेषणों की भी अहमं भूमिका है क्योंकि नया ज्ञान पुराने ज्ञान पर हावी हो जाता है यही नहीं, नयी पद्धति भी पुरानी पद्धति को अप्रासंगिक करती गई।
हर परिस्थितियां गुण दोष युक्त होती हैं। जटिलताओं और सुगमताओं से प्रभावित जितनी पुरातनपंथी है उतनी हीं नवीनपंथी भी।अपनी अपनी सोच की सीमाओं के कारण पुरानी पीढ़ी नवीनपंथी में एडजेस्ट नहीं करती और नयी पीढी सुगमता और सुविधा भोगी होने के कारण अंतर्मन की गूढ भावनाओं की लम्बी लम्बी प्रक्रियाओं से समाविष्ट पुरातनपंथी के साथ सामंजस्य नहीं स्थापित कर पाती। कारण साफ है शनै: शनै: आविष्कारों से, पहले की जटिल विधि सरल हो गई और जो वर्जनाएं थी विकसित मीडिया के कारण उनमें खुलापन आ गया।पहले जिस समस्या का हल ढूंढ़ने में लम्बा समय लगाता था वह चंद सेकेंड में उत्तर प्राप्त कर लेता है।अब कोई डिस्क्रिप्टिव पसंद नहीं करता , परिवर्तन के बहाव में वे आब्जेक्टिव और ग्लोबल हो गये हैं। इनमें मानवीय संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं रह गया है।बस यही प्रत्येक स्तर पर पीढ़ियों के संघर्ष की जड़ है।
एक पीढ़ी जिसको महत्व देती हैं उसी को दूसरी पीढ़ी नकारती है।बहस छिड़े,तो उनके अपने अपने तर्क हैं।एक के पास समय ही समय है,अपनी पहचान बनाने में उनके पास संघर्षों का पुलिंदा है अथवा यों कहें अस्तित्व बचाने के लिए स्वयं का स्वयं के रक्त के साथ लड़ाइयों का इतिहास है। आधुनिकता के सुख सुविधाओं में नयी पीढ़ी के पास समय का अभाव है।उनकी रोलिंग मशीन की तरह दिनचर्या है। कार्पोरेट जगत में पहचान बनाने की होड़ में सारी मानवीय संवेदनाओं यहां तक कि स्वस्थ्य रहने के लिए मूलभूत शारीरिक आवश्यकताओं को ताक पर रख दिये हैं।शान शौकत अथवा लाइमलाइट में बने रहने के बनावटी बाना ओढ़े हुए हैं।
हमारी समझ में उनमें कहीं न कहीं कुछ गैप (रिक्तिता) है जो हर मनुष्य में मानवता के लिए आवश्यक है।चलो ये ना ही सही ,कम से कम वह पशुता ही ओढ़ लें जो नेचर ने सभी पशुओं में स्वाभाविक रूप से दे रखी है।अब तो हालत यह है कि हम मानव अपनी सुरक्षा के कुत्तों (जानवर) पर भरोसा कर सकतें हैं पर रक्त संबंधियों पर नहीं।
सोचनीय विषय है कि अब मुझमें आखिर वो बात कहाँ रह गई है कि घर को मुझमें खोजना पड रहा है।पहले हम अपने "हम " से भरपूर थे और घर अपने "शब्द की सनातनी सार्थकता" और तर्क की शाश्वता में मशगूल था।हमको यह विचार करना चाहिए कि घर अवयक्त जरूर है पर मूक और जड होने के बावजूद वह वो अर्थ वाला जीवन क्यों खोज रहा है जो मनुष्य को मनुष्य होने की प्रेरणा दे ? वह अनवरत जीवन में वह संवेदना उकेरने में क्यों जुटा है जिससे बडी से बडी जंग जीत ली जाती थी।यहाॅ तक कि प्रायः घर का दरवाजे पर प्रेयसी के कपोलों का अंकित स्थान,जो थपकी पाने को लालायित थी और उसकी हर टकटकी को सुबह के मिलने पर आत्मसात कर लेता था ।घर के छत वाले पंखे में वह भावनात्मक बात पता नहीं कहाँ गुम हो गई और जो पिता के अंतर्मन में आंदोलित होती भावनाएं घड़ी के हिलते पेंडुलम के सहारे घंटे गिन लेतीं थीं और माॅ के फिक्र की तरह हर चीजें बैचैन रहती थी।
लगता जरूर है कि अब हम घर और मकान के बीच का फर्क भूल गये हैं।कहीँ यह सच तो नहीं कि हमें अब हम इनके बीज बोने का वक्त ही नहीं तलाश पा रहे।निश्चित ही इसकी खेती खुशियों की फसल लेकर आती है लेकिन उसके लिए पारस्परिक विश्वास की जमीन और अपनत्व की उष्णता के बीज पास में होना आवश्यक है।घरौदें में रहकर फिर वही दादी की कहानियाँ सुनने और बरसात में बाहर निकलकर कागज की किश्तियाॅ तैराने की माद्दा पैदा करनी होगी जिससे मानव मानव के प्रति संवेदनशील हो।
ओमप्रकाश गुप्ता
बैलाडीला, दन्तेवाड़ा
छत्तीसगढ़